अबु जाफ़र हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.)

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अबु जाफ़र हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) लेखक:
कैटिगिरी: इमाम बाक़िर (अ)

अबु जाफ़र हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.)

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना नजमुल हसन करारवी
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अबु जाफ़र हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.)

अबु जाफ़र हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.)

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

बाक़रे आले मोहम्मद और ज़ैनुल आबेदीन

किस तरह ज़िन्दा रहे गोया है राज़े किबरिया

करबला की हर बला हर इब्तेला को झेल कर

ज़िन्दगी इनकी हक़ीक़त में है ज़िन्दा मोजेज़ा

साबिर थरयानी (कराची)

हुआ पैदा जहां में , आज वह हमनामे पैग़म्बर

लक़ब बाक़िर है जिसका और कुन्नियत अबु जाफ़र

इमामुल तमुत्तकीं , मन्सूस और मासूम आलम में

नबी का पांचवां नायब , हमारा पांचवां रहबर

हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स अ व व ) के पांचवें जा नशीन , हमारे पांचवें इमाम और सिलसिला ए अस्मत की सातवीं कड़ी थे। आपके वालिदे माजिद सय्यदुस साजेदीन हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) थे और वालेदा माजेदा उम्मे अब्दुल फातेमा बिन्ते हज़रत इमाम हसन (अ.स.) थीं। उलमा का इत्तेफ़ाक़ है कि आप बाप और मां दोनों की तरफ़ से अलवी और नजीबुत तरफ़ैन हाशमी थे। नसब का यह शरफ़ किसी को भी नहीं मिला।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 120 व मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 269 ) आप अपने आबाओ की तरह इमाम मन्सूस , मासूम , इल्मे ज़माना और अफ़ज़ले काएनात थे यानी ख़ुदा की तरफ़ से आप इमाम मासूम और अपने अहदे इमामत में सब से बडे़ आलिम और काएनात में सब से अफ़ज़ल थे।

अल्लामा इब्ने हजर मक्की लिखते हैं कि आप इबादत इल्म और ज़ोहद वग़ैरा में हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की जीती जागती तस्वीर थे।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 120 ) अल्लामा मोहम्मद तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि आप इल्म ज़ोहद , तक़वा तहारत सफ़ाए क़ल्ब और दीगर महासिन व फ़ज़ाउल में इस दर्जा पर फ़ाएज़ थे कि यह सिफ़ात खुद इनकी तरफ़ इन्तेसाब से मुम्ताज़ क़रार पाया।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 269 )

अल्लामा इब्ने साद का कहना है कि आप ताबेईन के तीसरे तबक़े में से थे और बहुत बड़े आलम , आबिद और सुक़्क़ा थे। इब्ने शाहब ज़हरी और इमाम निसाई ने आपको सुक़्क़ा फ़क़ीह लिखा है। फ़कु़हा की बड़ी जमाअत ने आप से रवायत की है। अता का बयान है कि उलमा को अज़रूए इल्म किसी के सामने इस क़दर अपने आप का झूठा समझते हुए नहीं देखा जिस तरह कि वह अपने आपको इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) के रू ब रू समझते थे। मैंने हाकिम जैसे आलिम को उनके सामने सिपर अन्दाख़्ता देखा है।(अरजहुल मतालिब पृष्ठ 446 )

साहबे रौज़तुल पृष्ठ का कहना है कि हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) के फ़ज़ाएल लिखने के लिये एक अलाहेदा किताब दरकार है। ख़्वाजा मोहम्मद पारसा लिखते हैं कि ‘‘ इमाम बारआ मजमुए जलालहू व कमालहू ’’ आप अज़ीमुश्शान इमाम व पेशवा और जामेए सफ़ात जलाल व कमाल थे।(फ़सल अल ख़ताब)

अल्लामा शेख़ मोहम्मद खि़ज़री लिखते हैं कि इमाम मोहम्मदे बाक़िर (अ.स.) अपने ज़माने में बनी हाशिम के सरदार थे।(तारीख़े फ़क़ा पृष्ठ 179 प्रकाशित कराची)

आपकी विलादत बा सआदत

हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) ब तारीख़ यकुम रजबुल मुरज्जब 57 हिजरी यौमे जुमा मदीना ए मुनव्वरा में पैदा हुए।(अल्लामा अलवरी पृष्ठ 155 व जलाल उल उयून पृष्ठ 26 व जनातुल ख़लूद पृष्ठ 25 )

अल्लामा मजलिसी फ़रमाते हैं कि जब आप बतने मादर में तशरीफ़ लाए तो आबाओ अजदाद की तरह आपके घर में आवाज़े गै़बी आने लगी और जब नौ माह के हुए तो फ़रिश्तों की बेइन्तेहा आवाज़ें आने लगीं और शबे विलादत एक नूर साते हुआ। विलादत के बाद क़िबला रूख़ हो कर आसमान की तरफ़ रूख़ फ़रमाया और(आदम की मानिन्द) तीन बार छींकने के बाद हम्दे खुदा बजा लाए , एक शबाना रोज़ दस्ते मुबारक से नूर साते रहा। आप ख़तना करदा , नाफ़ बुरीदा , तमाम अलाइशों से पाक और साफ़ मुतवल्लिद हुए थे।(जलाल अल उयून पृष्ठ 259 )

इस्मे गिरामी , कुन्नियत और अलक़ाब

आपका इस्मे गिरामी ‘‘ लौहे महफ़ूज़ ’’ के मुताबिक़ और सरवरे काएनात (स. अ.) की ताय्युन के मुआफ़िक़ ‘‘ मोहम्मद ’’ था। आपकी कुन्नियत ‘‘ अबू जाफ़र ’’ थी और आपके अलक़ाब कसीर थे जिनमें बाक़िर , शाकिर , हादी ज़्यादा मशहूर हैं।(मतालेबुस सूऊल शवाहेदुन नबूअत पृष्ठ 181 )

बाक़िर की वजह तसमिया

बाक़िर बक़रह से मुशतक और इसी का इस्म फ़ाएल है इसके मानी शक करने और वसअत देने के हैं।(अलमन्जिद पृष्ठ 41 ) हज़रत इमाम मोहम्मदे बाक़िर (अ.स.) को इस लक़ब से इस लिये मुलक़्क़ब किया गया था कि आपने उलूम व मआरिफ़ को नुमाया फ़रमाया और हक़ाएक़ अहकाम व हिकमत व लताएफ़ के वह सरबस्ता ख़ज़ाने ज़ाहिर फ़रमाए जो लोगों पर ज़ाहिरो हुवैदा न थे।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 10, मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 269, शवाहेदुन नबूअत पृष्ठ 181 )

जौहरी ने अपनी सहाह में लिखा है कि ‘‘ तवससया फ़िल इल्म ’’ को बक़रह कहते है। इसी लिये इमाम मोहम्मद बिन अली को बाक़िर से मुलक़्क़ब किया जाता है। अल्लामा सिब्ते इब्ने जौज़ी का कहना है कि कसरते सुजूद की वजह से चुंकि आपकी पेशानी वसी थी इस लिये आपको बाक़िर कहा जाता है और एक वजह यह भी है कि जामिय्यत इलमिया की वजह से आपको यह लक़ब दिया गया है। शहीदे सालिस अल्लामा नूर उल्लाह शुश्तरी का कहना है कि आँ हज़रत (स. अ.) ने इरशाद फ़रमाया है कि इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) उलूमो मारिफ़ को इस तरह शिग़ाफ़ता करेंगे जिस तरह ज़ेराअत के लिये ज़मीन शिग़ाफ़ता की जाती है।(मजालिस अल मोमेनीन पृष्ठ 117 )

बादशाहाने वक़्त

आप 57 हिजरी में मावीया इब्ने अबी सुफ़ियान के अहद में पैदा हुए 60 हिजरी में यज़ीद बिन मावीयाा बादशाहे वक़्त रहा 64 हिजरी में मावीया बिन यज़ीद और मरवान बिन हकम बादशाह रहे। 65 हिजरी से 86 हिजरी तक अब्दुल्ल मलिक बिन मरवान ख़लीफ़ा ए वक़्त रहा। फिर 86 से 96 हिजरी तक वलीद बिन अब्दुल मलिक ने हुक्मरानी की। इसी ने 95 हिजरी में आपके वालिदे माजिद को दर्जए शहादत पर फ़ाएज़ कर दिया। इसी 95 हिजरी से आपकी इमामत का आग़ाज़ हुआ और 114 हिजरी तक आप फ़राएज़े इमामत अदा फ़रमाते रहे। इसी दौरान वलीद अब्दुल मलिक के बाद सलमान बिन अब्दुल मलिक , उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ , यज़ीद इब्ने अब्दुल मलिक और हश्शाम बिन अब्दुल मलिक बादशाहे वक़्त रहे।(अलाम अल वरा पृष्ठ 156 )

वाक़ेए करबला में इमाम मोहम्मदे बाक़िर (अ.स.) का हिस्सा

आपकी उमर अभी ढाई साल की थी कि आपको हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के हम्राह वतने अज़ीज़ मदीना ए मुनव्वरा छोड़ना पड़ा। फिर मदीना से मक्का और वहां से करबला तक की सऊबते सफ़र बरदाश्त करना पड़ी। इसके बाद वाक़ेए करबला के मसाएब देखे , कूफ़ाओ शाम के बाज़ारों और दरबारों का हाल देखा। एक साल शाम में क़ैद रहे फिर वहां से छूट कर 8 रबीउल अव्वल 62 हिजरी को मदीना ए मुनव्वरा वापस हुए। जब आपकी उमर चार साल की हुई तो आप एक दिन कुंए में गिर गए। ख़ुदा ने आपको डूबने से बचा लिया और जब आप पानी से बरामद हुए तो आपके कपड़े और आपका बदन तक भीगा हुआ न था।(मुनाक़िब जिल्द 4 पृष्ठ 109 )

हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) और जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी की बाहमी मुलाक़ात

यह मुसल्लेमा हक़ीक़त है कि हज़रत मोहम्मद (स. अ.) ने अपनी ज़ाहेरी ज़िन्दगी के एख़्तेमाम पर इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) की विलादत से तक़रीबन 46 साल पहले जाबिर बिन अब्दुल्लाह अन्सारी के ज़रिए से इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) को सलाम कहलाया था। इमाम (अ.स.) का यह शरफ़ इस दरजे मुम्ताज़ है कि आले मोहम्मद (स. अ.) में से कोई भी इसकी हमसरी नहीं कर सकता।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 272 )

