चौदह सितारे

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चौदह सितारे लेखक:
कैटिगिरी: शियो का इतिहास

चौदह सितारे
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चौदह सितारे

चौदह सितारे

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


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इमाम (अ.स.) का क़ैद ख़ाने में इम्तेहान और इल्मे ग़ैब का मुज़ाहेरा

अल्लामा शिब्लनजी लिखते हैं कि जिस ज़माने में आप हारून रशीद के क़ैद ख़ाने में सखि़्तयां बरदाश्त फ़रमा रहे थे इमाम अबू हनीफ़ा के शार्गिद रशीद अबू युसूफ़ और मोहम्मद बिन हसन एक शब क़ैद ख़ाने में इस लिये गये कि आपके बहरे इल्म की थाह मालूम करें और देखें कि आप इल्म के कितने पानी में है। वहां पहुँच कर उन लोगों ने सलाम किया , इमाम (अ.स.) ने जवाबे सलाम इनायत फ़रमाया। अभी यह हज़रात कुछ पूछने ना पाय थे कि एक मुलाजि़म डयूटी ख़त्म कर के घर जाते हुए आपकी खि़दमत में अर्ज परदाज़ हुआ कि मैं कल वापस आऊँगा अगर कुछ मंगाना हो तो मुझ से फ़रमा दीजिये मैं लेता आऊँगा। आपने इरशाद फ़रमाया मुझे किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं। जब वह चला गया तो आपने अबू युसूफ़ वग़ैरा से कहा कि यह बेचारा मुझसे कहता है कि मैं उस से अपनी हाजत बयान करूं ताकि यह कल उसकी तकमील व तामील कर दे लेकिन उसे ख़बर नहीं कि यह आज रात को वफ़ात पा जायेगा। इन हज़रात ने जो यह सुना तो सवाल जवाब के बग़ैर ही वापस चले आये और आपस में कहने लगे कि हम इन से हलालो हराम , वाजिबो सुन्नत के मुताअल्लिक़ सवालात करना चाहते थे। ‘‘ फ़ा अख़ाज़ा यतकलम माआना इल्म अल ग़ैब ’’ मगर यह तो हमसे इल्में ग़ैब की बाते कर रहे हैं। उसके बाद उन दोनों हज़रात ने उस मुलाजि़म के हालात का पता लगाया तो मालूम हुआ कि वह नागहानी तौर पर रात ही में वफ़ात कर गया। यह मालूम करके इन हज़रात को सख़्त ताअज्जुब हुआ।

(नूरूल अबसार पृष्ठ 146 )

अल्लामा अरबली लिखते हैं कि इस वाकि़ये के बाद यह हज़रात फिर इमाम (अ.स.) की खि़दमत में हाजि़र हो कर अर्ज़ परदाज़ हुए कि हमें मालूम था कि आपको सिर्फ़ इल्मे हलालो हराम में ही महारत हासिल है लेकिन क़ैद ख़ाने के मुलाजि़म के वाकि़ये ने वाज़े कर दिया कि आप इल्म अल मनाया और इल्मे ग़ैब भी जानते हैं। आपने इरशाद फ़रमाया कि यह इल्म हमारे लिये मख़्सूस है। इसकी तालीम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स. अ.) ने हज़रत अली (अ.स.) को दी थी और उनसे यह इल्म हम तक पहुँचा है।

हज़रत इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) की शहादत

अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि जब हारून रशीद ने बसरे में एक साल क़ैद रखने के बाद ईसा इब्ने जाफ़र वालिये बसरा को लिखा कि मूसा बिन जाफ़र (इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) को क़त्ल कर के बादशाह को उनके वुजूद से सुकून दे दे तो उसने अपने हमर्ददों से मशवेरे के बाद हारून रशीद को लिखा कि ऐ बादशाह इमाम मूसा काजि़म (अ.स.) में मैं ने एक साल के अन्दर कोई बुराई नहीं देखी यह शबो रोज़ नमाज़ रोज़े में मसरूफ़ व मशग़ूल रहते हैं अवाम और हुकूमत के लिये दुआए ख़ैर किया करते हैं और मुल्क की फ़लाह व बहबूद के ख़्वाहिश मन्द हैं भला मुझ से क्यों कर हो सकता है कि मैं उन्हें क़त्ल कर के अपनी आक़ेबत बिगाड़ूं।

ऐ बादशाह ! मैं उनके क़त्ल करने में अपने अन्जाम और अपनी आक़ेबत की तबाही देख रहा हूँ और सख़्त हरज महसूस करता हूँ लेहाज़ा तू मुझे इस गुनाहे अज़ीम के इरतेक़ाब से माफ़ कर बल्कि मुझे हुक्म दे दे कि मैं उन्हें क़ैदे मशक़्क़त से रिहा करूं। इस ख़त को पाने के बाद हारून रशीद ने आखि़र में यह काम सन्दी बिन शाहक के हवाले किया और इसी से आपको ज़हर दिलवा कर शहीद करा दिया। ज़हर खाने के बाद आप तीन रोज़ तक तड़पते रहे , यहां तक कि वफ़ात पा गये।

(नूरूल अबसार पृष्ठ 137 )

अल्लामा जामी लिखते हैं कि ज़हर खाते ही आपने फ़रमाया कि आज मुझे ज़हर दिया गया है कल मेरा बदन ज़र्द हो जायेगा और तीसरे रोज़ काला हो जायेगा और उसी दिन मैं इस दुनियां से रूख़सत हो जाऊँगा। चुनान्चे ऐसा ही हुआ।

(शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 193 )

अल्लामा इब्ने हजरे मक्की लिखते हैं कि हारून रशीद ने आपको बग़दाद में क़ैद कर दिया और ता-हयात क़ैद रखा। आपकी वफ़ात के बाद हथकड़ी और बेड़ी कटवाई गई। आपकी वफ़ात हारून रशीद के ज़हर से हुई जो उसने सन्दी इब्ने शाहक के ज़रिये से दिलवाया था। जब आपको खाने या ख़ुरमा में ज़हर दिया गया तो आप तीन रोज़ तक तड़प ते रहे। यहां तक कि इन्तेक़ाल हो गया।

(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 132, अरजहुल मतालिब पृष्ठ 454 )

अल्लामा इब्ने अल साई अली बिन अल नजब बग़दादी लिखते हैं कि आप को ज़हर से इन्तेहाई मज़लूमी की हालत में शहीद कर दिया गया।

(अख़बारूल ख़ुलफ़ा)

अल्लामा अबुल फि़दा लिखते हैं कि क़ैद खा़ने रशीद में आपने वफ़ात पाई।

(अबुल फि़दा जिल्द 2 पृष्ठ 151 )

अल्लामा दायरे बकरी लिखते हैं कि आपको हारून रशीद के हुक्म से यहीया इब्ने ख़ालिद बर मक्की वज़ीरे आज़म ने ख़ुरमे में ज़हर दे कर शहीद कर दिया।(तारीख़े ख़मीस जिल्द 2 पृष्ठ 320 )

अल्लामा जामी लिखते हैं कि आपको हारून रशीद ने बग़दाद में ला कर ता उम्र क़ैद रखा आखि़र में अपने वज़ीरे आज़म यहीया इब्ने ख़ालिद बर मक्की के ज़रिये से क़ैद ख़ाने में ज़हर दिलवा दिया और आप वफ़ात पा गये।

(शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 193 )

अल्लामा मजलिसी तहरीर फ़रमाते हैं कि आपको कई मरतबा ज़हर दिया गया लेकिन आप हर बार महफ़ूज़ रहे। एक मरतबा आपने वह ख़ुरमा उठा कर जिसमें ज़हर था ज़मीन पर फ़ेंक दिया जिसे हारून के कुत्ते ने खा लिया और वह मर गया कुत्ते के मरने की ख़बर से हारून रशीद को शदीद रंज हुआ और उसने ख़ादिम से सख़्त बाज़ पुर्स की।(जिलाउल उयून पृष्ठ 173 )

आपकी तारीख़े वफ़ात

आप की वफ़ात हसरत आयात बतारीख़ 25 रजबुल मुरज्जब 183 हिजरी यौमें जुमा वाक़े हुई। आपकी उम्र उस वक़्त 55 साल की थी।

(मतालेबुल सुऊल पृष्ठ 282, अलाम अल वरा पृष्ठ 171 व शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 192, नूरूल अबसार पृष्ठ 137 वगै़रह) अपने 14 साल हारून रशीद के क़ैद ख़ाने में गुज़ारे।

मिर्ज़ा दबीर कहते हैं

मौला पर इन्तेहाए असीरी गुज़र गई।

जि़न्दान में जवानी व पीरी गुज़र गई।।

वफ़ात के बाद आपकी नाअशे मुबारक क़ैद ख़ाने से हथकड़ी और बेड़ी समेत निकाल कर बग़दाद के पुल पर डाल दी गई और नेहायत तौहीन आमेज़ अलफ़ाज़ में आपके और आपके मानने वालों को याद किया गया लोग अगरचे बादशाह के ख़ौफ़ से नुमाया तौर पर मज़हमत की जुरअत ना करते थे ताहम एक गिरोह ने जिसके सरदार सुलेमान बिन जाफ़र इब्ने अबी जाफ़र थे हिम्मत की और नाअशे मुबारक दुश्मनों से छीन कर ग़ुस्लों कफ़न का बन्दो बस्त किया। ढ़ाई हज़ार का कि़मती कफ़न दिया , जिस पर पूरा क़ुरआन लिखा हुआ था। नेहायत तुज़ुक व एहतिशाम से जनाज़ा ले कर चले इन लोगों के गरेबान ग़में इमामे मज़लूम में चाक थे यह इन्तेहाई ग़म व अलम के साथ जनाज़े को ले कर मक़बरा क़ुरैश में पहुँचे। हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) नमाज़ व दफ़न के लिये मदीना से ब ऐजाज़ पहुँच चुके थे। आपने नमाज़ पढ़ाई और अपने वालिदे माजिद को सुपुर्दे ख़ाक फ़रमाया।

(आलामुल वुरा पृष्ठ 170 अनवारे नोमानिया पृष्ठ 127 जिन्नात अल ख़लूद पृष्ठ 130 जिलाउल उयून पृष्ठ 275 )

तदफ़ीन के बाद हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) वापस मदीना तशरीफ़ ले गए। मदीने वालों को जब आपकी शहादत की इत्तिला मिली तो कोहराम बरपा हो गया। मातम और अदाए ताज़ीयत का सिलसिला मुद्दतों जारी रहा।

(जिलाउल उयून पृष्ठ 276 )

