अबु मोहम्मद हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.)

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अबु मोहम्मद हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) लेखक:
कैटिगिरी: इमाम हसन असकरी (अ)

अबु मोहम्मद हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.)
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अबु मोहम्मद हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.)

अबु मोहम्मद हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.)

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

पहली दुआ

बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम

जब आप दुआ मांगते तो उसकी इब्तिदा ख़ुदाए बुज़ुर्ग व बरतर की हम्द व सताइश से फ़रमाते , चुनांचे इस सिलसिले में फ़रमाया -

सब तारीफ़ उस अल्लाह के लिये है जो ऐसा अव्वल है जिसके पहले कोई अव्वल न था और ऐसा आखि़र है जिसके बाद कोई आखि़र न होगा। वह ख़ुदा जिसके देखने से देखने वालों की आंखें आजिज़ और जिसकी तौसीफ़ व सना से वसफ़ बयान करने वालों की अक़्लें क़ासिर हैं। उसने कायनात को अपनी क़ुदरत से पैदा किया , और अपने मन्शाए अज़ीम से जैसा चाहा उन्हें ईजाद किया। फिर उन्हें अपने इरादे के रास्ते पर चलाया और अपनी मोहब्बत की राह पर उभारा। जिन हुदूद की तरफ़ उन्हें आगे बढ़ाया है उनसे पीछे रहना और जिनसे पीछे रखा है उनसे आगे बढ़ना उनके क़ब्ज़ा व इख़्तेयार से बाहर है। उसी ने हर (ज़ी) रूह के लिये अपने (पैदा कर्दा) रिज़्क़ से मुअय्यन व मालूम रोज़ी मुक़र्रर कर दी है जिसे ज़्यादा दिया है उसे कोई घटाने वाला घटा नहीं सकता और जिसे कम दिया है उसे कोई बढ़ाने वाला बढ़ा नहीं सकता। फ़िर यह के उसी ने उसकी ज़िन्दगी का एक वक़्त मुक़र्रर कर दिया और एक मुअय्यना मुद्दत उसके लिये ठहरा दी। जिस मुद्दत की तरफ़ वह अपनी ज़िन्दगी के दिनों से बढ़ता और अपने ज़मानाए ज़ीस्त के सालों से उसके नज़दीक होता है यहाँ तक के जब ज़िन्दगी की इन्तेहा को पहुँच जाता है और अपनी उम्र का हिसाब पूरा कर लेता है तो अल्लाह उसे अपने सवाब बे पायाँ तक जिसकी तरफ़ उसे बुलाया था या ख़ौफ़नाक अज़ाब की जानिब जिसे बयान कर दिया था क़ब्ज़े रूह के बाद पहुंचा देता है ताके अपने अद्ल की बुनियाद पर बुरों को उनकी बद आमालियों की सज़ा और नेकोकारों को अच्छा बदला दे। उसके नाम पाकीज़ा और उसकी नेमतों का सिलसिला लगातार है। वह जो करता है उसकी पूछगछ उससे नहीं हो सकती और लोगों से बहरहाल बाज़पुर्श होगी।

तमाम तारीफ़ उस अल्लाह के लिये हैं के अगर वह अपने बन्दों को हम्द व शुक्र की मारेफ़त से महरूम रखता उन पैहम अतीयों (अता) पर जो उसने दिये हैं और उन पै दर पै नेमतों पर जो उसने फरावानी से बख़्शी हैं तो वह उसकी नेमतों में तसर्रूफ़ तो करते मगर उसकी हम्द न करते और उसके रिज़्क़ में फ़ारिग़लबाली से बसर तो करते मगर उसका शुक्र न बजा लाते और ऐसे होते तो इन्सानियत की हदों से निकल कर चौपायों की हद में आ जाते , और उस तौसीफ़ के मिस्दाक़ होते जो उसने अपनी मोहकम किताब में की है के वह तो बस चौपायों के मानिन्द हैं बल्कि उनसे भी ज़्यादा राहे रास्त से भटके हुए। ’’

तमाम तारीफ़ अल्लाह के लिये हैं के उसने अपनी ज़ात को हमें पहचनवाया और हम्द व शुक्र का तरीक़ा समझाया और अपनी परवरदिगारी पर इल्म व इत्तेलाअ के दरवाज़े हमारे लिये खोल दिये और तौहीद में तन्ज़िया व इख़लास की तरफ़ रहनुमाई की और अपने मुआमले में शिर्क व कजरवी से हमें बचाया। ऐसी हम्द जिसके ज़रिये हम उसकी मख़लूक़ात में से हम्दगुज़ारों में ज़िन्दगी बसर करें और उसकी ख़ुशनूदी व बख़्शिश की तरफ़ बढ़ने वालों से सबक़त ले जाएं। ऐसी हम्द जिसकी बदौलत हमारे लिये बरज़क़ की तारीकियां छट जाएं और जो हमारे लिये क़यामत की राहों को आसान कर दे और हश्र के मजमए आम में हमारी क़द्र व मन्ज़िलत को बलन्द कर दे जिस दिन हर एक को उसके किये काम का सिला मिलेगा और उन पर किसी तरह का ज़ुल्म न होगा। जिस दिन दोस्त किसी दोस्त के कुछ काम न आएगा और न उनकी मदद की जाएगी। ऐसी हम्द हो एक लिखी हुई किताब में है जिसकी मुक़र्रब फ़रिश्ते निगेहदाश्त करते हैं हमारी तरफ़ से बेहिश्त बरीं के बलन्द तरीन दरजात तक बलन्द हो , ऐसी हम्द जिससे हमारी आँखों में ठण्डक आए जबके तमाम आँखें हैरत व दहशत से फटी की फटी रह जाएंगी और हमारे चेहरे रौशन व दरख़्शाँ हों जबके तमाम चेहरे सियाह होंगे। ऐसी हम्द जिसके ज़रिये हम अल्लाह तआला की भड़काई हुई अज़ीयतदेह आग से आज़ादी पाकर उसके जवारे रहमत में आ जाएं। ऐसी हम्द जिसके ज़रिये हम इसके मुक़र्रब फ़रिश्तों के साथ शाना ब शाना बैठते हुए टकराएं और उस मन्ज़िले जावेद व मक़ामे इज़्ज़त व रिफ़अत में जिसे तग़य्युर व ज़वाल नहीं उसके फ़र्सतावा पैग़म्बरों के साथ यकजा हों।

तमाम तारीफ़ उस अल्लाह के लिये है जिसने खि़लक़त व आफ़रीन्श की तमाम ख़ूबियाँ हमारे लिये मुन्तख़ब कीं और पाक व पाकीज़ा रिज़्क़ का सिलसिला हमारे लिये जारी किया और हमें ग़लबा व तसल्लत देकर तमाम मख़लूक़ात पर बरतरी अता की। चुनांचे तमाम कायनात उसकी क़ुदरत से हमारे ज़ेरे फ़रमान और उसकी क़ूवते सरबलन्दी की बदौलत हमारी इताअत पर आमादा है। तमाम तारीफ़ उस अल्लाह तआला के लिये हैं जिसने अपने सिवा तलब व हाजत का हर दरवाज़ा हमारे लिये बन्द कर दिया तो हम (उस हाजत व एहतियाज के होते हुए) कैसे उसकी हम्द से ओहदा बरआ हो सकते हैं और कब उसका शुक्र अदा कर सकते हैं। नहीं! किसी वक़्त भी उसका शुक्र अदा नहीं हो सकता। तमाम तारीफ़ उस अल्लाह के लिये है जिसने हमारे (जिस्मों में) फैलने वाले आसाब और सिमटने वाले अज़लात तरतीब दिये और ज़िन्दगी की आसाइशों से बहरामन्द किया और कार व कसब के आज़ा हमारे अन्दर वदीअत फ़रमाए और पाक व पाकीज़ा रोज़ी से हमारी परवरिश की और अपने फ़ज़्ल व करम के ज़रिये हमें बेनियाज़ कर दिया और अपने लुत्फ़ व एहसान से हमें (नेमतों का) सरमाया बख़्शा। फिर उसने अपने अवाम्र की पैरवी का हुक्म दिया ताके फ़रमाबरदारी में हमको आज़माए और नवाही के इरतेकाब से मना किया ताके हमारे शुक्र को जांचे मगर हमने उसके हुक्म की राह से इन्हेराफ़ किया और नवाही के मरकब पर सवार हो लिये। फिर भी उसने अज़ाब में जल्दी नहीं की , और सज़ा देने में ताजील से काम नहीं लिया बल्कि अपने करम व रहमत से हमारे साथ नरमी का बरताव किया और हिल्म व राफ़्त से हमारे बाज़ आ जाने का मुन्तज़िर रहा।

तमाम तारीफ़ उस अल्लाह के लिये है जिसने हमें तौबा की राह बताई के जिसे हमने सिर्फ़ उसके फ़ज़्ल व करम की बदौलत हासिल किया है। तो अगर हम उसकी बख़्शिशों में से इस तौबा के सिवा और कोई नेमत शुमार में न लाएं तो यही तौबा हमारे हक़ में इसका उमदा इनआम , बड़ा एहसान और अज़ीम फ़ज़्ल है इसलिये के हमसे पहले लोगों के लिये तौबा के बारे में उसका यह रवय्या न था। उसने तो जिस चीज़ के बरदाश्त करने की हकमें ताक़त नहीं है वह हमसे हटा ली और हमारी ताक़त से बढ़कर हम पर ज़िम्मादारी आएद नहीं की और सिर्फ़ सहल व आसान चीज़ों की हमें तकलीफ़ दी है और हम में से किसी एक के लिये हील व हुज्जत की गुन्जाइश नहीं रहने दी। लेहाज़ा वही तबाह होने वाला है। जो उसकी मन्शा के खि़लाफ़ अपनी तबाही का सामान करे और वही ख़ुशनसीब है जो उसकी तरफ़ तवज्जो व रग़बत करे।

अल्लाह के लिये हम्द व सताइश है ह रवह हम्द जो उसके मुक़र्रब फ़रिश्ते बुज़ुर्गतरीन मख़लूक़ात और पसन्दीदा हम्द करने वाले बजा लाते हैं। ऐसी सताइश जो दूसरी सताइशों से बढ़ी चढ़ी हुई हो जिस तरह हमारा परवरदिगार तमाम मख़लूक़ात से बढ़ा हुआ है। फिर उसी के लिये हम्द व सना है उसकी हर हर नेमत के बदले में हो उसने हमें और तमाम गुज़िश्ता व बाक़ीमान्दा बन्दों को बख़्शी है उन तमाम चीज़ों के शुमार के बराबर जिन पर उसका इल्म हावी है और हर नेमत के मुक़ाबले में दो गुनी चौगुनी जो क़यामत के दिन तक दाएमी व अबदी हों। ऐसी हम्द जिसका कोई आखि़री कुफ़्फार और जिसकी गिनती का कोई शुमार न हो। जिसकी हद व निहायत दस्तरस से बाहर और जिसकी मुद्दत ग़ैर मुख़्तमिम हो। ऐसी हम्द जो उसकी इताअत व बख़्शिष का वसीला , उसकी रज़ामन्दी का सबब , उसकी मग़फ़ेरत का ज़रिया , जन्नत का रास्ता , उसके अज़ाब से पनाह , उसके ग़ज़ब से अमान , उसकी इताअत में मुअय्यन , उसकी मासियत से मानेअ और उसके हुक़ूक़ व वाजेबात की अदायगी में मददगार हो। ऐसी हम्द जिसके ज़रिये उसके ख़ुशनसीब दोस्तों में शामिल होकर ख़ुश नसीब क़रार पाएं और शहीदों के ज़मरह में शुमार हों जो उसके दुश्मनों की तलवारों से शहीद हुए , बेशक वही मालिक मुख़्तार और क़ाबिले सताइश है।

खुलासा :

----यह कलेमात दुआ का इफ़तेताहिया हैं जो सताइशे इलाही पर मुश्तमिल हैं। हम्द व सताइश अल्लाह तआला के करम व फ़ैज़ान और बख़्शिश व एहसान के एतराफ़ का एक मुज़ाहिरा है और दुआ से क़ब्ल इसके जूद व करम की फ़रावानियों और एहसान फ़रमाइयों से जो तास्सुर दिल व दिमाग़ पर तारी होता है उसका तक़ाज़ा यही है के ज़बान से उसकी हम्द व सताइश के नग़्मे उबल पड़ें जिसने एक तरफ़ ‘‘वस्अलुल्लाहा मिन फ़ज़्लेही ’’ (अल्लाह से उसके फ़ज़्ल का सवाल करो) कह कर तलब व सवाल का दरवाज़ा खोल दिया और दूसरी तरफ़ ‘‘उदऊनी अस्तजिब लकुम ’’ (मुझसे दुआ करो मैं क़ुबूल करूंगा) फ़रमाकर इस्तेजाबते दुआ का ज़िम्मा लिया।

इस तम्हीद में ख़ुदावन्दे आलम की वहदत व यकताई , जलाल व अज़मत , अद्ल व रऊफ़त और दूसरे सिफ़ात पर रोशनी डाली गई है। चुनान्चे सरनामाए दुआ में ख़ल्लाक़े आलम की तीन अहम सिफ़तों की तरफ़ इशारा किया है जिनमें तन्ज़िया व तक़दीस के तमाम जौहर सिमट कर जमा हो गए हैं। पहली सिफ़त यह के वह अव्वल भी है और आखि़र भी , लेकिन ऐसा अव्वल व आखि़र के न उससे पहले कोई था और न उसके बाद कोई होगा। उसे अव्वल व आखि़र कहने के साथ दूसरों से अव्वलीयत व आख़ेरीयत के सल्ब करने के मानी यह हैं के उसकी अव्वलीयत व आख़ेरीयत इज़ाफ़ी नहीं बल्कि हक़ीक़ी है। यानी वह अज़ली व अबदी है जिसका न कोई नुक़ताए आग़ाज़ है और न नुक़ताए इख़्तेताम। न उसकी इब्तिदा का तसव्वुर हो सकता है और न उसकी इन्तेहा का। न यह कहा जा सकता है के वह कब से है , और न यह कहा जा सकता है के वह कब तक है। और जो ‘‘कब से ’’ और ‘‘कब तक ’’ के हुदूद से बालातर हो उसके लिये एक लम्हा भी ऐसा फ़र्ज़ नहीं किया जा सकता जिसमें वह नीस्ती से हमकिनार रहा हो और जिसके लिये अदम व नीस्ती को तजवीज़ किया जा सके वह है ‘‘वाजेबुल वुजूद ’’ जो मुबदाव अव्वल होने के लेहाज़ से अव्वल और ग़ायते आखि़र होने के लिहाज़ से आखि़र होगा।

