चौदह सितारे

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चौदह सितारे लेखक:
कैटिगिरी: शियो का इतिहास

चौदह सितारे
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चौदह सितारे

चौदह सितारे

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


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किताब जफ़र व जामेअ

किताब जफ़रो जामोआ के मुताअल्लिक़ उलेमा के बयानात मुख़्तलिफ़ हैं। मौलवी वहीदुज़्ज़मा हैदराबादी अपनी किताब अनवारूल लुग़ता के पारा 5 पृष्ठ 15 पर लिखते हैं कि आं हज़रत (स अ व व ) ने अमीरूल मोमेनीन अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) को दो किताबें लिखवा दीं थीं।

‘‘ एक जफ़र दूसरी जामेए ’’ एक किताब तो बकरी की खाल पर थी , दूसरी भेड़ की खाल पर और उसमे क़यामत तक जितनी बातें होने वाली थीं वह सब मुजमिलन लिखवा दी थीं। सय्यद शरीफ़ ने शरह मवाफ़िक़ में नक़ल किया है कि जफ़र और जामए दो किताबें हैं जो हज़रत अली (अ.स.) के पास थीं। इनमें अज़ रूए क़वाएद , इल्मे हुरूफ़ व तकसीर बड़े बड़े हवादिस का बयान था जो क़यामत तक होने वाले थे और आपकी औलाद मे जो इमाम गुज़रे वह इन्हीं किताबों को देख कर अकसर उमूर की ख़बर देते थे।

किताब बहरे मुहीत में है कि इल्मे जफ़र और इल्मे तकसीर एक ही हैं , यानी सायल के सवाल के हुरूफ़ में तसर्रूफ़ और तग़य्युर कर के सवाल का जवाब निकालना।

अल्लामा शिब्लंजी अपनी किताब नूरूल अबसार के पृष्ठ 133 पर बा हवाला हयातुल हैवान दमीरी लिखते हैं कि इब्ने क़तीबा ने किताबे अदब अल कातिब में लिखा है कि किताब अल जफ़र हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की लिखी हुई है। इसमें वह तमाम चीज़ें हैं जो क़यामत तक दुनियां में रूनूमा होंगी।

अल्लामा इब्ने तल्हा शाफ़ेई अपनी किताब मतालेबुस सूऊल के पृष्ठ 214 में किताब अल जफ़र का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि ‘‘ होआमन कलामेह ’’ यह किताब आप ही की तसनीफ़ है। यही इबारत बिल्कुल इसी तरह शवाहेदुन नबूवत मुल्ला जामी के पृष्ठ 187 प्रकाशित लखनऊ 1905 में भी मौजूद है। तारीख़ से मालूम होता है कि आप जफ़र व जामेए के अलावा जफ़रे अहमर व जफ़रे अबयज़ और मुसहफ़े फ़ात्मा के भी मालिक थे और आप को ख़ुदा ने इल्मे ग़ाबिर व मज़बूर नुक़त व नक़र से बहरावर फ़रमाया था। अल्लामा जामी शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 187 में और अल्लामा अरबली कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 97 में फ़रमातें हैं कि हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) फ़रमाया करते थे , हमें आईन्दा और गुज़िश्ता का इल्म और इल्हाम की सलाहियत और मलायका की बातें सुन्ने की ताक़त दी गई है। मेरे ख़्याल में यही आलिमे इल्मे लदुन्नी होने की दलील है जो जानशीने पैग़म्बर (स अ व व ) होने के सुबूत में पेश किया जा सकता है।

साहेबे मजमाउल बैहरैन इसकी ताईद करते हुए लिखते हैं कि जफ़र व जामया में क़यामत तक होने वाले सारे वाक़ेयात मुन्दरिज हैं। यहां तक कि इस में ख़राश लग जाने की भी सज़ा का ज़िक्र है और एक ताज़याना बल्कि आधा ताज़याना (कोड़ा) का भी हुक्म मौजूद है।

किताबे अलहिलीचिया

अल्लामा मजलिसी ने किताब बेहारूल अनवार की जिल्द 2 में हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की किताब अलहिलीचिया को मुकम्मल तौर पर नक़ल फ़रमाया है। इस किताब के तसनीफ़ करने की ज़रूरत यूं महसूस हुई कि एक हिन्दुस्तानी फ़लसफ़ी हज़रत की खि़दमत मे हाज़िर हुआ और उसने आलीयात और मा बादत तबीआत पर हज़रत से तबादला ए ख़्यालात करना चाहा। हज़रत ने उससे निहायत मुकम्मल गुफ़्तुगू की और इल्मे कलाम से उसूल पर दहरियत और मादीयत को फ़ना कर छोड़ा , उसे आखि़र में कहना पड़ा कि आपने अपने दावे को इस तरह साबित फ़रमा दिया है कि अरबाबे अक़ल को माने बग़ैर चारा नहीं। तवारीख़ से मालूम होता है कि हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने हिन्दी फ़लसफ़ी से जो गुफ़्तुगू की थी उसे किताब की शक्ल में जमा कर के बाबे अहले बैत के मशहूर मुताकल्लिम जनाब मुफ़ज़ल बिन उमर अल जाफ़ी के पास भेज दिया था और यह लिखा था कि ,

‘‘ ऐ मुफ़ज़ल मैंने तुम्हारे लिये एक किताब लिखी है जिसमें मुन्करीने ख़ुदा की रद की है और उसके लिखने की वजह यह हुई कि मेरे पास हिन्दुस्तान से एक तबीब (फ़लसफ़ी) आया था और उसने मुझसे मुबाहेसा किया था। मैंने जो जवाब उसे दिया था , उसी को क़लम बन्द कर के तुम्हारे पास भेज रहा हूँ। ’’

हज़रत सादिक़े आले मोहम्मद (अ स ) के फ़लक़ वक़ार शार्गिद

हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के शार्गिदों का शुमार मुश्किल है। बहुत मुम्किन है कि आईन्दा सिलसिला ए तहरीर में आपके बाज़ शार्गिदों का ज़िक्र आता जाय। आम मुवर्रेख़ीन ने बाज़ नामों को ख़ुसूसी तौर पर पेश कर के आपकी शार्गिदी की सिल्क में पिरो कर उन्हें मोअज़्ज़ज़ बताया है। मतालेबुस सूऊल , सवाएक़े मोहर्रेक़ा , नूरूल अबसार वग़ैरा में इमाम अबू हनीफ़ा , यहीया बिन सईद अन्सारी , इब्ने जरीह , इमाम मालिक इब्ने अनस , इमाम सुफ़ियान सूरी , सुफ़ियान बिन अयनिया , अय्यूब सजिस्तानी वग़ैरा का आपके शार्गिदों में ख़ास तौर पर ज़िक्र है। तारीख़ इब्ने ख़लक़ान जिल्द 1 पृष्ठ 130 और ख़ैरूद्दीन ज़र कली की अल्ल आलाम पृष्ठ 183 प्रकाशित मिस्र मोहम्मद फ़रीद वजदी की इदारा मायफ़ल क़ुरआन की जिल्द 3 पृष्ठ 109 प्रकाशित मिस्र में है ‘‘ वा काना तलमीना अबू मूसा जाबिर बिन हय्यान अल सूफ़ी अल तरसूसी ’’ आपके शार्गिदों में जाबिर बिन हय्यान सूफ़ी तरसूसी भी हैं। आपके बाज़ शार्गिदों की जलालत क़द्र और उनकी तसानीफ़ और इल्मी खि़दमात पर रौशनी डालनी तो बे इन्तेहा दुशवार है। इस लिये इस मक़ाम पर सिर्फ़ जाबिर बिन हय्यान तरसूसी जो कि इन्तेहाई बा कमाल होने के बवजूद शार्गिदे इमाम की हैसियत से अवाम की नज़रों से पोशीदा हैं , का ज़िक्र किया जाता है।

इमामुल कीमिया जनाबे जाबिर इब्ने हय्यान तरसूसी

आपका पूरा नाम अबू मूसा जाबिर बिन हय्यान बिन अब्दुल समद अल सूफ़ी अल तरसूसी अल कूफ़ी है। आप 742 ई 0 में पैदा हुए और 803 ई 0 में इन्तेक़ाल फ़रमा गए। बाज़ मोहक़्क़ेक़ीन ने आपकी वफ़ात 813 ई 0 बताई है लेकिन इब्ने नदीम ने 777 ई 0 लिखा है।

इन्साईकिलो पीडिया आफ़ इस्लामिक हिस्ट्र में है कि उस्तादे आज़म जाबिर बिन हय्यान बिन अब्दुल्लाह , अब्दुल समद कूफ़ै में पैदा हुए। वह तूसी उल नस्ल थे और आज़ाद नामी क़बीले से ताअल्लुक़ रखते थे , ख़्यालात में सूफ़ी थे और यमन के रहने वाले थे। अवाएल उम्र में इल्मे तबीआत की तालीम अच्छी तरह हासिल कर ली और इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) इब्ने इमाम मोहम्मद बाक़र (अ.स.) की फ़ैज़े सोहबत से इमाम उल फ़न हो गए।

तारीख़ के देखने से मालूम होता है कि जाबिर बिन हय्यान ने इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की अज़मत का एतराफ़ करते हुए कहा है कि सारी कायनात में कोई ऐसा नहीं जो इमाम की तरह सारे उलूम पर बोल सके।

तारीख़े आइम्मा में हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की तसनीफ़ात का ज़िक्र करते हुए लिखा है कि हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने एक किताब कीमीया , जफ़र रमल पर लिखी थी। हज़रत के शार्गिद व मशहूर मारूफ़ कीमिया गर जाबिर बिन हय्यान जो यूरोप में जबर के नाम से मशहूर हैं , जिनको जाबिर सूफ़ी का लक़ब दिया गया था और जुनूनन मिस्री की तरह वह भी इल्मे बातिन से ज़ौक़ रखते थे। इन जाबिर बिन हय्यान ने हज़ारों वरक़ की एक किताब तालीफ़ की थी जिसमें हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के पांच सौ रिसालों को जमा किया था। अल्लामा इब्ने ख़लकान किताब दफ़ियात इला अयान जिल्द 1 पृष्ठ 130 प्रकाशित मिस्र में हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं।

हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के मक़ालात इल्मे कीमिया और इल्मे जफ़र व फ़ाल में मौजूद हैं और आपके शार्गिद थे जाबिर बिन हय्यान सूफ़ी तरसूसी जिन्होंने हज़ार वरक़ की एक किताब तालीफ़ की थी जिसमें इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के पांच सौ रिसालों को जमा किया था। अल्लामा ख़ैरूद्दीन ज़रकली ने भी अल आलाम जिल्द 1 पृष्ठ 182 प्रकाशित मिस्र में यही कुछ लिखा है। इसके बाद तहरीर किया है कि उनकी बेशुमार तसानीफ़ हैं जिनका ज़िक्र इब्ने नदीम ने अपनी फ़ेहरिस्त में किया है। अल्लामा मोहम्मद फ़रीद वजदी ने दायरा ए मआरेफ़ुल क़ुरआन अल राबे अशर की जिल्द 3 पृष्ठ 109 प्रकाशित मिस्र में भी लिखा है कि जाबिर बिन हय्यान ने इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के पांच सौ रसायल को जमा कर के एक किताब हज़ार सफ़हे की तालीफ़ की थी। अल्लामा इब्ने ख़ल्दून ने भी मुक़दमा ए इब्ने ख़ल्दून मतबूआ मिस्र पृष्ठ 385 में इल्मे कीमिया का ज़िक्र करते हुए जाबिर बिन हय्यान का ज़िक्र किया है और फ़ाज़िल हंसवी ने अपनी ज़ख़ीम तसनीफ़ किताब और किताब ख़ाना ग़ैर मतबूआ में बा हवाला ए मुक़द्दमा इब्ने ख़ल्दून पृष्ठ 579 प्रकाशित मिस्र लिखा है कि जाबिर बिन हय्यान इल्मे कीमिया के ईजाद करने वालों का इमाम है बल्कि इस इल्म के माहेरीन ने इसको जाबिर से इस हद तक मख़सूस कर दिया है कि इस इल्म का नाम ‘‘ इल्मे जाबिर ’’ रख दिया है।(अल जव्वाद शुमारा 11 जिल्द 1 पृष्ठ 9 )