अल्लामा मोहम्मद बिन तलह शाफ़ेई लिखते हैं कि आप की तदफ़ीन के एक अर्से बाद अयान मुल्क से एक शख़्स ने वफ़ात की , लोगों की ख़्वाहिश पर उसे आप ही के मक़बरे में दफ़न कर दिया गया। एक शब उसने अपने ख़ादिम को ख़्वाब में आगाह किया। उसने देखा कि मक़बरे में आग लगी हुई है और इससे धुआं फ़ैल रहा है और बदबू फैल रही है , सुबह को उसने बादशाहे वक़्त को बाख़बर किया , बादशाह ने क़ब्र ख़ुदवाई तो आग के आसार मौजूद थे और क़ब्र में मैय्यत का वजूद ना था वह जल कर ख़ाक स्तर हो गई थी।

(मतालिबुल सुऊल पृष्ठ 281 )

तादादे औलाद

सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 122 में है कि आपके 37 औलाद थीं। अल्लामा तबरसी , अल्लामा अरबली और हज़रत शैख़ मुफ़ीद लिखते हैं कि आप के 19 लड़के 18 लड़कियाँ थी जिनके नाम यह हैं।

1.हज़रत इमाम रज़ा (अ स ) , 2. इब्राहीम , 3. अब्बास , 4. क़ासिम , 5. इस्माईल , 6. जाफ़र , 7. हारून , 8. हसन , 9.अहमद , 10. मोहम्मद , 11. हमज़ा , 12. अब्दुल्लाह , 13. इस्हाक़ , 14. अबीद अल्लाह , 15. ज़ैद , 16. हसन , 17. फ़ज़ल , 18. हुसैन , 19. सुलैमान , 20. फ़ात्मा , 21. कुबरा , 22. रूक़य्या , 23. आलीया , 24. रूक़य्या सुग़रा , 25. कुलसूम , 26. उम्मे जाफ़र , 27. लबाह , 28. ज़ैनब , 29. ख़तीजा , 30. आलीहा , 31. आमना , 32. हुसना , 33. बरयह , 34. उम्मे सलमा , 35. मैमूना , 36. उम्मे कुलसूम , 37. उम्मे अबीहा व ब़क़ौले उम्मे अब्दुल्लाह व बक़ौले उम्मे असमा।

(आलामुल वुरा पृष्ठ 181 कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 103 , इरशाद पृष्ठ 330 , नूरूल अबसार पृष्ठ 137 आपकी यह औलादें मुख़तलिफ़ बीबीयों से थे।

अबुलहसन हज़रत इमाम अली रज़ा ( अ स )

बतौर ज़ादे सफ़र उसवा ए हुसैन लिए

चला है सुए ख़ुरासान कारवाने रज़ा (अ.स.)

मुशाबेहत है बहुत करबला व मशहद में

वो आज़माइशे सब्र और ये इम्तेहाने रज़ा (अ.स.)

साबिर थरयानी ‘‘ कराची ’’

अरब से आप क्या आए कि , ईमान की बहार आई

अजम ने पाई इज़्ज़त मरकज़े , अहले विला हो कर

बहुत मुश्ताक़ थे अहले अजम , नूरे रिसालत के

ज़मीने तूस का चमका सितारा नक़्शा पा हो कर

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) रसूले करीम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) के आठवें जां नशीन , मुसलमानो के आठवें इमाम और सिलसिला ए असमत की दसवीं कड़ी थे। आपके वालिदे माजिद इमाम मुसिए काज़िम (अ.स.) थे और वालेदा माजेदा उम्मुल बनीन उर्फ़ नजमा थीं। जनाबे नजमा के मुताअल्लिक़ उलमा का बयान है कि आपका शुमार अशरफ़े अजम में था और आप अक़ल व दियानीयत के लेहाज़ से अफ़ज़ल अन्साँ थीं। हमीदा ख़ातून यानी इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) की वालदा का कहना है कि मैंने उम्मुल बनीन से बेहतर किसी औरत को नहीं पाया।

अली बिन मीसम कहते हैं कि हमीदा ख़ातून को रसूले ख़ुदा (स.अ.) ने ख़्वाब में हुक्म दिया था कि उम्मुल बनीन की शादी इमाम मुसिए काज़िम (अ.स.) से करो ‘‘ क्यों कि सैलदसनहा ख़ैरा हल अर्ज़ ’’ इन से अनक़रीब एक ऐसा फ़रज़न्द पैदा होने वाला है जो मादरे गेती की आग़ोश में बसने वालों में सब से बेहतर होगा।( आलामुल वुरा पृष्ठ 182)

अल्लामा मोहम्मद रज़ा लिखते हैं कि जनाबे उम्मुल बनीन हुस्नो जमाल ज़ोहदो तक़वा में अपनी आप नज़ीर थीं।( जन्नातुल ख़ुलूद पृष्ठ 31)

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) अपने आबाओ अजदाद की तरह इमाम मन्सूस ‘‘मासूम’’ आलमें ज़माना और अफ़ज़ले काएनात थे। अल्लामा इब्ने हजर मक्की तहरीर फ़रमाते हैं कि आप तमाम लोगों में जलीलुल क़दर और अज़ीम उल मरतबत थे।( सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 122)

अल्लामा अब्दुरहमान जामी लिखते हैं कि आप की बातें पुर अज़ हिकमत और आपका अमल दरूस्त और आपका किरदार महफ़ूज़ अनल ख़ता था। आप इल्म हिकमत से भरपूर थे। रूए ज़मीन पर आपकी मिसाल व नज़ीर न थी।( शवाहेदुन नबूअत पृष्ठ 197 प्रकाशित लखनऊ 1904 0)