दूसरी सिफ़त यह है के वह आंखों से दिखाई नहीं दे सकता , क्योंकर किसी चीज़ के दिखाई देने के लिये ज़रूरी है के वह किसी तरफ़ में वाक़े हो , और जब अल्लाह किसी तरफ़ में वाक़ेअ होगा तो दूसरी तरफ़ें उससे ख़ाली मानना पड़ेंगी। और ऐसा अक़ीदा क्योंकर दुरूस्त तस्लीम किया जा सकता है जिसके नतीजे में बाज़ जेहात को उससे ख़ाली मानना पड़े और दूसरे यह के अगर वह किसी तरफ़ में वाक़ेअ होगा तो उस तरफ़ का मोहताज होगा और चूंके वह ख़ालिक़े एतराफ़ है इसलिये किसी तरफ़ का मोहताज नहीं हो सकता और न उसका ख़ालिक़ न रहेगा और तीसरे यह के जेहत में वही चीज़ वाक़ेअ हो सकती है जिस पर हरकत व सुकून तारी हो सकता है और हरकत व सुकून चूंके मुमकिन की सिफ़ात हैं इसलिये अल्लाह के लिये इन्हें तजवीज़ नहीं किया जा सकता और ज बवह हरकत व सुकून से बरी और अर्ज़ व जौहरे जिस्मानी की सतह से बरतर है तो उसके दिखाई देने का सवाल ही पैदा नहीं होता। मगर उसके बावजूद एक जमाअत उसकी रवियत की क़ायल है। यह जमाअत तीन मुख़्तलिफ़ क़िस्म के अक़ाएद के लोगों पर मुश्तमिल है। इनमें से कुछ का अक़ीदा यह है के उसकी रवियत सिर्फ़ आखि़रत में पैदा होगी। दुनिया में रहते हुए उसे देखा नहीं जा सकता और कुछ अफ़राद का नज़रिया यह है के वह आख़ेरत की तरह दुनिया में भी नज़र आ सकता है अगरचे ऐसा कभी नहीं हुआ , और कुछ लोगों का ख़याल यह है के जिस तरह आखि़रत में उसकी रवियत होगी उसी तरह दुनियां में भी देखा जा चुका है। पहले गिरोह की दलील यह है के रवियत का क़ुरान व हदीस में सराहतन ज़िक्र है जिसके बाद इन्कार का कोई महल बाक़ी नहीं रहता चुनान्चे इरशादे बारी तआला है - ‘‘वजूह नाज़ेरत ’’ (उस दिन बहुत से चेहरे तरो ताज़ा व शादाब और अपने परवरदिगार की तरफ़ निगरान होंगे) इससे साफ़ ज़ाहिर है के वह क़यामत में नज़र आएगा और दुनिया में इसलिये नज़र नहीं आ सकता के यहाँ हमारे इदराकात व क़वा कमज़ोर हैं जो तजल्ली-ए-इलाही की ताब नहीं रखते , और आख़ेरत में हमारे हिस व शऊर की क़ूवतें तेज़ हो जाएंगी जैसा के इरशादे इलाही है ‘‘फकशफ़ना अन्क अज़ाअक फ़ बसरक अलयौम हदीद ’’ (हमने तुम्हारे सामने से परदे हटा दिये अब तुम्हारी आंखें तेज़ हो गईं) लेहाज़ा वहाँ पर रवीयत से कोई अम्र मानेअ नहीं हो सकता।

दूसरे गिरोह की दलील यह है के अगर दुनिया में इसकी रवीयत मुमकिन न होती तो हज़रत मूसा (अ 0) ‘‘रब्बे ............एलैक ’’ (ऐ परवरदिगार! मुझे अपनी झलक दिखा ताके मैं तुझे देखूँ) कह कर अनहोनी और नामुमकिन बात की ख़्वाहिश न करते , और अल्लाह तआला ने भी उसे इस्तेक़रारे जबल पर मौक़ूफ़ करके इमकाने रवीयत की तरफ़ इशारा कर दिया। इस तरह अगर रवीयत मुमकिन न होती , तो उसे पहाड़ के ठहराव पर के जो एक अम्रे मुमकिन है मौक़ूफ़ न करता। चुनांचे इरशादे इलाही है ‘‘वलाकिन उनज़ुर एलल जबले फान इसतक़र मकानह फ़सौफ तरानी। (इस पहाड़ की तरफ़ देखो , अगर यह अपनी जगह पर ठहरा रहे तो फिर मुझे भी देख लोगे) और अगर इस सिलसिले में ‘‘लन तरानी ’’ (तुम मुझे क़तअन नहीं देख सकते) फ़रमाया तो उससे सिर्फ़ दुनिया में वक़ू रवीयत की नफ़ी मुराद है न इमकान रवीयत की और न उससे रवीयत आख़ेरत की नफ़ी मक़सूद है। क्योंके जब यह कहा जाए के ऐसा कभी नहीं होगा , तो अरफ़ में उसके मानी यही होते हैं के दुनिया में ऐसा कभी नहीं होगा , यह मक़सद नहीं होता है के आख़ेरत में भी ऐसा नहीं होगा। चुनांचे क़ुराने मजीद में यहूद के मुताल्लिक़ इरशाद है के लईंयतमन्नौहो (वह मौत की कभी तमन्ना नहीं करेंगे) तो यह तमन्ना की नफ़ी दुनिया के लिये है के वह दुनिया में रहते हुए मौत के ख़्वाहिशमन्द कभी नहीं होंगे और आख़ेरत में तो वह अज़ाबे जहन्नम से छुटकारा हासिल करने के लिये बहरहाल मौत की तमन्ना व आरज़ू करेंगे। तो जिस तरह यहाँ पर नफ़ी का ताल्लुक़ सिर्फ़ दुनिया से है उसी तरह वहां भी नफ़ी का ताल्लुक़ सिर्फ़ दुनिया से है न आख़ेरत से।

तीसरे गिरोह की दलील है के जब बयाने साबिक़ से दुनिया में इसकी रवीयत का इमकान साबित हो गया तो उसके वक़ोअ के लिये हुस्ने बसरी और अहमद बिन जम्बल वग़ैरह का यह क़ौल काफ़ी है के पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने लैलतल इसरा में उसे देखा।

जब इन दलाएल का जाएज़ा लिया जाता है तो वह इन्तेहाई कमज़ोर और असबाते मुद्दआ से क़ासिर नज़र आते हैं। चुनान्चे पहले गिरोह का यह दावा के क़ुरान व हदीस में रवीयत के शवाहिद बकसरत हैं एक ग़लत और बेबुनियाद दावा है और क़ुरान व हदीस से क़तअन इसका असबात नहीं होता बल्कि क़ुरआन के वाज़ेह तसरीहात उसके खि़लाफ़ हैं और क़ुरानी तसरीहात के खि़लाफ़ अगर कोई हदीस होगी भी तो वह मौज़ूअ व मतरूह क़रार पाएगी। चुनान्चे क़ुराने मजीद में नफ़ी रवीयत के सिलसिले में इरशादे इलाही है के ला क़ुदरकह............ वहोवल लतीफ़ल ख़बीर। (आंखें उसे देख नहीं सकतीं और वह आँखों को देख रहा है , और वह हर छोटी से छोटी चीज़ से आगाह और बाख़बर है) और जिस आयत को असाबते रवीयत के सिलसिले में पेश किया गया है , इसमें लफ़्ज़ नाज़ेरत से रवीयत पर इस्तेदलाल सही नहीं है क्योंके अहले लुग़त ने नज़र के मानी इन्तेज़ार , ग़ौर-व फ़िक्र , मोहलत , शफ़क़त और इबरत अन्दोज़ी के भी किये हैं और जब एक लफ़्ज़ में और मानी का भी एहतेमाल हो तो उसे दलील बनाकर पेश नहीं किया जा सकता।

चुनांचे कुछ मुफ़स्सेरीन ने इस मक़ाम पर नज़र के मानी इन्तेज़ार के लिये हैं और इस मानी के लेहाज़ से आयत का मतलब यह है के वह इस दिन अल्लाह की नेमतों के मुन्तज़िर होंगे और इस मानी की शाहिद यह आयत है - फ़नाज़ेरत .....मुरसेलून (वह मुन्तज़िर थी के क़ासिद क्या जवाब लेकर पलटते हैं और कुछ मुफ़स्सेरीन ने नज़र के मानी देखने के लिये हैं और इस सूरत में लफ़्ज़ सवाब को यहाँ महज़ूफ़ माना है और आयत के मानी यह हैं के वह अपने परवरदिगार के सवाब की जानिब निगराँ होंगे। जिस तरह इरशादे इलाही -वजाअअ रब्बेक , (तुम्हारा परवरदिगार आया) में लफ़्ज़ अम्र महज़ूफ़ माना गया है और मानी यह किये गए हैं के तुम्हारे परवरदिगार का हुक्म आया , और फ़िर यह कहां ज़रूरी है के जहाँ नज़र सादिक़ आये वहां रवीयत भी सादिक़ आये। चुनांचे अरब क ामक़ौला है के नज़रत एललहलाल फ़लम अराहो , (मैंने चांद की तरफ़ नज़र की मगर देख न सका) यहाँ नज़र साबित है मगर रवीयत साबित नहीं है। अब रहा यह के वह दुनिया में इस लिये नज़र नहीं आ सकता के यहाँ इन्सानी इदराकात व क़वा ज़ईफ़ हैं और आख़ेरत में यह और इदराकात क़वी हो जायेंगे। तो यह दुनिया व आख़ेरत की तफ़रीक़ इस बिना पर तो सही हो सकती है अगर उसकी ज़ात दिखाई दिये जाने के क़ाबिल हो और हमारी निगाहें अपने अजज़ों क़ुसूर की बिना पर क़ासिर हैं। लेकिन हब उसकी ज़ात का तक़ाज़ा ही यह है के जाने के वह दिखाई न दे तो महल व मुक़ाम के बदलने से नाक़ाबिले रवीयत ज़ात क़ाबिले रवीयत नहीं क़रार पा सकती। और इस सिलसिले में जो आयत पेश की गयी है उसमें तो यह नहीं है के इदराकात व हवास के तेज़ हो जाने से ख़ुदा को भी देखा जा सकेगा बल्कि आयत के मानी तो यह हैं के उस दिन परदे हटा दिये जाएंगे और आँखें तेज़ हो जाएंगी जिसका वाज़ेह मतलब यह है के वहां पर तमाम शुबहात हट जाएंगे और आँखों पर पड़े हुए ग़फ़लत के परदे उठ जाएंगे , यह मानी नही ंके वह अल्लाह को भी देखने लगेंगे , और अगर ऐसा ही है तो यह ग़फ़लत के परदे तो काफ़िरों की आँखों से उठेंगे लेहाज़ा उन्हीं को नज़र आना चाहिये।

