चौदह सितारे

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चौदह सितारे लेखक:
कैटिगिरी: शियो का इतिहास

चौदह सितारे

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना नजमुल हसन करारवी
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चौदह सितारे

चौदह सितारे

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की तसनीफ़ात

आपको अगरचे तसनीफ़ात का मौका़ ही नहीं नसीब हुआ लेकिन फिर भी आप उसकी तरफ़ मुतवज्जेह रहे हैं। आपकी एक तसनीफ़ जिसका जि़क्र अल्लामा चलपी बा हवाला हाफि़ज़ अबु नईम असफ़हानी किया है वह मसनदे इमाम मूसा काजि़म है।(कशफ़ुल ज़नून पृष्ठ 433 व अरजहुल मतालिब पृष्ठ 454 )

आपकी रिवायत की हुई हदीसे

आपसे बहुत सी हदीसें मरवी हैं जिनमें की दो यह हैं

1. आं हज़रत (स. अ.) फ़रमाते हैं कि लड़के का अपने वालेदैन के चेहरों पर नज़र करना इबादत है।

2. झूठ और ख़यानत के अलावा मोमिन हर आदत इख़्तेयार कर सकता है।

(नूरूल अबसार पृष्ठ 134 )

अहमद बिन हम्बल का कहना है कि आपका सिलसिलाए रवायत इतना अहम है कि ‘‘ लौ क़दी अल्लल मजनून ला फ़ाक़ेहा ’’ यानी अगर मजनून पर पढ़ कर दम कर दिया जाय तो उसका जुनून जाता रहे।

(मनाक़िब जिल्द 5 पृष्ठ 73 )

ख़लीफ़ा हारून रशीद अब्बासी और हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ स . )

पांच रबीउल अव्वल 170 हिजरी को मेहदी का बेटा अबू जाफ़र हारून रशीद अब्बासी ख़लीफ़ाए वक़्त बनाया गया। उसने अपना वज़ीरे आज़म यहीया बिन ख़ालिद बर मक्की को बनाया और इमाम अबू हनीफ़ा के शागिर्द अबू यूसुफ़ को क़ाज़ी क़ज़्ज़ाता का दरजा दिया। बा रवायत ज़ेहनी उसने अगरचे बाज़ अच्छे काम भी किये हैं लेकिन लहो लाब और हुसूले लज़्ज़ाते मम्नुआ में मुन्फ़रीद था।

इब्ने ख़ल्दून का कहना है कि यह अपने दादा मन्सूर दवानक़ी के नक़्शे क़दम पर चलता था फ़कऱ् इतना था कि वह बख़ील था और यह सख़ी। यह पहला ख़लीफ़ा है जिसने राग रागनी और मौसीक़ी को शरीफ़ पेशा क़रार दिया था। उसकी पेशानी पर भी सादात कुशी का नुमायां दाग़ है। इल्मे मौसीक़ी माहिर अबू इस्हाक़ इब्राहीम मौसली उसका दरबारी था। हबीब अल सैर में है कि यह पहला इस्लामी बादशाह है जिसने मैंदान में गेंद बाज़ी की और शतरंज के खेल का शौक़ किया। अहादीस में है कि शतरंज खेलना बहुत बड़ा गुनाह है। जामेए अल अख़बार में है कि जब इमामे हुसैन (अ.स.) का सर दरबारे यज़ीद में पहुँचा था तो वह शतरंज खेल रहा था। तारीख़ अल ख़ुल्फ़ा स्यूती में है कि हारून रशीद अपने बाप की मदख़ूला लौंड़ी पर आशिक़ हो गया। उसने कहा कि मैं तुम्हारे बाप के पास रह चुकी हूँ तुम्हारे लिये हलाल नहीं हूँ। हारून ने क़ाज़ी अबू युसूफ़ से फ़तवा तलब किया। उन्होंने कहा आप इसकी बात क्यों मानते हैं यह झूठ भी तो बोल सकती है। इस फ़तवे के सहारे से उसने उसके साथ बद फ़ेली (बलात्कार) की।

अल्लामा स्यूती यह भी लिखते हैं कि बादशाह हारून रशीद ने एक लौंड़ी ख़रीद कर उसके साथ उसी रात बिला इस्तेबरा जिमआ (सम्भोग) करना चाहा। क़ाज़ी अबू युसूफ़ ने कहा कि इसे किसी लड़के को हिबा कर के इस्तेमाल कर लिजिये।

अल्लामा स्यूती का कहना है कि इस फ़त्वे की उजरत क़ाज़ी अबू युसूफ़ ने एक लाख दिरहम ली थी।

अल्लामा इब्ने ख़ल्क़ान का कहना है कि अबू हनफि़या के शार्गिदों में अबू युसूफ़ की नज़ीर न थी। अगर यह न होते तो इमाम अबू हनीफ़ा का जि़क्र भी न होता।

तारीख़े इस्लाम मिस्टर जा़किर हुसैन मे ब हवाला सहाह अल अख़बार में है कि हारून रशीद का दरजा सादात कुशी में मन्सूर के कम न था। उसने 176 हिजरी में हज़रत नफ़्से ज़किया (अल रहमा) के भाई यहीया को दीवार में जि़न्दा चुनवा दिया था। उसी ने इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को इस अन्देशे से कि कहीं वह वली अल्लाह मेरे खि़लाफ़ अलमे बग़ावत बलन्द न कर दें अपने साथ हिजाज़ से ईराक़ में ला कर क़ैद कर दिया और 183 हिजरी में ज़हर से हलाक कर दिया। अल्लामा मजलिसी तहफ़्फ़ुज़े ज़ाएर में लिखते हैं कि हारून रशीद ने दूसरी सदी हिजरी में इमाम हुसैन (अ.स.) की क़ब्र मुताहर की ज़मीन जुतवाई थी और क़ब्र पर जो बेरी का दरख़्त बतौरे निशान मौजूद था उसे कटवा दिया था। जिलाउल उयून और क़म्क़ाम में बाहवाला अमाली शेख़ तूसी मरक़ूम है कि जब इस वाक़ेए की इत्तला जरीर इब्ने अब्दुल हमीद को हुई तो उन्होंने कहा कि रसूले ख़ुदा (स अ व व ) की हदीस ‘‘ अलाअन अल्लाह क़ातेअ अल सिदरता ’’ बेरी के दरख़्त काटने वाले पर ख़ुदा की लानत , का मतलब अब वाज़े हुआ।

(तस्वीरे करबला पृष्ठ 61 प्रकाशित देहली पृष्ठ 1338 )

हारून रशीद का पहला हज और इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की पहली गिरफ़्तारी

मोहम्मद अबुल फि़दा लिखता है कि एनाने हुकूमत लेने के बाद हारून रशीद ने 173 हिजरी मे पहला हज किया।

