चौदह सितारे

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चौदह सितारे लेखक:
कैटिगिरी: शियो का इतिहास

चौदह सितारे

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना नजमुल हसन करारवी
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चौदह सितारे
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चौदह सितारे

चौदह सितारे

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) का नेशा पूर में वरूदे मसऊद

रज़ब 200 हिजरी में हज़रत मदीनाए मुनव्वरा से मर्व ‘‘ ख़ुरासान ’’ की जानिब रवाना हो गये। अहलो अयाल और मुअल्लेक़ीन सब को मदीना मुनव्वरा ही में छोड़ा। उस वक़्त इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) की उम्र पांच बरस की थी। आप मदीने ही में रहे। मदीना से रवानगी के वक़्त कूफ़ा और कु़म की सीधी राह छोड़ कर बसरा और अहवाज़ का ग़ैर मुतअर्रिफ़ रास्ता इस ख़तरे के पेशे नज़र इख़्तेयार किया गया कि कहीं अक़ीदत मन्दाने इमाम मुज़ाहमत न करें। ग़रज़ कि क़तए मराहल और तै मनाज़िल करते हुए यह लोग नेशापुर के क़रीब पहुँचे।

मुवर्रेख़ीन लिखते हैं कि जब आपकी मुक़द्दस सवारी शहर नेशा पुर के क़रीब पहुँची तो जुमला उलमा व फ़ुज़ला शहर ने बैरून शहर हाज़िर हो कर आपकी रस्मे इस्तग़बाल अदा की। दाखि़ले शहर होते हुए तो तमाम खुर्द व बुज़ुर्ग शौक़े ज़्यारत में उमड़ आए। मरकबे आली जब मरबा शहर (चैक) में पहुँचा , तो हुजूमे ख़लाएक़ से ज़मीन पर तिल रखने की जगह न थी उस वक़्त इमाम रज़ा (अ.स.) क़ातिर नामी खच्चर पर सवार थे जिसका तमाम साज़ो सामान नुक़रई था , ख़च्चर पर अमारी थी और इस पर दोनों तरफ़ पर्दे पड़े हुए थे और ब रवाएते छतरी लगी हुई थी। उस वक़्त इमामुल मुहद्देसीन हाफ़िज़ अबू ज़रआ राज़ी और मोहम्मद बिन अस्लम तूसी आगे आगे और उनके पीछे अहले इल्म व हदीस की एक अज़ीम जमाअत हाज़िरे खि़दमत हुई और बई कलमात इमाम (अ.स.) को मुख़ातिब किया। ‘‘ ऐ जमीय सादात के सरदार , ऐ तमाम इमामों के इमाम और ऐ मरकज़े पाकीज़गी आपको रसूले अकरम का वास्ता , आप अपने अजदाद के सदक़े में अपने दीदार का मौक़ा दीजिए और कोई हदीस अपने जद्दे नाम दार की बयान फ़रमाईये ’’ यह कह कर मोहम्मद बिन राफ़े , अहमद बिन हारिस , यहिया बिन यहिया और इस्हाक़ इब्ने सहविया ने आपके क़ातिर की बाग थाम ली। उनकी इस्तदुआ सुन कर आप ने सवारी रोक दीए जाने के लिये इशारा फ़रमाया और इशारा किया कि हिजाब उठा दिए जाएं। फ़ौरन तामील की गई। हाज़ेरीन ने ज्यों ही वह नूरानी चेहरा अपने प्यारे रसूल के जिगर गोशे का देखा सीनों मे दिल बेताब हो गए। दो ज़ुल्फ़ें रूए अनवर पर मानिन्द गेसूए मुश्क बूए जनाबे रसूले खुदा (स.अ.) फूटी हुई थी। किसी को यारए ज़ब्त बाक़ी न रहा वह सब के सब बे अख़्तेयार धाड़े मार कर रोने लगे। बहुत ने अपने कपड़े फाड़ डा़ले कुछ ज़मीन पर गिर कर लोटने लगे बाज़ सवारी के गिर्द पेश घूमने और चक्कर लगाने लगे और मरक़बे अक़दस के ज़ीन व लजाम चूमने लगे और अमारी का बोसा देने लगे। आखि़र मरक़बे आली के क़दम चूमने के इश्तेआक में दर्राना बढ़े चले आते थे ग़रज़ कि अजीब तरह का वलवला था कि जमाले बा कमाल को देखने से किसी को सेरी नहीं हुई थी। टक टकी लगाए रूख़े अनवर की तरफ़ निगरां थे। यहां तक कि दो पहर हो गई और इनके मौजूद शौक़ व तमन्ना की पुर जोशियों में कोई कमी नहीं आई। इस वक़्त उलमा और फ़ुज़ला की जमाअत ने बा आवाज़े बुलन्द पुकार कर कहा कि ऐ मुसलमानों ! ज़रा ख़ामोश हो जाओ और फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) के लिये आज़र न बनो इनकी इस्तेदुआ पर क़दरे शोर व ग़ुल थमा तो इमाम रज़ा (अ.स.) ने इरशाद फ़रमाया:-