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि सरवरे काएनात(स. अ.) एक दिन अपनी आग़ोशे मुबारक में हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) को लिये हुए प्यार कर रहे थे नागाह आपके साहबी ए ख़ास जाबिर बिन अब्दुल्लाह हाज़िर हुए। हज़रत ने जाबिर को देख कर फ़रमाया ऐ जाबिर मेरे इस फ़रज़न्द की नस्ल से एक बच्चा पैदा होगा जो इल्मो हिकमत से भर पूर होगा। ऐ जाबिर ! तुम उसका ज़माना पाओगे और उस वक़्त तक ज़िन्दा रहोगे जब तक वह सतहे अर्ज़ पर न आ जाये। ऐ जाबिर ! देखो जब तुम उस से मिलना तो उसे मेरा सलाम कह देना। जाबिर ने इस ख़बर और इस पेशीनगोई को कमाले मसर्रत के साथ सुना और उसी वक़्त से इस बहज़त आफ़रीं साअत का इन्तेज़ार करना शुरू कर दिया। यहां तक कि चश्मे इंतेज़ार पत्थरा गई और आंखों का नूर जाता रहा। जब तक आप बीना थे हर मजलिस व महफ़िल में तलाश करते रहे और जब नूरे नज़र जाता रहा तो ज़बान से पुकारना शुरू कर दिया। आपकी ज़बान पर जब हर वक़्त इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) का नाम रहने लगा तो लोग यह कहने लगे कि जाबिर का दिमाग़ जा़ैफ़े पीरी की वजह से अज़कार रफता हो गया है लेकिन बहर हाल वह वक़्त आ ही गया कि आप पैग़ामे अहमदी और सलामे मोहम्मदी पहुँचाने में कामयाब हो गए। रावी का बयान है कि हम जनाबे जाबिर के पास बैठे हुए थे कि इतने में इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) तशरीफ़ लाए आपके हमराह आपके फ़रज़न्द इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) भी थे। इमाम (अ.स.) ने अपने फ़रज़न्द अरजुमन्द से फ़रमाया कि चचा जाबिर बिन अब्दुल्लाह अनसारी के सर का बोसा दो। उन्होंने फ़ौरन तामील इरशाद फ़रमाया , जाबिर ने इनको अपने सीने से लगा लिया और कहा कि इब्ने रसूल (अ.स.) आपको आपके जद्दे नाम दार हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा(स. अ.) ने सलाम फ़रमाया है। हज़रत ने कहा ऐ जाबिर इन पर और तुम पर मेरी तरफ़ से भी सलाम हो। इसके बाद जाबिर इब्ने अब्दुल्लाह अनसारी ने आप से शफ़ाअत के लिये ज़मानत की दरख़्वास्त की। आपने उसे मनज़ूर फ़रमाया और कहा कि मैं तुम्हारे जन्नत में जाने का ज़ामिन हूँ।

(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 120 वसीला अल नजात पृष्ठ 338 मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 373 शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 181, नूरूल अबसार पृष्ठ 14, रेजाल कशी पृष्ठ 27 तारीख़ तबरी जिल्द 3 पृष्ठ 96 मजालिस अल मोमेनीन पृष्ठ 117 )

अल्लामा मोहम्मद बिन तल्हा शाफ़ेई का बयान है कि आँ हज़रत ने यह भी फ़रमाया था कि ‘‘ अन बकारक बादा रौयते ही यसरा ’’ कि ऐ जाबिर मेरा पैग़ाम पहुँचाने के बाद बहुत थोड़ा ज़िन्दा रहोगे चुनान्चे ऐसा ही हुआ।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 273 )

सात साल की उम्र में इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) का हज्जे ख़ाना ए काबा

अल्लामा जामी तहरीर फ़रमाते हैं कि रावी बयान करता है कि मैं हज के लिये जा रहा था , रास्ता पुर ख़तर और इन्तेहाई तारीक था। जब मैं लक़ो दक़ सहरा में पहुँचा तो एक तरफ़ से कुछ रौशनी की किरन नज़र आई मैं उसकी तरफ़ देख ही रहा था कि नागाह एक सात साल का लड़का मेरे क़रीब आ पहुँचा। मैंने सलाम का जवाब देने के बाद उस से पूछा कि आप कौन हैं ? कहां से आ रहे हैं और कहां का इरादा है और आपके पास ज़ादे राह क्या है ? उसने जवाब दिया , सुनो में ख़ुदा की तरफ़ से आ रहा हूँ और ख़ुदा की तरफ़ जा रहा हूँ। मेरा ज़ादे राह ‘‘ तक़वा ’’ है मैं अरबी उल नस्ल , कुरैशी ख़ानदान का अलवी नजा़द हूँ। मेरा नाम मोहम्मद बिन अली बिन हुसैन बिन अली बिन अबी तालिब है। यह कह कर वह नज़रों से ग़ायब हो गए और मुझे पता न चल सका कि आसमान की तरफ़ परवाज़ कर गये या ज़मीन में समा गये।(शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 183 )

हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) और इस्लाम में सिक्के की इब्तेदा

मुवर्रिख़ शहीर ज़ाकिर हुसैन तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 42 में लिखते हैं कि अब्दुल मलिक बिन मरवान ने 75 हिजरी में इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) की सलाह से इस्लामी सिक्का जारी किया। इससे पहले रोम व ईरान का सिक्का इस्लामी ममालिक में भी जारी था।

इस वाक़िये की तफ़सील अल्लामा दमीरी के हवाले से यह है कि एक दिन अल्लामा किसाई से ख़लीफ़ा हारून रशीद अब्बासी ने पूछा कि इस्लाम में दिरहम व दीनार के सिक्के कब और क्यों कर राएज हुए ? उन्होंने कहा कि सिक्कों का इजरा ख़लीफ़ा अब्दुल मलिक बिन मरवान ने किया है लेकिन इसकी तफ़सील से ना वाक़िफ़ हूँ और मुझे नहीं मालूम कि इनके इजरा और ईजाद की ज़रूरत क्यों महसूस हुई। हारून रशीद ने कहा कि बात यह है कि ज़माना ए साबिक़ में जो कागज़ वग़ैरा ममालिके इस्लाकिया में मुस्तमिल होते थे वह मिस्र में तैय्यार हुआ करते थे जहां उस वक़्त नसरानियो की हुकूमत थी और वह तमाम के तमाम बादशाहे रूम के मज़हब पर थे। वहां के कागज़ पर जो ज़र्ब यानी (ट्रेड मार्क) होता था। उसमें ब ज़बाने रोम (अब इब्न रूहुल क़ुदस) लिखा होता था। ‘‘ फ़लम यज़ल ज़ालेका कज़ालेका फ़ी सदरूल इस्लाम कल्लाह बेमआनी अलेहा काना अलैहा ’’ और यही चीज़ इस्लाम में जितने दौर गुज़रे थे सब में रायज थी। यहां तक कि जब अब्दुल मलिक बिन मरवान का ज़माना आया तो चूंकि वह बड़ा जे़हीन और होशियार था लेहाज़ा उसने तरजुमा करा के गर्वनरे मिस्र को लिखा कि तुम रूमी ट्रेड मार्क को मौकूफ़ व मतरूक कर दो यानी कागज़ कपड़े वग़ैरा जो अब तय्यार हों उनमें यह निशान न लगने दो बल्कि उन पर यह लिखवाओ ‘‘ शहद अल्लाह अन्हा ला इलाहा इला हनो ’’ चुनान्चे इस अमल पर अमल दरामद किया गया। जब इन नये मार्क के कागज़ों का जिन पर कलमाए तौहीद सब्त था रवाज पाया तो क़ैसरे रोम को बे इन्तेहा नागवार गुज़रा। उसने तोहफ़े तवाएफ़ भेज कर अब्दुल मलिक बिन मरवान ख़लीफ़ा ए वक़्त को लिखा कि कागज़ वग़ैरा पर जो मार्क पहले था वही बदस्तूर जारी करो। अब्दुल मलिक ने हदिये लेने से इन्कार कर दिया और सफ़ीर को तोहफ़ों और हदाया समैत वापस भेज दिया और उसके ख़त का जवाब तक न दिया।

क़ैसरे रोम ने तहाएफ़ को दुगना कर के भेजा और लिखा कि तुमने मेरे तहाएफ़ कम समझ कर वापस कर दिया इस लिये अब इज़ाफ़ा कर के भेज रहा हूँ इसे क़ुबूल कर लो और कागज़ से नया मार्क हटा दो। अब्दुल मकिल ने फिर हदीये वापस किये और मिसले साबिक़ कोई जवाब न दिया। इसके बाद क़ैसरे रोम ने तीसरी मरतबा ख़त लिखा और तहाएफ़ व हदाया भेजे और ख़त में लिखा कि तुम ने मेरे ख़तों के जवाबात नहीं दिये और न मेरी बात क़ुबूल की। अब मैं क़सम खा कर कहता हूँ कि अगर तुम ने अब भी रूमी ‘‘ ट्रेड मार्क ’’ को अज़ सरे नौ रवाज न दिया और तौहीद के जुमले कागज़ से न हटाय तो मैं तुम्हारे रसूल को गालियां , सिक्का ए दिरहम व दीनार पर नक़्श करा के तमाम ममालिके इस्लामिया में रायज करूंगा और तुम कुछ न कर सकोगे। देखो अब जो मैंने लिखा है उसे पढ़ कर ‘‘ अर फ़स जबिनेका अरक़न ’’ अपनी पेशानी का पसीना पोछ डालो और जो मैं कहता हूँ उस पर अमल करो ताकि हमारे और तुम्हारे दरमियान जो रिश्ताए मोहब्बत क़ायम है बदस्तूर बाक़ी रहे।

अब्दुल मलिक इब्ने मरवान ने जिस वक़्त इस ख़त को पढ़ा उस के पाओं तले से ज़मीन निकल गई। हाथ के तोते उड़ गये और नज़रो में दुनिया तारीक हो गई। उसने कमाले इज़तेराब में उलेमा , फ़ुज़ला , अहले राय और सियासत दोनों को फ़ौरन जमा कर के उनसे मशविरा तलब किया और कहा कि ऐसी बात सोचो की सांप भी मर जाय और लाठी भी न टूटे या सरासर इस्लाम कामयाब हो जाय। सब ने सर तोड़ कर बहुत देर तक ग़ौर किया लेकिन कोई ऐसी राय न दे सके जिस पर अलम किया जा सकता। ‘‘ फ़ल्म यहजद अन्दा अहदा मिन्हुम राया यामल बेही ’’ जब बादशाह उनकी किसी राय से मुतमईन न हो सका तो और ज़्यादा परेशान हुआ और दिल में कहने लगा मेरे पालने वाले अब क्या करूं। अभी वह इसी तरद्दुद में बैठा था कि उसका वज़ीरे आज़म इब्ने ‘‘ ज़न्बआ ’’ बोल उठा। बादशाह तू यक़ीनन जानता है कि इस अहम मौक़े पर इस्लाम की मुश्किल कुशाई कौन कर सकता है लेकिन अमदन उसकी तरफ़ रूख़ नहीं करता। बादशाह ने कहा , ‘‘ वैहका मन ’’ ख़ुदा तुझसे समझे , बता तो सही वह कौन हैं ? वज़ीरे आज़म ने अर्ज़ की ‘‘ एलैका बिल बाक़िर मिन अहले बैतुन नबी ’’ मैं फ़रज़न्दे रसूल (स. अ.) इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) की तरफ़ इशारा कर रहा हूँ और वही इस आड़े वक़्त में काम आ सकते हैं। अब्दुल मलिक बिन मरवान ने ज्यों ही आपका नाम सुना ‘‘ क़ाला सदक़त ’’ कहने लगा , ख़ुदा की क़सम तुम ने सच कहा और सही रहबरी की है।

इसके बाद उसी वक़्त फ़ौरन अपने आमिले मदीने को लिखा कि इस वक़्त इस्लाम पर एक सख़्त मुसिबत आ गई है , और इसका दफ़आ होना इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) के बग़ैर ना मुमकिन है , लेहाज़ा जिस तरह हो सके उन्हें राज़ी कर के मेरे पास भेज दो , देखो इस सिलसिले में जो मसारिफ़ होंगे , वह हुकूमत के ज़िम्मे होंगे।

अब्दुल मलिक ने दरख़्वास्त तलबी , मदीने इरसाल करने के बाद शाहे रोम के सफ़ीर को नज़र बन्द कर दिया और हुक्म दिया कि जब तक मैं इस मसले को हल न कर सकूँ इसे राजधानी से जाने न देना।

हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) की खि़दमत में अब्दुल मलिक बिन मरवान का पैग़ाम पहुँचा और आप फ़ौरन आज़िमे सफ़र हो गये और अहले मदीना से फ़रमाया कि चूंकि इस्लाम का काम है लेहाज़ा मैं अपने तमाम कामों पर इस सफ़र को तरजीह देता हूँ। अलग़रज़ आप वहां से रवाना हो कर अब्दुल मकिल के पास पहुँचे। चुंकि वह सख़्त परेशान था इस लिये उसने आप के इस्तक़बाल के फ़ौरन बाद अर्ज़े मुद्दआ कर दिया। इमाम (अ.स.) ने मुस्कुराते हुए फ़रमाया , ‘‘ ला याज़म हाज़ा अलैका फ़ानहु लैसा बे शैइन ’’ ऐ बादशाह घबरा नहीं यह बहुत ही मामूली सी बात है। मैं इसे अभी चुटकी बजाते हल किए देता हूँ। बादशाह सुन मुझे बा इल्मे इमामत मालूम है कि ख़ुदाये क़ादिरो तवाना क़ैसरे रोम को इस फ़ेले क़बीह पर क़ुदरत ही न देगा और फिर ऐसी सूरत में जब कि उसने तेरे हाथों में उस से ओहदा बर होने की ताक़त दे रखी है। बादशाह ने अर्ज़ किया , यब्ना रसूल अल्लाह (स. अ.) वह कौन सी ताक़त है जो मुझे नसीब है और जिसके ज़रिये से मैं कामयाबी हासिल कर सकता हूँ ?

हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) ने फ़रमाया कि तुम इसी वक़्त हक़ाक और कारीगरों को बुलाओ और उनसे दिरहम और दीनार के सिक्के ढलवाओ और मुमालिके इस्लामिया में रायज कर दो। उसने पूछा की उनकी क्या शक्लो सूरत होगी और वह किस तरह ढलेंगे ? इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि सिक्के के एक तरफ़ कलमा ए तौहीद दूसरी तरफ़ पैग़म्बरे इस्लाम का नामे पसमी और ज़र्ब सिक्के का सन् लिखा जाए। उसके बाद उसके औज़ान बतायें आपने कहा कि दिरहम के तीन सिक्के इस वक़्त जारी हैं एक बग़ली जो दस मिसक़ाल के दस होते हैं। दूसरे समरी ख़फ़ाक़ जो छः मिसक़ाल के दस होते हैं। तीसरे पांच मिसक़ाल के दस यह कुल 21 मिसक़ाल होते हैं। इसको तीन पर तक़सीम करने पर हासिले तक़सीम 7 सात मिसका़ल हुए। इसी सात मिसक़ाल के दस दिरहम बनवां और इसी सात मिसक़ाल की क़ीमत के सोने के दीनार तैय्यार कर जिसका खुरदा दस दिरहम हो। सिक्का दिरहम का नक़्श चूंकि फ़ारसी में है इसी लिये इसी फ़ारसी में रहने दिया जाय और दीनार का सिक्का रूमी हरफ़ों में है लेहाज़ा उसे रूमी ही हरफ़ों में कन्दा कराया जाय और ढालने की मशीन ‘‘ साचा ’’ शीशे का बनाया जाय ताकि सब हम वज़न तैय्यार हो सकें।

अब्दुल मलिक ने आपके हुक्म के मुताबिक़ तमाम सिक्के ढलवा लिये और सब काम दुरूस्त कर लिया। इसके बाद हज़रत की खि़दमत में हाज़िर हो कर दरयाफ़्त किया कि अब क्या करूं ? ‘‘ अमरहा मोहम्मद बिन अली ’’ आपने हुक्म दिया कि इन सिक्कों को तमाम ममालिके इस्लामिया में रायज कर दे और साथ ही एक हुक्म नाफ़िज़ कर दे जिसमें यह हो कि इसी सिक्के को इस्तेमाल किया जाय और रूमी सिक्के खि़लाफ़े क़ानून क़रार दिये गये। अब जो खि़लाफ़ वरज़ी करेगा उसे सख़्त सज़ा दी जायेगी और ब वक़्ते ज़रूरत उसे क़त्ल भी किया जायेगा। अब्दुल बिन मरवान ने तामीले इरशाद के बाद सफ़ीरे रूम को रिहा कर के कहा कि अपने बादशाह से कहना कि हमने अपने सिक्के ढलवा कर रायज कर दिये और तुम्हारे सिक्के को ग़ैर क़ानूनी क़रार दे दिया। अब तुम से जो हो सके कर लो।

सफ़ीरे रोम यहां से रिहा हो कर जब अपने क़ैसर के पास पहुँचा और उस से सारी दास्तान बताई तो वह हैरान रह गया और सर डाल कर देर तक खा़मोश बैठा सोचता रहा। लोगों ने कहा , बादशाह तूने जो कहा था कि मैं मुसलमानों के पैग़म्बर को सिक्कों पर गालियां कन्दा कर दूंगा। अब इस पर अमल क्यों नहीं करते ? उसने कहा अब गालियां कन्दा कर के क्या कर लूगां। अब तो उनके ममालिक में मेरा सिक्का ही नहीं चल रहा और लेन देन ही नहीं हो रहा है।(हयातुल हैवान दमीरी अल मतूफ़ी 808 हिजरी जिल्द 1 पृष्ठ 63 तबआ मिस्र 136 हिजरी)

वलीद बिन अब्दुल मलिक की आले मोहम्मद (अ.स.) पर ज़ुल्म आफ़रीनी

तारीख़े अबुल फ़िदा में है कि हिजरी 86 में वलीद बिन अब्दुल मलिक इब्ने मरवान ख़लीफ़ा मुक़र्रर हुआ। तारीख़े कामिल में है कि 91 हिजरी में उसने हज्जे काबा अदा किया। मुवर्रेख़ीने इस्लाम का बयान है कि जब वलीद बिन अब्दुल मलिक हज से फ़ारिग़ हो कर मदीना ए मुनव्वरा आया तो एक दिन मिम्बरे रसूल (स अ ) पर ख़ुत्बा देते हुए उसकी नज़र इमाम हसन (अ.स.) के बेटे हसने मुसन्ना पर पड़ी हसने मुसन्ना पर पड़ी जो ख़ाना ए सय्यदा में बैठे हुए आयना देख रहे थे। ख़ुत्बे से फ़राग़त के बाद उसने उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ को तलब कर के कहा कि तुमने हसन बिन हसन (अ.स.) वग़ैरा को क्यों अब तक इस मकान में रहने दिया और क्यों न उनको यहां से निकाल बाहर किया। मैं नहीं चाहता कि आइन्दा फिर इन लोगों को यहां देखूं। ज़रूरत है कि यह मकान इन से ख़ाली करा लिया जाय और इसे ख़रीद कर मस्जिद में शामिल कर दिया जाय। हसन मुसन्ना और फातेमा बिन्ते इमाम हुसैन (अ.स.) और उनकी औलाद ने घर छोड़ने से इन्कार किया। वलीद ने हुक्म दिया कि मकान को उन लोगों पर गिरा दो। फिर लोगों ने ज़बर दस्ती असबाब निकाल कर फेकना और उसे उजाड़ना शुरू कर दिया। मजबूरन यह हज़रात मुख़द्देराते आलियात समैत रोजे़ रौशन में घर से निकल कर बैरूने मदीना सुकूनत पज़ीर हुए। कुछ दिनों के बाद इसी क़िस्म का वाक़िया जनाबे हफ़सा के मकान का भी पेश आया जो औलादे हज़रत उमर के क़ब्ज़े में था। चुनान्चे जब उन से कहा गया कि घर से बाहर निकलो तो उन्होंने मन्ज़ूर न किया और उसकी क़िमत भी क़ुबूल न की। हज्जाज बिन यूसुफ़ उस वक़्त मदीने में मौजूद था उसने चाहा कि मकान को गिरा दे मगर जब इस बात की इत्तेला वलीद बिन अब्दुल मलीक को हुई तो उसने उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ आमिले मदीना को लिखा कि औलादे उमर बिन ख़त्ताब की रज़ा जोई में कमी न करो और उनका एहतेराम मल्हूफ़े ख़ातिर रखो। अगर वह मकान फ़रोख़्त करने पर राज़ी न हो तो उनके रहने के लिये मकान का एक हिस्सा छोड़ दो और उनकी आमदो रफ़्त के लिये मस्जिद की जानिब एक दरवाज़ा भी रहने दो।

(किताब जज़बुल क़ुलूब पृष्ठ 173 व वफ़ा अल वफ़ा जिल्द 1 पृष्ठ 363)

आपके वालिदे माजिद की वफ़ात हसरते आयात

जब आपकी उम्र तक़रीबन 38 साल की हुई तो वलीद बिन अब्दुल मलिक ने आपके वालिदे माजिद हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को 95 हिजरी में ज़हरे दग़ा से शहीद कर दिया। आपने फ़राएज़े तजहीज़ो तकफ़ीन सर अंजाम दिये। आप ही ने नमाज़ पढ़ाई। मुल्ला जामी लिखते हैं ंकि हज़रत इमाम ज़ैनुल अबेदीन (अ.स.) ने अपने बाद आपको अपना वसी मुक़र्रर फ़रमाया क्यों कि आप ही तमाम औलादे में अफ़ज़ल व अरफ़ा थे। उलेमा का बयान है कि अपने वालिदे माजिद की ज़ाहिरी वफ़ात के बाद इमाम इमामे ज़माना क़रार पााए आर आप दरजाए इमामत के फ़राएज़ की अदायगी की ज़िम्मेदारी आयद हो गई।

हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) की इल्मी हैसियत

किसी मासूम की इल्मी हैसियत पर रौशनी डालना बहुत दुश्वार है क्यों कि मासूम और इमामे ज़माना को इल्मे लदुन्नी होता है। वह ख़ुदा की बारगाह से इल्मी सलाहियतों से भरपूर पैदा होता है हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) चूंकि इमामे ज़माना मासूमे अज़ली थे इस लिये आपके इल्मी कमालात , इल्मी कारनामे और आपकी इल्मी हैसियत की वज़ाहत नामुम्किन है। ताहम मैं उन वाक़ियात में से कुछ वाक़ेयात लिखता हूँ जिनर उलमा ने उबूर हासिल कर सके हैं।

अल्लामा इब्ने शहरे आशोब लिखते हैं कि हज़रत का ख़ुद इरशाद है कि ‘‘ अलमना मन्तिक़ अल तैरो अवतैना मिन कुल्ले शैइन ’’ हमें ताएरों तक की ज़बान सिखाई गई है और हमे हर चीज़ का इल्म अता किया गया है।(मनाक़िब इब्ने शहरे आशोब जिल्द 5 पृष्ठ 11 )

रौज़ातुल पृष्ठ में है कि ‘‘ बा ख़ुदा सौगन्द कि माख़ाजनाने खुदाएम दर आसमान व ज़मीन ’’ ख़ुदा की क़सम हम ज़मीन और आसमान में ख़ुदा वन्दे आलम के ख़ाज़िने इल्म हैं और हम ही शजराए नबूवत और मादने हिकमत हैं। वही हमारे यहां आती रही और फ़रिश्तें हमारे यहां आते रहते हैं। यही वजह है कि दुनिया के ज़ाहिरी अरबाबे इक़तेदार हम से जलते और हसद करते हैं। लिसानुल वाएज़ीन में है कि अबू मरीयम अब्दुल ग़फ़्फ़ार का कहना है कि मैं एक दिन हज़रत मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हो कर अर्ज़ परदाज़ हुआ कि 1. मौला कौन सा इस्लाम बेहतर है ? फ़रमाया , जिससे अपने बरादरे मोमिन को तकलीफ़ न पहुँचे। 2. कौन सा ख़ुल्क़ बेहतर है ? फ़रमाया , सब्र और माफ़ कर देना। 3. कौन सा मोमिन कामिल है ? फ़रमाया जिसका इख़्लाक़ बेहतर हो। 4. कौन सा जेहाद बेहतर है ? फ़रमाया , जिसमें अपना ख़ून बह जाऐ। 5. कौन सी नमाज़ बेहतर है ? फ़रमाया , जिसका क़ुनूत तवील हो। 6. कौन सा सदक़ा बेहतर है ? फ़रमाया , जिससे नाफ़रमानी से निजात मिले। 7. बादशाहाने दुनिया के पास जाने में क्या राय है ? फ़रमाया , मैं अच्छा नहीं समझता। 8. पूछा क्यों ? फ़रमाया , इस लिये की बादशाहों के पास की आमदो रफ़्त से तीन बातें पैदा होती हैं , 1. मोहब्बते दुनिया , 2. फ़रामोशिए मर्ग , 3. क़िल्लते रज़ाए ख़ुदा। 9. पूछा फिर मैं न जाऊं ? फ़रमाया , मैं तलबे दुनिया से मना नहीं करता अलबत्ता तलबे मआसी से रोकता हूँ।