अल्लामा इब्ने हजर मक्की तहरीर फ़रमाते हैं कि ‘‘ कि जब हारून रशीद हज को आया तो लोगों ने इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के बारे में चुग़ली खाई कि उनके पास हर तरफ़ से माल चला आता है। इत्तेफ़ाक़ से एक रोज़ हारून रशीद ख़ानाए काबा के नज़दीक हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) से मुलाक़ी हुआ और कहने लगा तुम ही हो जिनसे लोग छुप छुप कर बैयत करते है। इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) ने फ़रमाया कि हम दिलों के इमाम हैं और आप जिसमों के। फिर हारून रशीद ने हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) से पूछा कि तुम किस दलील से कहते हो कि हम रसूल (स अ व व ) की ज़ुर्रियत हैं हालांकि तुम अली की औलाद हो और हर शख़्स अपने दादा से मुन्तसिब होता है नाना से मुन्तसिब नहीं होता। हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) ने फ़रमाया कि ख़ुदा ए करीम क़ुरान मजीद में इरशाद करता है ‘‘वमन ज़मुरैत दाऊद सुलैमान व अयूबा व ज़करया व यहया व इसा ” और ज़ाहिर है कि हज़रत ईसा बे बाप के पैदा हुए थे तो जिस तरह महज़ अपनी वालेदा की निस्बत से ज़ुर्रियत अम्बिया में मुल्हक़ हुए उसी तरह हम भी अपनी मादरे गिरामी जनाबे फ़ात्मा (स अ व व ) की निस्बत से जनाबे रसूले खुदा (स अ व व ) की ज़ुर्रियत में ठहरे। फिर फ़रमाया कि जब आयत मुबाहेला नाजि़ल हुई तो मुबाहेले के वक़्त पैग़म्बरे ख़ुदा (स अ व व ) ने सिवा अली (अ.स.) और फ़ात्मा (स अ व व ) और हसन हुसैन (अ.स.) के किसी को नहीं बुलाया इस लिहाज़ से हज़रत हसन (अ.स.) व हज़रत हुसैन (अ.स.) ही रसूल अल्लाह (स. अ.) के बेटे क़रार पाए।

(सवाएके़ मोहर्रेक़ा पृष्ठ 122, नूरूल अबसार पृष्ठ 134 अरजहुल मतालिब पृष्ठ 452 )

अल्लामा इब्ने ख़ल्क़ान लिखते हैं कि हारून रशीद हज करने के बाद मदीना मुनव्वरा आया और ज़्यारत करने के लिये रौज़ा ए मुक़द्देसा नबी (स. अ.) पर हाजि़र हुआ। उस वक़्त उसके गिर्द क़ुरैश और दीगर क़बाएले अरब जमा थे , नीज़ हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) भी साथ थे। हारून रशीद ने हाज़ेरीन पर अपना फ़ख़्र ज़ाहिर करने के लिये क़ब्रे मुबारक की तरफ़ मुख़ातिब हो कर कहा , सलाम हो आप पर ऐ रसूल अल्लाह (स. अ.) ऐ इब्ने अम (मेरे चचा जा़द भाई) हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) ने फ़रमाया कि सलाम हो आप पर मेरे पदरे बुजुर्गवार यह सुन कर हारून के चेहरे का रंग फ़क़ हो गया और उसने हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को अपने हमराह ले जाकर क़ैद कर दिया।

(दफ़ायात अल अयान जिल्द 2 पृष्ठ 131 व तारीख़े अहमदी पृष्ठ 349 )

अल्लामा इब्ने शहर आशोब तहरीर फ़रमाते हैं कि जिस ज़माने में आप हारून रशीद के क़ैद ख़ाने में थे हारून ने आप का इम्तेहान करने के लिये नेहायत हसीन जमील लड़की , आपकी खि़दमत करने के लिये क़ैद ख़ाने में भेज दी। हज़रत ने जब उसे देखा तो लाने वाले से फ़रमाया कि हारून से जा कर कह देना कि उन्होंने यह हदिया वापस दिया हैं। ‘‘ बल अन्तुम बहदयातकम तफर हूना ’’ वह अताए तौबा लक़ा तो इससे तुम ही ख़ुशी हासिल करो। उसने हारून से वाकि़या बयान किया। हारून ने कहा कि इसे ले जाकर वहीं छोड़ आओ और इब्ने जाफ़र से कहो कि न मैंने तुम्हारी मरज़ी से क़ैद किया और न तुम्हारी मरज़ी से तुम्हारे पास यह लौंड़ी भेजी है , मैं जो हुक्म दूँ तुम्हे वह करना होगा। अल ग़रज़ वह लौंड़ी हज़रत के पास छोड़ दी गई।

चन्द दिनों के बाद हारून ने एक शख़्स को हुक्म दिया कि जा कर पता लगाए कि इस लौंड़ी का क्या रहा। उस ने जो क़ैद ख़ाने में जा कर देखा तो वह हैरान रह गया। वह भागा हुआ हारून के पास आ कर कहने लगा कि वह लौंड़ी तो ज़मीन पर सजदे में पड़ी हुई सुब्बूहुन क़ुद्दूसुन कह रही है और इसका अजब हाल है। हारून ने हुक्म दिया कि उसे इसके सामने पेश किया जाए , जब वह आई तो बिल्कुल मबहूस थी। हारून ने पूछा कि बात क्या है ? उसने कहा कि जब हज़रत के पास गई और उनसे कहा कि मैं आपकी खि़दमत के लिये हाजि़र हुईं हूँ तो आपने एक तरफ़ इशारा कर के फ़रमाया कि यह लोग जब कि मेरे पास मौजूद हैं मुझे तेरी क्या ज़रूरत है। मैंने जब उस सिम्त को नज़र की तो देखा कि जन्नत आरास्ता है और हूरो गि़लमान मौजूद हैं , उनका हुस्नों जमाल देख कर मैं सज्दे में गिर पड़ी और इबादत करने पर मजबूर हो गई। ऐ बादशाह ! मैंने वह चीज़े कभी नहीं देखीं जो क़ैद ख़ाने में मेरी नज़र से गुज़रीं। बादशाह ने कहा कि कहीं तूने सोने की हालत में ख़्वाब न देखा हो। उसने कहा ऐ बादशाह! ऐसा नहीं है मैंने आलमे बेदारी में बचश्मे ख़ुद सब कुछ देखा है। यह सुन कर बादशाह ने उस औरत को किसी महफ़ूज़ मुक़ाम पर पहुँचा दिया और उसके लिये हुक्म दिया कि इसकी निगरानी की जाय ताकि यह किसी से यह वाक़ेया बयान न करने पाय। रावी का बयान है कि इस वाकि़ये के बाद वह ता हयात मशग़ूले इबादत रही और जब कोई उसकी नमाज़ वग़ैराह के बारे में कुछ कहता था तो यह जवाब में कहती थी कि मैंने अब्दे सालेह हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को इसी तरह करते देखा है। यह पाक बाज़ औरत हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की वफ़ात से कुछ दिनों पहले फ़ौत हो गई।(मनाक़िब इब्ने शहर आशोब जिल्द 5 पृष्ठ 63 )

