चौदह सितारे

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चौदह सितारे लेखक:
कैटिगिरी: शियो का इतिहास

चौदह सितारे

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना नजमुल हसन करारवी
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चौदह सितारे
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चौदह सितारे

चौदह सितारे

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

आपका गहवारे में कल्ला ए अज़दर दो पारा करना

एक दफ़ा का जि़क्र है कि हवालिये मक्का में एक निहायत ज़बर दस्त और तवील अज़दहा आ गया है और उसने तबाही मचा दी , एक लशकर ने उसे मारने की कोशिश की मगर कामयाब न हुआ। एक दिन वह अज़दहा मदीने की तरफ़ चला , जब क़रीब पहुँचा , शहरे मदीना में हलचल मच गई। लोग घरों को छोड़ कर भागने लगे। इत्तेफ़ाक़न वह अज़दहा ख़ाना ए अबू तालिब (अ.स.) में दाखि़ल हो गया। वहां मौला ए काएनात गहवारे में फ़रोकश थे और उनकी मादरे गेरामी कहीं बाहर तशरीफ़ ले गईं थी। जब वह अज़दहा गहवारे के क़रीब पहुँचा तो यदुल्लाह ने उसके दोनो जबड़ों को पकड़ कर दो कर दिया। रसूले ख़ुदा स. ने मसर्रत का इज़हार किया , अवाम ने दादे शुजाअत दी। माँ ने वापस आकर माजरा देखा और अपने नूरे नज़र का नाम हैदर रखा। इस नाम का जि़क्र मरहब के मुक़ाबले में अली बिन अबी तालिब (अ.स.) ने ख़ुद भी फ़रमाया है।

अना अल लज़ी सम्मतनी अम्मी हैदर।

ज़रग़ाम , आजाम वल यस क़सूरा।।

साकि़ए कौसर और संगे ख़ारा

रवायत में है कि हज़रत अमीरल मोमेनीन (अ.स.) जंगे सिफ़्फ़ीन से वापस जाते हुए एक सहराए लक़ो दक़ से गुज़रे , शिद्दते गरमा की वजह से आपका लशकर बे इन्तेहा प्यासा हो गया उसने हज़रत से पानी की ख्वाहिश की। आपने सहरा में इधर उधर नज़र दौड़ाई , एक बहुत बड़ा पत्थर नज़र आया , उसके क़रीब तशरीफ़ ले गये और पत्थर से कहा कि मैं तुझसे सुनना चाहता हूँ कि इस सहरा में पानी कहां है उसने ब क़ुदरते ख़ुदा जवाब दिया कि चशमाए आब मेरे ही नीचे है। हज़रत ने लशकर को हुक्म दिया कि इस पत्थर को हटाएं लेकिन सौ (100) आदमी कामयाब न हो सके। फिर आपने लबे मुबारक को हरकत दी और दस्ते ख़ैबर कुशा उस पर मारा , पत्थर दूर जा गिरा। उसके हटते ही शहद से ज़्यादा शीरीं और बर्फ़ से ज़्यादा सर्द पानी का चश्मा बरामद हो गया। सब सेराब हुए और सब ने पानी से छाबने भर लीं। फिर आपने पत्थर को हुक्म दिया कि अपनी जगह पर आ जमे बरवायत इब्ने अब्बास पत्थर उस जगह से खुद ब खुद सरक कर अपनी जगह पर आ पहुँचा और लश्कर शुकरे ख़ुदा करता हुआ रवाना हो गया।

मौला अली (अ.स.) और इन्सान की शक्ल बदल देना

असबग़ बिन नबाता का बयान है कि एक शख़्स क़ुरैश से हज़रत अली (अ.स.) की खि़दमत में हाजि़र हो कर कहने लगा कि मैं वह हूँ कि जिसने बे शुमार इन्सानों को क़त्ल किया है और बहुत से अत्फ़ाल को यतीम किया है। हज़रत ने उसका जब यह ताअरूफ़ सुना तो आपको ग़ुस्सा आ गया। आपने फ़रमाया कि अख़साया क़ल्ब ऐ कुत्ते! मेरे पास से दूर हो जा , हज़रत के दहने अक़दस से इन अल्फ़ाज़ का निकलना था कि उसकी माहियत और उसकी हय्यत बदल गई। और वह कुत्ते की शक्ल में हो कर दुम हिलाने लगा लेकिन साथ ही साथ बेताब हो कर फ़रयादो फ़ुग़ा करते हुए ज़मीन पर लोटने लगा। हज़रत को उस पर रहम आया और आपने दुआ की ख़ुदा ने फिर उसे उसकी शक्ल में बदल दिया।

ऐन उल्लाह ,अली (अ.स.) ने कोरे मादर ज़ाद को चशमे बीना दे दी

अब्दुल्लाह बिन यूनुस का बयान है कि मैं एक साल हज्जे बैतुल्लाह के लिये घर से रवाना हो कर जा रहा था। नागाह रास्ते में एक नाबीना ज़ने हबशिया को देखा कि वह हाथों का उठाए हुए इस तरह दुआ कर रही है। ऐ अल्लाह ब हक़्क़े अली बिन अबी तालिब (अ.स.) मुझे चश्में बीना दे दे। यह देख कर मैं उसके क़रीब गया और उस्से पूछा कि क्या तू वाक़ेइ अली बिन अबी तालिब (अ.स.) से मोहब्बत रखती है ? उसने कहा बे शक मैं उन पर सद हज़ार जान से क़ुरबान हूँ। यह सुन कर मैंने उसे बहुत से दिरहम दिये मगर उसने क़ुबूल न किया और कहा कि मैं दिरहम व दिनार नहीं मांगती। मैं आंख चाहती हूँ फिर मैं उसके पास से रवाना हो कर मक्के मोअज़्ज़मा पहुँचा और हज से फ़राग़त के बाद फिर उसी रास्ते से वापस आया। जब उस मक़ाम पर पहुँचा जिस मक़ाम पर वह नाबीना औरत थी तो देखा कि वह औरत चशमे बीना की मालिक है और सब कुछ देखती है। मैंने उस से पूछा कि तेरा माजरा क्या है ? उसने कहा कि मैं बदस्तूर दुआ किया करती थी , एक दिन हसबे मामूल मशग़ूले दुआ थी नागाह एक मुक़द्दस तरीन शख़्स नमूूदार हुए और उन्होंने मुझ से पूछा कि क्या तू वाक़ेइ अली को दोस्त रखती है ? मैंने कहा जी हाँ , ऐसा ही है। यह सुन कर उन्होंने कहा कि खुदाया अगर यह औरत दावाए मोहब्बत में सच्ची है तो उसे बीनाई अता फ़रमा। उनके इन अल्फ़ाज़ के ज़बान पर जारी होते ही मेरी आंखें खुल गईं , चशमे बीना मिल गई। मैं सब कुछ देखने लगी। मैंने उसके फ़ौरन बाद क़दमों पर गिर कर पूछा , हुज़ूर आप कौन हैं ? फ़रमाया , मैं वही हूँ जिसके वास्ते से तू दुआ कर रही थी।

मुशकिल कुशा की मुशकिल

कुशाई एक रवायत में है कि एक दिन हज़रत अली (अ.स.) मदीने की एक गली से गुज़र रहे थे , नागाह आपकी निगाह अपने एक मोमिन पर पड़ी देखा कि उसे एक शख़्स बुरी तरह गिरफ़्त में लिये हुए है। हज़रत उसके क़रीब गये और उस से पूछा यह क्या मामेला है ? उस मोमिन ने कहा , मौला मैं इस मर्दे मुनाफि़क़ के एक हज़ार सात सौ (1700) दीनार का क़जऱ्दार हूँ। इसने मुझे पकड़ रखा है और इतनी मोहलत भी नहीं देता कि मैं यहाँ से जा कर कोई बन्दोबस्त करूं। हज़रत ने फ़रमाया कि तू ज़मीन की रूख़ कर और जो पत्थर वग़ैरह इस वक़्त तेरे हाथ आयें उन्हें उठा ले। चुनान्चे उसने ऐसा ही किया , जब उसने उठा कर देखा तो वह सब सोने के थे।