अल्लामा अबीद उल्लाह लिखते हैं कि इब्राहीम बिन अब्बास का कहना है कि मैंने इन से बड़ा आलम देखा ही नहीं।( अरजहुल मतालिब पृष्ठ 255)

अल्लामा शहीर लिखते हैं कि आप अशरफ़ुल मख़लूके ज़माना थे।( हबीब अल सैर ) आपको इल्मे माकान और मायकून आबाव अजदाद से विरासतन पहुँचा था।( वसीलतुन नजात पृष्ठ 377) आप हर ज़बान और हर लुग़त में फ़सीह और दाना तरीन मरदुम थे और जो शख़्स जिस ज़बान में बातें करता था उसको उसी ज़बान में जवाब देते थे।( रौज़तुल अहबाब ) अल्लामा मोहम्मद बिन तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि आप बारह इमामों में के तीसरे अली हैं। आपका ईमान हद से बढ़ा हुआ था। आपकी शान इन्तेहां को पहुँची हुई थी। आपका कसरे फ़ज़ीलत निहायत बलन्द था और आपके इमकानाते करम निहायत वसी थे। आपके मद्दगार बे शुमार और आपके शरफ़ व इमामत निहायत रौशन थे इसी वजह से ख़लीफ़ा ए वक़्त मामून रशीद ने आपको अपने दिल में जगह दी , अपनी हुकूमत में शरीक क़रार दिया। ख़लीफ़ा ए हुकूमत बनाया और अपनी लड़की की शादी आपके साथ कर दी। आपके मनाक़िब व सिफ़ात निहायत बलन्द , आपके मकारम और आपके इख़्लाक़ निहायत अज़ीम थे। बस मुख़्तसर यह कि सिफ़ाते हसना की जो मंज़िले थीं उनसे आपका दरजा बलन्द था।( मतालेबुल सूऊल पृष्ठ 252)

पादरी लेनेन एडवर्ड सील डी 0 डी 0 लिखता है कि इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) ने अली बिन मूसा (अ.स.) को अपना वारिस इस लिये क़रार दिया कि वह उनको सब से ज़्यादा मन्सूबे इमामत का अलह समझते थे।( अशना अशरया , पृष्ठ 46 प्रकाशित लाहौर 1925 0)

हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) फ़रमाते हैं कि मेरा यह फ़रज़न्द ‘‘ यतर मई फ़िल जाफ़र ला यनजू फ़ीहे इल्ला नबी अव वसी ’’ मेरे साथ जाफ़र जामए को देखता और उसे समझता है जिसे नबी और वसी के अलावा कोई देख नहीं सकता।( जन्नातुल ख़ुलूद पृष्ठ 31) रजाल कशी व दमए साकेबा पृष्ठ 35 व मसन्द इमाम रज़ा (अ.स.) के पृष्ठ 2 में है कि आप आलिम अहले ज़माना और कसीर उल सोम अल इबादत थे।

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की विलादत ब सआदत

उलेमा व मुवर्रेख़ीन का बयान है कि आप बा तारीख़ 11 ज़ीक़ादा 153 हिजरी यौमे पंज शम्बा बमक़ाम मदीना ए मुनव्वरा पैदा हुए हैं ( आलामुल वुरा , पृष्ठ 182 जिलाउल उयून पृष्ठ 280 रौज़तुल पृष्ठ जिल्द 3 पृष्ठ 13, अनवारूल नोमानिया पृष्ठ 127) आपकी विलादत के मुताअल्लिक़ अल्लामा मजलिसी और अल्लामा मोहम्मद पारसा तहरीर फ़रमाते हैं कि जनाबे उम्मुल बनीन का कहना है कि जब तक इमाम अली रज़ा (अ.स.) मेरे बत्न में रहे मुझे हमल की गरानियां क़तअन महसूस नहीं हुई। मैं ख़्वाब में अक्सर तसबीह व तहलील और तमजीद व तहमीद की आवाज़े सुना करती थी। जब इमाम रज़ा (अ.स.) पैदा हुए तो आपने ज़मीन पर तशरीफ़ लाते ही दोनों हाथ ज़मीन पर टेक दिये और अपना सरे मुबारक आसमान की तरफ़ बलन्द कर दिया। आपके होंठ जुम्बीश करने लगे। ऐसा मालूम होता था कि जैसे आप ख़ुदा से कुछ बातें कर रहे हैं। इसी असना में इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) तशरीफ़ लाये और मुझसे इरशाद फ़रमाया कि तुम्हे ख़ुदा वन्दे आलम की इनायत व करामत मुबारक हो। फिर मैंने मौलूदे मसूद को आपकी आग़ोश में दे दिया। आपने उसके दाहिने कान में अज़ान और बायें कान में अक़ामत कही। इसके बाद आपने इरशाद किया कि ‘‘ बग़ीर ईं रा कि बक़िया ख़ुदा अस्त दर ज़मीनो हुज्जत ख़ुदा अस्त बाद अज़ मन ’’ इसे ले लो यह ज़मीन पर ख़ुदा की निशानी है और मेरे बाद हुज्जते अल्लाह के फ़राएज़ का ज़िम्मेदार है।

