चौदह सितारे

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चौदह सितारे लेखक:
कैटिगिरी: शियो का इतिहास

चौदह सितारे

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना नजमुल हसन करारवी
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चौदह सितारे
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चौदह सितारे

चौदह सितारे

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

हज़रत रसूले करीम (स अ . व . व . ) शोएबे अबी तालिब में (मोहर्रम 7 बेअसत)

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि जब कुफ़्फ़ारे क़ुरैश ने देखा कि इस्लाम रोज़ ब रोज़ तरक़्क़ी करता चला जा रहा है तो बहुत परेशान हुये। पहले तो कुछ क़ुरैश दुश्मन थे अब सब के सब मुख़ालिफ़ हो गये और बा रवायते इब्ने हश्शाम व इब्ने असीर व तबरी , अबू जेहल बिन हश्शाम , शेबा अतबा बिन रबिया , नसर बिन हारिस , आस बिन वाएल और अक़बा बिन अबी मूईत एक गिरोह के साथ रसूले ख़ुदा (स अ व व ) के क़त्ल पर कमर बांध कर हज़रत अबू तालिब के पास आये और साफ़ लफ़्ज़ों में कहा कि मोहम्मद ने एक नये मज़हब की शुरूआत की है और हमारे ख़ुदाओं को हमेशा बुरा भला कहा करते हैं लिहाज़ा उन्हें हमारे हवाले कर दो , हम उन्हें क़त्ल कर दें या फिर आमादा ब जंग हो जाओ। हज़रत अबू तालिब ने उन्हें उस वक़्त टाल दिया और वह लोग वापस चले गये और रसूले करीम (स अ व व ) अपना काम बराबर करते रहे। कुछ दिनों के बाद दुश्मन फिर आये और उन्होंने आ कर शिकायत की और हज़रत के क़त्ल पर ज़ोर दिया। हज़रत अबू तालिब ने आं हज़रत से वाक़िया बयान किया , उन्होंने फ़रमाया कि ऐ चचा मैं जो कहता हूँ कहता रहूँगा मैं किसी की धमकी से डर नहीं सकता और न मैं किसी लालच में फंस सकता हूँ। अगर मेरे एक हाथ पर आफ़ताब और दूसरे पर महताब रख दिया जाये तब भी मैं अल्लाह के हुक्म को पहुँचाने में न रूकूगां। मैं जो करता हूँ अल्लाह के हुक्म से करता हूँ वह मेरा मुहाफ़िज़ है। यह सुन कर हज़रत अबू तालिब ने फ़रमाया कि बेटा तुम जो करते हो करते रहो मैं जब तक ज़िन्दा हूँ तुम्हारी तरफ़ कोई नज़र उठा कर नहीं देख सकता। कुछ समय के बाद बा रवायत इब्ने हश्शाम व इब्ने असीर कुफ़्फ़ार ने अबू तालिब (अ.स.) से कहा कि तुम अपने भतीजे को हमारे हवाले कर दो हम उसे क़त्ल कर दें और उसके बदले में एक नवजवान हम से बनी मख़जूम में से ले लो। हज़रत अबू तालिब ने फ़रमाया कि तुम बेवकूफ़ी की बातें करते हो , यह कभी नहीं हो सकता। यह क्यो कर मुम्किन है कि तुम्हारे लड़के को ले कर उसकी परवरिश करूं और हमारे बेटे को ले कर क़त्ल कर दो। यह सुन कर उनका ग़ुस्सा और बढ़ गया और उनको सताने पर भरपूर तुल गये। हज़रत अबू तालिब (अ.स.) ने उसके रद्दे अमल में बनी हाशिम और बनी मुत्तलिब से मदद चाही और दुश्मनों से कहला भेजा कि काबा व हरम की क़सम अगर मोहम्मद (स अ व व ) के पांव में कांटा भी चुभा तो मैं सब को क़त्ल कर दूगां। हज़रत अबू तालिब के इस कहने पर दुश्मनों के दिलों में आग लग गई और वह आं हज़रत (स अ व व ) के क़त्ल पर पूरी ताक़त से तैय्यार हो गये।

हज़रत अबू तालिब ने जब आं हज़रत (स अ व व ) की जान को ग़ैर महफ़ूज़ देखा तो फ़ौरत उन लोगों को लेकर जिन्होंने हिमायत का वायदा किया था जिनकी तादाद बरवायते हयातुल क़ुलूब चालीस थी , मोहर्रम 7 बेअसत में शोएबे अबू तालिब के अन्दर चले गये और उसके ऐतराफ़ को महफ़ूज़ कर दिया।

कुफ़्फ़ारे क़ुरैश ने अबू तालिब के इस अमल से मुताअस्सिर हो कर एक अहद नामा मुरत्तब किया जिसमें बनी हाशिम और बनी मुत्तलिब से मुकम्मल बाईकाट का फ़ैसला था। तबरी में है कि इस अहद नामे को मन्सूर बिन अकरमा बिन हाशिम ने लिखा था जिसके बाद ही उसका हाथ शल (बेकार) हो गया था।

तवारीख़ में है कि शोएब का दुश्मनों ने चारों तरफ़ से भरपूर घिराव कर लिया था और उनको मुकम्मल क़ैद कर दिया था इस क़ैद ने अहले शोएब पर बड़ी मुसिबतें डालीं , जिसमानी और रूहानी तकलीफ़ के अलावा रिज़्क़ की तंगी ने उन्हें तबाही के किनारे पर पहुँचा दिया और नौबत यहां तक पहुँची कि वह दींदार (धर्म पालक) पेड़ों के पत्ते खाने लगे। नाते कुनबे वाले अगरचे चोरी छुपे कुछ खाने पीने की चीज़ें पहुचा देते और उन्हें मालूम हो जाता तो सख़्त सज़ाऐं देते। इसी हालत में तीन साल गुज़र गये। एक रवायत में है कि जब अहले शोएब के बच्चे भूख से बेचैन हो कर चीखते और चिल्लाते थे तो पड़ोसियों की नींद हराम हो जाती थी। इस हालत में भी आप पर वही नाज़िल होती रही और हुज़ूर कारे रिसालत अंजाम देते रहे।

तीन साल के बाद हश्शाम बिन उमर बिन हरस के दिल में यह ख़्याल आया कि हम और हमारे बच्चे खाते पीते और ऐश करते हैं और बनी हाशिम और उनके बच्चे भूखे रह रहे हैं , यह ठीक नहीं है। फिर उसने और कुछ आदमियों को हम ख़्याल बना कर क़ुरैश के जलसे में इस सवाल को उठाया अबू जहल और उसकी बीवी उम्मे जमील जिसे ब ज़बाने क़ुरआन हिमा लतल हतब कहा जाता है ने विरोध (मुख़ालेफ़त) किया लेकिन अवाम के दिल पसीज उठे। इसी दौरान में हज़रत अबू तालिब आ गये और उन्होंने कहा कि मोहम्मद (स अ व व ) ने बताया है कि तुमने जो अहद नामा लिखा है उसे दीमक खा गई है और कागज़ के उस हिस्से के सिवा जिस पर अल्लाह का नाम है सब ख़त्म हो गया है। ऐ क़ुरैश बस ज़ुल्म की हद हो गई , तुम अपने अहद नामे को देखो अगर मोहम्मद का कहना सच हो तो इन्साफ़ करो और अगर झूठ हो तो जो चाहे करो।