अल्लामा तबरीसी लिखते हैं कि यह मुसल्लेमा हक़ीक़त है और इसकी शोहरते आम्मा कि आप इल्मो ज़ोहद और शरफ़ में सारी दुनिया से फ़ौकी़यत ले गये। आपसे इल्मे क़ुरआन इल्मे इल आसार , इल्मे अल सुनन और हर क़िस्म के उलूम , हुक्मे आदाब वग़ैरा में कोई भी फ़ौक़ नहीं गया। हत्ता कि आले रसूल (स. अ.) में भी अबुल आइम्मा के अलावा आपके बराबर उलूम के मज़ाहिरे में कोई नहीं हुआ। बड़े बड़े सहाबा और नुमायां ताबेईन और अज़ीमुल क़द्र फ़ुक़हा आपके सामने ज़ानुए अदब तह करते रहे। आपको आं हज़रत (स अ ) ने जाबिर बिन अब्दुल्लाह अन्सारी के ज़रिए से सलाम कहलाया था और इसकी पेशीन गोई फ़रमाई थी कि यह मेरा फ़रज़न्द ‘‘ बेक़ारूल उलूम ’’ होगा। इल्म की गुत्थियों को इस तरह सुलझायेगा कि दुनियां हैरान रह जायेगी। आलाम उल वरा पृष्ठ 157 , अल्लामा शेख़ मुफ़ीद , अल्लामा शिब्लन्जी तहरीर फ़रमाते हैं कि इल्मे दीन , इल्मे अहादीस , इल्मे सुनन और तफ़सीरे कु़रआन व इल्म अल सीरत व उलूमो फ़ुनून , अदब वगै़रा के ज़ख़ीरे जिस क़द्र इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) से ज़ाहिर हुय इतने इमाम हुसैन (अ.स.) और इमाम हसन (अ.स.) की औनाद में से किसी से ज़ाहिर नहीं हुए। मुलाहेज़ा हो किताब अल इरशाद पृष्ठ 286 , नूरूल अबसार पृष्ठ 131 अरजहुल मतालिब पृष्ठ 447 , अल्लामा इब्ने हजर मक्की लिखते हैं कि हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) के इल्मी फ़यूज़ व बरकात और कमालात व एहसानात से उस शख़्स के अलावा जिसकी बसीरत ज़ाइल हो गई हो , जिसका दिमाग़ ख़राब हो गया हो और जिसकी तबीयत व तीनत फ़ासिद हो गई हो। कोई शख़्स इन्कार नहीं कर सकता। इसी वजह से आपके बारे में कहा जाता है कि आप ‘‘ बाक़रूल उलूम ’’ इल्म के फैलाने वाले और जामेउल उलूम हैं। आप ही उलूमे मआरिफ़ में शोहरते आम्मा हासिल करने और उसके मदारिज बुलन्द करने वाले हैं। आपका दिल साफ़ , इल्मो अमल रौशन व ताबिन्दा , नफ़्स पाक और खि़ल्क़त शरीफ़ थी। आपके कुल अवक़ात इताअते ख़ुदावन्दी में बसर होते थे। जिनके बयान करने से वसफ़ करने वालों की ज़बानें गूंगी और आजिजा़ मांदा हैं। आपके ज़ोहद व तक़वा आपके उलूमो मआरिफ़ आपके इबादात व रियाज़ात और आपके हिदायात व कमालात इस कसरत से हैं कि उनका बयान इस किताब में ना मुम्किन हैं।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 120 )

अल्लामा इब्ने ख़ल्दून लिखते हैं कि इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) अल्लामा ज़मान और सरदारे कबीर उस शान थे। आप उलूम में बड़े तवाहुर और वसीउल इत्तेला थे।(वफ़यात उल अयान , जिल्द 1 पृष्ठ 450 )

अल्लामा ज़हबी लिखते हैं कि आप बनी हाशिम के सरदार और मुतबहे इल्मी की वजह से बाक़िर मशहूर थे। आप इल्म की तह तक पहुँच गये थे। आपने इसके दक़ाएक़ को अच्छी तरह समझ लिया था।(तज़केयल हफ़्फ़ाज़ जिल्द 1 पृष्ठ 111 )

अल्लामा शबरावी लिखते हैं कि इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) के इल्मी तज़किरे दुनिया में मशहूर हुए और आपकी मदहो सना में बा कसरत शेर लिखे गये। मालिक ज़ेहनी ने यह तीन शेर लिखे हैं।

तरजुमा:- जब लोग क़ुरआने मजीद का इल्म हासिल करना चाहें तो पूरा क़बीला ए क़ुरैश उसके बताने से आजिज़ रहेगा क्यों कि वह खुद मोहताज हैं और अगर फ़रज़न्दे रसूल (स. अ.) इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) के मुहं से कोई बात निकल जाय तो बे हदो हिसाब मसाएल व तहक़ीक़ात के ज़ख़ीरे मोहय्या कर देंगे। यह हज़रात वह सितारे हैं जो हर क़िस्म की तारीकियों में चलने वालों के लिये चमकते हैं और उनके अनवार से लोग रास्ते पाते हैं।(इलतहाफ़ पृष्ठ 42 व तारीख़ुल आइम्मा पृष्ठ 413 )

अल्लामा शहरे आशोब का बयान है कि सिर्फ़ एक रावी मोहम्मद बिन मुस्लिम ने आप से तीस हज़ार (30,000) हदीसें रवायत की हैं।(मनाक़िब जिल्द 5 पृष्ठ 11 )

आपके बाज़ इल्मी हिदायात व इरशादात

अल्लामा मोहम्मद बिन तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि जाबिर जाफ़ेई का बयान है कि एक दिन हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) से मिला तो आपने फ़रमाया ,

ऐ जाबिर मैं दुनियां से बिल्कुल बेफ़िक्र हूं क्यों कि जिसके दिल में दीने ख़ालिस हो वह दुनियां को कुछ नहीं समझता और तुम्हें मालूम होना चाहिये कि दुनिया छोड़ी हुई सवारी , उतारा हुआ कपड़ा और इस्तेमाल की हुई औरत है।

मोमिन दुनियां की बक़ा से मुत्मिईन नहीं होता और उसकी देखी हुई चीज़ों की वजह से नूरे ख़ुदा उससे पोशिदा नहीं होता।

मोमिन को तक़वा इख़्तेयार करना चाहिये कि वह हर वक़्त उसे मुतानब्बे और बेदार रखता है।

सुनो दुनिया एक सराय फ़ानी है। ‘‘ नज़लत बेही दारे तहलत मिनहा ’’ इसमें आना जाना लगा रहता है , आज आये और कल गये और दुनिया एक ख़्वाब है जो कमाल के मानन्द देखी जाती है और जब जाग उठो तो कुछ नहीं आपने फ़रमाया , तकब्बुर बहुत बुरी चीज़ है यह जिस क़द्र इंसान में पैदा होगा उसी क़द्र उसकी अक़ल घटेगी।

कमीने शख़्स का हरबा गालियां बकना है।

एक आलिम की मौत को इबलीस नब्बे (90) आबिदों के मरने से बेहतर समझता है।

एक हज़ार आबिदों से वह एक आलिम बेहतर है जो अपने इल्म से फ़ायदा पहुंचा रहा हो।

मेरे मानने वाले वह हैं जो अल्लाह की इताअत करें।

आंसुओ की बड़ी की़मत है रोने वाला बख़्शा जाता है और जिस रूख़सार पर आंसू जारी हों वह ज़लील नहीं होता।

सुस्ती और ज़्यादा तेज़ी बुराईयों की कुंजी है। ख़ुदा के नज़दीक बेहतरीन इबादत पाक दामनी है। इनसान को चाहिये कि अपने पेट और अपनी शर्मगाहों को महफ़ूज़ रखें।

दुआ से क़ज़ा भी टल जाती है। नेकी बेहतरीन ख़ैरात है।

बदतरीन ऐब यह है कि इन्सान को अपनी आंख की शहतीर दिखाई न दे और दूसरों की आंख का तिन्का नज़र न आये। यानी अपने बड़े गुनाह की परवाह न हो और दूसरों के छोटे अयूब उसे बड़े नज़र आयें और खुद अमल न करे। सिर्फ़ दूसरों को तामील दे।

जो ख़ुशहाली में साथ दे और तंग दस्ती में दूर रहे , वह तुम्हारा भाई और दोस्त नहीं है।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 272 )

अल्लामा शिबलंजी लिखते हैं कि , हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) ने फ़रमाया कि जब कोई नेमत मिले तो कहो अलहम्दो लिल्लाह और जब कोई तकलीफ़ पहुँचे तो कहो ‘‘ लाहौल विला कु़व्वता इल्लाह बिल्ला ’’ और जब रोज़ी तंग हो तो कहो ‘’ अस्तग़ फ़िरूल्लाह ’’। दिल को दिल से राह होती है , जितनी मोहब्बत तुम्हारे दिल में होगी इतनी ही तुम्हारे भाई के और दोस्त के दिल में भी होगी।

तीन चीज़ें ख़ुदा ने तीन चीज़ों में पोशीदा रखी है।

1. अपनी रज़ा अपनी इताअत मे किसी फ़रमा बरदारी को हक़ीर न समझो। शायद इसी में खुदा की रज़ा हो।

2. अपनी नाराज़़ी अपनी माअसीयत में - किसी गुनाह को मामूली न जानों शायद ख़ुदा उसी से नाराज़ हो जाय।

3. अपनी दोस्ती या अपने वली - मख़लूक़ात में किसी शख़्स को हक़ीर न समझो , शायद वह वली उल्लाह हो।(नूरूल अबसार पृष्ठ 131 व इतहाफ़ पृष्ठ 93 )

अहादीसे आइम्मा में है। इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) फ़रमाते हैं , इन्सान को जितनी अक़्ल दी गई है उसी के मुताबिक़ उससे क़यामत में हिसाब व किताब होगा।

एक नफ़ा पहुँचाने वाला आलिम सत्तर हज़ार आबिदों से बेहतर है।

ख़ुदा उन उलमा पर रहम व करम फ़रमाए जो अहयाए इल्म करते और तक़वा को फ़रोग़ देते हैं।

इल्म की ज़कात यह है कि मख़लूके ख़ुदा को तालीम दी जाय।

क़ुरआन मजीद के बारे में तुम जितना जानते हो उतना ही बयान करो।

बन्दों पर ख़ुदा का हक़ यह है कि जो जानता हो उसे बताए और जो न जानता हो उसके जवाब में ख़ामोश हो जाए।

इल्म हासिल करने के बाद उसे फैलाओ इस लिये कि इल्म को बन्द रखने से शैतान का ग़लबा होता है।

मोअल्लिम और मुताकल्लिम का सवाब बराबर है।

जिस तालीम की ग़रज़ यह हो कि वह उलमा से बहस करे , जोहला पर रोब जमाए और लोगों को अपनी तरफ़ माएल करे वह जहन्नमी है।

दीनी रास्ता दिखलाने वाला और रास्ता पाने वाला दोनों सवाब की मीज़ान के लिहाज़ से बराबर हैं।

जो दीनियात में ग़लत कहता हो उसे सही बता दो।

ज़ाते इलाही वह है जो अक़ले इंसानी में समा न सके और हुदूद में महदूद न हो सके। इसकी ज़ात फ़हम व अदराक से बाला तर है। ख़ुदा हमेशा से है और हमेशा रहेगा।

