चौदह सितारे

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चौदह सितारे लेखक:
कैटिगिरी: शियो का इतिहास

चौदह सितारे
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चौदह सितारे

चौदह सितारे

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


1

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा ( स अ व व )

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स अ . व . व . ) के मुख़्तसर ख़ानदानी हालात

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स अ व व ) हज़रत इब्राहीम (स अ व व ) की नस्ल से थे। हज़रत इब्राहीम अहवाज़ , बाबुल या ईराक़ के एक क़रये कोसा में तूफ़ाने नूह से 1081 साल बाद पैदा हुए। जब आपकी उम्र 86 साल की हुई तो आपके यहां जनाबे हाजरा से हज़रे इस्माईल पैदा हुए और 90 साल की उम्रें जनाबे सारा से हज़रते इस्हाक़ पैदा हुए। हज़रत इब्राहीम (अ.स.) ने दोनों बीवीयों को एक जगह रखना मुनासिब न समझ कर सारा को मैय इस्हाक़ शाम में छोड़ा और हाजरा को इस्माईल के साथ हिजाज़ के शहर मक्का में ख़ुदा के हुक्म से पहुँचा आये। इस्हाक़ (अ.स.) की शादी शाम में और इस्माईल (अ.स.) की मक्का में क़बीलाए जुरहुम की एक लड़की से हुई। इस तरह इस्हाक़ (अ.स.) की नस्ल शाम में और इस्माईल (अ.स.) की नस्ल मक्का में बढ़ी। जब हज़रते इब्राहीम (अ.स.) की उम्र 100 साल की हुई और जनाबे हाजरा का इन्तेक़ाल भी हो गया तो आप मक्का तशरीफ़ लाये और इस्माईल (अ.स.) की मदद से ख़ाना ए काबा की तामीर की। मुवर्रेख़ीन का कहना है कि यह तामीर हिजरते नबवी से 2793 साल पहले हुई थी। उन्होंने एक ख़्वाब के हवाले से बहुक्मे ख़ुदा अपने बेटे (इस्माईल) को ज़िबह करना चाहा था जिसके बदले में ख़ुदा ने दुम्बा (भेड़) भेज कर फ़रमाया कि तुम ने अपना ख़्वाब सच कर दिखाया। इब्राहीम सुनो ! हम ने तुम्हारे फ़िदये (इस्माईल) को ज़बहे अज़ीम इमामे हुसैन (अ.स.) से बदल दिया है। मुवर्रेख़ीन का कहना है कि यह वाक़िया हज़रत आदम (अ.स.) के दुनिया में आने के 3435 साल बाद का है। इसके बाद चन्द बातों में आपका इम्तेहान लिया गया जिसमें कामयाबी के बाद आपको दरजाए इमामत पर फ़ाएज़ किया गया। आपने ख़्वाहिश की कि यह ओहदा मेरी नस्ल से मुस्तक़र कर दिया जाय। इरशाद हुआ बेहतर है लेकिन तुम्हारी नस्ल में जो ज़ालिम होंगे वह इस्से महरूम रहेंगे। आपका लक़ब ख़लील अल्लाह था और आप उलुल अज़्म पैग़म्बर थे। आप साहबे शरीयत थे और ख़ुदा की बारगाह में आपका यह दरजा था कि ख़ातेमुल अम्बिया (स अ व व ) को आपकी शरीयत के बाक़ी रखते का हुक्म दिया गया। आपने 175 साल की उम्र में इन्तेक़ाल फ़रमाया और मक़ामे कु़द्स (ख़लील अर रहमान) में दफ़्न किये गये। वफ़ात से पहले आप ने अपना जानशीद हज़रते इस्माईल (अ.स.) को क़रार दिया। अंग्रेज़ इतिहासकारों का कहना है कि हज़रते इस्माईल का जन्म जनाबे मसीह से 1911 साल पहले हुआ था।

हज़रत इस्माईल (अ.स.) के यह ख़ास इमतेआज़ात हैं कि उन्हीं कि वजह से मक्का आबाद हुआ। चाह ज़मज़म बरामद हुआ। हज्जे काबा की इबादत की शुरूआत हुई। 10 ज़िलहिज को ईदे क़ुरबान की सुन्नत जारी हुई। आप का इन्तेक़ाल 137 साल की आयु में हुआ और आप हिजरे इस्माईल मक्का के क़रीब दफ़्न हुए। आपने बारह बेटे छोड़े। आपकी वफ़ात के बाद ख़ाना ए काबा की निगरानी व दीगर खि़दमात आपके पुत्र ही करते रहे। इनके पुत्रों में क़ेदार को विशेष हैसियत हासिल थी ग़रज़ कि अवलादे हज़रत इस्माईल (अ.स.) मक्का मोअज़्ज़ाम में बढ़ती और नशोनुमा पाती रही यहां तक कि तीसरी सदी में एक शख़्स फ़हर नामी पैदा हुआ जो इन्तेहाई बा कमाल था। इस फ़हर की नस्ल से पैग़म्बरे इस्लाम पैदा हुए। अल्लामा तरीही का कहना है कि इसी फ़हर या इसके दादा नज़र बिन कनाना को क़ुरैश कहा जाता है क्यो कि बहरिल हिन्द से उसने एक बहुत बड़ी मछली शिकार की थी जिसको क़ुरैश कहा जाता था और उसे ला कर मक्का मे रख दिया था जिसे लोग देखने के लिये दूर दूर से आते थे। लफ़्ज़े फ़हर इब्रानी है और इसके मानी पत्थर के हैं और क़ुरैश के मानी क़दीम अरबी में सौदागर के हैं।

क़ुसई

पांचवीं सदी इसवी में एक बुज़ुर्ग फ़हर की नस्ल से गुज़रे हैं जिनका नाम क़ुसई था। शिबली नोमानी का कहना है कि उन्हीं क़ुसई को क़ुरैश कहते हैं लेकिन मेरे नज़दीक़ ये ग़लत है क़ुसई का असली नाम ज़ैद और कुन्नियत अबुल मुग़ैरा थी। उनके बाप का नाम कलाब और मां का नाम फातेमा बिन्ते असद और बीबी का नाम आतका बिन्दे ख़ालिख़ बिन लैक था। यह निहायत ही नामवर , बुलन्द हौसला , जवां मर्द , अज़ीमुश्शान बुज़ुर्ग थे। उन्होंने ज़बरदस्त इज़्ज़त व इख़तेदार हासिल किया था यह नेक चलन बा मुरव्वत , सख़ी व दिलेर थे। इनके विचार पवित्र और बेलौस थे। इनके एख़लाक़ बुलन्द , शाइस्ता और मोहज़्ज़ब थे। इनकी एक बीबी हबी बिन्ते ख़लील ख़ेज़ाईं थीं। यह ख़लील बनु ख़ज़आ का सरदार था। इसने मरने के समय ख़ाना ए काबा की तौलीयत हबी के हवाले कर देना चाही , इसने अपनी कमज़ोरी के हवाले से इन्कार कर दिया फिर उसने अपने एक रिश्तेदार अबू ग़बशान ख़ेज़ाई के सुपुर्द की। उसने इस अहम खि़दमत को क़ुसई के हाथो बेच दिया। इस तरह क़ुसई इब्ने क़लाब इस अज़ीम शरफ़ के भी मालिक बन गए। उन्होंने ख़ाना ए काबा की मरम्मत कराई और बरामदा बनवाया। रिफ़ाहे आम के सिलसिले में अनगिनत खि़दमते कीं। मक्का में कुवां खुदवाया जिसका नाम अजूल था। क़ुसई का देहान्त 480 ई 0 में हुआ। मरने के बाद उन्हें मुक़ामे हजून में दफ़्न किया गया और उनकी क़ब्र ज़्यारत गाह बन गई। क़ुसई अगरचे नबी या इमाम न थे लेकिन हामिले नूरे मोहम्मदी (स अ व व ) थे। यही वजह है कि आसमाने फ़ज़ीलत के आफ़ताब बन गये।

अब्दे मनाफ़

क़ुसई के छः बेटे थे जिन में अब्दुलदार सब से बड़ा और अब्दुल मुनाफ़ सब से लाएक़ था। उन्होंने मरते समय बड़े बेटे को तमाम मनासिब सिपुर्द किये लेकिन अब्दे मनाफ़ ने अपनी लेआक़त की वजह से सब में शिरकत हासिल कर ली। यह क़ुरैश के मुस्सलेमुससबूत सरदार बन गये। अब्दे मनाफ़ का असली नाम मुग़ैरा और कुन्नियत अबू अब्दे शम्स थी और माँ का नाम हबी बिन्ते ख़लील था। उन्होंने आमका बिन्ते मरह सलेमह बिन हलाल से शादी की। उन्हें हुसनों जमाल की वजह से क़मर कहा जाता था। दियारे बकरी का कहना है कि अब्दे मनाफ़ को मुग़ैरा कहते थे। वह तक़वा व सिलाए रहम की तलक़ीन किया करते थे। बाप और बेटे एक ही अक़ीदे पर थे और उन्होंने कभी बुत परस्ती नहीं की। यह भी अपने बाप क़ुसई की तरह मनाक़िब बेहद और फ़ज़ाएले बेशुमार के मालिक और नूरे मोहम्मदी के हामिल थे। उन्होंने मुल्के शाम के मक़ाम ग़ज़वे में इन्तेक़ाल किया।

अब्दे मनाफ़ के जीते जी तो कोई झगड़ा डठा नहीं इनके बाद उनकी अवलाद जिनमें हाशिम , मुत्तलिब अब्दे शम्स और नौफ़िल नुमाया हैसियत रखते थे उन्में यह जज़बा उभर पड़ा कि अब्दुलदार की औलाद से वह मनासिब ले लेने चाहिये जिनके वह अहल नहीं चुनान्चे इन लोगों ने बनी अब्दुलदार से मनासिब की वापसी या तकसीम का सवाल किया उन्होने इन्कार कर दिया। इसके बाद जंग का मैदान हमवार हो गया। बिल आख़िर इस बात पर सुलह हो गई कि रेफ़ायदा सक़ाया की क़यादत बनी अब्दे मुनाफ़ में है और लवा बरदारी का मनसब बनी अब्दुलदार के पास रहे और दारूल नदवा की सदारत मुश्तरका हो।

