चौदह सितारे

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चौदह सितारे लेखक:
कैटिगिरी: शियो का इतिहास

चौदह सितारे

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना नजमुल हसन करारवी
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चौदह सितारे
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चौदह सितारे

चौदह सितारे

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

मोहम्मद नफ़से ज़किया व इब्राहीम

हज़रत अब्दुल्लाह महज़ उस ज़माने में रूपोश हो गये थे और सहराई अरबों का भेस बदल कर रहने लगे थे। चुनान्चे उसी भेस में वह छुप कर एक मंज़िल पर जनाबे अब्दुल्लाह महज़ से मिले। उन्होंने बेटों से कहा कि इस ज़िल्लत की ज़िन्दगी से इज़्ज़त की मौत बेहतर है। मन्सूर उस ज़माने में कूफ़े में था। क़ैदी उसके सामने पेश हुये। चन्द रोज़ बाद ही यह लोग मरने लगे। क़यामत यह आई कि उनके मुरदों को भी क़ैद ख़ाने से बाहर न निकाला गया। वहीं मरते और सड़ते रहे। इससे वहां की हवा और ज़्यादा गन्दी हो गई और एक ऐसी वबा फैली कि हर रोज़ दो चार मरने लगे। हक़ीक़त यह है कि सादात कशी में बनी अब्बास के मज़ालिम बनी उमय्या से भी कहीं ज़्यादा बढ़ गये थे। बनी उमय्या ने अगर ऐसा किया तो गै़र हो कर क़दीमी दुश्मन बन कर यह तो अपने कहलाते थे माले दुनियां की तमा और हुकूमत की हिर्स ने उनकी आखों पर ऐसा परदा डाला कि नेक व बद की तमीज़ बाक़ी न रही और दुनियां के पीछे आख़ेरत को बिल्कुल भूल गये। बहर हाल ग़रीब सादात ने इस क़ैद ख़ाने में बड़ी इबरत नाक हालत में ज़िन्दगी बसर की लेकिन इस हालत में भी ख़ुदा की याद से ग़ाफ़िल न रहे। शबो रोज़ तिलावते कलामे पाक से काम रहता था। क़ैद ख़ाने की तारीकी में दिन के अवक़ात का चूंकि पता न चलता था , इस लिये अपनी तिलावत को पांच हिस्सों में तक़सीम कर दिया था और उन्हीं से अवक़ाते नमाज़ का पता लगाते थे। उनको इस क़ैद ख़ाने में कई कई वक़्त फ़ाके से गुज़र जाते थे और कोई पुरसाने हाल न था बल्कि खाने का क्या ज़िक्र पानी भी ज़रूरत भर न मिलता था।

अब इधर का हाल सुनों , मोहम्मद नफ़्से ज़किया ने बहुत जल्द एक फ़ौज फ़राहम कर के मन्सूर पर चढ़ाई की और मदीने पर क़ब्ज़ा कर लिया मगर चन्द ही रोज़ बाद मन्सूर की फ़ौजों ने फिर आ घेरा। मोहम्मद उनके मुक़ाबले की ताब न ला सके आखि़र शहीद हो गये। उनका सर काट कर के मन्सूर के पास भेज दिया गया। इस ज़ालिम ने इस सर को एक क़ैद ख़ाने में रख कर क़ैद ख़ाने में उनके बूढ़े बाप अब्दुल्लाह महज़ के पास भेज दिया। जनाबे अब्दुल्लाह उस वक़्त नमाज़ पढ़ रहे थे कि सर मुसल्ले के पास रखा गया। नमाज़ से फ़ारिग़ हो कर जब देखा तो जवान बेटे का सर रखा हुआ है। बे साख़्ता एक आह सीने से निकली , सर को छाती से लगा लिया और कहने लगे बेटा , शाबाश तुम बे शक उन्हीं वायदा वफ़ा करने वालों में से हो जिनकी तारीफ़ ख़ुदा ने क़ुरआन में की है। बेटा तुम ऐसे जवान थे कि तुम्हारी तलवार ने तुमको ज़िल्लत से बचा लिया और तुम्हारी परहेज़गारी ने तुम को गुनाहों से महफ़ूज़ रखा। फिर सर लाने वाले से कहा कि मन्सूर से कह देना कि हम तो मक़तूल हो ही चुके , अब तुम्हारी बारी है। अब हमारा और तुम्हारा इंसाफ़ ख़ुदा के यहां होगा। यह कह के एक ठंडी सांस भरी और दम निकल गया।

