अल्लामा इक़बाल की नज़मे

अल्लामा इक़बाल की नज़मे0%

अल्लामा इक़बाल की नज़मे लेखक:
कैटिगिरी: शेर व अदब

अल्लामा इक़बाल की नज़मे

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: अल्लामा इक़बाल
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अल्लामा इक़बाल की नज़मे
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अल्लामा इक़बाल की नज़मे

अल्लामा इक़बाल की नज़मे

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


अल्लामा इक़बाल की ये नज़मे हमने रे्ख्ता नामक साइट से ली है और इनको बग़ैर किसी कमी या ज़्यादती के मिनो अन एक किताबी शक्ल मे जमा कर दिया है। इन नज़मो की तादाद उन्तीस है।

अल्लामा इक़बाल की नज़मे

अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

अबुल-अला-म 'अर्री

कहते हैं कभी गोश्त न खाता था म 'अर्री

फल-फूल पे करता था हमेशा गुज़र-औक़ात

इक दोस्त ने भूना हुआ तीतर उसे भेजा

शायद कि वो शातिर इसी तरकीब से हो मात

ये ख़्वान-ए-तर-ओ-ताज़ा म 'अर्री ने जो देखा

कहने लगा वो साहिब-ए-गुफ़रान-ओ-लुज़ूमात

ऐ मुर्ग़क-ए-बेचारा ज़रा ये तो बता तू

तेरा वो गुनह क्या था ये है जिस की मुकाफ़ात ?

अफ़्सोस-सद-अफ़्सोस कि शाहीं न बना तू

देखे न तिरी आँख ने फ़ितरत के इशारात!

तक़दीर के क़ाज़ी का ये फ़तवा है अज़ल से

है जुर्म-ए-ज़ईफ़ी की सज़ा मर्ग-ए-मुफ़ाजात!