हाशिम

आप का नाम अम्र कुन्नियत अबू नाफ़ला थी। आपके वालिद अब्दे मनाफ़ और वालेदा आतका बिनते मरह अल सलमिया थी। आपको उलू मरतबा की वजह से अम्र अलअला भी कहते थे। आप और अब्दुल शम्स दोनों इस तरह जुडवाँ पैदा हुए थे के इनके पाँव का पन्जा अब्दुल शम्स की पेशानी से चिपका हुआ था जिसे तलवार के ज़रिये अलाहेदा किया गया और बेइन्तेहा ख़ून बहा जिस की ताबीर नुजूमियों ने बाहमी खूंरेज़ जंग से की जो बिल्कुल सही उतरी और दोनो ख़ानदानों के दरमियान हमेशा जंग मुतावरिस रही। जिसका एख़तेताम 133 हिजरी में हुआ। बनी अब्बास (हाशमी) और बनी उमय्या (शम्सी) में ऐसी ख़ूंरेज़ जंग हुई जिसने बनी उमय्या की क़ुव्वत व ताक़त और बुलन्दीए इक़बाल का चिराग़ हमेशा के लिये गुल कर दिया। आप फ़ितरतन सैर चश्म और फ़य्याज़ थे। दौलत मन्दी में भी बड़ी हैसियत के मालिक थे हुजाज की खि़दमत आप की ज़िन्दगी का कारनामा था। मुवर्रेख़ीन का कहना है कि आप को हाशिम इस लिये कहते हैं कि आपने एक शदीद क़हत के मौक़े पर अपनी ज़ाती दौलत से शाम जा कर बहुत काफ़ी केक ख़रीदे थे और उसे ला कर तक़सीम करते हुए कहा कि इसे शोरबा में तोड़ कर खा जाओ। हाशिम के मानी तोड़ने के हैं लेहाज़ा हाशिम कहे जाने लगे। आप ने अपनी शादी अपने ख़ानदान की एक लड़की से की जिससे हज़रत असद पैदा हुए। दूसरी शादी ख़ज़रजियों के एक मश्हूर क़बीले बनी अदी इब्ने नजार यसरब (मदीना) की नजीबुत तरफ़ैन दुख़्तर से की। उसी के बतन से एक बा वेक़ार लड़का पैदा हुआ जो आगे चल कर अब्दुल मुत्तलिब शेबत उल हम्द से पुकारा गया। अब्दुल मुत्तलिब अभी दूध ही पीते थे कि जनाबे हाशिम का इन्तेक़ाल हो गया। आपकी औलाद के मुतअल्लिक़ हज़रत जिबराईल का कहना है कि मैंने मशरिक़ो मग़रिब को छान कर देखा है कि मोहम्मद मुस्तफ़ा (स अ व व ) से बेहतर कोई नहीं है और बनी हाशिम से बेहतर कोई ख़ानदान नहीं है। जनाबे हाशिम ने 510 ई 0 में बामक़ाम ग़ज़वाए शाम में इन्तेक़ाल फ़रमाया।

जनाबे असद

आप हज़रते हाशिम के बड़े बेटे थे , आपकी विलादत 497 ई 0 से क़ब्ल हुई थी। आप में इन्सानी हमदर्दी बहद्दे कमाल पहुँची हुई थी। फ़ख़रूद्दीन राज़ी का बयान है कि जनाबे असद ने एक दिन एक दोस्त को सख़्त भूखा पा कर (जो बनी खज़दम से था) अपनी वालेदा से कहा कि इसके लिये खाने का बन्दोबस्त करो , उन्होंने पनीर और आटा वग़ैरा काफ़ी मिक़दार में इसके घर भिजवा कर उसे सुकून बख़्शा फिर इस वा़के़ए से मुताअस्सिर हो कर जनाबे हाशिम ने अहले मक्का को जमा किया और इनमें तिजारत का जज़बा व शौक़ पैदा किया। असद के मानी शेर के हैं। इब्ने ख़ालविया का यह कहना है कि शेर के पांच सौ नाम हैं जिनमें एक असद भी है। शेर भूख और प्यास पर साबिर होता है। अल्लामा तरीही का कहना है कि शेर की अवलाद कम होती है शायद यही वजह थी कि हज़रते असद के अवलाद कम थी बल्कि अवलादे ज़कूर मफ़क़ूद और ग़ालेबन सिर्फ़ फातेमा बिन्ते असद ही थीं जो बाद में हज़रत अली (अ.स.) वालेदा गिरामी क़रार पायीं।

जनाबे अब्दुल मुत्तलिब

आप हज़रत हाशिम के नेहायत जलीलउल क़द्र साहबज़ादे थे। 497 ई 0 में पैदा हुए वालिद का इन्तेक़ाल बचपने में ही हो चुका था। परवरिश के फ़राएज़ आपके चचा मुत्तलिब के कनारे आतफ़त में अदा हुए और ख़ुश क़िस्मती से आखि़र में अरब के सब से बड़े सरदार क़रार पाए। आपके वालिद ही की तरह आपकी वालेदा भी (जिनका नाम सलमा था) शराफ़त व अज़मत में इन्तेहाई बुलन्दी की मालिक थीं। इब्ने हाशिम का कहना है कि वह वेक़ारे ख़ानदानी की वजह से अपने निकाह को इस शर्त से मशरूत करती थीं कि तौलीद के मौक़े पर अपने मैके में रहूगीं। जनाबे अब्दुल मुत्तलिब का एक नाम शेबातुल हम्द भी था क्यों कि आप की विलादत के वक़्त आपके सर पर सफ़ेद बाल थे और शेब सफ़ेद सर को कहते हैं। हम्द से उसे मुज़ाफ़ इस लिये किया कि आगे चल कर बे इन्तेहा मम्दूह होने की इनमें अलामतें देखी जा रही थीं। आप सिने शऊर तक पहुँचते ही जनाबे हाशिम की तरह नामवर और मशहूर हो गये। आपने अपने आबाओ अजदाद की तरह अपने ऊपर शराब हराम कर रखी थी और ग़ारे हिरा में बैठ कर इबादत करते थे। आपका दस्तर ख़्वान इतना वसी था कि इन्सानों के अलावा परिन्दों को भी खाना खिलाया जाता था। मुसीबत ज़दों की इमदाद और अपाहिजों की ख़बर गीरी इनका ख़ास शेवा था। आप ने बाज़ ऐसे तरीक़े राएज किये जो बाद में मज़हबी नुक़ताए नज़र से इन्सानी ज़िन्दगी के उसूल बन गये। मसलत इफ़ाए नज़र निकाह मेहरम से इजतेनाब , दुख़्तर कशी की मुमानियत ख़मरो ज़िना की हुरमत और क़ितए यदे सारिक़ के अब्दुल मुत्तलिब का यह अज़ीम कारनामा है कि उन्होंने चाहे ज़मज़म को जो मरूर ज़माने से बन्द हो चुका था फिर ख़ुदवा कर जारी किया।

आपके अहद का एक अहम वाक़ेया काबा ए मोअज़्ज़मा पर लश्कर कशी है। मुवर्रेख़ीन का कहना है कि अबरहातुल अशरम का ईसाई बादशाह था। उसमें मज़हबी ताअस्सुब बेहद था। ख़ाना ए काबा की अज़मत व हुरमत देख कर आतिशे हसद से भड़क उठा और इसके वेक़ार को घटाने के लिये मक़ामे सनआ में एक अज़ीमुश्शान गिरजा बनवाया। मगर इसकी लोगों की नज़र में ख़ाना ए काबा वाली अज़मत न पैदा हो सकी तो इसने काबे को ढाने का फ़ैसला किया और असवद बिन मक़सूद हबशी की ज़ेरे सर करदगी में एक अज़ीम लशकर मक्के की तरफ़ रवाना कर दिया। क़ुरैश , कनाना , ख़ज़ाआ और हज़ील पहले तो लड़ने के लिये तैय्यार हुए लेकिन लशकर की कसरत देख कर हिम्मत हार बैठे और मक्के की पहाड़ियो में अहलो अयाल समेत जा छिपे। अल बत्ता अब्दुल मुत्तलिब अपने चन्द साथियों समेत ख़ाना ए काबा के दरवाज़े में जा खडे़ हुए और कहा ! मालिक यह तेरा घर है और सिर्फ़ तू ही बचाने वाला है। इसी दौरान में लशकर के सरदार ने मक्के वालों के खेत से मवेशी पकड़े जिनमें अब्दुल मुत्तलिब के 200 ऊँट भी थे। अलग़रज़ अबराहा ने हनाते हमीरी को मक्के वालों के पास भेजा और कहा के हम तुम से लड़ने नहीं आये हमारा इरादा सिर्फ़ काबा ढाने का है। अब्दुल मुत्तलिब ने पैग़ाम का जवाब यह दिया कि हमें भी लड़ने से कोई ग़रज़ नहीं और इसके बाद अब्दुल मुत्तलिब ने अबराहा से मिलने की दरख़्वास्त की। उसने इजाज़त दी यह दाखि़ले दरबार हुए। अबराहा ने पुर तपाक ख़ैर मक़दम किया और इनके हमराह तख़्त से उतर कर फ़र्श पर बैठा। अब्दुल मुत्तलिब ने दौनाने गुफ्तुगू में अपने ऊँटों की रेहाई और वापसी का सवाल किया। उसने कहा तुम ने अपने आबाई मकान काबे के लिये कुछ नहीं कहा। उन्होंने जवाब दिया अना रब्बिल अब्ल वलिल बैत रब्बुन समीनाह मैं ऊँटों का मालिक हूँ अपने ऊँट मांगता हूँ जो काबे का मालिक है अपने घर को ख़ुद बचाऐगा। अब्दुल मुत्तलिब के ऊँट उन को मिल गये और वह वापस आ गये और क़ुरैश को पहाड़ियों पर भेज कर ख़ुद वहीं ठहर गये। ग़रज़ कि अबराहा अजी़मुश्शान लश्कर ले कर ख़ाना ए काबा की तरफ़ बढ़ा और जब इसकी दीवारे नज़र आने लगीं तो धावा बोल देने का हुक्म दिया। ख़ुदा का करना देखिए कि जैसे ही ग़ुस्ताख़ व बेबाक लशकर ने क़दम बढ़ाया मक्के के ग़रबी सिमत से ख़ुदा वन्दे आलम का हवाई लशकर अबा बील की सूरत में नमूदार हुआ। इन परिन्दों की चोंच और पन्जों में एक एक कंकरी थी। उन्होंने यह कंकरियां अबराहा के लशकर पर बरसाना शुरू कीं। छोटी छोटी कंकरयों ने बड़ी बड़ी गोलियों का काम कर के सारे लशकर का काम तमाम कर दिया। अबराहा जो महमूद नामी सुखऱ् हाथी पर सवार था ज़ख़्मी हो कर यमन की तरफ़ भागा लेकिन रास्ते ही में वासिले जहन्नम हो गया। यह वाक़ेया 570 ई 0 का है।

1.सना यमन का दारूल हुकूमत है। उसे क़दीम ज़माने में उज़ाली भी कहते थे। तमाम अरब में सब से उम्दा और ख़ूब सूरत शहर है। अदन से 260 मील के फ़ासले पर एक ज़रख़ेज़ वादी में वाक़े है इसकी आबो हवा मोतादिल और ख़ुश गवार है। इसके जुनूब मशरिक़ में तीन दिन की मसाफ़त पर शहर क़रीब है जिसको सबा भी कहते हैं सना के शुमाल मग़रिब में 60 फ़रसख़ पर सुरह है यहां का चमड़ा दूर दराज़ मुल्कों में तिजारत को जाता है। सना के मग़रिब में बहरे कुल्जुम से एक मन्ज़िल की मसाफ़त पर शहर ज़ुबैद वाक़े है जहां से तिजारत के वास्ते कहवा अतराफ़ में जाता है। ज़ुबैद से 4 मन्ज़िल और सना से 6 मन्ज़िल पर बैतुल फ़क़ीह वाक़े है। ज़ुबैद के शुमाल मशरिक़ में शहर मोहजिम है सना से 6 मन्ज़िल के फ़ासले पर ज़ुबैद के जुनूब में क़िला ए तज़ है। सना के शुमाल में 10 मन्ज़िल की मुसाफ़त पर नज़रान है।