अब दूसरे भाई यानी इब्राहीम का हाल सुनो , यह भी मुद्दतों इधर उधर घूमते फिरे आखि़र उन्होंने भी एक फ़ौज जमा कर के मिस्र की हुकूमत हासिल कर ली। जिस ज़माने में नफ़्से ज़किया मन्सूर से लड़ रहे थे। उन्होंने भाई की मद्द को आना चाहा , मगर मन्सूर ने रास्ते बन्द कर रखे थे , मुम्किन न हुआ। मोहम्मद पर फ़तेह पाने के बाद मन्सूर ने इब्राहीम का भी ख़ात्मा कर दिया। सूरत यह हुई कि इब्राहीम अपने लशकर को साथ लिये कूफ़े की तरफ़ रवाना हुए। मक़ाम ‘‘ अल अहमरा ’’ में ख़ेमा ज़न थे कि मन्सूर का लशकर भी वहां पहुँच गया। दोनों लशकरों में सख़्त मुक़ाबला हुआ। सैकड़ों आदमी मारे गये। इब्राहीम की फ़तेह के आसार नुमायां हो चुके थे कि यका यक मामेला दिगर गूँ हो गया और इब्राहीम की फ़ौज ने भागते हुए दुश्मन का पीछा किया मगर नेक दिल इब्राहीम को उनकी तबाह हालत पर रहम आ गया , अपने सिपाहियों को ताअक़्कु़ब से रोक दिया। मन्सूर के सरदार ‘‘ ऐनी ’’ ने इस मौक़े से फ़ायदा उठाया और अपनी तितर बितर क़ुव्वत को जमा कर के फिर एक दम हमला कर दिया। इब्राहीम की फ़ौज को इस बलाए नागहानी की क्या ख़बर थी। वह अपनी फ़तेह देख कर अपनी कमरे खोल चुके थे कि शिकस्त खाई दुश्मन की फ़ौज फिर लौट पड़ी। अब इब्राहीम को मुक़ाबला करना दुश्वार हो गया। फ़ौज तितर बितर हो गई। मजबूरन तलवार ले कर ख़ुद मुक़ाबले को निकल पड़े। देर तक हाशमी शुजाअत के जौहर दिखाते रहे। आखि़र कहां तक लड़ते। दुश्मन ने चारों तरफ़ से घेर कर हलाक कर दिया। यह वाक़ेया 25 ज़िक़ादा 145 हिजरी का है। इब्राहीम वह शख़्स थे कि पूरे पांच बरस रूपोश रहे थे और मन्सूर बावजूद इतनी क़ुदरतो ताक़त के किसी तरह उनको गिरफ़्तार न कर सका था।

इब्राहीम और नफ़से ज़किया के क़त्ल होने के बाद भी मन्सूर के मज़ालिम सादात पर कम न हुए। जहां जिसको पाया बिना क़त्ल किये न छोड़ा। उस ज़माने में सादात की वह तबाही हुई कि बयान में नहीं आ सकती। अल्लामा मजलिसी लिखते हैं कि मन्सूर के ज़माने में बे शुमार औलादे अली (अ.स.) शहीद किये गये और बहुतों को दीवार में चिन्वा दिया गया। मन्सूर उस ज़माने में बग़दाद में महल बनवा रहा था। इसमें जहां औरो को ज़िन्दा चिनवा दिया था एक हसीन नौजवान को भी चुनवाया , वह चूंकि बहुत ही हसीनों ख़ूब सूरत था। उसके चेहरे पर मेमार की नज़र पड़ी तो बे साख़्ता उसका दिल रोने लगा। हुक्म से मजबूर था। दीवार में चुनते चुनते उसे मौक़ा मिल गया। बोला कि ऐ फ़रज़न्दे रसूल (अ.स.) आप घबरायें नहीं , मैं सांस के लिये सूराख़ छोड़ देता हूँ और रात को आ कर निकाल लूंगा। चुनांचे वह रात की तारीकी में दीवार के क़रीब आया और ईंटें हटा कर उस ना जवान बाग़े रिसालत को दीवार से निकाल दिया और कहा कि आप सिर्फ़ इतना कीजिये कि इस तरह ज़िन्दा बच कर किसी तरफ़ चले जाइये कि आपका पता निशान न मिल सके और ऐ फ़रज़न्दे रसूल (अ.स.) आप अपने नाना मोहम्मद मुस्तफ़ा (स अ व व ) से मेरी बख़्शिश की सिफ़ारिश फ़रमाईयेगा।