“ हदसनी अबी मुसा काज़िम , अन अबीहा जाफ़र अल सादिक़ अन अबीह मोहम्मद अल बाक़र अन अबीह ज़ैन अल अबेदीन अन अबीह हुसैन अल शहीदे करबला अन अबीह अली अल मुर्तुज़ा क़ाला हदसनी जैबी व क़रता ऐनी रसूल अल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वालेही वसल्लम क़ाला हदसनी जिबराईल अलैहिस्सलाम क़ाला हदसनी रब्बुल इज़्ज़त सुबहानहा व ताला क़ाला ला इलाहा इल्लाह हस्सनी फ़मन क़ाला दख़ला हसनी वमन दखला हसना अमेना मन अज़ाबी ’’

तर्जुमा:- मेरे पदरे बुज़ुर्गवार हज़रत इमाम मुसिए काज़िम (अ.स.) ने मुझ से फ़रमाया और उनसे इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) ने और उनसे इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) ने उनसे इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) ने और उनसे इमाम हुसैन (अ.स.) ने और उनसे हज़रत अली मुर्तुज़ा (अ.स.) ने और उन से हज़रत रसूले करीम जनाबे मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) ने और उनसे जनाबे जिब्राईले अमीन ने और उनसे खुदा वन्दे आलम ने इरशाद फ़रमाया कि ला इलाहा इल्लल्लाह मेरा क़िला है जो इसे ज़बान पर जारी करेगा मेरे क़िले में दाखि़ल हो जायेगा और जो मेरे क़िला ए रहमत में दाखि़ल होगा मेरे अज़ाब से महफ़ूज़ हो जायेगा। (मसनदे इमाम रज़ा (अ.स.) पृष्ठ 7 प्रकाशित मिस्र 1341 हिजरी)

यह फ़रमा कर आपने परदा खिंचवा दिया और चन्द क़दम बढ़ने के बाद फ़रमाया ‘‘ बा शरतहा व शरूतहा व अना मन शरूतहा ला इलाहा अल्लल्लाह ’’ कहने वाला नजात ज़रूर पायेगा लेकिन इसके कहने और नजात पाने में चन्द शर्तें हैं जिनमें से एक शर्त मैं भी हूं यानी अगर आले मोहम्मद (स.अ.) की मोहब्बत दिल में न होगी तो ला इलाहा इल्लल्लाह कहना काफ़ी न होगा। उलेमा ने ‘‘तारीख़े नेशापूर’’ के हवाले से लिखा है कि इस हदीस के लिखने में मफ़रूद दावातों के अलावा 24 हज़ार कममदान इस्तेमाल किये गये।

अहमद बिन हम्बल का कहना है कि यह हदीस जिन असनाद और जिन नामों के ज़रिए से बयान फ़रमाई गई है अगर इन्हीं नामों को पढ़ कर मजनून पर दम किया जाय तो ‘‘ ला फ़ाक़ मन जुनूना ’’ ज़रूर उसका जुनून जाता रहेगा और वह अच्छा हो जायेगा।