मुवर्रिख़ इब्नुल क़त्फ़ी लिखते हैं कि जाबिर बिन हय्यान को इल्मे तबीआत और कीमिया में तक़द्दुम हासिल है। इन उलूम में उसने शोहरा ए आफ़ाक़ किताबें तालीफ़ की हैं। इनके अलावा उलूमे फ़लसफ़ा वग़ैरा में शरफ़े कमाल पर फ़ाएज़ थे और यह तमाम कमालात से भर पूर होना इल्मे बातिन की पैरवी का नतीजा था। मुलाहेज़ा हो ,(तबक़ातुल उमम , पृष्ठ 95 व अख़बारूल हुक्मा पृष्ठ 111 प्रकाशित मिस्र)

पयामे इस्लाम जिल्द 7 पृष्ठ 15 में है कि वही ख़ुश क़िस्मत मुसलमान है जिसे हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की शार्गिदी का शरफ़ हासिल था। इसके मुताअल्लिक़ जनवरी 25 ई 0 में साईंस प्रोग्ररेस नवीशता ए जे 0 होलम यार्ड एम 0 ए 0 एफ़ 0 आई 0 सी 0 आफ़ीसरे आला शोबा ए र्साइंस कफ़टेन कालेज ब्ररिस्टल ने लिखा है कि इल्मे कीमिया के मुतअल्लिक़ ज़माना ए वस्ता की अकसर तसानीफ़ मिलती हैं। जिसमें ‘‘ गेबर ’’ का ज़िक्र आता है और आम तौर पर गेबर या जेबर दर अस्ल ‘‘ जाबिर ’’ हैं। चुनान्चे जहां कहीं भी लातीनी कुतुब में गेबर का ज़िक्र आता है वहां मुराद अरबी माहिरे कीमिया जाबिर बिन हय्यान ही है। जिसे जे के बजाय गे आसानी से समझ में आ जाता है , लातानी में (जे) से मिलती जुल्ती आवाज़ और बाज़ इलाक़ों मसलन मिस्र वग़ैरा में (जे) को अब भी बतौर (जी) यानी गाफ़ इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा ख़लीफ़ा हारून के ज़माने में साईंस कमेस्ट्री वग़ैरा का चरचा बहुत हो चुका है और इस इल्म के जानने वाले दुनिया के गोशे गोशे से खिंच कर दरबारे खि़लाफ़त से मुन्सलिक हो रहे थे। जाबिर इब्ने हय्यान का ज़माना भी कमो बेश इसी दौर में था। पिछले 20, 25, साल में इंगलिस्तान और जर्मनी में जाबिर के मुतअल्लिक़ बहुत सी तहक़ीक़ात हुई हैं। लातीनी ज़बाना में इल्मे कीमिया के मुताअल्लिक़ चंद कुतुब सैकड़ों साल से इस मुफ़क्किर के नाम से मन्सूब हैं। जिसमें मख़सूस 1. समा , 2. बरफ़ेकशन , 3. डी इन्वेस्टीगेशन परफ़ेक्शन , 4. डी इन्वेस्टीगेशन वर टेलेक्स , 5. टीटा बहन , लेकिन इन किताबों के मुताअल्लिक़ अब तक उक तूलानी बहस है और इस वक़्त तक मुफ़क़्के़रीने योरोप इन्हें अपने यहां की पैदावार बताते हैं। इस लिये उन्हें इसकी ज़रूरत महसूस होती है। जाबिर को हर्फ़ (जी) (गाफ़) गेबर से पुकारें और बजाय अरबी नस्ल के उसे यूरोपियन साबित करें। हांलाकि समा के कई प्रकाशित शुदा ऐडीशनों में गेबर को अरब ही कहा गया है। रसल के अंगे्रज़ी तरजुमे में उसे एक मशहूर अरबी शाहज़ादा और मन्तक़ी कहा गया है।

1541 ई 0 में की नूरन बर्ग कि एडिशन में वह सिर्फ़ अरब है। इसी तरह और बहुत से क़ल्मी नुसख़े ऐसे मिल जाते हैं जिनमें कहीं उसे ईरानियों के बादशाह से याद किया गया है किसी जगह उसे शाह बन्द कहा गया है। इन इख़्तेलाफ़ात से समझ में आता है कि जाबिर बर्रे आज़म एशिया से न था बल्कि इस्लामी अरब का एक चमकता सितारा था।

इन्साईकिलो पीडिया आफ़ इस्लामिक कैमिस्ट्री के मुताबिक़ जाफ़र बर मक्की के ज़रिये से जाबिर बिन हय्यान का ख़लीफ़ा हारून रशीद के दरबार में आना जाना शुरू हो गया चुनान्चे उन्होंने ख़लीफ़ा के नाम से इल्मे कीमिया में एक किताब लिखी जिसका नाम ‘‘ शुगूफ़ा ’’ रखा। इस किताब में उसने इल्मे कीमिया के जली व ख़फ़ी पहलूओं के मुताअल्लिक़ निहायत मुख़्तसर तरीक़े , निहायत सुथरा तरीक़े अमल और अजीबो ग़रीब तजरबात बयान किये। जाबिर की वजह से ही कुस्तुनतुनया से दूसरी दफ़ा यूनानी कुतुब बड़ी तादात में लाई गई।

मन्तिक़ में अल्लामा ए दहर मशहूर हो गया और 90 साल से कुछ ज़्यादा उम्र में उसने तीन हज़ार किताबें लिखीं और इन किताबों में से वह बाज़ पर नाज़ करता था। अपनी किसी तसनीफ़ के बारे में उसने लिखा है कि रूए ज़मीन पर हमारी इस किताब के मिस्ल एक किताब भी नहीं है न आज तक ऐसी किताब लिखी गई है और न क़यामत तक लिखी जायेगी।(सरफ़राज़ 2 दिसम्बर 1952 0 )

फ़ाज़िल हंसवी अपनी किताब ‘‘ किताब व किताब ख़ाना ’’ में लिखते हैं कि जाबिर के इन्तेक़ाल के दो बरस बाद इज़्ज़ उद दौला इब्ने मुइज़्ज़ उद दौला के अहद में कूफ़े के शारेह बाबुश शाम के क़रीब जाबिर की तजरूबे गाह का इन्केशाफ़ हो चुका है। जिसको खोदने के बाद बाज़ क़दीमी मख़तूतात ब्रिटिश मियूज़ियम में अब तक मौजूद हैं। जिनमें से किताब उल ख़वास क़ाबिले ज़िक्र है। इसी तरह फ़ुस्ते वस्ता में बाज़ किताबों का तरजुमा लातीनी में किया गया। इन किताबों के अलावा इन अनुवादों के सिबअईन भी हैं जो नाक़िसों ना तमाम है।

‘‘ इसी तरह अल बहस अनल कमाल ’’ का तरजुमा भी लातीनी में किया जा चुका है। यह किताब लातीनी ज़बान में कीमिया पर यूरोप की ज़बान में सब से पहली किताब है। इसी तरह और दूसरी किताबें भी अनुवादित हुई हैं। जाबिर ने कीमिया के अलावा तबीयात , हैय्यत इल्मे रोया , मन्तिक़ , तिब और दूसरे उलूम पर भी किताबें लिखीं। इसकी एक किताब समीयत पर भी है जो कुत्बे ख़ाना ए तैमूरिया क़ाहेरा मिस्र में मौजूद है। इनमें चन्द ऐसे मक़ालात को जो बहुत मुफ़ीद थे बाद करह हुरूफ़ ने रिसाला ए मक़ततफ़ जिल्द 58. 59 में शाया किये हैं। मुलाहेज़ा हो ,(मोअज्जमुल मतबूआत अल अरबिया अल मोअर्रेबा जिल्द 3 हरफ़ जीम पृष्ठ 665 )

जबिर ब हैसियत एक तबीबी के काम करता था लेकिन इसकी तिब्बी तसानीफ़ हम तक न पहुंच सकीं। हालां कि इस मक़ाले का लिखने वाला यानी डाक्टर माक्स मी यरहाफ़ ने जाबिर की किताब को जो समूूम पर है हाल ही में मालूम कर लिया।

जाबिर की एक किताब जिसको मय मतन अरबी और तरजुमा फ़्रानसीसी पोल कराओ मुशर्तरक ने 1935 ई 0 में शाया किया है ऐसी भी है जिसमें उसने तारीख़ इन्तेशार आराद अक़ाएद व अफ़कार हिन्दी यूनानी और इन तग़य्यूरात का ज़िक्र किया है जो मुसलमानों ने किए हैं। इस किताब का नाम ‘‘ एख़राज माफ़िल क़ूव्वत इल्ल फ़ेल ’’ है।(अल जवाद जिल्द 10 पृष्ठ 9 प्रकाशित बनारस)

प्रोफ़ेसर रसकार की रद मेरे बयान से यह यक़ीनन वाज़ेह हो गया कि मुवर्रेख़ीन इस पर मुत्तफ़िक़ है कि जाबिर बिन हय्यान इस्लाम का मोअजि़्ज़ कीमिया गर हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) का शार्गिद था। लेकिन मिस्टर प्रोफ़ेसर रसकार ने इल्मे कीमिया के बारे में जो रिसाला शाया किया है उसमें जाबिर इब्ने हय्यान के उन दावों को ग़लत और जाली बताया है जो इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की शार्गिदी की तरफ़ मन्सूब है। इसकी दलील यह है कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को इल्मे कीमिया और साईंस से क्या वास्ता और इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की हैसियत का इमाम पारे , गन्धक , खटाई और फुकनी के इस्तेमाल में मसरूफ़ हो यह कैसे हो सकता है। मैं मौसूफ़ के जवाब में कहता हूँ कि मौसूफ़ ने कोई माक़ूल वजह इन्कार की बयान नहीं फ़रमाई। तारीख़ों को सुबूत पेश करना सुबूत के लिये काफ़ी है और उनके इन्कार से अदम शर्मिंन्दगी की दलील नहीं क़ायम की जा सकती। यह कब ज़ुरूरी है कि जाबिर बिन हय्यान जैसे ज़की व ज़ेहीन शार्गिद को बच्चों की तरह बैठ कर अमल कर के दिखाया हो। ज़ैहीन तालिबुल इल्मों को ज़बानी तालीम दी जाती है और अगर इसी तरह तालीम दी हो जिस तरह एतेराज़ करने वालों का ख़्याल है , तब भी कोई हर्ज नहीं है।

इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) जैसा उस्ताद उलूम को फ़ैलाने के लिये पारा और गन्धक , खटाई और फुकनी में कुछ देर मसरूफ़ रह सकता है और यह कोई एतेराज़ की बात नहीं हो सकती , मुम्किन है कि हज़रत ने जुमला उलूम के उसूल तालीम फ़रमा दिये हों और जाबिर ने उन्हें वसअत दे दी हो। मिसाल के लिये मुलाहेज़ा हो , किताब मनाक़िब में है कि हज़रत अली फ़रमाते हैं , अल मनी रसूल अल्लाह (स अ व व ) अलीफ़ बाब , आं हज़रत (स अ व व ) ने मुझे उलूम के एक हज़ार बाब तालीम फ़रमाये और मैंने हर बाब से हज़ार हज़ार बाब खुद पैदा किये। किताब मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 58 में है कि हज़रत अली (अ.स.) ने इल्मे नहो के उसूल अबु असवद दवेली को तालीम फ़रमाये फिर उसने तमाम तफ़सीलात मुकम्मल किये , हो सकता है कि इसी उसूल पर जाबिर को तालीम दी गई हो।

जाबिर बिन हय्यान की वफ़ात इन्साईकिलो पीडिया आफ़ इस्लामिक कैमिस्ट्री से मालूम होता है कि जाबिर बिन हय्यान की उम्र 90 साल से कुछ ज़्यादा थी। मिस्टर जाफ़र बारहवी ने उनकी विलादत और वफ़ात के बारे में सरफ़राज़ 17 नवम्बर 1952 ई 0 में जो कुछ तहरीर किया है उसी को नक़ल करते हुए मिस्टर क़मर रज़ा ने पयामे इस्लाम जिल्द 7 पृष्ठ 15, 16, 26 जुलाई 1953 ई 0 में लिखा है कि जाबिर बिन हय्यान 722 ई 0 में पैदा हुए और उन्होंने 803 ई 0 में इन्तेक़ाल किया और बाज़ का कहना है कि 813 ई 0 तक ज़िन्दा रहे। इसके बाद लिखते हैं कि इब्ने नदीम ने उनकी वफ़ात 777 ई 0 में बताई है और मेरे नज़दीक यही ठीक है। मेरी समझ में नहीं आता कि मौसूफ़ ने इब्ने नदीम के फ़ैसले को क्यों कर तसलीम कर लिया , इस लिये कि अगर विलादत का सन् सही है तो फिर इब्ने नदीम का बयान मानने लायक़ नहीं क्यों कि अगर वह 722 ई 0 में पैदा हुए थे और 777 ई 0 में वफ़ात पा गये तो गोया उनकी उम्र सिर्फ़ 55 साल की हुई जो इतने साहेबे कमाल के लिये क़रीने क़यास नहीं है। मेरे नज़दीक़ इन्साईकिलो पीडिया वाले की तहक़ीक़ सही है वह 90 साल से कुछ ज़्यादा उनकी उम्र बताता है जो हिसाब के एतेबार से सही है क्यों कि विलादत 722 ई 0 और वफ़ा 813 ई 0 में तसलीम करने के बाद उनकी उम्र 91 साल होती है और यह उम्र ऐसे बा कमाल के लिये होनी मुनासिब है।