दूसरे गिरोह की दलील का जवाब यह है के हज़रत मूसा अ 0 ने रवीयते बारी की ख़्वाहिश इस लिये नहीं की थी के वह उसकी रवीयत को मुमकिन समझते थे और उन्हें उसके नाक़ाबिले रवीयत होने का इल्म न था। यक़ीनन वह जानते थे के वह इदराके हवास व मुशाहिदए बशरी से बदन्दतर है। तो इस सवाल की नौबत इसलिये आई के बनी इसराइल ने कहा के या मूसा लन नौमन लका..........जहरतन (ऐ मूसा अ 0! हम उस वक़्त तक ईमान नहीं लाएंगे जब तक ख़ुदा को ज़ाहिर ब ज़ाहिर न देख लेंगे) तो मूसा अलैहिस्सलाम ने चाहा के उन पर उनकी बे राहरवी साबित कर दें और यह वाज़ेह कर दे ंके वह कोई दिखाई देने वाली चीज़ नहीं है। इसलिये अल्लाह के सामने उनका सवाल पेश किया ताके वह अपने सवाल का नतीजा देख लें और इस ग़लत ख़्याल से बाज़ आयें। चुनांचे ख़ुदा वन्द आलम का इरशाद है के फ़क़द साअलू जहरतन (यह लोग तो मूसा अ 0 से इससे भी बड़ा सवाल कर चुके हैं और वह यह के मूसा से कहने लगे के हमें ख़ुदा को ज़ाहिर ब ज़ाहिर दिखा दीजिये) जब मूसा अ 0 ने उनके कहने पर सवाल किया तो इस मौक़े पर क़ुदरत का यह इरशाद के ‘‘तुम पहाड़ की तरफ़ देखो अगर यह अपनी जगह पर बरक़रार रहे तो मुझे देख लोगे ’’ इमकाने रवीयत का पता नहीं देता। इसलिये के मौक़ूफ़ अलिया सिर्फ़ पहाड़ का ठहराव नहीं था क्योंके वह तो उस वक़्त भी ठहरा हुआ था जब रवीयत को उस पर मोअल्लक़ किया जा रहा था बल्के तजल्ली के वक़्त उसका ठहराव मक़सूद था , और जब तक इस मौक़े के लिये उसके ठहराव का इमकान साबित न हो इस ठहराव को इमकाने रवीयत की दलील नहीं क़रार दिया जा सकता। हालांके इस सअत पर तो यह हुआ के ‘‘जअलहू दक्कन साअक़न ’’ (तजल्ली ने इस पहाड़ को चकनाचूर कर दिया और मूसा बेहोश होकर गिर पड़े) और बनी इसराइल पर उनके बे महल सवाल की वजह से बिजली गिरी। जैसा के इरशादे इलाही है - फ़ा ख़ज़त............ बे ज़ुल्मेहिम (उनकी शर पसन्दी की वजह से बिजली ने उन्हें जकड़ लिया) अगर ख़ुदा वन्दे आलम की रवीयत मुमकिन होती तो एक मुमकिन अलवक़ो चीज़ से ईमान को वाबस्ता करना ऐसा जुर्म न था के उन्हें साएक़ा के अज़ाब में जकड़ लिया जाए और उनकी ख़्वाहिश को ज़ुल्म से ताबीर किया जाए। आखि़र हज़रत इबराहीम अ 0 ने भी तो अपने इतमीनान को मुर्दों को ज़िन्दा करने से वाबस्ता किया था। चुनान्चे उन्होंने कहा के ‘‘रब्बे अरनी कैफ़ा हय्यिल मौता ‘‘ (ऐ मेरे परवरदिगार मुझे दिखा के तू क्योंकर मुर्दों को ज़िन्दा करता है) इसके जवाब में क़ुदरत ने फ़रमाया -अवलम तौमन (क्या तुम ईमान नहीं लाए) हज़रत इबराहीम अ 0 ने अर्ज़ किया -बला वलाकिन लैतमन क क़ल्बी (हाँ ईमान तो लाया! लेकिन चाहता हूँ के दिल मुतमइन हो जाए) अगर हज़रत इबराहीम अ 0 अपने इतमीनान को मुर्दों के ज़िन्दा होने से वाबस्ता कर सकते हैं तो उन लोगों ने अगर अपने ईमान को रवीयते बारी पर मोअल्लक़ किया तो जुर्म ही कौन सा क्या जिस चीज़ पर इन्हें लरज़ा बरअन्दाम कर देने वाली सज़ा दी जाए। और अगर यह कहा जाये के सज़ा इस बिना पर न थी के इन्होेंने रवीयते बारी का मुतालेबा किया था , उनकी साबेक़ा ज़िद , हठधर्मी और कट हुज्जती के पेशे नज़र थी , मगर यह देखते हुए के वह मुतालेबए क़ूवह करें जो किया जा सकता है और मुमकिनअलवक़ो है और इस ज़रिये से अपने ईमान की तकमील चाहें मगर उनकी किसी साबेक़ा ज़िद और सरकशी को सामने रखते हुए उन्हें ऐसी सज़ा दी जाए जो उन्हें नीस्त व नाबूद कर दे , अक़्ल में आने वाली बात नहीं है। और अगर यह कहा जाये के रवीयत के सिलसिले में इनकी ज़िद पर इन्हें सज़ा दी गई थी तो इसमें ज़िद की क्या बात थी अगर उन्होंने मूसा अ 0 के क़ौल को मुशाहिदे के मुताबिक़ करके देखना चाहा , और अगर रवीयत मुर्दों को ज़िन्दा करने की तरह मुमकिन थी तो इसमें मुज़ाएक़ा ही किया था के उनकी ख़्वाहिश को पूरा कर दिया जाता और जिस तरह हज़रत इबराहीम अ 0 के हाथों पर मुर्दों को ज़िन्दा करके उनकी ख़लिश को हटा दिया था , इसी तरह यहाँ भी रवीयत से इनके ईमान की सूरत पैदा कर दी होती , और अगर मसलहत इसकी मुक़तज़ी न थी तो हज़रत मूसा अ 0 के ज़रिये उन्हें समझा दिया जाता के दुनिया में न सही आख़ेरत में उसे देख लेना। मगर उनका मुतालेबा पूरा करने के बजाये उन्हें मोरिदे एताब ठहराया जाता है और उनकी ख़्वाहिश को ज़ुल्म व हदशिकनी से ताबीर किया जाता है और आखि़र उन्हें ख़र्मने हस्ती को जलाने वाली बिजलियों में जकड़ लिया जाता है , यह सिर्फ़ इस लिये के इन्होंने एक ऐसी ख़्वाहिश का इज़हार किया जिससे ख़ुदा के दामने तन्ज़िया पर धब्बा आता था। और यह एक ऐसी अनहोनी चीज़ का मुतालेबा था जिस पर उन्हें सज़ा देना ज़रूरी समझा गया ताके दूसरों को इबरत हासिल हो , और बनी इसराईल के अन्जाम को देख कर रवीयते बारी का तसव्वुर न करें , चुनान्चे अल्लाह सुब्हानहू ने अपनी रवीयत को पहाड़ पर मोअल्लक़ करने से पहले वाज़ेह अलफ़ाज़ में फ़रमाया के - लन तरानी ( ऐ मूसा अ 0! तुम मुझे हरगिज़ नहीं देख सकते) न दुनिया में और न आख़ेरत में , क्योंके लफ्ज़ लन नफ़ी ताबीद के लिये आता है और इस नफ़ी ताबीद को दवामे अरफ़ी पर महमूल करना ग़लत है। यह दवामे उर्फ़ी वहां पर तो सही हो सकता है जहां मुतकल्लिम व मख़ातब दोनों फ़ानी और मारिज़े ज़वाल में हों और जहां मुतकल्लिम अबदी सरमदी और दाएमी हो वहां नफ़ी के हुदूद भी वहाँ तक फैले हुए होंगे , जहाँ तक इस ज़ाते सरमदी का दामने बक़ा फैला हुआ है और चूंके वह हमेशा हमेशा रहने वाला है इसलिये इसकी तरफ़ से जो नफ़ी ताबीर वारिद होगी वह दुनिया की मुद्दते बक़ा में महदूद नहीं की जा सकती और जिस आयत की नफ़ी को दवामे अरफ़ी के मानी में पेश किया गया है उससे इस्तेशहाद इस बिना पर सही नही ंके वह उन लोगों के मुताल्लिक़ है जो फ़ानी व महदूद हैं। लेहाज़ा इस मुक़ाम की नफ़ी का इस मुक़ाम की नफ़ी पर क़यास नहीं किया जा सकता और अगर यह आयत -लँय्यतमन्नौहो (वह मौत की हरगिज़ तमन्ना नहीं करेंगे) मैं भी ताबीरे हक़ीक़ी के मानी मुराद लिये जाएं तो लिये जा सकते हैं , क्योंके आख़ेरत में वह मौत की तमन्ना करेंगे तो वह दर हक़ीक़त मौत की तमन्ना न होगी बल्कि अस्ल तमन्ना अज़ाब से निजात हासिल करने की होगी जिसे तलबे मौत के परदे में तलब करेंगे और यह मौत की तलब न होगी बल्कि राहत व आसाइश और अज़ाब से छुटकारे की तलब होगी और जबके अज़ाब के बजाये उन्हें राहत व सुकून नसीब हो तो वह यक़ीनन ज़िन्दगी के ख़्वाहाँ होंगे और फिर जब असली मानी ताबीर हक़ीक़ी के हैं तो इससे ताबीर अरफ़ी मुराद लेने के लिये किसी क़रीने की ज़रूरत है और यहाँ कोई क़रीना व दलील मौजूद नहीं है के हक़ीक़ी मानी से उदूल करना सही हो सके।

तीसरे गिरोह की दलील का जवाब यह है के अगर कुछ सहाबा व ताबेईन का क़ौल यह है के पैग़म्बर स 0 इकराम ने लैलतल इसरा में अपने रब को देखा तो सहाबा व ताबेईन की एक जमाअत इसकी भी तो क़ायल है के ऐसा नहीं हुआ। चुनांचे हज़रत आइशा और सहाबा की एक बड़ी जमाअत का यही मसलक है , लेहाज़ा चन्द अफ़राद की ज़ाती राय को कैसे सनद समझा जा सकता है जबके इसके मुक़ाबले में वैसे ही अफ़राद इसके खि़लाफ़ नज़रिया रखते हैं , चुनांचे जनाबे आइशा का क़ौल है-

जो शख़्स तुमसे यह बयान करे के मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैह व आलेही वसल्लम ने अपने रब को देखा तो उसने झूठ कहा और अल्लाह का इरशाद तो यह है के उसे निगाहें देख नहीं सकतीं अलबत्ता वह निगाहों को देख रहा है और हर छोटी से छोटी चीज़ से आगाह व ख़बरदार है। (सही बुख़ारी जि 0-4 सफ़ा 168)

तीसरी सिफ़त यह है के उक़ूले इन्सानी उसके औसाफ़ की नक़ाब कुशाई से क़ासिर हैं क्योंके ज़बान उन्हीं मानी व मफ़ाहिम की तर्जुमानी कर सकती है जो अक़्ल व फ़हम में समा सकते हैं और जिनके समझने से अक़्लें आजिज़ हों वह अल्फ़ाज़ की सूरत में ज़बान से अदा भी नहीं हो सकते और ख़ुदा के औसाफ़ का इदराक इसलिये नामुमकिन है के इसकी ज़ात का इदराक नामुमकिन है और जब तक इसकी ज़ात का इदराक न हो उसके नफ़्सुल अम्री औसाफ़ को भी नहीं समझा जा सकता और ज़ात का इदराक इसलिये नहीं हो सकता के इन्सानी इदराकात महदूद होने की वजह से ग़ैर महदूद ज़ात का अहाता नहीं कर सकते। लेहाज़ा इस सिलसिले में जितना भी ग़ौर व ख़ौज़ किया जाए उसकी ज़ात और उसके नफ़्सुल अम्री औसाफ़ अक़्ल व फ़हम के इदराक से बालातर रहेंगे।


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हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) और ख़ुसूसियाते मज़हब

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) का इरशाद है कि हमारे मज़हब में उन लोगों का शुमार होगा जो उसूल व फ़ुरू और दीगर लवाज़िम के साथ साथ इन दस चीज़ों के क़ायल बल्कि उन पर आमिल हों।

1. शबो रोज़ में 51 रकअत नमाज़ पढ़ना। 2. सजदा गाहे करबला पर सजदा करना। 3. दाहिने हाथ में अंगूठी पहन्ना। 4. अज़ान व अक़ामत के जुमले दो दो मरतबा कहना। 5. अज़ान व अक़ामत में हय्या अला ख़ैरिल अमल कहना। 6. नमाज़ में बिस्मिल्लिाह ज़ोर से पढ़ना। 7. हर दूसरी रकअत में क़ुनूत पढ़ना। 8. आफ़ताब की ज़रदी से पहले नमाज़े अस्र और तारों के डूब जाने से पहले नमाज़े सुबह पढ़ना। 9. सर और दाढ़ी में वसमा का खि़ज़ाब करना। 10. नमाज़े मय्यत में पांच तकबीरे कहना।(दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 172 )

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) और ईदे नुहुम रबीउल अव्वल

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) चन्द अज़ीम अस्हाब जिनमें अहमद बिन इस्हाक़ क़ुम्मी भी थे। एक दिन मोहम्मद बिन अबी आला हम्दानी और यहिया बिन मोहम्मद बिन जरीह बग़दादी के दरमियान 9 रबीउल अव्वल के यौमे ईद होने पर गुफ़्तुगू हो रही थी। बात चीत की तकमील के लिये यह दोनों अहमद बिन इस्हाक़ के मकान पर गए। दक़्क़ुल बाब किया , एक ईराक़ी लड़की निकली , आने का सबब पूछा , कहा अहमद से मिलना है। उसने कहा वह आमाल कर रहे हैं। उन्होंने कहा कैसा अमल है ? लड़की ने कहा अहमद बिन इस्हाक़ ने हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) से रवायत की है कि 9 रबीउल अव्वल यौमे ईद है और हमारी बड़ी ईद है , और हमारे दोस्तों की ईद है। अल ग़रज़ वह अहमद से मिले। उन्होंने कहा कि मैं अभी ग़ुस्ले ईद से फ़ारिग़ हुआ हूँ और आज ईदे नहुम 9 है। फिर उन्होंने कहा कि मैं आज ही हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हुआ हूँ। उनके यहां अंगीठी सूलग रही थी और तमाम घर के लोग अच्छे कपड़े पहने हुए थे। ख़ुशबू लगाए हुए थे। मैंने अर्ज़ कि इब्ने रसूल अल्लाह (स अ व व ) आज क्या कोई ताज़ा यौमे मसर्रत है ? फ़रमाया हां आज 9 रबीउल अव्वल है। हम अहले बैत और हमारे मानने वालों के लिये यौमे ईद है। फिर इमाम (अ.स.) ने इस दिन के यौमे ईद होने और रसूले ख़ुदा (स अ व व ) और अमीरल मोमेनीन (अ.स.) के तरज़े अमल की निशान देही फ़रमाई।

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) के अक़वाल

हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) के पन्दो नसायह हुक्म और मवाएज़ में से कुछ नीचे लिखे जा रहे हैं।

1. दो बेहतरीन आदतें यह हैं कि अल्लाह पर ईमान रखे और लोगों को फ़ायदे पहुँचायें।

2. अच्छों को दोस्त रखने में सवाब है।

3. तवाज़ो और फ़रोतनी यह है कि जब किसी के पास से गुज़रे तो सलाम करें और मजलिस में मामूली जगह बैठें।

4. बिला वजह हंसना जिहालत की दलील है।

5. पड़ोसियों की नेकी को छुपाना और बुराईयों को उछालना हर शख़्स के लिये कमर तोड़ देने वाली मुसीबत और बेचारगी है।

6. यह इबादत नहीं है कि नमाज़ रोज़े अदा करता रहे , बल्कि यह भी अहम इबादत है कि ख़ुदा के बारे में सोच विचार करे।

7. वह शख़्स बदतरीन है जो दो मुहा और दो ज़बान हो , जब दोस्त सामने आये तो अपनी ज़बान से ख़ुश कर दे और जब वह चला जाए तो उसे खा जाने की तदबीर सोचे जब उसे कुछ मिले तो यह हसद करे और जब उस पर कोई मुसीबत आ जाए तो क़रीब न फटके।

8. गु़स्सा हर बुराई की कुन्जी है।

9. हसद करने और कीना रखने वाले को भी सुकूने क़ल्ब नसीब नहीं होता।

10. परहेज़गार वह है जो शब के वक़्त तवकुफ़ व तदब्बुर से काम ले और हर अमर से मोहतात रहे।

11. बेहतरीन इबादत गुज़ार वह है जो फ़राएज़ अदा करता रहे।

12. बेहतरीन सईद और ज़ाहिर वह है जो गुनाह मुतलक़न छोड़ दे।

13. जो दुनियां में बोऐगा वही आख़ेरत में काटेगा।

14. मौत तुम्हारे पीछे लगी हुई है अच्छा बोओगे तो अच्छा काटोगे , बुरा बोओगे तो निदामत होगी।

15. हिरस और लालच से कोई फ़ाएदा नहीं जो मिलना है वही मिलेगा।

16. एक मोमिन दूसरे मोमिन के लिये बरकत है।

17. बेवकूफ़ का दिल उसके मुंह में होता है और अक़ल मन्द का मुंह उसके दिल में होता है।

18. दुनिया की तलाश में कोई फ़रीज़ा न गवा देना। 19. तहारत में शक की वजह से ज़्यादती करना ग़ैर मम्दूह है।

20. कोई कितना ही बड़ा आदमी क्यों न हो जब वह अक़ को छोड़ देगा ज़लील तर हो जायेगा।

21. मामूली आदमी के साथ हक़ हो तो वही बड़ा है।

22. जाहिल की दोस्ती मुसीबत है।

23. ग़मगीन के सामने हंसना बे अदबी और बद अमली है।

24. वह चीज़ मौत से बदतर है जो तुम्हें मौत से बेहतर नज़र आए।

25. वह चीज़ ज़िन्दगी से बेहतर है जिसकी वजह से तुम ज़िन्दगी को बुरा समझो।

26. जाहिल की दोस्ती और इसके साथ गुज़ारा करना मोजिज़े के मानिन्द है।

27. किसी की पड़ी हुई आदत को छुड़ाना ऐजाज़ की हैसीयत रखता है।

28. तवाज़े ऐसी नेमत है जिस पर हसद नहीं किया जा सकता।

29. इस अन्दाज़ से किसी की ताज़ीम न करो जिसे वह बुरा समझे।

30. अपनी भाई की पोशीदा नसीहत करनी इसकी ज़ीनत का सबब होता है।

31. किसी की ऐलानिया नसीहत करना बुराई का पेश ख़ेमा है।

32. हर बला और मुसीबत के पस मन्ज़र में रहमत और नेमत होती है।

33. मैं अपने मानने वालों को नसीहत करता हूँ कि अल्लाह से डरें दीन के बारे में परेहगारी को शआर बना लें ख़ुदा के मुताअल्लिक़ पूरी सई करें और उसके अहकाम की पैरवी में कमी न करें। सच बोलें , अमानतें चाहे मोमिन की हो या काफ़िर की , अदा करें , और अपने सजदों को तूल दें और सवालात के शीरीं जवाब दें। तिलावते कु़रआने मजीद किया करें मौत और ख़ुदा के ज़िक्र से ग़ाफ़िल न हों।

