चौदह सितारे

चौदह सितारे3%

चौदह सितारे लेखक:
कैटिगिरी: शियो का इतिहास

चौदह सितारे
  • प्रारंभ
  • पिछला
  • 54 /
  • अगला
  • अंत
  •  
  • डाउनलोड HTML
  • डाउनलोड Word
  • डाउनलोड PDF
  • विज़िट्स: 257711 / डाउनलोड: 9987
आकार आकार आकार
चौदह सितारे

चौदह सितारे

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


1

2

3

4

5

6

7

8

9

10

11

12

13

14

15

16

17

18

19

20

21

22

23

24

25

26

27

28

29

30

31

32

33

34

35

जलसा ए वली अहदी का इन्एक़ाद

पहली रमज़ान 201 हिजरी ब रोज़े पंज शम्बा जलसा ए वली अहदी मुनक़िद हुआ। बड़ी शानो शौकत और तुज़ुको एहतिशाम के साथ तक़रीब अमल में लाई गई। सब से पहले मामून ने अपने बेटे अब्बास को इशारा किया और उसने बैअत की फिर और लोग बैअत से शरफ़याब हुए। सोने और चांदी के सिक्के सरे मुबारक पर निसार किये गए और तमाम अरकाने सलतनत और मुलाज़मीन को इनामात तक़सीम हुए।

मामून ने हुक्म दिया कि हज़रत के नाम का सिक्का तैय्यार किया जाए। चुनान्चे दिरहम और दीनार पर हज़रत के नाम का नक़्श हुआ और तमाम शहरों में वह सिक्का चलाया गया। जुमे के खु़त्बे में हज़रत का नामे नामी दाखि़ल किया गया। यह ज़ाहिर है कि हज़रत के नामें मुबारक का सिक्का अक़ीदत मन्दों के लिये तबरूक और ज़मानत की हैसियत रखता था। इस सिक्के को सफ़रो हज़र में हिफ़्जे़ जान के लिये साथ रखना यक़ीनी अमर था। साहेबे जिन्नातुल खुलूद ने बहरो बर के सफ़र में तहफ़्फ़ुज़ के लिए आपके तवस्सुल का ज़िक्र किया है। उसी के याद गार में बतौरे ज़मानत ब अक़ीदा ए तहफ़्फ़ुज़ हम अब भी सफ़र में बाज़ू पर इमाम ज़ामिन सामिन का पैसा बांधते हैं।

अल्लामा शिब्ली नोमानी लिखते हैं कि 33,000 (तेतिस हज़ार) मरदो ज़न वग़ैरा की मौजूदगी में आपको वली अहदे खि़लाफ़त बना दिया गया। उसके बाद उसने तमाम हाज़ेरीन से हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) के लिये बैएत ली और दरबार का लिबास बजाय काले के हरा क़रार दिया गया। जो सादात का इम्तेयाज़ी लिबास था। फ़ौज की वर्दी भी बदल दी गई। तमाम मुल्क में एहकामे शाही नाफ़िज़ हुए कि मामून के बाद अली रज़ा (अ.स.) ही तख़्त के मालिक है और उनका लक़ब है ‘‘ अल रज़ा मन आले मोहम्मद ’’ । हसन बिन सहल के नाम भी फ़रमान गया कि उनके लिये बैअते आम ली जाय और उमूमन अहले फ़ौज व अमाएदे बनी हाशिम सब्ज़ (हरे) रंग के फ़रहरे और सब्ज़ कुलाह व क़बाएं इस्तेमाल की जाएं।

अल्लामा शरीफ़ जरजानी ने लिखा है कि क़ुबूले वली अहदी के मुताअल्लिक़ जो तहरीर हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) ने मामून को लिखी। उसका मज़मून यह था कि ‘‘ चंूकि मामून ने हमारे उन हुक़ूक़ को तसलीम कर लिया है जिनको उनके आबाओ अजदाद ने नहीं पहचाना था लेहाज़ा मैंने उनकी दरख़्वास्ते वली अहदी क़ुबूल कर ली अगरचे जफ़र व जामेए से मालूम होता है कि यह काम अंजाम को न पहुँचेगा । ’’

अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि क़ुबूले वली अहदी के सिलसिले में आपने जो कुछ तहरीर फ़रमाया था उस पर गवाह की हैसियत से फ़ज़ल बिन सहल , सहल बिन फ़ज़ल , यहिया बिन अक़सम , अब्दुल्लाह इब्ने ताहिर , समाना बिन अशरस , बशर बिन मोतमर , हम्माद बिन नोमान वग़ैरा के दस्तख़त थे। उन्होंने यह भी लिखा है कि इमाम अली रज़ा (अ.स.) ने इस जलसे वली अहदी में अपने मख़्सूस अक़ीदत मन्दों को क़रीब बुला कर कान में फ़रमाया था कि इस तक़रीब पर दिल में ख़ुशी को जगह न दो। मुलाहेज़ा हों( सवाएक़े मोहर्रेका़ पृष्ठ 122, मतालेबुल सूऊल पृष्ठ 282, नूरूल अबसार पृष्ठ 142, आलामुल वुरा पृष्ठ 193, कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 112, जन्नातुल ख़ुलूद पृष्ठ 31, अल मामून पृष्ठ 82, वसीलतुन नजात पृष्ठ 379, अरजहुल मतालिब पृष्ठ 454, मसन्द इमाम रज़ा पृष्ठ 7, तारीख़े तबरी , शरह मवाक़िफ़ , तारीख़े आइम्मा पृष्ठ 472, तारीख़े अहमदी पृष्ठ 354, शवाहेदुन नबूवत , नियाबुल मोअद्दता , फ़सलुल ख़त्ताब , हिलयातुल अवलिया , रौज़तुल सफ़ा , उयून अख़बारे रज़ा , दमए साकेबा , सवानए इमाम रज़ा ( . . )

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की वली अहदी का दुशमनों पर असर

तारीख़े इस्लाम में है कि इमाम रज़ा (अ.स.) की वली अहदी की ख़बर सुन कर बग़दाद के अब्बासी ख़याल कर के कि यह खि़लाफ़त हमारे ख़ानदान से निकल चुकी , कमाल दिल सोख़ता हुये और उन्होंने इब्राहीम बिन मेंहदी को बग़दाद के तख़्त पर बिठा दिया और मोहर्रम 202 हिजरी में मामून की माजूली का ऐलान कर दिया। बग़दाद और उसके क़रीबी जगहों मे बिल्कुल बद नज़मी फैल गई। लुच्चे ग़ुन्डे दिन दहाड़े लूट मार करने लगे। जुनूबी ईराक़ और हिजाज़ में भी मामेलात की हालत ऐसी ही हो रही थी। फ़ज़ल वज़ीरे आज़म सब ख़बरों को बादशाह से पोशीदा रखता था मगर इमाम रज़ा (अ.स.) ने उसे ख़बरदार कर दिया। बादशाह वज़ीर की तरफ़ से बदज़न हो गया। मामून को जब इन शोरिशों की ख़बर हुई तो बग़दाद की तरफ़ रवाना हो गया। सरख़स में पहुँच कर उसने फ़ज़ल बिन सहल वज़ीरे सलतनत को हम्माम में क़त्ल करा दिया।( तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 61)

शम्सुल उलेमा शिब्ली नोमानी , हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की बैअते वली अहदी का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि इस अनोखे हुक्म ने बग़दाद में एक क़यामत अंगेज़ हलचल मचा दी और मामून से मुख़ालेफ़त का पैमाना लबरेज़ हो गया। बाजो़ ने सब्ज़ रंग वग़ैरा के एख़्तियार करने के हुक्म की ब जब्र तामील की मगर आम सदा यही थी कि खि़लाफ़त ख़ानदाने अब्बास के दायरे से बाहर नहीं जा सकती।( अल मामून पृष्ठ 82)

अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) जब वली अहदे खि़लाफ़त मुक़र्रर किये जाने लगे मामून के हाशिया नशीन सख़्त बद ज़न और दिल तंग हो एक और उन पर यह ख़ौफ़ छा गया कि अब खि़लाफ़त बनी अब्बास से निकल कर बनी फ़ात्मा की तरफ़ चली जायेगी और इसी तसव्वुर ने उन्हें हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से सख़्त मुतनफ़्फ़िर कर दिया।( नूरूल अबसार पृष्ठ 143)

वाक़िए हिजाब

मोअर्रेख़ीन लिखते हैं कि इस वाक़िए वली अहदी से लोगों में इस दर्जा बुग़ज़ हसद और किना पैदा हो गया कि वह लोग मामूली मामूली बातों पर इसका मुज़ाहेरा कर देते थे।

अल्लामा शिब्लन्जी और अल्लामा इब्ने तल्हा शाफ़ई लिखते हैं कि हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की वली अहदी के बाद यह उसूल था कि आप मामून से अकसर मिलने के लिये तशरीफ़ ले जाया करते थे और होता यह था कि जब आप दहलीज़ के क़रीब पहुँचते थे तो तमाम दरबान और ख़ुद्दाम आपकी ताज़ीम के लिये खड़े हो जाते थे और सलाम कर के पर्दा ए दर उठाया करते थे। एक दिन सब ने मिल कर तय कर लिया कि कोई पर्दा न उठाए चुनान्चे ऐसा ही हुआ जब इमाम (अ.स.) तशरीफ़ लाए तो हिज्जाब ने पर्दा न उठाया। मतलब यह था कि इससे इमाम की तौहीन होगी , लेकिन अल्लाह के वली को कोई ज़लील नहीं कर सकता। जब ऐसा मौक़ा आया तो एक तुन्द हवा ने पर्दा उठाया और इमाम दाखि़ले दरबार हो गए। फिर जब आप वापस तशरीफ़ लाए तो हवा ने बदस्तूर पर्दा उठाने में सबक़त की। इसी तरह कई दिन तक होता रहा। बिल आखि़र वह सब के सब शर्मिन्दा हो गये और इमाम (अ.स.) की खि़दमत मिस्ल साबिक़ करने लगे।( नूरूल अबसार पृष्ठ 143 मतालेबुल सूऊल पृष्ठ 282, शवाहेदुन नबूअत पृष्ठ 197)

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) और नमाज़े ईद

वली अहदी को अभी ज़्यादा दिन न गुज़रे थे कि ईद का मौक़ा आ गया मामून ने हज़रत से कहला भेजा कि आप सवारी पर जा कर लोगों को नमाज़े ईद पढ़ायें। हज़रत ने फ़रमाया कि मैंने पहले ही तुम से शर्त कर ली है कि बादशाहत और हुकूमत के किसी काम में हिस्सा न लूंगा और न इसके क़रीब जाऊँगा इस वजह से तुम मुझको इस नमाज़े ईद से भी माफ़ रखो। मगर मामून ने बहुत इसरार किया। हज़रत ने फ़रमाया कि अगर तुम माफ़ कर दो तो बेहतर है वरना मैं नमाज़े ईद के लिये उसी तरह जाऊँगा जिस तरह मेरे जद्दे माजिद हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.) तशरीफ़ ले जाया करते थे। मामून ने कहा आपको इख़्तेयार है जिस तरह चाहे जायें। इसके बाद उसने सवारों और प्यादों को हुक्म दिया कि हज़रत के दरवाज़े पर हाज़िर हों। जब यह ख़बर शहर में मशहूर हुई तो लोग ईद के रोज़ सड़को पर छतों पर हज़रत की सवारी की शान देखने को जमा हो गये , एक भीड़ लग गई। औरतों और लड़कों सब को आरज़ू थी कि हज़रत की ज़्यारत करें। और आफ़ताब निकलने के बाद हज़रत ने गु़स्ल किया और कपड़े बदले , सफ़ेद अम्मामा सर पर बांधा , इत्र लगाया और असा हाथ में ले कर ईद गाह जाने पर आमादा हुए । इसके बाद नौकरों और ग़ुलामों को हुक्म दिया कि तुम भी ग़ुस्ल कर के कपड़े बदल लो और इसी तरह पैदल चलो। इस इन्तेज़ाम के बाद हज़रत घर से बाहर निकले। पाएजामा आधी पिंडली तक उठा लिया। कपड़ों को समेट लिया , नंगे पांव हो गए और फिर दो तीन क़दम चल कर खड़े हो गए और सर को आसमान की तरफ़ बलन्द कर के कहा , अल्लाहो अकबर , अल्लाहो अकबर । हज़रत के साथ नौकरों ग़ुलामों और फ़ौज के सिपाहियों ने भी तकबीर कही।

रावी का बयान है कि जब इमाम रज़ा (अ.स.) तकबीर कह रहे थे तो हम लोगों को मालूम होता था कि दरो दीवार और ज़मीनो आसमान से हज़रत की तकबीरों का जवाब सुनाई देता है। इस हैबत को देख कर यह हालत हुई कि सब लोग और खुद लशकर वाले ज़मीन पर गिर पड़े। सब की हालत बदल गई। लोगों ने छुरियों से अपनी जुतीयों के कुल तसमें काट दिये और जल्दी जल्दी जुतियां फेक कर नगें पांव हो गयें। शहर भर के लोग चीख़ चीख़ कर रोने लगे। एक कोहराम बरपा हो गया। इसकी ख़बर मामून को भी हो गई। वज़ीर फ़ज़ल बिन सहल ने इससे कहा कि अगर इमाम इमाम रज़ा (अ.स.) की इसी हालत से ईद गाह तक पहुँच जायेंगे तो मालूम नहीं क्या फ़ितना और हंगामा हो जायेगा। सब लोग इनकी तरफ़ हो जायेगें और हम नहीं जानते कि हम लोग कैसे बचेगें। वज़ीर की इस तक़रीर पर मुतानब्बे हो कर मामून ने अपने पास से एक शख़्स को हज़रत की खि़दमत में भेज कर कहला भेजा कि मुझ से ग़लती हो गई है जो आप से ईद गाह जाने के लिये कहा। इस से आपको ज़हमत हो रही है और मैं आपकी मशक़्क़त को पसन्द नहीं करता। बेहतर है कि आप वापस चले आयें और ईदगाह जाने की ज़हमत न फ़रमायें। पहले जो शख़्स नमाज़ पढ़ाता था पढ़ायेगा। यह सुन कर हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) वापस तशरीफ़ लाए और नमाज़े ईद न पढ़ सके।( वसीलतुन नजात पृष्ठ 382, मतालेबुल सूऊल पृष्ठ 282 उसूले काफ़ी )

अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि फ़राज़ अल अरज़ा अला बैत व रक़ब अल मामून फ़सल ब अलनास कि रज़ा (अ.स.) दोलत सरा को वापस तशरीफ़ लाए और मामून ने जा कर नमाज़ पढ़ाई।( नूरूल अबसार पृष्ठ 143)

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की मदह सराई और देबले खि़ज़ाई और अबू नवास

अरब के मशहूर शायर जनाब देबले ख़ेज़ाई का नाम अबू अली देबले इब्ने अली बिन ज़र्रीन है। आप 148 हिजरी में पैदा हो कर 245 हिजरी में ब मक़ाम मशूश वफ़ात पा गये। (रिजाले तूसी 374) और अबूनवास का पूरा नाम अबू अली हसन बिन हानी इब्ने अब्दुल आला हुवाज़ी बसरी बग़दादी हैं। यह 136 हिजरी में पैदा हो कर 196 हिजरी में फ़ौत हुए। देबल आले मोहम्मद (अ.स.) के मद्दाहे ख़ास थे और अबूनवास हारून रशीद अमीन व मामून का नदीम था।