हज़रत अबू तालिब के इस कहने पर अहद नामा मंगवाया गया और हज़रत रसूले करीम (स अ व व ) का इरशाद इसके बारे में बिल्कुल सच साबित हुआ जिसके बाद क़ुरैश शर्मिन्दा हो गये और शोएब का घिराव टूट गया। उसके बाद हश्शाम बिन उमर बिन हरस और उसके चार साथी , ज़ुबैर बिन अबी , उमय्या मख़्ज़ूमी और मुतअम बिन अदी , अबुल बख़्तरी बिन हश्शाम , ज़माअ बिन असवद बिन अल मुत्तलिब बिन असद शोएबे अबू तालिब में गये और उन तमाम लोगों को जो उसमें क़ैद थे उनके घरों में पहुँचा दिया।(तारीख़े तबरी , तारीखे़ कामिल , रौज़तुल अहबाब) मुवर्रिख़ इब्ने वाज़े जिनका देहांत 292 में हुआ का बयान है कि इस घटना के बाद अस्लम यू मस्ज़िदिन ख़लक़ मिनन नास अज़ीम बहुत से काफ़िर मुसलमान हो गये।(अल याक़ूबी जिल्द 2 पृष्ठ 25 मुद्रित नजफ़ 1384 हिजरी)

रूमियों की हार पर आं हज़रत (स अ व व) की कामयाब पेशीन गोई ( 8 बेअसत)

मुवर्रेख़ीन लिखते हैं कि 8 बेअसत में ईरानियों ने रूमियों को हरा दिया और चूंकि ईरानी आतिश परस्त और रूमी ईसाई अहले किताब थे इस लिये कुफ़्फ़ारे मक्का को इस वाक़िये से ख़ुशी हुई और मुसलमानों को दुख हुआ। मुसलमानों के दुख को हज़रत रसूल अल्लाह (स अ व व ) ने अपनी तसल्ली से दूर किया और उनसे बतौर पेशीन गोई फ़रमाया कि घबराओ नहीं 3 और 9 साल के दरमियान रूमी ईरानियों को शिकस्त दे कर कामयाब हो जायेगें चुनान्चे ऐसा ही हुआ 9 बेअसत गुज़रने से पहले रूमी ईरानियों पर ग़ालिब आये इस पेशीन गोई का ज़िक्र क़ुराने मजीद में मौजूद है। मेरे नज़दीक इस पेशीन गोई की सेहत ने हक़ीक़ते क़ुरान और हक़ीक़ते रिसालत को उजागर कर दिया है।

गिबन और दीगर ईसाई मुवर्रेख़ीन ने लिखा है कि वह लड़ाई जिसमें ईरानियों ने फ़तेह पाई थी 611 ई 0 से 617 ई 0 तक जारी रही और जिसमें रूमियों ने फ़तेह पाई वह 622 ई 0 से 628 ई 0 तक रही। ईरानियों ने 617 ई 0 तक तमाम एशियाई कोचक और मिस्र फ़तेह कर लिया था और कुसतुनतुनिया से एक मील की दूरी पर पड़ाव डाल दिया था और आगे बढ़ने का ईरादा कर रहे थे सिर्फ़ अबनाए फ़ासक़रस हद्दे फ़ासिल था मगर 623 ई 0 में रूमियों ने ईरानियों को भारी शिकस्त दे कर अपने इलाक़े वापिस लेने शुरू कर दिये।

तारीख़े तबरी जिल्द 2 पृष्ठ 360 में है कि इस घटना के सम्बन्ध में क़ुरान में लफ़ज़ बज़ा सनीन आया है जिसके मानी दस के हैं यानि फ़तेह दस साल के अन्दर होगी चुनान्चे ऐसा ही हुआ।

आपका मोजिज़ा ए शक़ उल क़मर 9बेअसत

इब्ने अब्बास इब्ने मसूद अनस बिन मालिक हुज़ैफ़ा बिन उमर जिब्बीर बिन मुतअम का बयान है कि शक़ उल क़मर का मोजिज़ा कोहे अबू क़ुबैस पर ज़ाहिर हुआ था जब कि अबू जेहल ने बहुत से यहूदीयों को हमराह ला कर हज़रत से चाँद को दो टुकड़े करने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी। यह वाक़िया चौहदवी रात को हुआ था जब कि आपको मौसमें हज में शुऐब अबी तालिब से निकलने की इजाज़त मिल गई थी। अहले सैर लिखते हैं कि यह वाक़िया 9 बेअसत का है। इस मौजिज़े का ज़िक्र तारीख़ फ़रिश्ता में भी है। हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) फ़रमाते हैं कि मुजिब एतक़ादो क़ौलेही इस मौजिज़े के वाक़े होने पर ईमान वाजिब है।(सफ़ीनतुल अल बहार जिल्द 1 पृष्ठ 709 ) इस मोजिज़े का ज़िक्र अज़ीज़ लखनवी मरहूम ने क्या ख़ूब किया है।

मोजिज़ा शक़्क़ुल क़मर का है मदीने से अयाँ

मह ने शक़ हो कर लिया है दीन को आग़ोश में

हज़रत अबू तालिब (अ.स.) और जनाबे ख़तीजातुल कुबरा (स.) की वफ़ात 10बेअसत

हयातुल हैवान दमीरी में है कि शुऐब अबी तालिब से निकलने के आठ महीने ग्यारह दिन बाद बेअसत माह शव्वाल में हज़रत अबू तालिब ने इन्तेक़ाल किया। बरवायते इब्ने वाज़े इस वक़्त इनकी उम्र 86 साल की थी।(अल याक़ूबी ज. 2 स. 28 ) कशमीर तवारीख़ में है कि इनकी वफ़ात के तीन दिन बाद जनाबे ख़तीजतुल कुबरा ने भी इन्तेक़ाल फ़रमाया उस वक़्त इनकी उम्र 65 साल की थी।(अल याक़ूबी जिल्द 2 पृष्ठ 28 )

उन दो अज़ीम हमर्ददों और मददगारों के इन्तेक़ाल पुर मलाल से हज़रत रसूले करीम (स अ व व ) को सख़्त रंज पहुँचा। आपने शदीद रंज व ग़म अैर सदमओ अलम के तअस्सुर में इस साल का नाम आम उल हुज़्न ग़म का साल रख दिया।

मोमिन क़ुरैश हज़रत अबू तालिब और जनाबे खतीजातुल कुबरा की क़ब्र मक्का के क़ब्रस्तान हजून में एक पहाड़ी पर वाक़े है। यह क़ब्रें पहले गुम्बद वाली न थीं। बा रवायत मुवर्रिख़ ज़ाकिर हुसैन , मिर्ज़ा असग़र हुसैन , अली फ़सीह लखनवी ने तेरहवीं सदी के वसत में मोमेनीन की मदद से इन पर गुम्बद तैयार कराया था।

इसी 10 बेअसत में अबू तालिब के इन्तेक़ाल के बाद क़ुरैश ने यह देख कर कि अब इनका कोई मज़बूत हामी और मददगार नहीं है आं हज़रत (स अ व व ) पर दस्ते ज़ुल्म व ताअद्दी और भी ज़्यादा दराज़ कर दिया और बनी हाशिम अपने रईस के मर जाने से आपकी कमा हक़्क़हू हिफ़ाज़त व अयानत न कर सके और दुश्मनों की ईज़ा रसाई उरूज को पहुँच गई। बारवायते तारीख़े खमीस हज़रत की यह हालत पहुँच गई कि आपने घर से निकलना छोड़ दिया फिर यह ख़्याल कर के कि ताएफ़ में बनी सक़ीफ़ रहते हैं और वहीं चचा अब्बास की ज़मीन है। ताएफ़ चले जाने का क़स्द कर लिया और अपने ग़ुलाम आज़ाद ज़ैद बिन हारसा को हम्राह ले कर रवाना हो गये। रास्ते में बनी बकर और बनी क़हतान में ठहरना चाहा मगर कोई सूरत नज़र न आई बिल आखि़र ताएफ़ चले गये जो मक्का से सत्तर मील के फ़ासले पर वाक़े है। वहां तवक़्क़ो के खि़लाफ़ सख़्त दुश्मनी का मुज़ाहेरा देखा 10 दिन और बरवायते एक महीना बमुश्किल गुज़रा। बिल आखि़र ग़ुलामी कमीनों और ग़ुन्डों ने आप पर पथराव कर के आपको जख़्मी कर दिया फिर इसी पर इकतिफ़ा नहीं की बल्कि पत्थर मारते हुए फ़सीले शहर से बाहर निकाल दिया। आपके पांव ज़ख़्मी हो गये और ज़ैद का सर फूट गया। एक रवायत में है कि आपके सर पर इतने पत्थर लगे थे कि आपके सर का ख़ून एड़ी से बह रहा था अलग़रज़ वहां से बइरादा ए मक्का रवाना हो कर जब बतने नख़्ला में पहुँचे जो मक्का से एक रात की मसाफ़त पर पहले वाक़े है तो रात को वहीं क़याम किया और क़ुरआन पढ़ने लगे नसीब से यमन जाते हुए जिनों के एक गिरोह ने कलामे ख़ुदा सुना और वह मुसलमान हो गये , फिर आपने ज़ैद को मक्के भेजा कि किसी मददगार का पता लगायें मगर कोई न मिला , अलबत्ता मुतअम बिन अदी ने हामी भरी और आप मक्के वापस आ गये।(रौज़तुल अहबाब)