34. जो शख़्स दुनियां से दिल का अन्धा उठेगा , आख़ेरत में भी अन्धा रहेगा। दिल का अन्धा होना हमारी मुवद्दत से ग़ाफ़िल रहना है। क़ुरआन मजीद में है कि क़यामत के दिन ज़ालिम कहेंगे ‘‘रब्बे लमा हश्रतनी आएमी व क़नत बसीरन ’’ मेरे पालने वाले हम तो दुनियां में बीना थे हमें यहां अन्धा क्यों उठाया है ? जवाब मिलेगा , हम ने जो निशानियां भेजी थी तुमने उन्हें नज़र अन्दाज़ किया था। लोगों! अल्लाह की नेमत अल्लाह की निशानियां हम आले मोहम्मद (स अ व व ) हैं। एक रवायत में है कि आपने दो शम्बे के शर व नहूसत से बचने के लिये इरशाद फ़रमाया है कि नमाज़े सुब्ह की रक्ते अव्वल में सुरह ‘‘ हल अता ’’ पढ़ना चाहिए। नीज़ यह फ़रमाया है कि नहार मुंह ख़रबुज़ा नहीं खाना चाहिये क्यो कि इससे फ़ालिज का अन्देशा है।(बेहार अल अनवार जिल्द 14 )

इमाम मेहदी (अ.स.) की विलादत बा सआदत

15 शाबान 255 हिजरी में बतने जनाबे नरजिस ख़ातून से क़ाएमे आले मोहम्मद हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) की विलादत ब सआदत हुई। इमाम हसन असकरी (अ.स.) ने दुश्मनों के ख़ौफ़ से आपकी विलादत को ज़ाहिर होने नहीं दिया।

मुल्ला जामी लिखते हैं कि इमाम मेहदी (अ.स.) की विलादत के बाद हज़रते जिब्राईल उन्हें परवरिश व परदाख़्त के लिये उठा कर ले गए।(शवाहेदुन नबूवत)

अल्लामा अरबली लिखते हैं कि आप तीन साल की उम्र में देखे गए और आपने हुज्जतुल्लाह होने का इज़हार किया।(कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 138 )

मोतमिद अब्बासी की खि़लाफ़त और इमाम हसन असकरी (अ.स.) की गिरफ़्तारी

गर क़लम दर दस्ते ग़द्दारे बूद , ला जुर्म मन्सूर , बरदारे बूद

256 हिजरी में मोतमिद अब्बासी खि़लाफ़त मकबूज़ा तख़्त पर मुतमक्किन हुआ इसने हुकूमत की कमान संभालते ही अपने अबाई तर्ज़े अमल को इख़्तेयार करना और जद्दी किरदार को पेश करना शुरू कर दिया और दिल से सई शुरू कर दी कि आले मोहम्मद (स अ व व ) के वजूद से ज़मीन ख़ाली हो जाए। यह अगरचे हुकूमत की बाग डोर अपने हाथों में लेते ही मुल्की बग़ावत का शिकार हो गया था लेकिन फिर भी अपने वज़ीफ़े और अपने मिशन से ग़ाफ़िल नहीं रहा। इसने हुक्म दिया अहदे हाज़िर में ख़ानदाने रिसालत की यादगार इमाम हसन असकरी (अ.स.) को क़ैद कर दिया जाए और उन्हें क़ैद में किसी क़िस्म का सुकून न दिया जाए। हुक्मे हाकिम मरगे मफ़ाजात आखि़र इमाम हसन असकरी (अ.स.) बिला जुर्मो ख़ता आज़ाद फ़ेज़ा से क़ैद ख़ाने में पहुँचा दिये गए और आप पर अली बिन अवताश नामी एक नासबी मुसल्लत कर दिया गया जो आले मोहम्मद (स अ व व ) , आले अबी तालिब (अ.स.) का सख़्त तरीन दुश्मन था और उससे कह दिया गया कि जो जी चाहे करो तुम्से कोई पूछने वाला नहीं है। इब्ने औतश ने असबे हिदायत आप पर तरह तरह की सख़्तियां शुरू कर दीं। इसने न ख़ुदा का ख़ौफ़ किया न पैग़म्बर की औलाद होने का कोई लिहाज़ किया लेकिन अल्लाह रे आपका ज़ोहदो तक़वा कि दो चार ही यौम में दुश्मन का दिल मोम हो गया और वह हज़रत के पैरों पर पड़ गया। आपकी इबादत गुज़ारी और तक़वा व तहारत देख कर वह इतना मुताअस्सिर हुआ कि हज़रत की तरफ़ नजर उठा कर देख न सकता था। आपकी अज़मतो व जलालत की वजह से सर झुका कर आता व चला जाता। यहां तक कि वह वक़्त आ गया कि दुश्मन बसीरत आगे बन कर आपका मोतरिफ़ और मानने वाला हो गया।(आलामुल वुरा पृष्ठ 218 )

अबू हाशिम दाऊद बिन क़ासिम का बयान है कि मैं और मेरे हमराह हसन बिन मोहम्मद अलक़तफ़ी व मोहम्मद बिन इब्राहीम उमर और दीगर बहुत से हज़रात इस क़ैद ख़ाने में आले मोहम्मद (स अ व व ) की मोहब्बत के जुर्म की सज़ा भुगत रहे थे कि नागाह हमें मालूम हुआ कि हमारे इमामे ज़माना हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) भी ला रहे हैं। हम ने उनका इस्तेक़बाल किया वह तशरीफ़ ला कर क़ैद ख़ाने में हमारे पास बैठ गए और बैठते ही एक अन्धे की तरफ़ इशारा करते हुए फ़रमाया कि अगर यह शख़्स न होता तो मैं तुम्हें यह बता देता कि अन्दरूनी मामला किया है और तुम कब रिहा होगे। लोगों ने यह सुन कर उस अन्धे से कहा कि तुम ज़रा हमारे पास से चन्द मिनट के लिये हट जाओ चुनान्चे वह हट गया। उसके चले जाने के बाद आपने फ़रमाया कि यह नाबीना क़ैदी नहीं है तुम्हारे लिये हुकूमत का जासूस है। इसकी जेब में ऐसे कागज़ात मौजूद हैं जो इसकी जासूसी का सुबूत देते हैं। यह सुन कर लोगों ने उसकी तलाशी ली और वाक़िया बिल्कुल सही निकला। अबू हाशिम कहते हैं कि अय्याम गुज़र रहे थे कि एक दिन ग़ुलाम खाना लाया। हज़रत ने शाम का खाना खाने से इन्कार कर दिया और फ़रमाया कि मैं समझता हूँ कि मेरा अफ़्तार क़ैद से बाहर होगा। इस लिये खाना न लूंगा। चुनान्चे ऐसा ही हुआ आप असर के वक़्त क़ैद खाने से बरामद हो गए।(आलामुल वुरा पृष्ठ 214 )

इस्लाम पर इमाम हसन असकरी (अ.स.) का एहसाने अज़ीम

वाक़िए क़हत

इमाम हसन असकरी (अ.स.) क़ैद ख़ाने ही में थे कि सामरा में जो तीन साल से क़हत पड़ा हुआ था उसने शिद्दत इख़्तेयार कर ली और लोगों का हाल यह हो गया कि मरने के क़रीब पहुँच गए। भूख और प्यास की शिद्दत ने ज़िन्दगी से आजिज़ कर दिया। यह हाल देख कर ख़लीफ़ा मोतमिद अब्बासी ने लोगों को हुक्म दिया कि तीन दिन तक बाहर निकल कर नमाज़े इसतेस्क़ा पढ़ें। चुनान्चे सब ने ऐसा किया , मगर पानी न बरसा। चौथे रोज़ बग़दाद के लसारा की जमाअत सहरा में आई और इनमें से एक राहिब ने आसमान की जानिब अपना हाथ बुलन्द किया , उसका हाथ बुलन्द होना था कि बादल छा गए और पानी बरसना शुरू हुआ। इसी तरह उस राहिब ने दूसरे दिन भी अमल किया और बदस्तूर उस दिन भी बाराने रहमत का नुज़ूल हुआ। यह हालत देख कर सब को निहायत ताअज्जुब हुआ। हत्ता कि बाज़ जाहिलों के दिलों में शक पैदा हो गया। बल्कि बाज़ उनमें से इसी वक़्त मुरतिद हो गए।

यह वाक़िया ख़लीफ़ा पर बहुत शाक गुज़रा और उसने इमाम हसन असकरी (अ.स.) को तलब कर के कहा , अबू मोहम्मद अपने जद के कलमे गोयों की ख़बर लो और उनको हलाकत यानी गुमराही से बचाओ। हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) ने फ़रमाया कि अच्छा राहिबों को हुक्म दिया जाए कि कल फिर वह मैदान में आ कर दोआए बारान करें , इन्शा अल्लाह ताला मैं लोगों के शकूक ज़ाएल कर दूँगा। फिर जब दूसरे दिन वह लोग मैदान में तलबे बारां के लिये जमा हुए तो इस राहिब ने मामूल के मुताबिक़ आसमान की तरफ़ हाथ बुलन्द किया नागाह आसमान पर अब्र नमूदार हुआ और मेह बरसने लगा। यह देख कर इमाम हसन असकरी (अ.स.) ने एक शख़्स से कहा कि राहिब के हाथ पकड़ कर जो चीज़ राहिब के हाथ में मिले ले ले , उस शख़्स ने राहिब के हाथ में एक हड्डी दबी हुई पाई और उससे ले कर हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) की खि़दमत में पेश की। उन्होंने राहिब से फ़रमाया कि तू हाथ उठा कर बारिश की दुआ कर उसने हाथ उठाया तो बजाए बारिश होने के मतला साफ़ हो गया और धूप निकल आई , लोग कमाले मुताअज्जिब हुए और ख़लीफ़ा मोतमिद ने हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) से पूछा कि ऐ अबू मोहम्मद यह क्या चीज़ है ? आपने फ़रमाया कि यह एक नबी की हड्डी है जिसकी वजह से राहिब अपनी मुद्दोआ में कामयाब होता रहा। क्यों कि नबी की हड्डी का यह असर है कि जब जब वह ज़ेरे आसमान खोल दी जायेगी तो बाराने रहमत ज़रूर नाज़िल होगा। यह सुन कर लोगों ने इस हड्डी का इम्तेहान किया तो उसकी वही तासीर देखी जो हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) ने की थी। इस वाक़िये से लोगों के दिलों के शकूक ज़ाएल हो गए जो पहले पैदा हो गए थे। फिर इमाम हसन असकरी (अ.स.) इस हड्डी को ले कर अपनी क़याम गाह पर तशरीफ़ लाए।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 124 व कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 129 ) फिर आपने इस हड्डी को कपड़े मे लपेट कर दफ़्न कर दिया।(अख़बार अल दवल पृष्ठ 117 )

शेख़ शहाबुद्दीन क़लदूनी ने किताब ग़राएब व अजाएब में इस वाक़िये को सूफ़ियों की करामत के सिलसिले में लिखा है बाज़ किताबों ंमें है कि हड्डी की गिरफ़्त के बाद आपने नमाज़ अदा की और दुआ फ़रमाई। ख़ुदा वन्दे आलम ने इतनी बारिश की कि जल थल हो गया और क़हत जाता रहा। यह भी मरक़ूम है कि इमाम (अ.स.) ने क़ैद से निकलते वक़्त अपने साथियों की रिहाई का मुतालेबा फ़रमाया था जो मंज़ूर हो गया था और वह लोग भी राहिब की हवा उखाड़ने के लिये हमराह थे।(नूरूल अबसार पृष्ठ 151 )

एक रवायत में है कि जब आपने दुआ ए बारान की और अब्र आया तो आपने फ़रमाया कि फ़लां मुल्क के लिये है और वह वहीं चला गया। इसी तरह कई बार हुआ फिर वहां बरसा।

वाक़ीयाए क़हत के बाद

256 हिजरी के आखि़र में वाक़िए क़हत के बाद हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) का चर्चा तमाम आलम में फैल गया। अब क्या था मुवाफ़िक़ व मुख़ालिफ़ सब ही का मैलान व रूझान आपकी तरफ़ होने लगा। आपके वह नए मानने वाले जिनके दिलों में आले मोहम्मद (स अ व व ) की मोअद्दत कमाल को पहुँची हुई थी वह यह चाहते थे कि किसी सूरत से इमाम (अ.स.) की खि़दमत में इमाम मेहदी (अ.स.) की विलादत की मुबारक बाद पेश करें लेकिन इसका मौक़ा न मिलता था क्यों कि या इमाम क़ैद में होते या हिरासत में। उनसे मिलने की किसी को इजाज़त न होती थी लेकिन क़हत के वाक़िये से इतना हुआ कि आप तक़रीबन एक साल क़ैद ख़ाने से बाहर रहे। इसी दौरान में लोगों ने मसाएल वग़ैरा दरयाफ़्त किये और जो लोग ज़्यारत के मुश्ताक़ थे उन्होंने ज़ियारत की और जो ख़ुफ़िया तहनियते विलादत हज़रते हज़रत हुज्जत (अ.स.) अदा करना चाहते थे उन्होंने तहनियत अदा की।

अल्लामा मोहम्मद बाक़र लिखते हैं कि 257 हिजरी में तक़रीबन 70 आदमी मदाएन से करबला होते हुए सामरा पहुँचे और हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हो कर तहनियत गुज़ार हुए। हज़रत ने फ़रते मसर्रत से आंखों में आंसू भर कर उनका इस्तेक़बाल किया और उनके सवालात के जवाबात दिये।(दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 172 )