क़ैद ख़ाने से आपकी रेहाई आप क़ैद खा़ने में तकलीफ़ से दो चार थे और हर कि़स्म की सखि़्तयां आप पर की जा रही थीं कि नागाह बादशाह ने एक ख़्वाब देखा जिससे मजबूर हो कर उसने आपको रेहा कर दिया।

अल्लामा इब्ने हजर मक्की बहवाला अल्लामा मसूदी लिखते हैं कि एक शब को हारून रशीद ने हज़रत अली (अ.स.) को ख़्वाब में इस तरह देखा कि वह एक तेशा (एक तरह का हथियार) लिये हुए तशरीफ़ लाये हैं और फ़रमाते हैं कि मेरे फ़रज़न्द को रेहा कर दे वरना मैं अभी तुझे कैफ़रे किरदाद तक पहुँचा दूँगा। इस ख़्वाब को देखते ही उसने रेहाई का हुक्म दे दिया और कहा कि अगर आप यहां रहना चाहें तो रहिये और मदीना जाना चाहते हैं तो वहां तशरीफ़ ले जाइये आपको इख़्तेयार है।

अल्लामा मसूदी का कहना है कि इसी शब को हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) ने हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स अ ) को ख़्वाब में देखा था।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 122 प्रकाशित मिस्र) अल्लामा जामी लिखते हैं कि मदीने रवाना करते वक़्त हारून ने आप से ख़ुरूज का शुबहा जा़हिर किया। आपने फ़रमाया कि ख़ुरूज व बग़ावत मेरे शायाने शान नहीं है , ख़ुदा की क़सम मैं ऐसा हरगिज़ नहीं कर सकता।(शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 192 )

हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) और अली बिन यक़तीन बग़दादी

क़ैद ख़ाना ए रशीद से छूटने के बाद हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) मदीना ए मुनव्वरा पहुँचे और बदस्तूर अपने फ़राएज़े इमामत की अदायगी में मशग़ूल हो गये। आप चूंकि इमामे ज़माना थे इस लिये आपको ज़माने के तमाम हवादिस की इत्तेला थी। एक मरतबा हारून रशीद ने अली बिन यक़तीन बिन मूसा कूफ़ी बग़दादी को जो कि हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के ख़ास मानने वाले थे और अपनी कार करदिगी की वजह से हारून रशीद के मुक़र्रेबीन में से थे। बहुत सी चीज़ें दीं जिनमें ख़ेलअते फ़ाख़ेरा और एक बहुत उमदा कि़स्म का सियाह ज़रबफ़त का बना हुआ चोग़ा था जिस पर सोने के तारों से फूल कढ़े हुये थे और जिसे सिर्फ़ ख़ुल्फ़ा औद बादशाह पहना करते थे। अली बिन यक़तीन ने अज़ राहे तक़र्रूब व अक़ीदत उस सामान में और बहुत सी चीज़ों का इज़ाफ़ा कर के हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की खि़दमत में भेज दिया। आपने उनका हदिया क़ुबूल कर लिया लेकिन उसमें से इस लिबास मख़सूस को वापस कर दिया जो ज़रबफ़त का बना हुआ था और फ़रमाया कि उसे अपने पास रखो यह तुम्हारे उस वक़्त काम आयेगा जब ‘‘ जान जोखम ’’ में पड़ी होगी। उन्होंने यह ख़्याल करते हुए कि इमाम ने न जाने किस वाकि़ये की तरफ़ इशारा फ़रमाया हो उसे अपने पास रख लिया। थोड़े दिनों के बाद इब्ने यक़तीन अपने एक ग़ुलाम से नाराज़ हो गये और उसे अपने घर से निकाल दिया। इसने जा कर रशीद ख़लीफ़ा से इनकी चुग़ली खाई और कहा कि आप ने जिस क़दर खि़लअत उन्हें दी है उन्होंने सब का सब हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को दे दिया है और चूंकि वह शिया हैं इस लिये इमाम को बहुत मानते हैं। बादशाह ने जैसे ही यह बात सुनी वह आग बबूला हो गया और उसने फ़ौरन सिपाहियों को हुक्म दिया कि अली बिन यक़तीन को इसी हालत में गिरफ़्तार कर लाऐं जिस हाल में वह हों। अलग़रज़ इब्ने यक़तीन लाए गये , बादशाह ने पूछा मेरा दिया हुआ चोग़ा कहाँ है ? उन्होंने कहा बादशाह मेरे पास है। इसने कहा मैं देखना चाहता हूँ और सुनों ! अगर तुम इस वक़्त उसे न दिखा सके तो मैं तुम्हारी गरदन मार दूँगा। उन्होंने कहा बादशाह मैं अभी पेश करता हूँ। यह कह कर उन्होंने एक शख़्स से कहा कि मेरे मकान में जा कर मेरे फ़ुलां कमरे से मेरा सन्दूक उठा ला। जब वह बताया हुआ सन्दूक ले आया तो आपने उसकी मोहर तोड़ी और चोग़ा निकाल कर उसके सामने रख दिया। जब बादशाद ने अपनी आंखों से चोग़ा देख लिया तो उसका ग़ुस्सा ठन्डा हुआ और ख़ुश हो कर कहने लगा कि अब मैं तुम्हारे बारे में किसी की कोई बात न मानूँगा।

(शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 194 )

अल्लामा शिबलन्जी लिखते हैं कि फिर उसके बाद रशीद ने और बहुत सा अतिया दे कर उन्हें इज़्ज़त व ऐहतराम के साथ वापस कर दिया और हुक्म दिया कि चुग़ली करने वालों को एक हज़ार कोड़े लगाए जाऐं चुनान्चे जल्लादो ने मारना शुरू किया और वह पाँच सौ कोड़े खा कर मर गया।

(नूरूल अबसार पृष्ठ 130 )

अली बिन यक़तीन को उलटा वज़ू करने का हुक्म

अल्लामा तबरसी और अल्लामा इब्ने शहर आशोब लिखते हैं अली बिन यक़तीन ने हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को एक ख़त लिखा जिसमें तहरीर किया कि हमारे दरमियान इस अमर में बहस हो रही है कि आया मसह काब से असाबा (उंगलियों) तक होना चाहिये या उंगलियों से काब तक , हुज़ूर इसकी वज़ाहत फ़रमायें। हज़रत ने उस ख़त का एक अजीब व ग़रीब जवाब तहरीर फ़रमाया , आपने लिखा कि मेरा ख़त पाते ही तुम इस तरह वज़ू शुरू करो तीन मरतबा कुल्ली करो , तीन मरतबा नाक में पानी डालो , तीन मरतबा मुह धो अपनी दाढ़ी अच्छी तरह भिगो , सारे सर का मसा करो , अन्दर बाहर कानों का मसा करो तीन मरतबा पाँव धो और देखो मेरे इस हुक्म के खि़लाफ़ हरगिज़ हरगिज़ ना करना। अली बिन यक़तीन ने जब इस ख़त को पढ़ा तो वह हैरान रह गये लेकिन यह समझते हुए मौलाई आलमा बेमा क़ाला आपने जो कुछ हुक्म दिया है उसकी गहराई और उसकी वजह का अच्छी तरह आपको इल्म होगा। इस पर अमल करना शुरू कर दिया।