इबलीस की मजलिस-ए-शूरा

इबलीस

ये अनासिर का पुराना खेल ये दुनिया-ए-दूँ

साकिनान-ए-अर्श-ए-आज़म की तमन्नाओं का ख़ूँ

इस की बर्बादी पे आज आमादा है वो कारसाज़

जिस ने इस का नाम रखा था जहान-ए-काफ़-अो-नूँ

मैं ने दिखलाया फ़रंगी को मुलूकियत का ख़्वाब

मैं ने तोड़ा मस्जिद-ओ-दैर-ओ-कलीसा का फ़ुसूँ

मैं ने नादारों को सिखलाया सबक़ तक़दीर का

मैं ने मुनइ 'म को दिया सरमाया दारी का जुनूँ

कौन कर सकता है इस की आतिश-ए-सोज़ाँ को सर्द

जिस के हंगामों में हो इबलीस का सोज़-ए-दरूँ

जिस की शाख़ें हों हमारी आबियारी से बुलंद

कौन कर सकता है इस नख़्ल-ए-कुहन को सर-निगूँ

पहला मुशीर

इस में क्या शक है कि मोहकम है ये इबलीसी निज़ाम

पुख़्ता-तर इस से हुए खोई ग़ुलामी में अवाम

है अज़ल से इन ग़रीबों के मुक़द्दर में सुजूद

इन की फ़ितरत का तक़ाज़ा है नमाज़-ए-बे-क़याम

आरज़ू अव्वल तो पैदा हो नहीं सकती कहीं

हो कहीं पैदा तो मर जाती है या रहती है ख़ाम

ये हमारी सई-ए-पैहम की करामत है कि आज

सूफ़ी-ओ-मुल्ला मुलूकिय्यत के बंदे हैं तमाम

तब-ए-मशरिक़ के लिए मौज़ूँ यही अफ़यून थी

वर्ना क़व्वाली से कुछ कम-तर नहीं इल्म-ए-कलाम

है तवाफ़-ओ-हज का हंगामा अगर बाक़ी तो क्या

कुंद हो कर रह गई मोमिन की तेग़-ए-बे-नियाम

किस की नौ-मीदी पे हुज्जत है ये फ़रमान-ए-जदीद

है जिहाद इस दौर में मर्द-ए-मुसलमाँ पर हराम

दूसरा मुशीर

ख़ैर है सुल्तानी-ए-जम्हूर का ग़ौग़ा कि शर

तू जहाँ के ताज़ा फ़ित्नों से नहीं है बा-ख़बर

पहला मुशीर

हूँ मगर मेरी जहाँ-बीनी बताती है मुझे

जो मुलूकियत का इक पर्दा हो क्या इस से ख़तर

हम ने ख़ुद शाही को पहनाया है जमहूरी लिबास

जब ज़रा आदम हुआ है ख़ुद-शनास-ओ-ख़ुद-निगर

कारोबार-ए-शहरयारी की हक़ीक़त और है

ये वजूद-ए-मीर-ओ-सुल्ताँ पर नहीं है मुनहसिर

मज्लिस-ए-मिल्लत हो या परवेज़ का दरबार हो

है वो सुल्ताँ ग़ैर की खेती पे हो जिस की नज़र

तू ने क्या देखा नहीं मग़रिब का जमहूरी निज़ाम

चेहरा रौशन अंदरूँ चंगेज़ से तारीक-तर

तीसरा मुशीर

रूह-ए-सुल्तानी रहे बाक़ी तो फिर क्या इज़्तिराब

है मगर क्या इस यहूदी की शरारत का जवाब

वो कलीम-ए-बे-तजल्ली वो मसीह-ए-बे-सलीब

नीस्त पैग़मबर व-लेकिन दर बग़ल दारद किताब

क्या बताऊँ क्या है काफ़िर की निगाह-ए-पर्दा-सोज़

मश्रिक-ओ-मग़रिब की क़ौमों के लिए रोज़-ए-हिसाब

इस से बढ़ कर और क्या होगा तबीअ 'त का फ़साद

तोड़ दी बंदों ने आक़ाओं के ख़ेमों की तनाब

चौथा मुशीर

तोड़ इस का रुमत-उल-कुबरा के ऐवानों में देख

आल-ए-सीज़र को दिखाया हम ने फिर सीज़र का ख़्वाब