चूकि अबराहा हाथी पर सवार था और अरबों ने इस से पहले हाथी न देखा था नीज़ इस लिये कि बड़े बड़े हाथियों को छोटे छोटे परिन्दों की नन्हीं नन्हीं कंकरियों से बा हुक्मे ख़ुदा तबाह कर के ख़ुदा के घर को बचा लिया इस लिये इस वाक़ये को हाथी की तरफ़ से मन्सूब किया गया और इसी से सने आमूल फ़ील कहा गया। मेंहदी का खि़जा़ब अब्दुल मुत्तलिब ने ईजाद किया है। इब्ने नदीम का कहना है कि आपके हाथ का लिखा हुआ एक ख़त मामून रशीद के कुतुब ख़ाने में मौजूद था। अल्लामा मजलिसी और मौलवी शिब्ली का कहना है कि आपने 82 साल की उम्र में वफ़ात पाई और मक़ामे हुज़ून में दफ़्न हुए। मेरे नज़दीक आपका सने वफ़ात 578 ईसवी है।

जनाबे अब्दुल्लाह

आप जनाबे अब्दुल मुत्तलिब के बेटे थे। कुन्नियत अबू अहमद थी आपकी वालिदा का नाम फातेमा था जो उमरे बिन साएद बिन उमर बिन मख़्जूम की साहब ज़ादी थी। आपके कई भाई थे जिनमें अबू तालिब को बड़ी अहमियत थी। जनाबे अब्दुल्लाह ही वह अज़ीमुल मर्तबत बुर्ज़ुग हैं जिनको हमारे नबीए करीम के वालिद होने का शरफ़ हासिल हुआ। आप नेहायत मतीन , संजीदा और शरीफ़ तबीयत के इन्सान थे और न सिर्फ़ जलालते निसबत बल्कि मुकारिमें इख़्लाक़ की वजह से तमाम जवानाने क़ुरैश में इम्तियाज़ की नज़रों से देखे जाते थे। मुहासिने आमल और शुमाएले मतबू में फ़र्द थे। हरकात मौजू और लुत्फ़े गुफ़तार में अपना नज़ीर न रखते थे। जनाबे अब्दुल मुत्तलिब आपको सब से ज़्यादा चाहते थे। एक दफ़ा ज़िक्र है कि अब्दुल मुत्तलिब ने यह नज़र मानी कि अगर ख़ुदा ने मुझे दस बेटे दिये तो मैं इन में से एक राहे ख़ुदा में क़ुर्बान कर दूंगा , और इसकी तकमील में अब्दुल्लाह को ज़ब्ह करने चले तो लोगों ने पकड़ लिया और कहा कि आप क़ुरबानी के लिये क़ुरा डालें। चुनान्चे बार बार अब्दुल्लाह के ज़ब्ह पर ही क़ुरा निकलता रहा। अब्दुल मुत्तलिब ने सख़्त इसरार के साथ उन्हें ज़ब्ह करना चाहा लेकिन ऊँटों की तादाद बढ़ा कर क़ुरे के लिये सौ तक ले गये बिल आखि़र तीन बार अब्दुल्लाह के मुक़ाबले में सौ ऊँटों पर क़ुरा निकला और अब्दुल्लाह ज़ब्ह से बच गये। उसके बाद आपकी शादी क़बीलाए ज़हरा में वहाब इब्ने अब्दे मनाफ़ की साहब ज़ादी (आमिना) से हो गयी।। शादी के वक़्त जनाबे अब्दुल्लाह की उम्र तक़रीबन 18 साल की थी। आप ने 28 साल की उम्र में इन्तेक़ाल फ़रमाया। मुवर्रेख़ीन का कहना है कि आप मक्के से बा सिलसिलाए तिजारत मदीना तशरीफ़ ले गये थे वहीं आप का इन्तेक़ाल हो गया और आप मक़ामे अब्वा में दफ़्न किये गये। आपने तरके में ऊँट , बकरियां और एक लौंड़ी छोड़ी जिसका नाम (बरकत) और उर्फ़ उम्मे ऐमन था।

हज़रत अबुतालिब

आप हज़रते हाशिम के पोते , अब्दुल मुत्तलिब के बेटे और जनाबे अब्दुल्लाह के सगे भाई थे। आपका असली नाम इमरान था कुन्नियत अबू तालिब थी। आपकी मादरे गेरामी फातेमा बिन्ते अम्र मख़जूमी थीं। शम्सुल उलेमा नज़ीर अहमद का कहना है कि आप अब्दुल मुत्तलिब के अवलादे ज़कूर में सब से ज़्यादा बवक़ार और अक़्ल मन्द थे। अब्दुल मुत्तलिब के बाद पै़ग़म्बरे इस्लाम की परवरिश आपने शुरू की और ता हयात उनकी नुसरत व हिमायत करते रहे। मोल्वी शिब्ली का कहना है कि अबू तालिब का यह तरीक़ा ता जी़स्त रहा कि आं हज़रत (स अ व व ) को अपने साथ सुलाते थे और जहां जाते थे साथ ले जाते थे। कुफ़्फ़ारे क़ुरैश और अशरार यहूद से आपने आं हज़रत की हिफ़ाज़त की और उन्हें किसी क़िस्म का ग़ज़न्द नहीं पहुँचने दिया। मुवर्रिख़ इब्ने कसीर का कहना है कि सफ़रे शाम के मौक़े पर एक राहिब की नज़र आप पर पड़ी। उसने इन में बुर्ज़ुगी के आसार देखे और अबु तालिब से कहा कि उन्हें जल्द वापस वतन ले जाओ नहीं तो यहूद इन्हें क़त्ल कर डालेगें। अबू तालिब ने अपना सारा सामाने तिजारत बेच कर के वतन की राह ली। मुवर्रिख़ दयारे बकरी का कहना है कि हज़रत मोहम्मद (स अ व व ) जनाबे अबू तालिब की तहरीक से जनाबे ख़दीजा का माल बेचने के लिये शाम की तरफ़ ले जाया करते थे। कुछ दिनों मे ख़दीजा ने शादी की ख़्वाहिश की और निसबत ठहर गयी। जनाबे अबू तालिब ने आं हज़रत (स अ व व ) की तरफ़ से ख़ुत्बा ए निकाह पढ़ा अबू तालिब के ख़ुत्बे की शुरूआत इन लफ़्ज़ों मे है। (अल्हम्दो लिल्लाहिल लज़ी जाअल्ना मिन ज़ुर्रियते इब्राहीम) तमाम तारीफ़ें उस ख़ुदा के लिये हैं जिसने हमें ज़ुर्रियते इब्राहीम में क़रार दिया।

चार सौ दीनार सुख्र पर अक़्द हुआ। अक़्द निकाह के बाद हज़रत अबू तालिब बहुत ही ख़ुश हुए। अल्लामा तरही का बा हवाला ए इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) कहना है कि अबू तालिब ईमान के ताहफ़्फ़ुज़ हैं असहाबे क़हफ़ के मानिन्द थे। शमशुल उलमा नज़ीर अहमद का कहना है कि अब्दुल मुत्तलिब और अबू तालिब दीने फ़ितरत को मज़बूती से पकड़े हुए थे। अल्लामा स्यूती का कहना है कि अन अबल नबी लम यकुन फ़ीहुम मुशरिक आँ हज़रत (स अ व व ) के आबाव अजदाद मे एक शख़्स भी मुशरिक नहीं था। क़ुरआन मजीद में है कि ऐ नबी हम ने तुम को सजदा करने वालों की पुशत में रखा। अबू तालिब के मुताअल्लिक़ शमशुल उलमा नज़ीर अहमद का कहना है कि वह दिल से पैग़म्बर को सच्चा पैग़म्बर और इस्लाम को ख़ुदाई दीन समझते थे। शमशुल उलमा शिब्ली का कहना है कि अबू तालिब मरते वक़्त भी कलमा पढ़ते रहे थे लेकिन बुख़ारी की एक ऐसी मुरसिल रवायत की बिना पर जिसमे मुसय्यब शामिल हैं उन्हें ग़ैर मुस्लिम कहा जाता है। जो क़ाबिले सेहत लाएक़े तसलीम नहीं है। ग़रज़ कि आपके मोमिन और मुसलमान होने पर मुन्सिफ़ मुवर्रेख़ीन का इत्तेफ़ाक़ है। अबू तालिब के दो शेर क़ाबिले मुलाहेज़ा हैं।

ودعوتني وزعمت انك ناصحي *** ولقد صدقت وكنت ثم امينا

ولقد علمت بان دين محمد *** من خير اديان البرية دينا

तरजुमा ऐ मोहम्मद (स अ व व ) ! तुम ने मुझे इस्लाम की तरफ़ दावत दी और मैं ख़ूब जानता हूँ कि तुम यक़ीनन सच्चे हो क्यों कि तुम इस अहदे नबूवत के इज़हार से क़ब्ल भी लोगों की नज़र में सच्चे रहे हो। मैं अच्छी तरह जाने हुए हूँ कि ऐ मोहम्मद ! तुम्हारा दीन दुनियां के तमाम अदयान से बेहतर है।

आपकी बीवी फातेमा बिन्ते असद थीं जो सन् 1 बेसत में ईमान लाईं और 4 हिजरी में बा मुक़ाम मदीना ए मुनव्वरा इन्तेक़ाल फ़रमा गईं और ख़ुद आप का इन्तेक़ाल 85 साल की उम्र में शव्वाल 10 बेसत में हुआ। आपके इन्तेक़ाल के साल को रसूल अल्लाह (स अ व व ) ने आमुल हुज़्न से मौसूम कर दिया था।

जनाबे अब्बास

आप जनाबे अब्दुल मुत्तलिब के बेटे और पैग़म्बरे इस्लाम के चचा थे। आपकी वालेदा फ़तीला थीं। आप रसूले ख़ुदा (स अ व व ) से 2 या 3 साल बड़े थे। आपका क़द तवील और बदन ख़ूब सूरत था। आप हिजरत से क़ब्ल इस्लाम लाए थे। आप बड़े साएबुल राय थे। आपने फ़तहे मक्का और ग़ज़वा हुनैन में शिरकत की थी। आप के 10 बेटे और कई बेटियां थीं। आखि़र उम्र में नाबीना हो गये थे। आपने 77 साल की उम्र में बा तारीख़ 12 रजब 32 हिजरी बा मुक़ाम मदीनाए मुनव्वरा में इन्तेक़ाल फ़रमाया और जन्नतुल बक़ी में दफ़न किये गये। आपका मक़बरा खोद डाला गया है लेकिन निशाने क़ब्र अभी भी बाक़ी है। मोअल्लिफ़ ने 1972 ई 0 में बा मौक़ा हज उसे देखा है।