देबले खि़ज़ाई के बे शुमार अशआर मदहे आले मोहम्मद (अ.स.) में मौजूद हैं। अल्लामा शिब्लन्जी तहरीर फ़रमाते हैं कि जिस ज़माने में इमाम रज़ा (अ.स.) वली अहदे सलतनत थे। देबले खि़ज़ाई एक दिन दारूल सलतनत मर्व में आपसे मिले और उन्होंने कहा कि मैंने आपकी मदह में 120 अशआर पर मुशतमिल एक क़सीदा लिखा है। मेरी तमन्ना है कि मैं सब से पहले हुज़ूर ही को सुनाऊँ। हज़रत ने फ़रमाया बेहतर है पढ़ो।

देबले खि़जा़ई ने अशआर पढ़ना शुरू किया। क़सीदे का मतला यह है।

ज़करत महल अर रबामन अरफ़ात

फ़जरयत दमाअलएैन बिल इबारत ’’

जब देबल क़सीदा पढ़ चुके तो इमाम (अ.स.) ने एक सौ अशरफ़ी की थैली उन्हें अता फ़रमाई। देबल ने शुकरिया अदा करने के बाद उसे वापस करते हुए कहा कि मौला मैंने यह क़सीदा कु़रबतन इल्लहा कहा है मैं कोई अतिया नहीं चाहता ख़ुदा ने मुझे सब कुछ दे रखा है। अलबत्ता हुज़ूर मुझे जिस्म से उतरे हुए कपड़े से कुछ इनायत फ़रमा दें तो वह मेरी ऐन ख़्वाहिश के मुताबिक़ होगा। आपने एक जुब्बा अता करते हुए फ़रमाया कि इस रक़म को भी ले लो यह तुम्हारे काम आयेगी। देबल ने उसे ले लिया। थोड़े अर्से के बाद देबल मर्व से ईराक़ जाने वाले क़ाफ़िले के साथ रवाना हुए। रास्ते में चोरों और डाकुओ ने हमला कर के सब का सब कुछ लूट लिया और चन्द आदमियों को गिरफ़्तार कर भी कर लिया जिन में देबल भी थे। डाकुओं ने माल तक़सीम करते वक़्त देबल का एक शेर पढ़ा। देबल ने पूछा यह किसका शेर है ? उन्होंने कहा किसी का होगा। देबल ने कहा यह मेरा शेर है। उसके बाद उन्होंने सारा क़िस्सा सुना दिया। उन लोगों ने देबल के सदक़े में सब कुछ छोड़ दिया और सब का माल वापस कर दिया यहां तक कि यह नौबत आई कि उन लोगों ने वाक़िया सुन कर इमाम रज़ा (अ.स.) का जुब्बा ख़रीदना चाहा और उसकी क़ीमत एक हज़ार लगा दी। देबल ने जवाब दिया कि यह मैंने ब तौरे तबर्रूक अपने पास रखा है इसे फ़रोख़्त न करूगां। बिल आखि़र बार बार गिरफ़्तार होने के बाद उन्होंने उसे एक हज़ार अशरफ़ी पर फ़रोख़्त कर दिया। अल्लामा शिब्लन्जी ब हवाला ए अबूसलत हरवी लिखते हैं कि देबल ने जब इमाम रज़ा (अ.स.) के सामने यह क़सीदा पढ़ा तो आप रो रहे थे और आपने दो बैतों के बारे में फ़रमाया था कि यह अशआर इल्हामी है।( नूरूल अबसार पृष्ठ 138)

अल्लामा अब्दुल रहमान लिखते हैं कि हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) ने क़सीदा सुनते हुए नफ़से ज़किया के तज़किरे पर फ़रमाया कि ऐ देबल इस जगह एक शेर का और इज़ाफ़ा करो , ताकि तुम्हारा क़सीदा मुकम्मल हो जाये। उन्हों ने अर्ज़ कि मौला फ़रमायें। इरशाद हुआ।

व क़ब्र बातूस , नालहा मन मुसिबता

अल हत अल्लल अहशाए बिज़ क़रात

देबल ने घबरा कर पूछा , मौला यह किस की क़ब्र होगी जिसका हुज़ूर ने हवाला दिया है। फ़रमाया , ऐ देबल! यह क़ब्र मेरी होगी और मैं अन क़रीब इस आलमे ग़ुरबत में जब कि मेरे आइज़्ज़ा व अक़रेबा व बाल बच्चे मदीने में हैं शहीद कर दिया जाऊँगा और मेरी क़ब्र यहीं बनेगी। ऐ देबल जो मेरी ज़्यारत को आयेगा जन्नत में मेरे हमराह होगा।( शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 199)

देबल का यह मशहूर क़सीदा मजालिसे मामेनीन पृष्ठ 466 में मुकम्मल मन्क़ूल है। अलबत्ता इसका मतलब बदला हुआ है। अल्लामा शेख़ अब्बास क़ुम्मी ने लिखा है कि देबल ने एक किताब लिखी थी जिसका नाम था ‘‘ तबक़ाते शोअरा ’’ ।( सफ़ीनतुल बेहार जिल्द 1 पृष्ठ 241)

अबू नवास के मुताअल्लिक़ उलेमाए इस्लाम लिखते हैं कि एक दिन इसके दोस्तों ने इस से कहा कि तुम अकसर अशआर कहते हो और फिर मदहे भी किया करते हो लेकिन अफ़सोस की बात है कि तुम ने हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की मदह में कोई शेर नहीं कहा। उसने जवाब दिया कि हज़रत की जलालते क़द्र ही ने मुझे मदहे सराई से रोका है। मेरी हिम्मत नहीं पड़ती कि आपकी मदह करूँ। यह कह कर उसने चन्द अशआर पढ़े। जिसका तरजुमा यह है कि , उम्दा कलाक के हर रंग और मज़ाक़ के अशआर सब लोगों से अच्छे तुम्ही कहते हो बल्कि अच्छे अशआर में तुम्हारे मदहीया क़सीदे ऐसे होते हैं कि जिनसे सुनने वालों के सामने मोती झड़ते हैं। फिर तुम ने हज़रत इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) के बेटे हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) की मदह और हज़रत के फ़ज़ायल व मनाक़िब में कोई क़सीदा क्यों नहीं लिखा। तो मैं ने सब के जवाब में कह दिया कि भाईयों जिन जलील उश शान इमाम के आबाए कराम के ख़ादिम जिब्राईल ऐसे फ़रिशते हों उनकी मदह करना मुझ से मुम्किन नहीं है। उसके बाद उसने चन्द अशआर आपकी मदह में लिखे जिसका तरजुमा यह है। यह हज़रात आइम्मा ए ताहेरीन ख़ुदा के पाको पाकीज़ा किये हुए हैं और इनका लिबास भी तय्यबो ताहिर है। जहां भी उनका ज़िक्र होता है वहां उन पर दुरूद का नारा बलन्द हो जाता है। जब हसब व नसब बयान होते वक़्त कोई शख़्स अलवी ख़ानदान का न निकले तो उसको इब्तिदाये ज़माने से कोई फ़ख्र की बात नहीं मिलेगी। जब मख़लूक़ को पैदा किया फिर उसको हर तरह उस्तवार किया और संवारा तो उसी खुदा के बरगज़ीदा हज़रात आप लोगों को ख़ुदा ने सब से ज़्यादा शरीफ़ भी क़रार दिया और सब पर फ़ज़ीलत भी दी। मैं सच कहता हूँ कि आप हज़रात ही मलाए आला हैं और आप ही के पास क़ुरआने मजीद का इल्म और सूरों के मतालिब व मफ़ाहिम हैं।( दफ़ियातुल ऐयान जिल्द 1 पृष्ठ 322 नूरूल अबसार पृष्ठ 138 प्रकाशित मिस्र )