सादिक़े आले मोहम्मद (अ.स.) के इल्मी फ़ुयूज़ व बरकात

हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) जिन्हें रासेख़ीन फिल इल्म में होने का शरफ़ हासिल है और जो इल्मे अव्वलीन व आख़ेरीन से आगाह और दुनिया की तमाम ज़बानों से वाक़िफ़ हैं। जैसा कि मुवर्रेख़ीन ने लिखा है , मैं उनके तमाम इल्मी फ़यूज़ व बरकात पर थोड़े अवराक़ में क्या रौशनी डाल सकता हूँ। मैंने आपके हालात की छान बीन भी की है और यक़ीन रखता हूँ कि अगर मुझे फ़ुरसत मिले तो तक़रीबन 6 महीने में आपके उलूम और फ़ज़ाएलो कमालात का काफ़ी ज़ख़ीरा जमा किया जा सकता है। आपके मुताअल्लिक़ इमाम मालिक बिन अनस लिखते हैं ‘‘ मेरी आंखों ने इल्मो फ़ज़ल , वरा व तक़वे में इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) से बेहतर देखा ही नहीं जैसा कि ऊपर गुज़रा वह बहुत बड़े लोगों में से थे और बहुत बड़े ज़ाहिद थे। ख़ुदा से बेपनाह डरते थे। बे इन्तेहा हदीसें बयान करते थे , बड़ी पाक मजलिस वाले और कसीरूल फ़वाएद थे। आपसे मिल कर बे इन्तेहा फ़ायदा उठाया जाता था। ’’(मनाक़िब शहरे आशोब जिल्द 5 पृष्ठ 52 प्रकाशित बम्बई)

इल्मी फ़यूज़ रसानी का मौक़ा यूं तो हमारे तमाम आइम्मा ए अहलेबैत (अ.स.) इल्मी फ़यूज़ व बरकात से भरपूर थे और इल्मे अव्वलीन व आख़ेरीन के मालिक , लेकिन दुनिया वालों ने उनसे फ़ायदा उठाने के बजाय उन्हें क़ैदो बन्द में रख कर उलूमो फ़ुनून के ख़ज़ाने पर हतकड़ियों और बेड़ियों के नाग बिठा दिये थे। इस लिये इन हज़रात के इल्मी कमालात कमा हक़्क़ा मंज़रे आम पर न आ सके। वरना आज दुनिया किसी इल्म में ख़ानदाने रिसालत के अलावा किसी की मोहताज न होती। फ़ाज़िल मआसिर मौलाना सिब्तुल हसन साहब हंसवी लिखते हैं कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) अल मतूफ़ी 148 हिजरी का अहद मआरफ़ परवरी के लिहाज़ से एक ज़र्री अहद था। वह रूकावटें जो आप से पहले आइम्मा अहलेबैत (अ.स.) के लिये पेश आया करती थीं उनमें किसी हद तक कमी थीं। उमवी हुकूमत की तबाही और अब्बासी सलतनत का इस्तेहकाम आपके लिये सुकून व अमन का सबब बना। इस लिये हज़रत को मज़हबे अहलेबैत (अ.स.) की इशाअत और उलूमव फ़ुनून की तरवीज (फ़ैलाने) का बेहतरीन मौक़ा मिला। लोगों को भी इन आलिमाने रब्बानी की तरफ़ रूजु करने में अब कोई ख़ास ज़हमत न थी जिसकी वजह से आपकी खि़दमत में अलावा हिजाज़ के दूर दराज़ मक़ामात मिस्ले ईराक़ , शाम , ख़ुरासान , काबुल , सिन्ध और बलादे रोम , फ़िरहंग के तुल्बा शाएक़ीने इल्म हाज़िर हो कर मुस्तफ़ीद होते थे। हज़रत के हलक़ा ए दर्स में चार हज़ार असहाब थे। अल्लामा शेख़ मुफ़ीद (अ.र.) किताबे इरशाद में फ़रमाते हैं।

तरजुमा लोगों ने आपके उलूम को नक़ल किया जिन्हें तेज़ सवार मनाज़िल बईदा की तरफ़ ले गये और आपकी शोहरत तमाम शहरों में फ़ैल गई और उलेमा ने अहले बैत (अ.स.) में किसी से भी इतने उलूम व फ़ुनून को नहीं नक़्ल किया है जो आप से रवायत करते हैं और जिनकी तादाद 4000 (चार हज़ार) है। ग़ैर अरब तालेबान इल्म से एक रूमी नसब बुज़ुर्ग ज़रार बिन ऐन मतूफ़ी 150 हिजरी में क़ाबिले ज़िक्र है। जिनके दादा सुनसुन बिला दरदम के एक मुक़द्दस राहिब (छवदा) थे। ज़रारा अपनी खि़दमाते इल्मिया के एतेबार से इस्लामी दुनियां में काफ़ी शोहरत रखते थे और साहेबे तसानीफ़ थे। किताब अल इस्तेताअत वल जबरान की मशहूर तसनीफ़ है।(ख़ुलासतुल अक़वाल अल्लामा जल्ली पृष्ठ 38, मिन्हाजुल मक़ाल पृष्ठ 142 व मोअल्लेफ़ा शिया फ़ी सदरूल इस्लाम पृष्ठ 51 )

कुतुबे उसूले अरबा मिया

हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के चार सौ ऐसे मुसन्नेफ़ीन थे जिन्होंने अलावा दीगर उलूम व फ़ुनून के कलामे मासूम को ज़ब्त कर के चार सौ कुतुब उसूल तैयार कीं। असल से मुराद मजमूए अहादीसे अहलेबैत (अ.स.) की वह किताबें हैं जिनमें जामे ने ख़ुद बराहे रास्त मासूम से रवायत कर के अहादीस को ज़ब्ते तहरीर किया है या ऐसे रावी से सुना है जो ख़ुद मासूम से रवायत करता है। इस क़िस्म की किताब में जामे की दूसरी किताब या रवायत से अन फ़लां अन फ़लां के साथ नक़ल करता जिसकी सनद में और सवाएत की ज़रूरत हो। इस लिये कुनुबे उसूल में ख़ता व ग़लत सहो व निसयान का एहतेमाल ब निसबत और दूसरी किताबों के बहुत कम है। कुतुबे उसूल के ज़माना ए तालीफ़ का इन्हेसार अहदे अमीरल मोमेनीन अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) से ले कर इमाम हसन असकरी (अ.स.) के ज़माने तक है जिसमें असहाबे मासूमीन ने बिल मुशाफ़ा मासूम से रवायत कर के अहादीस को जमा किया है या किसी ऐसे सुक़्क़े रावी से हदीसे मासूम को अख़ज़ किया है जो बराहे रास्त मासूम से रवायत करता है। शेख़ अबुल क़ासिम जाफ़र बिन सईद अल मारूफ़ बिल मोहक़क़्िक अल हली अपनी किताब अल मोतबर में फ़रमाते हैं कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के जवाबात मसाएल को चार सौ मुसन्नेफ़ीन असहाबे इमाम ने तहरीर कर के चार सौ तसानीफ़ मुकम्मल की है।

सादिक़े आले मोहम्मद (अ.स.) के असहाब की तादाद और उनकी तसानीफ़

आगे चल कर फ़ाज़िल माअसर अल जव्वाद में बा हवाला ए किताब व कुतुब ख़ाना लिखते हैं कुतुब रेजाल में असहाबे आइम्मा के हालात व तराजिम मज़कूर हैं। उनकी मजमूई तादाद चार हज़ार पांच सौ असहाब है। जिनमें से सिर्फ़ चार हज़ार असहाब हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के हंै। सब का तज़किरा अबुल अब्बास अहमद बिन मोहम्मद बिन सईद बिन अक़्दा 249 से 333 ने अपनी किताब रेजाल में किया है और शेख़ अल ताएफ़ा अबू जाफ़र अल तूसी ने भी इन सब का ज़िक्र अपनी किताब रिजाल में किया है। मासूमीन (अ.स.) के तमाम असहाब में से मुसन्नेफ़ीन की जुमला तादाद एक हज़ार तीन सौ से ज़्यादा नहीं है। ज़िन्होंने सैकड़ो की तादाद में कुतुबे उसूल और हज़रों की तादाद में दूसरी किताबें तालीफ़ और तसनीफ़ की हैं जिनमें से बाज़ मुसन्नेफ़ीन असहाबे आइम्मा तो ऐसे थे जिन्होंने तन्हा सैकड़ों किताबें लिखीं। फ़ज़ल बिन शाज़ान ने एक सो अस्सी किताबें तालीफ़ कीं। इब्ने दवल ने सौ किताबें लिखीं। इसी तरह बरक़ी ने भी तक़रीबन सौ किताबें लिखीं। इब्ने अबी अमीर ने 90 नब्बे किताबें लिखीं और अक्सर असहाबे आइम्मा ऐसे थे जिन्होंने तीस या चालीस से ज़्यादा किताबें तालीफ़ कीं। ग़रज़ की एक हज़ार तीन सौ मुसन्नेफ़ीन असहाबे आइम्मा ने तक़रीबन पांच हज़ार तसानीफ़ कीं। मजमउल बैहरैन में लफ़्ज़े जबर के मातहत है कि सिर्फ़ जाबिर अल जाफ़ेई इमाम सादिक़ (अ.स.) के सत्तर हज़ार अहादीस के हाफ़िज़ थे।(अमीरल मोमेनीन , किताब मक़तल अल हुसैन ज़्यादा मशहूर है।)

तारीख़े इस्लाम जिल्द 5 पृष्ठ 3 में है कि ‘‘ अब्बना बिन शग़लब बिन रबाह(अबू सईद) कूफ़ी सिर्फ़ इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) की तीस हज़ार अहादीस के हाफ़िज़ थे। ’’ उनकी तसानीफ़ में तफ़सीर ग़रीबुल क़ुरआन , किताब अल मुफ़रद , किताब अल फ़ज़ाएल , किताब अल सिफ़्फ़ीन क़ाबिले ज़िक्र हैं। यह क़ारी फ़क़ीह लग़वी मोहद्दीस थे। इन्हें हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) और हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़र (अ.स.) हज़रत इमाम जा़फ़रे सादिक़ (अ.स.) के सहाबी होने का शरफ़ हासिल था। 141 हिजरी में इन्तेक़ाल किया।

हज़रत सादिक़े आले मोहम्मद (अ.स.) और इल्मे जफ़र

हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को चूंकि नशरे उलूम का मौक़ा मिल गया था लेहाज़ा आपने इल्मी इफ़ादात के दरिया बहा दिये। आपको जहां दीगर उलूम में कमाल था और आपने मुख़्तलिफ़ उलूम के नशर में कोशिश की है। इल्मे जफ़र में भी आप यकताए ज़माना थे और इस इल्म में भी आपकी तसानीफ़ हैं।

इल्मे जफ़र किसे कहते हैं इसके मुताअल्लिक़ ‘‘ अलाब लौलैस मालूफ़ अल यसवा ’’ किताब अल मन्जद के पृष्ठ 91 प्रकाशित बैरूत में लिखते हैं कि इल्मे जफ़र को इल्मे हुरूफ़ भी कहते हैं। यह ऐसा इल्म है कि इसके ज़रिये से हवादिसे आलम को मालूम कर लिया जाता है। मौलवी वहीदुज़्ज़मां अपनी किताब अनवारूल लुग़त पृष्ठ 15 ब हवाला ए बहरे मुहीत लिखते हैं कि इल्मे जफ़र जो इल्मे तकसीर का दूसरा नाम है इससे मुराद यह है कि सायल के सवाल के हुरूफ़ में तग़य्युर व तबद्दुल कर के हालात मालूम किये जायें। मजमउल बैहरैन में लफ़्ज़े जफ़र के मातहत लिखा है कि इल्म अल हुरूफ़ के उसूल पर हवादिसे आलम के मालूम करने का नाम इल्मे जफ़र है। तारीख़े आइम्मा बा हवाला ए तारीख़े इब्ने ख़लक़ान जिल्द 1 पृष्ठ 85 में है कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने एक किताब कीमिया और जफ़र और रमल पर लिखी थी।