इसी सन् 10 बेअसत में वफ़ाते ख़दीजा के बाद आं हज़रत (स अ व व ) ने सौदा बिन्ते ज़म्आ से निकाह किया और इसी साल हज़रत आयशा बिन्ते अबी बक्र से भी अक़्द फ़रमाया। मोअर्रेख़ीन का कहना है कि उस वक़्त हज़रत आयशा की उम्र 6 साल की थी इसी लिये 1 हिजरी में जब कि नौ 9 साल की हो गईं थी ज़फ़ाफ़ वाक़े हुआ।(रौज़तुल अहबाब)

एक रवायत में हज़रत आयशा का यह क़ौल मिलता है कि मेरी माँ मुझे ककड़ी खिलाती थीं ताकि मैं ज़फ़ाफ़ के का़बिल बन जाऊँ।(सुनन इब्ने माजा , जिल्द 3 अनुवादक बाबुल कशा बल रूत्ब जिल्द 62 पृष्ठ 61 )

क़बीलाए ख़जरज का एक गिरोह खि़दमते रसूल (स अ . व . व . ) में 11 बेअसत

रजब के महीने में एक दिन आं हज़रत (स अ व व ) मिना में खड़े थे कि एक दम एक गिरोह एहले यसरब का क़बीलाए खज़रज से हज़रत के पास आया। इस गिरोह में 6 अफ़राद थे। हज़रत ने उनके सामने क़ुराने मजीद की तिलावत की और इस्लाम के महासनि (नियम क़ानून) बयान किये। वह मुसलमान हो गये और उन्होंने यसरब में जा कर काफ़ी तबलीग़ की और वहां के घरों में इस्लाम का चर्चा हो गया।

आं हज़रत (स अ . व . व . ) की मेराजे जिस्मानी 12 बेअसत

27 रजब बेअसत की रात को ख़ुदा वन्दे आलम ने जिब्राईल को भेज कर बुराक़ के ज़रिये आं हज़रत (स अ व व ) को काबा कौसैन की मंज़िल पर बुलाया और वहंा अली बिन अबी तालिब (अ.स.) की खि़लाफ़त व इमामत के बारे में हिदायत दीं।(तफसीरे क़ुम्मी) इसी मुबारक सफ़र और ऊरूज को (मेराज) कहा जाता है। यह सफ़र उम्मे हानी के घर से शुरू हुआ था। पलहे आप बैतुल मुक़द्दस तशरीफ़ ले गये फिर वहां से आसमान की तरफ़ रवाना हुए। मंज़िले आसमानी को तय करते हुये एक ऐसी मंज़िल पर पहुँचे जिसके आगे जिब्राईल का जाना ना मुम्किन हो गया। जिब्राईल ने अर्ज़ की हुज़ूर लौदनूत लता लाहतरक़ता अब अगर एक उंगल भी आगे भढ़ूगां तो जल जाऊगां।

اگر یک سر موی برتر روم بنور تجلی بسوزد پرم

फिर आप बुराक़ पर सवार हो कर आगे बढ़े एक मुक़ाम पर बुराक़ रूक गया और आप रफ़रफ़ पर बैठ कर आगे रवाना हो गये। यह एक नूरी तख़्त था जो नूर के दरिया में जा रहा था यहां तक कि मंज़िले मक़सूद पर आप पहुँच गये। आप जिस्म समेत गये और फ़ौरन वापस आये। क़ुरान मजीद में असरा बे अब्देही आया है। अब्दा का इतलाक़ जिस्म और रूह दोनों पर होता है। वह लोग जो मेराजे रूहानी के क़ायल हैं ग़ल्ती पर हैं।(शरए अक़ाएदे नस्फ़ी पृष्ठ 68 ) मेराज का इक़रार और उसका एतक़ाद ज़ुरूरियाते दीन से है। हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) फ़रमाते हैं कि जो मेराज का मुन्किर हो उसका हम से कोई ताअल्लुक़ नहीं।(सफ़ीनतुल बिहार जिल्द 2 पृष्ठ 174 ) एक रवायत में है कि पहले सिर्फ़ दो नमाज़ें वाजिब थीं। मेराज के बाद पांच वक़्त की नमाज़े मुक़र्रर र्हुइं।

1. यसरब यानी मदीने में ओस व ख़ज़रज दो अरब क़बीले रहते थे दोनों एक बाप की औलाद थे इनका मसकने क़दीम (निवास स्थान) पुराना यमन था। रसूले करीम (स अ व व ) जब तक मदीने नहीं पहुँचे यह शहर यसरब के नाम से मशहूर था ज्योंही रसूले करीम (स अ व व ) वहां तशरीफ़ ले गये उसका नाम मदीनातुल रसूल हो गया। फिर बाद में मदीना कहलाने लगा। यह शहर मक्का के शुमाल (उत्तर) की तरफ़ 270 मील की दूरी पर स्थित है।

बैअते उक़बा ऊला

इसी सन् 12 बेअसत के हज के ज़माने में उन 6 आदमियों में से जो पिछले साल मुसलमान हो कर मदीने वापस गये थे पांच आदमियों के साथ सात 7 आदमी मदीने वालों में से और आकर मुर्शरफ़ ब इस्लाम हुए। हज़रत की हिमायत का अहद किया। यह बैअत भी उसी उक़बा के मकान में हुई जो मक्के से थोड़े फ़ासले पर उत्तर की ओर स्थित है। मोअर्रिख़ अबुल फ़िदा लिखता है कि इस अहद पर बैअत हुई कि ख़ुदा का कोई शरीक न करो , चोरी न करो , बलात्कार न करो , अपनी औलाद को क़त्ल न करो जब वह बैअत कर चुके तो हज़रत ने मुसअब बिन उमैर बिन हाशिम बुन अब्दे मनाफ़ इब्ने अब्द अल अला को तालीमे क़ुरान और तरीक़ाए इस्लाम बताने के लिये नियुक्त किया।

(तारीख़े अबुल फ़िदा जिल्द 2 पृष्ठ 52 )

बैअते उक़बा (दूसरी)

13 बेअसत के ज़िल्हिज्जा के महीने में मुसअब बिन उमैर 13 मर्द और दो औरतों को मदीने से ले कर मक्के आये और उन्होंने मक़ामे उक़बा पर रसूले करीम (स अ व व ) की खि़दमत में उन लोगों को पेश किया वह मुसलमान हो चुके थे उन्होंने भी हज़रत की हिमायत का अहद किया और आपके दस्ते मुबारक पर बैअत की , उनमें(ओस और ख़ज़रज) दोनों के लोग शामिल थे।