मज़ाहिबे आलम के उलेमा से हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) के इल्मी मुनाज़िरे

मामून रशीद को ख़ुद भी इल्मी ज़ौक़ था। उसने वली अहदी के मरहले तो तय करने के बाद हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) से काफ़ी इस्तेफ़ादा किया फिर अपने ज़ौक़ के तक़ाज़े पर उसने मज़ाहिबे आलम के उलेमा को दावते मुनाज़िरा दी और हर तरफ़ से उलेमा को तलब कर के हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से मुक़ाबला कराया। अहदे मामून में इमाम रज़ा (अ.स.) से जिस क़दर मुनाज़िरे हुए हैं उनकी तफ़सील अकसर कुतुब में मौजूद हैं। इस सिलसिले में ऐहतेजाजी तबरसी , बिहार , दमऐ साकेबा वग़ैरा जैसी किताबें देखी जा सकती हैं। इख़्तेसार के पेशे नज़र सिर्फ़ दो चार मुनाज़िरे लिखता हूँ।

आलिमे नसारा से मुनाज़िरा

मामून रशीद के अहद में नसारा का एक बहुत बड़ा आलिम व मुनाज़िर शोहरते आम्मा रखता था। जिसका नाम ‘‘ जासलीक ’’ था। उसकी आदत थी कि मुताकल्लमीने इस्लाम से कहा करता था कि हम तुम दोनो नबूवते ईसा और उनकी किताब पर मुत्तफ़िक़ हैं और इस बात पर भी इत्तेफ़ाक़ रखते हैं कि वह आसमान पर ज़िन्दा मौजूद हैं। इख़तिलाफ़ है तो सिर्फ़ मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) में है। तुम उनकी नबूवत का एतेक़ाद रखते हो और हम इन्कार करते हैं फिर हम तुम उनकी वफ़ात पर मुत्तफ़िक़ हो गये हैं। अब ऐसी सूरत में कौन सी दलील तुम्हारे पास बाक़ी है जो हमारे लिये हुज्जत क़रार पाए। यह कलाम सुन कर अकसर मुनाज़िर ख़ामोश हो जाया करते थे। मामून रशीद के इशारे पर एक दिन वह हज़रात इमाम रज़ा (अ.स.) से भी हम कलाम हुआ। मौक़ा ए मनाज़ेरह में उसने मज़कूरा सवाल दोहराते हुये कहा कि पहले आप यह फ़रमायें कि हज़रत ईसा की नबूवत और उनकी किताब दोनों पर आपका ईमान व एतेक़ाद है या नहीं। आपने इरशाद फ़रमाया कि मैं उस ईसा की नबूवत का यक़ीनन एतेक़ाद रखता हूँ जिसने हमारे नबी हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) की नबूवत की अपने हवारीन को बशारत दी है और उस किताब की तसदीक़ करता हूँ जिसमें यह बशारत दर्ज है। जो ईसाई उसके मोतरिफ़ नहीं और जो किताब उसकी शारेह और मुसद्दक़ नहीं उस पर मेरा ईमान नहीं है। यह जवाब सुन कर जासलीक खा़मोश हो गया। फिर आपने इरशाद फ़रमाया कि ऐ जासलीक हम उस ईसा को जिसने हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) की नबूवत की बशारत दी , नबीए बरहक़ जानते हैं मगर तुम उनकी तन्क़ीस करते हो और कहते हो कि वह नमाज़ रोज़े के पाबन्द न थे। जाशलीक ने कहा कि हम तो यह नहीं कहते वह तो हमेशा क़ायमुल लैल और साएमुन नहार रहा करते थे। आपने फ़रमाया , ईसा तो बनाबर एतेक़ाद नसारा ख़ुद माज़ अल्लाह ख़ुदा थे। तो वह रोज़ा और नमाज़ किसके लिये करते थे। यह सुन कर जाशलीक मबहूत हो गया और कोई जवाब न दे सका। अलबत्ता यह कहने लगा कि जो मुर्दो को ज़िन्दा करे , जुज़ामी को शिफ़ा दे , नाबीना को बीना बनाये और पानी पर चले क्या वह इसका सज़ावार नहीं कि उसकी परस्तिश की जाय और उसे माबूद समझा जाय। आपने फ़रमाया इलयासाह भी पानी पर चलते थे , अन्धे , कोढ़ी को शिफ़ा देते थे। इसी तरह हिज़क़ील पैग़म्बर (अ.स.) ने 35 हज़ार इन्सानों को साठ बरस के बाद ज़िन्दा किया था। कौमे इसराईल के बहुत से लोग ताऊन के ख़ौफ़ से अपने घर छोड़ कर बाहर चले गये थे। हक़्के़ ताआला ने एक सआत में सब को मार दिया था बहुत दिनों के बाद एक नबी इस्तेख़्वाने बोसीदा (बोसीदा हड्डियों) से गुज़रे तो ख़ुदा वन्दे आलम ने उन पर वही नाज़िल की उन्हें आवाज़ दो। उन्होंने कहा ऐ अज़ाम बालिया (मुर्दा हड्डियों) उठ ख़डे हो। वह सब ब हुक्मे ख़ुदा उठ खड़े हुये। इसी लिये हज़रते इब्राहीम (अ.स.) के परिन्दों को ज़िन्दा करने और हज़रते मूसा (अ.स.) के कोहे तूर पर ले जाने और रसूले ख़ुदा (स.अ.) के अहयाए अम्वात फ़रमाने का हवाला दे कर फ़रमाया कि इन चीज़ों पर तौरेत व इन्जील और क़ुरआन मजीद की शहादत मौजूद है। अगर मुर्दो को ज़िन्दा करने से इन्सान ख़ुदा हो सकता है तो यह सब अम्बिया भी ख़ुदा होने के मुस्तहक़ हैं। यह सुन क रवह चुप हो गया और उसने इस्लाम क़ुबूल करने के सिवा और चारा न देखा।

आलिमे यहूद से मनाज़ेरा

उल्माए यहूद में से एक आलिम जिसका नाम ‘‘ रासुल जालूत ’’ था , को अपने इल्म पर बड़ ग़ुरूर और तकब्बुर व नाज़ था। वह किसी को भी अपनी नज़र में न लाता था। एक दिन उसका मनाज़रह और मुबाहेसा फ़रज़न्दे रसूल (स.अ.) हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) से हो गया। आपसे गुफ़्तुगू के बाद उसने अपने इल्म की हक़ीक़त जानी और समझा कि मैं ख़ुद फ़रेबी में मुबतेला हूँ।

इमाम (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर होने के बाद उसने अपने ख़्याल के मुताबिक़ बहुत सख़्त सवालात किये। जिनके तसल्ली बख़्श और इत्मीनान आफ़रीन जवाबात से बहरावर हुआ। जब वह सवालात कर चुका तो इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया कि ऐ ‘‘ रासुल जालूत ’’ तुम तौरैत की इस इबारत का क्या मतलब समझते हो कि ‘‘ आया नूर सीना से और रौशन हुआ जबले साएर से और ज़ाहिर हुआ कोहे फ़ारान से ’’ उसने कहा कि इसे हम ने पढ़ा ज़रूर है लेकिन उसकी तशरीह से वाक़िफ़ नहीं हूँ। आपने इरशाद फ़रमाया , कि नूर से वही मुराद है। तमरे सीना से वह पहाड़ मुराद है जिस पर हज़रत मूसा (अ.स.) ख़ुदा से कलाम करते थे। जबल साईर से महल व मक़ामें ईसा (अ.स.) मुराद है। कोहे फ़ारान से जबले मक्का मुराद है जो शहर से एक मंज़िल के फ़ासले पर वाक़े है। फिर फ़रमाया तुम ने हज़रते मूसा (अ.स.) की यह वसीयत देखी है कि तुम्हारे पास बनी अख़वान से एक नबी आयेगा उसकी बात मानना और उसके क़ौल की तसदीक़ करना। उसने कहा देखी है। आपने पूछा की बनी अख़वान से कौन मुराद है ? उसने कहा मालूम नहीं। आपने फ़रमाया कि वह औलादे इस्माईल हैं क्यों कि वह हज़रत इब्राहीम के एक बेटे हैं और बनी इसराईल के मुरेसे आला हज़रत इस्हाक़ बनी इब्राहीम के भाई हैं और उन्हीें से हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) हैं।