1 अल्लामा सय्यद अब्दुल हुसैन शरफ़उद्दीन अपनी किताब ‘‘ मोअल्लेफ़ा अल शिया फ़ी सदरूल इस्लाम ’’ प्रकाशित बग़दाद के पृष्ठ 36 में लिखतें हैं कि जनाबे जाबिर जाफ़ेई का असली नाम और सिलसिला ए नसब यह था। जाबिर बिन यज़ीद बिन हरस बिन अब्दुल ग़ौस बिन क़आब बिन अल हरस बिन माविया बिन वाएल अल जाएफ़ी अल कूफ़ी था। उनकी तसानीफ़ में किताब अल तफ़सीर , किताब अल नवादर , किताब अल फ़ज़ाएल , किताब अल जमल , किताब अल सिफ़्फ़ीन , किताब अल नहरवान , किताब मक़तल अमीरल मोमेनीन , किताब मक़तल अल हुसैन , ज़्यादा मशहूर हैं।

हज़रत सादिक़े आले मोहम्मद (अ.स.) और इल्मे तिब

अल्लामा इब्ने बाबूया अल नफ़मी किताब ख़साएल जिल्द 2 बाब 19 पृष्ठ 97 से 99 प्रकाशित ईरान में तहरीर फ़रमाते हैं कि हिन्दुस्तान का एक मशहूर तबीब ‘‘ मन्सूर दवांक़ी ’’ के दरबार में तलब किया गया। बादशाह ने हज़रत से उसकी मुलाक़ात कराई। इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) ने इल्मे तशरीह अल अजसाम और अफ़आल उला आज़ा के मुताअल्लिक़ उससे उन्नीस सवालात किये। वह अगरचे अपने फ़न में पूरा कमाल रखता था लेकिन जवाब न दे सका। बिल आखि़र कलमा पढ़ कर मुसलमान हो गया। अल्लामा इब्ने शहरे आशोब लिखते हैं कि इस तबीब से हज़रत ने 20 सवालात किये थे और अन्दाज़े से पुर अज़ मालूमात तक़रीर फ़रमाई कि वह बोल उठा ‘‘ मिन एना लका हाज़ा अल इल्म ’’ ऐ हज़रत यह बे पनाह इल्म आपने कहां से हासिल फ़रमाया ? आप ने कहा कि मैंने अपने बाप दादा से , उन्होंने हज़रत मोहम्मद (स अ व व ) से उन्होंने जिब्राईल , उन्होंने ख़ुदा वन्दे आलम से इसे हासिल किया है। जिसने अजसाम व अरवाह को पैदा किया है। ‘‘ फ़क़ाला अल हिन्दी सदक़त ’’ उसने कहा बेशक आपने सच फ़रमाया। इसके बाद फिर उसने कलमा पढ़ कर इस्लाम क़ुबूल कर लिया और कहा , ‘‘ इन्नका आलम अहले ज़माना ’’ मैं गवाही देता हूँ कि आप अहदे हाज़िर के सब से बड़े आलिम हैं।(मनाक़िब इब्ने शहरे आशोब जिल्द 1 पृष्ठ 45 प्रकाशित बम्बई)

हज़रत सादिक़े आले मोहम्मद (अ.स.) का इल्मुल क़ुरआन

मुख़्तसर यह है कि आपके इल्मी फ़यूज़ व बरकात पर मुफ़स्सल रौशनी डालनी तो दुश्वार है जैसा कि मैंने पहले अर्ज़ किया है। अलबत्ता सिर्फ़ यह अर्ज़ कर देना चाहता हूँ कि इल्मुल क़ुरआन के बारे में दम ए साकेबा पृष्ठ 478 पर आपका क़ौल मौजूद है। वह फ़रमाते हैं कि , ख़ुदा की क़सम मैं क़ुरआने मजीद को अव्वल से आखि़र तक इसी तरह पर जानता हूँ गोया मेरे हाथ में ज़मीन व आसमान की ख़बरें हैं और वह ख़बरे भी हैं जो हो चुकी हैं और हो रही हैं और होने वाली हैं , और क्यों न हो जब कि क़ुरआने मजीद में हैं कि इस पर हर चीज़ अयां है। एक मक़ाम पर आपने फ़रमाया है कि हम अम्बिया और रसूलों के उलूम के वारिस हैं।(दमए साकेबा पृष्ठ 488 )

इल्मे नुजूम

इल्मे नुजूम के बारे में अगर आपके कमालात देखना हों तो कुतुबे तवाल का मुतालेआ करना चाहिये। आपने निहायत जलील उलेमा ए इल्म अल नुजूम से मुबाहेसा और मुनाज़ेरा कर के अंगुश्त बदन्दां कर दिया है। बेहारूल अनवार मनाक़िबे शहरे आशोब व दमए साकेबा वग़ैरा में आपके मनाज़िरे मौजूद हैं उलेमा का फ़ैसला है कि इल्मे नुजुम हक़ है लेकिन उसका सही इल्म आइम्मा ए अहले बैत के अलावा किसी को नसीब नहीं। यह दूसरी बात है कि हल्क़ा बगोशान मोअद्दते नूरे हिदायत से कसबे ज़िया कर लें।

इल्मे मन्तिक़ुत तैर

सादिके़ आले मोहम्मद (अ.स.) दीगर आइम्मा की तरह मन्तिक़ अल तैर से भी बा क़ायेदा वाक़िफ़ थे। जो परिन्दा या कोई जानवर आपस में बात चीत करता था उसे आप समझ लिया करते थे और ब वक़्ते ज़रूरत उसकी ज़बान में तकल्लुम फ़रमाया करते थे। मिसाल के लिये मुलाहेज़ा हों किताब तफ़सीरे लुबाब अल तावील जिल्द 5 पृष्ठ 113 व मआलम अल तन्ज़ील पृष्ठ 113, अजायबुल क़सस पृष्ठ 105, नूरूल अनवार पृष्ठ 311 प्रकाशित ईरान में है कि सादिक़े आले मोहम्मद (अ.स.) ने क़बरह नामी परिन्दा जिसको चकोर या चनडोल कहते हैं कि बोलते हुए असहाब से फ़रमाया कि तुम जानते हो यह क्या कहता है ? असहाब ने सराहत की ख़्वाहिश की तो फ़रमाया यह कहता है ‘‘ अल्लाहुम्मा लाअन मबग़ज़ी मोहम्मद व आले मोहम्मद ’’ ख़ुदाया मोहम्मद (स अ व व ) व आले मोहम्मद (अ.स.) से बुग़्ज़ करने वालों पर लानत कर। फ़ाख़्ता की आवाज़ पर आपने कहा कि इसे घर में न रहने दो यह कहती है कि ‘‘ फ़क़्द तुम फ़क़्द तुम ’’ ख़ुदा तुम्हें नेस्तो नाबूद करे , वग़ैरा वग़ैरा।

हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) और इल्मुल अजसाम

मनाक़िबे शहरे आशोब और बेहारूल अनवार जिल्द 14 में है कि एक ईसाई ने हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) से इल्मे तिब के बारे में सवालात करते हुए जिस्मे इन्सानी की तफ़सील पूछी। आपने इरशाद फ़रमाया कि ख़ुदा वन्दे आलम ने इन्सान के जिस्म में वसल , 248 हड्डियां और तीन सौ साठ रगें ख़ल्क़ फ़रमाई हैं। रगें तमाम जिस्म को सेराब करती हैं। हड्डियां जिस्म को , गोश्त हड्डियों को और आसाब गोश्त को रोके रखते हैं।

सादिक़े आले मोहम्मद (अ.स.) ने जन्नत में घर बनवा दिया

यह एक मुसल्लेमा हक़ीक़त है कि बेहिश्त पर अहले बैते रसूल (स अ व व ) का पूरा पूरा हक़ व इक़्तेदार है। मुल्ला जामी लिखते हैं कि एक शख़्स ने हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) रवाना ए हज होते हुए कुछ दिरहम दिये और अर्ज़ की कि मैं हज को जाता हूँ मेहरबानी फ़रमा कर मेरी वापसी तक एक मकान मेरी रहाईश का बनवा दीजिए गा या ख़रीद फ़रमा दीजिए गा। जब वह लौट कर आया तो आपने फ़रमाया कि मैंने तेरे लिये जन्नत में एक घर ख़रीद लिया है। जिसके हुदूदे अरबा यह हैं। हुदूदे अरबा बताने के बाद आपने एक नविश्ता दिया और वह घर चल गया। वहां पहुँच कर बीमार हुआ और मरने लगा की कि नविश्ता मेरे कफ़न में रखा जाय। चुनान्चे लोगों ने रख दिया। जब दूसरा दिन हुआ तो क़ब्र पर वही परचा मिला। ‘‘ व बर पुश्त दे नविश्ता ’’ कि ‘‘ जाफ़र बिन मोहम्मद वफ़ा नमूद बा नचे वायदा करदा बूद। ’’ इस परचे की पुश्त पर लिखा हुआ था कि सादिक़े आले मोहम्मद (अ.स.) ने जो वायदा किया था , दुरूस्त निकला और मुझे मकान मिल गया।(शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 192 )

दस्ते सादिक़ (अ.स.) में एजाज़े इब्राहीमी

पैग़म्बरे इस्लाम (स अ व व ) की मशहूर हदीस है कि मेरे अहले बैत मेरे अलावा तमाम अम्बिया से बेहतर हैं। इसका मतलब यह हुआ कि जो मोजिज़ात अम्बिया कराम दिखाया करते थे वह आपके अहते बैत भी दिखा सकते थे। यह दूसरी बात है कि उन्हें तहद्दी के तौर पर असबाते नबूवत के लिये दुनिया वालों को दिखाना ज़रूरी था , लेकिन अहले बैत (अ.स.) को ऐसे मोजिज़ात दिखलाना ज़रूरी न हो , लेकिन अगर किसी वक़्त कोई इस क़िस्म का मोजेज़ा तलब करे तो वह शाने इस्लाम दिखलाने के लिये मोजेज़ा दिखला दिया करते थे।

मुल्ला जामी लिखते हैं कि एक शख़्स ने सादिक़े आले मोहम्मद (अ.स.) से पूछा कि हज़रत इब्राहीम (अ.स.) ने चार जानवरों को ज़िन्दा किया था तो वह परिन्दे हम जिन्स थे या मुख़्तलिफ़ अजनास के थे। हज़रत ने ताअज्जुबाना सवाल को सुन कर फ़रमाया , देखो हज़रत इब्राहीम (अ.स.) ने इस तरह ज़िन्दा किया था। यह फ़रमा कर आपने आवाज़ दी ताऊस यहां आ। ग़राब यहां आ। बाज़ यहां आ। कबूतर यहां आ। यह तमाम परिन्दे हज़रत के पास आ गये। आपने हुक्म दिया इन्हें ज़ब्हा कर के इनके गोश्त को ख़ूब पीस डालो। उसके बाद आपने सर हाथ में ले कर एक एक को आवाज़ दी। आवाज़ के साथ गोश्त उड़ा और अपने अपने सर से जा लगा और पहरन्दा फिर मुकम्मल हो गया। यह देख कर सायल हैरान रह गया।(शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 191 प्रकाशित लखनऊ 1905 0 )

ख़तो किताबत और दरख़्वास्त के बारे में आपकी हिदायत

बिस्मिल्लाह के लिखने का तरीक़ा

हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी चीज़ों के बारे में हिदायत फ़रमाई है। उसूले काफ़ी पृष्ठ 690 प्रकाशित ईरान में है कि जब कुछ भी लिखो तो ‘‘ बिस्मिल्लाह अर रहमान अर रहीम ’’ से शुरू करो और देखो बिस्मिल्लाह को दन्दाने वाले ‘‘ सीन ’’ से लिखना , यानी बे बाद सीन इर तरह लिखना।(सीन)

दरख़्वास्त लिखने का तरीक़ा

आप फ़रमाते हैं कि दाहेनी तरफ़ दवात रख कर दरख़्वास्त लिखो। इमाम शिब्लंजी नूरूल अबसार प्रकाशित मिस्र के पृष्ठ 133 और अल्लामा मजलिसी हुलयतुल मुत्तक़ीन में लिखते हैं कि सादिक़े आले मोहम्मद (अ.स.) ने फ़रमाया है कि जब कोई दरख़्वास्त दो , और चाहो कि वह ज़रूर मन्ज़ूर हो जाय तो उसके सर नामे पर