इब्ने बाबविया फ़रमाते हैं कि आप दीगर आइम्मा (अ.स.) की तरह मख़्तून और नाफ़ बुरिदा (यानी ख़त्ना हुये और नाफ़ कटे हुये) पैदा हुये।( नस्ल अल ख़ताब जिलाउल उयून पृष्ठ 269)

नाम , कुन्नियत , अल्क़ाब

आपके वालिदे माजिद हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) ने लौहे महफ़ूज़ के मुताबिक़ और तइय्युने रसूल (स.अ.) के मुवाफ़िक़ आपको इस्मे अली से मौसूम फ़रमाया। आप आले मोहम्मद (स.अ.) में के तीसरे ‘‘ अली ’’ हैं। (आलामुल वुरा पृष्ठ 225 व मतालेबुल सूऊल पृष्ठ 282) आपकी कुन्नीयत ‘‘अबुल हसन’’ थी और आपके अलक़ाब साबिर , ज़की , वली , रज़ी , वसी थे। ‘‘ वशहरहा अल रज़ा ’’ और मशहूर तरीन लक़ब रज़ा था ( नूरूल अबसार पृष्ठ 128 तज़किरा ख़वासुल उम्मता पृष्ठ 198)

लक़ब रज़ा की वजह

अल्लामा तबरेसी तहरीर फ़रमाते हैं कि आप को रज़ा इस लिये कहते हैं कि आसमानों ज़मीन में ख़ुदा वन्दे आलम , रसूले अकरम (स.अ.) और आइम्मा ए ताहेरीन (अ.स.) और तमाम मुख़ालेफ़ीन व मुवाफ़ेक़ीन आप से राज़ी थे। (आलमुल वुरा पृष्ठ 182)

अल्लामा मजलिसी तहरीर फ़रमाते हैं कि बज़नती ने हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) से लोगों की अफ़वाह का हवाला देते हुये कहा कि आपके वालिदे माजिद को लक़ब रज़ा मामून रशीद ने मुलक़्क़ब किया था। आपने फ़रमाया हरगिज़ नहीं। यह लक़ब ख़ुदा व रसूल (स.अ.) की ख़ुशनूदी का जलवा बरदार है और सच बात यह है कि आप से मुवाफ़िक़ व मुख़ा लिफ़ दोनों राज़ी और ख़ुशनूद थे।( जिलाउल उयून पृष्ठ 269 रौज़तुल पृष्ठ जिल्द 3 पृष्ठ 12)

आपकी तरबियत

आपकी नशोनुमा और तरबियत अपने वालिदे बुज़ुर्गवार हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) के ज़ेरे साया हुई और इसी मुक़द्दस माहौल में बचपना और जवानी की मुताअद्दिद मंज़िलें तय हुईं और 30 से 35 बरस की उम्र पूरी हुई। अगरचे आख़री चन्द साल इस मुद्दत के वह थे। जब इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) ईराक़ में क़ैदे ज़ुल्म की सख़्तियां बरदाश्त कर रहे थे , मगर उससे पहले 24 या 25 बरस आपको बराबर अपने पदरे बुज़ुर्गवार के साथ रहने का मौक़ा मिला।

बादशाहाने वक़्त

आपने अपनी ज़िन्दगी की पहली मंज़िल से ताबा अहदे वफ़ात बहुत से बादशाहों के दौर देखे। आप 153 ई 0 में अहदे मन्सूर दवानक़ी पैदा हुए। (तारीख़े ख़मीस) 158 हिजरी में मेहदी अब्बासी , 169 हिजरी में हादी अब्बासी , 170 हिजरी में हारून रशीद अब्बासी , 194 हिजरी में अमीन अब्बासी , 198 हिजरी में मामून रशीद अब्बासी अलत तरतीब ख़लीफ़ा ए वक़्त होते रहे।( इब्नुल वरदी , हबीब अल सियर , अबुल फ़िदा )

आपने हर एक का दौर बा चश्में खुद देखा और आप पदरे बुज़ुर्गवार नीज़ दीगर औलादे अली (अ.स.) व फ़ात्मा (स.अ.) के साथ जो कुछ होता रहा उसे आप मुलाहेज़ा फ़रमाते रहे यहां तक कि 230 हिजरी में आप दुनियां से रूख़सत हो गये और आपको ज़हर दे कर शहीद कर दिया।

जानशीनी

आपके पदरे बुज़ुर्गवार हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) को मालूम था कि हुकूमते वक़्त जिसकी बाग डोर उस वक़्त हारून रशीद अब्बासी के हाथों में थी। आपको आज़ादी की सांस न लेने देगी और ऐसे हालात पेश आ जायेंगे कि आपकी उम्र के आखि़री हिस्से और दुनियां को छोड़ने के मौक़े पर दोस्ताने अहले बैत का आपसे मिलना या बाद के लिये रहनुमा का दरयाफ़्त करना गै़र मुमकिन हो जायेगा इस लिये आपने उन्हें आज़ादी के दिनों और सुकून के अवक़ात में जब कि आप मदीने में थे , पैरवाने अहले बैत को अपने बाद होने वाले इमाम से रूशेनास कराने की ज़रूरत महसूस फ़रमाई। चुनान्चे औलादे फ़ात्मा (स.अ.) में से 17 आदमी जो मुम्ताज़ हैसियत रखते थे उन्हें जमा फ़रमा कर अपने फ़रज़न्द हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) की वसी होने और जांनशीनी का ऐलान फ़रमा दिया और एक वसियत नामा तहरीरन भी मुकम्मल फ़रमा दिया जिस पर मदीने के मोअज़्जे़ज़ीन में से आठ आदमियों की गवाही लिखी गई। यह अहतेमाम दूसरे आइम्मा के यहां नज़र नहीं आया सिर्फ़ उन ख़ुसूसी हालात की बिना पर जिन से दूसरे आइम्मा अपनी वफ़ात के मौक़े पर दो चार नहीं होने वाले थे।