जनाबे हमज़ा

आप जनाबे अब्दुल मुत्तलिब के साहब ज़ादे और आँ हज़रत (स अ व व ) के चचा थे। आपकी वालदा का नाम हाला बिन्ते वाहब था जो कि जनाबे आमेना की चचा जा़द बहन थीं। आपने बेसत के छटे साल इस्लाम क़ुबूल किया था। आपने जंगे बद्र में शिरकत की थी और बड़े कारहाय नुमाया किये थे। आप जंगे ओहद में भी शरीक हुए और ज़बर दस्त नबरद आज़माई की। 31 काफ़िरों को क़त्ल करने के बाद आपका पांव फ़िसला और आप ज़मीन पर गिर पड़े। जिसकी वजह से पुश्त से ज़िरह हट गई और मौक़ा पर एक वैहशी नामी हब्शी ने तीर मार दिया और आप दिन बल्कि इसी वक़्त बा तरीख़ 5 शव्वाल 3 हिजरी शहीद हो गये। काफ़िरों ने आप को क़त्ल कर डाला और अमीरे माविया की माँ हिन्दा ने आपका जिगर निकाल कर चबा डाला। इसी लिये अमीरे माविया को अक़ल्लुत अक़बाद कहते हैं। आपकी उम्र 57 साल की थी नमाज़े जनाज़ा रसूले ख़ुदा (स अ व व ) ने पढ़ाई थी। तारीख़ का मशहूर वाक़िया है कि 40 हिजरी में जब अमीरे माविया ने नहर खुदवाई तो शोहदा ए ओहद की क़ब्रे खोदी गईं और इसी सिलसिले में एक तैश (बेलचा) जनाबे हमज़ा के पैर पर लगा जिससे ख़ूने ताज़ा जारी हो गया था।

हज़रत अबू तालिब के बेटे

इब्ने क़तीबा का कहना है कि हज़रत अबू तालिब के चार बेटे थे 1. तालिब , 2. अक़ील , 3. जाफ़र , 4. हज़रत अली (अ.स.) इनमें छोटाई बडा़ई दस साल की थी। दयारे बकरी का कहना है कि दो बहने भी थीं उम्मे हानी और जमाना। तालिब ने जंगे बद्र में मुसलमानों से न लड़ने के लिये अपने को समुन्द्र में गिरा कर डुबा दिया उनकी कोई औलाद नहीं थी। अक़ील आप 590 हिजरी में पैदा हुए थे। आपकी कुन्नियत अबू यज़ीद थी। हुदैबिया के मौक़े पर इस्लाम ज़ाहिर किया और आठ हिजरी में मदीना आ गये आपने जंगे मौतह में भी शिरकत की थी। आप ज़बर दस्त नस्साब थे। आप में अदाए क़रज़ के लिये माविया से मुलाक़ात की थी और बा रवाएते इब्ने क़तीबा तीन लाख अशरफ़ियां हासिल कर ली थीं। आप बड़े हाज़िर जवाब थे। आखि़री उम्र में आप ना बीना हो गये थें आप ने 96 साल की उम्र में 5 हिजरी मुताबिक़ 670 ई 0 में इन्तेक़ाल किया। जाफ़र आप सूरतो सीरत में रसूल अल्लाह (स अ व व ) से बहुत मुशाबेह थे आपने शुरू ही में ईमान जा़िहर किया था। आपने हिजरत हबशा और हिजरते मदीना दोनों में शिरकत की थी। आपको जमादिल अव्वल 8 हिजरी में जंगें मौता के लियेय भेजा गया। आपने अलम ले कर ज़बर दस्त जंग की। आप के दोनों हाथ कट गये। अलम दांतों से संभाला बिल आखि़र शहीद हो गये। आपके लिये आं हज़रत (स अ व व ) ने फ़रमाया है कि उन्हें इनके हाथों के एवज़ ख़ुदा ने जन्नत में ज़मुरदैन पर अता फ़रमाए हैं और आप फ़रिश्तों के साथ उड़ा करते हैं। आपके शहीद होते ही पैग़म्बरे इस्लाम और फातेमा ज़हरा (स अ व व ) असमा बिन्ते उमैस के पास अदाए ताज़ियत के लिये गये। आपने हुक्म दिया की जाफ़र के घर खाना भेजो। आपने 41 साल की उम्र में शहादत पाई। आपके जिस्म पर 90 जख़्म थे। आप ने आठ बेटे छोड़े। जिनकी माँ असमा बिन्ते उमैस थीं। यही अब्दुल्लाह बिन जाफ़र और मोहम्मद बिन जाफ़र ज़्यादा नुमाया थे। यही अब्दुल्लाह हज़रत जै़नब के और मोहम्मद हज़रत उम्मे कुलसूम बिन्ते फातेमा (स अ व व ) के शौहर थे। 4. हज़रत अली (अ. स.) थे।

पैग़म्बरे इस्लाम अबुल क़ासिम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा ( स अ व.व. )

दो टुकड़े एक इशारे में जिसके क़मर हुआ।

जिस दर पा झुक गई है जबीं आफ़ताब की।।

तफ़सीर उसकी ज़ुल्फ़ है वल लैल की निदा।

क्या शान है , जनाबे रिसालत मआब की।।

निदा कलकत्तवी (पेशावर)

ऐ नूर के पुतले तुझे क्या ख़ाक से नसबतं

एहसान तेरा है जो ज़मी पर उतर आया।।

ख़ल्लाक़े आालम ने अपने बन्दों की रहबरी और रहमानी के लिये एक लाख चौबीस हज़ार हादी भेजे जिनमें 313 रसूल बाक़ी नबी थे रसूल में पांच उलुल अज़्म थे इन अम्बिया व रसूल पर ईमान ज़रूरी है। उन्हें मासूम मन्सूस आलिमे इल्मे लदुन्नी और अफ़ज़ले कायनात क़रार दिया गया था। यह न सिर्फ़ बतने मादर बल्कि बदवे फ़ितरत में ही नबी बनाए गये थे जिन्हें ख़ल्लाक़े आलम ने अपने नूरे अज़मत व जलाल से पैदा किया था। वह नूरी थे इनके जिस्म का साया न था।

ख़ालिके कायनात ने इनकी नबूवत व रिसालत को दवाम दे कर इस सिलसिले को ख़त्म कर दिया लेकिन चूंकि सिलसिला तख़लीक़ का जारी रहना मुसल्लम था ज़रूरते तबलीग़ की बक़ा लाज़मी थी लेहाज़ा दाना व बीना ख़ुदा ने अपने अज़ली फ़ैसले के मुताबिक़ बाबे नबूवत इमामत का लाअब्दी दरवाज़ा खोल दिया और बारह इमामों के इन असमा की बज़बाने रसूल वज़ाहत करा दी लौहे महफ़ूज़ में लिखे हुए थे। यह नूरी मख्लूक़ भी साय से बे नियाज़ थे। इन्हें भी खुदा ने मासूम मन्सूस आलमे इल्मे लदुन्नी और अफ़ज़ले कायनात क़रार दिया है। यह हुज्जते ख़ुदा भी हैं और इमामे ज़माना भी उसे ख़ुदा ने इस्लाम की हिफ़ाज़त दीन की सियानत कायनात की इमामत और रसूले ख़ुदा (स अ व व ) की खि़लाफ़त की ज़िम्मेदारी सौंपी है और इस सिलसिले को क़यामत तक के लिये क़ाएम कर दिया है।

आं हज़रत की विलादत बसाअदत

आपके नूरे वजूद की खि़ल्क़त बा रवाएते हज़रत आदम की तख़लीक़ से नौ लाख बरस पहले बा रवाएते 4- 5 लाख क़ब्ल हुई थी। आपका नूरे अक़दस असलाबे ताहेरा और अरहामे मुताहर में होता हुआ जब सुलबे जनाबे अब्दुल्लाह बिन अब्दुल मुत्तलिब तक पहुँचा तो आपका ज़हूरो शहूद बशक्ले इन्सानी बतने जनाबे आमना बिन्ते वहब से मक्काए मोअज़्ज़मा में हुआ।

आँ हज़रत (स अ व व) की विलादत के वक़्त हैरत अंगेज़ वाक़ेयात का ज़हूर

आपकी विलादत से मुताअल्लिक़ बहुत से उमूर रूनुमा हुए जो हैरत अंगेज़ हैं। मसलन आपकी वालदा माजदा को बारे हमल महसूस नहीं हुआ और वह तौलीद के वक़्त कसाफ़तों से पाक थीं। आप मख़्तून और नाफ़ बुरीदा थे। आपके ज़हूर फ़रमाते ही आपके जिस्म से ऐसा नूर साते हुआ जिससे सारी दुनिया रौशन हो गई। आपने पैदा होते ही दोनों हाथों को ज़मीन पर टेक कर सज्दाए ख़ालिक़ अदा किया। फिर आसमान की तरफ़ सर बुलन्द कर के तकबीर कही और ला इलाहा इललल्लाहो इना रसूलल्लाहे ज़बान पर जारी किया। ब रवायते इब्ने वाजेए अल मतूफ़ी 292 हि 0 शैतान को रजम किया गया और उसका आसमान पर जाना बन्द हो गया। सितारे मुसलसल टूटने लगे तमाम दुनिया में ऐसा ज़लज़ला आया कि तमाम दुनिया के कलीसे और दीगर ग़ैर उल्लाह की इबादत करने के मुक़ामात मुन्हदिम हो गये। जादू और कहानत के माहिर अपनी अक़्लें खो बैठे और उनके मुवक्लि मजूस हो गये। ऐसे सितारे आसमान पर निकल आय जिन्हें कभी किसी ने देखा न था। सावा की वह झील जिसकी परसतिश की जाती थी जो काशान में है वह ख़ुश्क हो गई। वादिउस समा जो शाम में है और हज़ार साल से ख़ुश्क पड़ी थी इसमें पानी जारी हो गया। दजला में इस क़दर तगयानी हुई कि इसका पानी तमाम इलाक़ों में फैल गया। महले क़िसरा में पानी भर गया और ऐसा ज़लज़ला आया कि ऐवाने किसरा के 14 कंगूरे ज़मीन पर गिर पड़े और ताक़े किसरा शिग़ाफ़ हो गया और फ़ारस की वह आग जो एक हज़ार साल से मुसलसल रौशन थी फ़ौरन बुझ गई।(तारीख़े अशाअत इस्लाम देवबन्दी पृष्ठ 218 तबाअ लाहौर)

उसी रात को फ़ारस के अज़ीम आलम ने जिसे (मोबज़्ज़ाने मोबज़्ज़न) कहते थे ख़्वाब में देखा कि तुन्द व सरकश और वैहशी ऊँट अरबी घोड़ों को ख़ींच रहे हैं और उन्हे बलादे फ़ारिस में मुताफ़रिक़ करतें हैं। उसने इस ख़्वाब का बादशाह से ज़िक्र किया। बादशाह नवशेरवां किसरा ने एक क़ासिद के ज़रिए से अपने हैराह के गर्वनर नुमान बिन मन्ज़र को कहला भेजा कि हमारे आलम ने एक अजीब व ग़रीब ख़्वाब देखा है तू किसी ऐसे अक़्लमन्द और होशियार शख़्स को मेरे पास भेज दे जो इसकी इतमिनान बख़्श ताबीर दे कर मुझे मुतमईन कर सके। नोमान बिन मन्ज़र ने अब्दुल मसीह बिन उमर अलग़सानी को जो कि बहुत लाएक़ था बादशाह के पास भेज दिया। नवशेरवान ने अब्दुल मसीह से तमाम वाक़ेयात बयान किये और उससे ताबीर की ख़्वाहिश की उसने बड़े ग़ौर व खौज के बाद अर्ज़ कि , ऐ बादशाह शाम में मेरा मामूँ सतीह काहिन रहता है वह इस फ़न का बहुत बड़ा आलिम है वह सही जवाब दे सकता है और इस ख़्वाब की ताबीर बता सकता है। नव शेरवां ने अब्दुल मसीह को हुक्म दिया कि फ़ौरन शाम चला जाए। चुनान्चे वह रवाना हो कर दमिश्क पहुँचा और बा रवायत इब्ने वाज़े बाबे जांबिया में इससे इस वक़्त मिला जब कि वह आलमे एहतिज़ार में था। अब्दुल मसीह ने कान में चीख़ कर अपना मुद्दा बयान किया उसने कहा कि एक अज़ीम हस्ती दुनिया मे आ चुकी है। जब नव शेरवां की नस्ल के 14 मर्दो ज़न हुकमरां कंगूरों के अदद के मुताबिक़ हुकूमत कर चुकेगें तो यह मुल्क इस ख़ानदान से निकल जाऐगा। सुम्मा फ़ज़तन फ़सहू यह कह क रवह मर गया।(रौज़तुल अहबाब जिल्द 1 पृष्ठ 56, सीरते हलबिया जिल्द 1 पृष्ठ 83, हयात अल क़ुलूब जिल्द 2 पृष्ठ 46, अल याक़ूबी पृष्ठ 9 )