बिस्मिल्लाह हिर्ररहमार्निरहीम

‘‘ वआदअल्लाह अल साबेरीन अल मख़रज मिम्मा यकराहून वल रिज़्क़ मिन हैस ला यसतबून जाअलना अल्लाह व इय्या कुम मिनल लज़ीना ला ख़ौफ़ुन अलैहिम वला हुम यह ज़नून ’’ अल्लामा अरबली किताब कशफ़ुल ग़म्मा के पृष्ठ 97 पर इसी तरीक़ा ए तहरीर को लिखते के बाद लिखते हैं कि बर सरे रूक़ा ब क़लम बे मदाद ब नवीस यानी यह इबारत बिला रौशनाई के बर सर दरख़्वास्त लिखनी चाहिये।(तहज़ीबुल इस्लाम , तरजुमा हिल्यतुल मुत्तक़ीन पृष्ठ 185 प्रकाशित कराची)

ख़त और जवाबे ख़त

उसूले काफ़ी पृष्ठ 690 में है कि ‘‘ क़ाला अल सादिक़ (अ.स.) रद्दे जवाब अल किताब वाजेबून को जोबे रद्देस सलाम ’’ हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) फ़रमाते हैं कि ख़त का जवाब देना इसी तरह वाजिब है जिस तरह सलाम का जवाब देना वाजिब है।

हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की अन्जाम बीनी और दूर अन्देशी मुवर्रेख़ीन लिखते हैं कि जब बनी अब्बास इस बात पर आमादा हो गये कि बनी उमय्या को ख़त्म कर दें तो उन्होंने यह ख़्याल किया कि आले रसूल (स अ व व ) की दावत का हवाला दिये बग़ैर काम चलना मुश्किल है लेहाज़ा वह इमदाद व इन्तेक़ामे आले मोहम्मद (अ.स.) की तरफ़ दावत देने लगे और यही तरीक़ा करते हुए उठ खड़े हुए जिससे आम तौर पर आले मोहम्मद (अ.स.) यानी बनी फ़ात्मा (अ.स.) की मदद समझी जाती थी। इसी वजस से शियाने बनी फ़ात्मा को भी उनसे हमदर्दी पैदा हो गयी थी और वह उनके मद्दगार हो गए थे और इसी सिलसिले में अबू सलमा जाफ़र बिन सुलैमान कूफ़ी आले मोहम्मद की तरफ़ से वज़ीर तजवीज़ किये गये थे। यानी वह गुमाश्ते के तौर पर तबलीग़ करते थे। उन्हें इमामे वक़्त की तरफ़ से कोई इजाज़त हासिल न थी। यह बनी उमय्या के मुक़ाबले में बड़ी कामयाबी से काम कर रहे थे। जब हालात ज़्यादा साज़गार नज़र आये तो उन्होंने इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) और अबू मोहम्मद अब्दुल्लाह इब्ने हसन को अलग अलग एक एक ख़त लिखा कि आप यहां आ जायें ताकि आपकी बैअत की जाय।

क़ासिद अपने अपने खु़तूत ले कर मंज़िल तक पहुँचे , मदीने में जिस वक़्त क़ासिद पहुँचा वह रात का वक़्त था। क़ासिद ने अर्ज़ कि मौला मैं अबू सलमा का ख़त लाया हूँ। हुज़ूर उसे मुलाहेज़ा फ़रमा कर जवाब इनायत फ़रमायें।

यह सुन कर हज़रत ने चिराग़ तलब किया और ख़त ले कर उसी वक़्त पढ़े बग़ैर नज़रे आतिश कर दिया और क़ासिद से फ़रमाया कि अबू सलमा से कहना कि तुम्हारे ख़त का यही जवाब था।

अभी वह क़ासिद मदीने पहुँचा भी न था कि 3 रबीउल अव्वल 132 हिजरी को जुमे के दिन हुकूमत का फ़ैसला हो गया और सफ़ाह अब्बासी ख़लीफ़ा बनाया जा चुका था।(मरवजुल ज़हब मसूदी बर हाशिया , कामिल जिल्द 8 पृष्ठ 30, तारीख़ुल ख़ुल्फ़ा पृष्ठ 272 हयातुल हैवान जिल्द 1 पृष्ठ 74, तारीख़े आइम्मा पृष्ठ 433 )

ख़लीफ़ा मन्सूर दवानेक़ी और हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ स)

मुवर्रिख़ अबुल फ़िदा लिखता है कि अबुल अब्बास सफ़ाह बिन अब्दुल्लाह अब्बासी ने चार साल छः माह( 4 साल 6 महीने) हुकूमत कर के ज़िल्हिज्जा 136 हिजरी मुताबिक़ 754 ई 0 में इन्तेक़ाल किया और वक़्ते वफ़ात अपने भाई मन्सूर को अपना वली अहद क़रार दिया। जिस वक़्त सफ़ाह ने इन्तेक़ाल किया मन्सूर हज को गया हुआ था। 137 हिजरी में उसने वापस आ कर एनाने हुकूमत संभाल ली।

जस्टिस अमीर अली लिखते हैं कि मन्सूर बनी अब्बासी का वह बादशाह है जिसकी आक़ेबत अन्देशी और दूर बीनी से इस ख़ानदान को इतना क़याम और इस क़द्र इक़तेदार हासिल हुआ कि दुनियावी सलतनत जाने के बाद भी अरसे तक ख़ानदानी वक़ार बाक़ी रहा।

मुवर्रेख़ ज़ाकिर हुसैन लिखते हैं कि मन्सूर मुदब्बिर , मुन्तज़िम , मगर दग़ा बाज़ , बे रहम , शक्की , वसवासी और सफ़्फ़ाक था। जिस पर उसे ज़रा भी शुब्हा होता था कि ज़ात या ख़ानदान के लिये मुज़िर साबित होगा , उसे हरगिज़ ज़िन्दा न छोड़ता था। हज़रत अली (अ.स.) की औलाद के साथ जो ज़ुल्म उसने किये हैं उन्हीं ने अब्बासी तारीख़ के सफ़ों को सब से ज़्यादा सियाह किया है। उसी ने अलवियों और अब्बासियों में अदावत की बीज बोया। बड़ा कंजूस था। एक एक दांग पर जान देता था। इसी लिये उसे दवानेक़ी कहते हैं। हज़रत इमाम हसन (अ.स.) और हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) की औलाद अगरचे जुम्ला दुनियावी उमूर से किनारा कश थी लेकिन उनका रूहानी इक़तेदार मन्सूर के लिये निहायत ही तकलीफ़ देह था और ख़्वाम ख़्वाह उनकी तरफ़ से उसे खटका लगा रहता था। यह सादात से पूरी दुश्मनी करता था। उसने बनी हुसैन (अ.स.) की जायदातें ज़ब्त कीं और बहुत से सादात क़त्ल किये , बहुतों को ज़िन्दा दीवारों में चुनवा दिया। इमाम मालिक को इसी लिये ताज़याने लगवाये की उन्होंने एक मौक़े पर सादात की हिमायत की थी। इमाम अबू हनीफ़ा को इसी लिये क़ैद किया कि उन्होंने इब्तेदा में जै़द शहीद की बैअत कर ली थी। फिर 150 ई 0 में उन्हें ज़हर दिलवा दिया। ग़रज़ कि उसके ज़माने में बेशुमार सादात क़त्ल हुए और बहुत से क़ैद ख़ाने में सड़ गए और ज़िन्दान के ज़हरीले बुख़ारात की वजह से मर गए। हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) के साथ भी उसका रवय्या इसी अन्दाज़ का था हालांकि आपने और आपसे पहले आपके वालिदे माजिद हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़र (अ.स.) ने इसे ब इल्मे इमामत हाकिम होने की ख़ुश ख़बरी दी थी और उस वक़्त उसने उनकी मदह सराई की थी।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 121 )

मुल्ला जामी और इमाम शिब्लंजी लिखते हैं कि मंसूर अब्बासी का एक मुक़र्रब बारगाह नाक़िल है कि मैंने एक दिन मन्सूर को मुताफक्किर देख कर सबबे तफ़क्कुर दरयाफ़्त किया , मन्सूर ने कहा कि मैंने अलवियों की जमाअते कसीर को फ़ना कर दिया लेकिन उनके पेशवा को अब तक बाक़ी रखा है। मैंने पूछा वह कौन हैं ? मन्सूर ने कहा ‘‘ जाफ़र बिन मोहम्मद (अ.स.) ’’ मैंने अर्ज़ कि जाफ़र इब्ने मोहम्मद (अ.स.) तो ऐसे शख़्स हैं जो हमेशा इबादत और यादे ख़ुदा में मशग़ूल रहते हैं दुनियां से कुछ ताअल्लुक़ नहीं रखते। मन्सूर ने कहा जानता हूँ कि तू दिल से इनकी इमामत का ख़्याल रखता है , मगर मैंने क़सम खाई है कि रात होने से पहले ही इनकी तरफ़ से मुतमईन हो जाऊंगा। यह कह कर जल्लाद को हुक्म दिया कि जब जाफ़र बिन मोहम्मद को लोग हाज़िर करें और मैं अपने सर पर हाथ रखूं तो तू फ़ौरन उनको क़त्ल कर देना। थोड़ी देर के बाद हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) तशरीफ़ लाये , वह उस वक़्त कुछ पढ़ रहे थे। जब मन्सूर की नज़र उन पर पड़ी तो कांपने लगा और इस्तेक़बाल कर के उनको अपनी मसनद पर बिठा लिया उसके बाद पूछा कि या बिन रसूल अल्लाह(अ स ) आपके तकलीफ़ करने की क्या वजह हुई ? उन्होंने फ़रमाया तलब किये जाने पर आया हूँ। मन्सूर ने कहा कि अगर कोई हाजत हो तो बयान कीजिये। हज़रत (अ.स.) ने फ़रमाया , यही हाजत है कि आइन्दा मेरी तलबी न हो , जब मैं चाहूं आऊँ , यह कह कर वहां से चले गए।(शवहिद अल नबूवत पृष्ठ 188 वसीला ए नजात नूरूल अबसार 146 मजानी अदब जिल्द 2 पृष्ठ 182, इरशाद मुफ़ीद पृष्ठ 415 )

मन्सूर अब्बासी की सादात कशी

जब बनी उमय्या की सलतनत का ज़माना ख़त्म हुआ , तो बनी अब्बास की हुकूमत का दौर चला। यह लोग बनी उमय्या से भी ज़्यादा सादात के दुश्मन साबित हुए। इनके ज़माने में तो सादात पर वह तबाही आई कि इसके बयान से बदन पर रौंगटे ख़ड़े होते हैं। इस सिलसिला ए अब्बासिया का दूसरा बादशाह मन्सूर अब्बासी हुआ है। ख़ुदा की पनाह इसके मज़ालिम का क्या ठिकाना है। हज़ारों सय्यदों को इस ज़ालिम ने क़त्ल कराया। इनके खू़न के गारों से दीवारें तामीर कराईं यही नहीं बल्कि बहुत से बेगुनाहों को दीवारों में ज़िन्दा चिनवा दिया। बीखों और बुनियादों में दबवा दिया।। क़ैद ख़ाने में सड़ा सड़ा कर मार दिया। इसके ज़माने में शिया या सय्यदों का शुब्हा हो जाना क़त्ल के लिये काफ़ी था। सब से ज़्यादा तबाही इस ज़ालिम के दौरे सलतनत में हुसैनी सादात पर आई। ख़्याल करो कि नाज़ुक दौर में हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने किस ऐहतियात से अपनी ज़िन्दगी बसर की होगी। ज़ुल्म के बर्दाश्त करने की भी कोई हद होती है। सालहा सालसे ग़रीब सादात एक अजीब बे कसी की हालत में बसर कर रहे थे , आखि़र उनके सीनों भी दिल था और एक बहादुर ख़ानदान का ख़ून रगों में दौड़ा हुआ था। रफ़ता रफ़ता उनको भी जोश आ गया। इमाम हसन (अ.स.) की औलाद में उनके पोते जनाबे अब्दुल्लाह महज़ एक बड़े नेक दिल और जोशीले सय्यद थे। उन्होंने चाहा कि सादात को अब्बासियों के मज़ालिम से किस तरह छुड़ायें। इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) ने उनको इस इरादे से रोकना चाहा मगर उनका जोश कर नहीं हुआ और लोगों को मन्सूर के खि़लाफ़ उभारने लगे। उनके दो बेटे थे। एक का नाम मोहम्मद नफ़से ज़किया और दूसरे का इब्राहीम था। इन दोनों ने इस कोशिश में पूरा हिस्सा लिया। मन्सूर को जब उनके इरादों का हाल मालूम हुआ तो उसने सादाते हुसैनी की गिरफ़्तारी के लिये एक फ़ौज भेजी जिनमें सत्तर पछत्तर आदमी , कमसिन बच्चे , नौजवान और बूढ़े सब शामिल थे , गिरफ़्तार कर लिये गये। लिखा है कि जब यह सित्म रसीदा काफ़िला मदीने से चला तो उनकी बे कसी व मजबूरी , बे गुनाही व बे कसूरी का ख़्याल कर के हर एक अपने मक़ाम पर रोता और बेचैन नज़र आता था। आह वह साहेबाने फ़ज़लो कमाल जो सूरतो सीरत में बे मिस्ल बे नज़ीर थे जिनका एक एक जवान हिम्मत व दिलेरी में तमाम अरब में मशहूर था। गले में तौक़ पहने और हाथों में दोहरी जंजीरें डालें शर्मों हिजाब से गरदने नीचे किये लाग़र ऊंटों की पीठों पर बैठे हुए मदीना ए रसूल (स अ व व ) से निकल रहे थे।