हिजरते मदीना

14 बेअसत मुबाबिक़ 622 ई 0 में हुक्मे रसूल (स अ व व ) के मुताबिक़ मुसलमान चोरी छिपे मदीने की तरफ़ जाने लगे और वहां पहुँच कर उन्होंने अच्छा स्थान प्राप्त कर लिया। क़ुरैश को जब मालूम हुआ कि मदीने में इस्लाम ज़ोर पकड़ रहा है तो (दारूल नदवा) में जमा हो कर यह सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिये। किसी ने कहा मोहम्मद को यहीं क़त्ल कर दिया जाये ताकि उनका दीन ही ख़त्म हो जाये। किसी ने कहा जिला वतन कर दिया जाये। अबू जहल ने राय दी कि विभिन्न क़बीलों के लोग जमा हो कर एक साथ उन पर हमला कर के उन्हें क़त्ल कर दें ताकि क़ुरैश ख़ूं बहा न ले सकें। इसी राय पर बात ठहर गई और सब ने मिल कर आं हज़रत (स अ व व ) के मकान का घेराव कर लिया। परवरदिगार की हिदायत के अनुसार जो हज़रत जिब्राईल् के ज़रिये पहुँची आपने अपने बिस्तर पर हज़रत अली (अ.स.) के लिटा दिया और एक मुटठी धूल ले कर घर से बाहर निकले और उनकी आंखों में झोंकते हुए इस तरह निकल गये जैसे कुफ्र से ईमान निकल जाये। अल्लामा शिब्ली लिखते हैं कि यह सख़्त ख़तरे का मौक़ा था। जनाबे अमीर को मालूम हो चुका था कि क़ुरैश आपके क़त्ल का इरादा कर चुके हैं और आज रसूल अल्लाह (स अ व व ) का बिस्तरे ख़्वाब क़त्लगाह की ज़मीन है लेकिन फ़ातेहे ख़ैबर के लिये क़त्लगाह फ़र्शे गुल था।(सीरतुन नबी व मोहसिने आज़म सन् 165 ) सुबह होते होते दुश्मन दरवाज़ा तोड़ कर घर में घुसे तो अली को सोता हुआ पाया। पूछा मोहम्मद कहां हैं ? जवाब दिया जहां हैं ख़ुदा की अमान में हैं। तबरी में है कि अली (अ.स.) तलवार सूंत कर खड़े हो गये और सब घर से निकल भागे। अहयाअल ऊलूम ग़ेज़ाली में है कि अली की हिफ़ाज़त के लिये ख़ुदा ने जिब्राईल और मीकाईल को भेज दिया था , यह दोनों सारी रात अली की ख़्वाबगाह का पहरा देते रहे। हज़रत अली (अ.स.) का फ़रमान है कि मुझे शबे हिजरत जैसी नीन्द आई सारी उम्र न आई थी। तफ़सीरों में है कि इस मौक़े के लिये आयत व मिन्न नासे मन यशरी नाज़िल हुई है। अल ग़रज आं हज़रत (स अ व व ) के रवाना होते ही हज़रत अबू बकर ने उनका पीछा किया आपने रात के अन्धेरे में यह समझ कर कि कोई दुश्मन आ रहा है अपने क़दम तेज़ कर दिये। पांव में ठो कर लगी ख़ून बहने लगा , फिर आपने महसूस किया कि इब्ने अबी क़हाफ़ा आ रहे हैं। आप खड़े हो गये।(सही बुख़ारी जिल्द 1 भाग 3 पृष्ठ 69 ) में है कि रसूले ख़ुदा (स अ व व ) ने अबू बकर बिन क़हाफ़ा से एक ऊँट ख़रीदा और मदारिजुल नबूवत में है कि हज़रत अबू बकर ने दो सौ दिरहम में ख़रीदी हुई ऊँटनी आं हज़रत के हाथ 900 नौ सौ दिरहम की बेची इसके बाद यह दोनों ग़ारे सौर तक पहुँचे , यह ग़ार मदीने की तरफ़ मक्के से एक घण्टे की राह पर ढ़ाई या तीन मील दक्षिण की तरफ़ स्थित है। इस पहाड़ की चोटी तक़रीबन एक मील ऊँची है समुन्द्र वहां से दिखाई देता है।

(तलख़ीस सीरतुन नबी पृष्ठ 169 व ज़रक़ानी)

यह हज़रात ग़ार में दाखि़ल हो गये ख़ुदा ने ऐसा किया कि ग़ार के मुँह पर बबूल का पेड़ उगा दिया। मकड़ी ने जाला तना , कबूतर ने अन्डे दे दिये और ग़ार में जाने का शक न रहा। जब दुश्मन इस ग़ार पर पहुँचे तो वह यही सब कुछ देख कर वापस हो गये। अजायब अल क़सस पृष्ठ 257 में है कि इसी मौक़े पर हज़रत ने कबूतर को ख़ानाए काबा पर आकर बसने की इजाज़त दी। इससे पहले और परिन्दों की तरह कबूतर भी ऊपर से गुज़र नहीं सकता था। मुख़्तसर यह कि 1 रबीउल अव्वल सन् 14 बेअसत(जुमेरात) के दिन शाम के वक़्त क़ुरैश ने हज़रत के घर का घेराव किया था। सुबह से कुछ पहले 2 रबीउल अव्वल जुमे के दिन को ग़ारे सौर में पहुँचे। इतवार के दिन 4 रबीउल अव्वल तक ग़ार में रहे। हज़रत अली (अ.स.) आप लोगों के लिये रात में खाना पहुँचाते रहे। चौथे रोज पांच रबीउल अव्वल दोशम्बे के रोज़ अब्दुल्लाह इब्ने अरीक़त और आमिर बिन फ़हीरा भी आ पहुँचे और यह चारों शख़्स मामूली रास्ता छोड़ कर बहरे कुलजुम के किनारे मदीने की तरफ़ रवाना हुए। कुफ़्फ़ारे मदीना ने ईनाम मुक़र्रर कर दिया कि जो शख़्स उनको ज़िन्दा पकड़ कर लायेगा या उनका सर काट कर लाऐगा तो 100 ऊँट ईनाम में दिये जाऐंगे। इस पर सराक़ा इब्ने मालिक आपकी ख़ोज लगाता हुआ ग़ार तक पहुँचा उसे देख कर हज़रत अबू बकर रोने लगे तो हज़रत ने फ़रमाया रोते क्यों हो ख़ुदा हमारे साथ है सराक़ा क़रीब पहुँचा ही था कि उसका घोड़ा उसके ज़ानू तक ज़मीन में धंस गया। उस वक़्त हज़रत रवानगी के लिये बाहर आ चुके थे। उसने माफ़ी मांगी , हज़रत ने माफ़ी दे दी। घोड़ा ज़मीन से निकल आया। वह जान बचा कर भागा और काफ़िरों से कह दिया कि मैंने बहुत तलाश किया मगर मोहम्मद (स अ व व ) का पता नहीं मिलता। अब दो ही सूरतें हैं या ज़मीन में समा गये या आसमान पर उड़ गये। ( 1)

हज़रत का क़बा के स्थान पर पहुँचना 12 रबीउल अव्वल दो शम्बा दो पहर के समय आप क़बा के स्थान पर पहुँचे जो मदीने से दो मील के फ़ासले पर एक पहाड़ी है। आपका ऊँट उस जगह ख़ुद ही रूक गया और आगे न बढ़ा। आप उतर पड़े। वहां के रहने वालों ने ख़ुशी के मारे नारा ए तकबीर बुलन्द किया। आपने यहां एक मस्जिद की बुनियाद डाली।

इसी मक़ाम पर हज़रत अली (अ.स.) भी मक्के से अमानतों की अदायगी से सुबुक दोशी हासिल करने के बाद आं पहुँचे। आपके साथ औरतें और बच्चे थे। औरतें और बच्चे ऊँटों पर सवार थे और हज़रत अली (अ.स.) पैदल थे। इसी वजह से आपके पैरों पर वरम था और बक़ौल इब्ने ख़ल्दून आपके पैरों से ख़ून जारी था। आं हज़रत (स अ व व ) की नज़र जब अली (अ.स.) के पैरों पर पड़ी तो आप रोने लगे और लोआबे दहन (थूक) लगा कर अच्छा कर दिया।