उसके बाद जबले फ़ारान वाली बशारत की तशरीह फ़रमा कर कहा कि शैया नबी का क़ौल तौरैत में मज़कूर है कि मैंने दो सवार देखे कि जिनके परतौ से दुनिया रौशन हो गई। उन्में एक गधे पर सवारी किये था और एक ऊँट पर। ऐ ‘‘ रासुल जालूत ’’ तुम बतला सकते हो उस से कौन मुराद हैं ? उसने इन्कार किया , आपने फ़रमाया कि राकेबुल हमार से हज़रत ईसा (अ.स.) और राकेबुल जमल से हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) मुराद हैं।

फिर आपने फ़रमाया कि तुम हज़रत जबकूक नबी के उस क़ौल से वाक़िफ़ हो कि ख़ुदा अपना बयान जबले फ़ारान से लाया और तमाम आसमान हम्दे इलाही की आवाज़ों से भर गये। उसकी उम्मत और उसके लशकर के सवार ख़ुशकी और तरी में जंग करेंगे। उन पर एक किताब आयेगी और सब कुछ बैतुल मुकद्दस की ख़राबी के बाद होगा। इसके बाद इरशाद फ़रमाया कि यह बताओ कि तुम्हारे पास हज़रत मूसा (अ.स.) की नबूवत की क्या दलील है ? उसने कहा कि उनसे वह उमूर ज़ाहिर हुए जो उनसे पहले के अम्बिया पर नहीं हुए थे। मसलन दरिया ए नील का शिग़ाफ़ता होना। असा का संाप बन जाना। एक पत्थर से बारह चशमों का जारी होना और यदे बैज़ा वग़ैरा। आपने फ़रमाया कि जो भी इस क़िस्म के मोजेज़ात को ज़ाहिर करे और नबूवत का मुद्दई हो उसकी तसदीक़ करनी चाहिये। उसने कहा नही। आपने फ़रमाया क्यों ? कहा इस लिये कि मूसा को जो क़ुरबत या मंज़िलत हक़्क़े ताआला के नज़दीक़ थी वह किसी को नहीं हुई। लेहाज़ा हम पर वाजिब है कि जब तक कोई शख़्स बैनेह वही मोजेज़ात व करामात न दिखलाये हम उसकी नबूवत का इक़रार न करेंगे। इरशाद फ़रमाया कि तुम मूसा (अ.स.) से पहले अम्बिया मुरसलीन की नबूवत का किस तरह इक़रार करते हो हांला कि उन्होंने न कोई दरिया शिग़ाफ़्ता किया न किसी पत्थर से चशमें निकाले न उनका हाथ रौशन हुआ और न उनका असा अज़दहा बना। ‘‘ रासुल जालूत ’’ ने कहा कि जब ऐसे उमूर व अलामात ख़ास तौर से उनसे ज़ाहिर हों जिनके इज़हार से उमूमन तमाम ख़लाएक़ आजिज़ हो , तो वह अगरचे बैनेह ऐसे मोजेज़ात हों या न हों। उनकी तस्दीक़ हम पर वाजिब हो जायेगी।

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) ने फ़रमाया कि हज़रत ईसा (अ.स.) भी मुर्दों को ज़िन्दा करते , कोरे मादर ज़ाद (पैदाईशी अन्धे) को बीना बनाते। मबरूस को शिफ़ा देते। मिट्टी की चिड़िया बना कर हवा में उड़ाते थे। वह यह उमूर हैं जिनसे आम लोग आजिज़ हैं फिर तुम उनको पैग़म्बर क्यों नहीं मानते ? रासुल जालूत ने कहा कि लोग ऐसा कहते हैं मगर हमने उनको ऐसा करते देखा नहीं है। फ़रमाया तो क्या आयात व मोजेज़ाते मूसा (अ.स.) को तुमने अपनी आंखों से देखा है आखि़र वह भी तो मोतबर लोगों की ज़बानी सुना ही होगा। वैसा ही अगर ईसा (अ.स.) के मोजेज़ात मोतबर लोगों से सुनो तो तुमको उनकी नबूवत पर ईमान लाना चाहिये और बिल्कुल इसी तरह हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) की नबूवत व रिसालत का इक़रार आयातो , मोजेज़ात की रौशनी में करना चाहिये। सुनो उनका एक अज़ीम मोजेज़ा कु़रआने मजीद है जिसकी फ़साहतो बलाग़त का जवाब क़यामत तक नहीं दिया जा सकेगा। यह सुन कर वह ख़ामोश हो गया।

आलिमे मजूस से मनाज़ेरा

मजूसी यानी आतश परस्त का एक मशहूर आलिम ‘‘ हरबिज़ा अकबर ’’ हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की खि़दमत में हाज़िर हो कर इल्मी गुफ़्तुगू करने लगा। आपने उसके सवालात के मुकम्मल जवाबात इनायत फ़रमाये। उसके बाद उस से सवाल किया कि तुम्हारे पास ‘‘ ज़र तश्त ’’ की नबूवत की क्या दलील है। उसने कहा कि उन्होेंने हमारी ऐसी चीज़ों की तरफ़ रहबरी फ़रमाई है जिसकी तरफ़ पहले किसी ने रहनुमाई नहीं की थी। हमारे असलाफ़ कहा करते थे कि ‘‘ ज़र तश्त ’’ ने हमारे लिये वह उमूर मुबाह किये हैं कि उनसे पहले किसी ने नहीं किये थे। आपने फ़रमाया कि तुम को इस अम्र में क्या उज़्र हो सकता है कि कोई शख़्स किसी नबी और रसूल के फ़ज़ायलो कमालात तुम पर रौशन करे और तुम उसके मानने में पसो पेश करो। मतलब यह है कि जिस तरह तुम ने मोतबर लोगों से सुन कर ‘‘ ज़र तश्त ’’ की नबूवत मान ली। उसी तरह मोतबर लोगों से सुन कर अम्बिया और रसूल की नबूवत के मानने में तुम्हें क्या उज़्र हो सकता है। यह सुन क रवह ख़ामोश हो गया।

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) और इस्मते अम्बिया (अ.स.)

अम्बिया कराम , दवाज़दाह इमाम और जनाबे मरयम व हज़रते फ़ात्मा (स.अ.) की असमत का एतेक़ाद मुसल्लेमात से है , लेकिन बद क़िस्मती से बाज़ मुसलमान जो उनकी हैसियत को सही तौर पर नहीं समझ सके वह इसमें कलाम करते हैं इस लिये बहस ख़ास अहमियत की मालिक बन गई है और उलमा ने इस पर ख़ामा फ़रसाई फ़रमाई है। इस सिलसिले में किताब तन्ज़ीहुल अम्बिया , एहतेजाजे तबरीसी , बेहारूल अनवार , शरह तजरीद वग़ैरह देखने के क़ाबिल हैं। हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) जो ख़ुद अपने आबाओ अजदाद और अम्बिया की तरह मासूम थे उन से जब इस मसले के मुताअल्लिक़ सवाल किया गया तो आपने उसका जवाब निहायत ख़ूब सूरत तरीक़े पर दे कर मुख़ातिब को मुतमईन फ़रमा दिया।