इमाम मूसाए काज़िम (अ.स.) की वफ़ात और इमाम रज़ा (अ.स.) के दौरे इमामत का आग़ाज़

183 हिजरी में हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) ने क़ैद ख़ाना ए हारून रशीद में अपनी उम्र का एक बहुत बड़ा हिस्सा गुज़ार कर दरजा ए शहादत हासिल फ़रमाया। आपकी वफ़ात के वक़्त इमाम रज़ा (अ.स.) की उम्र मेरी तहक़ीक़ के मुताबिक़ तीस साल की थी। वालिदे बुज़ुर्गवार की शहादत के बाद इमामत की ज़िम्मेदारियां आपकी तरफ़ मुन्तक़िल हो गई। यह वह वक़्त था कि बग़दाद में हारून रशीद तख़्ते खि़लाफ़त पर मुतमक्किन था और बनी फ़ात्मा के लिये हालात बहुत ही ना साज़गार थे।

हारूनी फ़ौज और ख़ाना ए इमाम रज़ा (अ.स.)

हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) के बाद दस बरस हारून रशीद का दौर रहा। यक़ीनन वह इमामे रज़ा (अ.स.) के वजूद को भी दुनियां में इसी तरह बरदाश्त नहीं कर सकता था जिसके तरह उसके पहले आपके वालिदे बुज़ुर्गवार का रहना उसने गवारा नहीं किया। मगर यह तो इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) के साथ जो तवील मुद्दत तक तशद्दुद और ज़ुल्म होता रहा और जिसके नतीजे में क़ैद खा़ने के ही अन्दर आप दुनिया से रूख़सत हो गये। इस से हुकूमते वक़्त की आम बदनामी हो गयी थी और या वाक़ेई ज़ालिम की बद सुलूक़ियों का एहसास और ज़मीर की तरफ़ से मलामत की कैफ़ियत थी जिसकी वजह से खुल्लम खुल्ला इमाम रज़ा (अ.स.) के खि़लाफ़ कोई कारवाई की थी लेकिन वक़्त से पहले उसने इमाम रज़ा (अ.स.) को सताने में कोई दक़ीक़ा अन्जाम नहीं दिया।

हज़रत के अहदे इमामत संभालते ही हारून रशीद ने आपका घर लुटवा दिया और औरतों के ज़ेवरात और अच्छे कपड़े तक उतरवा लिये थे।

तारीख़े इस्लाम मे है कि हारून रशीद ने इस हवाले और बहाने से कि मोहम्मद बिन जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने उसकी हुकूमत व खि़लाफ़त से इन्कार कर दिया है। एक अज़ीम फ़ौज ईसा जलोदी की मातहती में मदीना ए मुनव्वरा भेज कर हुक्म दिया कि अली व फ़ात्मा की तमाम औलाद को बिल्कुल ही तबाह व बरबाद कर दिया जाए , उनके घरों में आग लगा दी जाए , उनके सामान लूट लिये जायें और उन्हें इस दरजा मफ़लूज व मफ़लूक कर दिया जाऐ कि फिर उनमे किसी क़िस्म के हौसले के उभरने का सवाल ही पैदा न हो सके और मोहम्मद बिन जाफ़र को गिरफ़्तार कर के क़त्ल कर दिया जाय। ईसा जलोदी ने मदीने पहुँच कर तामीले हुक्म की कोशिश की और मुम्किन तरीक़े से बनी फ़ात्मा को तबाह व बरबाद किया। हज़रत मोहम्मद बिन जाफ़र (अ.स.) ने भर पूर मुक़ाबला किया लेकिन आखि़र में गिरफ़्तार हो कर हारून रशीद के पास पहुँचा दिये गये। ईसा जलूदी सादात किराम को लूट कर हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) के दौलत कदे पर पहुँचा और उसने ख़्वाहिश की कि वह हस्बे हुक्म हारून रशीद , ख़ाना ए इमाम में दाखि़ल हो कर अपने हाथों से औरतों के ज़ेवरात और कपड़े उतारे। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया यह नहीं हो सकता , मैं खुद तुम्हें सारा सामान दिये देता हूँ । पहले तो वह उस पर राज़ी न हुआ लेकिन बाद में कहने लगा कि अच्छा आप ही उतार लाइये। आप महल सरा में तशरीफ़ ले गये और आपने तमाम ज़ेवरात और सारे कपड़े एक सतर पोश चादर के अलावा ला कर दे दिये और उसी के साथ साथ असासुल बैत नक़दो जिन्स यहां तक कि बच्चों के कान के बुन्दे सब कुछ उसके हवाले कर दिया। वह मलऊन ज़ेवरात ले कर बग़दाद रवाना हो गया। यह वाक़िया आपके आगा़ज़े इमामत का है। अल्लामा मजलिसी बेहारूल अनवार में लिखते हैं कि मोहम्मद बिन जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) के वाक़ए से इमाम अली रज़ा (अ.स.) को ताअल्लुक़ न था। वह अकसर अपना चचा मोहम्मद को ख़ामोशी की हिदायत और सब्र की तलक़ीन फ़रमाया करते थे। अबुल फ़र्ज असफ़हानी मुक़ातिल तालिबैन में लिखते हैं कि मोहम्मद बिन जाफ़र निहायत मुत्तक़ी और परहेज़गार शख़्स थे। किसी नासिबी ने दस्ती कुतबा लिख कर मदीने की दीवारों पर चस्पा कर दिया था जिसमें हज़रत अली (अ.स.) और जनाबे फ़ात्मा (स.अ.) के मुताअल्लिक़ ना साज़ अल्फ़ाज़ थे। यही आप के खु़रूज का सबब बना। आपकी बैअत लफ़्ज़े अमीरल मोमेनीन से की गई। आप जब नमाज़ को निकलते थे तो आपके साथ दो सौ सुलहा ब अत्तक़िया हुआ करते थे। अल्लामा शिब्लिन्जी लिखते हैं कि इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) की वफ़ात के बाद सफ़वान बिने यहिया ने इमाम अली रज़ा (अ.स.) से कहा कि मौला हम आपके बारे में हारून रशीद से बहुत ख़ाएफ़ हैं हमें डर है कि यह कहीं आपके साथ वही सुलूक न करे जो आपके वालिद के साथ कर चुका है। हज़रत ने इरशाद फ़रमाया कि यह तो अपनी सी करेगा लेकिन मुझ पर कामयाब न हो सकेगा चुनान्चे ऐसा ही हुआ और हालात ने उसे कुछ इस दरजा आखि़र में मजबूर कर दिया था कि वह कुछ भी न कर सका कि यहां तक कि जब ख़ालिद बिने यहिया बर मक्की ने उस से कहा कि इमामे रज़ा (अ.स.) अपने बाप की तरह अम्रे इमामत का ऐलान करते और अपने को इमामे ज़माना कहते हैं तो उसने जवाब दिया कि हम जो उनके साथ कर चुके हैं वही हमारे लिये काफ़ी है। अब तू चाहता है कि इन हम सब के सब को क़त्ल कर डालें अब मैं ऐसा नहीं करूँगा।