तारीख़े कामिल में है कि जब इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को कुन्बे की गिरफ़्तारी का हाल मालूम हुआ तो बेचैन हो गये। मस्जिदे रसूल के दरवाज़े पर खड़े थे कि मज़लूम सादात का काफ़ेला इधर से गुज़रा। इमाम (अ.स.) ने जब यह हाल देखा कि किसी के पैर में ज़न्जीर है किसी के गले में तौक़ , किसी की मुश्कें कसी हैं किसी के पैर ऊंट के पेट से बंधे हुए हैं तो आप ज़ार ज़ार रोने लगे और फ़रमाया ख़ुदा की क़सम आज के बाद से हुरमते हरमे ख़ुदा और रसूल महफ़ूज़ न रहेगी। ख़ुदा की क़सम क़ौमे अन्सार से जो मुआहेदा हज़रत रसूले ख़ुदा (स अ व व ) ने लिया था यानी उनकी औलाद और उनकी हिफ़ाज़त को वह भूल गये। ख़ुदा वन्दा तू अन्सार से सख़्त मुआख़ेज़ा करना। हज़रत की परेशानी का उस वक़्त यह आलम था कि रिदाये मुबारक दोशे अक़दस से गिर गई थी। इस वाक़िये का आप पर इतना गहरा असर पड़ा कि आप उसी रोज़ से बीमार पड़ गये और तक़रीबन बीस रोज़ तक तप (बुख़ार) की वह शदीद तकलीफ़ उठाई कि जान के लाले पड़ गये। हज़रत ने चाहा कि अपने चचा हज़रते अब्दुल्लाह महज़ तक जायें और तसल्ली व दिलासा दें मगर एक संगदिल ने वहां तक न जाने दिया।

मोहम्मद नफ़से ज़किया व इब्राहीम

हज़रत अब्दुल्लाह महज़ उस ज़माने में रूपोश हो गये थे और सहराई अरबों का भेस बदल कर रहने लगे थे। चुनान्चे उसी भेस में वह छुप कर एक मंज़िल पर जनाबे अब्दुल्लाह महज़ से मिले। उन्होंने बेटों से कहा कि इस ज़िल्लत की ज़िन्दगी से इज़्ज़त की मौत बेहतर है। मन्सूर उस ज़माने में कूफ़े में था। क़ैदी उसके सामने पेश हुये। चन्द रोज़ बाद ही यह लोग मरने लगे। क़यामत यह आई कि उनके मुरदों को भी क़ैद ख़ाने से बाहर न निकाला गया। वहीं मरते और सड़ते रहे। इससे वहां की हवा और ज़्यादा गन्दी हो गई और एक ऐसी वबा फैली कि हर रोज़ दो चार मरने लगे। हक़ीक़त यह है कि सादात कशी में बनी अब्बास के मज़ालिम बनी उमय्या से भी कहीं ज़्यादा बढ़ गये थे। बनी उमय्या ने अगर ऐसा किया तो गै़र हो कर क़दीमी दुश्मन बन कर यह तो अपने कहलाते थे माले दुनियां की तमा और हुकूमत की हिर्स ने उनकी आखों पर ऐसा परदा डाला कि नेक व बद की तमीज़ बाक़ी न रही और दुनियां के पीछे आख़ेरत को बिल्कुल भूल गये। बहर हाल ग़रीब सादात ने इस क़ैद ख़ाने में बड़ी इबरत नाक हालत में ज़िन्दगी बसर की लेकिन इस हालत में भी ख़ुदा की याद से ग़ाफ़िल न रहे। शबो रोज़ तिलावते कलामे पाक से काम रहता था। क़ैद ख़ाने की तारीकी में दिन के अवक़ात का चूंकि पता न चलता था , इस लिये अपनी तिलावत को पांच हिस्सों में तक़सीम कर दिया था और उन्हीं से अवक़ाते नमाज़ का पता लगाते थे। उनको इस क़ैद ख़ाने में कई कई वक़्त फ़ाके से गुज़र जाते थे और कोई पुरसाने हाल न था बल्कि खाने का क्या ज़िक्र पानी भी ज़रूरत भर न मिलता था।

अब इधर का हाल सुनों , मोहम्मद नफ़्से ज़किया ने बहुत जल्द एक फ़ौज फ़राहम कर के मन्सूर पर चढ़ाई की और मदीने पर क़ब्ज़ा कर लिया मगर चन्द ही रोज़ बाद मन्सूर की फ़ौजों ने फिर आ घेरा। मोहम्मद उनके मुक़ाबले की ताब न ला सके आखि़र शहीद हो गये। उनका सर काट कर के मन्सूर के पास भेज दिया गया। इस ज़ालिम ने इस सर को एक क़ैद ख़ाने में रख कर क़ैद ख़ाने में उनके बूढ़े बाप अब्दुल्लाह महज़ के पास भेज दिया। जनाबे अब्दुल्लाह उस वक़्त नमाज़ पढ़ रहे थे कि सर मुसल्ले के पास रखा गया। नमाज़ से फ़ारिग़ हो कर जब देखा तो जवान बेटे का सर रखा हुआ है। बे साख़्ता एक आह सीने से निकली , सर को छाती से लगा लिया और कहने लगे बेटा , शाबाश तुम बे शक उन्हीं वायदा वफ़ा करने वालों में से हो जिनकी तारीफ़ ख़ुदा ने क़ुरआन में की है। बेटा तुम ऐसे जवान थे कि तुम्हारी तलवार ने तुमको ज़िल्लत से बचा लिया और तुम्हारी परहेज़गारी ने तुम को गुनाहों से महफ़ूज़ रखा। फिर सर लाने वाले से कहा कि मन्सूर से कह देना कि हम तो मक़तूल हो ही चुके , अब तुम्हारी बारी है। अब हमारा और तुम्हारा इंसाफ़ ख़ुदा के यहां होगा। यह कह के एक ठंडी सांस भरी और दम निकल गया।

अब दूसरे भाई यानी इब्राहीम का हाल सुनो , यह भी मुद्दतों इधर उधर घूमते फिरे आखि़र उन्होंने भी एक फ़ौज जमा कर के मिस्र की हुकूमत हासिल कर ली। जिस ज़माने में नफ़्से ज़किया मन्सूर से लड़ रहे थे। उन्होंने भाई की मद्द को आना चाहा , मगर मन्सूर ने रास्ते बन्द कर रखे थे , मुम्किन न हुआ। मोहम्मद पर फ़तेह पाने के बाद मन्सूर ने इब्राहीम का भी ख़ात्मा कर दिया। सूरत यह हुई कि इब्राहीम अपने लशकर को साथ लिये कूफ़े की तरफ़ रवाना हुए। मक़ाम ‘‘ अल अहमरा ’’ में ख़ेमा ज़न थे कि मन्सूर का लशकर भी वहां पहुँच गया। दोनों लशकरों में सख़्त मुक़ाबला हुआ। सैकड़ों आदमी मारे गये। इब्राहीम की फ़तेह के आसार नुमायां हो चुके थे कि यका यक मामेला दिगर गूँ हो गया और इब्राहीम की फ़ौज ने भागते हुए दुश्मन का पीछा किया मगर नेक दिल इब्राहीम को उनकी तबाह हालत पर रहम आ गया , अपने सिपाहियों को ताअक़्कु़ब से रोक दिया। मन्सूर के सरदार ‘‘ ऐनी ’’ ने इस मौक़े से फ़ायदा उठाया और अपनी तितर बितर क़ुव्वत को जमा कर के फिर एक दम हमला कर दिया। इब्राहीम की फ़ौज को इस बलाए नागहानी की क्या ख़बर थी। वह अपनी फ़तेह देख कर अपनी कमरे खोल चुके थे कि शिकस्त खाई दुश्मन की फ़ौज फिर लौट पड़ी। अब इब्राहीम को मुक़ाबला करना दुश्वार हो गया। फ़ौज तितर बितर हो गई। मजबूरन तलवार ले कर ख़ुद मुक़ाबले को निकल पड़े। देर तक हाशमी शुजाअत के जौहर दिखाते रहे। आखि़र कहां तक लड़ते। दुश्मन ने चारों तरफ़ से घेर कर हलाक कर दिया। यह वाक़ेया 25 ज़िक़ादा 145 हिजरी का है। इब्राहीम वह शख़्स थे कि पूरे पांच बरस रूपोश रहे थे और मन्सूर बावजूद इतनी क़ुदरतो ताक़त के किसी तरह उनको गिरफ़्तार न कर सका था।

इब्राहीम और नफ़से ज़किया के क़त्ल होने के बाद भी मन्सूर के मज़ालिम सादात पर कम न हुए। जहां जिसको पाया बिना क़त्ल किये न छोड़ा। उस ज़माने में सादात की वह तबाही हुई कि बयान में नहीं आ सकती। अल्लामा मजलिसी लिखते हैं कि मन्सूर के ज़माने में बे शुमार औलादे अली (अ.स.) शहीद किये गये और बहुतों को दीवार में चिन्वा दिया गया। मन्सूर उस ज़माने में बग़दाद में महल बनवा रहा था। इसमें जहां औरो को ज़िन्दा चिनवा दिया था एक हसीन नौजवान को भी चुनवाया , वह चूंकि बहुत ही हसीनों ख़ूब सूरत था। उसके चेहरे पर मेमार की नज़र पड़ी तो बे साख़्ता उसका दिल रोने लगा। हुक्म से मजबूर था। दीवार में चुनते चुनते उसे मौक़ा मिल गया। बोला कि ऐ फ़रज़न्दे रसूल (अ.स.) आप घबरायें नहीं , मैं सांस के लिये सूराख़ छोड़ देता हूँ और रात को आ कर निकाल लूंगा। चुनांचे वह रात की तारीकी में दीवार के क़रीब आया और ईंटें हटा कर उस ना जवान बाग़े रिसालत को दीवार से निकाल दिया और कहा कि आप सिर्फ़ इतना कीजिये कि इस तरह ज़िन्दा बच कर किसी तरफ़ चले जाइये कि आपका पता निशान न मिल सके और ऐ फ़रज़न्दे रसूल (अ.स.) आप अपने नाना मोहम्मद मुस्तफ़ा (स अ व व ) से मेरी बख़्शिश की सिफ़ारिश फ़रमाईयेगा।

उन्होंने शुक्रिया अदा किया और कहा ऐ शेख़ अगर तुम से हो सके तो मेरी ज़ुल्फ़ों को तराश लो और किसी रात को मेरी दुखिया मां के पास फ़लां महल्ले में जा कर उन्हें मेरी ज़ुल्फ़ें दे कर कह दें कि मैं ज़िन्दा हूँ और अन्क़रीब मिलंूगा। इस मेमार का बयान है कि मैं उनकी ख़्वाहिश के मुताबिक़ उनके मकान पर पहुँचा तो उनकी माँ बैठी रो रही थीं। मैंने उन्हें सुबूते हयात के लिये ज़ुल्फ़ें दे कर नवेदे ज़िन्दगी सुनाई और वापस चला आया।(जिलाउल उयून पृष्ठ 269 प्रकाशित ईरान व सवानेह उमरी चहारदा मासूमीन हिस्सा 2 पृष्ठ 7 )

तवारीख़ में है कि जनाबे नफ़्से ज़किया के शहीद होने के बाद से जहां मज़ालिम का पूरा ज़ोर पैदा हो गया था वहां इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) भी महफ़ूज़ नहीं रह सके। इमाम शब्लन्जी लिखते हैं कि उनको क़त्ल कराने के बाद मन्सूर ने इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को तलब किया और उनकी सख़्त तहदीद की और क़त्ल की खुले अल्फ़ाज़ मे धमकी दी।(नूरूल अबसार पृष्ठ 133 )

मन्सूर का हज और इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) पर बोहतान तराज़ी हालात की रौशनी में हर बा फ़हम इसका अन्दाज़ा कर सकता है कि हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की ज़िन्दगी किस दौर से गुज़र रही थी और मन्सूर किस ताक में था और किस तरह बहाना तलाश कर रहा था।