अक़ीदत मंदों की आमद का चुंकि तांता बंध गया था इस लिये ख़लीफ़ा मोतमिद ने आपके हालात की निगरानी के लिये बेशुमार जासूस मुक़र्रर कर दिये। इमाम हसन असकरी (अ.स.) ने जिन्हें हुकूमत की नियत का बहुत अच्छी तरह इल्म था ख़ामोशी और ंगोशा नशीनी की ज़िन्दगी बसर करने लगे और आपने इसकी एहतीयात बरती कि मुल्की मामेलात पर कोई तबसेरा न किया जाय और सिर्फ़ दीनी उमूर से बहस की जाय। चुनान्चे 257 हिजरी के आखि़र तक यही कुछ होता रहा लेकिन ख़लीफ़ा मुतमईन न हुआ और उसने हसबे आदत रोक टोक शुरू की और सब से पहले उसने ख़ुम्स की आमद की बन्दिश कर दी।

इमाम हसन असकरी (अ.स.) और अबीदुल्लाह वज़ीरे मोतमिद अब्बासी

इसी ज़माने में एक दिन हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) मुतवक्किल के वज़ीर फ़तेह इब्ने ख़ाकान के बेटे अबीदुल्लाह इब्ने ख़ाक़ान जो कि मोतमिद का वज़ीर था मिलने के लिये तशरीफ़ ले गए। उसने आपकी बेइन्तेहां ताज़ीम की और आपसे इस तरह महवे गुफ़्तुगू रहा कि मोतमिद का भाई मौक़फ़ दरबार में आया तो उसने कोई परवाह न की। यह हज़रत की जलालत और ख़ुदा की दी हुई इज़्ज़त का नतीजा था। हम इस वाक़िये को अबीदुल्लाह के बेटे अहमद ख़ाक़ान की ज़बानी बयान करते हैं। कुतुबे मोतबरा में है कि जिस ज़माने में अहमद ख़ाक़ान क़ुम का वाली था , उसके दरबार में एक दिन अलवियों का तज़किरा छिड़ गया। वह अगरचे दुशमने आले मोहम्मद होने में मिसाली अहमियत रखता था लेकिन यह कहने पर मजबूर हो गया कि मेरी नज़र में इमाम हसन असकरी (अ.स.) से बेहतर कोई नहीं। उनकी जो वक़अत उनके मानने वालों और अराकीने दौलत की नज़र में थी वह उनके अहद में किसी को भी नसीब नहीं हुई। सुनो! एक मरतबा मैं अपने वालिद अबीदुल्लाह इब्ने ख़ाक़ान के पास खड़ा हुआ था कि नागाह दरबान ने आ कर इत्तेला दी कि इमाम हसन असकरी (अ.स.) तशरीफ़ लाए हुए हैं , वह इजाज़ते दाखि़ला चाहते हैं। यह सुन कर मेरे वालिद ने पुकार कर कहा कि हज़रत इब्नुब रज़ा को आने दो। वालिद ने चूंकि कुन्नियत के साथ नाम लिया था इस लिये मुझे सख़्त ताअज्जुब हुआ क्यो कि इस तरह ख़लीफ़ा या वली अहद के अलावा किसी का नाम नहीं लिया जाता था। इसके बाद ही मैंने देखा कि एक साहब जो सब्ज़ रंग , ख़ुश क़ामत , ख़ूब सूरत , नाज़ुक अन्दाम जवान थे , दाखि़ल हुए। जिनके चहरे से रोबो जलाल हुवेदा था। मेरे वालिद की नज़र ज्यों ही उनके ऊपर पड़ी वह उठ खड़े हुए और उनके इस्तेक़बाल के लिये आगे बढ़े और उन्हें सीने से लगा कर उनके चेहरे और सीने का बोसा दिया और अपने मुसल्ले पर उनको बिठा लिया और कमाले अदब से उनकी तरफ़ मुख़ातिब रहे और थोड़ी थोड़ी देर के बाद कहते थे , मेरी जान आप पर क़ुरबान ऐ फ़रज़न्दे रसूल (स अ व व )। इसी असना में दरबान ने आ कर इत्तेला दी कि ख़लीफ़ा का भाई मौफ़िक़ आया है। मेरे वालिद ने कोई तवज्जो न की हालांकि उसका उमूमन यह एज़ाज़ रहता था कि जब तक वापस न चला जाए , दरबार के लोग दो रोया सर झुकाय खड़े रहते थे। यहां तक कि मौफ़ि़क़ के ग़ुलामे ख़ास को उसने अपनी नज़रों से देख लिया। उन्हें देखने के बाद मेरे वालिद ने कहा या इब्ने रसूल अल्लाह (स अ व व ) अगर इजाज़त हो तो मौफ़िक़ से कुछ बातें कर लूं। हज़रत ने वहां से उठ कर रवाना हो जाने का इरादा किया। मेरे वालिद ने उन्हें सीने से लगाया और दरबानों को हुक्म दिया कि उन्हें दो मुकम्मल सफ़ों के दरमियान से ले जाओ कि मौफ़िक़ की नज़र आप पर न पड़े। चुनान्चे हज़रत इसी अन्दाज़ से वापस तशरीफ़ ले गए। आप के जाने के बाद मैंने ख़ादिमों और ग़ुलामों से कहा कि वाए हो तुमने कुन्नियत के साथ किस का नाम ले कर उसे मेरे वालिद के सामने पेश किया था , जिसकी उसने इस दर्जा ताज़ीम की जिसकी मुझे तवक़्क़ो न थी। उन लोगों ने फिर कहा कि यह शख़्स सादाते अलविया में से था। उसका नाम हसन बिन अली और कुन्नियत इब्नुल रज़ा है। यह सुन कर मेरे ग़म व ग़ुस्से की कोई इन्तेहां न रही और मैं दिन भर इसी ग़ुस्से में भुनता रहा कि अलवी सादात की मेरे वालिद ने इतनी इज़्ज़त व तौक़िर क्यो कि , यहां तक कि रात आ गई। मेरे वालिद नमाज़ में मशग़ूल थे। जब वह फ़रीज़ा ए इशा से फ़ारिग़ हुए तो मैं उनकी खि़दमत में हाज़िर हुआ। उन्होंने पूछा , ऐ अहमद ! इस वक़्त आने का क्या सबब है ? मैंने अर्ज़ की कि इजाज़त दीजिए तो कुछ पूछूं। उन्होंने फ़रमाया कि जो जी चाहे पूछो। मैंने कहा यह कौन शख़्स था , जो सुबह आपके पास आया था ? जिसकी आपने ज़बर दस्त ताज़ीम की और हर बात में अपने को और अपने बाप को उस पर से फ़िदा करते थे। उन्होंने फ़रमाया कि ऐ फ़रज़न्द यह राफ़ज़ियों के इमाम हैं। उनका नाम हसन बिन अली और उनकी मशहूर कुन्नियत इब्नुल रज़ा है। यह फ़रमा कर वह थोड़ी देर चुप रहे। फिर बोले ऐ फ़रज़न्द यह वह कामिल इंसान हैं कि अगर अब्बासीयों से सलतन चली जाए तो इस वक़्त दुनियां में इससे ज़्यादा इस हुकूमत का मुस्तहक़ कोई नहीं। यह शख़्स इफ़्फ़त , ज़ोहद , कसरते इबादत , हुस्ने इख़लाक़ , सलाह , तक़वा वग़ैरा में तमाम बनी हाशिम से अफ़ज़ल और आला हैं , और ऐ फ़रज़न्द अगर तू उनके बाप को देखता तो हैरान रह जाता , वह इतने साहबे करम और फ़ाज़िल थे कि उनकी मिसाल भी नहीं थी। यह सब बातें सुन कर मैं ख़ामोश तो हो गया लेकिन वालिद से हद दर्जा नाख़ुश रहने लगा और साथ ही साथ इब्नुल रज़ा के हालात को मालूम करना अपना शेवा बना लिया। इस सिलसिले में मैंने बनी हाशिम , उमरा , लशकर , मुन्शियाने दफ़्तरे क़ज़्ज़ाता और फ़ुक़हा और अवामुन नास से हज़रत के हालात का इस्तेफ़सार किया। सब के नज़दीक हज़रत इब्नुल रज़ा को जलील उल क़द्र और अज़ीम पाया और सबने बिल इत्तेफ़ाक़ यही बयान किया कि इस मरतबे और खू़बियों का कोई शख़्स किसी ख़ानदान में नहीं है। जब मैंने हर दोस्त और दुश्मन को हज़रत के बयाने इख़्लाक़ और इज़हारे मकारमे इख़्लाक़ में मुत्तफ़िक़ पाया तो मैं भी उनका दिल से मानने वाला हो गया और अब उनकी क़द्रो मंज़िलत मेरे नज़दीक़ बे इन्तेहा है। यह सुन कर तमाम अहले दरबार ख़ामोश हो गए। अलबत्ता एक शख़्स बोल उठा कि ऐ अहमद तुम्हारी नज़र में उनके बरादर जाफ़र की क्या हैसियत है ? अहमद ने कहा उनके मुक़ाबले में उसका क्या ज़िक्र करते हो वह तो ऐलानिया फ़िस्क़ व फ़ुजूर का इरतेक़ाब करता था। दाएमुल ख़ुमर था , ख़फ़ीफ़ उल अक़्ल था , अनवाए मलाही व मनाही का मुरतक़िब होता था। इब्नुल रज़ा के बाद जब ख़लीफ़ा मोतमिद से उसने उनकी जा नशीनी का सवाल किया तो उसने उसके किरदार की वजह से दरबार से निकलवा दिया था।(मनाक़िब इब्ने शहरे आशोब जिल्द 5 पृष्ठ 124 व इरशादे मुफ़ीद पृष्ठ 505 ) बाज़ उलेमा ने लिखा है कि यह गुफ़्तुगू इमाम हसन असकरी (अ.स.) की शहादत के 18 साल बाद माहे शाबान 278 हिजरी की है।(दमए साकेबा पृष्ठ 192 जिल्द 3 प्रकाशित नजफ़े अशरफ़)

इमाम हसन असकरी (अ.स.) की दोबारा गिरफ़्तारी

यह एक मुसल्लेमा हक़ीक़त है कि ख़ुल्फ़ाए बनी अब्बासिया ख़ूब जानते थे कि सिलसिला ए आले मोहम्मद (स अ व व ) के वह अफ़राद जो रसूल अल्लाह (स अ व व ) की सही जा नशीनी के मिसदाक़ व हक़दार हो सकते हैं वह वही अफ़राद हैं जिनमें से ग्यारहवीं हस्ती इमाम हसन असकरी (अ.स.) की है। इस लिये उनका फ़रज़न्द वह हो सकता है जिसके बारे में रसूल अल्लाह (स अ व व ) की पेशीन गोई सही क़रार पा सके। लेहाज़ा कोशिश यह थी कि उनकी ज़िन्दगी का दुनिया से ख़ात्मा हो जाए। इस तरह की उनका जा नशीन दुनिया में मौजूद ने हो। यही सबब था कि इमाम हसन असकरी (अ.स.) के लिये नज़र बन्दी पर इक़तेफ़ा नहीं की गई। जो इमाम अली नक़ी (अ.स.) के लिये ज़रूरी समझी गई थी बल्कि आपके लिये अपने घर बार से अलग क़ैद तन्हाई को ज़रूरी समझा गया। यह और बात है कि क़ुदरती इन्तेज़ाम के मातहत दरमियान में इन्के़लाबाते सलतनत के वाक़ए आपकी क़ैदे मुसलसल के बीच में क़हरी रिहाई के सामान पैदा कर दिया करते थे , मगर फिर भी जो बादशाह तख़्त पर बैठता वह अपने पेश रौ के नज़रिये के मुताबिक़ आपको दोबारा मुक़य्यद करने पर तैयार हो जाता था। इस तरह आपकी मुख़्तसर ज़िन्दगी जो दौरे इमामत के बाद थी उसका बेशतर हिस्सा क़ैदो बन्द में ही गुज़रा। इस क़ैद की सख़्ती मोतमिद के ज़माने में बहुत बढ़ गई थी। अगरचे वह मिस्ल दीगर सलातीन के आपके मरतबे और हक़्क़ानियत से ख़ूब वाक़िफ़ था लेकिन फिर भी वह बुग़्ज़े लिल्लाही को छोड़ न सका और दस्तूरे साबिक़ के मुताबिक़ उन्होंने ज़िन्दगी की मंज़िले आखि़र तक पहुँचाने के दरपए रहा। यही वहज है कि वह नज़र बन्दियों से मुतमईन न हो सका और उसने 258 हिजरी में इमाम हसन असकरी (अ.स.) को फिर मुक़य्यद कर दिया।(आलामुल वुरा पृष्ठ 214 ) और अबकी मरतबा चूंकि नियत बिल्कुल ख़राब थी इस लिये क़ैद में भी पूरी सख़्ती की गई। हुक्म था कि आपके साथ किसी क़िस्म की कोई रियायत न की जाए। चुनान्चे यही कुछ होता रहा लेकिन उसे इससे तसल्ली न हुई और उसने अपने एक ज़ालिम खि़दमतगार जिसका नाम ‘‘ नख़रीर ’’ था को बुला कर कहा कि उन्हें तू अपनी निगरानी में ले ले और जिस दर्जा सता सके उन्हें परेशान कर। नख़रीर ने हुक्म पाते ही तशद्दुद शुरू कर दिया। इमाम (अ.स.) को दिन की रौशनी और पानी की फ़रावानी तक से महरूम कर दिया। आपको दिन और रात का पता सूरज की रौशनी से न चलता था सिर्फ़ तारीकी ही रहती थी। एक दिन उसकी बीवी ने उससे दरख़्वास्त की के फ़रज़न्दे रसूल (स अ व व ) है उसके साथ तुम्हारा यह बरताव अच्छा नहीं है। उसने कहा यह क्या है अभी तो उन्हें जानवरों से फड़वा डालना बाकी़ है।

हुज्जते ख़ुदा दरिन्दों में

चुनान्दे उसने इजाज़त हासिल कर के इमाम हसन असकरी (अ.स.) को दरिन्दों मे डाल दिया। शेर और दीगर दरिन्दों की नज़र जब आप पर पड़ी तो उन्होंने हुज्जते ख़ुदा को पहचान लिया और उन्हें फाड़ खाने के बजाए उनके क़दमों पर सर रख दिया इमाम हसन असकरी (अ.स.) ने उनके दरमियान मुसल्ला बिछा कर नमाज़ पढ़ना शुरू कर दिया दुश्मनों ने एक बुलन्द मक़ाम से यह हाल देखा और सख़्त शर्मिन्दा हो कर इमाम (अ.स.) की फ़ज़ीलत का एतेराफ़ किया।(आलामुल वुरा पृष्ठ 218, कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 127, इरशाद मुफ़ीद पृष्ठ 514 )

इस वाक़िये ने आप की दबी हुई फ़ज़ीलत को उभार दिया लोगों में इस करामत का चरचा हो गया अब तो मुतामिद के लिये इस के सिवा कोई चारा न था कि उन्हें जल्द से जल्द इस दारे फ़ानी से रूख़सत कर दे चुनान्चे उसने एक ऐसे क़ैद ख़ाने में आपको मुक़य्यद कर दिया जिसमें रह कर ज़िन्दा रहने से मौत बेहतर है।