उन्होंने शुक्रिया अदा किया और कहा ऐ शेख़ अगर तुम से हो सके तो मेरी ज़ुल्फ़ों को तराश लो और किसी रात को मेरी दुखिया मां के पास फ़लां महल्ले में जा कर उन्हें मेरी ज़ुल्फ़ें दे कर कह दें कि मैं ज़िन्दा हूँ और अन्क़रीब मिलंूगा। इस मेमार का बयान है कि मैं उनकी ख़्वाहिश के मुताबिक़ उनके मकान पर पहुँचा तो उनकी माँ बैठी रो रही थीं। मैंने उन्हें सुबूते हयात के लिये ज़ुल्फ़ें दे कर नवेदे ज़िन्दगी सुनाई और वापस चला आया।(जिलाउल उयून पृष्ठ 269 प्रकाशित ईरान व सवानेह उमरी चहारदा मासूमीन हिस्सा 2 पृष्ठ 7 )

तवारीख़ में है कि जनाबे नफ़्से ज़किया के शहीद होने के बाद से जहां मज़ालिम का पूरा ज़ोर पैदा हो गया था वहां इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) भी महफ़ूज़ नहीं रह सके। इमाम शब्लन्जी लिखते हैं कि उनको क़त्ल कराने के बाद मन्सूर ने इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को तलब किया और उनकी सख़्त तहदीद की और क़त्ल की खुले अल्फ़ाज़ मे धमकी दी।(नूरूल अबसार पृष्ठ 133 )

मन्सूर का हज और इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) पर बोहतान तराज़ी हालात की रौशनी में हर बा फ़हम इसका अन्दाज़ा कर सकता है कि हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की ज़िन्दगी किस दौर से गुज़र रही थी और मन्सूर किस ताक में था और किस तरह बहाना तलाश कर रहा था।

तारीख़े हबीबुस सियर में है कि 144 हिजरी में मन्सूर अब्बासी हज के लिये गया। मन्सूर ने हज से फ़राग़त की तो एक शख़्स ने उससे कहा कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) तुम्हारे खि़लाफ़ लोगों को भड़काते और उकसाते हैं। उसने इमाम (अ.स.) को बुला कर उनसे कहा कि मुझे ऐसा मालूम हुआ है कि आप मेरी हुकूमत के खि़लाफ़ प्रोपेगन्डा करते और लोगों को उकसाते और भड़काते हैं। आपने इरशाद फ़रमाया , ऐ बादशाह ! यह बिल्कुल ग़लत है और तूझे मेरे कहने पर यक़ीन न आये तो तू उस शख़्स को मेरे सामने तलब कर। मन्सूर ने उसे बुलाया। आपने फ़रमाया कि तूने मुझ पर क्यों बोहतान बांधा हैं ? उसने कहा कि मैंने सच कहा है। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि क्या तू क़सम खा कर कह सकता है ? उसने कहा हां , फिर उसने ख़ुदा की क़सम खाई। आपने कहा इस तरह नहीं जिस तरह मैं कहूँ उस तरह क़सम खा। चुनान्चे आपने फ़रमाया कि अपनी ज़बान से यह कह कर क़सम खा ‘‘ बरत मिन हौल अल्लाह ’’ मैं ख़ुदा की क़ुव्वत व ताक़त से दूर हट कर अपने भरोसे पर क़सम खाता हूँ। उसने पहले तो हल्का सा इन्कार किया फिर वह क़सम खा गया। उसका नतीजा यह हुआ कि उसी जगह गिर कर हलाक हो गया।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 120 प्रकाशित मिस्र)

इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) का दरबारे मन्सूर में एक तबीबे हिन्द से तबादला ए ख़यालात

अल्लामा रशीद उद्दीन अबू अब्दुल्लाह मोहम्मद बिन अली इब्ने शहरे आशोब माज़न्द्रानी अल मतूफ़ी 588 हिजरी ने दरबारे मन्सूर का एक अहम वाक़ेया नक़ल फ़रमाया है जिसमें मुफ़स्सल तौर पर यह वाज़े किया गया है कि एक तबीब जिसको अपनी क़ाबलियत पर बड़ा भरोसा और ग़ुरूर था वह इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के सामने किस तरह सिपर अन्दाख़्ता हो कर आपके कमालात का मोतरिफ़ हो गया। हम मौसूफ़ की अरबी इबारत का तरजुमा अपने फ़ाज़िल मआसर के अल्फ़ाज़ में पेश करते हैं।