तारीख़े हबीबुस सियर में है कि 144 हिजरी में मन्सूर अब्बासी हज के लिये गया। मन्सूर ने हज से फ़राग़त की तो एक शख़्स ने उससे कहा कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) तुम्हारे खि़लाफ़ लोगों को भड़काते और उकसाते हैं। उसने इमाम (अ.स.) को बुला कर उनसे कहा कि मुझे ऐसा मालूम हुआ है कि आप मेरी हुकूमत के खि़लाफ़ प्रोपेगन्डा करते और लोगों को उकसाते और भड़काते हैं। आपने इरशाद फ़रमाया , ऐ बादशाह ! यह बिल्कुल ग़लत है और तूझे मेरे कहने पर यक़ीन न आये तो तू उस शख़्स को मेरे सामने तलब कर। मन्सूर ने उसे बुलाया। आपने फ़रमाया कि तूने मुझ पर क्यों बोहतान बांधा हैं ? उसने कहा कि मैंने सच कहा है। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि क्या तू क़सम खा कर कह सकता है ? उसने कहा हां , फिर उसने ख़ुदा की क़सम खाई। आपने कहा इस तरह नहीं जिस तरह मैं कहूँ उस तरह क़सम खा। चुनान्चे आपने फ़रमाया कि अपनी ज़बान से यह कह कर क़सम खा ‘‘ बरत मिन हौल अल्लाह ’’ मैं ख़ुदा की क़ुव्वत व ताक़त से दूर हट कर अपने भरोसे पर क़सम खाता हूँ। उसने पहले तो हल्का सा इन्कार किया फिर वह क़सम खा गया। उसका नतीजा यह हुआ कि उसी जगह गिर कर हलाक हो गया।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 120 प्रकाशित मिस्र)

इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) का दरबारे मन्सूर में एक तबीबे हिन्द से तबादला ए ख़यालात

अल्लामा रशीद उद्दीन अबू अब्दुल्लाह मोहम्मद बिन अली इब्ने शहरे आशोब माज़न्द्रानी अल मतूफ़ी 588 हिजरी ने दरबारे मन्सूर का एक अहम वाक़ेया नक़ल फ़रमाया है जिसमें मुफ़स्सल तौर पर यह वाज़े किया गया है कि एक तबीब जिसको अपनी क़ाबलियत पर बड़ा भरोसा और ग़ुरूर था वह इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के सामने किस तरह सिपर अन्दाख़्ता हो कर आपके कमालात का मोतरिफ़ हो गया। हम मौसूफ़ की अरबी इबारत का तरजुमा अपने फ़ाज़िल मआसर के अल्फ़ाज़ में पेश करते हैं।

एक बार हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) मन्सूर दवानक़ी के दरबार में तशरीफ़ फ़रमा थे। वहां एक तबीबे हिन्दी तिब की बाते बयान कर रहा था और हज़रत ख़ामोश बैठे सुन रहे थे। जब वह कह चुका तो हज़रत से मुख़ातिब हो कर कहने लगा। अगर कुछ पूछना चाहें तो शोक़ से पूछें। आपने फ़रमाया , मैं क्या पूछूँ , मुझे तुझ से ज़्यादा मालूम है। तबीब अगर यह बात है तो मैं भी कुछ सुनूं। इमाम (अ.स.) जब किसी मर्ज़ का ग़लबा हो तो उसका इलाज ज़िद से करना चाहिये यानी हार , गर्म का इलाज बारद सर्द से , तर का ख़ुश्क से , ख़ुश्क का तर से और हर हालत में अपने ख़ुदा पर भरोसा रखे। याद रख मेदा तमाम बिमारियों का घर है और परहेज़ सौ दवाओं की एक दवा है। जिस चीज़ का इंसान आदी हो जाता है उसके मिजाज़ के मुवाफ़िक़ और उसकी सेहत का सबब बन जाती है। तबीब बे शक आपने जो बयान फ़रमाया है असली तिब यही है। इमाम (अ.स.) यह न समझना चाहिये कि मैंने जो बयान किया है यह तिब की किताबें पढ़ कर हासिल किया है बल्कि यह उलूम मुझको ख़ुदा की तरफ़ से मिले हैं। अब बता तू ज़्यादा इल्म रखता है या मैं ? तबीब मैं। इमाम (अ.स.) अच्छा मैं चन्द सवाल करता हूँ उनका जवाब दे।

1. आंसुओं और रूतूबतों की जगह सर में क्यों है ?

2. सर पर बाल क्यों हैं ?

3. पेशानी बालों से खाली क्यों है ?

4. पेशानी पर ख़त और शिकन क्यों हैं ?

5. दोनों पल्कें आंखों के ऊपर क्यों हैं ?

6. नाक दोनों आंखों के दरमियान क्यों है ?

7. आंखें बादामी शक्ल की क्यों हैं ?

8. नाक का सूराख़ नीचे की तरफ़ क्यो है ?

9. मूंह पर दो होंठ क्यों बनाये गये हैं ?

10. सामने के दांत तेज़ और दाढ़ें चौड़ी क्यों है और उन दोनों के बीच में लम्बे दांत क्यों हैं ?

11. दोनों हथेलियां बालों से ख़ाली क्यों हैं ?

12. मर्दो के दाढ़ी क्यों होती है ?

13. नाख़ून और बालों में जान क्यों नहीं ?

14. दिल सनोबरी शक्ल का क्यों है ?

15. फ़ेफड़े के दो टुकड़े क्यों हैं और वह अपनी जगह हरकत क्यों करता हैं ?

16. जिगर की शक्ल मोहद्दब क्यों है ?

17. गुर्दे की शक्ल लोबिये के दाने की तरह क्यों होती है ?

18. घुटने आगे को झुकते हैं पीछे को क्यों नहीं झुकते ?

19. दोनों पावों के तलवे बीच से ख़ाली क्यों होते हैं ?

तबीब मैं इन बातों का जवाब नहीं दे सकता। इमाम (अ.स.) ख़ुदा के फ़ज़्ल से मैं इन सब सवालों का जवाब जानता हूँ। तबीब ने कहा कि बराऐ करम बयान फ़रमाइये।

इमाम (अ.स.) ने फरमायाः

1. सर अगर आंसुओं और रूतूबतों का मरकज़ न होता तो ख़ुश्की की वजह से टुकड़े टुकड़े हो जाता।

2. बाल इस लिये सर पर हैं कि उनकी जड़ों से तेल वग़ैरा दिमाग़ तक पहुँचता रहे और बहुत से दिमाग़ी अबख़रे निकलते रहें , दिमाग़ गर्मी और सर्दी से महफ़ूज़ रहे।

3. पेशानी बालों से इस लिये ख़ाली है कि इस जगह से आंखों में नूर पहुँचता है।

4. पेशानी में लकीरें इस लिये हैं कि सर से जो पसीना गिरे वह आंखों में न जा पाये। जब शिकनों में पसीना जमा हो तो इंसान उसे पोंछ कर फे़क दे जिस तरह ज़मीन पर पानी जारी होता है तो गढ़ों में जमा हो जाता है।

5. पलकें इस लिये आंखों पर क़रार दी गई हैं कि आफ़ताब की रौशनी इतनी उन पर पड़े जितनी ज़रूरत है और ब वक़्ते ज़रूरत बन्द हो कर आंखों की हिफ़ाज़त कर सके और सोने में मद्द दे सकें। तुम ने देखा होगा की जब इंसान ज़्यादा रौशनी में बलन्दी की तरफ़ किसी चीज़ को देखना चाहता है तो हाथ आंखों के ऊपर रख कर साया कर लेता है।

6. नाक को दोनों आंखों के बीच में इस लिये क़रार दिया गया है कि मजमा ए नूर से रौशनी तक़सीम हो कर बराबर दोनों आंखों को पहुँचे।

7. आंखों को बदामी शक्ल का इस लिये बनाया गया है कि बा वक़्ते ज़रूरत सलाई के ज़रिये से दवा , सुरमा वग़ैरा इसमें आसानी से पहुँच जायें। अगर आंख चकोर या गोल होती तो सलाई का उसमें फिरना मुश्किल होता। दवा उसमें ब ख़ूबी न पहुँच सकती और बीमारी दफ़ा न होती।।

8. नाक का सूराख़ नीचे को इस लिये बनाया कि दिमाग़ी रूतूबतें आसानी से निकल सकें अगर ऊपर को होता तो यह बात न होती और दिमाग़ तक किसी भी चीज़ की बू जल्दी से न पहुँच सकती।

9. होंठ इस लिये मुंह पर लगाये गये कि जो रूतूबतें दिमाग़ से मुंह मे आयें वह रूकी रहें और खाना भी इंसान के इख़्तियार में रहे , जब चाहे फेकें और थूक दे।

10. दाढ़ी मर्दों को इस लिये दी कि मर्द और औरत में तमीज़ हो जाय।

11. अगले दांत इस लिये तेज़ हैं कि किसी चीज़ का काटना सहल हो और दाढ़ों को चौड़ा इस लिये बनाया कि ग़िज़ा पीसना और चबाना आसान हो। इन दोनों के दरमियान लम्बे दांत इस लिये बनाये कि दोनों के इस्तेहकाम के बाएस हों जिस तरह मकान की मज़बूती के बाएस सुतून (खम्बे) होते हैं।

12. हथेलियों पर बाल इस लिये नहीं कि किसी चीज़ को छूने से इसकी नरमी , सख़्ती , गर्मी और सर्दी वग़ैरा आसानी से मालूम हो जाय। बालों की सूरत में यह बात हासिल न होती।

13. बाल और नाख़ूनों में जान इस लिये नहीं कि इन चीज़ों का बढ़ना बुरा मालूम होता है और नुक़्सान देह है , अगर इन में जान होती तो काटने में तकलीफ़ होती।

14. दिल सनोबरी शक्ल यानी सर पतला और दुम चौड़ी (निचला हिस्सा) इस लिये है कि आसानी से फे़फ़ड़े में दाखि़ल हो सके और उसकी हवा से ठंडक पाता रहे ताकि उसके बुख़ारात दिमाग़ की तरफ़ चढ़ कर बीमारियां पैदा न करें।

15. फे़फ़ड़े के दो टुकड़े इस लिये हुए कि दिल उनके दरमियान रहे और वह उसको हवा दें।

16. जिगर मोहद्दब इस लिये हुआ कि अच्छी तरह मेदे के ऊपर जगह पकड़े और अपनी गरानी व गर्मी से ग़िज़ा को हज़म करे।

17. गुर्दा लोबिये के दाने की शक्ल का इस लिये हुआ कि मनी यानी नुत्फ़ा इंसानी पुश्त की जानिब से इसमें आता है और उसके फ़ैलने और सुकड़ने की वजह से आहिस्ता आहिस्ता निकलना है जो सबबे लज़्ज़त है।

18. घुटने पीछे की तरफ़ इस लिये नहीं झुकते कि चलने में आसानी हो अगर ऐसा न होता तो आदमी चलते वक़्त गिर गिर पड़ता , आगे चलना आसान न होता।

19. दोनों पैरों के तलवों के बीच में जगह ख़ाली इस लिये है कि दोनों किनारों पर बोझ पड़ने से आसानी से पैर उठ सकें अगर ऐसा न होता और पूरे बदन का बोझ पेरों पर पड़ता तो सारे बदन का बोझ उठाना दुश्वार हो जाता।

यह जवाबात सुन कर हिन्दोस्तानी तबीब (हकीम , वैद्य) हैरान रह गया और कहने लगा कि आपने यह इल्म किससे सीखा है ? फ़रमाया अपने दादा से उन्होंने रसूले ख़ुदा (स अ व व ) से हासिल किया और उन्होंने ख़ुदा से सीखा है। उसने कहा , ‘‘ इन्ना अशहदो अन ला इलाहा इलल्लाह व अन मोहम्मदन रसूल अल्लाह व अब्दहू ’’ मैं गवाही देता हूँ कि ख़ुदा एक है और मोहम्मद (स अ व व ) उसके रसूल और अब्दे ख़ास हैं। ‘‘ व इन्नका आलमो अहले ज़माना ’’ और आप अपने ज़माने में सब से बडे आलिम हैं।(मनाक़िब इब्ने शहरे आशोब जिल्द 5 पृष्ठ 46 प्रकाशित बम्बई व सवानेह चहारदा मासूमीन हिस्सा 2 पृष्ठ 25 )

इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को बाल बच्चों समेत जला देने का मन्सूबा