मदीने में दाखि़ला मक़ामें क़बा में चार दिन रूकने के बाद आप मदीने की तरफ़ रवाना हुए और 16 रबीउल अव्वल जुमे के दिन मदीने में दाखि़ल हो गये। महल्ले बनी सालिम में नमाज़ का वक़्त आ गया आपने नमाज़े जुमा यहीं अदा फ़रमाई। यह इस्लाम में सब से पहली नमाज़े जुमा थी। यह वही जगह है जहां अब मस्जिदे नबवी है।

मस्जिदे नबवी की तामीर मदीने में दाखि़ले के बाद आपने सब से पहले एक मस्जिद की बुनियाद डाली जो बहुत सादगी के साथ तैयार की गई। उसकी ज़मीन अबू अय्यूब अंसारी ने ख़रीदी और उसमें मज़दूरों की हैसियत से दूसरे असहाब के साथ आं हज़रत (स अ व व ) भी काम करते रहे। मस्जिद के साथ साथ हुजरे भी तैयार किये गये और एक चबूतरा जिसे सुफ़्फ़ा कहते थे , यही वह जगह थी जहां नये मुसलमान ठहराये जाते थे। उन्हीं लोगों को अस्हाबे सुफ़्फ़ा कहा जाता था और उनकी परवरिश सदक़े वग़ैरा से की जाती थी।

नमाज़ व ज़कात का हुक्म मस्जिदे नबवी की तामीर के बाद नमाज़ की रकअतों को भी तय कर दिया गया यानी पहले मग़रिब के अलावा सब नमाज़ें दो रकअती थीं फिर 17 रकअतें मुअय्यन कर दी गईं और उनके औक़ाद बता दिये गये। इब्ने ख़ल्दून के अनुसार इसी साल ज़कात भी फ़र्ज़ की गई।

एक 1हिजरी के महत्वपूर्ण वाक़ेयात

अज़ान व अक़ामत

एक हिजरी में अज़ान मुक़र्रर की गई जिसे हज़रत अली (अ.स.) ने हुक्में रसूले ख़ुदा (स अ व व ) से बिलाल (र.अ.) को तालीम कर दी और वह मुस्तक़िल मोअजि़्ज़न क़रार पाये और अक़ामत का तक़र्रूर भी हुआ।

अक़्दे मवाख़ात (भाईचारा कराना)

हिजरत के 5 या 8 महीने बाद महाजेरीने मक्का की दिलबस्तगी के लिये आं हज़रत (स अ व व ) ने 50 महाजिर व अनसार में मवाख़ात (भाई चारगी) क़ायम कर दी जिस तरह एक बार मक्का में कर चुके थे। तारीख़े ख़मीस और रियाज़ुल नज़रा में है कि वहां हज़रत अबू बकर को उमर का तलहा को ज़ुबैर का , उस्मान को अब्दुल रहमान का , हमज़ा को इब्ने हारसा का और अली (अ.स.) को खुद अपना भाई बनाया था। अल्लामा शिब्ली का कहना है कि आं हज़रत (स अ व व ) ने इत्तेहादे मज़ाक़ तबीयत और फ़ितरत के लेहाज़ से एक दूसरे को भाई बनाया था। मज़ाके़ नबूवत का इत्तेहाद फ़ितरते इमामत ही से हो सकता है इसी लिये आं हज़रत (स अ व व ) ने हर मरतबा अपना भाई अली (अ.स.) को ही चुना यही वजह है कि आं हज़रत (स अ व व ) हज़रत अली (अ.स.) से फ़रमाया करते थे।

انت اخی فی الدنیا والاخر

यानी दुनिया और आख़ेरत दोनों में मेरे भाई हो।

2हिजरी के महत्वपूर्ण वाक़ेयात

जनाबे सैय्यदा (स अ . व . व . ) का निकाह

15 रजब 2 हिजरी को जनाबे सैय्यदा (स अ व व ) का अक़्द हज़रत अली (अ.स.) से हुआ और 19 ज़िलहिज्जा को आपकी रूख़सती हुई। सीरतुन नबी में है कि जब जनाबे सैय्यदा (स अ व व ) की शादी की बात चली तो सब से पहले हज़रत अबू बकर फ़िर हज़रत उमर ने पैग़ाम भेजा। कन्ज़ुल आमाल 7 पृष्ठ 113 में है कि इन पैग़ामात से आं हज़रत ग़ज़बनाक हुये और उनकी तरफ़ से मुँह फेर लिया। रियाजु़ल नज़रा जिल्द 2 पृष्ठ 184 में है कि आं हज़रत (स अ व व ) ने हज़रत अली (अ.स.) से ख़ुद फ़रमाया कि ऐ अली मुझसे ख़ुदा ने कह दिया है कि फातेमा (स अ व व ) की शादी तुम्हारे साथ कर दूं , क्या तुम्हें मन्ज़ूर है ? अर्ज़ कि बेशक , अल ग़रज़ अक़्द हुआ और शहनशाहे कायनात ने सय्यदए आलमयान को एक बान की चारपाई , एक चमड़े का गद्दा , एक मशक , दो चक्कियां , दो मिट्टी के घड़े वग़ेरा दे कर रूख़सत किया। इस वक़्त अली (अ.स.) की उम्र 24 साल और फातेमा (स अ व व ) की उम्र 10 साल थी।

तहवीले काबा

माहे शाबान 2 हिजरी में बैतुल मुक़द्दस की तरफ़ से क़िबले का रूख़ काबे की तरफ़ मोड़ दिया गया। क़िबला चूंकि आलमे नमाज़ में बदला गया इस लिये आं हज़रत (स अ व व ) का साथ हज़रत अली (अ.स.) के अलावा और किसी ने नहीं दिया क्यों कि वह आं हज़रत (स अ व व ) के हर फ़ेल या क़ौल को हुक्में ख़ुदा समझते थे इसी लिये आप मक़ामे फ़ख़्र में फ़रमाया करते थे इन्ना मुसल्ली अल क़िबलतैन मैं ही वह हूं जिसने एक नमाज़ बयक वक़्त (एक ही समय) में दो क़िब्लों की तरफ़ पढ़ी।

जेहाद

जब क़ुरैश को मालूम हुआ कि रसूले इस्लाम (स अ व व ) बख़ैर व ख़ूबी मदीना पहुँच गये और उनका मज़हब दिन दूनी रात चौगनी तरक़्क़ी कर रहा है तो उनकी आख़ों में ख़ून उतर आया और दुनिया अंधेर हो गयी और वह मदिने के यहूदियों के साथ मिल कर कोशिश करने लगे कि इस बढ़ती हुई ताक़त को कुचल दें। इसके नतीजे में हज़रत को मुशरेक़ीन क़ुरैश और यहूदियों के सााथ बहुत सी देफ़ाई (आत्म रक्षक) लडा़ईयां लड़नी पड़ीं जिनमें से अहम मौक़ों पर हज़रत खुद फ़ौजे इस्लाम के साथ तशरीफ़ ले गये ऐसी मुहिमों को ग़ज़वा कहते है और जिन मौकों पर आप असहाब में से किसी को फ़ौज का सरदार बना कर भेज दिया करते थे उनको सरिया कहा जाता है। ग़ज़वात की कुल संख्या 26 है जिनमें बद्र , ओहद , खन्दक़ और हुनैन बहुत मशहूर हैं और सरियों की संख़्या 36 थी जिनमें सबसे मशहूर मौता है जिसमें हज़रते जाफ़रे तय्यार शहीद हुये।