अली बिन जहम कहते हैं कि एक दफ़ा मामून रशीद ने हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से दरयाफ़्त किया कि जब ख़ुदा वन्दे आलम ने हज़रते आदम (अ.स.) के लिये वाज़े तौर पर फ़रमा दिया ‘‘ फ़ाआसा आदम रब्बेहे फ़ग़वा ’’ कि आदम ने अपने परवर दिगार की नाफ़रमानी की और वह बहक गये तो फिर वह मासूम कहां रहे।

आपने फ़रमाया कि ख़ुदा का हुक्म था कि ऐ आदम तुम दोनों बेहिश्त में रहो और जो चाहे खाओ पियो। ‘‘ वला तक़रेबा हुदल शजरतः फ़ता कूना मिनल ज़ालेमीन ’’ लेकिन इस दरख़्त के नज़दीक़ न जाना , वरना अपना खुद बिगाड़ोगे। यानी उनसे यह नहीं फ़रमाया था कि इस शजर और उसके जिन्स दीगर से भी न खाना और उन्होंने इस दरख़्त ममनूआ से खाया भी नहीं। मगर शैतान के वसवसे से एक और वैसे ही दरख़्त से खा लिया क्यों कि शैतान ने उन से कहा कि ख़ुदा वन्दे तआला ने तुम को ख़ास उस दरख़्त से मना फ़रमाया है इस क़िस्म के और दरख़्तों से मुमानियत नहीं फ़रमाई और उसके पास जाने की भी मुमानियत नहीं फ़रमाई। खाने का ज़िक्र इरशादे ख़ुदा वन्दी में मौजूद नहीं। फिर शैतान ने उनसे क़सम खाई कि मैं तुम्हारा नासेह मुशफ़िक़ हूँ। हज़रत आदम व हव्वा ने इस से पहले किसी को झूठी क़सम खाते नहीं सुना था। उनको धोका हो गया और उसकी क़सम पर एतेबार कर के उसके मुरतकिब हो गये और यह इज़तेराब भी उन हज़रात से क़ब्ले नबूवत हुआ और गुनाहे कबीरा न था। जिससे मुस्तहक़ दुख़ूले जहन्नम होते। यह सिर्फ़ सग़ायरे मौहूबा से था जो अम्बिया (अ.स.) से क़ब्ल अज़ वही जाएज़ हैै। जब ख़ुदा वन्दे आलम ने उनको बरगुज़ीदा किया और नबी गर दाना तो मासूम थे। गुनाहे कबीरा व सग़ीरा उन हज़रात से सादिर न होता था। चुनान्चे अल्लाह तआला ने इरशाद फ़रमाया , ‘‘ सुम इतमेबाह रबा फ़ताबा अलैहे ’’ ख़ुदा ने उनको बरगुज़ीदा किया और उनकी तौबा क़ुबूल कर ली।

अल्लामा तबरिसी फ़रमाते हैं सग़ाएर मौहूबा से तरक अवला मुराद है जो अम्बिया के लिये क़बल अज़ल नुज़ू लवही जाएज़ है। मोअल्लिफ़ का कहना है कि (नहीं) की दो क़िस्में है। नहीं तरहीमी और नहीं तनज़ीही लातक़रबा में यही थी। यानी इसके क़़रीब न जाना तुम्हारे लिये बेहतर होगा। फ़ताकूना अलज़ालमीन और अगर चले गए तो तुम अपना ख़ुद नुक़सान करोगे। जैसा कि किताब ‘‘ तनज़ीह अम्बिया ’’ से मुस्तफ़ाद होता है।

इसी तरह आपने हज़रत इब्राहीम (अ.स.) , हज़रत मूसा (अ.स.) , हज़रत यूसुफ़ (अ.स.) और हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स.अ.) की असमत पर रौशनी डाली और बतलाया कि इज़रात से गुनाहों का सादिर होना इमकान व कु़दरत के बावजूद मोहाल था। इन से कभी कोई गुनाह सग़ीरा हो या कबीरा सादिर नहीं हुआ।( उयून अख़बार रज़ा पृष्ठ 71 प्रकाशित ईरान )

आपकी तसानीफ़

उलमा ने आपकी तसानीफ़ में सहीफ़तुर रज़ा , सहीफ़तुर रिज़विया , तिब्बे रज़ा और और मसनदे इमाम रज़ा (अ.स.) का हवाला दिया है और बताया है कि आपकी तसानीफ़ हैं। सहीफतुर्ररज़ का ज़िक्र अल्लामा मजालिसी , अल्लामा तबरसी और अल्लामा ज़हमख़शरी ने किया है। इसका उर्दू तरजुमा हकीम इकराम अली रज़ा लखनवी ने प्रकाशित कराया था। अब जो तक़रीबन नापैद है। सहीफ़तुर अरज़ा का तरजुमा मोलवी शरीफ़ हुसैन साहब बरेलवी ने किया है। तिब्बे रज़ा का ज़िक्र अल्लामा मजलिसी शेख़ मुन्तख़बुद्दीन ने किया है। इसकी शरह फ़ज़लुल्लाह इब्ने इरावन्दी ने लिखी है इसी को रिसाला ज़हबिया भी कहते हैं और इसका तरजुमा मौलाना हकीम मक़बूल अहमद साहब क़िबला मरहूम ने भी किया है। इसका तज़किरा शमशुल उलमा अल्लामा शिबली नोमानी ने अल मामून पृष्ठ 92 में किया है। मसनदे इमाम रज़ा (अ.स.) का ज़िक्र अल्लामा चेलपी ने किताब मशफ़ुल ज़नून में किया है। जिसको अल्लामा अब्दुल्लाह अमरत सरी ने किताब अरजहुल मतालिब के पृष्ठ 454 पर नक़ल किया है। नाचीज़ मुअल्लिफ़ के पास यह किताब मिस्र की मतूबा मौजूद है। यह किताब 1321 हिजरी में छपी है और इसके मुरतिब अल्लामा शेख़ अब्दुल अलवासा मिस्री और महशी अल्लामा मोहम्मद इब्ने अहमद है।

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) ने ‘‘ माऊल लहम ’’ बनाने और मौसिमयात के मुताअल्लिक़ जो अफ़दा फ़रमाया है उसका ज़िक्र किताबों में मौजूद है। तफ़सील के लिये मुलाहेज़ा हो।( दमए साकेबा वग़ैरा )

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) और शेरे क़ालीन

अल्लामा मोहम्मद तक़ी इब्ने मोहम्मद बाक़र हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) के हवाले से तहरीर फ़रमाते हैं कि हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की वली अहदी के ज़माने में एक दफ़ा शदीद तरीन क़हत पड़ा। मामून ने हज़रत की खि़दमत में हाज़िर हो कर अर्ज़ की मौला कोई तदबीर कीजिए और किसी सूरत से दुआ फ़रमाइये कि ख़ुदा वन्दे आलम नज़ूले बारां कर दे। अब मुल्क की बुरी हालत हो गई है। भूख और प्यास से लोगों के जान बहक़ होने का सिलसिला शुरू हो गया है। आपने इरशाद फ़रमाया ऐ बादशाह घबरा नहीं। मैं दो शम्बे के दिन तलबे बारीश के लिये निकलूगां। मुझे अपने परवर दिगार से बड़ी तवक़्क़ा है। इंशा अल्लाह नजूले बारां होगा और ख़ल्के़ ख़ुदा की परेशानी दूर होगी। ग़रज़ कि वक़्ते मुक़र्रर आया और इमाम (अ.स.) सहरा की तरफ़ बरामद हुए। आपने मुसल्ला बिछाया और दस्ते दुआ बारगाहे अहदीयत में बलन्द कर के दोआ फ़रमाई अभी दुआ के जुमले तमाम न होने पाए थे कि ठन्डी हवा के झोंके चलने लगे। बादल छा गया बूंदे पड़नी लगीं और इस क़दर बारिश हुई कि जल थल हो गया। बादशाह भी ख़ुश हुआ पब्लिक भी मुतमईन और आसूदा हुई और लोग अपने अपने घरों को वापस चले गए। इस करामते ख़ास और इस्तेजाबत दोआ की वजह से बहुत से हासिद जल भुन कर ख़ाकिस्तर हो गए। एक दिन जब दरबार आरास्ता था उन्हीं हासिदों में से एक ने कहा , लोग आपके बारे में बहुत से ख़ुराफ़ात नशर करते हैं और आपको बढ़ाने की सई में मुनहमिक़ हैं। सब चाहते हैं कि आपका पाया बादशाह सलामत के पाय से बलन्द कर दें और सुने सब से बड़ी करामत जो आपकी इस वक़्त मशहूर की जा रही है वह यह है कि आप ने बारिश करा दी है मैं कहता हूँ कि जब कि बारिश अर्से से नहीं हुई थी। वह आपकी दुआ करते या न करते उसे तो होना ही था लेहाज़ा मेरी नज़र में यह करामत कोई हैसियत नहीं रखती हां करामत और मोजिज़ा तो यह है कि पेशे नज़र क़ालीन और मस्नद पर जो शेर की तस्वीर बनी हुई है उसे मुजस्सम कर दीजिये और हुक्म दीजिए की मुझे फाड़ खाए।