हज़रत ने फ़रमाया कि इसका क़र्ज़ा अदा करने के बाद जो बचे उसे अपने काम में ला। रावी कहता है कि दूसरे दिन जिब्राईल के कहने से हज़रत रसूले करीम स. ने इस वाक़ेए को असहाब के मजमे में बयान फ़रमाया।

एक मशलूल की शिफ़ा याबी

अब्दुल्लाह बिन अब्बास का बयान है कि एक रोज़ नमाज़े सुब्ह के बाद हज़रत रसूले करीम स. मस्जिदे मदीना में बैठे हुए सलमान , अबूज़र , मिक़दाद और हुज़ैफ़ा से महवे गुफ़तुगू थे कि नागाह मस्जिद के बाहर एक ग़ुलग़ुला उठा , शोर सुन कर लोग मस्जिद के बाहर गये , तो देखा कि चालीस आदमी खड़े हैं जो मुसल्लाह हैं और उनके आगे एक निहायत ख़ूबसूरत नौजवान शख़्स हैं। हुज़ैफ़ा ने रसूले ख़ुदा को हालात से आगाह किया , आपने फ़रमाया कि उन लोगों को मेरे पास लाओ। वह आ गये , तो हज़रत ने फ़रमाया कि अली बिन अबी तालिब को बुला लाओ। हुज़ैफ़ा गये , अमीरूल मोमेनीन ने फ़रमाया कि ऐ हुज़ैफ़ा मुझे इल्म है कि एक गिरोह क़ौमे आद से आया है , मुझे उनकी हाजत भी मालूम है। उसके बाद आप हाजि़रे खि़दमते रसूले करीम (स अ व व ) हुए। आं ने हज़रत अली (अ.स.) से उनका सामना कराया। हज़रत अली (अ.स.) ने उस मरदे ख़ूबरू से कहा कि ऐ हज्जाज बिन ख़ल्जा बिन अबिल असफ़ बिन सईद बिन मम्ता बिन अलाक़ बिन वहब बिन सअब बता तेरी क्या हाजत है। उसने जब अपना नाम और पूरा शजरा सुना तो हैरान रह गया और कहा कि हुज़ूर मेरे भाई को शिकार का बड़ा शौक है। उसने एक दिन जंगल में शिकार खेलते हुए एक जानवर के पीछे घोड़ा डाला और उस पर तीर चलाया , इसके फ़ौरन बाद उसका निस्फ़ बदन शल हो गया। बड़े इलाज किये मगर कोई फ़ायदा न हुआ , आपने फ़रमाया कि उसे मेरे सामने ला। वह एक ऊँट पर लाया गया। हज़रत ने उसे हुक्म दिया कि उठ बैठ चुनान्चे वह तन्दरूस्त हो कर उठ बैठा। यह देख कर वह और उसके क़बीले के सत्तर हज़ार (70,000) नुफ़ूस मुसलमान हो गये।

आपकी सायए रहमत से महरूमी

हज़रत मौहम्मद मुस्तफ़ा स. ने 28 सफ़र 11 हिजरी यौमे दोशम्बा इन्तेक़ाल फ़रमाया।(मोअद्दतूल क़ुरबा) हज़रत अली (अ.स.) आपकी तजहीज़ो तकफ़ीन में मशग़ूल हो गये। हज़रत उमर अबू बकर को हमराह ले कर सक़ीफ़ा बनी साएदा जो मदीने से 3 मील के फ़ासले पर वाक़े है और मशवेरा हाय बातिल के लिये बनाया गया था , चले गये।(ग़यासुल लुग़ात) रस्सा कशी के बाद हज़रत अबू बक्र को ख़लीफ़ा बना लाये। हज़रत अली (अ.स.) चूंकि रसूले करीम स. को इन लोगों की वापसी के पहले दफ़्न कर चुके थे। इस लिये सब से पहले उन्होंने यह सवाल किया कि आपने हमारी वापसी का इन्तेज़ार क्यों नहीं किया। हज़रत अली (अ.स.) ने फ़रमाया कि रसूले करीम स. ब मुक़ामे ग़दीर ख़लीफ़ा मुक़र्रर कर चुके थे। आप किस जवाज़ से वहां गये और किस उसूल से मसलाए खि़लाफ़त को ज़ेरे बहस लाये , और क्या वजह थी कि हम रसूल स. का लाशा बे गोरो कफ़न रहने देते। इसके बाद उन्होंने बैअत का मुतालेबा किया। हज़रत अली (अ.स.) ने अपना हक़ फ़ाएक़ होना और अपने को मन्सूस ख़लीफ़ा होना ज़ाहिर कर के उनके मुतालेबे के खि़लाफ़ एहतेजाज किया और फ़रमाया कि मुझसे बैअत का सवाल ही पैदा नहीं होता। इस पर उन्होंने शदीद इसरार किया और आप से बैअत लेने की हर मुम्किन कोशिश की। मोवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि इसी सिलसिले में फ़ात्मा ज़हरा स. का घर जलाया गया। फ़ात्मा स. के दुर्रे लगाए गये। अली (अ.स.) की गरदन में रस्सी बांधी गयी और आपको क़त्ल कर देने की धमकी दी गई और विरासते रसूल स. से फ़ात्मा स. और औलादे फ़ात्मा स. को महरूम कर दिया गया। बाग़ छीना गया। अली (अ स ) , हसनैन (अ.स.) और उम्मे ऐमन को गवाही में झूठा क़रार दिया गया। इन हालात से आले मौहम्मद स. को जितना मुताअस्सिर होना चाहिये इसका अन्दाज़ा हर बा फ़हम कर सकता है। हज़रत अली (अ.स.) जो सायाए रहमते रसूल स. से महरूम हो कर मसाएब व आलाम की चक्की के दोनों पाटों में आ गये। उन्होंने अपने ख़ुतबात से इस पर रौशनी डाली है और अपने हालात की वज़हत की है। तफ़सील के लियें मुलाहेज़ा हों ख़ुतबाए शक़शक़या।

वफ़ाते रसूल स के बाद अली (अ.स.) का ख़़ुतबा

किताब नहजुल बलाग़ाह जिल्द 1 पृष्ठ 432 प्रकाशित मिस्र में है बुज़ुरगाने असहाबे मौहम्मद स. ने जो हाफि़ज़े क़ुरआन व सुन्नते नबवी थे जान लिया था कि मैं कभी एक साअत के लिये भी फ़रमाने ख़ुदा और रसूल स. दूर नहीं हुआ और पैग़म्बरे अकरम स. की ख़ातिर कभी अपनी जान की परवा नहीं की। जब दिलेरों ने राहे फ़रार इख़्तेयार की और बड़े बड़े पहलवान पीछे हट आये , इस शुजाअत और जवां मरदी के बाएस जो ख़ुदा ने मुझे अता की है मैंने जंग की और रसूले ख़ुदा स. की क़ब्ज़े रूह इस हालत में हुई कि आपका सरे मुबारक मेरे सीने पर था। इनकी जान मेरे ही हाथों पर बदन से जुदा हुई। चुनान्चे मैंने अपने हाथ (रूह निकलने के बाद) अपने चेहरे पर मले। मैंने ही आं हज़रत स. के जसदे अतहर को ग़ुस्ल दिया और फ़रिश्तों ने मेरी इस काम में मदद की। पस बैते नबवी और उसके एतराफ़ से गिरयाओ जा़री की सदा बलन्द हुई। फ़रिश्तों का एक गिरोह जाता था तो दूसरा आ जाता था। उनकी नमाज़े जनाज़ा का हमहमा मेरे कानों से जुदा नहीं हुआ यहां तक कि आपको आख़री आराम गाह में रख दिया गया। पस आं हज़रत की हयात व ममात में उनसे मेरे मुक़ाबले में कौन सज़ावार था। जो कोई इसका अदआ करता है वह सही नहीं कहता।