अल्लामा शिब्लन्जी नूरूल अबसार में बा हवाला ए अबूल क़ासिम तज़ीरी लिखते हैं कि सासाना के रहने वाले बाज़ रऊसा ने जब इस सिलसिला ए हदीस को सुना तो उसे सोने के पानी से लिखवा कर अपने पास रख लिया और मरते वक़्त वसीअत की कि उसे मेरे कफ़न में रख दिया जाए चुंकि ऐसा ही किया गया मरने के बाद उसने ख़्वाब में बताया कि ख़ुदा वन्दे आलम ने मुझे इन नामों की बरकत से बख़्श दिया है और मैं बहुत आराम की जगह पर हूँ।

मोअल्लिफ़ कहता है कि इसी फ़ाएदे के लिये शिया अपने कफ़न में जवाब नामा के तौर पर इन असमा को लिख कर रखते हैं। बाज़ किताबों में है कि नेशा पुर में आप से बहुत से करामात नमूदार हुए।

शहर ख़ुरासान में नुज़ूले इजलाल

अबुल सलत हरदी नाक़िल है कि असनाए सफ़र में जब आप ख़ुरासान पहुँचे तो दिन ढल चुका था आप फ़रीज़ाए ज़ौहर अदा करने के लिये सवारी से उतरे और आपने तजदीदे वज़ू के लिये पानी तलब फ़रमाया अर्ज़ की गई मौला इस वक़्त यहां पानी नहीं। यह सुन कर आपने एक ज़मीन पर पड़े हुए पत्थर के नीचे से चश्मा जारी फ़रमाया और वज़ू कर के नमाज़ अदा फ़रमाई। जनाब शेख़ सद्दूक़ रहमतुल्लाह अलैह फ़रमाते हैं कि इस चश्मे का हनूज़ असर बाक़ी है।

शहर तूस में आप का नुज़ूलो वरूद

जब इस सफ़र में चलते चलते शहर तूस पहुँचे तो वहां देखा कि एक पहाड़ से लोग पत्थर तराश कर हंाडी वग़ैरा बनाते हैं। आप इस से टेक लगा कर खड़े हो गये और आपने उसे नरम होने की दुआ की। वहां के बाशिन्दों का कहना है कि पहाड़ का पत्थर बिल्कुल नरम हो गया और बड़ी आसानी से बर्तन बनने लगे।

क़रिया सना बाद में हज़रत का नुज़ूले करम

शहरे तूस से रवाना हो कर आप क़रिया सना बाद पहुँचे और आपने मोहल्ला नौख़ान में क़याम फ़रमाया और लिबास उतार कर धुलने को दे दिया। हमीद बिने क़ैबता का बयान है कि आपकी जेब में एक दोआ कनीज़ ने पाई। उसने मुझे दिखाई मैंने उसे हज़रत तक पहुँचाते हुए दरियाफ़्त किया कि इस दुआ का फ़ायदा क्या है ? फ़रमाया यह शरीरों के शर से हिफ़ाज़त का हिर्ज़ है। फिर आप कु़ब्बाए हारून में तशरीफ़ ले गए और आपने क़िबले की तरफ़ ख़त खैंच कर फ़रमाय कि मैं इस जगह दफ़्न किया जाऊँगा और यह जगह मेरी ज़्यारत गाह होगी। इसके बाद आपने नमाज़ अदा फ़रमाई और वहां से चलने का इरादा किया।