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) ने फ़रमाया कि देख मैंने किसी से नहीं कहा कि मेरी करामत बयान करे और न यह कहा कि मुझे बढ़ाने की कोशिश करे। अब रह गया आबे बारानी का वाक़ेया , वह ख़ुदा की मेहरबानी और इनायत से अमल में आया है , मैं इसमें भी अपनी कोई तारीफ़ नहीं चाहता। यह सब ख़ुदा की इनायत है। अलबत्ता जो तुझे यह हौंसला है कि शेरे क़ालीन व मसनद मुजस्सम हो जाए और तुझे फाड़ खाए तो ले यह किए देता हूँ।

यह फ़रमा कर आप शेर की तस्वीरों की तरफ़ मुतवज्जा हुए और आपने फ़रमाया , ‘‘ कि ऐन फ़ाजिर कि नज़दे शमाअस्त और राबदरौ असर राबाक़ी नगज़ारीद ’’ इस फ़ासिक़ व फ़ाजिर को चीर फाड़ कर खा जाओ कि इसका निशान तक बाक़ी न रहे।

इमाम (अ.स.) का यह फ़रमाना था कि दोनों शेर की तस्वीर मुजस्सम हो गयीं और उन्होंने हमहमा भर कर काफ़िर अज़ली पर हमला कर दिया जिसका नाम हमीद बिन महरान था और उसे पारा पारा कर के खा डाला। इस हंगामे को देख कर मामून बेहोश हो गया। हज़रत ने उसे होश में ला कर शेरों को हुक्म दिया कि अपनी असली हालत व सूरत में हो जाओ चुनान्चे वह फिर क़ालीन व मसनद की तसवीन बन गये।( काशेफ़ुन नक़ाब शरह उयून अख़बार रज़ा पृष्ठ 216)

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) के साथ उम्मे हबीबा बिन्ते मामून की शादी और मामून का सफ़रे ईराक़

वाक़ेए वली अहदी के क़बल बाद से ले कर 202 हिजरी के शुरू तक हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से मनाज़िरे , मुबाहसे और इल्मी मज़ाहिरे मामून रशीद कराता रहा। अब इसकी वजह या यह हो कि शोहरते आम्मा हो जाए और अलवी सरनिगंू रहें और अलमे ख़ुरूज बुलन्द न करें या यह हो कि अब्बासीयों पर हुज्जतें क़ायम हो जायं और हज़रत की अहलीयत व क़ाबलीयत से मरऊब हो कर वह लोग मुख़लेफ़त और तमरूद व सरकशी का क़सद न करें और ठीक से मामून को हुकूमत करते दें। या यह हो कि इमाम रज़ा (अ.स.) और उनके मानने वालों के दिल साफ़ हो जायें और किसी को बाद के आने वाले वाक़ेयात में यह शुबहा न हो कि मनाज़रे और मुबाहसे के बाद मामून ने अपने ख़ुफ़िया मक़सद की तकमील के लिये ईराक़ का सफ़र करने का फ़ैसला किया। इसके क़ब्ल इसने यह ज़रूरी समझा कि शुबहे की गुनजाईश को ख़त्म कर देने के लिये अपनी लड़की की शादी इमाम रज़ा (अ.स.) से कर दे। चुनान्चे उस ने रऊसा अल शहाद बरसरे दरबार मजिलिसे अक़्द कर के अपनी बेटी उम्में हबीब की शादी हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) के साथ कर दी।

अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि ‘‘ ज़ौजा अल मामून अबनाता उम्में हबीब फी अव्वल सुन्नतह असनैन वमातैन वल मामून मतार्वज्जाहू अल ईराक़ ’’ मामून ने अवएल 202 हिजरी में अपनी लड़की उम्मे हबीबा का अक़्द हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) के साथ कर दिया , यह उस वक़्त किया जब कि वह सफ़रे ईराक़ का तहय्या कर चुका था।( नूरूल अबसार पृष्ठ 142 प्रकाशित मिस्र )

अल्लामा मोहम्मद रज़ा लिखते हैं कि उम्मे हबीबा को आपके तसर्रूफ़ में नहीं दिया गया।( जन्नातुल ख़ुलूद पृष्ठ 32) यह 202 हिजरी ही है जिसमें अब्बासीयों ने बग़दाद की हुकूमत से मामून को बे दख़ल कर के इसकी जगह पर इब्राहीम बिन मेहदी को ख़लीफ़ा बनाने का ऐलान कर दिया था। इस वक़्त बग़दाद की हालत यह थी कि वह इन्तेशार और बद नज़मियों का मरकज़ बन गया था।

मुवर्रिख़ ज़ाकिर हुसैन वाक़िए वली अहदी के बाद के हालात के सिलसिले में लिखते हैं कि बग़दाद और उसके गिर्द व नवाह में बिल्कुल बदनज़मी फैल गई , लुच्चेख् ग़ुन्डे दिन दहाड़े लूट मार करने लगे। जुनूबी ईराक़ व हिजाज़ में भी मामलात की हालत ऐसी ही ख़राब हो रही थी। फ़ज़ल सब ख़बरों को पोशीदा रखता था । मगर इमाम रज़ा (अ.स.) ने उन्हें बा ख़बर कर दिया। बादशाह वज़ीर से बदज़न हो गया। मामून को जब इन शोरिशों की ख़बर हुई तो बग़दाद की तरफ़ रवाना हो गया। सरख़स में पहुँच कर उसने अपने वज़ीर को हम्माम में क़त्ल करा दिया। फिर जब तूस पहुँचा तो इमाम रज़ा (अ.स.) को जिनको वली अहद करने के सबब बग़दाद में बग़ावत हुई थी अग़ूरों में ज़हर दे कर शहीद कर दिया। मामून में ज़ाहिर में तो मातम किया और वहीं दफ़्न कर के मक़बरा तामीर कराया। मामून ने इमाम (अ.स.) की वफ़ात का हाल बग़दाद लिख भेजा जिससे वहां अमनो अमान क़ायम हो गया। मामून आगे बढ़ा यहां तक कि मदाएन पहुँच कर आठ दिन क़याम किया। जहां बग़दाद के जंगी सरदारों , रईसों से मिला। बनी अब्बास ने उसका इस्तक़बाल किया और उसने बाज़ अमाएद की दरख़्वास्त पर फिर वही अब्बासी सियाह रंग इख़्तेयार कर लिया। मामून के आने की ख़बर सुन कर इब्राहीम बिन मेहदी और उसके तरफ़दार भाग गये मगर फिर इब्राहीम पकड़ा गया।( तारीख़े इस्लाम जिल्द 1 पृष्ठ 61 वल फ़ख़्री वल मामून )