(तरजुमा नहजुल बलागा , रईस अहमद जाफ़री जिल्द 1 पृष्ठ 1200 प्रकाशित लाहौर)

इसी किताब के पृष्ठ 1303 पर है कि मेरे माँ बाप आप पर क़ुरबान ऐ रसूले ख़ुदा स. आपकी वफ़ात से नबूवत , ऐहकामे इलाही और अख़बारे आसमानी का सिलसिला मुनक़ेता हो गया। जो दूसरे पैग़म्बारों की वफ़ात पर कभी नहीं हुआ था। आपकी ख़ुसुसियत यगानगत यह भी थी कि दूसरी मुसीबतों से आपने तसल्ली दे दी क्यों कि आपकी मुसीबत हर मुसीबत से बालातर है और दुनिया से रहलत फ़रमाने की बिना पर आपको यह उमूमियत व ख़ुसूसियत हासिल है कि आपके मातम में तमाम लोंग यकसां दर्दमन्द और सीना फि़ग़ार हैं।

रफ़ीक़ाए हयात की जुदाई

रसूले करीम स. के इन्तेक़ाल पुर मलाल को अभी 100 दिन भी न गुज़रे थे कि आपकी रफ़ीक़ा ए हयात हज़रत फ़ात्मा ज़ैहरा स. अपने पदरे बुज़ुर्गवार की वफ़ात के सदमे वग़ैरा से बतारीख़ 20 जमादुस्सानिया 11 हिजरी इन्तेक़ाल फ़रमा गईं। हज़रत अली (अ.स.) ने वसीयते फ़ात्मा स. के मुताबिक़ हज़रत अबू बक्र , हज़रत उमर , हज़रत आयशा को शरीके जनाज़ा नहीं होने दिया और शब के तारीक पर्दे में हज़रत फ़ात्मा ज़ैहरा स. को सुपुर्दे ख़ाक फ़रमा दिया। और ज़मीन से मुख़ातिब हो कर कहा , या अरज़न असतो दक़ा व देयती हाज़ा बिन्ते रसूल अल्लाह ऐ ज़मीन मैं अपनी अमानत तेरे सुपुर्द कर रहा हूँ ऐ ज़मीन यह रसूल स. की बेटी है। ज़मीन ने जवाब दिया या अली अना अरफ़क़ बेहा मिनका ऐ अली आप घपरायें नहीं मैं आपसे ज़्यादा नर्मी करूंगी।

(मुअद्दतुल क़ुरबा पृष्ठ 129 तमाम वाक़ेयात की तफ़सील गुज़र चुकी है।)

शहादते फातेमा जहरा पर हज़रत अली (अ.स.) का ख़ुतबा

ज़मीन से मुख़ातिब होने के बाद आपने सरवरे कायनात स. को मुख़ातिब कर के कहा कि , या रसूल अल्लाह स. आपको मेरी जानिब से और आपकी पड़ोस में उतरने वाली और आप से जल्द मुल्हक़ होने वाली आपकी बेटी की तरफ़ से सलाम हो। या रसूल अल्लाह स. आपकी बरगुज़ीदा बेटी की रेहलत से मेरा सब्रो शकेब जाता रहा। मेरी हिम्मत व तवानाई ने साथ छोड़ दिया लेकिन आपकी मुफ़ारेक़त के हादसाए उज़मा और आपकी रेहलत के सदमाए जांकह पर सब्र कर लेने के बाद मुझे इस मुसिबत पर भी सब्र ही से काम लेना पड़ेगा जब कि मैंने अपने हाथों से आपको क़ब्र की लहद में उतारा और इस आलम में आपकी रूह ने परवाज़ की कि आपका सर मेरी गरदन और सीने के दरमियान रखा हुआ था।(इन्ना लिल्लाहे व इन्ना इलैहे रजेऊन) अब यह अमानत पलटाई गई। गिरवीं रखी हुई चीज़ छुड़ा ली गई लेकिन मेरा ग़म बे पायां और मेरी रातें बे ख़्वाब रहेंगी यहां तक कि ख़ुदा वन्दे आलम मेरे लिये भी इसी घर को मुन्तखि़ब करे जिसमें आप रौनक़ अफ़रोज़ हैं। या रसूल अल्लाह स. वह वक़्त आ गया कि आपकी बेटी आपको बताऐं कि किस तरह आपकी उम्मत ने उन पर ज़ुल्म ढाने के लिये एका कर लिया। आप उनसे पूरे तौर पर पूछें और तमाम अहवाल और वारदात दरयाफ़्त करें। यह सारी मुसिबत इन पर बीत गई हालां कि आपको गुज़रे हुए कुछ ज़्यादा अरसा नहीं हुआ था और न आपके तज़किरों सें ज़बाने बन्द हुईं थीं। आप दोनों पर मेरा सलामे रूख़सती हो। ऐसा सलाम जो किसी मलूल और दिल तंग की तरफ़ से होता है। अब अगर मैं इस जगह से पलट जाऊँ तो इस लिये नहीं कि आप से मेरा दिल भर गया और अगर ठहरा रहूँ तो इस लिये नहीं कि मैं इस वादे से बदज़न हूँ जो अल्लाह ने सब्र करने वालों से किया है।

(नहजुल बलाग़ा मुतरजमा मुफ़्ती जाफ़र हुसैन जिल्द 2 पृष्ठ 243 प्रकाशित लाहौर)

हज़रत अली (अ.स.) की गोशा नशीनी

पैग़म्बरे इस्लाम के इन्तेक़ाले पुर मलाल और उनके इन्तेक़ाल के बाद हालात नीज़ फ़ात्मा ज़हरा स. की वफ़ाते हसरत आयात ने हज़रत अली (अ.स.) को उस स्टेज पर पहुँचा दिया , जिसके बाद मुस्तक़बिल का प्रोग्राम बनाना नागुज़ीर हो गया। यानी इन हालात में हज़रत अली (अ.स.) यह सोचने पर मजबूर हो गये कि आप आइन्दा जि़न्दगी किस असलूब और किस तरीक़े से गुज़ारें। बिल आखि़र आप इस नतीजे पर पहुँचे कि 1. दुश्मनाने आले मौहम्मद को अपने हाल पर छोड़ देना चाहिये। 2. गोशा नशीनी इख़्तेयार कर लेना चाहिये। 3. हत्तल मक़दूर मौजूदा सूरत में भी इस्लाम की मुल्की व ग़ैर मुल्की खि़दमत करते रहना चाहिये चुनान्चे आप इसी पर कारबन्द हो गये।

हज़रत अली (अ.स.) ने जो प्रोग्राम मुरत्तब फ़रमाया वह पैग़म्बरे इस्लाम के फ़रमान की रौशनी में मुरत्तब फ़रमाया क्यों कि इन्हें इन हालात की पूरी इत्तेला थी और उन्होंने हज़रत अली (अ.स.) को सब बता दिया था। अल्लामा इब्ने हजर लिखते हैं इन्नल्लाहा ताआला अतला नबीया अला मायक़ूना बाआदा ममा अब्तेला बा अली कि ख़ुदा वन्दे आलम ने अपने नबी को इन तमाम उमूर से बा ख़बर कर दिया था जो उनके बाद होने वाले थे और इन हालात व हादेसात की इत्तेला कर दी थी , जिसमें अली (अ.स.) मुब्तिला हुये।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 72 ) रसूले करीम स. ने फ़रमाया था कि ऐ अली (अ.स.) मेरे बाद तुमको सख़्त सदमात पहुँचेगे , तुम्हे चाहिये कि इस वक़्त तुम तंग दिल न हो और सब्र का तरीक़ा इख़्तेयार करो और जब देखना कि मेरे सहाबा ने दुनिया इख़्तेयार कर ली है तो तुम आख़ेरत इख़्तेयार किये रहना।(रौज़ातु अहबाब जिल्द 1 पृष्ठ 559 व मदारेजुल नबूवत जिल्द 2 पृष्ठ 511 ) यही वजह है कि हज़रत अली (अ.स.) ने तमाम मसाएब व आलाम निहायत ख़न्दा पेशानी से बरदाश्त किये मगर तलवार नहीं उठाई और गोशा नशीनी इख़्तेयार कर के जम ए कु़रआन की तकमील करते रहे और वक़्तन फ़वक़्तन अपने मशवेरों से इस्लाम की कमर मज़बूत फ़रमाते रहे।