आपकी तारीख़े विलादत

आपकी तारीख़े विलादत में इख़्तेलाफ़ है बाज़ मुसलमान 2 रबीउल अव्वल बाज़ 6, बाज़ 12 बताते हैं लेकिन जम्हूरे उलमा अहले तशैय्यो और बाज़ उल्मा अहले तसन्नुन 17 रबीउल अव्वल सन् 1 आमुलफ़ील मुताबिक़ 570 ई 0 को सही समझते हैं।

अल्लामा मजलिसी (अलैरि रहमा) हयात अल क़ुलूब जिल्द 2 पृष्ठ 44 में तहरीर फ़रमाते हैं कि उलमाये इमामिया का इस पर इजमा व इत्तेफ़ाक़ है कि आप 17 रबीउल अव्वल सन् 1 आमुल फ़ील यौमे जुमा शब या बवक़्ते सुबह सादिक़ शुऐब अबी तालीब में पैदा हुए हैं। इस वक़्त नव शेरवां किसरा की हुकूमत का बयालिसवां साल था।

आपका पालन पोषण और आपका बचपना

मुवर्रिख़ ज़ाकिर हुसैन लिखते हैं कि बारवायते आपके पैदा होने से पहले और बारवायते आप दो माह के भी न होने पाए थे कि आपके वालिद आब्दुल्लाह का इन्तेक़ाल ब मुक़ामे मदीना हो गया क्यों कि वहीं तिजारत के लिये गये थे उन्होंने सिवाए पांच ऊँट और चन्द भेडों और एक हबशी कनीज़ बरकत (उम्मे ऐमन) के और कुछ विरसे में न छोड़ा था। हज़रत आमना को हज़रत अब्दुल्लाह की वफ़ात का इतना सदमा हुआ की दूध सूख गया चूंकि मक्का की आबो हवा बच्चों के वास्ते चन्दा मुवाफ़िक़ न थी इस वास्ते क़रीब की बद्दू औरतों में से दूध पिलाने के वास्ते तलाश की गई। अन्ना के दस्तीयाब होने तक अबू लहब की कनीज़ सूबिया ने आं हज़रत (स अ व व ) को तीन चार महीने तक दूध पिलाया। अक़वामे बद्दू की आदत थी कि साल में दो मरतबा मौसमे बहार और मौसमे खि़ज़ां में दूध पिलाने और बच्चे पालने की नौकरी की तलाश में आया करती थीं आखि़र हालीमा सादिया के नसीब ने ज़ोर किया और वह आपको अपने घर ले गईं और आप हलीमा के पास परवरिश पाने लगे।(तारीख़े इस्लाम जिल्द 2 पृष्ठ 32, तारीख़े अबुल फ़िदा जिल्द 2 पृष्ठ 20 )

मुझे इस तहरीर के इस जुज़ से कि रसूले खुदा (स अ व व ) को सूबिया और हलीमा ने दूध पिलाया है इत्तेफ़ाक़ नहीं है। मुवर्रेख़ीन का बयान है कि आप में नमू की क़ुव्वत अपने सिन के एतेबार से बहुत ज़्यादा थी जब तीन माह के हुए तो ख़ड़े होने लगे , और जब सात माह के हुये तो चलने लगे आठवें महीने अच्छी तरह बोलने लगे , नवें महीने इस फ़साहत से कलाम करने लगे कि सुन्ने वालों को हैरत होती थी।

हाशिया:-

1. सतीह एक अजीबउल खि़लक़त इन्सान था। उसके जिस्म में मफ़ासिल यानी जोड़ बन्द न थे। वह उठ बैठ नहीं सकता था , मगर ग़ुस्से के वक़्त उठ बैठता था। उसके बदन में खोपड़ी के सिवा कोई हड्डी न थी। उसके सरो गर्दन न थी और मुँह सीने में था। वह जाबिया में रहता था। जब उसे कहीं ले जाना होता था तो उसे गठरी की तरह बांध लेते थे जब उससे कुछ पूछना मक़सूद होता था तो उसे झींझोड़ते थे फिर वह औंधा हो कर ग़ैब की बाते बताता था। दोनों फ़िरको के उलेमा का बयान है कि वह काहिन था और कहानत के माने ग़ैब की ख़बर देने के हैं। बरवाएते सफ़ीनातुल बिहार उसने हज़रत रसूले करीम (स अ व व ) की नबूवत और हज़रत अली (अ.स.) की खि़लाफ़त और हज़रत मेंहदी (अ.स.) की ग़ैबत की ख़बर दी थी। इसकी उम्र ब रवाएते रौज़तुल अहबाब 600 बरस और ब रवाएते हयात अल क़ुलूब 900 बरस की थी। इन दानों उलमा के बयान में फ़रक़ इस लिये है कि इसकी विलादत बन्दे एरम के टूटने के वक़्त हुई थी और बन्दे एरम टूटने को बाज़ मुवर्रेख़ीन साबेक़ीन ने हज़रत मसीह से 302 बरस पहले और बाज़ ने पहली सदी मसीह के आग़ाज में लिखा है।

मजमाउल बहरीन में है कि काहिन के मानी साहिर के हैं या बाज़ का ख़्याल है कि काहिन के जिन्न ताबे होते हैं। बाज़ का ख़्याल है कि कहानत एक इल्म है जो हिसाब से ताअल्लुक़ रखता है। बाज़ का ख़्याल है कि शैतान जब आसमान पर जाता था तो वहां से ख़बरे लाता था और शैतानी अफ़राद को बताता था। दुनिया में दो बड़े काहन गुज़रे हैं एक शक़ दूसरा सतीह। रसूले करीम (स अ व व ) की विलादत के बाद फ़ने कहानत ख़त्म हो गया था।

अगरचे तक़रीबन तमाम मुवर्रेख़ीन ने सूबिया और हलीमा के मुताअल्लिक़ यह लिखा है कि इन औरतों ने हज़रत रसूले करीम (स अ व व ) को दूध पिलाया था और थोड़े दिनों नहीं बल्कि काफ़ी अर्से तक पिलाया था लेकिन मेरे नज़दीक यह दुरूस्त नहीं है क्यों कि यह दुनिया की किसी तारीख़ मे नहीं है कि किसी नबी को उसकी माँ के अलावा किसी और ने दूध पिलाया हो। हज़रत नूह (स अ व व ) से हज़रत ईसा (स अ व व ) तक के हालात देखे जाऐ कोई एक मिसाल भी ऐसी न मिलेगी जिससे रसूले ख़ुदा (स अ व व ) को हलीमा वग़ैरा के दूध पिलाने की ताईद होती हो और हमे तो ऐसा नज़र आता है कि जैसे क़ुदरत को इस अम्र पर इसरारे शदीद था िकवह अपने नबी को इसकी माँ ही का दूध पिलवाए। मिसाल के लिये हज़रत इब्राहीम (अ.स.) और हज़रत मूसा (अ.स.) का वाक़िया देख लिजये और अन्दाज़ा लगा लिजये कि किन ना साज़गार हालात व वाक़ेयात में उनकी माओं को दूध पिलाने के लिये उन तक पहुँचाया गया और जब ऐसा देखा कि माँ के पहुँचने में देर हो रही है तो खुद उसी बच्चे के अगूँठे से दूध पैदा कर दिया जैसा कि हज़रत इब्राहीम (अ.स.) के लिये हुआ। मतलब यह था कि अगर बच्चे को माँ का दूध दस्तयाब न हो सके तो किसी दूसरे तरीक़े से शिकम सेर हो जाए। इन हालात से मेरी समझ में नहीं आता कि अम्बियाए मा साबक़ के तरीक़े और उसूल से हट कर रसूले करीम (स अ व व ) को माँ के अलावा किसी दूसरी औरत के दूध पिलाने को क्यों कर तस्लीम कर दिया जाए खुसूसन ऐसी सूरत में जब कि यह तसलीम शुदा हो लहमतुल रेज़ा कुलेहमतुल नसब दूध से जो गोश्त पैदा होता है वह नसब के गोश्त व पोस्त के मानिन्द होता है। वयहरम मिन रेज़ा मा यहरमा मन नसब और दूध पीने से वह रिश्ता ना जायज़ हो जाता है जो नसब से ना जायज़ होता है।(मफ़रूदाते इमामे राग़िब असफ़हानी पृष्ठ 62 ) और फिर ऐसी सूरत में जब कि मौजूद थी और अहदे रज़ाअत के बाद तक ज़िन्दा रहीं। मैं तो यह समझता हूँ कि आँ हज़रत (स अ व व ) को जनाबे आमना ने दूध पिलाया था और सूबीया व हलीमा ने उनकी परवरिश व परदाख़्त की थी।

मेरे इस नज़रिये को इससे और तक़वीयत पहुँचती है कि ख़ुदा वन्दे आलम हज़रते मूसा (स अ व व ) के लिए इरशाद फ़रमाता है कि हर मना एलैह अलमराज़ा मन क़बल हमने दूध पिलाये जाने के सवाल से पहले ही तमाम दाईयों के दूध को मूसा (स अ व व ) के लिये हराम कर दिया था।(पारा 20 रूकू 4 ) यह कैसे मुम्किन है कि ख़ुदा वन्दे आलम हज़रते मूसा (स अ व व ) को माँ के अलावा किसी के दूध पीने से बचाने का इतना अहतिमाम करे और फ़ख़रे मूसा (स अ व व ) को इस तरह नज़र अन्दाज़ कर दे कि ऐसी औरतें उन्हें दूध पिलाऐं जिनका इस्लाम भी वाज़े नहीं है।