रावी का बयान है कि अली बिन यक़तीन की मुखा़लेफ़त बराबर दरबार में हुआ करती थी और लोग बादशाह से कहा करते थे कि यह शिया हैं और तुम्हारे मुख़ालिफ़ है। एक दिन बादशाह ने अपने ख़ास मुशीरों से कहा कि अली बिन यक़तीन की शिकायत बहुत हो चुकी है अब मैं ख़ुद छुप कर देख़ूँगा और यह मालूम करूँगा कि वज़ू क्यों कर करते हैं और नमाज़ कैसे पढ़ते हैं। चुनान्चे उसने छुप कर आपके हुजरे में नज़र डाली तो देखा कि वह अहले सुन्नत के उसूल और तरीक़े पर वज़ू कर रहे हैं। यह देख कर उनसे मुतमईन हो गया और उसके बाद से किसी के कहने को बावर नहीं किया। इस वाकि़ये के फ़ौरन बाद हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) का ख़त अली बिन यक़तीन के पास पहुँचा जिसमें मरक़ूम था कि ख़दशा दूर हो गया अब तुम इसी तरह वज़ू करो जिस तरह ख़ुदा ने हुक्म दिया है यानी अब उल्टा वज़ू न करना बल्कि सीधा और सही वज़ू करना और तुम्हारे सवाल का जवाब यह है कि उंगलियों के सर से काबेईन तक पाँव का मसा होना चाहिए।

(आलामुल वरा पृष्ठ 170, मनाक़िब जिल्द 5 पृष्ठ 58 )

वज़ीरे आज़म अली बिन यक़तीन का हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की फ़हमाईश

अल्लामा हुसैन बिन अब्दुल वहाब तहरीर फ़रमाते हैं कि मोहम्मद बिन अली सूफ़ी का बयान है कि इब्राहीम जमाल जो हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के सहाबी थे , ने एक दिन अबुल हसन अली बिन यक़तीन से मुलाक़ात के लिये वक़्त चाहा उन्होंने वक़्त न दिया। उसी साल वह हज के लिये गये और हज को हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) भी तशरीफ़ ले गये इब्ने यक़तीन हज़रत से मिलने के लिये गये उन्होंने मिलने से इन्कार कर दिया इब्ने यक़तीन को बड़ा ताअज्जुब हुआ। रास्ते मुलाक़ात हुई तो हज़रत ने फ़रमाया कि तुम ने इब्राहीम से मुलाका़त करने से इन्कार किया था इस लिये मैं भी तुम से नहीं मिला और उस वक़्त तक न मिलूगाँ जब तक तुम उनसे माफ़ी न मांगोगे और उन्हें राज़ी न करोगे। इब्ने यक़तीन ने अजऱ् की मौला मैं मदीने में हूँ और वह कूफ़े में है , मेरी मुलाक़ात है कैसे हो सकती है ? फ़रमाया तुम तन्हा बक़ी में जाओ , एक ऊँट तय्यार मिलेगा इस पर सवार हो कर कूफ़ा के लिये रवाना हो चश्में ज़दन में वहां पहुँच जाओगे। चुनान्चे वह गये और ऊँट पर सवार हो कर कूफ़ा पहुँचे , इब्राहीम के दरवाज़े पर दक़्क़ुलबाब किया। आवाज़ आई कौन है ? कहा मैं इब्ने यक़तीन हूँ। उन्होंने कहा तुम्हारा मेरे दरवाज़े पर क्या काम है ? इब्ने यक़तीन ने जवाब दिया , सख़्त मुसीबत में मुबतिला हूँ , ख़ुदा के लिये मिलने का वक़्त दो। चुनान्चे उन्होंने इजाज़त दी। इब्ने यक़तीन ने क़दमों पर सर रख कर माफ़ी मांगी और सारा वाक़ेया कह सुनाया। इब्राहीम जमाल ने माफ़ी दी। फिर इसी ऊँट पर सवार हो कर चश्में ज़दन में मदीने पहुँचे और हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की खि़दमत में हाजि़र हुए। इमाम ने फिर माफ़ कर दिया और मुलाक़ात का वक़्त दे कर गुफ़्तुगू फ़रमाई।

(ऐनुल मोजेज़ात पृष्ठ 122 प्रकाशित मुल्तान)

हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के हुक्म से बादल का एक मर्दे मोमिन को चीन से तालेक़ान पहुँचाने का वाकि़आ

हारून रशीद का एक सवाल और उसका जवाब

यह मुसल्लम है कि हज़रात मोहम्मद व आले मोहम्मद , मोजिज़ात करामात और उमूरे ख़रक़ आदात में यकताए काएनात थे , रजअत शमस , शक़्क़ुल क़मर और हज़रत अली (अ.स.) का एक गिरोह समेत चादर पर बैठ कर ग़ारे अस्हाबे कहफ़ तक सफ़र करना उसके शवाहेद हैं।