ग़स्बे खि़लाफ़त के बाद तलवार न उठाने की वजह बाज़ बरादराने इस्लाम यह कह देते हैं कि जब अली (अ.स.) की खि़लाफ़त ग़स्ब की गई और उन्हें मसाएब व आलाम से दो चार किया गया तो उन्होंने बद्रो , ओहद , ख़ैबरो खन्दक़ की चली हुई तलवार को नियाम से बाहर क्यों न निकाल लिया और सब्र पर क्यों मजबूर हो गये लेकिन मैं कहता हँू कि अली (अ.स.) जैसी शखि़्सयत के लिये यह सवाल ही पैदा नहीं होता कि उन्होंने इस्लाम के अहदे अव्वल में जंग क्यों नहीं की। क्यों कि इब्तेदा उम्र से ता हयाते पैग़म्बर अली (अ.स.) ही ने इस्लाम को परवान चढ़ाया था। हर महलक़े में इस्लाम ही के लिये लड़े थे। अली (अ.स.) ने इस्लाम के लिये कभी अपनी जान की परवाह नहीं की थी। भला अली (अ.स.) से यह क्यों कर मुम्किन हो सकता था कि रसूले करीम स. के इन्तेक़ाल के बाद वह तलवार उठा कर इस्लाम को तबाह कर देते और सरवरे कायनात की मेहनत और अपनी मशक़्क़त को अपने लिये तबाह व बरबाद कर देते। इस्तेयाब अब्दुलबर जिल्द 1 पृष्ठ 183 प्रकाशित हैदराबाद में है कि हज़रत अली (अ.स.) फ़रमाते हैं कि मैंने लोगों से यह कह दिया था कि देखो रसूल अल्लाह स. का इन्तेक़ाल हो चुका है और खि़लाफ़त के बारे में मुझसे कोई नज़ा न करे क्यों कि हम ही उसके वारिस हैं लेकिन क़ौम ने मेरे कहने की परवाह न की। ख़ुदा क़सम अगर दीन में तफ़रेक़ा पड़ जाने और अहदे कुफ्ऱ के पलट आने का अन्देशा न होता तो मैं उनकी सारी कारवाईयां पलट देता। फ़तेहुल बारी , शरह बुख़ारी जिल्द 4 पृष्ठ 204 की इबारत से वाज़े होता है कि हज़रत अली (अ.स.) ने इस तरह चश्म पोशी की जिस तरह कुफ़्र के पलट आने के ख़ौफ़ से हज़रत रसूले करीम स. मुनाफि़क़ों और मुवल्लेफ़तुल क़ुलूब के साथ करते थे। कन्ज़ुल आमाल जिल्द 6 पृष्ठ 33 में है कि आं हज़रत मुनाफि़को के साथ इस लिये जंग नहीं करते थे कि लोग कहने लगेंगे कि मौहम्मद स. ने अपने अस्हाब को क़त्ल कर डाला। किताब मुअल्लिमुल तन्ज़ील सफ़ा 414 , अहया अल उलूम जिल्द4 सफ़ा 88 सीरते मोहम्मदिया सफ़ा 356 , तफ़सीरे कबीर जिल्द 4 सफ़ा 686 , तारीख़े ख़मीस जिल्द 2 सफ़ा 1139 , सीरते हल्बिया सफ़ा 356 , शवाहेदुन नबूवत और फ़तेहुल बारी में है कि आं हज़रत ने आएशा से फ़रमाया कि ऐ आएशा लौलाहद सान क़ौमका बिल कुफ़्र लेफ़आलत अगर तेरी कौम ताज़ी मुसलमान न होती तो मैं इसके साथ वह करता जो करना चाहिये था।

हज़रत अली (अ.स.) और रसूले करीम स. के अहद में कुछ ज़्यादा फ़कऱ् न था जिन वजूह की बिना पर रसूल स. ने मुनाफि़कों से जंग नहीं की थी। उन्हीं वजूह की बिना पर हज़रत अली (अ.स.) ने भी तलवार नहीं उठाई। (कन्ज़ुल अमाल , जिल्द 6 सफ़ा 69 , ख़साएसे सियूती जिल्द 2 सफ़ा 138 व रौज़तुल अहबाब जिल्द 1 सफ़ा 363 , इज़ालतुल ख़फ़ा जिल्द 1 सफ़ा 125 वग़ैरा में मुख़तलिफ़ तरीक़े से हज़रत की वसीयत का जि़क्र है और इसकी वज़ाहत है कि हज़रत अली (अ.स.) के साथ क्या होना है और अली (अ.स.) को उस वक़्त क्या करना है चुनान्चे हज़रत अली (अ.स.) ने इस हवाले के बाद कि मेरी जंग से इस्लाम मन्जि़ले अव्वल में ही ख़त्म हो जायेगा। मैंने तलवार नहीं उठाई। यह फ़रमाया कि ख़ुदा की क़सम मैंने उस वक़्त का बहुत ज़्यादा ख़्याल रखा कि रसूले ख़ुदा स. ने मुझसे अहदे ख़ामोशी व सब्र ले लिया था। तारीख़े आसम कूफ़ी सफ़ा 83 प्रकाशित बम्बई में हज़रत अली (अ.स.) की वह तक़रीर मौजूद है जो आपने खि़लाफ़ते उस्मान के मौक़े पर फ़रमाई है। हम उसका तरजुमा आसम कूफ़ी उर्दू प्रकाशित देहली के सफ़ा 113 से नक़ल करते हैं। ख़ुदाए जलील की क़सम अगर मौहम्मद रसूल अल्लाह स. हमसे अहद न लेते और हमको इस अम्र से मुत्तेला न कर चुके होते जो होने वाला था तो मैं अपना हक़ कभी न छोड़ता और किसी शख़्स को अपना हक़ न लेने देता। अपने हक़ को हासिल करने के लिये इस क़दर कोशिशे बलीग़ करता कि हुसूले मतलब से पहले मरज़े हलाकत में पड़ने का भी ख़्याल न करता। इन तमाम तहरीरों पर नज़र डालने के बाद यह अमर रोज़े रौशन की तरह वाज़े हो जाता है कि हज़रत अली (अ.स.) ने जंग क्यों नहीं की और सब्र व ख़ामोशी को क्यों तरजीह दी।

मैंने अपनी किताब अल ग़फ़ारी के सफ़ा 121 पर हज़रत अबू ज़र के मुताअल्लिक़ अमीरल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) के इरशाद व अला अलमन इज्ज़ फि़हा की शरह करते हुए इमामे अहले सुन्नत इब्ने असीर जज़री की एक इबारत तहरीर की है जिसमें हज़रत अली (अ.स.) की जंग न करने की वजह पर रौशनी पड़ती है। वह यह है:-