आपकी सायाए मादरी से महरूमी

आपकी उमर जब 6 साल की हुई तो सायाए मादरी से महरूम हो गये। आपकी वालेदा जनाबे आमना बिन्ते वहब हज़रत अब्दुल्लाह की क़ब्र की ज़्यारत के लिये मदीना गईं थीं वहां उन्होंने एक महीना क़याम किया जब वापिस आने लगीं तो मुक़ाम अबवा (जो कि मदीने से 22 मील दूर मक्का की जानिब वाक़े है) इन्तेक़ाल फ़रमा गईं और वहीं दफ़न हुईं। आपकी ख़ादेमा उम्मे ऐमन आपको मक्का ले आईं।(रौज़तुल अहबाब जिल्द 1 पृष्ठ 67 ) जब आपकी उम्र 8 साल की हुई तो आपको दादा अब्दुल मुत्तलिब का 120 साल की उम्र में इन्तेक़ाल हो गया। अब्दुल मुत्तलिब की वफ़ात के बाद आपके बड़े चचा जनाबे अबू तालिब और आपकी चची जनाबे फातेमा बिन्ते असद ने फ़राएज़े तरबियत अन्जाम दिये और इस शान से तरबियत की कि दुनिया ने आपकी हमदर्दी और ख़ुलूस का लौहा मान लिया। हज़रत अब्दुल मुत्तलिब के बाद हज़रत अबु तालिब भी ख़ाना ए काबा के मुहाफ़िज़ और मुतवल्ली और सरदारे कुरैश थे। हज़रत अली (अ.स.) फ़रमाते हैं कि कोई अरब इस शान का सरदार नहीं हुआ जिस शानों शौकत की सरदारी मेरे पदरे मोहतरम को ख़ुदा ने दी थी।(याक़ूबी जिल्द 2 पृष्ठ 11 )

हज़रत अबु तालिब (अ.स.) को हज़रत अब्दुल मुत्तलिब की वसीयत व हिदायत

बाज़ मुवर्रेख़ीन ने लिखा है कि जब हज़रत अब्दुल मुत्तलिब का वक़्ते वफ़ात क़रीब पहुँचा तो उन्होंने आं हज़रत (स अ व व ) को अपने सीने से लगाया और सख़्त गिरया किया और अपने फ़रज़न्द अबु तालिब की तरफ़ मुतावज्जे हो कर फ़रमाया कि , ऐ अबू तालिब यह तेरे हक़ीकी भाई का बेटा है इस दुरे यगाना की हिफ़ज़त करना , इसे अपना नूरे नज़र और लख़्ते जिगर समझना , इसकी सुरक्षा में कोई कमी न रखना , अपने हाथ , ज़बान औन जान व माल से इसकी मदद करते रहना।(रौज़तुल अहबाब)

हज़रत अबु तालिब (अ.स.) के तिजारती सफ़रे शाम में आं हज़रत (स अ . व . व . ) की हमराही और बहीरा राहिब का वाक़ेया

हज़रत अबू तालिब जो तिजारती सफ़र में अक्सर जाया करते थे जब एक दिन रवाना होने लगे तो आं हज़रत को जिनकी उम्र उस वक़्त बा रवायते तबरी व इब्ने असीर 9 साल और ब रवायते अबुल फ़िदा व इब्ने ख़ल्दून 13 साल की थी , अपने बाल बच्चों में छोड़ दिया और चाहा कि रवाना हो जायें। यह देख कर आं हज़रत (स अ व व ) ने इसरार किया कि मुझे अपने साथ लेते चलिये , आपने यह ख्याल करते हुये कि मेरा भतीजा यतीम है उन्हें अपने साथ ले लिया और चलते चलते जब शहरे बसरा के क़रयए कफ़र पहुँचे जो के शाम की सरहद पर 6 मील के फ़ासले पर वाक़े है जो उस वक़्त बहुत बड़ी मन्डी थी और वहां नस्तूरी ईसाई रहते थे। वहां एक नस्तूरी राहिबों के माअबद के पास क़याम किया। राहिबों ने आं हज़रत (स अ व व ) और अबू तालिब (अ.स.) की बडी ख़ातिर दारी की फिर उनमें से एक ने जिसका नाम जरजीस और क़ुन्नियत अबू अदास और लक़ब बहीरा राहिब था आपके चेहरा ए मुबारक से आसारे अज़मतों जलालत और आला दर्जे के कमालाते अक़ली और महामदे इख़लाक़ नुमायां देख कर और इन सिफ़ात से मौसूफ़ पा कर जो उसने तौरैत और इन्जील और दूसरी आसमानी किताबों में पढ़ी थीं पहचान लिया कि यही पैग़म्बरे आख़ेरूज़ ज़मान हैं। अभी उसने इज़हारे ख़्याल न किया था कि एक दम बादल को हुज़ूर पर साया करते हुए देखा , फिर शाना खुलवा कर मोहरे नबूवत को देखा उसके बाद फ़ौरन मोहरे नबूवत का बोसा (चूमना) लिया और नबूवत की तसदीक़ कर के अबु तालिब से कहा कि इस फ़रज़न्दे अरजूमन्द का दीन तमाम अरब व अजम में फैलेगा और यह दुनिया के बहुत बड़े हिस्से का मालिक बन जायेगा। यह अपने मुल्क को आज़ाद कराऐगा और अपने अहले वतन को नजात दिलायेगा। ऐ अबू तालिब इसकी बड़ी हिफ़ज़त करना और इसको दुश्मनों के अत्याचार से बचाने की पूरी कोशिश करना , देखो कहीं ऐसा न हो कि यह यहूदियों के हाथ लग जाए। फिर उसने कहा कि मेरी राय यह है कि तुम शाम न जाओ और अपना माल यहीं बेच कर के मक्का वापस चले जाओ चुनान्चे अबु तालिब ने अपना माल बाहर निकाला वह हज़रत की बरकत से आन्न फ़ानन बहुत ज़्यादा नफ़े पर फ़रोख़्त हो गया और अबू तालिब मक्का वापस चले गये।(रौज़तुल अहबाब जिल्द 1 पृष्ठ 71, तन्क़ीदुल कलाम पृष्ठ 30, एयर दंग पृष्ठ 24, तफ़रीउल अज़किया वग़ैरा)

आं हज़रत (स अ . व . व . ) का मक्के को रूमीयों के इक़्तेदार से बचाना

जस्टिस अमीर अली बा हवाला तारीख़ कासन डी 0 परसून लिखते हैं कि हुनूज़ का काबा दोबारा तामीर न हो चुका था कि आपने मक्के मोअज़्ज़मा को इस ख़ुफ़िया साज़िश से बचा लिया जो उसकी आजा़दी को मिटाने के लिये की गई थी जिसमें उस्मान बिन हरीर को बड़ा दख़्ल था। उसने क़ुसतुनतुनया के दयारे के दयारे क़ैसरी में जाकर दीने मसीही क़ुबूल कर लिया था और क़ैसरे रूम से मालो ज़र ले कर हिजाज़ वापस आया था। उसकी कोशिश थी कि मक्के पर यूनानियों का इक़्तेदार क़ायम करा दे। वह ख़ुफ़िया कोशिशें कर रहा था लेकिन उसका यह राज़ खुल गया और उसकी वजह यह थी कि आं हज़रत ने उसका मक़सद अपने ज़राये से मालूम कर लिया था। आखि़र में वह हुज़ूर की कोशिशों से नाकामयाब हो गया। अहले फ़िरंग (यूरोपियन) इस बात को मानते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने मौलद व मसकन को कुसतुनतुनया के बादशाहों के क़ब्ज़े से बचा कर मुसलमानों पर बड़ा एहसान किया है जिसकी वजह से वह अब्दी शुक्र गुज़ारी के मुस्तहक़ हैं। यही कुछ इब्ने ख़ल्दून ने भी लिखा है।(तन्क़ीदुल कलाम पृष्ठ 33 )

ख़ाना ए काबा में हजरे असवद को नस्ब करने में आं हज़रत (स . अ . व . व . ) की हिकमते अमली

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि बेअसते पैग़म्बर से पहले क़ुरैश ने यह फ़ैसला किया था कि ख़ाना ए काबा को ढा़ कर फिर से इसकी तामीर की जाये और उसे बलन्द कर दिया जाये। चुनान्चे इसे गिरा कर उसकी तामीर शुरू कर दी गई फिर जब इमारते हजरे असवद के नस्ब करने की जगह तक पहुँची और उसके नस्ब करने का सवाल पैदा हुआ तो क़ुरैश में शदीद इख़्तेलाफ़ पैदा हो गया हर क़बीले का सरदार यह चाहता था कि इस शरफ़ को वह हासिल करें आखि़रकार बहुत कोशिश के बाद यह तय पाया कि कल जो सब से पहले हरम में दाखि़ल हो उसे हकम (फै़सला करने वाला) बना कर इस झगड़े को ख़त्म किया जाये , वह नस्बे हजर के बारे में जो फ़ैसला दे दे उसकी पाबन्दी हर एक को करना होगी।

ग़रज़ कि जब सुबह हुई तो हज़रत रसूले करीम (स अ व व ) सब से पहले हरम में दाखि़ल हुए लिहाज़ा उन्हीं को हकम बना दिया गया। हज़रत ने फ़रमाया कि एक मज़बूत चादर लाई जाए और उसमें हजरे असवद को रखा जाए और चादर के गोशों को हर क़बीले का सरदार पकड़ कर उसे उठाए और मुक़ामे हजर तक लाए , चुनान्चे ऐसा ही किया गया।

फिर जब हजरे असवद बैतुल्लाह के क़रीब आ गया तो हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स अ व व ) ने अपने हाथों से उठा कर उसे नस्ब कर दिया। हुज़ूर (स अ व व ) की इस हिकमते अमली से फ़ितनाए अज़ीम का सद्दे बाब हो गया।(तारीख़ अबुल फ़िदा , जिल्द 2 पृष्ठ 26 वा याक़ूबी जिल्द 2 पृष्ठ 14 )

जनाबे ख़दीजा (स . अ . व . व . ) के साथ आपकी शादी ख़ाना आबादी

जब आपकी उम्र 25 साल की हुई और आपके हुस्ने सीरत , आपकी रास्त बाज़ी (सत्यता) और दयानत की आम शोहरत हो गई और आपको सादिक़ और अमीन का खि़ताब दिया जा चुका तो जनाबे ख़दीजा (स अ व व ) बिन्ते ख़ुवेलद ने जो बहुत ही पाकीज़ा नफ़्स , ख़ुश इख़लाक़ और ख़ानदाने क़ुरैश में सब से ज़्यादा दौलत मन्द थीं ऐसे हाल में अपनी शादी का पैग़ाम पहुँचाया जब कि उनकी उम्र 40 साल की थी। शादी का पैग़ाम मंज़ूर हुआ और हज़रत अबू तालिब (अ.स.) ने निकाह पढ़ा।(तलख़ीस सीरतून नबी अल्लामा शिब्ली पृष्ठ 99 लाहौर 1965 0 ) मुवर्रेख़ीन इब्ने वाज़ेह अलमतूफ़ी 292 ई 0 का बयान है कि हज़रत अबू तालिब ने जो ख़ुतबा ए निकाह पढ़ा था उसकी शुरूआत इस तरह थी।

अलहम्दो लिल्लाहिल लज़ी जाअल्ना मिन ज़रा इब्राहीम व ज़ुर्रियते इस्माईल तमाम तारीफ़ें उस एक ख़ुदा के लिये हैं जिसने हमें नस्ले इब्राहीम और ज़ुर्रियते इस्माईल से क़रार दिया है।(अल याक़ूबी जिल्द दो पृष्ठ 16 मुद्रित नजफ़े अशरफ़)