एक बार हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) मन्सूर दवानक़ी के दरबार में तशरीफ़ फ़रमा थे। वहां एक तबीबे हिन्दी तिब की बाते बयान कर रहा था और हज़रत ख़ामोश बैठे सुन रहे थे। जब वह कह चुका तो हज़रत से मुख़ातिब हो कर कहने लगा। अगर कुछ पूछना चाहें तो शोक़ से पूछें। आपने फ़रमाया , मैं क्या पूछूँ , मुझे तुझ से ज़्यादा मालूम है। तबीब अगर यह बात है तो मैं भी कुछ सुनूं। इमाम (अ.स.) जब किसी मर्ज़ का ग़लबा हो तो उसका इलाज ज़िद से करना चाहिये यानी हार , गर्म का इलाज बारद सर्द से , तर का ख़ुश्क से , ख़ुश्क का तर से और हर हालत में अपने ख़ुदा पर भरोसा रखे। याद रख मेदा तमाम बिमारियों का घर है और परहेज़ सौ दवाओं की एक दवा है। जिस चीज़ का इंसान आदी हो जाता है उसके मिजाज़ के मुवाफ़िक़ और उसकी सेहत का सबब बन जाती है। तबीब बे शक आपने जो बयान फ़रमाया है असली तिब यही है। इमाम (अ.स.) यह न समझना चाहिये कि मैंने जो बयान किया है यह तिब की किताबें पढ़ कर हासिल किया है बल्कि यह उलूम मुझको ख़ुदा की तरफ़ से मिले हैं। अब बता तू ज़्यादा इल्म रखता है या मैं ? तबीब मैं। इमाम (अ.स.) अच्छा मैं चन्द सवाल करता हूँ उनका जवाब दे।

1. आंसुओं और रूतूबतों की जगह सर में क्यों है ?

2. सर पर बाल क्यों हैं ?

3. पेशानी बालों से खाली क्यों है ?

4. पेशानी पर ख़त और शिकन क्यों हैं ?

5. दोनों पल्कें आंखों के ऊपर क्यों हैं ?

6. नाक दोनों आंखों के दरमियान क्यों है ?

7. आंखें बादामी शक्ल की क्यों हैं ?

8. नाक का सूराख़ नीचे की तरफ़ क्यो है ?

9. मूंह पर दो होंठ क्यों बनाये गये हैं ?

10. सामने के दांत तेज़ और दाढ़ें चौड़ी क्यों है और उन दोनों के बीच में लम्बे दांत क्यों हैं ?

11. दोनों हथेलियां बालों से ख़ाली क्यों हैं ?

12. मर्दो के दाढ़ी क्यों होती है ?

13. नाख़ून और बालों में जान क्यों नहीं ?

14. दिल सनोबरी शक्ल का क्यों है ?

15. फ़ेफड़े के दो टुकड़े क्यों हैं और वह अपनी जगह हरकत क्यों करता हैं ?

16. जिगर की शक्ल मोहद्दब क्यों है ?

17. गुर्दे की शक्ल लोबिये के दाने की तरह क्यों होती है ?

18. घुटने आगे को झुकते हैं पीछे को क्यों नहीं झुकते ?

19. दोनों पावों के तलवे बीच से ख़ाली क्यों होते हैं ?

तबीब मैं इन बातों का जवाब नहीं दे सकता। इमाम (अ.स.) ख़ुदा के फ़ज़्ल से मैं इन सब सवालों का जवाब जानता हूँ। तबीब ने कहा कि बराऐ करम बयान फ़रमाइये।

इमाम (अ.स.) ने फरमायाः

1. सर अगर आंसुओं और रूतूबतों का मरकज़ न होता तो ख़ुश्की की वजह से टुकड़े टुकड़े हो जाता।

2. बाल इस लिये सर पर हैं कि उनकी जड़ों से तेल वग़ैरा दिमाग़ तक पहुँचता रहे और बहुत से दिमाग़ी अबख़रे निकलते रहें , दिमाग़ गर्मी और सर्दी से महफ़ूज़ रहे।

3. पेशानी बालों से इस लिये ख़ाली है कि इस जगह से आंखों में नूर पहुँचता है।

4. पेशानी में लकीरें इस लिये हैं कि सर से जो पसीना गिरे वह आंखों में न जा पाये। जब शिकनों में पसीना जमा हो तो इंसान उसे पोंछ कर फे़क दे जिस तरह ज़मीन पर पानी जारी होता है तो गढ़ों में जमा हो जाता है।

5. पलकें इस लिये आंखों पर क़रार दी गई हैं कि आफ़ताब की रौशनी इतनी उन पर पड़े जितनी ज़रूरत है और ब वक़्ते ज़रूरत बन्द हो कर आंखों की हिफ़ाज़त कर सके और सोने में मद्द दे सकें। तुम ने देखा होगा की जब इंसान ज़्यादा रौशनी में बलन्दी की तरफ़ किसी चीज़ को देखना चाहता है तो हाथ आंखों के ऊपर रख कर साया कर लेता है।