निहायतुल लुग़त इब्ने असीर जज़री के सफ़ा 231 में है अल एजाज़ जमा इज्ज़ व हू मोख़राशी यरीद बेहा आखि़रूल अमूर एजाज़ इज्ज़ की जमा है जिसके मानी मोख़रशी के हैं और जिसका मतलब आखि़र उमूर तक पहुंचने से मुताअल्लिक़ है। इसके बाद अल्लामा जज़री लफ़्ज़े एजाज़ की शरह करते हुए हज़रत अली (अ.स.) की एक हदीस नक़ल फ़रमाते हैं वमन हदीस अली लना हक़ अन नाता नाख़ज़ा व अन नमनआ नरक़ब एजाज़ अल बल व अन ताक़ा सरा आप फ़रमाते हैं खि़लाफ़त हमारा हक़ है अगर दे दिया गया तो ले लेगें और अगर हमें रोक दिया यानी हमें न दिया गया तो हम ऐजाज़े अबल पर सवारी करेंगे। यानी आखि़र तक अपने इस हक़ के लिये जद्दो जेहद जारी रखेंगे और उसमें मुद्दत की परवाह न करेंगे , यहां तक कि उसे हासिल कर लें। यही वजह है कि सलम व सब्र अल्ल ताख़ीर वलम यक़ातल व इननमा क़ातल बाद एन्आक़ाद अल इमामता दिल तंग और सब्र के आखि़र तक बैठे रहे और ख़ुल्फ़ाए वक़्त से जंग नहीं की फिर जब उन्होंने इमामत (खि़लाफ़त) हासिल कर ली तो उसे सही उसूलों पर चलाने के लिये ज़रूरी समझा।

हज़रत अली (अ.स.) का क़ुरआन पेश करना

नूरूल अबसार इमाम शबलन्जी में है कि हज़रत अली (अ.स.) ने रसूले करीम स. के ज़माने में क़ुरआने मजीद जमा कर के आं हज़रत की खि़दमत में पेश किया था। जिल्द 1 सफ़ा 73 , सवाएक़े मोहर्रेक़ा सफ़ा 76 में है कि जब आपको बैय्यते अबू बक्र के लिये मजबूर किया गया और कहा गया तो आपने फ़रमाया कि मैंने क़सम खाई है कि जब तक क़ुरआने मजीद को मुकम्मल तौर पर जमा न कर लूँगा रिदा न ओढ़ूगां।(एतक़ाने सियूती सफ़ा 57 ) हबीब अल सियर जिल्द 1 सफ़ा 4 में है कि अली (अ.स.) का क़ुरआन तन्ज़ील के मुताबिक़ था। बेहारूल अनवार व मनाकि़ब जिल्द 2 सफ़ा 66 में है कि अमीरूल मोमेनीन ने पूरा क़ुरआन जमा करने के बाद उसे चादर में लपेटा और ले कर मस्जिद मे पहुँचे और हज़रत अबू बक्र से कहा कि यह क़ुरआन है जिसे मैंने तन्ज़ील के मुताबिक़ जमा किया है और जो आं हज़रत स. की नज़र से गुज़र चुका है , इसे ले लो और राएज कर दो। आपने यह भी कहा कि मैं इसे इस लिये पेश कर रहा हूँ कि मुझे आं हज़रत (अ.स.) ने हुक्म दिया था कि एतमामे हुज्जत के लिये पेश करना। किताब फ़सल अल ख़त्ताब में है कि उन्होंने जवाब दिया कि इसे वापस ले जाओ। हमें तुम्हारे क़ुरआन की ज़रूरत नहीं है। अल्लामा स्यूती तारीख़ुल ख़ुलफ़़ा के सफ़ा 184 में इब्ने सीरीन का क़ौल नक़ल करते हुए लिखते हैं कि अगर वह क़ुरआन क़ुबूल कर लिया गया होता तो लोगों को बे इन्तेहा फ़ाएदा पहुँचता।

हज़रत अली (अ.स.) के मुहाफि़ज़े इस्लाम मशवरे

यह मुसल्लेमा हक़ीक़त है कि अपने से पहले ख़ुलेफ़ा को गद्दार , ख़ाईन , काजि़ब , गुनाहगार समझते थे।(सही मुस्लिम जिल्द 2 सफ़ा 91 प्रकाशित नवल किशोर) और उनकी सीरत से इस दरजा बेज़ार थे कि मौक़ाए तक़र्रूरे खि़लाफ़त हज़रत उस्मान , सीरते शेख़ैन की शर्त की वजह से तख़्त छोड़ना गवारा किया था लेकिन इस से इन्कार नहीं किया जा सकता कि हज़रत अली (अ.स.) अपने ज़ाती जज़बात पर ख़ुदा व रसूल स. के जज़बात को मुक़द्दम रखते थे। अमरो बिन अब्दवुद ने जब जंगे खन्दक में आपके चेहरा ए मुबारक के साथ लोआबे दहन से बे अदबी की थी और आपको ग़ुस्सा आ गया था तो आप सीने से उतर आए थे , ताके कारे ख़ुदा में अपना ज़ाती ग़ुस्सा शामिल न हो जाय। यही वजह थी कि आप दिल तंग और नाराज़ होने के बवजूद तहफ़्फ़ुज़े वक़ारे इस्लाम की ख़ातिर ख़ुलफ़ा को अपने मज़ीद मशवरों से नवाज़ते रहे। मिसाल के लिये मुलाहेज़ा हों।

1. क़ैसरे रोम ने दूसरे ख़लीफ़ा से सवाल कर दिया कि आपके क़ुरआन में कौन सा सूरा है जो सिर्फ़ सात आयतों पर मुशतमिल है और इसमें सात हुरूफ़ हुरूफ़े तहजी के नहीं हैं। इस सवाल से आलमे इस्लाम मे हलचल मच गई। हुफ़्फ़ाज़ ने बहुत गौरो फि़क्र के बाद हथियार डाल दिये। हज़रत उमर ने हज़रत अली (अ.स.) को बुलवा भेजा और यह सवाल सामने रखा , आपने फ़ौरन इरशाद फ़रमाया कि वह सूरा ए हम्द है। इस सूरे में सात आयतें हैं और इसमें से , जीम , ख़े , ज़े , शीन , ज़ोय , फ़े नहीं हैं।

2. उलमाए यहूद ने दूसरे ख़लीफ़ा से असहाबे कहफ़ के बारे में चन्द सवालात किये , आप उनका जवाब न दे सके और आप ने अली (अ.स.) की तरफ़ रूजु की , हज़रत ने ऐसा जवाब दिया कि वह पूरे तौर पर मुतमइन हो गये। हज्रे अस्वद के बोसा देने पर हज़रत अली (अ.स.) ने जो बयान दिया है उस से हज़रत उमर की पशेमानी , बुदूरे साफ़रा सियूती में मौजूद है।

3. एहदे अव्वल में नीज़ अहदे सानी की इब्तेदा में शराब पीने पर (40) चालीस कोड़े मारे जाते थे। हज़रत उमर ने यह देख कर कि इस हद से रोब नहीं जमता और कसरत से शराब पी रहे हैं , हज़रत अली (अ.स.) से मशवेरा किया , आपने फ़रमाया कि चालीस के बजाय (80) अस्सी कोड़े कर दिये जाऐ और उसके लिये यह दलील पेश की कि जो शराब पीता है वह नशे में होता है और जिसको नशा होता है वह हिज़यान बकता है और जो हिज़यान बकता है वह इफ़तेरा करता है। व अली अल मुफ़तरी समानून और इफ़तेरा करने वालों की सज़ा अस्सी कोड़े हैं लेहाज़ा शराबी को भी अस्सी कोड़े मारने चाहिये। हज़रत उमर ने इसे तस्लीम कर लिया।(मतालेबुस सूऊल सफ़ा 104 )

4. एक हामेला औरत ने जे़ना किया हज़रत उमर ने हुक्म दिया कि उसे संगसार किया जाए। हज़रत अली (अ.स.) ने फ़रमाया कि ज़ेना औरत ने किया है लेकिन वह बच्चा जो पेट में है , उसकी कोई ख़ता नहीं , लेहाज़ा औरत पर उस वक़्त हद जारी की जाए जब वज़ए हमल हो चुके। हज़रत उमर ने तस्लीम कर लिया और साथ ही साथ कहाः अगर अली न होते तो उमर हलाक हो जाता।