अल्लामा मोहम्मद इब्ने शहर आशोब तहरीर फ़रमाते हैं कि ‘‘ खा़लिद बिन समा बयान करते हैं कि एक दिन हारून रशीद ने एक शख़्स को तलब किया था अली बिन सालेह तालक़ानी , पूछा तुम ही वह हो जिसको बादल चीन से उठा कर तालक़ान लाए थे ? कहा हाँ। इसने कहा बताओ क्या वाक़ेआ है , यह क्यों कर हुआ ? तालक़ानी ने कहा कि मैं किश्ती में सवार था नागाह जब मेरी कश्ती समुन्दर के इस मक़ाम पर पहुँची जो सब से ज़्यादा गहरा था तो मेरी कश्ती टूट गई। तीन रोज़ मैं तख़्तों पर पड़ा रहा और मौजें मुझे थपेड़े लगाती रहीं , फिर समुन्द्र की मौजों ने मुझे ख़ुश्की में फेंक दिया। वहाँ नहरे और बाग़ात मौजूद थे , मैं एक दरख़्त के साए में सो गया। इसी असना में मैंने एक ख़ौफ़नाक आवाज़ सुनी , डर के मारे बेदार हो गया। फिर दो घोडो को आपस में लड़ते हुए देखा। ऐसे ख़ूब सूरत घोड़े कभी नहीं देखे थे। उन्होंने जब मुझे देखा , समुन्दर में चले गये। मैंने इसी असना में एक अजीब अल खि़ल्क़त परिन्दे को देखा जो आ कर बैठ गया। पहाड़ के ग़ार के क़रीब मैं दरख़्त में छुपे हुए इसके क़रीब गया ताकि इस को अच्छी तरह देख सकूँ। परिन्दे ने जब मुझे देखा तो उड़ गया। मैं उसके पीछे चल पड़ा। ग़ार के क़रीब मैंने तसबीह व तहलील तकबीर और तिलावते क़ुरआने मजीद की आवाज़ सुनी। मैं ग़ार के क़रीब गया। आवाज़ देने वाले ने आवाज़ दी ‘‘ ऐ अली बिन सालेह तालक़ानी ’’ ख़ुदा तुम पर रहम करे। ग़ार में अन्दर आ जाओ। मैं ग़ार के अन्दर चला गया , वहां एक अज़ीम शख़्स को देखा। मैंने सलाम किया , उसने जवाब दिया। फिर फ़रमाया कि ऐ बिन सालेह तालक़ानी तुम मादन उल क़नूज़ हो। भूख , प्यास और ख़ौफ़ के इम्तेहान में पास हुए हो। अल्लाह ताअला ने तुम पर रहम किया है , तुम्हें नजात दी है। तुम्हें पाकीज़ा पानी पिलाया है। मैं उस वक़्त को जानता हूँ जब तुम कश्ती पर सवार हुए और समुन्दर में रहे , तुम्हारी कश्ती टूट गई कितनी दूर तक मौजों के थपेड़े खाती रही। तुम ने अपने आप को समुन्दर में गिराने का इरादा किया , अगर ऐसा करते तो खुद मौत को दावत देते। बड़ी मुसिबत उठाई। मैं उस वक़्त को भी जानता हूँ जब तुम ने नजात पाई और दो ख़ूब सूरत चीज़ें देखीं। तुम ने परिन्दे का पीछा किया। जब उसने तुम्हे देखा तो आसमान की तरफ़ उड़ गया। अल्लाह ताअला तुम पर रहम करें , आओ यहाँ बैठ जाओ। जब मैंने उस शख़्स की बात सुनी तो उस से कहा , मैं तुम्हें अल्लाह ताअला का वास्ता दे कर पूछता हूँ यह बताओ कि मेरे हालात तुम को किसने बताऐ ? फ़रमाया उस ज़ात ने जो ज़ाहिरो बातिन की जानने वाली है। फिर फ़रमाया कि तुम भूखे हो। मैंने अजऱ् की बेशक भूखा हूँ। यह सुन कर आपने अपने लबों को हरकत दी और एक दस्तरख़्वान रूमाल से ढ़का हुआ हाजि़र हो गया। उन्होंने दस्तरख़्वान से रूमाल को उठा लिया। फ़रमाया अल्लाह ताअला ने जो रिज़्क़ दिया है आओ उसे खाओ। मैंने खाना खाया , ऐसा पाकीज़ा खाना कभी न खाया था फिर मुझे पानी पिलाया , मैंने ऐसा लज़ीज़ और मीठा पानी कभी नहीं पिया था। फिर उन्होंने दो रकअत नमाज़ पढ़ी और मुझ से फ़रमाया कि ऐ अली घर जाना चाहते हो , मैंने अजऱ् कि मैं वतन से बहुत दूर हूँ (चीन के इलाक़े में पडा हूँ) मेरी मदद कौन कर सकता है और मैं क्यो कर यहाँ से वतन जा सकता हूँ ? उन्होंने फ़रमाया घबराओ नहीं हम अपने दोस्तों की मदद किया करते हैं। हम तुम्हारी मदद करेंगे। फिर उन्होंने दुआ के लिये हाथ उठाया , नागाह बादल के टुकड़े आने लगे और ग़ार के दरवाज़े को घेर लिये। जब बादल उनके सामने आया तो उसने बाहुक्मे ख़दा सलाम किया ‘‘ ऐ अल्लाह के वली और उसकी हुज्जत आप पर सलाम हो। उन्होंने जवाबे सलाम दिया। फिर बादल के एक टूकड़े से पूछा कहां का इरादा है और किस ज़मीन के लिये तुम भेजे गये हो। उसने ज़मीन का नाम लिये और वह चला गया। फिर अब्र का एक टुकड़ा सामने आया और आ कर सलाम किया। उन्होंने जवाब दिया। पूछा कहां जाने के लिये आया है ? कहा तालक़ान जाने का हुक्म दिया गया है। ऐ ख़ुदा ए वहदहू ला शरीक का इताअत गुज़ार अब्र जिस तरह अल्लाह की दी हुई चीज़ें उड़ा कर लिये जा रहा है इसी तरह इस बन्दाए मोमिन को भी ले जा। जवाब मिला ब सरो चश्म (सर आंखों पर) फिर उन्होंने बादल को हुक्म दिया कि ज़मीन पर बराबर हो जा , वह ज़मीन पर आ गया , फिर मेरे बाज़ू को पकड़ कर उस पर बैठा दिया। बादल अभी उड़ने भी न पाया था कि मैंने उनकी खि़दमत में अजऱ् की , मैं आपको अल्लाम ताअला की क़सम और मोहम्मद (स. अ.) और आइम्मा ए ताहेरीन (अ.स.) का वास्ता दे कर पूछता हूँ कि आप यह फ़रमाइये आप हैं कौन ? आप का इस्मे गेरामी (नाम) क्या है ? इरशाद फ़रमाया ! ऐ अली बिन सालेह तालक़ानी मैं ज़मीन पर अल्लाह की हुज्जत हूँ और मेरा नाम मूसा बिन जाफ़र (मूसा काजि़म) है। फिर मैंने उनके आबाव हजदाद की इमामत का जि़क्र किया और उन्होंने बादल को हुक्म दिया और वह बलन्द हो कर हवा के दोश पर चल पड़ा। ख़ुदा की क़सम न मुझे कोई तकलीफ़ पहुँची और न ख़ौफ़ ला हक़ हुआ। मैं थोडी़ देर में वतन ‘‘ तलक़ान ’’ जा पहुँचा और ठीक उस सड़क पर उतरा जिस पर मेरा मकान था। यह सुन कर हारून रशीद ने जल्लादों को हुक्म दे कर उसे इस लिये क़त्ल करा दिया कि वह कहीं इस वाकि़ये को लोगों में बयान न कर दे और अज़मते आले मोहम्मद और वाज़े न हो जाय।

(मनाक़िब इब्ने शहर आशोब जिल्द 3 पृष्ठ 121 प्रकाशित मुल्तान)

हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) और फि़दक के हुदूदे अरबा

अल्लामा युसूफ़ बग़दादी सिब्ते इब्ने जोज़ी हनफ़ी तहरीर फ़रमाते हैं कि एक दिन हारून रशीद ने हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) से कहा कि आप ‘‘ फि़दक ’’ लेना चाहें तो मैं दे दूँ। आपने फ़रमाया कि मैं जब उसके हुदूद बताऊगां तो तू उसे देने पर राज़ी न होगा और मैं उसी वक़्त ले सकता हूँ जब उसके पूरे हुदूद दिये जायें। उसने पूछा कि उसके हुदूद क्या हैं ? फ़रमाया पहली हद अदन है , दूसरी हद समर कन्द है तीसरी हद अफ़रीक़ा है , चौथी हद सैफ़ अल बहर है जो ख़ज़र्र और आरमीनिया के क़रीब है। यह सुन कर हारून रशीद आग बबूला हो गया और कहने लगा फिर हमारे लिये क्या है ? हज़रत ने फ़रमाया कि इसी लिये तो मैंने लेने से इन्कार किया था। इस वाकि़ये के बाद ही से हारून रशीद हज़रत के दरपए क़त्ल हो गया।

(ख़वास अल उम्मता अल्लामा सिब्ते इब्ने जौज़ी पृष्ठ 416 प्रकाशित लाहौर)

हारून रशीद अब्बासी की सादात कुशी

हमीद बिन क़हतबा और उसका वाक़ेआ

तवारीख़ में है कि हारून रशीद तामीरे बग़दाद और दीगर मुल्की मसरूफि़यात की वजह से थोड़े अर्से तक सादात कुशी की तरफ़ मुतवज्जा न हो सका लेकिन जब उसे ज़रा सा सुकून हुआ तो उसने अपने आबाई जज़बात को बरूए कार लाने का तहय्या कर लिया और इसकी सई शुरू कर दी कि ज़मीन पर आले मोहम्मद का कोई बीज भी बाक़ी न रहने पाए , चुनान्चे उसने पूरा हौसला निकाला और हर मुमकिन सूरत से उन्हें तबाह व बरबाद कर दिया।

उलमा का कहना है कि उसने ग़ुन्ड़ों के गिरोह क़त्ले सादात के लिए मुक़र्रर कर दिये थे और ख़ुद अपनी हुकूमत के आला हुक्काम को ख़ुसूसी हुक्म भेज दिया था कि सलतनत व हुकूमत को पूरी ताक़त से सादात की तलाश की जाए और इनमें से एक को भी जि़न्दा ना छोड़ा जाए।

अल्लामा मजलिसी ‘‘ अब्दुल्लाह बज़ार नेशापुरी के हवाले से ’’ हाकिम ईरान हमीद इब्ने क़हतबा तूसी का एक ख़त लिखते हैं। इब्ने क़हतबा कहते हैं कि मैं इस लिये रौज़ा नमाज़ नहीं करता कि मुझे इल्म है कि मैं बख़्शा नहीं जा सकता और बहर सूरत जहन्नुम में जाऊँगा। ऐ अब्दुल्लाह! तुम से क्या बताऊँ अभी थोड़े अर्से की बात है कि हारून रशीद ने मुझे रात के वक़्त जब कि वह तूस आया हुआ था और मैं भी इत्तेफ़ाक़न आ गया , बुलाया और मुझे हुक्म दिया कि तुम इस ग़ुलाम के साथ जाओ और यह मेरी तलवार हमराह लेते जाओ , यह जो कहे वह करो। मैं इसके हुक्म से ग़ुलाम के साथ हो लिया। ग़ुलाम मुझे एक ऐसे मकान में ले गया जिसमें फ़ात्मा बिन्ते असद रसूल अल्लाह (स. अ.) और अली (अ.स.) की ज़ौजा बुतूल की औलाद क़ैद थी। ग़ुलाम ने एक कमरे का दरवाज़ा खोला और मुझ से कहा कि इन सब को क़त्ल कर के इस कुएं में डाल दो , मैंने उन्हें क़त्ल किया और कुएं में डाल दिया। फिर दूसरा कमरा खोला और मुझ से कहा कि इन सब को क़त्ल कर के कुऐं में डालो , मैंने उन्हें भी क़त्ल किया। मगर तीसरा कमरा खोला और मुझ से कहा कि उन्हें भी क़त्ल करो। मैंने उन्हें भी क़त्ल किया। ऐ अब्दुल्लाह इन सब मक़तूलों की तादाद साठ थी। इनमें छोटे , बड़े , बूढ़े , जवान और सभी कि़स्म के सादात थे। ऐ अब्दुल्लाह जब मैं आख़री कमरे के क़ैदी सादात को क़त्ल करने लगा तो आखि़र में एक नेहायत नूरानी बुजुर्ग बरामद हुए और मुझ से कहने लगे , ऐ ज़ालिम ! क्या रसूल अल्लाह (स अ व व ) को मुँह नहीं दिखाना है ? और क्या खुदा की बारगाह में तुझे नहीं जाना है ? यह तू क्या कर रहा है। इसका कलाम सुन कर मेरा दिल काँप गया और उन पर मेरा हाथ न उठा। इतने में ग़ुलाम ने मुझे डाँट कर कहा हुक्मे अमीर में क्यों देर करता है। उसके यह कहने पर मैंने उन्हें भी तलवार के घाट उतार दिया। अब मेरी नमाज़ और मेरा रौज़ा मुझे क्या फ़ायदा पहुँचा सकता है।

हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की दोबारा गिरफ़्तारी

अल्लामा इब्ने शहर आशोब , अल्लामा तबरसी , अल्लामा अरबली , अल्लामा शिबलन्जी तहरीर फ़रमाते हैं कि 169 -70 हिजरी में हादी के बाद हारून तख़्ते खि़लाफ़त पर बैठा। सलतनत अब्बासीया के क़दीम रवायत जो सादात बनी फ़ात्मा (स अ व व ) की मुख़ालेफ़त मे थे इसके पेशे नज़र थे। खुद इसके बाप मन्सूर का रवय्या जो इमामे जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के खि़लाफ़ था उसे मालूम था। उसका यह इरादा की जाफ़रे सादिक़ के जानशीन को क़त्ल कर डाला जाए यक़ीनन उसके बेटे हारून को मालूम हो चूका होगा वह तो इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की हाकीमाना वसीयत का इख़्लाक़ी दबाव था जिसने मन्सूर के हाथ बांध दिये थे और फिर शहर बग़दाद की तामीर की मसरूफ़ीयत थी जिसने उसे उस जानिब मुतावज्जे नहीं होने दिया था। अब हारून के लिये उनमें से कोई बात माने नहीं थी तख़्ते सलतनत पर बैठ कर अपने अख़्तेदार को मज़बूत करने के रखने के लिये सब से पहले यह ही तसव्वर पैदा हो सकता था कि इस रूहानियत के मरक़ज़ को जो मदीने महल्ला बनी हाशिम में क़ाएम है तोड़ने की कोशिश की जाए मगर एक तरफ़ इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) का मोहतात और ख़ामोश तरज़े अमल और दूसरी सलतनत की अन्दुरूनी मुश्किलात उनकी वजह से 9 बरस तक हारून रशीद को भी किसी खुले हुऐ तशद्दुद का इमाम के खि़लाफ़ मौक़ा न मिला।