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि हज़रत ख़दीजा (स अ व व ) का महर 12 औंस सोना और 25 ऊँट मुक़र्रर हुआ जिसे हज़रत अबू तालिब ने उसे समय अदा कर दिया।(मुसलमानाने आलम पृष्ठ 38 प्रकाशित लाहौर) तवारीख़ में है कि जनाबे ख़दीजा (स अ व व ) की तरफ़ से अक़्द पढ़ने वाले उनके चचा अम्र बिन असद और हज़रते रसूले ख़ुदा (स अ व व ) की तरफ़ से हज़रत अबू तालिब (अ.स.) थे।(तारीख़े इस्लाम जिल्द 2 पृष्ठ 87 मुद्रित लाहौर 1962 0 )

एक रवायत में है कि शादी के समय जनाबे ख़दीजा बाकरा थीं , यह वाक़िया निकाह 595 ई 0 का है। मुनाक़िब इब्ने शहरे आशोब में है कि रसूले ख़ुदा (स अ व व ) के साथ ख़दीजा का यह पहला अक़्द था। सीरते इब्ने हशशाम जिल्द 1 पृष्ठ 119 में है जब तक ख़दीजा ज़िन्दा रहीं रसूले करीम (स अ व व ) ने कोई अक़्द नहीं किया।

कोहे हिरा में आं हज़रत (स . अ . व . व . ) की इबादत गुज़ारी

तारीख़ में है कि आपने 38 साल की उम्र में (कोहे हिरा) जिसे जबले सौर भी कहते हैं को अपनी इबादत गुज़ारी की मंज़िल क़रार दिया और उसके एक ग़ार में बैठ कर जिसकी लम्बाई 4 हाथ और चौढ़ाई डेढ़ हाथ थी इबादत करते और ख़ाना ए काबा को देख कर लज़्ज़त महसूस करते थे। यू तो दो दो , चार चार शबाना रोज़ वहां रहा करते थे लेकिन माहे रमज़ान सारे का सारा वहीं गुज़ारते थे।

आपकी बेअसत

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि आं हज़रत (स अ व व ) इसी आलमे तनहाई में मशग़ूले इबादत थे कि आपके कानों में आवाज़ आई या मोहम्मद (स अ व व ) आपने इधर उधर देखा कोई दिखाई न दिया , फिर आवाज़ आई फिर आपने इधर उधर देखा , नागाह आपकी नज़र एक नूरानी मख़लूक़ पर पड़ी वह जनाबे जिब्राईल थे उन्होंने कहा इक़रा पढ़ो , हुज़ूर ने इरशाद फ़रमाया माइक़रा क्या पढ़ूं ? उन्होनें अर्ज़ की इक़रा बइस्मे रब्बेकल लज़ी ख़लक़ फिर आपने सब कुछ पढ़ दिया क्यो कि आपको इल्में क़ुरआन पहले से हासिल था। जिब्राईल (अ.स.) के इस तहरीक़े इक़रा का मक़सद यह था कि नुज़ूले क़ुरआन की इब्तेदा हो जाए। उस वक़्त आपकी उम्र 40 साल 1 दिन की थी। उसके बाद जिब्राईल ने वज़ू और नमाज़ की तरफ़ इशारा किया व अरकात की तादाद की तरफ़ भी हुज़ूर को मुतवज्जे किया चुनान्चे हुज़ूरे आला ने वज़ू किया और नमाज़ पढ़ी आपने सब से पहले जो नमाज़ पढ़ी वह ज़ोहर की थी। फिर हज़रत वहां से अपने घर तशरीफ़ लाये और ख़दीजातुल कुबरा और अली बिन अबी तालिब से वाक़िया बयान फ़रमाया। इन दोनों ने इज़हारे ईमान किया और नमाज़े अस्र इन दोनों ने ब जमाअत अदा की। यह इस्लाम की पहली नमाज़े जमाअत थी जिसमें रसूले करीम (स अ व व ) इमाम और ख़दीजा (स अ व व ) और अली (अ.स.) मासूम थे। आप दरजाए नबूवत पर बदोफ़ितरत ही से फ़ायज़ थे। 27 रजब को मबऊसे रिसालत हुए।(हयातूल कु़लूब , किताब अलमुनतक़ा , मवाहिबुल दुनिया) इसी तारीख़ के नुज़ूले क़ुरआन की इब्तेदा हुई।

हाशिया हज़रत अली बिन अबी तालिब के साबेकु़ल इस्लाम होने के बारे में इतनी ज़्या रवायत व शवाहिद मौजूद है कि अगर उन्हें जमा किया जाय तो एक किताब बन सकती है। हज़रते रसूले करीम (स अ व व ) ने खुद इसकी तसदीक़ फ़रमाई है चुनान्चे दार क़त्नी ने अबू सईद हजरी से इमाम अहमद ने हज़रत उमर से हाकिम ने माअज़ से अक़्ली ने हज़रत आयशा से रवायत की है कि हज़रत रसूले ख़ुदा (स अ व व ) ने अपनी ज़बाने मुबारक से इरशाद फ़रमाया है कि मुझ पर ईमान लाने वालों में सब से पहले अली (अ.स.) हैं। हज़रत अली (अ.स.) खुद इरशाद फ़रमाते हैं :-

سبقتکم الی الاسلام طفلا صغیرا ما بلغت او ان حلمی

मैंने तुम सब से पहले इस्लाम की तरफ़ बढ़ कर उसका ख़ैर मक़दम किया है। यह वाक़िया है उस वक़्त का जब कि मैं बालिग़ भी न हुआ था। शैख़ अल इस्लाम हाफ़िज़ इब्ने हजर असकलानी , तकरीब अल तहज़ीब मुद्रित देहली के पृष्ठ 84 पर कुछ अक़वाल लिखने के बाद लिखते हैं अलमरजाअनहा अव्वलीन असलम तरजीह उसी को है कि आपने सब से पहले इस्लाम ज़ाहिर किया। अल्लामा अब्दुल रहमान इब्ने ख़ल्दून लिखते हैं कि हज़रत ख़दीजा के बाद हज़रत अली इब्ने अबी तालिब ईमान लाये।(तारीख़ इब्ने ख़ल्दून पृष्ठ 295 मुद्रित लाहौर) मुवर्रीख़ अबुल फ़िदा लिखते हैं कि जनाबे ख़दीजा के अव्वल ईमान लाने में और मुसलमान होने में किसी को इख़्तेलाफ़ नहीं , मगर इख़्तिलाफ़ उनके बाद में है कि बीबी ख़दीजा (स अ व व ) के बाद कौन पहले ईमान लाया। साहेबे सीरत और बहुत से अहले इल्म बयान करते हैं कि मर्दों मे सब से पहले हज़रत अली बिन अबी तालिब (अ.स.) 9, 10 या 11 बरस की उम्र में सब से पहले मुसलमान हुए। अफ़ीक़ कन्दी की रवायत से भी इसी की तस्दीक़ होती है जिसमें उन्होंने चशमदीद गवाह की हैसियत से वज़ाहत की है कि मैंने रसूले ख़ुदा (स अ व व ) को नमाज़ पढ़ते हुए बेअसत के फ़ौरन बाद इस आलम में देखा कि उनके पीछे जनाबे ख़दीजा और हज़रत अली (अ.स.) खड़े थे उस वक़्त कोई ईमान न लाया था। इस रवायत को अल्लामा बिन अब्दुल जज़री क़रतबी ने इस्तेयाब जिल्द 2 पृष्ठ 225 मुद्रित हैदराबाद दकन में अल्लामा इब्ने असीर जरज़ी ने असद उलग़ाबा जिल्द 3 पृष्ठ 414 मुद्रित मिस्र में अल्लामा इब्ने जरीर तबरी ने तारीख़े क़दीर जिल्द 2 पृष्ठ 212 मुद्रित मिस्र में अल्लामा इब्ने असीर ने तारीख़े कामिल जिल्द 2 पृष्ठ 20 में दर्ज किया है।

साहेबे तफ़रीह अल अज़किया ने सबीहतुल महफ़िल से नक़्ल किया है कि दोशम्बे को रसूले ख़ुदा (स अ व व ) मबऊसे रिसालत हुए हैं और उसी दिन आखि़रे वक़्त हज़़रत अली (अ.स.) मुशर्रफ़ बा इस्लाम हुए हैं। यही कुछ रौज़तुल अहबाब जिल्द 1 पृष्ठ 83 में भी है। अल्लामा अब्दुल बर ने दावा किया है कि बिल इत्तेफ़ाक़ साबित है कि ख़दीजा के बाद सब से पहले हज़रत अली (अ.स.) मुशर्रफ़ ब इस्लाम हुए हैं। अल्लामा इक़बाल कहते है।

मुस्लिम अव्वल शहे मर्दाने अली -- इश्क़ रा सरमायाए ईमाने अली

वाज़े हो कि हज़रत अली (अ.स.) अज़ल से ही मुसलमान और मोमिन थे , उनके लिये इस्लाम लाने का जुम्ला मुनासिब नहीं है लेहाज़ा जहां कहीं भी तारीख़ में उनके बारे में इस्लाम या ईमान लाने का जुम्ला है इससे इज़हारे इस्लाम वा ईमान समझना चाहिए।

दावते ज़ुल अशीरा का वाक़ेया और ऐलाने रिसालत व वज़ारत

बेअसत के बाद आपने तीन साल तक निहायत राज़दारी और पोशीदगी के साथ फ़रायज़ की अदायगी फ़रमायी इसके बाद खुले बन्दों तबलीग़ का हुक्म आ गया। फ़सद अबेमह तोमर तो हुक्म दिया गया है उसकी तकमील करो। मैं इस मक़ाम पर तारीख़ अबुल फ़िदा के इश्क़ तरजुमा की लफ़्ज़ ब लफ़्ज़ इबारत नक़ल करता हूँ जिसे मौलाना करीम उद्दीन हनफ़ी इंस्पेक्टर मद्रास पंजाब ने 1846 ई 0 में किया था।