5. जंगे रूम में आपने जाने के मुताअल्लिक़ हज़रत उमर ने हज़र अली (अ.स.) से मशवेरा किया।

6. जंगे फ़ारस में भी खुद शरीके जंग होने के मुताअल्लिक़ हज़रत अली (अ.स.) से मशवेरा लिया। मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि हज़रत अली (अ.स.) ने हज़रत उमर को ख़ुद जंग में जाने से रोका और फ़रमाया कि अगर आप शहीद हो जायेंगे तो कसरे शाने इस्लाम होगी। हज़रत अली (अ.स.) के मशवेरे पर हज़रत उमर बहादुरों के मुसलसल ज़ोर देने के बावजूद जंग में शरीक न हुए। मेरा ख़्याल है कि हज़रत अली (अ.स.) ने निहायत ही साएब मशवेरा दिया था क्यों कि वह जंगे बद्र और ख़ैबर , ख़न्दक़ के वाक़ेयात व हालात से वाकि़फ़ थे। अगर ख़ुदा न ख़ासता मैदान छूट जाता तो यक़ीनन कसरे शाने इस्लाम होती। अगर शहादत से कसरे शाने इस्लाम का अन्देशा होता तो हज़रत अली (अ.स.) सरवरे कायनात स. को भी मशवेरा देते कि आप किसी जंग में ख़ुद न जाइये। तारीख़ में है कि वह बराबर जाते और ज़ख़्मी होते रहे। ओहद में तो जान ही ख़तरे में आ गई थी।

7. मिस्टर अमीर अली तारीख़े इस्लाम में लिखते हैं कि हज़रत अली (अ.स.) के मशवेरे से ज़मीन की पैमाईश की गई और माल गुज़ारी का तरीक़ा राएज किया गया।

8. आप ही के मशवेरे से सन् हिजरी क़ायम हुआ।

मशवरों के मुताअल्लिक़ इस्लाम की रायें

अल्लामा इब्ने अबिल हदीद लिखते हैं कि जब हज़रते उमर ने चाहा कि ख़ुद जंगे रोम व ईरान में जायें तो हज़रत अली (अ.स.) ही ने उनको मुफ़ीद मशवेरा दिया जिसको हज़रत उमर ने शुकरिये के साथ क़ुबूल किया और वह अपने इरादे से बाज़ रहे और हज़रत उस्मान को भी ऐसे क़ीमती मशवेरे दिये जिनको अगर वह क़ुबूल कर लेते तो उन्हें हवादिसों आफ़ात का सामना न करना पड़ता। उबैद उल्लाह अमरतसरी लिखते हैं कि तमाम मुवर्रेख़ीन मुत्तफि़क़ हैं कि इस्लाम में हज़रत उमर से ज़्यादा कोई ख़लीफ़ा मुदब्बिर पैदा नहीं हुआ इसकी ख़ास वजह यह थी कि हज़रत उमर हर बाब में हज़रत अली (अ.स.) से मशवेरा लेते थे।(अरजहुल मतालिब सफ़ा 227 ) मिस्टर अमीर अली लिखते हैं कि हज़रत उमर के अहदे हुकूमत में जितने काम रेफ़ाहे आम के हुये वह सब हज़रत अली (अ.स.) की सलाह व मशवरे से अमल में आये।

(तारीख़े इस्लाम)

मशवरों के अलावा जानी इमदाद

हज़रत अली (अ.स.) ने सिर्फ़ मशवेरों ही से अहदे गोशा नशीनी में इस्लाम की मदद नहीं कि बल्कि जानी खि़दमात भी अन्जाम दी है। मिसाल के लिये अर्ज़ है कि जब फ़तेह मिस्र का मौक़ा आया तो हज़रत अली (अ.स.) ने अपने ख़ानदान के नौजवानों को फ़ौज में भरती कराया और उनके ज़रिये से जंगी खि़दमात अन्जाम दिये। शैख़ मौहम्मद इब्ने मौहम्मद बिन मआज़ मम्लेकते मिस्र में मुसलमानों की फ़तूहात के सिलसिले में कहते हैं कि मुबारकबाद के क़ाबिल हैं हज़रत अली (अ.स.) के भतीजे और दामाद मुस्लिम बिन अक़ील और उनके भाई जिन्होंने महाज़े मिस्र में सख़्त जंग की और इस दरजा ज़ख़्मी हुए कि ख़ून उनकी जि़रह पर से जारी था और ऐसा मालूम होता था कि ऊँट के जिगर के टूकड़े हैं।(मुलाहेज़ा हो किताब फ़तूहात , सफ़ा 64 प्रकाशित बम्बई 1286 0 ) इसी तरह फ़तेह शुशतर के मौक़े पर 170 हिजरी में आपके भतीजे मौहम्मद इब्ने जाफ़र और औन बिन जाफ़र शहीद हुए।

(तारीख़े इस्लाम जिल्द 3 सफ़ा 81 बा हवाला तारीख़े कामिल व इस्तियाब।)

हज़रत अली (अ.स.) और इस्लाम में सड़कों की तामीरी बुनियाद

हज़रत अली (अ.स.) बज़ाते खु़द सीराते मुस्तक़ीम थे और आपको रास्तो से ज़्यादा दिलचस्पी थी। आप फ़रमाते थे कि मैं ज़मीन व आसमान के रास्तों से वाकि़फ़ हूँ। हाफि़ज़ हैदर अली क़लन्दर सीरते अलविया में लिखते हैं कि जजि़ये का माल व रूपया लशकर की आरास्तगी सरहद की हिफ़ाज़त और कि़लों की तामीर में सर्फ़ होता था और जो उससे बच रहता था वह सड़को पुलों की तय्यारी और सरिशतये तालीम के काम में आता था।(एहसनुल इन्तेख़ाब , सफ़ा 488 प्रकाशित लखनऊ 1351 हिजरी)

इसी सीरते अलविया की रौशनी में फि़क़ही किताबों में सड़क की तामीर की तरफ़ लफ़्ज़े फ़ी सबी लिल्लाह से इशारा किया गया है।(शराए अल इस्लाम प्रकाशित ईरान 1207 0 ) में है कि फ़ी सबी लिल्लाह से मुराद मख़सूस जंगी एख़राजात हैं और एक क़ौल है कि इसमें रास्तों और पुलों की तामीर , ज़ायरों की इमदाद , मस्जिदों की मरम्मत भी शामिल है और मुजाहिद को चाहे वह अपने मामेलात में ग़नी हीं क्यों न हो इमदाद देनी ज़रूरी है। सबील माने रास्ते के हैं और इसकी इज़ाफ़त अल्लाह की तरफ़ देने से बाहवाला मज़कूरा साबित होता है कि सड़क की तामीर को भी ख़ास अहमियत हासिल है। इसी लिये हज़रत अली (अ.स.) ने सड़क की तामीर में पूरे इनहेमाक का सुबूत दिया है। अल्लामा हाशिम बहरैनी किताब मदीनातुल मआजिज़ के सफ़ा 79 पर बाहवाला इब्ने शहरे आशोब तहरीर फ़रमाते हैं कि हज़रत अली (अ.स.) ने 17 मील तक अपने हाथों से ज़मीन हमवार की और सड़क की तामीर फ़रमाई और हर मील पर पत्थर नस्ब कर के उन पर हाज़ा मीले अली तहरीर फ़रमाया चूंकि इस ज़माने मे नक़लो हमल का कोई ज़रिया न था इस लिये इन वज़नी पत्थरों को जिन्हें बड़े क़वी हैक़ल लोग उठा न सकते थे। हज़रत अली (अ.स.) ख़ुद उठा कर ले जाते थे और नस्ब करते थे और उठाने की शान यह थी कि दो पत्थरों को हाथों में ले लेते थे और एक को पैरों की ठोकरों से आगे बढ़ाते थे। इसी तरह तीन तीन पत्थर ले जा कर हर मील पर संगे मील नस्ब करते थे। अल्लामा शिब्ली ने हज़रत उमर के मोहक़्मए जंगी की ईजाद को अल फ़ारूख़ में बड़े शद्दो मद से लिखा है , लेकिन हज़रत अली (अ.स.) की इस अहम रिफ़ाही खि़दमत का कहीं भी कोई जि़क्र नहीं किया हालाकि हज़रत अली (अ.स.) की यह वह बुनियादी खि़दमत है जिसका जवाब ना मुमकिन है।