कौन बहर-ए-रुम की मौजों से है लिपटा हुआ

गाह बालद-चूँ-सनोबर गाह नालद-चूँ-रुबाब

तीसरा मुशीर

मैं तो इस की आक़िबत-बीनी का कुछ क़ाइल नहीं

जिस ने अफ़रंगी सियासत को क्या यूँ बे-हिजाब

पाँचवाँ मुशीर इबलीस को मुख़ातब कर के

ऐ तिरे सोज़-ए-नफ़स से कार-ए-आलम उस्तुवार

तू ने जब चाहा किया हर पर्दगी को आश्कार

आब-ओ-गिल तेरी हरारत से जहान-ए-सोज़-अो-साज़़

अब्लह-ए-जन्नत तिरी तालीम से दाना-ए-कार

तुझ से बढ़ कर फ़ितरत-ए-आदम का वो महरम नहीं

सादा-दिल बंदों में जो मशहूर है पर्वरदिगार

काम था जिन का फ़क़त तक़्दीस-ओ-तस्बीह-ओ-तवाफ़

तेरी ग़ैरत से अबद तक सर-निगूँ-ओ-शर्मसार

गरचे हैं तेरे मुरीद अफ़रंग के साहिर तमाम

अब मुझे उन की फ़रासत पर नहीं है ए 'तिबार

वो यहूदी फ़ित्ना-गर वो रूह-ए-मज़दक का बुरूज़

हर क़बा होने को है इस के जुनूँ से तार तार

ज़ाग़ दश्ती हो रहा है हम-सर-ए-शाहीन-अो-चर्ग़

कितनी सुरअ 'त से बदलता है मिज़ाज-ए-रोज़गार

छा गई आशुफ़्ता हो कर वुसअ 'त-ए-अफ़्लाक पर

जिस को नादानी से हम समझे थे इक मुश्त-ए-ग़ुबार

फ़ितना-ए-फ़र्दा की हैबत का ये आलम है कि आज

काँपते हैं कोहसार-ओ-मुर्ग़-ज़ार-ओ-जूएबार

मेरे आक़ा वो जहाँ ज़ेर-ओ-ज़बर होने को है

जिस जहाँ का है फ़क़त तेरी सियादत पर मदार

इल्तिजा-ए-मुसाफ़िर

ब - दरगाह - ए - हज़रत महबूब - ए - इलाही देहली

फ़रिश्ते पढ़ते हैं जिस को वो नाम है तेरा

बड़ी जनाब तिरी फ़ैज़ आम है तेरा

सितारे इश्क़ के तेरी कशिश से हैं क़ाएम

निज़ाम-ए-मेहर की सूरत निज़ाम है तेरा

तिरी लहद की ज़ियारत है ज़िंदगी दिल की

मसीह ओ ख़िज़्र से ऊँचा मक़ाम है तेरा

निहाँ है तेरी मोहब्बत में रंग-ए-महबूबी

बड़ी है शान बड़ा एहतिराम है तेरा

अगर सियाह दिलम दाग़-ए-लाला-ज़ार-ए-तवाम

दिगर कुशादा जबीनम गुल-ए-बहार-ए-तवाम

चमन को छोड़ के निकला हूँ मिस्ल-ए-निकहत-ए-गुल

हुआ है सब्र का मंज़ूर इम्तिहाँ मुझ को

चली है ले के वतन के निगार-ख़ाने से

शराब-ए-इल्म की लज़्ज़त कशाँ कशाँ मुझ को

नज़र है अब्र-ए-करम पर दरख़्त-ए-सहरा हूँ

किया ख़ुदा ने न मोहताज-ए-बाग़बाँ मुझ को

फ़लक-नशीं सिफ़त-ए-मेहर हूँ ज़माने में

तिरी दुआ से अता हो वो नर्दबाँ मुझ को

मक़ाम हम-सफ़रों से हो इस क़दर आगे

कि समझे मंज़िल-ए-मक़्सूद कारवाँ मुझ को

मिरी ज़बान-ए-क़लम से किसी का दिल न दुखे

किसी से शिकवा न हो ज़ेर-ए-आसमाँ मुझ को

दिलों को चाक करे मिस्ल-ए-शाना जिस का असर

तिरी जनाब से ऐसी मिले फ़ुग़ाँ मुझ को

बनाया था जिसे चुन चुन के ख़ार ओ ख़स मैं ने

चमन में फिर नज़र आए वो आशियाँ मुझ को

फिर आ रखूँ क़दम-ए-मादर-ओ-पिदर पे जबीं