इमाम हसन असकरी (अ.स.) की शहादत

इमाम याज़ दहुम ग्यारहवें इमाम हज़रत हसन असकरी (अ.स.) क़ैदो बन्द की ज़िन्दगी गुज़ारने के दौरान में एक दिन अपने ख़ादिम अबुल अदयान से इरशाद फ़रमाते हुए कि तुम जब अपने सफ़रे मदाएन से पन्द्रह दिन के बाद पलटोगे तो मेरे घर से शेवनो बुका की आवाज़ आती होंगी।(जिलाउल उयून , पृष्ठ 299 ) नीज़ आपका यह फ़रमाना भी मन्क़ूल है कि 260 हिजरी में मेरे मानने वालों के दरमियान इन्के़लाबे अज़ीम आयेगा।(दमए साकबे जिल्द 3 पृष्ठ 177 )

अल ग़रज़ इमाम हसन असकरी (अ.स.) को बातारीख़ 1 रबीउल अव्वल 260 हिजरी को मोतमिद अब्बासी ने ज़हर दिलवा दिया और आप 8 रबीउल अव्वल 260 हिजरी को जुमे के दिन ब वक़्ते नमाज़े सुबह खि़लअते हयाते ज़ाहेरी उतार कर ब त फ़े मुल्के जावेदानी रेहलत फ़रमा गए। ‘‘ इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे राजेऊन ’’(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 124 व फ़ुसूल अल महमा व अरजहुल मतालिब पृष्ठ 464 जिलाउल उयून पृष्ठ 296, अनवारूल हुसैनिया जिल्द 3 पृष्ठ 56 )

उलेमा का बयान है कि वफ़ात से क़ब्ल आपने इमाम मेहदी (अ.स.) को तबर्रूकात सिपुर्द फ़रमा दिये थे।(दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 192 )

शहादत के वक़्त आपकी उम्र 28 साल की थी।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 124 )

उलमाए फ़रीक़ैन का इत्तेफ़ाक़ है कि आपने हज़रत इमाम मेहदी (अ.स.) के अलावा कोई औलाद नहीं छोड़ी।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 292 व सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 124, नूरूल अबसार , अरजहुल मतालिब पृष्ठ 462, कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 126 व आलामुल वुरा पृष्ठ 218 )

शहादत के बाद

वाक़िए क़हत , दरिन्दों की सजदा रेज़ी और आपकी मज़लूमियत की वजह से हर एक के दिल में आप की वक़अत , आपकी मोहब्बत जा गुज़ी हो चुकी थी। यही वजह है कि आपकी शहादत की ख़बर का शोहरत पाना था कि हर घर से रोने की आवाज़ें आने लगीं। हर दिल में इज़तेराब की लहरे दौड़ने लगीं। शोरो शेवन से सामरा की गलियां क़यामत का मन्ज़र पेश करने लगीं।

अल्लामा मजलिसी लिखते हैं कि इमाम हसन असकरी (अ.स.) के इरशाद के मुताबिक़ जब 15 दिन के बाद अबुल अदयान दाखि़ले सामरा हुए तो आप शहीद हो चुके थे और शेवन व मातम की आवाज़ें बुलन्द थीं।(जिलाउल उयून पृष्ठ 297 )

इमाम शिब्लन्जी लिखते हैं कि आपके इन्तेक़ाल की ख़बर के मशहूर होते ही तमाम सामरा में हल चल मच गई और हर तरफ़ रोने पीटने का शोर बुलन्द हो गया। बाज़ारों में हरताल हो गई , दुकानें बन्द हो गईं। फिर तमाम बनी हाशिम और हाकिमाने क़सास , अरकाने अदालत , अयाने हुकूमत , मुन्शी , क़ाज़ी और आइम्मा ए ख़लाएक़ आपके जनाज़े में शिरकत के लिये दौड़ पड़े। सरमन राय इस दिन क़यामत का नमूना था।(नूरूल अबसार पृष्ठ 168, फुसूल मूहिम्मा , अरजहुल मतालिब पृष्ठ 468 )

ग़रज़ कि निहायत तुज़ुक व एहतेशाम और ज़ाहेरी शानो शौकत के साथ आपका जनाज़ा उठाया गया और उस मुक़ाम पर ले जा कर रखा गया जिस जगह नमाज़ पढ़ाई जाती थी। इतने में मोतमिद के हुक्म से ईसा इब्ने मुतावक्किल जो उमूमन नमाज़े मय्यत पढ़ाया करता था आगे बढ़ा और उसने चेहरे से कफ़न सरका कर बनी हाशिम अलवी व अब्बासी और सब अमीरों , मुन्शियों , क़ाज़ियों ग़रज़ कि कुल अशराफ़ों अयान को दिखाते हुए कहा कि ‘‘ माता हतफ़ अनफ़ा अला फ़राशा ’’ देखो यह अपनी मौत से मरे हैं। यानी इन्हें किसी ने कुछ खिलाया नहीं है।(तज़किरतुल मासूमीन पृष्ठ 229 )

इसके बाद जाफ़रे तव्वाब नमाज़ पढ़ाने के लिये आगे बढ़े , अभी आप तकबीरतुल हराम न कहने पाए थे कि मोहम्मद इब्ने हसन अल क़ायम अल मेहदी (अ.स.) बरामद हो कर सामने आ गए और आपने चचा को हटा कर नमाज़े जनाज़ा पढ़ाई।(जला उल उयून पृष्ठ 292 ) इस के बाद आपको इमाम अली नक़ी (अ.स.) के रौज़ा ए मुबारक में दफ़्न कर दिया गया।(अरजहुल मतालिब पृष्ठ 264 )

यह आपकी ख़ानदानी करामत है कि आपके रौज़े पर ताएर बीट नहीं करते।(दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 179 प्रकाशित नजफ़े अशरफ़)

अल्लामा मजलिसी लिखते हैं कि इमाम हसन असकरी (अ.स.) की तदफ़ीन के बाद इमाम मेहदी (अ.स.) के तजस्सुस में आपके घर की तलाशी ली गई और आपकी औरतों को गिरफ़्तार किया गया। मक़सद यह था कि इमाम मेहदी (अ.स.) को गिरफ़्तार कर के क़त्ल कर दिया जाए ताकि ख़ानदाने रिसालत का ख़ात्मा हो जाए और क़यामत के क़रीब अदलो इन्साफ़ की बस्ती न बसाई जा सके और ज़ालिमों के ज़ुल्म का बदला न लिया जा सके , लेकिन ख़ुदा वन्दे आलम ने अपने वादे ‘‘ वल्लाह मतम नूरा ’’ के मुताबिक़ उन्हें इस ज़ालिम मोतमिद के दस्त रस से महफ़ूज़ कर दिया। अब इन्शा अल्लाह जब हुक्मे ख़ुदा होता तो आप ज़हूर फ़रमायेंगे।(अजल्लाह तआला फ़राजहू)

पहली दुआ

बिस्मिल्लाहिर रहमानिर रहीम

जब आप दुआ मांगते तो उसकी इब्तिदा ख़ुदाए बुज़ुर्ग व बरतर की हम्द व सताइश से फ़रमाते , चुनांचे इस सिलसिले में फ़रमाया -

सब तारीफ़ उस अल्लाह के लिये है जो ऐसा अव्वल है जिसके पहले कोई अव्वल न था और ऐसा आखि़र है जिसके बाद कोई आखि़र न होगा। वह ख़ुदा जिसके देखने से देखने वालों की आंखें आजिज़ और जिसकी तौसीफ़ व सना से वसफ़ बयान करने वालों की अक़्लें क़ासिर हैं। उसने कायनात को अपनी क़ुदरत से पैदा किया , और अपने मन्शाए अज़ीम से जैसा चाहा उन्हें ईजाद किया। फिर उन्हें अपने इरादे के रास्ते पर चलाया और अपनी मोहब्बत की राह पर उभारा। जिन हुदूद की तरफ़ उन्हें आगे बढ़ाया है उनसे पीछे रहना और जिनसे पीछे रखा है उनसे आगे बढ़ना उनके क़ब्ज़ा व इख़्तेयार से बाहर है। उसी ने हर (ज़ी) रूह के लिये अपने (पैदा कर्दा) रिज़्क़ से मुअय्यन व मालूम रोज़ी मुक़र्रर कर दी है जिसे ज़्यादा दिया है उसे कोई घटाने वाला घटा नहीं सकता और जिसे कम दिया है उसे कोई बढ़ाने वाला बढ़ा नहीं सकता। फ़िर यह के उसी ने उसकी ज़िन्दगी का एक वक़्त मुक़र्रर कर दिया और एक मुअय्यना मुद्दत उसके लिये ठहरा दी। जिस मुद्दत की तरफ़ वह अपनी ज़िन्दगी के दिनों से बढ़ता और अपने ज़मानाए ज़ीस्त के सालों से उसके नज़दीक होता है यहाँ तक के जब ज़िन्दगी की इन्तेहा को पहुँच जाता है और अपनी उम्र का हिसाब पूरा कर लेता है तो अल्लाह उसे अपने सवाब बे पायाँ तक जिसकी तरफ़ उसे बुलाया था या ख़ौफ़नाक अज़ाब की जानिब जिसे बयान कर दिया था क़ब्ज़े रूह के बाद पहुंचा देता है ताके अपने अद्ल की बुनियाद पर बुरों को उनकी बद आमालियों की सज़ा और नेकोकारों को अच्छा बदला दे। उसके नाम पाकीज़ा और उसकी नेमतों का सिलसिला लगातार है। वह जो करता है उसकी पूछगछ उससे नहीं हो सकती और लोगों से बहरहाल बाज़पुर्श होगी।

तमाम तारीफ़ उस अल्लाह के लिये हैं के अगर वह अपने बन्दों को हम्द व शुक्र की मारेफ़त से महरूम रखता उन पैहम अतीयों (अता) पर जो उसने दिये हैं और उन पै दर पै नेमतों पर जो उसने फरावानी से बख़्शी हैं तो वह उसकी नेमतों में तसर्रूफ़ तो करते मगर उसकी हम्द न करते और उसके रिज़्क़ में फ़ारिग़लबाली से बसर तो करते मगर उसका शुक्र न बजा लाते और ऐसे होते तो इन्सानियत की हदों से निकल कर चौपायों की हद में आ जाते , और उस तौसीफ़ के मिस्दाक़ होते जो उसने अपनी मोहकम किताब में की है के वह तो बस चौपायों के मानिन्द हैं बल्कि उनसे भी ज़्यादा राहे रास्त से भटके हुए। ’’

तमाम तारीफ़ अल्लाह के लिये हैं के उसने अपनी ज़ात को हमें पहचनवाया और हम्द व शुक्र का तरीक़ा समझाया और अपनी परवरदिगारी पर इल्म व इत्तेलाअ के दरवाज़े हमारे लिये खोल दिये और तौहीद में तन्ज़िया व इख़लास की तरफ़ रहनुमाई की और अपने मुआमले में शिर्क व कजरवी से हमें बचाया। ऐसी हम्द जिसके ज़रिये हम उसकी मख़लूक़ात में से हम्दगुज़ारों में ज़िन्दगी बसर करें और उसकी ख़ुशनूदी व बख़्शिश की तरफ़ बढ़ने वालों से सबक़त ले जाएं। ऐसी हम्द जिसकी बदौलत हमारे लिये बरज़क़ की तारीकियां छट जाएं और जो हमारे लिये क़यामत की राहों को आसान कर दे और हश्र के मजमए आम में हमारी क़द्र व मन्ज़िलत को बलन्द कर दे जिस दिन हर एक को उसके किये काम का सिला मिलेगा और उन पर किसी तरह का ज़ुल्म न होगा। जिस दिन दोस्त किसी दोस्त के कुछ काम न आएगा और न उनकी मदद की जाएगी। ऐसी हम्द हो एक लिखी हुई किताब में है जिसकी मुक़र्रब फ़रिश्ते निगेहदाश्त करते हैं हमारी तरफ़ से बेहिश्त बरीं के बलन्द तरीन दरजात तक बलन्द हो , ऐसी हम्द जिससे हमारी आँखों में ठण्डक आए जबके तमाम आँखें हैरत व दहशत से फटी की फटी रह जाएंगी और हमारे चेहरे रौशन व दरख़्शाँ हों जबके तमाम चेहरे सियाह होंगे। ऐसी हम्द जिसके ज़रिये हम अल्लाह तआला की भड़काई हुई अज़ीयतदेह आग से आज़ादी पाकर उसके जवारे रहमत में आ जाएं। ऐसी हम्द जिसके ज़रिये हम इसके मुक़र्रब फ़रिश्तों के साथ शाना ब शाना बैठते हुए टकराएं और उस मन्ज़िले जावेद व मक़ामे इज़्ज़त व रिफ़अत में जिसे तग़य्युर व ज़वाल नहीं उसके फ़र्सतावा पैग़म्बरों के साथ यकजा हों।

तमाम तारीफ़ उस अल्लाह के लिये है जिसने खि़लक़त व आफ़रीन्श की तमाम ख़ूबियाँ हमारे लिये मुन्तख़ब कीं और पाक व पाकीज़ा रिज़्क़ का सिलसिला हमारे लिये जारी किया और हमें ग़लबा व तसल्लत देकर तमाम मख़लूक़ात पर बरतरी अता की। चुनांचे तमाम कायनात उसकी क़ुदरत से हमारे ज़ेरे फ़रमान और उसकी क़ूवते सरबलन्दी की बदौलत हमारी इताअत पर आमादा है। तमाम तारीफ़ उस अल्लाह तआला के लिये हैं जिसने अपने सिवा तलब व हाजत का हर दरवाज़ा हमारे लिये बन्द कर दिया तो हम (उस हाजत व एहतियाज के होते हुए) कैसे उसकी हम्द से ओहदा बरआ हो सकते हैं और कब उसका शुक्र अदा कर सकते हैं। नहीं! किसी वक़्त भी उसका शुक्र अदा नहीं हो सकता। तमाम तारीफ़ उस अल्लाह के लिये है जिसने हमारे (जिस्मों में) फैलने वाले आसाब और सिमटने वाले अज़लात तरतीब दिये और ज़िन्दगी की आसाइशों से बहरामन्द किया और कार व कसब के आज़ा हमारे अन्दर वदीअत फ़रमाए और पाक व पाकीज़ा रोज़ी से हमारी परवरिश की और अपने फ़ज़्ल व करम के ज़रिये हमें बेनियाज़ कर दिया और अपने लुत्फ़ व एहसान से हमें (नेमतों का) सरमाया बख़्शा। फिर उसने अपने अवाम्र की पैरवी का हुक्म दिया ताके फ़रमाबरदारी में हमको आज़माए और नवाही के इरतेकाब से मना किया ताके हमारे शुक्र को जांचे मगर हमने उसके हुक्म की राह से इन्हेराफ़ किया और नवाही के मरकब पर सवार हो लिये। फिर भी उसने अज़ाब में जल्दी नहीं की , और सज़ा देने में ताजील से काम नहीं लिया बल्कि अपने करम व रहमत से हमारे साथ नरमी का बरताव किया और हिल्म व राफ़्त से हमारे बाज़ आ जाने का मुन्तज़िर रहा।