जंगे बद्र

मदीना ए मुनव्वरा से तक़रीबन 80 मील पर बद्र एक गांव था। मदीने में ख़बर पहुँची कि क़ुरैश बड़ी आमादगी के साथ मदीने पर हमला करने वाले हैं और सुन्ने में आया कि अबू सुफ़ियान 30 सवारों के साथ हज़ार आदमियों के काफ़िले को ले कर शाम से व्यापार का सामान मक्के लिये जा रहा है और मदीने से गुज़रेगा। हज़रत रसूले खु़दा (स अ व व ) 313 साथियों के साथ रवाना हुये और मक़ामे बद्र पर जा उतरे। कु़रैश 950 आदमियों की टोली के साथ अबूू सुफ़ियान से मिलने के लिये रवाना हुये। लड़ाई हुई ख़ुदा ने मुसलमानों को मदद दी , जिससे इनको जीत हुई। 70 कुफ़्फ़ार मारे गये और 70 ही गिरफ़्तार हुए। 36 काफ़िरों को हज़रत अली (अ.स.) ने क़त्ल किया। इस लडा़ई में अबू जेहेल और उसका भाई आस और अतबा , शैबा , वलीद बिन अतबा और इस्लाम के बहुत से दुश्मन मारे गये। इस पहली इस्लमी जंग के अलम बरदार हज़रत अली (अ.स.) थे। क़ैदियों में नसर बिन हारिस और ओक़ब बिन अबी मूईत क़त्ल कर दिये गये और बाक़ी लोगों को ज़रे फ़िदया (फ़िदये का पैसा) ले कर छोड़ दिया गया। हज़रत अबू बक्र ने इस ग़ज़वे में जंग नहीं की। ग़ज़वाए बद्र के बाद कुफ़्फ़ार का घर घर मातम कदा बन गया और मरने वालों के बदले का जज़बा (भावनाएं) मक्के के बूढ़े और जवानों में पैदा हो गया जिसके नतीजे में ओहद की जंग हुयी।

यह जंग रमज़ान के महीने 2 हिजरी में हुई। इसी 2 हिजरी में रोज़े फ़र्ज़ किये गये। ईद उल फ़ित्र के अहकाम (नियम) लागू हुये और ग़ज़वाए बनू क़ैनक़ा से वापसी पर ईद अल अज़हा के आदेश आये और ख़ुम्स वाजिब किया गया।

3हिजरी के अहम वाके़यात

जंगे ओहद

जंगे बद्र का बदला लेने के लिये अबू सुफ़ियान ने तीन हज़ार ( 3000) की फ़ौज से मदीने पर चढ़ाई की। एक हिस्से का अकरमा इब्ने अबी जेहेल और दूसरे का ख़ालिद बिन वलीद सरदार था। आं हज़रत (स अ व व ) के साथ पूरे एक हज़ार आदमी भी न थे। ओहद पर लड़ाई हुई जो मदीने से 6 मील की दूरी पर है। आं हज़रत (स अ व व ) ने मुसलमानों को ताकीद कर दी थी कि कामयाबी के बाद भी पुश्त (पीछे) के तीर अंदाज़ों का दस्ता अपनी जगह से न हटे , मुसलमानों की जीत होने को थी ही कि तीर अंदाज़ों का वही दस्ता जिसके हटने को मना किया था ख़ुदा और रसूल (स अ व व ) के हुक्म की खि़लाफ़ वरज़ी करके माले ग़नीमत (जंग जीतने पर प्राप्त धन दौलत) की लालच में अपनी जगह से हट गया जिसके नतीजे में निश्चित जीत हार में बदल गई। हज़रत हमज़ा असद उल्लाह शहीद हो गये , मैदान में भगदड़ पड़ गई , बड़े बड़े पहलवान और अपने को बहादुर कहने वाले मैदाने जंग छोड़ कर भाग गये और किसी ने रसूले इस्लाम (स अ व व ) की ओर ध्यान न दिया। तारीख़ में है कि तमाम सहाबा रसूले ख़ुदा (स अ व व ) को मैदाने में जंग में छोड़ कर भाग गये। बरवायते अल याक़ूबी की पृष्ठ 39 की रवायत के अनुसार केवल तीन सहाबी रह गये जिनमें हज़रत अली (अ.स.) और दो और थे। बुख़ारी की रवायत के अनुसार हज़रत अबू बकर और हज़रत उमर और हज़रत उस्मान भी भाग निकले। दुर्रे मन्शूर जिल्द 2 पृष्ठ 88 कंज़ुल आमाल जिल्द 1 पृष्ठ 238 में है कि हज़रत अबू बकर पहाड़ की चोटी पर चढ़ गये थे वह कहते हैं कि मैं चोटी पर इस तरह उचक रहा था जैसे पहाड़ी बकरी उचकती है। क़ुराने मजीद में है कि यह सब भाग रहे थे और रसूल (स अ व व ) चिल्ला रहे थे कि मुझे अकेला छोड़ कर कहां जा रहे हो मगर कोई पलट कर नहीं देखता था।(पारा 4 रूकू 7 आयत 153 ) एक दुश्मन ने गोफ़ने में पत्थर रख कर आं हज़रत (स अ व व ) की तरफ़ फेंका जिसकी वजह से आपके दो दांत शहीद हो गये और माथे पर काफ़ी चोटें आईं। तलवारे लगने के कारण कई घाव भी हो गये और आप (स अ व व ) एक गढ़े में गिर पड़े। जब सब भाग रहे थे , उस समय हज़रत अली (अ.स.) जंग कर रहे थे और रसूल (स अ व व ) की हिफ़ाज़त भी कर रहे थे। आखि़र कार कुफ़्फ़ार को हटा कर आं हज़रत (स अ व व ) को पहाडी़ पर ले गये। रात हो चुकी थी दूसरे दिन सुबह के वक़्त मदीने को रवानगी हुई। इस जंग में 70 मुसलमान मारे गये और 70 ही ज़ख़्मी हुए और कुफ़्फ़ार सिर्फ़ 30 क़त्ल हुये जिनमें 12 काफ़िर अली के हाथ क़त्ल हुये। इस जंग में भी अलमदारी का ओहदा (पद) शेरे ख़ुदा हज़रत अली (अ.स.) के ही सुपुर्द था।

मुवर्रेख़ीन का कहना है कि हज़रत अली (अ.स.) महवे जंग रहे आपके जिस्म पर सोलह ज़र्बे लगीं और आपका एक हाथ टूट गया था। आप बहुत ज़ख़्मी होने के बावजूद तलवार चलाते और दुश्मनों की सफ़ों को उलटते जाते थे।(सीरतुन नबी जि 0 1 पृष्ठ 277 ) इसी दौरान में आं हज़रत (स अ व व ) ने फ़रमाया अली तुम क्यो नहीं भाग जाते ? अर्ज़ की मौला क्या ईमान के बाद कुफ्ऱ इख़्तेयार कर लूँ।(मदारिज अल नबूवत) मुझे तो आप पर क़ुर्बान होना है। इसी मौक़े पर हज़रत अली (अ.स.) की तलवार टूटी थी और जु़ल्फ़ेक़ार दस्तयाब हुई थी।(तारीख़ तबरी जिल्द 4 पृष्ठ 406 व तारीख़े कामिल जिल्द 2 पृष्ठ 58 )

नादे अली का नुज़ूल भी एक रवायत की बिना पर इसी जंग में हुआ था। मुवर्रेख़ीन का कहना है कि आं हज़रत (स अ व व ) के ज़ख़्मी होते ही किसी ने यह ख़बर उड़ा दी कि आं हज़रत (स अ व व ) शहीद हो गये। इस ख़बर से आपके फ़िदाई मक़ामे ओहद पर पहुँचे जिनमें आपकी लख़्ते जिगर हज़रत फातेमा (स अ व व ) भी थीं।

क्सीर तवारीख़ में है कि दुश्मनाने इस्लाम की औरतों ने मुस्लिम लाशों के साथ बुरा सुलूक किया। अमीरे माविया की मां ने मुसलमान लाशों के नाक कान काट लिये और उनका हार बना कर अपने गले में डाला और अमीर हमज़ा का जिगर निकाल कर चबाया। इसी लिये मादरे माविया हिन्दा को जिगर ख़्वारा (जिगर खाने वाली) कहते हैं।