इसी दौरान में अब्दुल्लाह इब्ने हसन के फ़रज़न्द याहिया दरपेश हुआ वह अमान दिये जाने के बाद तमाम अहदो पैमान को तोड़ कर दर्द नाक तरीक़े पर क़ैद रखे गये और फिर क़त्ल किये गए बावजूद कि याहिया के मामलात से इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को किसी तरह का सरो कार न था बल्कि वाक़ेयात से साबित होता है कि हज़रत उनको हुकूमते वक़्त की मुख़ालफ़त से मना फ़रमाते थे। मगर अदावते बनी फ़ात्मा का जज़बा जो याहिया बिन अब्दुल्लाह की मुख़ालेफ़त के बहाने से उभर गया था इसकी ज़द से हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) भी महफ़ूज़ न सके। इधर याहिया बिन खा़लिद बर मक्की जो वज़ीरे आज़म था अमीन (फ़रज़न्द हारून रशीद) के अतालिक़ ताफरबिन मोहम्मद अशअस की रक़ाबत में इसके खि़लाफ़ यह इल्ज़ाम क़ाएम किया कि यह इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के शियों में से है और इनके इक़तिदार का ख़्वाह है।

बराह रास्त उस का मक़सद हारून को जाफ़र से बरग़श्ता करना था लेकिन बिल वास्ता इसका ताअल्लुक़ हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के साथ भी था इस लिये हारून को हज़रत की ज़रर रसानी की फि़क्र पैदा हो गई इस दौरान में यह वाकि़या पैदा हुआ कि हारून रशीद हज के इरादे से मक्का मोअज़्ज़मा में आया। इत्तेफ़ाक़ से इसी साल हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) भी हज को तशरीफ़ लाए हुए थे। हारून ने अपनी आँख से इस अज़मत व मरजीयत का मुशाहेदा किया जो मुसलमानों में इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के मुतालिक़ पाई जाती थी। इससे इसके हसद की आग भी भड़क उठी। इसके बाद इसमें मोहम्मद बिन इस्माईल की मुख़ालेफ़त ने और इज़ाफ़ा कर दिया वाक़ेया ये है कि इस्माईल इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के बड़े फ़रज़न्द थे और इस लिये उनकी जि़न्दगी में आम तौर पर लोगों का ख़्याल यह था कि वह इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के क़ायम मुक़ाम हो गये मगर उनका इन्तेक़ाल इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के ज़माने में ही हो गया और लोगों का ख़्याल ग़लत साबित हुआ फिर भी बाज़ सादा लौह असहाब इस ख़्याल पर क़ायम रहे कि जा नशिनी का हक़ इस्माईल और औलादे इस्माईल में मुनहासिर है। उन्होंने इमाम हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की इमामत को क़ुबूल नहीं किया चुनान्चे इस्माईलिया फि़रका़ बन गया मुख़्तसर तादाद में सही अब दुनिया में मौजूद थे। मोहम्मद इन ही इस्माईल के फ़रज़न्द थे और इस लिये मूसा काजि़म (अ.स.) से एक तरह की मुख़ालेफ़त पहले से रखते थे। मगर चुंकि इनके मानने वालों की तादाद बहुत ही कम थी और वह हज़रात कोई नुमाया हैसियत न रखते थे इस लिये ज़ाहिरी तौर पर इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के यहां आमदो नफ़्त रखते थे और ज़ाहिरी तौर पर क़राबत दारी के तालुक़ात क़ाएम किए हुए थे।

हारून रशीद ने इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की मुखालफ़त की सूरतों पर ग़ौर करते हुए याहिया बर मक्की से मशविरा लिया कि मैं चाहता हूँ कि औलादे अबू तालिब में से किसी को बुला कर इससे मूसा इब्ने जाफ़र के पूरे हालात दरयाफ़्त करूं। याहिया जो ख़ुद अदावत बनी फ़ात्मा में हारून से कम न था इसने मोहम्मद बिन इस्माईल का पता दिया कि आप इनको बुला कर दरयाफ़्त करें तो सही हालात मालूम हो सकेंगे चुनान्चे उसी वक़्त मोहम्मद बिन इस्माईल के नाम ख़त लिखा गया।