तमाम तारीफ़ उस अल्लाह के लिये है जिसने हमें तौबा की राह बताई के जिसे हमने सिर्फ़ उसके फ़ज़्ल व करम की बदौलत हासिल किया है। तो अगर हम उसकी बख़्शिशों में से इस तौबा के सिवा और कोई नेमत शुमार में न लाएं तो यही तौबा हमारे हक़ में इसका उमदा इनआम , बड़ा एहसान और अज़ीम फ़ज़्ल है इसलिये के हमसे पहले लोगों के लिये तौबा के बारे में उसका यह रवय्या न था। उसने तो जिस चीज़ के बरदाश्त करने की हकमें ताक़त नहीं है वह हमसे हटा ली और हमारी ताक़त से बढ़कर हम पर ज़िम्मादारी आएद नहीं की और सिर्फ़ सहल व आसान चीज़ों की हमें तकलीफ़ दी है और हम में से किसी एक के लिये हील व हुज्जत की गुन्जाइश नहीं रहने दी। लेहाज़ा वही तबाह होने वाला है। जो उसकी मन्शा के खि़लाफ़ अपनी तबाही का सामान करे और वही ख़ुशनसीब है जो उसकी तरफ़ तवज्जो व रग़बत करे।

अल्लाह के लिये हम्द व सताइश है ह रवह हम्द जो उसके मुक़र्रब फ़रिश्ते बुज़ुर्गतरीन मख़लूक़ात और पसन्दीदा हम्द करने वाले बजा लाते हैं। ऐसी सताइश जो दूसरी सताइशों से बढ़ी चढ़ी हुई हो जिस तरह हमारा परवरदिगार तमाम मख़लूक़ात से बढ़ा हुआ है। फिर उसी के लिये हम्द व सना है उसकी हर हर नेमत के बदले में हो उसने हमें और तमाम गुज़िश्ता व बाक़ीमान्दा बन्दों को बख़्शी है उन तमाम चीज़ों के शुमार के बराबर जिन पर उसका इल्म हावी है और हर नेमत के मुक़ाबले में दो गुनी चौगुनी जो क़यामत के दिन तक दाएमी व अबदी हों। ऐसी हम्द जिसका कोई आखि़री कुफ़्फार और जिसकी गिनती का कोई शुमार न हो। जिसकी हद व निहायत दस्तरस से बाहर और जिसकी मुद्दत ग़ैर मुख़्तमिम हो। ऐसी हम्द जो उसकी इताअत व बख़्शिष का वसीला , उसकी रज़ामन्दी का सबब , उसकी मग़फ़ेरत का ज़रिया , जन्नत का रास्ता , उसके अज़ाब से पनाह , उसके ग़ज़ब से अमान , उसकी इताअत में मुअय्यन , उसकी मासियत से मानेअ और उसके हुक़ूक़ व वाजेबात की अदायगी में मददगार हो। ऐसी हम्द जिसके ज़रिये उसके ख़ुशनसीब दोस्तों में शामिल होकर ख़ुश नसीब क़रार पाएं और शहीदों के ज़मरह में शुमार हों जो उसके दुश्मनों की तलवारों से शहीद हुए , बेशक वही मालिक मुख़्तार और क़ाबिले सताइश है।

खुलासा :

----यह कलेमात दुआ का इफ़तेताहिया हैं जो सताइशे इलाही पर मुश्तमिल हैं। हम्द व सताइश अल्लाह तआला के करम व फ़ैज़ान और बख़्शिश व एहसान के एतराफ़ का एक मुज़ाहिरा है और दुआ से क़ब्ल इसके जूद व करम की फ़रावानियों और एहसान फ़रमाइयों से जो तास्सुर दिल व दिमाग़ पर तारी होता है उसका तक़ाज़ा यही है के ज़बान से उसकी हम्द व सताइश के नग़्मे उबल पड़ें जिसने एक तरफ़ ‘‘वस्अलुल्लाहा मिन फ़ज़्लेही ’’ (अल्लाह से उसके फ़ज़्ल का सवाल करो) कह कर तलब व सवाल का दरवाज़ा खोल दिया और दूसरी तरफ़ ‘‘उदऊनी अस्तजिब लकुम ’’ (मुझसे दुआ करो मैं क़ुबूल करूंगा) फ़रमाकर इस्तेजाबते दुआ का ज़िम्मा लिया।

इस तम्हीद में ख़ुदावन्दे आलम की वहदत व यकताई , जलाल व अज़मत , अद्ल व रऊफ़त और दूसरे सिफ़ात पर रोशनी डाली गई है। चुनान्चे सरनामाए दुआ में ख़ल्लाक़े आलम की तीन अहम सिफ़तों की तरफ़ इशारा किया है जिनमें तन्ज़िया व तक़दीस के तमाम जौहर सिमट कर जमा हो गए हैं। पहली सिफ़त यह के वह अव्वल भी है और आखि़र भी , लेकिन ऐसा अव्वल व आखि़र के न उससे पहले कोई था और न उसके बाद कोई होगा। उसे अव्वल व आखि़र कहने के साथ दूसरों से अव्वलीयत व आख़ेरीयत के सल्ब करने के मानी यह हैं के उसकी अव्वलीयत व आख़ेरीयत इज़ाफ़ी नहीं बल्कि हक़ीक़ी है। यानी वह अज़ली व अबदी है जिसका न कोई नुक़ताए आग़ाज़ है और न नुक़ताए इख़्तेताम। न उसकी इब्तिदा का तसव्वुर हो सकता है और न उसकी इन्तेहा का। न यह कहा जा सकता है के वह कब से है , और न यह कहा जा सकता है के वह कब तक है। और जो ‘‘कब से ’’ और ‘‘कब तक ’’ के हुदूद से बालातर हो उसके लिये एक लम्हा भी ऐसा फ़र्ज़ नहीं किया जा सकता जिसमें वह नीस्ती से हमकिनार रहा हो और जिसके लिये अदम व नीस्ती को तजवीज़ किया जा सके वह है ‘‘वाजेबुल वुजूद ’’ जो मुबदाव अव्वल होने के लेहाज़ से अव्वल और ग़ायते आखि़र होने के लिहाज़ से आखि़र होगा।

दूसरी सिफ़त यह है के वह आंखों से दिखाई नहीं दे सकता , क्योंकर किसी चीज़ के दिखाई देने के लिये ज़रूरी है के वह किसी तरफ़ में वाक़े हो , और जब अल्लाह किसी तरफ़ में वाक़ेअ होगा तो दूसरी तरफ़ें उससे ख़ाली मानना पड़ेंगी। और ऐसा अक़ीदा क्योंकर दुरूस्त तस्लीम किया जा सकता है जिसके नतीजे में बाज़ जेहात को उससे ख़ाली मानना पड़े और दूसरे यह के अगर वह किसी तरफ़ में वाक़ेअ होगा तो उस तरफ़ का मोहताज होगा और चूंके वह ख़ालिक़े एतराफ़ है इसलिये किसी तरफ़ का मोहताज नहीं हो सकता और न उसका ख़ालिक़ न रहेगा और तीसरे यह के जेहत में वही चीज़ वाक़ेअ हो सकती है जिस पर हरकत व सुकून तारी हो सकता है और हरकत व सुकून चूंके मुमकिन की सिफ़ात हैं इसलिये अल्लाह के लिये इन्हें तजवीज़ नहीं किया जा सकता और ज बवह हरकत व सुकून से बरी और अर्ज़ व जौहरे जिस्मानी की सतह से बरतर है तो उसके दिखाई देने का सवाल ही पैदा नहीं होता। मगर उसके बावजूद एक जमाअत उसकी रवियत की क़ायल है। यह जमाअत तीन मुख़्तलिफ़ क़िस्म के अक़ाएद के लोगों पर मुश्तमिल है। इनमें से कुछ का अक़ीदा यह है के उसकी रवियत सिर्फ़ आखि़रत में पैदा होगी। दुनिया में रहते हुए उसे देखा नहीं जा सकता और कुछ अफ़राद का नज़रिया यह है के वह आख़ेरत की तरह दुनिया में भी नज़र आ सकता है अगरचे ऐसा कभी नहीं हुआ , और कुछ लोगों का ख़याल यह है के जिस तरह आखि़रत में उसकी रवियत होगी उसी तरह दुनियां में भी देखा जा चुका है। पहले गिरोह की दलील यह है के रवियत का क़ुरान व हदीस में सराहतन ज़िक्र है जिसके बाद इन्कार का कोई महल बाक़ी नहीं रहता चुनान्चे इरशादे बारी तआला है - ‘‘वजूह नाज़ेरत ’’ (उस दिन बहुत से चेहरे तरो ताज़ा व शादाब और अपने परवरदिगार की तरफ़ निगरान होंगे) इससे साफ़ ज़ाहिर है के वह क़यामत में नज़र आएगा और दुनिया में इसलिये नज़र नहीं आ सकता के यहाँ हमारे इदराकात व क़वा कमज़ोर हैं जो तजल्ली-ए-इलाही की ताब नहीं रखते , और आख़ेरत में हमारे हिस व शऊर की क़ूवतें तेज़ हो जाएंगी जैसा के इरशादे इलाही है ‘‘फकशफ़ना अन्क अज़ाअक फ़ बसरक अलयौम हदीद ’’ (हमने तुम्हारे सामने से परदे हटा दिये अब तुम्हारी आंखें तेज़ हो गईं) लेहाज़ा वहाँ पर रवीयत से कोई अम्र मानेअ नहीं हो सकता।

दूसरे गिरोह की दलील यह है के अगर दुनिया में इसकी रवीयत मुमकिन न होती तो हज़रत मूसा (अ 0) ‘‘रब्बे ............एलैक ’’ (ऐ परवरदिगार! मुझे अपनी झलक दिखा ताके मैं तुझे देखूँ) कह कर अनहोनी और नामुमकिन बात की ख़्वाहिश न करते , और अल्लाह तआला ने भी उसे इस्तेक़रारे जबल पर मौक़ूफ़ करके इमकाने रवीयत की तरफ़ इशारा कर दिया। इस तरह अगर रवीयत मुमकिन न होती , तो उसे पहाड़ के ठहराव पर के जो एक अम्रे मुमकिन है मौक़ूफ़ न करता। चुनांचे इरशादे इलाही है ‘‘वलाकिन उनज़ुर एलल जबले फान इसतक़र मकानह फ़सौफ तरानी। (इस पहाड़ की तरफ़ देखो , अगर यह अपनी जगह पर ठहरा रहे तो फिर मुझे भी देख लोगे) और अगर इस सिलसिले में ‘‘लन तरानी ’’ (तुम मुझे क़तअन नहीं देख सकते) फ़रमाया तो उससे सिर्फ़ दुनिया में वक़ू रवीयत की नफ़ी मुराद है न इमकान रवीयत की और न उससे रवीयत आख़ेरत की नफ़ी मक़सूद है। क्योंके जब यह कहा जाए के ऐसा कभी नहीं होगा , तो अरफ़ में उसके मानी यही होते हैं के दुनिया में ऐसा कभी नहीं होगा , यह मक़सद नहीं होता है के आख़ेरत में भी ऐसा नहीं होगा। चुनांचे क़ुराने मजीद में यहूद के मुताल्लिक़ इरशाद है के लईंयतमन्नौहो (वह मौत की कभी तमन्ना नहीं करेंगे) तो यह तमन्ना की नफ़ी दुनिया के लिये है के वह दुनिया में रहते हुए मौत के ख़्वाहिशमन्द कभी नहीं होंगे और आख़ेरत में तो वह अज़ाबे जहन्नम से छुटकारा हासिल करने के लिये बहरहाल मौत की तमन्ना व आरज़ू करेंगे। तो जिस तरह यहाँ पर नफ़ी का ताल्लुक़ सिर्फ़ दुनिया से है उसी तरह वहां भी नफ़ी का ताल्लुक़ सिर्फ़ दुनिया से है न आख़ेरत से।

तीसरे गिरोह की दलील है के जब बयाने साबिक़ से दुनिया में इसकी रवीयत का इमकान साबित हो गया तो उसके वक़ोअ के लिये हुस्ने बसरी और अहमद बिन जम्बल वग़ैरह का यह क़ौल काफ़ी है के पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम ने लैलतल इसरा में उसे देखा।

जब इन दलाएल का जाएज़ा लिया जाता है तो वह इन्तेहाई कमज़ोर और असबाते मुद्दआ से क़ासिर नज़र आते हैं। चुनान्चे पहले गिरोह का यह दावा के क़ुरान व हदीस में रवीयत के शवाहिद बकसरत हैं एक ग़लत और बेबुनियाद दावा है और क़ुरान व हदीस से क़तअन इसका असबात नहीं होता बल्कि क़ुरआन के वाज़ेह तसरीहात उसके खि़लाफ़ हैं और क़ुरानी तसरीहात के खि़लाफ़ अगर कोई हदीस होगी भी तो वह मौज़ूअ व मतरूह क़रार पाएगी। चुनान्चे क़ुराने मजीद में नफ़ी रवीयत के सिलसिले में इरशादे इलाही है के ला क़ुदरकह............ वहोवल लतीफ़ल ख़बीर। (आंखें उसे देख नहीं सकतीं और वह आँखों को देख रहा है , और वह हर छोटी से छोटी चीज़ से आगाह और बाख़बर है) और जिस आयत को असाबते रवीयत के सिलसिले में पेश किया गया है , इसमें लफ़्ज़ नाज़ेरत से रवीयत पर इस्तेदलाल सही नहीं है क्योंके अहले लुग़त ने नज़र के मानी इन्तेज़ार , ग़ौर-व फ़िक्र , मोहलत , शफ़क़त और इबरत अन्दोज़ी के भी किये हैं और जब एक लफ़्ज़ में और मानी का भी एहतेमाल हो तो उसे दलील बनाकर पेश नहीं किया जा सकता।