मदीना मातम कदा बन गया

अल्लामा शिब्ली लिखते हैं कि आं हज़रत (स अ व व ) मदीने में तशरीफ़ लाये तो तमाम मदीना मातम कदा था। आप जिस तरफ़ से गुज़रते थे घरों से मातम की आवाज़ें आती थीं। आपको इबरत हुई कि सबके रिश्तेदार मातम दारी का फ़र्ज़ अदा कर रहे हैं लेकिन हमज़ा का कोई नौहा ख़्वां नहीं है। रिक़्क़त के जोश में आपकी ज़बान से बे इख़्तेयार निकला अमा हमज़ा फ़लाबोवा क़ी लहा अफ़सोस हमज़ा को रोने वाला कोई नहीं। अन्सार ने अल्फ़ाज़ सुने तो तड़प उठे। सबने जा कर अपनी औरतों को हुक्म दिया कि वह हुज़ूर के दौलत कदे पर जा कर हज़रत हमज़ा का मातम करें। आं हज़रत (स अ व व ) ने देखा तो दरवाज़े पर परदा नशीनान की भीड़ थी और हमज़ा का मातम बलन्द था। इनके हक़ में दुआए ख़ैर की और फ़रमाया कि मैं तुम्हारी हमदर्दी का शुक्र गुज़ार हूँ।(सीरतुन नबी जिल्द न 0 1 पृष्ठ न 0 283 ) यह जंग मंगल के दिन 15 शव्वाल 3 हिजरी में हुई। हज़रत इमाम हसन (अ.स.) पैदा हुए और रसूले ख़ुदा (स अ व व ) का निकाह हफ़सा बिन्ते उम्र के साथ हुआ। और ग़ज़्वाए (अहमर अल असद) के लिये आप बरामद हुये। हज़रत अली (अ.स.) अलमबरदार थे।

4हिजरी के अहम वाक़ेयात

मोहर्रम 4 हिजरी में बनी असद ने मदीने पर हमला करना चाहा जिसे रोकने के लिये आपने अबू सलमा को भेजा उन्होंने दुश्मनों को मार भगाया। फिर सुफ़ियान बिन ख़ालिद ने हमले का इरादा किया जिसके मुक़ाबले के लिये अब्दुल्लाह इब्ने अनीस भेजे गये।

वाक़ये बैरे मऊना

सफ़र 4 हिजरी में अबू बरा आमिर बिन मालिक क़लाबी की दरख़्वास्त पर आं हज़रत (स अ व व ) ने 70 अंसार को तबलीग़ के लिये उन्हीं के साथ रवाना किया। यह लोग मक़ामे बैरे मऊना पर ठहरे जो मदीने से 4 मंज़िल के फ़ासले पर वाक़े है और एक शख़्स आमिर बिन तुफ़ैल के पास भेजा उसने क़ासिद को क़त्ल कर दिया फिर एक बड़ा लश्कर भेज कर मौत के घाट उतार दिया।

ग़ज़वा बनी नुज़ैर

उमर बिन उमैया ने क़बीलाए आमिर के दो आदमी क़त्ल कर दिये थे और उनका ख़ून बहा अब तक बाक़ी था। तबरी की रवायत के अनुसार आं हज़रत (स अ व व ) उसके मुतालिबे के लिये कुछ असहाब के साथ बनी नुज़ैर के पास गये उन्होंने मुतालिबा तो क़ुबूल कर लिया मगर आपको क़त्ल कर देने का यह ख़ुफ़िया प्रोग्राम बनाया कि एक शख़्स कोठे पर जा कर एक भारी पत्थर आप पर गिरा दे। चुनान्चे उमर बिन हज्जाश यहूदी बाला ख़ाने पर गया हज़रत को इसकी इत्तेला मिल गई और आप वहां से मदीना तशरीफ़ ले आये। बनी नुज़ैर एक क़िले में रहते थे जिसका नाम ज़हरा था। यह क़िला मदीने से 3 मील के फ़ासले पर था। हज़रत ने इसकी इस ग़लत हरकत की वजह से जिला वतनी का हुक्म दे दिया। आपने कहला भेजा कि 10 दिन के अन्दर यह जगह ख़ाली करो। उन्होंने अब्दुल्लाह बिन अबी खि़रजी मुनाफ़िक़ के बहकाने से बात न मानी क़िले का घिराव कर लिया गया आखि़र वह लोग 6 दिन में वहां से भाग गये।

ग़ज़वा ज़ातुल रूक़ा

इसी 4 हिजरी जमादिल अव्वल के महीने में क़बीलाए इनमारो साअलबता और ग़त्फ़न ने मदीने पर हमला करना चाहा आं हज़रत (स अ व व ) असहाब को ले कर उनको आगे बढ़ने से रोकने के लिये आगे बढ़े लेकिन वह सामने न आये और भाग निकले। इसी मौक़े पर एक शख़्स ने क़त्ल के इरादे से आं हज़रत (स अ व व ) से तलवार मांगी थी और आपने दे दी थी , मगर वह क़त्ल की हिम्मत न कर सका।(अबुल फ़िदा जिल्द 2 पृष्ठ 88 ) इसी 4 हिज़री मे ग़ज़वा बद्र सानी (दूसरी बद्र) भी पेश आया लेकिन जंग नहीं हुई। इस ग़ज़वे में भी हज़रत अली (अ.स.) अलम बरदार थे। इसी साल शाबान के महीने में हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) पैदा हुए और उम्मे सलमा (र.) का रसूले करीम (स अ व व ) के साथ अक़्द हुआ और फातेमा बिन्ते असद ने वफ़ात पाई।

5हिजरी के अहम वाक़ेयात

जंगे ख़न्दक़ इस जंग को ग़ज़वाए अहज़ाब भी कहते हैं। यह जंग ज़ीका़द 5 हिजरी में वाक़े हुई। इसकी तफ़सील के मुतालुक़ अरबाबे तवारीख़ लिखते हैं कि मदीने से निकाले हुए बनी नुज़ैर के यहूदी जो ख़ैबर में ठहरे हुए थे वह शब व रोज़ और सुबह शाम मुसलमानों से बदला लेने के लिये इसकीमे बनाया करते थे। वह चाहते थे की कोई ऐसी शक्ल पैदा हो जाए कि जिससे मुसलमानों का तुख़म तक न रहे। चुनान्चे उसमें से कुछ लोग मक्का चले गये और अबू सुफ़ियान को बुला कर बनी ग़तफ़ान और क़ैस से रिश्तए अख़ूवत क़ाएम कर लिया और एक मोआहेदे में यह तय किया कि हर क़बीले के सूरमा इकठ्ठा हो कर मदीने पर हमला करें ताकि इस्लाम की बढ़ती हुई ताक़त का क़ला क़मा हो जाए। स्कीम मुकम्मल होने के बाद इसको अमली जामा पहनाने के लिये अबू सुफ़ियान 4 हज़ार का लश्कर ले कर मक्का से निकला और यहूदियों के दीगर क़बाएल ने 6 हज़ार के लश्कर से पेश क़दमी की ग़रज़ कि 10 हज़ार की जमीयात मदीने पर हमला करने के इरादे से आगे बढ़ी।

आं हज़रत को इस हमले की इत्तेला पहले हो चुकी थी इसी लिये आपने मदीने से निकल कर कोहे सिला को पुश्त पर ले लिया और जनाबे सलमाने फ़ारसी की राय से पांच गज़ चौड़ी और पांच गज़ गहरी ख़न्दक खुदवाई और ख़न्दक़ खोदने में खुद भी कमाले जां फ़िशानी के साथ लगे रहे। इस जंग में अन्दरूनी ख़लफ़िशार और मुनाफ़िको की रेशादवानियां भी जारी रहीं। जलालउद्दीन स्यूती का कहना है कि अन्दरूनी हालात की हिफ़ाज़त के लिये आं हज़रत (स अ व व ) ने अबू बकर फिर उमर को भेजना चाहा लेकिन इन हज़रात के इन्कार कर देने की वजह से हज़रत ने हुज़ैफ़ा को भेजा।