किया जिन्हों ने मोहब्बत का राज़-दाँ मुझ को

वो शम-ए-बारगह-ए-ख़ानदान-ए-मुर्तज़वी

रहेगा मिस्ल-ए-हरम जिस का आस्ताँ मुझ को

नफ़स से जिस के खिली मेरी आरज़ू की कली

बनाया जिस की मुरव्वत ने नुक्ता-दाँ मुझ को

दुआ ये कर कि ख़ुदावंद-ए-आसमान-ओ-ज़मीं

करे फिर उस की ज़ियारत से शादमाँ मुझ को

वो मेरा यूसुफ़-ए-सानी वो शम-ए-महफ़िल-ए-इश्क़

हुई है जिस की उख़ुव्वत क़रार-ए-जाँ मुझ को

जला के जिस की मोहब्बत ने दफ़्तर-ए-मन-ओ-तू

हवा-ए-ऐश में पाला किया जवाँ मुझ को

रियाज़-ए-दहर में मानिंद-ए-गुल रहे ख़ंदाँ

कि है अज़ीज़-तर अज़-जाँ वो जान-ए-जाँ मुझ को

शगुफ़्ता हो के कली दिल की फूल हो जाए

ये इल्तिजा-ए-मुसाफ़िर क़ुबूल हो जाए

एक आरज़ू

दुनिया की महफ़िलों से उक्ता गया हूँ या रब

क्या लुत्फ़ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो

शोरिश से भागता हूँ दिल ढूँडता है मेरा

ऐसा सुकूत जिस पर तक़रीर भी फ़िदा हो

मरता हूँ ख़ामुशी पर ये आरज़ू है मेरी

दामन में कोह के इक छोटा सा झोंपड़ा हो

आज़ाद फ़िक्र से हूँ उज़्लत में दिन गुज़ारूँ

दुनिया के ग़म का दिल से काँटा निकल गया हो

लज़्ज़त सरोद की हो चिड़ियों के चहचहों में

चश्मे की शोरिशों में बाजा सा बज रहा हो

गुल की कली चटक कर पैग़ाम दे किसी का

साग़र ज़रा सा गोया मुझ को जहाँ-नुमा हो

हो हाथ का सिरहाना सब्ज़े का हो बिछौना

शरमाए जिस से जल्वत ख़ल्वत में वो अदा हो

मानूस इस क़दर हो सूरत से मेरी बुलबुल

नन्हे से दिल में उस के खटका न कुछ मिरा हो

सफ़ बाँधे दोनों जानिब बूटे हरे हरे हों

नद्दी का साफ़ पानी तस्वीर ले रहा हो

हो दिल-फ़रेब ऐसा कोहसार का नज़ारा

पानी भी मौज बन कर उठ उठ के देखता हो

आग़ोश में ज़मीं की सोया हुआ हो सब्ज़ा

फिर फिर के झाड़ियों में पानी चमक रहा हो

पानी को छू रही हो झुक झुक के गुल की टहनी

जैसे हसीन कोई आईना देखता हो

मेहंदी लगाए सूरज जब शाम की दुल्हन को

सुर्ख़ी लिए सुनहरी हर फूल की क़बा हो

रातों को चलने वाले रह जाएँ थक के जिस दम

उम्मीद उन की मेरा टूटा हुआ दिया हो

बिजली चमक के उन को कुटिया मिरी दिखा दे

जब आसमाँ पे हर सू बादल घिरा हुआ हो

पिछले पहर की कोयल वो सुब्ह की मोअज़्ज़िन

मैं उस का हम-नवा हूँ वो मेरी हम-नवा हो

कानों पे हो न मेरे दैर ओ हरम का एहसाँ

रौज़न ही झोंपड़ी का मुझ को सहर-नुमा हो

फूलों को आए जिस दम शबनम वज़ू कराने

रोना मिरा वज़ू हो नाला मिरी दुआ हो

इस ख़ामुशी में जाएँ इतने बुलंद नाले

तारों के क़ाफ़िले को मेरी सदा दिरा हो

हर दर्दमंद दिल को रोना मिरा रुला दे