ख़ुदा की ज़ात के बारे में बहस न करो वरना हैरान हो जाओगे।

अज़ल की दो क़िस्मे हैं , एक अज़ल महतूम , दूसरे अज़ल मौकूफ़ , दूसरी से ख़ुदा के सिवा कोई वाक़िफ़ नहीं।

ज़मीने हुज्जते ख़ुदा के बग़ैर बाक़ी नहीं रह सकती।

उम्मते बे इमाम की मिसाल भेड़ बकरी के उस ग़ल्ले की है , जिसका कोई भी निगरान हो।

इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) से रूह की हक़ीक़त और माहीयत के बारे में पूछा तो फ़रमाया कि रुह हवा कि मानिन्द मुताहर्रिक है और यह रीह से मुश्ताक़ है , हम जिन्स होने की वजह से उसे रुह कहा जाता है। यह रुह जो जानदारों की ज़ात के साथ मख़सूस है , वह तमाम रूहों से पाकीज़ा तर है। रूह मख़लूक़ और मसनूह है और हादिस और एक जगह से दूसरी जगह मुनतक़िल होने वाली है। वह ऐसी लतीफ़ शै है जिसमें न किसी क़िस्म की गरानी और सगीनी है न सुबकी , वह एक बारीक एक रक़ीक़ शै है जो क़ालिबे क़सीफ़ में पोशीदा है। इसकी मिसाल इस मशक जैसी है जिसमें हवा भर दो , हवा भरने से वह फूल जायेगी लेकिन उसके वज़न में इज़ाफ़ा न होगा। रूह बाक़ी है और बदन से निकलने के बाद फ़ना नहीं होती। यह सूर फुंकने के वक़्त फ़ना होगी।

आपसे ख़ुदा वन्दे आलम के सिफ़ात के बारे में पूछा गया तो आपने फ़रमाया कि , वह समी बसीर है और आलाए समा व बसर के बग़ैर सुनता और देखता है।

रईसे मोतज़ला उमर बिन अबीद ने आपसे पूछा कि ‘‘ मन यहाल अलैहा ग़ज़बनी ’’ से कौन सा ग़ज़ब मुराद है ? फ़रमाया उक़ाब और अज़ाब की तरफ़ इशारा फ़रमाया गया है।

अबुल ख़ालीद क़ाबली ने आपसे पूछा कि क़ौले ख़ुदा ‘‘ फ़ामनू बिल्लाह व रसूलहे नूरूल लज़ी अन्ज़लना ’’ में नूर से क्या मुराद है ? आपने फ़रमाया , ‘‘ वल्लाहा अलन नूर अल आइम्मते मिन आले मोहम्मद ’’ ख़ुदा की क़सम नूर से हम आले मोहम्मद मुराद हैं।

आप से दरयाफ़्त किया गया कि ‘‘ यौमे नदउ कुल्ले उनासिम बे इमामेहिम ’’ से कौन लोग मुराद हैं ? आपने फ़रमाया वह रसूल अल्लाह हैं और उनके बाद उनकी औलाद से आइम्मा होंगे। उन्ही की तरफ़ आयत से इशारा फ़रमाया गया है। जो उन्हें दोस्त रखेगा और उनकी तसदीक़ करेगा। वही नजात पायेगा और जो उनकी मुख़ालेफ़त करेगा जहन्नम में जायेगा।

एक मरतबा ताऊसे यमानी ने हज़रत की खि़दमत में हाज़िर हो कर यह सवाल किया कि वह कौन सी चीज़ है जिसका थोड़ा इस्तेमाल हलाल था , और ज़्यादा इस्तेमाल हराम ? आपने फ़रमाया की नहरे तालूत का पानी था , जिसका सिर्फ़ एक चुल्लू पीना हलाल था और उससे ज़्यादा हराम। पूछा वह कौन सा रोज़ा था जिसमें ख़ाना पीना जायज़ था ? फ़रमाया वह जनाबे मरयम का ‘‘ सुमत ’’ था जिसमें सिर्फ़ न बोलने का रोज़ा था , खाना पीना हलाल था। पूछा वह कौन सी शै है जो सर्फ़ करने से कम होती है बढ़ती नहीं ? फ़रमाया की वह उम्र है। पूछा वह कौन सी शै है जो बढ़ती है घटती है नहीं ? फ़रमाया वह समुद्र का पानी है। पूछा वह कौन सी चीज़ है जो सिर्फ़ एक बार उड़ी और फिर न उड़ी ? फ़रमाया वह कोहे तूर है जो एक बार हुक्मे ख़ुदा से उढ़ कर बनी इसराईल के सरों पर आ गया था। पूछा वह कौन लोग हैं जिनकी सच्ची गवाही ख़ुदा न झूटी क़रार दी ? फ़रमाया वह मुनाफ़िक़ों की तसदीक़े रिसालत है जो दिल से न थी। पूछा बनी आदम का 1/3 हिस्सा कब हलाक हुआ ? फ़रमाया ऐसा कभी नहीं हुआ। तुम यह पूछो की इन्सान का 1 /4 हिस्सा कब हलाक हुआ तो मैं तुम्हें बताऊं कि यह उस वक़्त हुआ जब क़ाबील ने हाबील को क़त्ल किया क्यों कि उस वक़्त चार आदमी थे। आदम , हव्वा , हाबील , क़ाबील। पूछा फिर नस्ले इंसानी किस तरह बढ़ी ? फ़रमाया जनाबे शीस से जो क़त्ले हाबील के बाद बतने हव्वा से पैदा हुए।

इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) और जनाबे अबू हनीफ़ा का इम्तेहान

अल्लामा शिबली नोमानी और अल्लामा अलक़ीम लिखते हैं कि इमाम अबू हनीफ़ा एक मुद्दत तक हज़रत की खि़दमत में हाज़िर रहे और उन्हीं से फे़क़हा हदीस के मुताल्लिक़ बहुत सी नादिर बातें हासिल कीं। शिया सुन्नी दोनों ने माना है कि अबू हनीफ़ा की मालूमात का बड़ा ज़ख़ीरा हज़रत ही का फ़ैज़े सोहबत था। इमाम साहब ने इनके फ़रज़न्दे रशीद हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की फ़ैज़े सोहबत से भी बहुत कुछ फ़ायदा उठाया जिसका ज़िक्र उमूमन तारीख़ों में पाया जाता है।(सीरतुल नोमान व अलाम अल माक़ेनीन जिल्द 1 पृष्ठ 93 ) (1.)

अल्लामा शबादी शाफ़ेई लिखते हैं कि एक दिन हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) ने इमाम अबू हनीफ़ा से फ़रमाया कि मैंने सुना है कि तुम क़यास करने में ज़मीन व आसमान के कुलाबे मिलाते हो। यह सच है ? उन्होंने कहा मैं बे शक क़यास करता हूँ और इसकी वजह हदीस व अख़बार हैं। हज़रत ने फ़रमाया कि अच्छा मैं चन्द सवाल करता हूँ तुम क़यास करके जवाब दो। उन्होंने कहा फ़रमाईये , आपने इरशाद फ़रमाया क़तल बड़ा गुनाह है कि ज़िना अर्ज़ की क़त्ल है फिर क्या वजह है कि क़तल में सिर्फ़ दो गवाह काफ़ी हैं ज़िना की शहादत में चार गवाह तलब होते हैं ? उन्होंने सुकूत इख़्तेयार किया इसार पर यूँ बोले मुझे इल्म नहीं। फिर आपने फ़रमाया , नमाज़ की अज़मत ज़्यादा है या रोज़े की ? कहा नमाज़ की , कहा फिर क्या वजह है कि हाएज़ औरतों को नमाज़ की क़ज़ा ज़रूरी नहीं और रोज़े की कज़ा लाज़मी है। उन्होंने कहा मुझे मालूम नहीं। फिर हज़रत ने फ़रमाया बताओ , पेशाब ज़्यादा नजीस है या मनी ? उन्होंने कहा पेशाब ज़्यादा नजीस है। हज़रत ने फ़रमाया कि फिर क्या वजह है कि पेशाब के बाद वज़ू किया जाता है और मनी के बाद गु़स्ल वाजिब है ? कहा मुझे इल्म नहीं।

इमाम अबू हनीफ़ा का बयान है कि इन सवालात के बाद आप दूसरे कामों में लग गए तो मैंने अर्ज़ कि ऐ फ़रज़न्दे रसूल (स. अ.) इन सब मसाएल के बारे में मेरी तशफ़फ़ी फ़रमाएं। आपने फ़रमाया कि मैं इस शर्त से बताऊंगा कि तुम आइन्दा क़यास करने से बाज़ रहने का वादा करो। चुनान्चे मैंने वादा किया तो आपने इरशाद फ़रमाया , सुनो !

1. क़त्ल करने वाला एक ही शख़्स होता है , इस लिये सिर्फ़ दो गवाह काफ़ी होते हैं और ज़िना में दो शख़्स होते हैं इस लिये चार गवाह की ज़रूरत होती है।

2. हाएज़ को साल में एक ही मरतबा रोज़े से दो चार होना पड़ता है। इसकी क़ज़ा आसान है और नमाज़ से हर माह साबेक़ा पड़ता है इसकी क़ज़ा मुश्किल है इस लिये ख़ुदा ने यह सहूलियत दी है कि रोज़े की क़ज़ा करें और नमाज़ की क़ज़ा न करे।

3. पेशाब सिर्फ़ मसाने से निकलता है और दिन में कई मरतबा निकलता है इस में गु़स्ल दुश्वार होता है। और मनी सारे जिस्म से निकलती है ‘‘ तहत कुलशरता जनाबता ’’ बल्कि यूँ समझो कि हर बुने मू से निकलती है और कभी कभी निकलती है इस लिये ग़ुस्ल करना आसान होता है। लेहाज़ा इसके महल्ले इख़्राज का लेहाज़ करते हुए गु़स्ल ज़रूरी क़रार दिया गया है। इमाम अबू हनीफ़ा का बयान है कि इस जवाब से मुझे पूरी तसल्ली हो गई और हज़रत को सलाम कर के घर वापस आया।(इताफ़ पृष्ठ 88 )

अल्लामा दमेरी ने अपनी किताब हयातुल हैवान की जिल्द 2 पृष्ठ 86 तहतुल लुग़त ज़बी प्रकाशित मिस्र में इस वाक़िए को इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) से मुताल्लिक़ लिखा है।

अल्लामा शिबलन्जी लिखते हैं कि अलाए बिन उमर बिन अबीद ने हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) से पूछा , ‘‘ इन अलसमावाता वल अर्ज़ा कानता रतक़ाफफतक़ना हमा ’’ का क्या मतलब है ? आपने इरशाद फ़रमाया , आसमान व ज़मीन दोनों(अपनी फ़ैज़ रसाई से) बन्द थे फिर ख़ुदा ने उन्हें खोल दिया , यानी आसमान से पानी बरसने लगा और ज़मीन से दाना उगने लगा।(नूरूल अबसार पृष्ठ 130 व इतहाफ़ पृष्ठ 53 व कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 54 )

अल्लामा जामी लिखते हैं कि इन्सानों की तरह आप से जिन भी इल्मी फ़ायदा उठाया करते थे। रावी का बयान है कि मैंने एक दिन बारह अजनबी अशख़ास को आपके पास देख कर पूछा कि यह कौन लोग हैं ? इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) ने फ़रमाया यह जिन हैं , मेरे पास मसाएल शरई पूछने आते हैं।(शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 182 )

1. इसकी तफ़सील के लिये मुलाहेज़ा हों ‘‘ तारीख़े इस्लाम ’’ जिल्द 1 मोअल्लेफ़ा हक़ीर मतबूआ इमामिया कुतुब ख़ाना मुग़ल हवेली लाहौर।

इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) के बाज़ करामात

आइम्मा ए अहले बैत (अ.स.) का साहेबे करामत होना मुसल्लेमात में से है। हज़रत इमाम मोहम्मदे बाक़िर (अ.स.) के करामात हदे एहसा से बाहर हैं। इस मुक़ाम पर चन्द लिखे जाते हैं।