वाज़े हो के तीन बरस तक पैग़म्बरे ख़ुदा (स अ व व ) दावते तरफ़े इस्लाम ख़ुफ़िया करते रहे मगर जब कि यह आयत नाज़िल हुई वा अनज़र अशीरतेक़ल अक़रबैन यानी डरा अपने कुन्बे वालों को जो क़रीब रिश्ते के हैं। इस वक़्त हज़रत ने बमुजिब हुक्मे ख़ुदा के इज़हार करना दावत का शुरू किया। बाद नाज़िल होने इस आयत के पैग़म्बरे ख़ुदा (स अ व व ) ने अली से इरशाद किया कि ऐ अली एक पैमाना खाने का मेरे वास्ते तैयार कर और एक बकरी का पैर उस पर छुआ ले और एक बड़ा कासा दूध का मेरे वास्ते ला और अब्दुल मुत्तलिब की औलाद को मेरे पास बुला कर ला ताकि मैं उससे कलाम करूं और सुनाऊँ उनको वह हुक्म जिस पर जनाबे बारी से मामुर हुआ हूँ चुनान्चे हज़रत अली (अ.स.) ने वह खाना एक पैमाना बामोजिब हुक्म तैयार करके औलादे अब्दुल मुत्तलिब को जो करीब 40 आदमी के थे बुलाया , उन आदमियों में हज़रत के चचा अबु तालिब , हज़रते हमज़ा और हज़रते अब्बास भी थे। उस वक़्त हज़रत अली ने वह खाना जो तैयार किया था ला कर हाज़िर किया। सब खा पी कर सेर हो गये। हज़रत अली ने इरशाद किया कि जो खाना इन सब आदमियों ने खाया है वह एक आदमियों की भूख के लिये काफ़ी था। इसी दौरान हज़रत चाहते थे कि कुछ कहूँ कि अबू लहब जल्दी बोल उठा और यह कहा कि मोहम्मद ने बड़ा जादू किया है। यह सुनते ही तमाम आदमी अलग अलग हो गये थे , चले गये। पैग़म्बरे ख़ुद कुछ कहने न पाये थे यह हाल देख कर जनाबे रिसालत माअब (स अ व व ) ने इरशाद किया कि ऐ अली देखा तूने उस शख़्स ने कैसी सबक़त की , मुझको बोलने ही न दिया। अब फिर कल को तैयार कर जैसा कि आज किया था और फिर उनको बुला कर जमा कर। चुनान्चे हज़रत अली (अ.स.) ने दूसरे रोज़ फिर मुवाफ़िक़े आं हज़रत (स अ व व ) खाना तैयार कर के सब लोगों को जमा किया। जब वह खाने से फ़राग़त पा चुके उस वक़्त रसूल अल्लाह (स अ व व ) ने इरशाद किया कि तुम लोगों की बहुत अच्छी क़िस्मत और नसीब है क्यों कि ऐसी चीज़ मैं अल्लाह की तरफ़ से लाया हूँ कि उससे तुम को फ़जी़लत हासिल होती है और ले आया हूँ तुम्हारे पास दुनिया और आख़ेरत में अच्छा। ख़ुदा ताअला ने मुझको तुम्हारी हिदायत का हुक्म फ़रमाया है। कोई शख़्स तुम में से इस अम्र का इक़्तेदा कर के मेरा भाई , वसी और ख़लीफ़ा बनना चाहता है , इस वक़्त सब मौजूद थे और हज़रत पर एक हुजूम था और हज़रत अली ने अर्ज़ किया कि या रसूल अल्लाह (स अ व व ) मैं आपके दुश्मनों को नैज़ा मारूँगा और उनकी आँखें फोड़ दूँगा , पेट चीरूंगा और टांगें काटूगां और आपका वज़ीर हूंगा। हज़रत (स अ व व ) ने उस वक़्त हज़रत अली ए मुर्तज़ा की गरदन पर हाथ मुबारक रख कर इरशाद फ़रमाया कि यह मेरा भाई है और मेरा वसी है और मेरा ख़लीफ़ा है तुम्हारे बीच इसकी सुनो और इताअत क़ुबूल करो। यह सुन कर सब क़ौम के लोग मज़ाक़ में हंस कर खड़े हो गये और अबू तालिब से कहने लगे कि अपने बेटे की बात सुन और इताअत कर यह तुझे हुक्म हुआ है।(अल्ख़ पृष्ठ 33 से 36 मुद्रित लाहौर)

मुवर्रिख़ अबुल फ़िदा मतूफ़ी 732 हिजरी की तहरीर पर मेरा वज़ाहत नोट

आयए अनज़ेरा अशीरतेकल अक़रबैन के नुज़ूल की तफ़सील हज़रत अली (अ.स.) की खि़लाफ़त बिला फ़सल की बुनियाद क़ाएम करती है। इस पर अमले रसूल फ़ेले रसूल (स अ व व ) और क़ौले रसूल (स अ व व ) ने साबित कर दिया कि हज़रत अली (अ.स.) ही रसूले करीम (स अ व व ) के ख़लीफ़ा ए अव्वल और ख़लीफ़ा ए बिला फ़स्ल हैं उन्हीं को उन्होंने अपना जां नशीन बनाया था जिसकी जिसकी तजदीद अपनी ज़िन्दगी के मुख़तलिफ़ अदवार में फ़रमाते रहे यहां तक कि नस्से सरीह आया ए या अयोहल रसूल बल्लिग़ मा उनज़ेला एलैका मिन रब्बक के ज़रिये से ग़दीरे ख़ुम में हजजे आखि़र के मौक़े पर आख़री ऐलान फ़रमाया और वाज़े कर दिया कि मेरे बाद अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) ही मेरे जानशीन और ख़लीफ़ा हैं।

मुवर्रिख़ अबू अल फ़िदा ने इस्लाम की इस पहली और बुनियादी दावते तबलीग़ की मुनासिब वज़ाहत फ़रमा दी है और साफ़ लफ़्ज़ों में वाज़े कर दिया कि हज़रत रसूले करीम (स अ व व ) ने हज़रत अली (अ.स.) को अपना जानशीन और ख़लीफ़ा इसी बुनियादी दावत के मौक़े पर बना दिया था और लोगों को हुक्म दे दिया था कि फ़ इसमऊ इलहे व अतीयहू इनकी बात कान धर कर सुनो और इनकी इताअत करो।

कुछ कमो बेश लफ़्ज़ों के साथ यह वाक़ेया तारीख़ तबरी जिल्द 2 पृष्ठ 217 तारीख़ कामिल बिन असीर जिल्द 2 पृष्ठ 122 लुबाब अलतावील जिल्द 5 पृष्ठ 106 मुआलिमुत तनज़ील बर हशिया ख़ाज़िन जिल्द 6 पृष्ठ 105 ख़साएस निसाई पृष्ठ 13, मसनद अहमद बिन हमबल जिल्द 3 पृष्ठ 360, कनज़ुल माल जिल्द 6 पृष्ठ 397, सीरते इब्ने इसहाक़ , तफ़सीर इब्ने हातिम , दलाएल बहीकी , मुनाक़िब इमामे अहमद , मुसन्निफ़ अबू बकर इब्ने अबी शबीता , तारीख़े ख़मीस , तफ़सीर इब्ने मरदूया , तफ़सीर सिराजे मुनीर , तफ़सीर शिबली , तफ़सीरे वाहेदी , हुलयतुल औलिया , ज़ख़ीरतुल आमाल अजली , मुख़्तारे ज़िया मुक़दसी , तहज़ीब अल आसार तिबरी , इकतेफ़ा आसमी , रौज़तुल अलसफ़ा , हबीब अलसैर , मआरिज अल नबूअता मदारिज अल नबूअता अज़ालतुल ख़फ़ा तारीख़े इस्लाम अब्दुल हकीम नशतर जिल्द 1 पृष्ठ 44 वग़ैरा में मौजूद है। इन इसलामी किताबों के अलावा इसका तज़किरा अहले फिरगं की तसनीफ़ात में भी है। मुलाहेज़ा हो अपालोजी जान डीवन पोस्ट पृष्ठ 5, कारलायल पृष्ठ 61 ख़ुल्फ़ा मोहम्मद एयरविंग पृष्ठ 3 तारीख़े गिबन जिल्द 3 पृष्ठ 499, ओकली पृष्ठ 15।

दावते ज़ुल अशीरा के सिलसिले में यह अमर क़ाबिले ज़िक्र है कि इस अहम वाक़ेए का ज़िक्र इमाम बुख़ारी ने अपनी सही में नहीं किया जिससे उनकी ज़ेहनियत का पता चलता है नीज़ यह कि जरमन में जो तारीख़े तबरी छपी है इसकी जिल्द 9 पृष्ठ 68 में वसी व ख़लीफ़ती के बजाय कज़ा व कज़ा दरज है जिससे अहले मिस्र की तहरीफ़ी जद्दो जेहद का अन्दाज़ा लगाया जा सकता है , वाज़े हो कि दावते ज़ुल अशीरा का वाक़ेया 4 बेअसत का है।

हिजरते हब्शा 5बेअसत

ऐलाने नबूवत के बाद अरब की ज़मीन और अरब के आसमान यानी अपने पराये सब दुश्मन हो गये। उन दुश्मनों में अबू सुफ़ियान , अबू जेहल और अबू लहब ख़ास थे। उन लोगों ने आप पर गंदगी डालना और आपको जादूगर और मजनून (पागल) कह कर सताना अपना तरीक़ा बना लिया था। बाज़ मुवर्रेख़ीन का कहना है कि दुश्मनों ने एक दफ़ा कम्बल उढ़ा कर मार डालने का इरादा कर लिया था। इस तरह के मसाएब और ज़ुल्म से जब आं हज़रत (स अ व व ) और आपके पैरव परेशान हुए और आपने महसूस कर लिया कि मुसलमान की हैसियत से मक्के में ज़िन्दगी के दिन गुज़ारना मुश्किल है तो हिजरते हब्शा का फ़ैसला कर के अपने असहाब को हिकमत का हुक्म दिया चुनान्चे 5 बेअसत में 100 सौ मर्द , औरतों ने हिजरत की और हबश पहुंच गये। हबश का बादशाह नजाशी( 1 ) था जो नस्तूरी फ़िरक़े का ईसाई था। उसने इन लोगों की आओ भगत की और इनका ख़ैर मक़दम किया मगर दुश्मनों ने वहां पहुँच कर कोशिश की कि यह लोग ठहरने न पाएं लेकिन वह कामयाब न हुये।

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि इन हिजरत करने वालों में जाफ़रे तय्यार भी थे जो उनमें सरबराह की हैसियत रखते थे। यह लोग 7 हिजरी तक वहीं क़याम करते रहे और फ़तेह ख़ैबर के मौक़े पर वापस आये , उनकी वापसी पर रसूले करीम (स अ व व ) ने फ़रमाया था कि मैं हैरान हूँ कि दो ख़ुशियों में से किस को तरजीह दूँ। मैं फ़तेह ख़ैबर की ख़ुशी को अहम समझूं या जाफ़रे तय्यार वग़ैरा की वापसी को अहमियत दूं।

अल ग़रज़ हिजरते हब्शा के सिलसिले में कुफ़्फ़ारे मक्का को जब मालूम हुआ कि यहां के वह बाशिन्दे जो मुसलमान होते हैं चुपके से हबशा चले जाते हैं और वहां आराम से बसर करते हैं तो उनकी दुश्मनी और ज़िद व क़द और बढ़ गयी और उन्होंने बारवायते इब्ने असीर अब्दुल्लाह बिन उमय्या को उमरे आस ( 2) के साथ नजाशी और अराकीने सलतनत के वास्ते हदिया व तहायफ़ रवाना किया , इन दोनों ने हबशा पहुँच कर नजाशी को मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से भड़काना चाहा मग रवह न भड़का और मुसलमानों की हिमायत करता रहा आखि़रकार यह लोग ख़ायब व ख़ासिर वापस आये।

हज़रते रसूले करीम (स . अ . व . व . ) दारूल अरक़म में 6 बेअसत

मुवर्रिख़ ज़ाकिर हुसैन बा हवाला सीरत इब्ने हश्शाम कहते हैं कि जब मुसलमान हबशा की तरफ़ महाजेरत कर गये तो भी रसूल अल्लाह (स अ व व ) बराबर वाअज़ फ़रमाते रहे और नये नये लोग दीने इस्लाम में दाखि़ल होते रहे , कुफ़्फ़ार ने यह देख कर आं हज़रत (स अ व व ) को और ज़्यादा सताना शुरू कर दिया नाचार आं हज़रत (स अ व व ) अपने बचे हुये असहाब को साथ ले कर अरक़म बिन अबी अरक़म बिन अब्दे मनाफ़ बिन असद के मकान में एक महीने तक रहे। यह मकान कोहे पृष्ठ के ऊपर वाक़े था। आप वहां लोगों को इस्लाम की तरफ़ दावत देते थे।(तारीख़े इस्लाम जिल्द 2 पृष्ठ 52 )


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