बेहोश जो पड़े हैं शायद उन्हें जगा दे

एक नौ-जवान के नाम

तिरे सोफ़े हैं अफ़रंगी तिरे क़ालीं हैं ईरानी

लहू मुझ को रुलाती है जवानों की तन-आसानी

इमारत किया शिकवा-ए-ख़ुसरवी भी हो तो क्या हासिल

न ज़ोर-ए-हैदरी तुझ में न इस्तिग़ना-ए-सलमानी

न ढूँड उस चीज़ को तहज़ीब-ए-हाज़िर की तजल्ली में

कि पाया मैं ने इस्तिग़्ना में मेराज-ए-मुसलमानी

उक़ाबी रूह जब बेदार होती है जवानों में

नज़र आती है उन को अपनी मंज़िल आसमानों में

न हो नौमीद नौमीदी ज़वाल-ए-इल्म-ओ-इरफ़ाँ है

उमीद-ए-मर्द-ए-मोमिन है ख़ुदा के राज़-दानों में

नहीं तेरा नशेमन क़स्र-ए-सुल्तानी के गुम्बद पर

तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चटानों में

औरत

वजूद-ए-ज़न से है तस्वीर-ए-काएनात में रंग

उसी के साज़ से है ज़िंदगी का सोज़-ए-दरूँ

शरफ़ में बढ़ के सुरय्या से मुश्त-ए-ख़ाक उस की

कि हर शरफ़ है इसी दर्ज का दुर-ए-मकनूँ

मुकालमात-ए-फ़लातूँ न लिख सकी लेकिन

उसी के शोले से टूटा शरार-ए-अफ़लातूँ

गोरिस्तान-ए-शाही

आसमाँ बादल का पहने ख़िरक़ा-ए-देरीना है

कुछ मुकद्दर सा जबीन-ए-माह का आईना है

चाँदनी फीकी है इस नज़्ज़ारा-ए-ख़ामोश में

सुब्ह-ए-सादिक़ सो रही है रात की आग़ोश में

किस क़दर अश्जार की हैरत-फ़ज़ा है ख़ामुशी

बरबत-ए-क़ुदरत की धीमी सी नवा है ख़ामुशी

बातिन-ए-हर-ज़र्रा-ए-आलम सरापा दर्द है

और ख़ामोशी लब-ए-हस्ती पे आह-ए-सर्द है

आह जौलाँ-गाह-ए-आलम-गीर यानी वो हिसार

दोश पर अपने उठाए सैकड़ों सदियों का बार

ज़िंदगी से था कभी मामूर अब सुनसान है

ये ख़मोशी उस के हंगामों का गोरिस्तान है

अपने सुक्कान-ए-कुहन की ख़ाक का दिल-दादा है

कोह के सर पर मिसाल-ए-पासबाँ इस्तादा है

अब्र के रौज़न से वो बाला-ए-बाम-ए-आसमाँ

नाज़िर-ए-आलम है नज्म-ए-सब्ज़-फ़ाम-ए-आसमाँ

ख़ाक-बाज़ी वुसअत-ए-दुनिया का है मंज़र उसे

दास्ताँ नाकामी-ए-इंसाँ की है अज़बर उसे

है अज़ल से ये मुसाफ़िर सू-ए-मंज़िल जा रहा

आसमाँ से इंक़िलाबों का तमाशा देखता

गो सुकूँ मुमकिन नहीं आलम में अख़्तर के लिए

फ़ातिहा-ख़्वानी को ये ठहरा है दम भर के लिए

रंग-ओ-आब-ए-ज़िंदगी से गुल-ब-दामन है ज़मीं

सैकड़ों ख़ूँ-गश्ता तहज़ीबों का मदफ़न है ज़मीं

ख़्वाब-गह शाहों की है ये मंज़िल-ए-हसरत-फ़ज़ा

दीदा-ए-इबरत ख़िराज-ए-अश्क-ए-गुल-गूँ कर अदा

है तो गोरिस्ताँ मगर ये ख़ाक-ए-गर्दूं-पाया है

आह इक बरगश्ता क़िस्मत क़ौम का सरमाया है

मक़बरों की शान हैरत-आफ़रीं है इस क़दर

जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ से है चश्म-ए-तमाशा को हज़र