अल्लामा जामेई रहमतुल्लाह अलैहा लिखते हैं कि एक रोज़ आप खच्चर पर सफ़र फ़रमा रहे थे और आपके हमराह एक और शख़्स गधे पर सवार था। मक्का और मदीना के दरमियान पहाड़ से एक भेड़िया बरामद हुआ आपने उसे देख कर अपनी सवारी रोक ली। वह क़रीब पहुँच कर गोया हुआ , मौला ! इस पहाड़ी में मेरी मादा है और उसे सख़्त दर्दे ज़ेह आरिज़ है आप दुआ फ़रमा दीजिए की इस मुसीबत से नजात हो जाए। आपने दुआ फ़रमा दी। फिर उसने कहा कि यह दुआअ कीजिए कि ‘‘ अज़नस्ल मन पर शीआए तौ मफ़स्तल न गिरदाना ’’ मेरी नस्ल में से किसी को भी आपके शिओं पर ग़लबा व तसल्लत न हासिल होने दे। आपने फ़रमाया मैंने दुआ कर दी। वह चला गया।

2. एक शब एक शख़्स शदीद बारिश के दौरान में आपके दौलत कदे पर जा कर ख़ामोश खड़ा हो गया और सोचने लगा कि इस न मुनासिब वक़्त में दक़्क़ुलबाब करूं या वापस चला जाऊँ। नागाह आपने अपनी लौंडी से फ़रमाया कि फ़ुलाँ शख़्स मक्के से आ कर मेरे दरवाज़े पर खड़ा है उसे बुला लो। उसने दरवाज़ा खोल कर बुला लिया।

3. रावी का बयान है कि मैं एक दिन आपके दौलत कदे पर हाज़िर हो कर इज़ने हुज़ूरी का तालिब हुआ। आपने किसी वजह से इजाज़त न दी मैं ख़ामोश खड़ा रहा। इतने में देखा कि बहुत से आदमी आए और गए। यह हाल देख कर मैं बहुत ही रंजीदा हुआ और देर तक सोचने लगा कि किसी और मज़हब में चला जाऊँ इसी ख्याल में घर चला गया। जब रात हुई तो आप मेरे मकान पर तशरीफ़ लाये और कहने लगे किसी मज़हब में मत जाओ , कोई मज़हब दुरूस्त नहीं है। आओ मेरे साथ चलो , यह कह कर मुझे अपने हमराह ले गए।

4. एक शख़्स ने आप से कहा ख़ुदा पर मोमिन का क्या हक़ है ? आपने इसके जवाब से ऐराज़ किया। जब वह न माना तो फ़रमाया कि इस दरख़्त को अगर कह दिया जाय कि चला आ , तो वह चला आऐगा , यह कहना था कि वह अपने मक़ाम से रवाना हो गया , फिर आपने हुक्म दिया वह वापस चला गया।

5. एक शख़्स ने आपके मकान के सामने कोई हरकत की , आपने फ़रमाया मुझे इल्म है , दीवार हमारी नज़रों के दरमियान हाएल नहीं होती , आइन्दा ऐसा नहीं होना चाहिये। 6. एक शख़्स ने अपने बालों के सफ़ेद होने की शिकायत की , आपने उसे अपने हाथों से मस कर दिया , वह सियाह हो गये।

7. जिस ज़माने में इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) का इन्तेक़ाल हुआ था। आप मस्जिदे नबवी में तशरीफ़ फ़रमा थे , इतने में मन्सूर दवान्क़ी और दाऊद बिन सुलैमान मस्जिद में आए। मन्सूर आपसे दूर बैठा और दाऊद क़रीब आ गया। उसने फ़रमाया , मन्सूर मेरे पास क्यों नहीं आता ? उसने कोई उज़्र बयान किया। हज़रत ने फ़रमाया इससे कह दो तू अन्क़रीब बादशाहे वक़्त होगा और शरक़ व ग़र्ब का मालिक होगा। यह सुन कर दवान्क़ी आपके क़रीब आ गया और कहने लगा आपका रोब व जलाल मेरे क़रीब आने से माने था। फिर आपने उसकी हुकूमत की तफ़सील बयान फ़रमाई , चुनान्चे वैसा ही हुआ।

8. अबू बसीर की आंखें जाती रही थीं , उन्होंने एक दिन कि आप तो वारिसे अम्बिया हैं , मेरी आंखों की रौशनी पलटा दीजिए। आपने इसी वक़्त आंखों पर हाथ फेर कर उन्हें बिना बना दिया।

9. एक कूफ़ी ने आपसे कहा कि मैंने सुना है कि आपके ताबे फ़रिश्ते हैं जो आपको शिया और गै़र शिया बता दिया करते हैं। आपने पूछा तू क्या काम करता है ? उसने कहा गन्दुम फ़रोशी। आपने फ़रमाया ग़लत है। फिर उसने फ़रमाया कभी कभी जौं भी बेचता हूँ। फ़रमाया यह भी ग़लत है। तू सिर्फ़ ख़ुरमे बेचता है। उसने कहा आपसे यह किसने बताया है ? इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया उसी फ़रिश्ते ने जो मेरे पास आता है। इसके बाद आपने फ़रमाया कि तू फ़ुलां बीमारी में तीन दिन के अन्दर वफ़ात कर जायेगा। चुनान्चे ऐसा ही हुआ।

10. रावी कहता है कि मैं एक दिन हज़रत की खि़दमत में हाज़िर हुआ तो क्या देखा , आप ब ज़बाने सुरयानी मुनाजात पढ़ रहे हैं। मेरे सवाल के जवाब में फ़रमाया कि यह फ़ुलां नबी की मुनाजात है।

11. हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) इरशाद फ़रमाते हैं कि मेरे वालिदे बुज़ुर्गवार इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) एक दिन मदीने में बहुत से लोगों के दरमियान बैठे हुए थे नागाह आपने सर डाल दिया। इसके बाद आपने फ़रमाया , ऐ अहले मदीना आईन्दा साल यहां नाफ़े बिन अरज़क़ चार हज़ार जर्रार सिपाही ले कर आयेगा और तीन शबाना रोज़ शदीद मुक़ाबला व मुक़ातेला करेगा , और तुम अपना तहफ़्फ़ुज़ न कर सकोगे। सुनो जो कुछ मैं कह रहा हूँ ‘‘ हवा काएन लायद मनहू ’’ वह होके रहेगा चुनान्चे आइन्दा साल(कान अल अमर अला मक़ाल) वही हुआ जो आपने फ़रमाया था।

12. जै़द बिन आज़म का बयान है कि एक दिन ज़ैद शहीद आपके सामने से गुज़रे तो आपने फ़रमाया कि यह ज़रूर कूफ़े में ख़ुरूज करेंगे और क़त्ल होंगे और इनका सर दयार ब दयार फिराया जायेगा। (फ़कान कमाकाल) चुनान्चे वही कुछ हुआ।

(शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 185 नुरूब अबसार पृष्ठ 130 )

आपकी इबादत गुज़ारी और आपके आम हालात

आप अपने आबाओ अजदाद की तरह बेपनाह इबादत करते थे। सारी रात नमाज़े पढ़नी और सारा दिन रोज़े से गुज़ारना आपकी आदत थी। आपकी ज़िन्दगी ज़ाहिदाना थी। बोरीए पर बैठते थे। हदाया जो आते थे उसे फ़ुक़राओ मसाकीन पर तक़सीम कर देते थे। ग़रीबों पर बे हद शफ़क़्क़त फ़रमाते थे। तवाज़े और फ़रोतनी , सब्र और शुक्र ग़ुलाम नवाज़ी सेलह रहम वग़ैरा में अपनी आप नज़ीर थे। आपकी तमाम आमदनी फ़ुक़राओ पर सर्फ़ होती थी। आप फ़क़ीरों की बड़ी इज़्ज़त करते थे और उन्हें अच्छे नाम से याद करते थे।(कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 95 ) आपके एक ग़ुलाम अफ़लह का बयान है कि एक दिन आप काबे के क़रीब तशरीफ़ ले गए , आपकी जैसे ही काबे पर नज़र पड़ी आप चीख़ मार कर रोने लगे मैंने कहा कि हुज़ूर सब लोग देख रहे हैं आप आहिस्ता से गिरया फ़रमायें। इरशाद किया ऐ अफ़लह शायद ख़ुदा भी उन्हीं लोगों की तरह मेरी तरफ़ देख ले और मेरी बख़्शिश का सहारा हो जाय। इसके बाद आप सजदे में तशरीफ़ ले गये और जब सर उठाया तो सारी ज़मीन आँसुओं से तर थी।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 271 )

हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) और हश्शाम बिन अब्दुल मलिक

तवारीख़ में है कि 96 हिजरी में वलीद बिन अब्दुल मलिक फ़ौत हुआ(अबुल फ़िदा) और उसका भाई सुलैमान बिन अब्दुल मलिक ख़लीफ़ा मुक़र्रर किया गया।(इब्ने वरा) 99 हिजरी में उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ ख़लीफ़ा हुआ।(इब्नुल वरा) उसने ख़लीफ़ा होते ही इस बिदअत को जो 41 हिजरी में बनी उमय्या ने हज़रत अली (अ.स.) पर सबो शितम की सूरत में जारी कर रख थी। हुकमन रोक दिया।(अबुल फ़िदा) और रूकू़मे ख़ुम्स बनी हाशिम को देना शुरू कर दिया।(किताब उल ख़राएज अबू युसूफ़) यह वह ज़माना था जिसमें अली (अ.स.) के नाम पर अगर किसी बच्चे का नाम होता था तो वह क़त्ल कर दिया जाता था और किसी को भी ज़िन्दा न छोड़ा जाता था।(तदरीक अल रावी , सयूती) इसके बाद 101 हिजरी में यज़ीद इब्ने अब्दुल मलिक ख़लीफ़ा बनाया गया।(इब्नुल वरदी) 105 हिजरी में हश्शाम इब्ने अब्दुल मलिक बिन मरवान बादशाहे वक़्त मुक़र्रर हुआ।(इब्नुल वरदी)

हश्शाम बिन अब्दुल मलिक चुस्त , चालाक , कंजूस , मुताअस्सिब , चाल बाज़ , सख़्त मिज़ाज , कजरौ , ख़ुद सर , हरीस , कानों का कच्चा और हद दरजा शक्की था। कभी किसी का ऐतबार न करता था। अक्सर सिर्फ़ शुब्हे पर सलतनत के लाएक़ मुलाज़िमों को क़त्ल करा देता था। यह ओहदों पर उन्हीं को फ़ाएज़ करता था जो ख़ुशामदी हों। उसने ख़ालिद बिन अब्दुल्लाह क़सरी को 105 हिजरी से 120 हिजरी तक ईराक़ का गर्वनर रखा। क़सरी का हाल यह था कि हश्शाम को रसूल अल्लाह (स. अ.) से अफ़ज़ल बताता और उसी का प्रोपेगन्डा किया करता था।(तारीख़े कामिल जिल्द 5 पृष्ठ 103 ) हश्शाम आले मोहम्मद (स. अ.) का दुश्मन था। इसी ने ज़ैद शहीद को निहायत बुरी तरह क़त्ल किया था।(तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 49 ) इसी ने अपने ज़माना ए वली अहदी में फ़रज़दक़ शायर को इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) की मदह के जुर्म में बा मक़ाम असक़लान क़ैद किया था।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा)