अल्लामा अली नक़ी लिखते हैं कि फिर भी हारून रशीद का अहलेबैते रसूल (स.अ.) से शदीद इख़्तिलाफ़ और सादात के साथ जो बरताव अब तक रहा था उसकी बिना आम तौर से अम्माले हुकूमत या आम अफ़राद भी जिन्हें हुकूमत को राज़ी रखने की ख़्वाहिश थी अहलेबैत के साथ कोई अच्छा रवय्या रखने पर तैय्यार नहीं सकते थे और न इमाम के पास लोग इस्तफ़ादा के लिये जा सकते थे न हज़रत को सच्चे इस्लामी अहकाम की इशाअत के मवाक़े हासिल थे।

हारून का आखि़री ज़माना अपने दोनों बेटों , अमीन और मामून की बाहिमी रक़ाबतों से बहुत बे लुत्फ़ी में गुज़रा , अमीन पहली बीवी से था जो ख़ानदान शाही से मन्सूर दुवानक़ी की पोती थी और इस लिये अरब सरदार सब उसके तरफ़दार थे और मामून एक अजमी कनीज़ के पेट से था और इस लिये दरबार का अजमी तबक़ा उस से मोहब्बत रखता था। दोनों की आपस की रस्सा कशी हारून के लिये सोहाने रूह बनी हुई थी , उसने अपने ख़्याल में उसका तसफ़िया ममलेकत की तक़सीम के साथ यूं कर दिया कि दारूल सलतनत बग़दाद और उसके चारों तरफ़ के अरबी हिस्से जैसे शाम , मिस्र , हिजाज़ , यमन वग़ैरह मोहम्मद अमीन के नाम किये और मशरिक़ी मुमालिक जैसे ईरान , ख़ुरासान , तुरकिस्तान वग़ैरह मामून के लिये मुक़र्रर किये मगर यह तसफ़ीया तो उस वक़्त कारगार हो सकता था जब दोनों फ़रीक़ ‘‘ जियो और जीने दो ’’ के उसूल पर अमल करते होते लेकिन जहां इक़्तेदार की हवस कारफ़रमा हो वहां बनी अब्बास में एक घर के अन्दर दो भाई अगर एक दूसरे के मददे मुक़ाबिल हांे तो क्यों न एक दूसरे के खि़लाफ़ जारहाना कारवाही करने पर तैयार नज़र आये और क्यों उन ताक़तों में बाहिमी तसादुम हो जब कि उनमें से कोई इस हमदर्दी और असार और ख़ल्क़े ख़ुदा की खै़र ख़्वाही का भी हामिल नहीं है। जिसे बनी फ़ात्मा अपने पेशे नज़र रख कर अपने वाक़ई हुकू़क़ से चश्म पोशी कर लिया करते थे। इसी का नतीजा था कि इधर हारून की आंख बन्द हुई और उधर भाईयों में ख़ाना जंगी के शोले भड़क उठे। आखि़र चार बरस की मुसलसल कशमकश और तवील ख़ूं रेज़ी बाद मामून को कामयाबी हुई और उसका भाई अमीन मोहर्रम सन् 198 हिजरी में तलवार के घाट उतार दिया गया और मामून की खि़लाफ़त तमाम बनी अब्बास के हुदूदे सलतनत पर क़ायम हो गयी।