कैफ़ियत ऐसी है नाकामी की इस तस्वीर में

जो उतर सकती नहीं आईना-ए-तहरीर में

सोते हैं ख़ामोश आबादी के हंगामों से दूर

मुज़्तरिब रखती थी जिन को आरज़ू-ए-ना-सुबूर

क़ब्र की ज़ुल्मत में है इन आफ़्ताबों की चमक

जिन के दरवाज़ों पे रहता है जबीं-गुस्तर फ़लक

क्या यही है इन शहंशाहों की अज़्मत का मआल

जिन की तदबीर-ए-जहाँबानी से डरता था ज़वाल

रोब-ए-फ़ग़्फ़ूरी हो दुनिया में कि शान-ए-क़ैसरी

टल नहीं सकती ग़नीम-ए-मौत की यूरिश कभी

बादशाहों की भी किश्त-ए-उम्र का हासिल है गोर

जादा-ए-अज़्मत की गोया आख़िरी मंज़िल है गोर

शोरिश-ए-बज़्म-ए-तरब क्या ऊद की तक़रीर क्या

दर्दमंदान-ए-जहाँ का नाला-ए-शब-गीर क्या

अरसा-ए-पैकार में हंगामा-ए-शमशीर क्या

ख़ून को गरमाने वाला नारा-ए-तकबीर क्या

अब कोई आवाज़ सोतों को जगा सकती नहीं

सीना-ए-वीराँ में जान-ए-रफ़्ता आ सकती नहीं

रूह-ए-मुश्त-ए-ख़ाक में ज़हमत-कश-ए-बेदाद है

कूचा गर्द-ए-नय हुआ जिस दम नफ़स फ़रियाद है

ज़िंदगी इंसाँ की है मानिंद-ए-मुर्ग़-ए-ख़ुश-नवा

शाख़ पर बैठा कोई दम चहचहाया उड़ गया

आह क्या आए रियाज़-ए-दहर में हम क्या गए

ज़िंदगी की शाख़ से फूटे खिले मुरझा गए

मौत हर शाह ओ गदा के ख़्वाब की ताबीर है

इस सितमगर का सितम इंसाफ़ की तस्वीर है

सिलसिला हस्ती का है इक बहर-ए-ना-पैदा-कनार

और इस दरिया-ए-बे-पायाँ की मौजें हैं मज़ार

ऐ हवस ख़ूँ रो कि है ये ज़िंदगी बे-ए 'तिबार

ये शरारे का तबस्सुम ये ख़स-ए-आतिश-सवार

चाँद जो सूरत-गर-ए-हस्ती का इक एजाज़ है

पहने सीमाबी क़बा महव-ए-ख़िराम-ए-नाज़ है

चर्ख़-ए-बे-अंजुम की दहशतनाक वुसअत में मगर

बेकसी इस की कोई देखे ज़रा वक़्त-ए-सहर

इक ज़रा सा अब्र का टुकड़ा है जो महताब था

आख़िरी आँसू टपक जाने में हो जिस की फ़ना

ज़िंदगी अक़्वाम की भी है यूँही बे-ए 'तिबार

रंग-हा-ए-रफ़्ता की तस्वीर है उन की बहार

इस ज़ियाँ-ख़ाने में कोई मिल्लत-ए-गर्दूं-वक़ार

रह नहीं सकती अबद तक बार-ए-दोश-ए-रोज़गार

इस क़दर क़ौमों की बर्बादी से है ख़ूगर जहाँ

देखता बे-ए 'तिनाई से है ये मंज़र जहाँ

एक सूरत पर नहीं रहता किसी शय को क़रार

ज़ौक़-ए-जिद्दत से है तरकीब-ए-मिज़ाज-ए-रोज़गार

है नगीन-ए-दहर की ज़ीनत हमेशा नाम-ए-नौ

मादर-ए-गीती रही आबस्तन-ए-अक़्वाम-ए-नौ

है हज़ारों क़ाफ़िलों से आश्ना ये रहगुज़र

चश्म-ए-कोह-ए-नूर ने देखे हैं कितने ताजवर

मिस्र ओ बाबुल मिट गए बाक़ी निशाँ तक भी नहीं

दफ़्तर-ए-हस्ती में उन की दास्ताँ तक भी नहीं

आ दबाया मेहर-ए-ईराँ को अजल की शाम ने

अज़्मत-ए-यूनान-ओ-रूमा लूट ली अय्याम ने

आह मुस्लिम भी ज़माने से यूँही रुख़्सत हुआ

आसमाँ से अब्र-ए-आज़ारी उठा बरसा गया

है रग-ए-गुल सुब्ह के अश्कों से मोती की लड़ी

कोई सूरज की किरन शबनम में है उलझी हुई

सीना-ए-दरिया शुआओं के लिए गहवारा है

किस क़दर प्यारा लब-ए-जू मेहर का नज़्ज़ारा है

महव-ए-ज़ीनत है सनोबर जूएबार-ए-आईना है

ग़ुंचा-ए-गुल के लिए बाद-ए-बहार-ए-आईना है

नारा-ज़न रहती है कोयल बाग़ के काशाने में

चश्म-ए-इंसाँ से निहाँ पत्तों के उज़्लत-ख़ाने में

और बुलबुल मुतरिब-ए-रंगीं नवा-ए-गुलसिताँ

जिस के दम से ज़िंदा है गोया हवा-ए-गुलसिताँ

इश्क़ के हंगामों की उड़ती हुई तस्वीर है

ख़ामा-ए-क़ुदरत की कैसी शोख़ ये तहरीर है

बाग़ में ख़ामोश जलसे गुलसिताँ-ज़ादों के हैं

वादी-ए-कोहसार में नारे शबाँ-ज़ादों के हैं

ज़िंदगी से ये पुराना ख़ाक-दाँ मामूर है

मौत में भी ज़िंदगानी की तड़प मस्तूर है

पत्तियाँ फूलों की गिरती हैं ख़िज़ाँ में इस तरह

दस्त-ए-तिफ़्ल-ए-ख़ुफ़्ता से रंगीं खिलौने जिस तरह

इस नशात-आबाद में गो ऐश बे-अंदाज़ा है

एक ग़म यानी ग़म-ए-मिल्लत हमेशा ताज़ा है

दिल हमारे याद-ए-अहद-ए-रफ़्ता से ख़ाली नहीं

अपने शाहों को ये उम्मत भूलने वाली नहीं

अश्क-बारी के बहाने हैं ये उजड़े बाम ओ दर

गिर्या-ए-पैहम से बीना है हमारी चश्म-ए-तर

दहर को देते हैं मोती दीदा-ए-गिर्यां के हम

आख़िरी बादल हैं इक गुज़रे हुए तूफ़ाँ के हम

हैं अभी सद-हा गुहर इस अब्र की आग़ोश में

बर्क़ अभी बाक़ी है इस के सीना-ए-ख़ामोश में

वादी-ए-गुल ख़ाक-ए-सहरा को बना सकता है ये

ख़्वाब से उम्मीद-ए-दहक़ाँ को जगा सकता है ये

हो चुका गो क़ौम की शान-ए-जलाली का ज़ुहूर

है मगर बाक़ी अभी शान-ए-जमाली का ज़ुहूर