हश्शाम का सवाल और उसका जवाब

तख़्ते सलतनत पर बैठने के बाद हश्शाम बिन अब्दुल मलिक हज के लिये गया। वहां उस ने इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) को देखा कि मस्जिदुल हराम में बैठे हुए लोगों को पन्दो नसाहे से बहरावर कर रहे हैं। यह देख कर हश्शाम की दुश्मनी ने करवट ली और उसने दिल में सोचा कि उन्हें ज़लील करना चाहिये और इसी इरादे से उसने एक शख़्स से कहा कि जा कर उनसे कहो कि ख़लीफ़ा पूछ रहे हैं कि हश्र के दिन आख़री फ़ैसले से पहले लोग क्या खायें और पियेंगे। उसने जा कर इमाम (अ.स.) के सामने ख़लीफ़ा का सवाल पेश किया। आपने फ़रमाया जहां हश्रो नश्र होगा वहां मेवे दार दरख़्त होंगे , वह लोग उन्हीं चीज़ों को इस्तेमाल करेंगे। बादशाह ने जवाब सुन कर कहा यह बिल्कुल ग़लत है क्यों कि हश्र में लोग मुसिबतों और परेशानियों में मुब्तेला होंगे , उनको खाने पीने का होश कहां होगा ? क़ासिद ने बादशाह का जुमला नक़्ल कर दिया। हज़रत ने क़ासिद से फ़रमाया कि जाओ और बादशाह से कहो कि तुमने क़ुरआन भी पढ़ा है या नहीं। क़ुरआन में यह नहीं है कि जहन्नम के लोग जन्नत वालों से कहेंगे कि हमें पानी और कुछ नेमतें दे दो कि पी और खा लें। उस वक़्त वह जवाब देंगे कि काफ़िरों पर जन्नत की नेमतें हराम हैं।(पारा 8 रूकू 13 ) तो जब जहन्नम में भी लोग खाना पीना नहीं भूलेंगे तो हश्रो नश्र में कैसे भूल जायेंगे। जिसमें जहन्नम से कम सख़्तियां होंगी और वह उम्मीदो बीम और जन्नत व दोज़ख़ के दरमियान होंगे। यह सुन कर हश्शाम शर्मिन्दा हो गया।(इरशादे मुफ़ीद पृष्ठ 408 व तारीख़े आइम्मा पृष्ठ 414 )

इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) और हश्शाम की मुश्किल कुशाई

यह और बात है कि आले मोहम्मद (स. अ.) को दीदा व दानिस्ता नज़र अन्दाज़ कर दिया जाए लेकिन कठिन मौक़ों पर अहम मराहिल के लिये उनकी मुश्किल कुशाई के बग़ैर कोई चारा कार ही न था।

अल्लामा मजलिसी (अलैहिर रहमा) लिखते हैं ‘‘ हश्शाम बिन अब्दुल मलिक बिन मरवान के ज़माने में शाम और ईराक़ के आने वाले हज्जाज को मक्के के रास्ते में एक मंज़िल पर पानी न मिलने की वजह से सख़्त मुसीबत का सामना हुआ करता था। ग़रीब हज्जाज उस मंज़िल की बे आबी और अपने इज़तेराब और बेचैनी का ख़्याल करके मंज़िल दो मंज़िल पहले से अपना सामान जमा कर लिया करते थे ताकि उस मंज़िल तक किफ़ायत कर सकें , मगर बाज़ औक़ात यह इन्तेज़ामात भी नाकाफ़ी साबित हो जाते थे और बहुत से ग़रीब हज्जाज पानी न मिलने की वजह से इस मंज़िल पर जां बहक़ तसलीम हो जाते थे। इस मुश्किल की शिकायत अहले इस्लाम में हमेशा बनी रहती थी। वहा की ज़मीन भी हज्जाज की तमाम ज़मीनों से ज़्यादा संगलाख़ (बंजर) थी। वहां ज़मीन से पानी निकालना गोया आसमान से पानी लाना था। आखि़र कार हज्जाज की इस नाक़ाबिले बर्दाश्त मुसिबत पर सलतनत ने तवज्जो की और एक बहुत बड़ा कुआं खोदने का बंदोबस्त किया। हश्शाम ने इस कुएं की तामीर का एहतेमाम ख़ुद अपने ज़िम्मे लिया और अपने मीरे इमारत को मज़दूरों और काम करने वालों की एक बड़ी जमाअत के साथ उस मक़ाम पर भेजा। ग़रज़ कि मोहकमाए तामीरात का सुलतानी इस्टाफ़ उस मक़ाम पर पहुँच कर अपने काम में मसरूफ़ हुआ वह अरब की ज़मीन और फिर अरब में भी किस हिस्से की , हिजाज़ की दिन , दिन भर की कड़ी मेहनत के बाद हाथ दो हाथ ज़मीन का खुद जाना भी ग़रीब काम करने वालों के लिये ग़नीमत था। ख़ुदा ख़ुदा कर के काम करने वाले सतेह आब के क़रीब पहुँचे तो यकायक उसकी जानिब से एक सूराख़ पैदा हो गया। उससे एक निहायत गरम और मुंह झुलसा देने वाली हवा निकली जिसने उन सब को हलाक कर दिया , जो उस वक़्त कुंए के अन्दर थे। कुएं के ऊपर जो दीगर काम करने वाले थे उन्होंने जब उनकी ज़िन्दगी के आसार मफ़कू़द पाए तफ़हुस हाल के लिये चन्द और आदमियों को कुएं में उतारा वह भी जा कर वापस न आए।

जब तमाम इस्टाफ़ के दो तिहाई कारकुन ज़ाया हो चुके और उनकी हालत की कोई वजह मालूम न हो सकी तो मीरे इमारत ने मजबूर हो कर काम बन्द कर दिया और हश्शाम की खि़दमत में हाज़िर हो कर अर्ज़ परदाज़ हुआ और सारा वाक़िया इससे बयान किया। इस ख़बरे वहशत असर के सुनते ही तमाम दरबार में सन्नाटा छा गया और हर एक अपनी अपनी इस्तेदाद और हैसियत के मुताबिक़ इसके असबाब और बवाएस ढ़ूंढ़ने लगा। आखि़र कार हश्शाम ने एक तहक़ीक़ाती जमाअत को मुरत्तब कर के मौक़े पर भेजा मगर वह भी न काम रही और यह मालूम न कर सकी कि इसमें जाने वाले मर क्यों जाते हैं।

हश्शाम इसी इज़्तेराब और परेशानी मे था कि हज का ज़माना आ गया , यह दमिश्क़ से चल कर मक्का मोअज़्ज़मा पहुँचा और वहां पहुँच कर उसने हर मकतबे ख़्याल के रहनुमाओ को जमा किया और उनके सामने कुऐं वाला वाक़ेया बयान किया और उनकी मुश्किल कुशाई की ख़्वाहिश की।

बादशाह की बात सुन कर सब ख़ामोश हो गये और काफ़ी सोचने के बावजूद किसी नतीजे पर न पहुँच सके। नागाह हज़रत इमाम मोहम्मदे बाक़िर (अ.स.) जो बादशाह की तरफ़ से मदऊ थे आ पहुँचे और आपने हालात सुन कर फ़रमाया मैं मौक़ा देख्ूागां चुनान्चे आप तशरीफ़ ले गये और वापस आकर आपने फ़रमाया , ऐ बादशाहे क़ौम आदम से जो अहले एहक़ाफ़ थे जिनका ज़िक्र क़ुरआने मजीद में है , यह जगह उन्हीं के मोअज़्ज़ब होने की है। यह रह अक़ीम जो ज़मीन के सातवें तबक़े से निकल रही है यह किसी को भी ज़िन्दा न छोड़े गी , लेहाज़ा इस जगह को फ़ौरन बन्द करा दे और फ़लाँ मक़ाम पर कुआँ खुदवा , चुनान्चे बादशाह ने ऐसा ही किया। आपके इरशाद से लोगों की जानें भी बच गईं और कुआँ भी तैयार हो गया।(हयातुल क़ुलूब जिल्द 2 व मजमउल बहरैन पृष्ठ 577 व मासिरे बक़र पृष्ठ 22 )

रसूले करीम (स. अ.) फ़रमाते हैं कि इन मुक़ामात से जल्द दूर भागो जो माजूब हो चुके हैं ताकि कहीं ऐसा न हो कि तुम भी मुतासिर हो जाओ।(मुक़दमा इब्ने ख़लदून पृष्ठ 125 प्रकाशित मिस्र)

अल्लामा रशीदउद्दीन अबू अब्दुल्लाह मोहम्मद बिन अली बिन शहर आशोब ने इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) ही जैसा वाक़ेया अहदे मेहदी अब्बासी में इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) के मुताअल्लिक़ लिखा है।(मुनाक़िब जिल्द 5 पृष्ठ 69 )

हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) की दमिश्क़ में तलबी

अल्लामा मजलिसी और सय्यद इब्ने ताऊस रक़मतराज़ हैं कि हश्शाम बिन अब्दुल मलिक अपने अहदे हकूमत के आख़िरी अय्याम में हज्जे बैतुल्लाह के लिये मक्का मोअज़्ज़मा पहुँचा। वहां हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) और इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) भी मौजूद थे। एक दिन इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) ने मजमाए आम में एक ख़ुतबा इरशाद फ़रमाया जिसमें और बातों के अलावा यह भी कहा कि हम रूए ज़मीन पर ख़ुदा के ख़लीफ़ा और उसकी हुज्जत हैं , हमारा दुश्मन जहन्नम में जायेगा , और हमारा दोस्त नेमाते जन्नत से मुतमइन होगा। इस ख़ुतबे की इत्तेला हश्शाम को दी गई , वह वहां तो खा़मोश रहा लेकिन दमिश्क़ पहुँचने के बाद वालीए मदीना को पैग़ाम भेजा कि मोहम्मद बिन अली और जाफ़र बिन मोहम्मद को मेरे पास भेज दो। चुनान्चे आप हज़रात दमिश्क़ पहुँचे वहां हश्शाम ने आपको तीन रोज़ तक इज़ने हुज़ूरी नही दिया। चौथे रोज़ जब अच्छी तरह दरबार को सजा लिया तो आपको बुलावा भेजा। आप हज़रात जब दाखि़ले दरबार हुए तो आपको ज़लील करने के लिये आपसे कहा हमारे तीर अन्दाज़ों की तरह आप भी तीर अन्दाज़ी करें।

हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) ने फ़रमाया कि मैं ज़ईफ़ हो गया हूँ मुझे इस से माफ़ रख , उसने ब क़सम कहा यह न मुम्किन है। फिर एक तीर कमान आपको दिलवा दी आपने ठीक निशाने पर तीर लगाए , यह देख कर वह हैरान रह गया। इसके बाद इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया , बादशाह हम मादने रिसालत हैं हमारा मुक़ाबला किसी अमर में कोई नहीं कर सकता। यह सुन कर हश्शाम को ग़ुस्सा आ गया , वह बोला कि आप लोग बहुत बड़े बड़े वादे करते हैं आपके दादा अली बिन अबी तालिब ने ग़ैब का दावा किया है। आपने फ़रमाया बादशाह क़ुरआन मजीद में सब कुछ मौजूद है और हज़रत अली (अ.स.) इमामे मुबीन थे , उन्हे क्या नहीं मालूम था।(जिलाउल उयून)

सक़्क़तुल इस्लाम अल्लामा क़ुलैनी तहरीर फ़रमाते हैं कि हश्शाम ने अहले दरबार को हुक्म दिया था कि मैं मोहम्मद इब्ने अली इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) को सरे दरबार ज़लील करूंगा तुम लोग यह करना कि जब मैं ख़ामोश हो जाऊं तो उन्हें कलमाते न सज़ा कहना चुनान्चे ऐसा ही किया गया।

आखि़र में हज़रत ने फ़रमाया , बादशाह याद रख हम ज़लील करने से ज़लील नहीं हो सकते , ख़ुदा वन्दे आलम ने हमें जो इज़्ज़त दी है उसमें हम मुन्फ़रिद हैं। याद रख आक़बत की शाही मुत्तक़ीन के लिये है। यह सुन कर हश्शाम ने फ़ामर बहा अला अलजिस आपको क़ैद करने का हुक्म दे दिया चुनान्चे आप क़ैद कर दिये गये।