यह सच है कि हारून रशीद के अय्यामे सलतनत में आप की इमामत के दस साल गुज़ारे इस ज़माने मे ईसा जलूदी ताख़्त के बाद फिर उसने आपके मुआमलात की तरफ़ बिल्कुल सुकूत और ख़ामोशी इख़्तियार कर ली उसकी दो वजहे मालूम होती हैं। अव्वल तो यह कि इस दस साला ज़िन्दगी के इब्तिदाई अय्याम में वह आले बरामका के इस्तीसाल राफ़ि बिने लैस इब्ने तयार के ग़द्र और फ़साद के इन्सिदाद में जो समर कन्द के इलाक़े से नमूदार हो कर मा वराउन नहर और हुदूदे अरब तक फैल चुका था ऐसा हमा वक़्त और हमादम उलझा कि फिर उसको इन उमूर की तरफ़ तवज्जोह करने की ज़रा भी फ़ुरसत न मिली। दूसरे यह कि अपनी दस साला मुद्दत के आखि़री अय्याम में यह अपने बेटों में मुल्क तक़सीम कर देने के बाद खुद ऐसा कमज़ोर और मजबूर हो गया था कि कोई काम अपने इख़्तियार से नहीं कर सकता था। नाम का बादशाह बना बैठा हुआ अपनी ज़िन्दगी के दिन निहायत उसरत और तंगी की हालतों में काट रहा था। उसके सबूत के लिये वाक़िया ज़ैल मुलाहेज़ा फ़रमायें। सबाह तिबरी का बयान है कि हारून जब ख़ुरासान जाने लगा तो मैं नहरवान तक उसकी मुशायत को गया रास्ते में उसने बयान किया कि ऐ सबाह तुम अब इसके बाद फिर मुझे ज़िन्दा न पाओगे। मैंने कहा अमीरल मोमेनीन ऐसा ख़्याल न करें आप इन्शाअल्लाह सही ओ सालिम इस सफ़र से वापिस आयेंगे। यह सुन कर उसने कहा कि शायद तुझको मेरा हाल मालूम नहीं है। आ मैं दिखा दूं फिर मुझे रास्ता काट कर एक सिम्त दरख़्त के नीचे ले गया और वहां से अपने ख़वासों को हटा कर अपने बदन का कपड़ा उठा कर मुझे दिखाया , तो एक परचाए रेशम शिकम पर लपेटा हुआ था और उससे सारा बदन कसा हुआ था। यह दिखा कर मुझ से कहा कि मैं मुद्दत से बीमार हूँ तमाम बदन में दर्द उठता है मगर किसी से अपना हाल कह नहीं सकता तुम्हारे पास भी यह राज़ अमानत रहे। मेरे बेटों में से हर एक का गुमाशता मेरे ऊपर मुक़र्रर है। मामून की तरफ़ से मसरूर , अमीन की जानिब से बख़तीशू। यह लोग मेरी सांस तक गिनते रहते हैं और उन्हें चाहते हैं कि मैं एक रोज़ भी ज़िन्दा रहूं अगर तुम को यक़ीन न हो तो देखो मैं तुम्हारे सामने घोड़ा सवार होने को मांगता हूँ , ऐसा टट्टू मेरे लिये लायेंगे जिस पर सवार हो कर मैं और ज़्यादा बिमार हो जाऊँ। यह कह कर घोड़ा तलब किया। वाक़ई ऐसा लाग़र अड़यल टट्टू हाज़िर किया। उस पर हारून बे चूं चरां सवार हो गया और मुझको वहां से रूख़सत कर के जरजान का रास्ता पकड़ लिया।

बहरहाल हारूर रशीद की यही मजबूरीयां थीं जिन्होंने उसको हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) के मुख़ालिफ़ाना उमूर की तरफ़ मुतवज्जेह नहीं होने दिया वरना उसे फ़ुरसत होती और वह अपनी क़दीम जी़ इख़्तियारी की हालतों पर क़ायम रहता तो इस सिलसिले की ग़ारत गरी व बरबादी को कभी भूलने वाला नहीं था मगर उस वक़्त क्या कर सकता था अपने ही दस्तो पा अपने ही इख़्तेयार में नहीं थे। बहरहाल हारून रशीद इसी ज़ीकुन नफ़्स मजबूरी नादारी और बेइख़्तेयारी की ग़ैर मुतहमिल मुसीबतों में ख़ुरासान पहुँच कर शुरू 193 हि. में मर गया।

इन दोनों भाइयों अमीन और मामून के मुतअल्लिक़ मुवर्रिख़ीन का कहना है कि मामून तो फिर भी सूझ बूझ और अच्छे कैरेक्टर का आदमी था लेकिन अमीन अय्याश , ला उबाली और कमज़ोर तबीयत का था। सलतनत के तमाम हिस्सों में बाज़ीगर , मसख़रे और नुजूमी जोतिशी बुलवाये। निहायत ख़ूबसूरत तवाएफ़ और निहायत कामिल गाने वालियों और ख़्वाजा सराओं को बड़ी बड़ी रक़में ख़र्च करके और नाटक की एक महफ़िल मिस्ल इन्द्र सभ के तरतीब दी। यह थियेटर अपने ज़र्क़ बर्क़ सामानों से परियों का अख़ाड़ा मालूम होता था। स्यूती ने इब्ने जरीर से नक़्ल किया है कि अमीन अपनी बीबियों को छोड़ कर ख़स्सियों से लवात करता था।( तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 60)


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