मामून रशीद अब्बासी और हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की शहादत

यह एक मुसल्लेमा हक़ीक़त है कि ग़ैर मासूम अरबाबे इक़्तेदार हवसे हुक्मरानी में किसी क़िस्म का सरफ़ा नहीं करते अगर हुसूले हुकूमत या तहफ़्फ़ुज़े हुक्मरानी में बाप बेटे , मां बेटी या मुक़द्दस से मुक़द्दस तरीन हस्तियों को भेंट चढा़ दे , तो वह उसकी परवाह नहीं करते। इसी बिना पर अरब में मिसाल के तौर पर कहा जाता है कि ‘‘ अल मुल्क अक़ीमुन ’’

अल्लामा वहीदुज़्ज़मा हैदार बादी लिखते हैं कि अल मुल्क अक़ीम बादशाहत बाझं है। यानी बादशाहत हासिल करने के लिये बाप बेटे की परवाह नहीं करता। बेटा बाप की परवाह नहीं करता बल्कि ऐसा भी हो जाता है कि बेटा बाप को मार कर खुद बादशाह बन जाता है।( अनवारूल लुग़त पारा 8 पृष्ठ 173) अब इस हवसे हुक्मरानी में किसी मज़हब और अक़ीदे का सवाल नहीं । हर वह शख़्स जो इख़्तेदार का भूखा होगा वह इस क़िस्म की हरकतें करेगा। मिसाल के लिये इस्लामी तवारीख़ की रौशनी में हुज़ूर रसूले करीम (स.अ.) की वफ़ात के फ़ौरन बाद के वाक़यात को देखिये। जनाबे सय्यदा (स.अ.) के मसाएब व आलाम और वजहे शहादत पर ग़ौर किजिये। इमाम हसन (अ.स.) के साथ बरताव पर ग़ौर फ़रमाईये। वाक़िया ए करबला और उसके पसे मंज़र , नीज़ दीगर आइम्मा ए ताहेरीन के साथ बादशाहाने वक़्त के सुलूक और उनकी क़ैदो बन्द और शहादत के वाक़ेयात को मुलाहेज़ा कीजिए। इन उमूर से यह बात वाज़े हो जायेगी कि हुक्मरानी के लिये क्या क्या मज़ालिम किए जा सकते हैं और कैसी कैसी हस्तियों की जानें ली जा सकती हैं और क्या कुछ किया जा सकता है। तवारीख़ में मौजूद है कि मामून रशीद अब्बासी की दादी ने अपने बेटे ख़लीफ़ा हादी को 26 साल की उम्र में ज़हर दिलवा कर मार दिया। मामून रशीद के बाप हारून रशीद अपने वज़ीरों के ख़ानदान बरामका को तबाह व बरबाद कर दिया।( अल मामून पृष्ठ 20) मरवान की बीवी ने अपने ख़ाविन्द को बिस्तरे ख़्वाब पर दो तकियों से गला घुटवा कर मरवा दिया। वलीद बिन अब्दुल मलिक ने फ़रज़न्दे रसूल इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.स.) को ज़हर से शहीद किया। हश्शाम बिन अब्दुल मलिक ने इमाम मोहम्मद बाक़र (अ.स.) को ज़हर दिया। इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) को मन्सूर दवान्क़ी ने ज़हर से शहीद किया। इमाम मूसिए काज़िम (अ.स.) को हारून रशीद अब्बासी ने ज़हर से शहीद किया। इमाम अली रज़ा (अ.स.) को मामून अब्बासी ने ज़हर दे कर शहीद किया। इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) को मोतसिम बिल्लाह ने उम्मुल फ़ज़ल बिन्ते मामून के ज़रिये से ज़हर दिलवाया। इमाम अली नक़ी (अ.स.) को मोतमिद अब्बासी ने ज़हर से शहीद किया। ग़रज़ कि हुकूमत के सिलसिले में यह सब कुछ होता रहता है। औरंगज़ेब को देखिये , उसने अपने भाई को क़त्ल कराया और अपने बाप को सलतनत से महरूम कर के क़ैद कर दिया था। उसी ने शहीदे सालिस हज़रत नूरूल्लाह शुस्तरी (आगरा) की ज़बान गुद्दी से खिंचवाई थी। बहर हाल जिस तरह सब के साथ होता रहा। हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) के साथ भी हुआ।

तारीख़े शहादत

हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की शहादत 23 ज़ीक़ाद 203 हिजरी मुताबिक़ यौमे जुमा बा मुक़ाम तूस वाक़ेए हुई है। (जिलाउल उयून पृष्ठ 280, अनवारूल ग़मानीह पृष्ठ 127, जन्नातुल ख़ुलूद पृष्ठ 31) आपके पास इस वक़्त अज़ीज़ अक़रबा औलाद वग़ैरा में कोई न था। एक तो आप खुद मदीना से ग़रीबुल वतन हो कर आए दूसरे यह कि दारूल सलतनत मर्व में भी आपने वफ़ात नहीं पाई बल्कि आप सफ़र की हालत में बा आलमे ग़ुरबत फ़ौत हुए। इसी लिये आपको ग़रीबुल ग़ुरबा कहते है।

वाक़िया ए शहादत के मुताअल्लिक़ मोवर्रिख़ लिखते हैं कि इमाम रज़ा (अ.स.) ने फ़रमाया था ‘‘ फ़मा यक़तलनी वल्लाह वग़ैरह ’’ ख़ुदा की क़सम मुझे मामून के सिवा कोई और क़त्ल नहीं करेगा और मैं सब्र करने पर मजबूर हूँ।( दमए साकेबा जिल्द 3 पृष्ठ 71)

अल्लामा शिब्लन्जी लिखते हैं कि हर समा बिन अईन से आपने अपनी वफ़ात की तफ़सील बताई थी और यह भी बता दिया था कि अंगूर और अनार में मुझे ज़हर दिया जायेगा।( नूरूल अबसार पृष्ठ 144)

अल्लामा मआसिर लिखते हैं कि एक रोज़ मामून ने हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) को अपने गले से लगाया और पास बिठा कर उनकी खि़दमत में बेहतरीन अंगूरों का एक तबक़ रखा और उसमें से एक खोशा उठा कर आपकी खि़दमत में पेश करते हुए कहा , इब्ने रसूल अल्लाह यह अंगूर इन्तेहाई उम्दा हैं तनावुल फ़रमाईये। आपने यह कहते हुए इन्कार फ़रमाया कि जन्नत के अंगूर इससे बेहतर हैं। इसने शदीद इसरार किया औेर आपने उसमें से तीन दाने खा लिये। यह अंगूर के दाने ज़हर आलूद थे। अंगूर खाने के बाद आप उठ खड़े हुए। मामून ने पूछा कहां जा रहे हैं आपने इरशाद फ़रमाया जहां तूने भेजा है वहां जा रहा हूँ। क़याम गाह पर पहुँचने के बाद आप तीन दिन तक तड़पते रहे। बिल आखि़र इन्तेक़ाल फ़रमा गये।( तारीख़े आइम्मा पृष्ठ 476) इन्तेक़ाल के बाद हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) बा ऐजाज़ तशरीफ़ लाए और नमाज़े जनाज़ा पढ़ाई और आप वापस चले गए। बादशाह ने बड़ी कोशिश की मगर न मिल सका।( मतालेबुल सूऊल पृष्ठ 288)

इसके बाद आपको बा मुक़ाम तूस मोहल्ला सना बाद में दफ़्न कर दिया गया जो आज कल मशहदे मोक़द्दस के नाम से मशहूर है और अतराफ़े आलम के अक़ीदत मन्दों के हवाएज का मरक़ज़ है।


38

39

40

41

42

43

44

45

46

47

48

49

50

51

52