हज़रते उस्मान की खि़लाफ़त और वफ़ात

मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है कि हज़राते शेख़ैन की वफ़ात के बाद मसलए खि़लाफ़त फिर ज़ेरे बहस लाया गया और हज़रत अली (अ.स.) से कहा गया कि आप सीरते शेख़ैन पर अमल पैरा होने का वायदा कीजिये तो आपको ख़लीफ़ा बना दिया जाए। आपने फ़रमाया कि मैं खुदा व रसूल स. और अपनी साएब राय पर अमल करूंगा लेकिन सीरते शेख़ैन पर अमल नहीं कर सकता।(तबरी जिल्द 5 सफ़ा 37 व शरह फि़क़हे अकबर सफ़ा 80 और तारीखुल क़ुरआन सफ़ा 36 प्रकाशित जद्दा) इस फ़रमाने के बाद लोगों ने इसी इक़रार के ज़रिये हज़रत उस्मान को ख़लीफ़ा बना दिया। हज़रत उस्मान ने अपने अहदे खि़लाफ़त में ख़ुवेश परवरी , अक़रेबा नवाज़ी की। बड़े बड़े अस्हाबे रसूल स. को जिला वतन किया। बैतुल माल के माल में बेजा तसर्रूफ़ किया। अपनी लड़की के लिये महर तामीर कराये। मरवान बिन हकम को अपना दामाद और वज़ीरे आज़म बना लिया। हालांकि रसूल अल्लाह स. उसे शहर बदर कर चुके थे , और शेख़ैन ने भी इसे दाखि़ले मदीना नहीं होने दिया था। फि़दक इसके हवाले कर दिया। बाज़ मोअजि़्ज़ज़ सहाबा को पिटवाया। गुज़रे हुए अहद में जो क़ुरआन राएज थे उन्हे जमा कर के जला दिया। जिन असहाब ने अपने क़ुरआन न दिये थे उन्हें मस्जिद मे इतना पिटवाया कि पसलियां टूट गईं। हज़रत आयशा उम्मुल मोमेनीन का वज़ीफ़ा बन्द कर दिया और हज़रत मौहम्मद इब्ने अबी बक्र को क़त्ल कर देने की पूरी साजि़श की। इन्हीं हालात की वजह से नतीजा यह बरामद हुआ कि हज़रत आयशा ने लोगों को हुक्म दिया कि अक़तलू नासल इस लम्बी दाढ़ी वाले को क़त्ल कर दो।

(रौज़ातुल अहबाब जिल्द 3 सफ़ा 12 -20, मजमउल बिहार सफ़ा 372, नहाया इब्ने असीर सफ़ा 166 )

इस फ़रमाने के बाद आप हज को तशरीफ़ ले गईं। आपके जाने के बाद लोगों ने उस्मान को क़त्ल कर डाला। जब आपको मक्के में क़त्ले उस्मान की ख़बर मिली तो आप बहुत ख़ुश हुईं। मुवर्रेख़ीन ने लिखा है कि आपके जनाज़े पर हज़रत अली (अ.स.) मदीने में होने के बावजूद नमाज़े जनाज़ा न पढ़ सके। आपकी लाश कुड़े पर डाल दी गई और कुत्तो ने एक टांग खा ली।(तारीख़े आसम कूफ़ी) अलग़रज़ आप 18 जि़ल्हिज्जा सन् 35 हिजरी यौमे जुमा 88 साल की उम्र में क़त्ल हो कर यहूदियों के क़बरस्तान(ख़शे कौकब) में दफ़्न हुये।

हज़रत अली (अ.स.) की खि़लाफ़ते ज़ाहेरी

पैग़म्बरे इस्लाम स. के इन्तेक़ाल के बाद हज़रत अली (अ.स.) गोशा नशीनी के आलम में फ़राएज़े मन्सबी अदा फ़रमाते रहे यहां तक कि खि़लाफ़त के तीन दौरे इस्लाम की तक़दीर के चक्कर बन कर गुज़र गये और 35 ई0 में तख़्ते खि़लाफ़त ख़ाली हो गया। 23 , 24 साल की मुद्दते हालात को परखने और हक़ व बातिल के फ़ैसले के लिये काफ़ी होती हैं। बिल आखि़र असहाब इस नतीजे पर पहुँचे कि तख़्ते खि़लाफ़त हज़रत अली (अ.स.) को बिला शर्त हवाले कर देना चाहिये। चुनान्चे असहाब का एक अज़ीम गिरोह हज़रत अली (अ.स.) की खि़दमत में हाजि़र हुआ। इस गिरोह में ईराक़ , मिस्र , शाम , हिजाज़ , फि़लस्तीन और यमन के नुमाइन्दे शामिल थे। उन लोगों ने खि़लाफ़त क़ुबूल करने की दरख़्वास्त की।

हज़रत अली (अ.स.) ने फ़रमाया मुझे इसकी तरफ़ रग़बत नहीं है तुम किसी और को ख़लीफ़ा बना लो। इब्ने ख़लदून का बयान है कि जब लोगों ने इस्लाम के अन्जाम से हज़रत को डराया , तो आपने रज़ा ज़ाहिर फ़रमाई। नहजुल बलाग़ा में है कि आपने फ़रमाया कि मैं ख़लीफ़ा हो जाऊंगा तो तुम्हे हुक्मे ख़ुदावन्दी मानना पड़ेगा। बहर हाल आपने ज़ाहेरी खि़लाफ़त क़ुबूल फ़रमा ली। मुसन्निफ़ बिरीफ़ सरवे ने लिखा है कि अली (अ.स.) 655 ई0 में तख़्ते खि़लाफ़त पर बिठाए गये। जो हक़ीक़त के लेहाज़ से रसूल स. के बाद ही होना चाहिये था।(तारीख़े इस्लाम जिल्द 3 सफ़ा 26 ) रौज़ातुल अहबाब में है कि खि़लाफ़ते ज़ाहिरया क़ुबूल करने के बाद आपने जो पहला ख़ुतबा पढ़ा उसकी इब्तेदा इन लफ़्ज़ो से थी। अलहम्दो लिल्लाह अला एहसाना क़द रजअल हक़ अला मकानेह ख़ुदा का लाख लाख शुक्र और उसका एहसान है कि उसने हक़ को अपने मरकज़ और मकान पर फिर ला मौजूद किया। तारीख़े इस्लाम और जामए अब्बासी में है कि 18 जि़ल्हिज्जा को हज़रत अली (अ.स.) ने खि़लाफ़ते ज़ाहेरी क़ुबूल फ़रमाई और 25 जि़ल्हिज्जा 35 हिजरी को बैयते आम्मा अमल में आई। इन्साइक्लोपीडिया बरटानिका में है कि जब मौहम्मद साहब स. ने इन्तेक़ाल फ़रमाया तो अली (अ.स.) में मज़हबे इस्लाम के मुसल्लम अल सुबूत सरदार होने के हुक़ूक़ मौजूद थे लेकिन दूसरे तीन साहब अबू बक्र , उमर व उस्मान ने जाये खि़लाफ़त पर क़ब्ज़ा कर लिया और अली (अ.स.) मुलक़्क़ब बा ख़लीफ़ा न हुये लेकिन बादे उस्मान 656 हिजरी में अली (अ.स.) ख़लीफ़ा हो गये , अली (अ.स.) के अहदे खि़लाफ़त में सब से पहला काम तलहा व ज़ुबैर की बग़ावत को फ़रो करना था। जिन्हें बी बी आयशा ने बहकाया था। आयशा अली (अ.स.) की सख़्त दुश्मन थीं और ख़ास उन्हीं की वजह से अली (अ.स.) अब तक ख़लीफ़ा न हो सके थे।(मोहज़्ज़ब मुकालेमा , सफ़ा 34 ) मुवर्रिख़ जरजी ज़ैदान लिखते हैं कि , अगर हज़रत उमर के ज़माने में जब लोगों के दिलों में नबूवत की दहशत और रिसालत की हैबत क़ायम थी और सच्चा दीन क़ायम था , हज़रत अली (अ.स.) मुसलमानों के हाकिम मुक़र्रर होते तो आपकी हुकूमत और सियासत कहीं बेहतर और आला साबित होती और आपके कामों में ज़र्रा बराबर भी ज़ोफ़ ज़ाहिर न होता लेकिन इसको क्या किया जाय कि आपके पास खि़लाफ़त की खि़दमत उस वक़्त आई जब लोगों की नियतें फ़ासिद हो गईं थीं और इन्तेज़ामाते मुल्की और उसूली हुकूमत के मुताअल्लिक़ वालियो और मातहतों के दिलों में हिरस व लालच पैदा हो गई थी और इन सब से ज़्यादा लालची और मक्कार माविया इब्ने अबू सुफि़यान था क्योकि इसने अपनी हुकूमत जमाने के लिये लोगों को धोका फ़रेब दे कर उनके साथ मक्र व हीला कर के और मुसलमानों का माल बे दरेग़ लुटा कर लोगों को अपनी तरफ़ कर लिया था।(तारीख़ अल तमद्दुन अल इस्लामी 4 सफ़ा 37 प्रकाशित मिस्र)