6. नाक को दोनों आंखों के बीच में इस लिये क़रार दिया गया है कि मजमा ए नूर से रौशनी तक़सीम हो कर बराबर दोनों आंखों को पहुँचे।

7. आंखों को बदामी शक्ल का इस लिये बनाया गया है कि बा वक़्ते ज़रूरत सलाई के ज़रिये से दवा , सुरमा वग़ैरा इसमें आसानी से पहुँच जायें। अगर आंख चकोर या गोल होती तो सलाई का उसमें फिरना मुश्किल होता। दवा उसमें ब ख़ूबी न पहुँच सकती और बीमारी दफ़ा न होती।।

8. नाक का सूराख़ नीचे को इस लिये बनाया कि दिमाग़ी रूतूबतें आसानी से निकल सकें अगर ऊपर को होता तो यह बात न होती और दिमाग़ तक किसी भी चीज़ की बू जल्दी से न पहुँच सकती।

9. होंठ इस लिये मुंह पर लगाये गये कि जो रूतूबतें दिमाग़ से मुंह मे आयें वह रूकी रहें और खाना भी इंसान के इख़्तियार में रहे , जब चाहे फेकें और थूक दे।

10. दाढ़ी मर्दों को इस लिये दी कि मर्द और औरत में तमीज़ हो जाय।

11. अगले दांत इस लिये तेज़ हैं कि किसी चीज़ का काटना सहल हो और दाढ़ों को चौड़ा इस लिये बनाया कि ग़िज़ा पीसना और चबाना आसान हो। इन दोनों के दरमियान लम्बे दांत इस लिये बनाये कि दोनों के इस्तेहकाम के बाएस हों जिस तरह मकान की मज़बूती के बाएस सुतून (खम्बे) होते हैं।

12. हथेलियों पर बाल इस लिये नहीं कि किसी चीज़ को छूने से इसकी नरमी , सख़्ती , गर्मी और सर्दी वग़ैरा आसानी से मालूम हो जाय। बालों की सूरत में यह बात हासिल न होती।

13. बाल और नाख़ूनों में जान इस लिये नहीं कि इन चीज़ों का बढ़ना बुरा मालूम होता है और नुक़्सान देह है , अगर इन में जान होती तो काटने में तकलीफ़ होती।

14. दिल सनोबरी शक्ल यानी सर पतला और दुम चौड़ी (निचला हिस्सा) इस लिये है कि आसानी से फे़फ़ड़े में दाखि़ल हो सके और उसकी हवा से ठंडक पाता रहे ताकि उसके बुख़ारात दिमाग़ की तरफ़ चढ़ कर बीमारियां पैदा न करें।

15. फे़फ़ड़े के दो टुकड़े इस लिये हुए कि दिल उनके दरमियान रहे और वह उसको हवा दें।

16. जिगर मोहद्दब इस लिये हुआ कि अच्छी तरह मेदे के ऊपर जगह पकड़े और अपनी गरानी व गर्मी से ग़िज़ा को हज़म करे।

17. गुर्दा लोबिये के दाने की शक्ल का इस लिये हुआ कि मनी यानी नुत्फ़ा इंसानी पुश्त की जानिब से इसमें आता है और उसके फ़ैलने और सुकड़ने की वजह से आहिस्ता आहिस्ता निकलना है जो सबबे लज़्ज़त है।

18. घुटने पीछे की तरफ़ इस लिये नहीं झुकते कि चलने में आसानी हो अगर ऐसा न होता तो आदमी चलते वक़्त गिर गिर पड़ता , आगे चलना आसान न होता।

19. दोनों पैरों के तलवों के बीच में जगह ख़ाली इस लिये है कि दोनों किनारों पर बोझ पड़ने से आसानी से पैर उठ सकें अगर ऐसा न होता और पूरे बदन का बोझ पेरों पर पड़ता तो सारे बदन का बोझ उठाना दुश्वार हो जाता।