शहनशाहे वक़्त का ख़त जो मोहम्मद बिन इस्माईल को पहुँचा तो उसने अपनी दुनियांवी कामयाबी का बेहतरीन ज़रिया समझ कर फ़ौरन बग़दाद जाने का इरादा कर लिया मगर इन दिनों हाथ बिल्कुल ख़ाली थे , इतना रूपया पैसा मौजूद न था कि सामाने सफ़र करते मजबूरत इसी डेवढी पर आना पड़ा जहां करम व अता में दोस्त व दुश्मन की तफ़रीक़ न थी। इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) के पास आ कर बग़दाद जाने का इरादा ज़ाहिर किया। हज़रत ख़ूब समझते थे कि इस बग़दाद के सफ़र का पस मन्ज़र और इसकी बुनियाद क्या है। हुज्जत तमाम करने की ग़रज़ से आप ने सफ़र का सबब दरयाफ़्त किया। उन्होंने अपनी परेशान हाली बयान करते हुए क़र्ज़दार बहुत हो गया हूँ कि शायद वहां जा कर कोई सूरत बसर अवक़ात की निकले और मेरा क़र्ज़ा अदा हो जाए। हज़रत ने फ़रमाया वहां जाने की ज़रूरत नहीं है , मैं वादा करता हूँ कि तुम्हारा क़र्ज़ा अदा करूगां और जहां तक होगा। तुम्हारे ज़रूरयाते जि़न्दगी भी पूरी करता रहूँगा। अफ़सोस है कि मोहम्मद ने इसके बाद बग़दाद जाने का इरादा नहीं बदला। चलते वक़्त हज़रत से रूख़सत होने लगे तो अज्र किया कि मुझे वहां के मुताअल्लिक़ कुछ हिदायत फ़रमाई जाएं , हज़रत ने उसका कुछ जवाब न दिया। जब उन्होंने कई मरतबा इस्रार किया तो हज़रत ने फ़रमायाः बस इतना ख़्याल रखना कि मेरे ख़ून में शरीक न होना और मेरे बच्चों की यतीमी के बाएस न बनना। कुछ और हिदायत फ़रमाइये , हज़रत ने उसके अलावा कुछ कहने से इन्कार किया। जब वह चलने लगे तो हज़रत ने साढ़े चार सौ दीनार और पन्द्रह सौ दिरहम उन्हें मसारिफ़े सफ़र के लिये अता फ़रमायें। नतीजा वही हुआ जो हज़रत के पेशे नज़र था। मोहम्मद बिन इस्माईल बग़दाद पहुँचे और वज़ीरे आज़म बर मक्की के मेहमान हुए। उसके बाद यहीया के साथ हारून के दरबार में पहुँचे। मसलेहते वक़्त की बिना पर बहुत ताज़ीमो तकरीम की गई। गुफ़्तुगू के दौरान हारून ने मदीने के हालात दरयाफ़्त किये। मोहम्मद ने इन्तेहाईं ग़लत बयानियो के साथ वहां के हालात का तज़किरा किया और यह भी कहा कि मैंने आज तक नहीं देखा और न सुना कि एक मुल्क में दो बादशाह हों। उसने कहा ! कि इसका क्या मतलब ? मोहम्मद ने कहा कि बिल्कुल उसी तरह जैसे आप बग़दाद में सलतनत कर रहे हैं मूसा काजि़म मदीने में अपनी सलतनत क़ायम किये हुए हैं , अतराफ़ मुल्क से उनके पास खि़राज पहुँचता है और वह आपके मुक़ाबले के दावे दार हैं। उन्होंने बीस हज़ार अशरफी की एक ज़मीन ख़रीदी है जिसका नाम ‘‘ सैरिया ’’ है। (शिबलन्जी) यही बाते थीं जिनके कहने के लिये यहीया बर मक्की ने मोहम्मद को मुन्तखि़ब किया था। हारून का ग़ैज़ो ग़ज़ब इन्तेहाई इशतेआल के दरजे तक पहुँच गया उसने मोहम्मद को दस हज़ार दीनार अता कर के रूख़सत किया। ख़ुदा का करना यह कि मोहम्मद को इस रक़म से फ़ायदा उठाने का एक दिन भी मौक़ा नहीं मिला इसी शब को उनके हलक़ में दर्द पैदा हुआ ग़ालेबन ‘‘ ख़न्नाक ’’ हो गया और सुबह होते होते वह दुनिया से रूख़सत हो गये। हारून को यह ख़बर पहुँची तो अशरफि़यों के तोड़े वापस मंगवा लिये मगर मोहम्मद की बातों का असर उसके दिल पर ऐसा जम गया था कि उसने यह तय कर लिया कि इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) का नाम सफ़हे हसती से मिटा दिया जाय। चुनान्चे 169 हिजरी में फिर हारून रशीद ने मक्कए मोअज़्ज़मा का सफ़र किया और वहां से मदीना ए मुनव्वरा गया। दो एक रोज़ क़याम के बाद कुछ लोग इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को गिरफ़्तार करने के लिये रवाना किये। जब यह लोग इमाम (अ.स.) के मकान पर पहुँचे तो मालूम हुआ कि हज़रत रौज़ा ए रसूल (स अ व व ) पर हैं। उन लोगों ने रौज़ा ए पैग़म्बर (स अ व व ) की इज़्ज़त का भी ख़्याल न किया। हज़रत उस वक़्त क़ब्रे रसूल (स अ व व ) के नज़दीक नमाज़ में मशग़ूल थे। बे रहम दुश्मनों ने आपको नमाज़ की ही हालत में क़ैद कर लिया और हारून के पास ले गये।

मदीना ए रसूल (स अ व व ) के रहने वालों में बे हिसी इसके पहले भी बहुत दफ़ा देखी जा चुकी थी। यह भी इसकी एक मिसाल थी कि रसूल (स. अ.) के फ़रज़न्द रौज़ा ए रसूल (स अ व व ) से इस तरह गिरफ़्तार कर के ले जाया जा रहा था मगर नाम नेहाद मुसलमानों में एक भी ऐसा न था जो किसी तरह की आवाज़े एहतेजाज बलन्द करता। यह 20 शव्वाल 179 हिजरी का वाकि़या है।

हारून इस अन्देशे से कि कोई जमाअत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को रिहा कराने की कोशिश न करे दो महमिले तैय्यार कराईं। एक में इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को सवार कराया और उसको एक बहुत बड़े फ़ौजी दस्ते के हल्क़े में बसरे रवाना किया और दूसरी महमिल जो ख़ाली थी उसे भी इतनी ही तादात की हिफ़ाज़त में बग़दाद रवाना किया। मक़सद यह था कि आपके महले क़याम और क़ैद की जगह को भी मशक़ूक बना दिया जाए। यह निहायत हसरत नाक वाकि़या था कि इमाम के अहले हरम और बच्चे वक़्ते रूख़सत आपको देख भी न सके और अचानक महल सरा में सिर्फ़ यह इत्तेला पहुँच सकी कि हज़रत सलतनते वक़्त की तरफ़ से क़ैद कर लिये गये हैं। इससे बीवियों और बच्चों में कोहराम बरपा हो गया और यक़ीनन इमाम के दिल पर भी जो इसका सदमा हो सकता है वह ज़ाहिर है मगर आपके ज़ब्तो सब्र की ताक़त के सामने हर मुश्किल आसान थी।

मालूम नहीं कितने हेर फेर से यह रास्ता तय किया गया था कि पूरे एक महीने सत्तरह रोज़ के बाद 7 जि़ल्हिज्जा को आप बसरे पहुँचाये गये। एक साल तक आप बसरे में क़ैद रहे। यहां का हाकिम हारून का चचा ज़ाद भाई ईसा बिन जाफ़र था। शुरू में तो उसे सिर्फ़ बादशाह के हुक्म की तामील मद्दे नज़र थी बाद में उसने ग़ौर करना शुरू किया कि आखि़र उनके क़ैद किये जाने का सबब क्या है।

इस सिलसिले में उसको इमाम (अ.स.) के हालात और सीरते जि़न्दगी इख़लाक़ो अवसाफ़ की जुस्तुजू का मौक़ा भी मिला और जितना उसने इमाम की सीरत का मुतालेआ किया उतना उसके दिल पर आपकी बलन्दीए इख़लाक़ और हुसैन किरदार का असर का़यम होता गया। अपने इन असरात से उसने हारून को मुत्तला भी किया। हारून पर इसका उल्टा असर हुआ। ईसा के बारे में बदगुमानी पैदा हो गई इस लिये उसने इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को बग़दाद में बुला भेजा और फ़ज़ल बिन रबी की हिरासत में दे दिया और फिर फ़ज़ल का रूझान शिअत की तरफ़ महसूस करके यहीया बर मक्की को उसके लिये मुक़र्रर किया।

मालूम होता है कि इमाम के इख़्लाक़ और अवसाफ़ की कशिश हर एक पर अपना असर डालती थी इस लिये ज़ालिम बादशाह को निगरानों की तबदीली की ज़रूरत पड़ती थी। सब से आखि़र में इमाम (अ.स.) सिन्दी बिन शाहक के क़ैद ख़ाने में रखे गये , यह बहुत ही बे रहम और सख़्त दिल था। मुलाहेज़ा हो।(मनाक़िब जिल्द 5 पृष्ठ 68 व आलामुल वुरा पृष्ठ 180, कशफ़ल ग़म्मा पृष्ठ 108, नूरूल अबसार पृष्ठ 136, सवानेह मूसा काजि़म पृष्ठ 15 )