फ़ाजि़ल माअसर सैय्यद इब्ने हसन जारचावी लिखते हैं कि अगर अली (अ.स.) रसूल स. के बाद ही ख़लीफ़ा तसलीम कर लिये जाते तो दुनिया मिनहाजे रिसालत पर चलती और राहवारे सलतनत व हुकूमत दीने हक़ की शाहराह पर सरपट दौड़ता मगर मसलेहत और दूर अन्देशी के नाम से जो आइन व रूसूम हुकमरां जमाअत का जुज़वे जि़न्दगी और औढना बिछोना बन गये थे , उन्होंने अली (अ.स.) की पोज़ीशन नाहमवार और उनका मौकफ़ ना इस्तेवार बना दिया था। पिछलों दौर की गै़र इस्लामी रसमों और इम्तियाज़ पसन्द ज़ेहनियतों की इस्लाह करने में उनको बड़ी दिक़्क़त हुई और फि़र भी खा़तिर ख़्वाह कामयाबी हासिल न हो सकी। तबीयते आदम मसावात की खूगर और माअशरती अदल से कोसों दूर हो चुकी थीं।

टली (अ.स.) ने बैअत के दूसरे रौज़ बैतुल माल का जायज़ा लिया और सब को बराबर तक़सीम कर दिया। हबशी ग़ुलाम और क़ुरैशी सरदार दोनों को दो दो दिरहम मिले। इस पर पेशानी पर सिलवटें पड़ने लगीं। बनी उमय्या को इस दौर में अपनी दाल गलते नज़र न आई। कुछ माविया से जा मिले , कुछ उम्मुल मोमेनीन आयशा के पास मक्के जा पहुँचे। आसम कूफ़ी का बयान है कि आयशा हज से वापस आ रहीं थीं कि उन्हें क़त्ले उस्मान की ख़बर मिली। उन्होने निहायत इशतेयाक़ से पूछा कि अब कौन ख़लीफ़ा हुआ। कहा गया , अली यह सुन कर बिल्कुल ख़ामोश हुईं। अब्दुल्लाह इब्ने सलमा ने कहा , क्या आप उस्मान की मज़म्मत और अली (अ.स.) की तारीफ़ नहीं करती थीं , अब नाख़ुश का सबब क्या है ? फ़रमाया आखि़र वक़्त में उसने तौबा कर ली थी। अब उसका क़सास चाहती हूं। इब्ने ख़ल्दून का बयान है कि आयशा ने ऐलान कराया कि जो शख़्स इस्लाम की हमदर्दी करना और ख़ूने उस्मान का बदला लेना चाहता हो और उसके पास सवारी न हो , वह आय उसे सवारी दी जायेगी। बिरीफ़ सरवे ऑफ़ हिस्ट्री में है कि आयशा जो अली (अ.स.) की पुरानी और हमेशा की दुश्मन थीं अदावत में इस कद्र बढ़ गईं कि उनके माज़ूद कर ने के लिये एक फ़ौज जमा कर ली।

हज़रत अली (अ.स.) को एक दूसरी दिक़्क़त यह दरपेश थी कि सारा आलमे इस्लाम इन उमवी आमिलो और हाकिमों से तंग आ गया था जो हज़रत उस्मान के अहद में मामूर थे , अगर अली (अ.स.) उनको ब दस्तूर रहने देते तो हुकूमत के बवजूद जमहूर को चैन न मिलता , और अगर हटाते हैं तो मुखा़लिफ़ों की तादाद में इज़ाफ़ा करते हैं। हुक्काम व आमिल मुद्दत से ख़ुदसरी के आदी और बैतूल माल को हज़म करने के ख़ूगर हो चुके थे। अकसर उनमें ऐसे थे जिनके बाप दादा अज़ीज़ व अक़रोबा अली (अ.स.) की तलवार से मौत के घाट उतर चुके थे या अली (अ.स.) को खरे और बे लौस अदलों इन्साफ़ का तमाशा देख चुके थे। उनको नज़र आ रहा था कि अली (अ.स.) हैं तो हम नहीं रह सकते और रहे भी तो मन मानी नहीं कर सकते। उन्होने वह कमीनगाह(छुपने की जगह) तलाश की जहां बैठ कर वह दामादे रसूल स.अ.व.व. पर तीर चला सकें और वह मोरचे बनाए और वह घाटियां खोदीं जिनकी आड़ में छुप कर वह नई हुकूमत को जड़ से उखाड़ सकें।

तलहा व ज़ुबैर जो ख़ुद हुकूमत के ख़्वाहां और खि़लाफ़त के आरज़ू मन्द थे और हज़रत आयशा की हिमायत और मदद उनको हासिल थी। पहले तो हज़रत अली (अ.स.) से बैयत कर बैठे , फिर लगे उनसे साजि़शे करने। एक दिन आय और बसरे और कूफ़े की हुकूमत तलब करने लगे। हज़रत अली अ ने कहा मुझे तुम्हारी ज़रूरत है , मदीने में रहो और रोज़ मर्रा के कारोबारे हुकूमत में मेरी मदद करो। दूसरे दिन वह मक्का जाने की इजाज़त मांगने आय। वाशिंगटन एयरविंग लिखता है , ऐसी हालत में कि लब पर तक़वा और दिल में मक्र था। यह आयशा से जा मिले जो मुख़ालेफ़त के लिये तैय्यार थीं। यही मुवर्रिख़ लिखता है। अली (अ.स.) ख़लीफ़ा हो गये लेकिन देखते थे कि उनकी हुकूमत जीम नही है। गुज़शता ख़लीफ़ा के ज़माने में बहुत सी बद उन्वानियां पैदा हो गईं थीं जिनमें इस्लाह की ज़रूरत थी और बहुत से सूबे उन लोगों के हाथ में थे जिनकी वफ़ादारी पर उनको मुतलक़न एतेमाद न था। उन्होंने इस्लाहे आम का इरादा किया।