यह जवाबात सुन कर हिन्दोस्तानी तबीब (हकीम , वैद्य) हैरान रह गया और कहने लगा कि आपने यह इल्म किससे सीखा है ? फ़रमाया अपने दादा से उन्होंने रसूले ख़ुदा (स अ व व ) से हासिल किया और उन्होंने ख़ुदा से सीखा है। उसने कहा , ‘‘ इन्ना अशहदो अन ला इलाहा इलल्लाह व अन मोहम्मदन रसूल अल्लाह व अब्दहू ’’ मैं गवाही देता हूँ कि ख़ुदा एक है और मोहम्मद (स अ व व ) उसके रसूल और अब्दे ख़ास हैं। ‘‘ व इन्नका आलमो अहले ज़माना ’’ और आप अपने ज़माने में सब से बडे आलिम हैं।(मनाक़िब इब्ने शहरे आशोब जिल्द 5 पृष्ठ 46 प्रकाशित बम्बई व सवानेह चहारदा मासूमीन हिस्सा 2 पृष्ठ 25 )

इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को बाल बच्चों समेत जला देने का मन्सूबा

तबीबे हिन्दी से गुफ़्तुगू के बाद इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) का आम शोहरा हो गया और लोगों के क़ुलूब पहले से ज़्यादा आपकी तरफ़ माएल हो गये। दोस्त और दुश्मन आपके इल्मी कमालात का ज़िक्र करने लगे। यह देख कर मन्सूर के दिल में आग लग गई और वह अपनी शरारत के तक़ाज़ों से मजबूर हो कर यह मन्सूबा बनाने लगा कि अब जल्द से जल्द इन्हें हलाक कर देना चाहिये। चुनान्चे उसने ज़ाहिरी क़द्रों मन्ज़ेलत के साथ आपको मदीना रवाना कर के हाकिमे मदीना हुसैन बिन ज़ैद को हुक्म दिया ‘‘ अन अहरक़ जाफ़र बिन मोहम्मद फ़ी दाराह ’’ इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को बाल बच्चों समैत घर के अन्दर जला दिया जाए। यह हुक्म पा कर वालिये मदीना चन्द ग़ुन्डों के ज़रिये से रात के वक़्त जब कि सब महवे ख़्वाब थे , आपके मकान में आग लगवा दी और घर जलने लगा। आपके असहाब अगरचे उसे बुझाने की पूरी कोशिश कर रहे थे लेकिन आग बुझने को न आती थी। बिल आखि़र आप उन्हीं शोलों में कहते हुए कि ‘‘ अना इब्ने ईराक़ अल शरआ , अना इब्ने इब्राहीम अल ख़लील ’’ ऐ आग मैं वह हूँ जिसके आबाव अजदाद ज़मीनों आसमान की बुनियादों के सबब हैं और मैं ख़लीले ख़ुदा इब्राहीम नबी का फ़रज़न्द हूँ। निकल पड़े और अपनी अबा के दामन से आग बुझा दी।(तज़किरतुल मासूमीन पृष्ठ 181 ब हवाला उसूले काफ़ी आक़ा ए क़ुलैनी अर रहमा)

147 हिजरी में मन्सूर का हज और इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के क़त्ल का अज़म बिल जज़म

अल्लामा शिब्लंजी और अल्लामा मोहम्मद बिन तल्हा शाफ़ेई रक़म तराज़ हैं कि 147 हिजरी में मन्सूर हज को गया। उसे चूंकि इमाम (अ.स.) के दुश्मनों की तरफ़ से बराबर यह ख़बर दी जा चुकि थी कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) तेरी मुख़ालेफ़त करते रहते हैं और तेरी हुकूमत का तख़्ता पलटने की कोशिश में हैं। लेहाज़ा उसने हज से फ़राग़त के बाद मदीने का क़स्द किया और वहां पहुँच कर अपने ख़ास हमदर्द ‘‘ रबी ’’ से कहा कि जाफ़र बिन मोहम्मद को बुलवा दो। रबी ने वायदे के ब वजूद टाल मटोल की। उसने फिर दूसरे दिन सख़्ती के साथ कहा कि उन्हें बुलवा। मैं कहता हूँ कि ख़ुदा मुझे क़त्ल करे अगर मैं उन्हें क़त्ल न कर सकूँ। रबी ने इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हो कर अर्ज़ कि मौला ! आपको मन्सूर बुला रहा है और उसके तेवर बहुत ख़राब हैं। मुझे यक़ीन है कि वह इस मुलाक़ात से आपको क़त्ल कर देगा। हज़रत ने फ़रमाया , ‘‘ ला हौला वला क़ुव्वता इल्ला बिल्लाहिल अली उल अज़ीम ’’ यह इस दफ़ा न मुम्किन है। ग़रज़ कि रबी हज़रत को ले कर हाज़िरे दरबार हुआ। मन्सूर की नज़र जैसे ही आप पर पड़ी तो आग बबूला हो कर बोला , ‘‘ या अदू अल्लाह ’’ ऐ दुश्मने ख़ुदा तुमको अहले ईराक़ इमाम मानते हैं और तुम्हें ज़कात अम्वाल वग़ैरा देते हैं और मेरी तरफ़ उनका कोई ध्यान नहीं। याद रखो , मैं आज तुम्हें क़त्ल कर के छोड़ूगा और इसके लिये मैंने क़सम खा ली है। यह रंग देख कर इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने इरशाद फ़रमाया। ऐ अमीर , जनाबे सुलेमान (अ.स.) को अज़ीम सलतनत दी गई तो उन्होंने शुक्र किया। जनाबे अय्यूब को बला में मुब्तिला किया गया तो उन्होंने सब्र किया। जनाबे यूसुफ़ पर ज़ुल्म किया गया तो उन्होंने ज़ालिमों को माफ़ कर दिया। ऐ बादशाह ये सब अम्बिया थे और उन्हीं की तरफ़ तेरा नसब भी पहुँचता है तुझे तो उनकी पैरवी लाज़िम है यह सुन कर उसका ग़ुस्सा ठंडा हो गया।(नूरूल अबसार पृष्ठ 132, मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 276 )

हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की दरबारे मन्सूर में सातवीं बार तलबी

147 हिजरी में हज से फ़राग़त के बाद जब मन्सूर अपने दारूल खि़लाफ़ा में पहुँचा तो मुशीरों ने मौक़े से इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) का ज़िक्र छेड़ा। मन्सूर जो इसी दौरान में उनसे मिल कर आया था उसने फ़ौरन हुक्म दे दिया कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की तलबी की जाय और उन्हें बुला कर मेरे सामने दरबार में पेश किया जाय। दावत नामा चला गया और इमाम (अ.स.) मदीने से चल कर दरबार में उस वक़्त पहुँचे जब उसे एक मक्खी सता रही थी और वह उसे बार बार हकंा रहा था। वह मुंह पर बैठी थी और मन्सूर उसे दफ़ा करता था लेकिन वह बाज़ न आती थी। मन्सूर इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की तरफ़ मुतावज्जे हो कर बोला , कि ज़रा यह बताइये कि ख़ुदा ने मक्खी को क्यों पैदा किया है ? हज़रत ने फ़रमाया ! ‘‘ लैज़ल बेही अल जब्बारता ’’ कि ख़ुदा ने मक्खी इस लिये पैदा की है कि उसके ज़रिये से जाबिरों को ज़लील करे व सर कशों का सर झुकाये।(नूरूल अबसार , पृष्ठ 144, मनाक़िब इब्ने शहरे आशोब जिल्द 3 पृष्ठ 40 )

इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) और दरबार के शेर

एक दिन का ज़िक्र है कि मन्सूर ने बाबुल से सत्तर जादूगरों को बुला कर दरबार में बैठाये हुए था और उनसे कह दिया था कि मैं अन्क़रीब अपने एक दुश्मन को बुलाने वाला हूँ वह जब यहां पर आये तो तुम उसके साथ कोई ऐसा करतब करना जिससे वह ज़लील हो जाय। वहां पहुँच कर अपने देखा कि सत्तर मसनवी शेर दरबार में बैठे हुए हैं। आपको ग़ुस्सा आ गया और आपने उन शेरों की तरफ़ मुतव्वजे हो कर कहा कि अपने बनाने वालों को निगल लो। वह नक़ली शेर की तस्वीरें मुजस्सम हुईं और उन्होंने सब जादूगरों को निगल लिया। यह देख कर मन्सूर कांपने लगा , फिर थोड़ी देर के बाद बोला , ऐ इब्ने रसूल अल्लाह (अ.स.) इन शेरों को हुक्म दीजिये कि इन जादूगरों को उगल दें। आपने फ़रमाया यह नहीं हो सकता। अगर असाए मूसा ने सांपों को उगल दिया होता तो यक़ीन है कि यह भी उगल देते।(दमए साकेबा जिल्द 2 पृष्ठ 513 बा हवाला ए शरह शाफ़िया अबी फ़ारस)

इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) को दरबार में क़त्ल किये जाने का बन्दो बस्त