चुनांचे कुछ मुफ़स्सेरीन ने इस मक़ाम पर नज़र के मानी इन्तेज़ार के लिये हैं और इस मानी के लेहाज़ से आयत का मतलब यह है के वह इस दिन अल्लाह की नेमतों के मुन्तज़िर होंगे और इस मानी की शाहिद यह आयत है - फ़नाज़ेरत .....मुरसेलून (वह मुन्तज़िर थी के क़ासिद क्या जवाब लेकर पलटते हैं और कुछ मुफ़स्सेरीन ने नज़र के मानी देखने के लिये हैं और इस सूरत में लफ़्ज़ सवाब को यहाँ महज़ूफ़ माना है और आयत के मानी यह हैं के वह अपने परवरदिगार के सवाब की जानिब निगराँ होंगे। जिस तरह इरशादे इलाही -वजाअअ रब्बेक , (तुम्हारा परवरदिगार आया) में लफ़्ज़ अम्र महज़ूफ़ माना गया है और मानी यह किये गए हैं के तुम्हारे परवरदिगार का हुक्म आया , और फ़िर यह कहां ज़रूरी है के जहाँ नज़र सादिक़ आये वहां रवीयत भी सादिक़ आये। चुनांचे अरब क ामक़ौला है के नज़रत एललहलाल फ़लम अराहो , (मैंने चांद की तरफ़ नज़र की मगर देख न सका) यहाँ नज़र साबित है मगर रवीयत साबित नहीं है। अब रहा यह के वह दुनिया में इस लिये नज़र नहीं आ सकता के यहाँ इन्सानी इदराकात व क़वा ज़ईफ़ हैं और आख़ेरत में यह और इदराकात क़वी हो जायेंगे। तो यह दुनिया व आख़ेरत की तफ़रीक़ इस बिना पर तो सही हो सकती है अगर उसकी ज़ात दिखाई दिये जाने के क़ाबिल हो और हमारी निगाहें अपने अजज़ों क़ुसूर की बिना पर क़ासिर हैं। लेकिन हब उसकी ज़ात का तक़ाज़ा ही यह है के जाने के वह दिखाई न दे तो महल व मुक़ाम के बदलने से नाक़ाबिले रवीयत ज़ात क़ाबिले रवीयत नहीं क़रार पा सकती। और इस सिलसिले में जो आयत पेश की गयी है उसमें तो यह नहीं है के इदराकात व हवास के तेज़ हो जाने से ख़ुदा को भी देखा जा सकेगा बल्कि आयत के मानी तो यह हैं के उस दिन परदे हटा दिये जाएंगे और आँखें तेज़ हो जाएंगी जिसका वाज़ेह मतलब यह है के वहां पर तमाम शुबहात हट जाएंगे और आँखों पर पड़े हुए ग़फ़लत के परदे उठ जाएंगे , यह मानी नही ंके वह अल्लाह को भी देखने लगेंगे , और अगर ऐसा ही है तो यह ग़फ़लत के परदे तो काफ़िरों की आँखों से उठेंगे लेहाज़ा उन्हीं को नज़र आना चाहिये।

दूसरे गिरोह की दलील का जवाब यह है के हज़रत मूसा अ 0 ने रवीयते बारी की ख़्वाहिश इस लिये नहीं की थी के वह उसकी रवीयत को मुमकिन समझते थे और उन्हें उसके नाक़ाबिले रवीयत होने का इल्म न था। यक़ीनन वह जानते थे के वह इदराके हवास व मुशाहिदए बशरी से बदन्दतर है। तो इस सवाल की नौबत इसलिये आई के बनी इसराइल ने कहा के या मूसा लन नौमन लका..........जहरतन (ऐ मूसा अ 0! हम उस वक़्त तक ईमान नहीं लाएंगे जब तक ख़ुदा को ज़ाहिर ब ज़ाहिर न देख लेंगे) तो मूसा अलैहिस्सलाम ने चाहा के उन पर उनकी बे राहरवी साबित कर दें और यह वाज़ेह कर दे ंके वह कोई दिखाई देने वाली चीज़ नहीं है। इसलिये अल्लाह के सामने उनका सवाल पेश किया ताके वह अपने सवाल का नतीजा देख लें और इस ग़लत ख़्याल से बाज़ आयें। चुनांचे ख़ुदा वन्द आलम का इरशाद है के फ़क़द साअलू जहरतन (यह लोग तो मूसा अ 0 से इससे भी बड़ा सवाल कर चुके हैं और वह यह के मूसा से कहने लगे के हमें ख़ुदा को ज़ाहिर ब ज़ाहिर दिखा दीजिये) जब मूसा अ 0 ने उनके कहने पर सवाल किया तो इस मौक़े पर क़ुदरत का यह इरशाद के ‘‘तुम पहाड़ की तरफ़ देखो अगर यह अपनी जगह पर बरक़रार रहे तो मुझे देख लोगे ’’ इमकाने रवीयत का पता नहीं देता। इसलिये के मौक़ूफ़ अलिया सिर्फ़ पहाड़ का ठहराव नहीं था क्योंके वह तो उस वक़्त भी ठहरा हुआ था जब रवीयत को उस पर मोअल्लक़ किया जा रहा था बल्के तजल्ली के वक़्त उसका ठहराव मक़सूद था , और जब तक इस मौक़े के लिये उसके ठहराव का इमकान साबित न हो इस ठहराव को इमकाने रवीयत की दलील नहीं क़रार दिया जा सकता। हालांके इस सअत पर तो यह हुआ के ‘‘जअलहू दक्कन साअक़न ’’ (तजल्ली ने इस पहाड़ को चकनाचूर कर दिया और मूसा बेहोश होकर गिर पड़े) और बनी इसराइल पर उनके बे महल सवाल की वजह से बिजली गिरी। जैसा के इरशादे इलाही है - फ़ा ख़ज़त............ बे ज़ुल्मेहिम (उनकी शर पसन्दी की वजह से बिजली ने उन्हें जकड़ लिया) अगर ख़ुदा वन्दे आलम की रवीयत मुमकिन होती तो एक मुमकिन अलवक़ो चीज़ से ईमान को वाबस्ता करना ऐसा जुर्म न था के उन्हें साएक़ा के अज़ाब में जकड़ लिया जाए और उनकी ख़्वाहिश को ज़ुल्म से ताबीर किया जाए। आखि़र हज़रत इबराहीम अ 0 ने भी तो अपने इतमीनान को मुर्दों को ज़िन्दा करने से वाबस्ता किया था। चुनान्चे उन्होंने कहा के ‘‘रब्बे अरनी कैफ़ा हय्यिल मौता ‘‘ (ऐ मेरे परवरदिगार मुझे दिखा के तू क्योंकर मुर्दों को ज़िन्दा करता है) इसके जवाब में क़ुदरत ने फ़रमाया -अवलम तौमन (क्या तुम ईमान नहीं लाए) हज़रत इबराहीम अ 0 ने अर्ज़ किया -बला वलाकिन लैतमन क क़ल्बी (हाँ ईमान तो लाया! लेकिन चाहता हूँ के दिल मुतमइन हो जाए) अगर हज़रत इबराहीम अ 0 अपने इतमीनान को मुर्दों के ज़िन्दा होने से वाबस्ता कर सकते हैं तो उन लोगों ने अगर अपने ईमान को रवीयते बारी पर मोअल्लक़ किया तो जुर्म ही कौन सा क्या जिस चीज़ पर इन्हें लरज़ा बरअन्दाम कर देने वाली सज़ा दी जाए। और अगर यह कहा जाये के सज़ा इस बिना पर न थी के इन्होेंने रवीयते बारी का मुतालेबा किया था , उनकी साबेक़ा ज़िद , हठधर्मी और कट हुज्जती के पेशे नज़र थी , मगर यह देखते हुए के वह मुतालेबए क़ूवह करें जो किया जा सकता है और मुमकिनअलवक़ो है और इस ज़रिये से अपने ईमान की तकमील चाहें मगर उनकी किसी साबेक़ा ज़िद और सरकशी को सामने रखते हुए उन्हें ऐसी सज़ा दी जाए जो उन्हें नीस्त व नाबूद कर दे , अक़्ल में आने वाली बात नहीं है। और अगर यह कहा जाये के रवीयत के सिलसिले में इनकी ज़िद पर इन्हें सज़ा दी गई थी तो इसमें ज़िद की क्या बात थी अगर उन्होंने मूसा अ 0 के क़ौल को मुशाहिदे के मुताबिक़ करके देखना चाहा , और अगर रवीयत मुर्दों को ज़िन्दा करने की तरह मुमकिन थी तो इसमें मुज़ाएक़ा ही किया था के उनकी ख़्वाहिश को पूरा कर दिया जाता और जिस तरह हज़रत इबराहीम अ 0 के हाथों पर मुर्दों को ज़िन्दा करके उनकी ख़लिश को हटा दिया था , इसी तरह यहाँ भी रवीयत से इनके ईमान की सूरत पैदा कर दी होती , और अगर मसलहत इसकी मुक़तज़ी न थी तो हज़रत मूसा अ 0 के ज़रिये उन्हें समझा दिया जाता के दुनिया में न सही आख़ेरत में उसे देख लेना। मगर उनका मुतालेबा पूरा करने के बजाये उन्हें मोरिदे एताब ठहराया जाता है और उनकी ख़्वाहिश को ज़ुल्म व हदशिकनी से ताबीर किया जाता है और आखि़र उन्हें ख़र्मने हस्ती को जलाने वाली बिजलियों में जकड़ लिया जाता है , यह सिर्फ़ इस लिये के इन्होंने एक ऐसी ख़्वाहिश का इज़हार किया जिससे ख़ुदा के दामने तन्ज़िया पर धब्बा आता था। और यह एक ऐसी अनहोनी चीज़ का मुतालेबा था जिस पर उन्हें सज़ा देना ज़रूरी समझा गया ताके दूसरों को इबरत हासिल हो , और बनी इसराईल के अन्जाम को देख कर रवीयते बारी का तसव्वुर न करें , चुनान्चे अल्लाह सुब्हानहू ने अपनी रवीयत को पहाड़ पर मोअल्लक़ करने से पहले वाज़ेह अलफ़ाज़ में फ़रमाया के - लन तरानी ( ऐ मूसा अ 0! तुम मुझे हरगिज़ नहीं देख सकते) न दुनिया में और न आख़ेरत में , क्योंके लफ्ज़ लन नफ़ी ताबीद के लिये आता है और इस नफ़ी ताबीद को दवामे अरफ़ी पर महमूल करना ग़लत है। यह दवामे उर्फ़ी वहां पर तो सही हो सकता है जहां मुतकल्लिम व मख़ातब दोनों फ़ानी और मारिज़े ज़वाल में हों और जहां मुतकल्लिम अबदी सरमदी और दाएमी हो वहां नफ़ी के हुदूद भी वहाँ तक फैले हुए होंगे , जहाँ तक इस ज़ाते सरमदी का दामने बक़ा फैला हुआ है और चूंके वह हमेशा हमेशा रहने वाला है इसलिये इसकी तरफ़ से जो नफ़ी ताबीर वारिद होगी वह दुनिया की मुद्दते बक़ा में महदूद नहीं की जा सकती और जिस आयत की नफ़ी को दवामे अरफ़ी के मानी में पेश किया गया है उससे इस्तेशहाद इस बिना पर सही नही ंके वह उन लोगों के मुताल्लिक़ है जो फ़ानी व महदूद हैं। लेहाज़ा इस मुक़ाम की नफ़ी का इस मुक़ाम की नफ़ी पर क़यास नहीं किया जा सकता और अगर यह आयत -लँय्यतमन्नौहो (वह मौत की हरगिज़ तमन्ना नहीं करेंगे) मैं भी ताबीरे हक़ीक़ी के मानी मुराद लिये जाएं तो लिये जा सकते हैं , क्योंके आख़ेरत में वह मौत की तमन्ना करेंगे तो वह दर हक़ीक़त मौत की तमन्ना न होगी बल्कि अस्ल तमन्ना अज़ाब से निजात हासिल करने की होगी जिसे तलबे मौत के परदे में तलब करेंगे और यह मौत की तलब न होगी बल्कि राहत व आसाइश और अज़ाब से छुटकारे की तलब होगी और जबके अज़ाब के बजाये उन्हें राहत व सुकून नसीब हो तो वह यक़ीनन ज़िन्दगी के ख़्वाहाँ होंगे और फिर जब असली मानी ताबीर हक़ीक़ी के हैं तो इससे ताबीर अरफ़ी मुराद लेने के लिये किसी क़रीने की ज़रूरत है और यहाँ कोई क़रीना व दलील मौजूद नहीं है के हक़ीक़ी मानी से उदूल करना सही हो सके।

तीसरे गिरोह की दलील का जवाब यह है के अगर कुछ सहाबा व ताबेईन का क़ौल यह है के पैग़म्बर स 0 इकराम ने लैलतल इसरा में अपने रब को देखा तो सहाबा व ताबेईन की एक जमाअत इसकी भी तो क़ायल है के ऐसा नहीं हुआ। चुनांचे हज़रत आइशा और सहाबा की एक बड़ी जमाअत का यही मसलक है , लेहाज़ा चन्द अफ़राद की ज़ाती राय को कैसे सनद समझा जा सकता है जबके इसके मुक़ाबले में वैसे ही अफ़राद इसके खि़लाफ़ नज़रिया रखते हैं , चुनांचे जनाबे आइशा का क़ौल है-

जो शख़्स तुमसे यह बयान करे के मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैह व आलेही वसल्लम ने अपने रब को देखा तो उसने झूठ कहा और अल्लाह का इरशाद तो यह है के उसे निगाहें देख नहीं सकतीं अलबत्ता वह निगाहों को देख रहा है और हर छोटी से छोटी चीज़ से आगाह व ख़बरदार है। (सही बुख़ारी जि 0-4 सफ़ा 168)

तीसरी सिफ़त यह है के उक़ूले इन्सानी उसके औसाफ़ की नक़ाब कुशाई से क़ासिर हैं क्योंके ज़बान उन्हीं मानी व मफ़ाहिम की तर्जुमानी कर सकती है जो अक़्ल व फ़हम में समा सकते हैं और जिनके समझने से अक़्लें आजिज़ हों वह अल्फ़ाज़ की सूरत में ज़बान से अदा भी नहीं हो सकते और ख़ुदा के औसाफ़ का इदराक इसलिये नामुमकिन है के इसकी ज़ात का इदराक नामुमकिन है और जब तक इसकी ज़ात का इदराक न हो उसके नफ़्सुल अम्री औसाफ़ को भी नहीं समझा जा सकता और ज़ात का इदराक इसलिये नहीं हो सकता के इन्सानी इदराकात महदूद होने की वजह से ग़ैर महदूद ज़ात का अहाता नहीं कर सकते। लेहाज़ा इस सिलसिले में जितना भी ग़ौर व ख़ौज़ किया जाए उसकी ज़ात और उसके नफ़्सुल अम्री औसाफ़ अक़्ल व फ़हम के इदराक से बालातर रहेंगे।