तबीबे हिन्दी से गुफ़्तुगू के बाद इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) का आम शोहरा हो गया और लोगों के क़ुलूब पहले से ज़्यादा आपकी तरफ़ माएल हो गये। दोस्त और दुश्मन आपके इल्मी कमालात का ज़िक्र करने लगे। यह देख कर मन्सूर के दिल में आग लग गई और वह अपनी शरारत के तक़ाज़ों से मजबूर हो कर यह मन्सूबा बनाने लगा कि अब जल्द से जल्द इन्हें हलाक कर देना चाहिये। चुनान्चे उसने ज़ाहिरी क़द्रों मन्ज़ेलत के साथ आपको मदीना रवाना कर के हाकिमे मदीना हुसैन बिन ज़ैद को हुक्म दिया ‘‘ अन अहरक़ जाफ़र बिन मोहम्मद फ़ी दाराह ’’ इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को बाल बच्चों समैत घर के अन्दर जला दिया जाए। यह हुक्म पा कर वालिये मदीना चन्द ग़ुन्डों के ज़रिये से रात के वक़्त जब कि सब महवे ख़्वाब थे , आपके मकान में आग लगवा दी और घर जलने लगा। आपके असहाब अगरचे उसे बुझाने की पूरी कोशिश कर रहे थे लेकिन आग बुझने को न आती थी। बिल आखि़र आप उन्हीं शोलों में कहते हुए कि ‘‘ अना इब्ने ईराक़ अल शरआ , अना इब्ने इब्राहीम अल ख़लील ’’ ऐ आग मैं वह हूँ जिसके आबाव अजदाद ज़मीनों आसमान की बुनियादों के सबब हैं और मैं ख़लीले ख़ुदा इब्राहीम नबी का फ़रज़न्द हूँ। निकल पड़े और अपनी अबा के दामन से आग बुझा दी।(तज़किरतुल मासूमीन पृष्ठ 181 ब हवाला उसूले काफ़ी आक़ा ए क़ुलैनी अर रहमा)

147 हिजरी में मन्सूर का हज और इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के क़त्ल का अज़म बिल जज़म

अल्लामा शिब्लंजी और अल्लामा मोहम्मद बिन तल्हा शाफ़ेई रक़म तराज़ हैं कि 147 हिजरी में मन्सूर हज को गया। उसे चूंकि इमाम (अ.स.) के दुश्मनों की तरफ़ से बराबर यह ख़बर दी जा चुकि थी कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) तेरी मुख़ालेफ़त करते रहते हैं और तेरी हुकूमत का तख़्ता पलटने की कोशिश में हैं। लेहाज़ा उसने हज से फ़राग़त के बाद मदीने का क़स्द किया और वहां पहुँच कर अपने ख़ास हमदर्द ‘‘ रबी ’’ से कहा कि जाफ़र बिन मोहम्मद को बुलवा दो। रबी ने वायदे के ब वजूद टाल मटोल की। उसने फिर दूसरे दिन सख़्ती के साथ कहा कि उन्हें बुलवा। मैं कहता हूँ कि ख़ुदा मुझे क़त्ल करे अगर मैं उन्हें क़त्ल न कर सकूँ। रबी ने इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हो कर अर्ज़ कि मौला ! आपको मन्सूर बुला रहा है और उसके तेवर बहुत ख़राब हैं। मुझे यक़ीन है कि वह इस मुलाक़ात से आपको क़त्ल कर देगा। हज़रत ने फ़रमाया , ‘‘ ला हौला वला क़ुव्वता इल्ला बिल्लाहिल अली उल अज़ीम ’’ यह इस दफ़ा न मुम्किन है। ग़रज़ कि रबी हज़रत को ले कर हाज़िरे दरबार हुआ। मन्सूर की नज़र जैसे ही आप पर पड़ी तो आग बबूला हो कर बोला , ‘‘ या अदू अल्लाह ’’ ऐ दुश्मने ख़ुदा तुमको अहले ईराक़ इमाम मानते हैं और तुम्हें ज़कात अम्वाल वग़ैरा देते हैं और मेरी तरफ़ उनका कोई ध्यान नहीं। याद रखो , मैं आज तुम्हें क़त्ल कर के छोड़ूगा और इसके लिये मैंने क़सम खा ली है। यह रंग देख कर इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने इरशाद फ़रमाया। ऐ अमीर , जनाबे सुलेमान (अ.स.) को अज़ीम सलतनत दी गई तो उन्होंने शुक्र किया। जनाबे अय्यूब को बला में मुब्तिला किया गया तो उन्होंने सब्र किया। जनाबे यूसुफ़ पर ज़ुल्म किया गया तो उन्होंने ज़ालिमों को माफ़ कर दिया। ऐ बादशाह ये सब अम्बिया थे और उन्हीं की तरफ़ तेरा नसब भी पहुँचता है तुझे तो उनकी पैरवी लाज़िम है यह सुन कर उसका ग़ुस्सा ठंडा हो गया।(नूरूल अबसार पृष्ठ 132, मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 276 )

हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की दरबारे मन्सूर में सातवीं बार तलबी

147 हिजरी में हज से फ़राग़त के बाद जब मन्सूर अपने दारूल खि़लाफ़ा में पहुँचा तो मुशीरों ने मौक़े से इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) का ज़िक्र छेड़ा। मन्सूर जो इसी दौरान में उनसे मिल कर आया था उसने फ़ौरन हुक्म दे दिया कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की तलबी की जाय और उन्हें बुला कर मेरे सामने दरबार में पेश किया जाय। दावत नामा चला गया और इमाम (अ.स.) मदीने से चल कर दरबार में उस वक़्त पहुँचे जब उसे एक मक्खी सता रही थी और वह उसे बार बार हकंा रहा था। वह मुंह पर बैठी थी और मन्सूर उसे दफ़ा करता था लेकिन वह बाज़ न आती थी। मन्सूर इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की तरफ़ मुतावज्जे हो कर बोला , कि ज़रा यह बताइये कि ख़ुदा ने मक्खी को क्यों पैदा किया है ? हज़रत ने फ़रमाया ! ‘‘ लैज़ल बेही अल जब्बारता ’’ कि ख़ुदा ने मक्खी इस लिये पैदा की है कि उसके ज़रिये से जाबिरों को ज़लील करे व सर कशों का सर झुकाये।(नूरूल अबसार , पृष्ठ 144, मनाक़िब इब्ने शहरे आशोब जिल्द 3 पृष्ठ 40 )

इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) और दरबार के शेर

एक दिन का ज़िक्र है कि मन्सूर ने बाबुल से सत्तर जादूगरों को बुला कर दरबार में बैठाये हुए था और उनसे कह दिया था कि मैं अन्क़रीब अपने एक दुश्मन को बुलाने वाला हूँ वह जब यहां पर आये तो तुम उसके साथ कोई ऐसा करतब करना जिससे वह ज़लील हो जाय। वहां पहुँच कर अपने देखा कि सत्तर मसनवी शेर दरबार में बैठे हुए हैं। आपको ग़ुस्सा आ गया और आपने उन शेरों की तरफ़ मुतव्वजे हो कर कहा कि अपने बनाने वालों को निगल लो। वह नक़ली शेर की तस्वीरें मुजस्सम हुईं और उन्होंने सब जादूगरों को निगल लिया। यह देख कर मन्सूर कांपने लगा , फिर थोड़ी देर के बाद बोला , ऐ इब्ने रसूल अल्लाह (अ.स.) इन शेरों को हुक्म दीजिये कि इन जादूगरों को उगल दें। आपने फ़रमाया यह नहीं हो सकता। अगर असाए मूसा ने सांपों को उगल दिया होता तो यक़ीन है कि यह भी उगल देते।(दमए साकेबा जिल्द 2 पृष्ठ 513 बा हवाला ए शरह शाफ़िया अबी फ़ारस)

इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) को दरबार में क़त्ल किये जाने का बन्दो बस्त

अल्लामा दहर शती ब हवाला ए किताब मशारिको अनवार अल्लामा तबरीसी रक़म तराज़ हैं कि मन्सूर अब्बासी जब आपकी रूहानियत से आजिज़ आ गया और किसी मरतबा क़त्ल करने में कामयाबी न हासिल कर सका तो उसने सवालिये अफ़राद तलाश किये जो कुछ जानते और पहचानते ही न थे , बिल्कुल अल्लढ़ और कुन्दा ए ना तराश थे। उसने मालो दौलत दे कर इस अम्र पर राज़ी किया कि जब इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) की तरफ़ इशारा किया जाय तो वह उन्हें क़त्ल कर दें। प्रोग्राम मुरत्तब होने के बाद रात के वक़्त हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को बुलाया गया। आप तशरीफ़ लाए , हुक्म था कि बिल्कुल तन्हा तशरीफ़ लायें। आप अकेले आये। जब आप दरबार में दाखि़ल हुए और उन लोगों की नज़रे आप पर पड़ीं जो तलवारें सूते हुए खड़े थे तो वह सब के सब तलवारें फें़क कर आपके क़दमों पर गिर पड़े। यह हाल देख कर मन्सूर ने कहा , इब्ने रसूल अल्लाह आप रात के वक़्त क्यों तशरीफ़ लाये हैं ? आपने फ़रमाया कि तूने मुझे गिरफ़्तार करा के मंगवाया है , अब कहता है क्यों आए हैं। उसने कहा माअज़ अल्लाह कहीं यह भी हो सकता है। आप तशरीफ़ तशरीफ़ ले जायें और क़याम गाह में आराम फ़रमायें। आप वापस चले गये। वहां से मदीना तशरीफ़ ले गये। इमाम (अ.स.) के चले जाने के बाद उन लोगों से पूछा गया कि तुमने खि़लाफ़ वरज़ी क्यों की और उन्हें क़त्ल क्यों नहीं किया ? उन्होंने जवाब दिया कि यह तो वह इमामे ज़माना हैं जो हमारी शबो रोज़ ख़बर गिरी करता है और हमेशा हमारी अपने बच्चों की तरह परवरिश करते हैं। यह सुन कर मन्सूर डर गया और उसे ख़्याल हुआ कि कहीं यह लोग मुझ से इसका बदला न लेने लगें इसी लिये उन्हें रात ही में रवाना कर दिया। ‘‘ सम क़त्ल बिल इसमा ’’ फिर आपको ज़हर से शहीद करा दिया।(दम ए साकेबा पृष्ठ 481 जिल्द 2 प्रकाशित नजफ़) अल्लामा अरबली का कहना है कि आपको क़ैद ख़ाने में ज़हर दिया गया।(कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 100 ) रवायात से मालूम होता है कि आपको कई मरतबा ज़हर दिया गया।(जन्नातुल ख़ुलूद पृष्ठ 28 ) बिल आखि़र आप इस आख़ेरी ज़हर से शहीद हो गये , जो अंगूर के ज़रिये से दिया गया था।(जिलाउल उयून पृष्ठ 268 )

हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की शहादत

उलेमा ए फ़रीक़ैन का इत्तेफ़ाक़ है कि ब तारीख़ 15 शव्वाल 148 हिजरी 65 साल की उम्र में आपने इस दारे फ़ानी से ब तरफ़े मुल्के जावेदानी रेहलत फ़रमाई।(इरशादे मुफ़ीद पृष्ठ 413 आलामु वुरा पृष्ठ 159 नूरूल अबसार पृष्ठ 132 मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 277 ) यौमे वफ़ात दोशम्बा था और मक़ामे दफ़्न जन्नतुल बक़ी है।

अल्लामा इब्ने हजर अल्लामा सिब्ते इब्ने जौज़ी अल्लामा शिब्लन्जी अल्लामा इब्ने तल्हा शाफ़ेई तहरीर फ़रमाते हैं कि ‘‘ माता मस्मूमन अय्यामल मन्सूर ’’ मन्सूर के ज़माने में आप ज़हर से शहीद हुए।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 121, ग़ाएतुल इख़्तेसार पृष्ठ 62 सहा अल अख़बार पृष्ठ 44, तज़किरा ए ख़वासुल उम्मता , नूरूल अबसार पृष्ठ 133, अरजहुल मतालिब पृष्ठ 450 )

उलेमा ए अहले तशीय का इत्तेफ़ाक़ है कि आपको मन्सूर दवानक़ी ने ज़हर से शहीद कराया था और नमाज़ हज़रत इमाम मूसी ए काज़िम (अ.स.) ने पढ़ाई थी। अल्लामा क़ुलैनी और अल्लामा मजलिसी का इरशाद है कि आपको निहायत क़ीमती कफ़न दिया गया और आपके मक़ामे वफ़ात पर हर शब चराग़ जलाया जाता रहा।(किताब काफ़ी व जिलाउल उयून मजलिसी पृष्ठ 269 )


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