अल्लामा दहर शती ब हवाला ए किताब मशारिको अनवार अल्लामा तबरीसी रक़म तराज़ हैं कि मन्सूर अब्बासी जब आपकी रूहानियत से आजिज़ आ गया और किसी मरतबा क़त्ल करने में कामयाबी न हासिल कर सका तो उसने सवालिये अफ़राद तलाश किये जो कुछ जानते और पहचानते ही न थे , बिल्कुल अल्लढ़ और कुन्दा ए ना तराश थे। उसने मालो दौलत दे कर इस अम्र पर राज़ी किया कि जब इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) की तरफ़ इशारा किया जाय तो वह उन्हें क़त्ल कर दें। प्रोग्राम मुरत्तब होने के बाद रात के वक़्त हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को बुलाया गया। आप तशरीफ़ लाए , हुक्म था कि बिल्कुल तन्हा तशरीफ़ लायें। आप अकेले आये। जब आप दरबार में दाखि़ल हुए और उन लोगों की नज़रे आप पर पड़ीं जो तलवारें सूते हुए खड़े थे तो वह सब के सब तलवारें फें़क कर आपके क़दमों पर गिर पड़े। यह हाल देख कर मन्सूर ने कहा , इब्ने रसूल अल्लाह आप रात के वक़्त क्यों तशरीफ़ लाये हैं ? आपने फ़रमाया कि तूने मुझे गिरफ़्तार करा के मंगवाया है , अब कहता है क्यों आए हैं। उसने कहा माअज़ अल्लाह कहीं यह भी हो सकता है। आप तशरीफ़ तशरीफ़ ले जायें और क़याम गाह में आराम फ़रमायें। आप वापस चले गये। वहां से मदीना तशरीफ़ ले गये। इमाम (अ.स.) के चले जाने के बाद उन लोगों से पूछा गया कि तुमने खि़लाफ़ वरज़ी क्यों की और उन्हें क़त्ल क्यों नहीं किया ? उन्होंने जवाब दिया कि यह तो वह इमामे ज़माना हैं जो हमारी शबो रोज़ ख़बर गिरी करता है और हमेशा हमारी अपने बच्चों की तरह परवरिश करते हैं। यह सुन कर मन्सूर डर गया और उसे ख़्याल हुआ कि कहीं यह लोग मुझ से इसका बदला न लेने लगें इसी लिये उन्हें रात ही में रवाना कर दिया। ‘‘ सम क़त्ल बिल इसमा ’’ फिर आपको ज़हर से शहीद करा दिया।(दम ए साकेबा पृष्ठ 481 जिल्द 2 प्रकाशित नजफ़) अल्लामा अरबली का कहना है कि आपको क़ैद ख़ाने में ज़हर दिया गया।(कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 100 ) रवायात से मालूम होता है कि आपको कई मरतबा ज़हर दिया गया।(जन्नातुल ख़ुलूद पृष्ठ 28 ) बिल आखि़र आप इस आख़ेरी ज़हर से शहीद हो गये , जो अंगूर के ज़रिये से दिया गया था।(जिलाउल उयून पृष्ठ 268 )

हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की शहादत

उलेमा ए फ़रीक़ैन का इत्तेफ़ाक़ है कि ब तारीख़ 15 शव्वाल 148 हिजरी 65 साल की उम्र में आपने इस दारे फ़ानी से ब तरफ़े मुल्के जावेदानी रेहलत फ़रमाई।(इरशादे मुफ़ीद पृष्ठ 413 आलामु वुरा पृष्ठ 159 नूरूल अबसार पृष्ठ 132 मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 277 ) यौमे वफ़ात दोशम्बा था और मक़ामे दफ़्न जन्नतुल बक़ी है।

अल्लामा इब्ने हजर अल्लामा सिब्ते इब्ने जौज़ी अल्लामा शिब्लन्जी अल्लामा इब्ने तल्हा शाफ़ेई तहरीर फ़रमाते हैं कि ‘‘ माता मस्मूमन अय्यामल मन्सूर ’’ मन्सूर के ज़माने में आप ज़हर से शहीद हुए।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 121, ग़ाएतुल इख़्तेसार पृष्ठ 62 सहा अल अख़बार पृष्ठ 44, तज़किरा ए ख़वासुल उम्मता , नूरूल अबसार पृष्ठ 133, अरजहुल मतालिब पृष्ठ 450 )

उलेमा ए अहले तशीय का इत्तेफ़ाक़ है कि आपको मन्सूर दवानक़ी ने ज़हर से शहीद कराया था और नमाज़ हज़रत इमाम मूसी ए काज़िम (अ.स.) ने पढ़ाई थी। अल्लामा क़ुलैनी और अल्लामा मजलिसी का इरशाद है कि आपको निहायत क़ीमती कफ़न दिया गया और आपके मक़ामे वफ़ात पर हर शब चराग़ जलाया जाता रहा।(किताब काफ़ी व जिलाउल उयून मजलिसी पृष्ठ 269 )