(दुर्रे मन्शूर जिल्द 5 पृष्ठ 185 )

ख़न्दक़ की खुदाई का काम 6 रोज़ तक जारी रहा। ख़न्दक़ तैयार हुई ही थी कि कुफ़्फ़ार का एक बड़ लश्कर आ पहुँचा। लश्कर की कसरत देख कर मुसलमान घबरा गये। कुफ़्फ़ार यह हिम्मत तो न कर सके कि मुसलमानों को एक दम से हमला कर के तबाह कर देते लेकिन इक्का दुक्का ख़न्दक़ पर कर के हमला करने की कोशिश करते रहे और यह सिलसिला 20 दिन तक चलता रहा। एक दिन अम्र बिन अबदोवुद जो कि लवी बिन ग़ालिब की नस्ल से था और अरब में एक हज़ार बहादुरों के बराबर माना जाता था ख़न्दक़ फांद कर लश्करे इस्लाम तक आ पहुँचा और हल मिन मुबारिज़ की सदा दी। अम्र बिन अबदोवुद की आवाज़ सुनते ही उमर बिन ख़त्ताब ने कहा कि यह तो अकेला एक हज़ार डाकुओं का मुक़ाबला करता है यानी बहुत ही बहादुर है। यह सुन कर मुसलमानों के रहे सहे होश भी जाते रहे। पैंग़म्बरे इस्लाम (स अ व व ) ने इसके चैलेंज पर लश्करे इस्लाम को मुख़ातिब कर के मुक़ाबले की हिम्मत दिलाई लेकिन एक नौजवान बहादुर के अलावा कोई न सनका। तारीख़े ख़मीस रौज़तुल अहबाब और रौज़तुल पृष्ठ में है कि तीन मरतबा आं हज़रत (स अ व व ) ने अपने असहाब को मुक़ाबले के लिये निकलने की दावत दी मगर हज़रत अली (अ.स.) के सिवा कोई न बोला। तीसरी मरतबा आपने अली (अ.स.) से कहा कि यह अम्र अबदवुद है आपने अर्ज़ कि मैं भी अली इब्ने अबी तालिब हूँ।

अल ग़रज़ आं हज़रत (स अ व व ) ने हज़रत अली (अ.स.) को मैदान में निकलने के लिये तैयार किया। आपने ज़ेरह पहनाई अपनी तलवार कमर में डाली , अपना अमामा अपने हाथों से अली (अ.स.) के सर पर बांधा और दुआ के लिये हाथ उठा कर अर्ज़ की , ख़ुदाया जंगे बद्र में उबैदा को , जंगे ओहद में हमज़ा को दे चुका हूँ पालने वाले अब मेरे पास अली (अ.स.) रह गये हैं मालिक ऐसा न हो कि आज इनसे भी हाथ धो बैठूं। दुआ के बाद अली (अ.स.) को पैदल रवाना किया और साथ ही साथ कहा बरज़ल ईमान कुल्लहू इल्ल कुफ़्र कुल्लहू आज कुल्ले ईमान कुल्ले कुफ्र के मुक़ाबले में जा रहा है।(हयातुल हैवान जिल्द 1 पृष्ठ 238 व सीरते मोहम्मदिया जिल्द 2 पृष्ठ 102 )

अल ग़रज़ आप रवाना हो कर अम्र के मुक़ाबले में पहुँचे। अल्लामा श्ब्लिी का कहना है कि हज़रत अली (अ.स.) ने अम्र से पूछा के क्या सच में तेरा यह क़ौल है कि मैदाने जंग में अपने मुक़ाबिल की तीन बातों में से एक बात ज़रूर क़ुबूल करता है। उसने कहा हां। आपने फ़रमाया कि अच्छा इस्लाम क़ुबूल कर उसने कहा ना मुम्किन फिर फ़रमाया ! अच्छा मैदाने जंग से वापस जा उसने कहा यह भी नहीं हो सकता फिर फ़रमाया ! अच्छा घोड़े से उतर आ और मुझ से जंग कर वह घोड़े से उतर पड़ा , लेकिन कहने लगा मुझे उम्मीद न थी कि आसमान के नीचे कोई शख़्स भी मुझसे यह कह सकता है जो तुम कह रहे हो , मगर देखो मैं तुम्हारी जान नहीं लेना चाहता। ग़रज़ जंग शुरू हो गई और सत्तर वारों की नौबत आई , बिल आखि़र उसकी तलवार अली (अ.स.) के सिपर काटती हुई सर तक पहुँची। हज़रत अली (अ.स.) ने जो संभल कर हाथ मारा तो अम्र बिन अब्दवुद ज़मीन पर लोटने लगा। मुसलमानों को इस दस्त ब दस्त लड़ाई की बड़ी फ़िक्र थी। हर एक दुआऐं मांग रहा था। जब अम्र से हज़रत अली (अ.स.) लड़ रहे थे तो ख़ाक इस क़दर उड़ रही थी कि कुछ नज़र न आता था गरदो ग़ुबार में हाथों की सफ़ाई तो नज़र न आई हां तकबीर की आवाज़ सुन कर मुसलमान समझे की अली (अ.स.) ने फ़तेह पाई।

अम्र बिन अब्दवुद मारा गया और उसके साथी ख़न्दक़ कूद कर भाग निकले। जब फ़तेह की ख़बर आं हज़रत (स अ व व ) तक पहुँची तो आप ख़ुशी से बाग़ बाग़ हो गये। इस्लाम की हिफ़ाज़त और अली (अ.स.) की सलामती की ख़ुशी में आपने फ़रमाया ज़रबते अली यौमुल ख़न्दक़ अफ़ज़ल मिन इबादतुल सक़लैन आज की एक ज़रबते अली (अ.स.) मेरी सारी उम्मत वह चाहे ज़मीन में बस्ती हो या आसमान में रहती हो की तमाम इबादतों से बेहतर है।

बाज़ किताबों में है कि अम्र बिन अब्द वुद के सीने पर हज़रत अली (अ.स.) सवार हो कर सर काटना ही चाहते थे कि उसने चेहराए अक़दस पर लोआबे देहन से बे अदबी की हज़रत को ग़ुस्सा आ गया , आप यह सोच कर फ़ौरन सीने से उतर आये कि कारे ख़ुदा में जज़्बाए नफ़्स शामिल हो रहा था , जब ग़ुस्सा ख़त्म हुआ तब सर काटा और ज़िरह उतारे बग़ैर खि़दमते रिसालत माआब में जा पहुँचे। आं हज़रत (स अ व व ) ने हज़रत अली (अ.स.) को सीने से लगा लिया। जिब्राईल ने बरावायत सुलैमान क़नदूज़ी , आसमान से अनार ला कर तोहफ़ा इनायत किया। जिसमें हरे रंग का रूमाल था और उस पर अली वली अल्लाह लिखा हुआ था।

हज़रत अली (अ.स.) मैदाने जंग से कामयाबो कामरान वापस हुये और अम्र बिन अब्द वुद की बहन भाई की लाश पर पहुँची और खोदो ज़िरह बदस्तूर उसके जिस्म पर देख कर कहा मा क़त्लहा अला कफ़वुन करीम इसे किसी बहुत ही मोअजज़िज़ (आदरणीय) बहादुर ने क़त्ल किया है। उसके बाद कुछ शेर पढ़े जिनका मतलब यह है कि ऐ अम्र ! अगर तुझे इस क़ातिल के अलावा कोई और क़त्ल करता तो मैं सारी उम्र (जीवन भर) तुझ पर रोती। माआरेजुन नबूवता और रौज़ातुल पृष्ठ में है कि फ़तेह के बाद जब हज़रत अली (अ.स.) वापस हुए तो हज़रत अबू बकर और उमर ने उठ कर आपकी पेशानी मुबारक को बोसा दिया।