क़ैद ख़ाने में दाख़िल होने के बाद आपने क़ैदियों के सामने एक मोजिज़ नुमा तक़रीर की जिसके नतीजे में क़ैद ख़ाने के अन्दर कोहरामे अज़ीम बरपा हो गया। बिल आखि़र क़ैद खाने के दरोगा़ ने हश्शाम से कहा कि अगर मोहम्मद बिन अली ज़्यादा दिनों क़ैद रहे तो तेरी ममलेकत का निज़ाम मुन्क़लिब हो जायेगा। इनकी तक़रीर क़ैद ख़ाने से बाहर भी असर डाल रही है और अवाम में इनके क़ैद होने से बड़ा जोश है। यह सुन कर हश्शाम डर गया और उसने आपकी रेहाई का हुक्म दिया और साथ ही यह भी ऐलान करा दिया कि न आपको कोई मदीने पहुँचाने जाय और न रास्ते में कोई आपको खाना पानी दे , चुनान्चे आप तीन रोज़ भूखे प्यासे दाखि़ले मदीना हुए।

वहां पहुँच कर आपने खाने पीने की सई की लेकिन किसी ने कुछ न दिया। बाज़ार हश्शाम के हुक्म से बन्द थे यह हाल देख कर आप एक पहाड़ी पर गए और आपने उस पर खड़े हो कर अज़ाबे इलाही का हवाला दिया। यह सुन कर एक पीर मर्द बाज़ार में खड़ा हो कर कहने लगा भाईयों ! सुनो , यही वह जगह है जिस जगह हज़रत शुऐब नबी ने खड़े हो कर अज़ाबे इलाही की ख़बर दी थी और अज़ीम तरीन अज़ाब नाज़िल हुआ था। मेरी बात मानो और अपने आप को अज़ाब में मुबतिला न करो। यह सुन कर सब लोग हज़रत की खि़दमत में हाज़िर हो गए और आपके लिए होटलों के दरवाज़े खोल दिये।(उसूले काफ़ी)

अल्लामा मजलिसी लिखते हैं कि इस वाक़ऐ के बाद हश्शाम ने वाली मदीना इब्राहीम बिन अब्दुल मलिक को लिखा कि इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) को ज़हर से शहीद कर दे।(जिलाउल उयून पृष्ठ 262 )

किताब अल ख़राएज व अल बहराएज़ में अल्लामा रवन्दी लिखते हैं कि इस वाक़ेए के बाद हश्शाम बिन अब्दुल मलिक ने ज़ैद बिन हसन के साथ बाहमी साज़िश के ज़रिए इमाम (अ.स.) को दोबारा दमिश्क़ में तलब करना चाहा लेकिन वालिये मदीना की हमनवाई हासिल न होने की वजह से अपने इरादे से बाज़ आया। उसने तबरूकाते रिसालत (स. अ.) जबरन तबल किये और इमाम (अ.स.) ने बरवाएते इरसाल फ़रमा दिये।

दमिश्क़ से रवानगी और एक राहिब का मुसलमान होना

अल्लामा मजलिसी तहरीर फ़रमाते हैं कि हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) क़ैद ख़ाना ए दमिश्क़ से रिहा हो कर मदीने को तशरीफ़ लिये जा रहे थे कि नागाह रास्ते में एक मुक़ाम पर मजमए कसीर नज़र आया। आपने तफ़ाहुसे हाल किया तो मालूम हुआ कि नसारा का एक राहिब है जो साल में सिर्फ़ एक बार अपने माअबद से निकलता है। आज इसके निकलने का दिन है। हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) इस मजमे में अवाम के साथ जा कर बैठ गए , राहिब जो इन्तेहाई ज़ईफ़ था , मुक़र्रेरा वक़्त पर बरामद हुआ। उसने चारों तरफ़ नज़र दौड़ाने के बाद इमाम (अ.स.) की तरफ़ मुख़ातिब हो कर बोला , 1. क्या आप हम में से हैं ? इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया , मैं उम्मते मोहम्मद से हूँ। 2. आप उलमा से हैं या जोहला से ? फ़रमाया मैं जाहिल नहीं हूँ। 3. आप मुझ से कुछ दरियाफ़्त करने के लिये आयें हैं ? फ़रमाया नहीं। 4. जब कि आप आलिमों में से हैं क्या मैं आप से कुछ पूछ सकता हूँ ? फ़रमाया ज़रूर पूछिए।

यह सुन कर राहिब ने सवाल किया 1. शबो रोज़ में वह कौन सा वक़्त है जिसका शुमार न दिन में हो न रात में हो ? फ़रमाया वह सूरज के तुलू से पहले का वक़्त है जिसका शुमार दिन और रात दोनों में नहीं। वह वक़्त जन्नत के अवक़ात में से है और ऐसा मुताबर्रिक है कि इसमें बीमारों को होश आ जाता है। र्दद को सुकून होता है। जो रात भर न सो सके उसे नींद आ जाती है , यह वक़्ते आख़रत की तरह रग़बत रखने वालों के लिये ख़ास उल ख़ास है। 2. आपका अक़ीदा है कि जन्नत में पेशाब व पख़ाना की ज़रूरत न होगी , क्या दुनिया में इसकी कोई मिसाल है। फ़रमाया बतने मादर में जो बच्चे परवरिश पाते हैं , इनका फ़ुज़ला ख़ारिज नहीं होता। 3. मुसलमानों का अक़ीदा है कि खाने से बहिश्त का मेवा कम न होगा इसकी यहां कोई मिसाल है ? फ़रमाया हाँ , एक चिराग़ से लाखों चिराग़ जलाए जाऐ तब भी पहले चिराग़ की रौशनी में कमी न होगी। 4. वह कौन से दो भाई हैं जो एक साथ पैदा हुए और एक साथ मरे लेकिन एक की उमर पचास साल की हुई दूसरे की डेढ़ सौ साल की हुई ? फ़रमाया उज़ैर और अज़ीज़ पैग़म्बर हैं। यह दोनों दुनियां में एक ही रोज़ पैदा हुए और एक ही रोज़ मरे। पैदाईश के बाद तीस बरस तक साथ रहे फिर ख़ुदा ने अज़ीज़ नबी को मार डाला (जिसका ज़िक्र क़ुरआन मजीद में मौजूद है) और सौ बरस (100) के बाद फिर ज़िन्दा फ़रमाया इसके बाद वह अपने भाई के साथ और ज़िन्दा रहे और फिर एक रोज़ दोनों ने इन्तेक़ाल किया।

यह सुन कर राहिब अपने मानने वालों की तरफ़ मोतवज्जा हो कर कहने लगा कि जब तक यह शख़्स शाम के हुदू में मौजूद है मैं किसी के सवाल का जवाब न दूंगा। सब को चाहिये कि इसी आलमे ज़माना से सवाल करे इसके बाद वह मुसलमान हो गया।

(जलाल उल उयून पृष्ठ 261 प्रकाशित ईरान 1301 हिजरी)

इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) की शहादत

आप अगरचे अपने इल्मी फ़ैज़ व बरकात की वजह से इस्लाम को बराबर फ़रोग़ दे रहे थे लेकिन इसके बावजूद हश्शाम बिन अब्दुल मलिक ने आपको ज़हर के ज़रिए से शहीद करा दिया और आप बतारीख़ 7 ज़िल्हिज्जा 114 हिजरी यौमे दोशम्बा मदीना मुनव्वरा में इन्तिक़ाल फ़रमा गए। इस वक़्त आपकी उम्र 57 साल की थी आप जन्नतुल बक़ीह में दफ़्न हुए।(कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 93 जिलाउल उयून पृष्ठ 264 जनात अल ख़लूद पृष्ठ 26, दमए साकेबा पृष्ठ 449, अनवारूल हुसैनिया पृष्ठ 48, शवाहेदुन नबूअत पृष्ठ 181 रौज़तुल शोहदा पृष्ठ 434 )

अल्लामा शिबलंजी और अल्लामा इब्ने हजर मक्की फ़रमाते हैं , ‘‘ मात मसमूमन काबहू ’’ आप अपने पदरे बुज़ुर्गवार इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ही की तरह ज़हर से शहीद कर दिए गए।(नुरूल अबसार पृष्ठ 31 व सवाक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 120 ) आपकी शहादत हश्शाम के हुक्म से इब्राहीम बिन वालिये मदीना की ज़हर ख़ूरानी के ज़रिए वाक़े हुई है। एक रवायत में है कि ख़लीफ़ा ए वक़्त हश्शाम बिन अब्दुल मलिक की मुरसला ज़हर आलूद ज़ीन के ज़रिए से वाक़े हुई थी।(जनात अल खुलूद व दमए साकेबा जिल्द 2 पृष्ठ 478 )

शहादत से क़ब्ल आपने हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) से बहुत सी चीज़ों के मुताअल्लिक़ वसीअत फ़रमाई और कहा कि बेटा मेरे कानों में मेरे वालिदे माजिद की आवाज़ आ रही है। वह मुझे जल्द बुला रहे हैं।(नुरूल अबसार पृष्ठ 131 )

आपने ग़ुस्लो कफ़न के मुताअल्लिक़ ख़ास तौर पर हिदायत की क्यों कि इमाम राजिज़ इमाम नशवेद , इमाम को इमाम ही ग़ुस्ल दे सकता है।(शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 181 ) अल्लामा मजलिसी फ़रमाते हैं कि आपने अपनी वसीअतों में यह भी कहा कि 800 दिरहम मेरी अज़ादारी और मेरे मातम पर सर्फ़ करना और ऐसा इन्तेज़ाम करना कि दस साल तक मिना मेंब ज़मानए हज मेरी मज़लूमियत का मातम किया जाए।(जिलाउल उयून पृष्ठ 264 ) उलमा का बयान है कि वसीयतों में यह भी था कि मेरे बन्दे कफ़न क़ब्र में खोल देना और मेरी क़ब्र चार उंगल से ज़्यादा ऊँची न करना।(जनात अल ख़ुलूद पृष्ठ 27 )

अज़वाज व औलाद

आपकी चार बीबीयाँ थीं और उन्हीं से औलाद हुई। उम्मे फ़रवा , उम्मे हकीम , लैला और एक बीबी उम्मे फ़रवा क़ासिम बिन मोहम्मद बिन अबी बक्र जिन से हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) और अब्दुल्लाह अफ़तह पैदा हुए और उम्मे बिन्ते असद बिन मोग़ैरा शक़फ़ी से इब्राहीम व अब्दुल्लाह और लैला से अली और ज़ैनब पैदा हुये और चौथी बीबी से उम्मे सलमा मोता वल्लिद हुइ।(इरशाद मुफ़ीद पृष्ठ 294 मनाक़िब जिल्द 5 पृष्ठ 19 व नुरूल अबसार सफ़़ा 131 )

अल्लामा मोहम्मद बाक़िर बहभानी , अल्लामा मोहम्मद रज़ा आले काशेफ़ुल ग़ता और अल्लामा हुसैन वाएज़ काशफ़ी लिखते हैं कि हज़रत मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) की नस्ल सिर्फ़ इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) से बढ़ी है उनके अलावा किसी की औलादें ज़िन्दा और बाक़ी नहीं रहीं।(दमए साकेबा जिल्द 2 पृष्ठ 479 अनवारूल हुसैनिया जिल्द 2 पृष्ठ 48, रौज़तुल शोहदा पृष्ठ 434 प्रकाशित लखनऊ 1284 0 )

[ {अलहम्दो लिल्लाह किताब अबु जाफ़र हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) पूरी टाईप हो गई जो कि चौदह सितारे का एक हिस्सा है। खुदा वंदे आलम से दुआगौ हुं कि हमारे इस अमल को कुबुल फरमाऐ और इमाम हुसैन (अ.) फाउनडेशन को तरक्की इनायत फरमाए कि जिन्होने इस किताब को अपनी साइट (अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क) के लिऐ हिन्दी मे टाइप कराया। }]

2510 2016