इमाम रज़ा (अ.स.) का दारूल खि़लाफ़ा मर्व में नुज़ूल

इमाम (अ.स.) तय मराहिल और के़तय मनाज़िल करने के बाद जब मर्व पहुँचे जिसे सिकन्दर ज़ुलकरनैन ने बारवाएते मोअज़्ज़मुल बलदान आबाद किया था और जो उस वक़्त दारूल सलतनत था , तो मामून ने चन्द रोज़ ज़ियाफ़तो तकरीम के मरासिम अदा करने के बाद क़ुबूले खि़लाफ़त का सवाल पेश किया। हज़रत ने उस से इसी तरह इनकार किया जिस तरह हज़रत अमीरल मोमेनीन (अ.स.) चौथे मौक़े पर खि़लाफ़त पेश किए जाने के वक़्त इनकार फ़रमा रहे थे। मामून को खिलाफ़त से दस्त बरदार होना दर हक़िक़त मन्ज़ूर न था वरना वह इमाम को इसी पर मजबूर करता चुनान्चे जब हज़रत ने खि़लाफ़त के कु़बूल करने से इन्कार फ़रमाया तो उसने वली अहदी का सवाल पेश किया। हज़रत इसके भी अन्जाम से न वाक़िफ़ न थे। नीज़ बाख़ुशी जाबिर हुकूमत की तरफ़ से कोई मन्सब कु़बूल करना आपके ख़ानदान के उसूल के खि़लाफ़ था। हज़रत ने उस से भी इन्कार फ़रमाया। मगर उस पर मामून का इक़रार जब्र की हद तक पहुँच गया और उसने साफ़ कह दिया कि ‘‘ लाबद मन क़बूलक़ ’’ अगर आप इसको मन्ज़ूर नहीं कर सकते तो इस वक़्त आपको अपनी जान से हाथा धोना पड़ेगा। जान का ख़तरा क़ुबूल किया जा सकता है जब मज़हबी मफ़ाद का क़याम जान देने का मौक़ूफ़ हो वरना हिफ़ाज़ते जान शरीअते इस्लाम का बुनियादी हुक्म है। इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया , यह है तो मैं मजबूरन क़ुबूल करता हूँ मगर कारो बारे सलतनत में बिल्कुल दख़्ल न दूँगा , हाँ अगर किसी बात में मुझ से मशविरा लिया जाएगा तो नेक मशविरा ज़रूर दूंगा। इसके बाद यह वली अहदी से बरा नाम सलतनते वक़्त के एक ढखोसले से ज़्यादा वक़त न रखती थी। जिससे मुम्किन है कि कुछ अर्से तक सियासी मक़सद में कामयाबी हासिल कर ली गई हो मगर इमाम की हैसियत अपने फ़राएज़ के अन्जाम देने में बिल्कुल वह थी जो उनके पेश रौ अली मुर्तुज़ा (अ.स.) अपने ज़माने के बाइख़्तेदार ताक़तों के साथ इख़्तियार कर चुके थे। जिस तरह उनका कभी कभी मशविरा दे देना उन हुकूमतों को सही व जाएज़ नहीं बना सकता वैसे ही इमाम रज़ा (अ.स.) का इस नौइय्यत से वली अहदी का क़ुबूल फ़रमाना इस सलतनत के जवाज़ का बाएस नहीं हो सकता था सिर्फ़ मामून की एक राज हट थी जो सियासी ग़रज़ के पेशे नज़र इस तरह पूरी हो गई मगर इमाम (अ.स.) ने अपने दामन को सलतनते जु़ल्म के इक़्दामात और नजमो नस्ख़ से बिल्कुल अलग रखा। तवारीख़ में है कि मामून ने हज़रते इमाम रज़ा (अ.स.) से कहा उसके बाद आपने दोनों हाथ आसमान की तरफ़ बलन्द किये और बारगाहे अहदीयत में अर्ज़ की परवरदीगार तू जानता है कि इस अमर को मैंने बामजबूरत और नाचारी और ख़ौफ़ो क़त्ल की वजह से क़ुबूल कर लिया है। ख़ुदा वन्दा तू मेरे इस फे़ल पर मुझसे उसी तरह मवाखि़ज़ा ना करना जिस तरह जनाबे युसूफ़ और जनाबे दानियाल से बाज़पुर्स नहीं फ़रमाई। इसके बाद कहा मेरे पालने वाले तेरे अहद के सिवा कोई अहद नहीं तेरी अता की हुई हैसियत के सिवा कोई इज़्ज़त नहीं। ख़ुदाया तू मुझे अपने दीन पर क़ाएम रहने की तौफ़ीक़ इनायत फ़रमा।

ख़्वाजा मोहम्मद पासी का कहना है कि वली अहदी के वक़्त आप रो रहे थे। मुल्ला हुसैन लिखते हैं कि मामून की तरफ़ से इसरार और हज़रत की तरफ़ से इन्कार का सिलसिला दो माह जारी रहा इसके बाद वली अहदी क़ुबूल की गई।