चौदह सितारे

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चौदह सितारे लेखक:
कैटिगिरी: शियो का इतिहास

चौदह सितारे

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना नजमुल हसन करारवी
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चौदह सितारे
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चौदह सितारे

चौदह सितारे

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

हज़रत मासूमा ए क़ुम की ज़्यारत की अहमियत

हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) फ़रमाते हैं कि जो मासूमा ए कु़म की ज़्यारत करेगा उसके लिए जन्नत वाजिब होगी। हदीस उयून के अल्फ़ाज़ यह हैं ‘‘ मन जारहा वजबत लहा अलजन्नता ’’( सफ़ीनतुल बिहार जिल्द 2 पृष्ठ 426) अल्लामा शेख़ अब्बास कु़म्मी , अल्लामा क़ाज़ी नूरूल उल्लाह शुस्तरी (शहीदे सालिस) से रवाएत करते हैं कि हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) इरशाद फ़रमाते हैं कि ‘‘ तद खि़ल ब शफ़ाअताहा शैती अ ल जन्नता ’’ मासूमा ए क़ुम की शिफ़ाअत से कसीर शिया जन्नत में जाएगें।( सफ़ीनतुल बेहार जिल्द 2 पृष्ठ 386) हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) फ़रमाते हैं कि ‘‘ मन ज़ारहा फ़लहू अल जन्नता ’’ जो मेरी हमशीरा की क़ब्र की ज़्यारत करेगा उसके लिये जन्नत है। एक रवायत में हैं कि अली बिन इब्राहीम ने अपने बाप से उन्होंने साद से उन्होंने अली बिन मूसिए रज़ा (अ.स.) से रवायत की है वह फ़रमाते हैं कि ऐ साद तुम्हारे नज़दीक़ हमारी एक क़ब्र है। रावी ने अर्ज़ की मासूमा ए क़ुम की , फ़रमाया हां ऐ साद ‘‘ मन ज़ारहा अरफ़ाबहक़हा फ़लहू अल जन्नता ’’ जो इनकी ज़्यारत इनके हक़ को पहचान के करेगा इसके लिये जन्नत है यानी वह जन्नत में जायेगा।(सफ़ीनतुल बेहार जिल्द 2 पृष्ठ 376 प्रकाशित ईरान)

अबु जाफ़र हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ स )

दिये जवाब तक़ी (अ.स.) ने ,वह बर सरे दरबार।

कि दंग थे उलमा , तिफ़ल की बसीरत से।।

दिखाए इल्म के जौहर वह इब्ने अक्सम को।

कि वाफ़क़ीह भी , वाक़िफ़ हुये इमामत से।।

साबिर थनयानी ‘‘ कराची ’’

तरके दुनियां में नहीं , मशक़े रियाज़त में नहीं

कसरते इल्म में तौफ़ीक़ , बसीरत में नही

दिल की एक कैफ़ीयते , ख़ास है तक़वा बानो

तरज़ पोशिश में नहीं शक्लो , शबाहत में नहीं

हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स अ व व ) के नवे जानशीन और हमारे नवे इमाम और सिलसिला ए अस्मत की ग्यारवीं कड़ी थे। आपके वालिदे माजिद वली अहदे सलतनते अब्बासीया ग़रीबुल ग़ुरबा शहीदे जफ़ा इमाम रज़ा (अ.स.) थे और आपकी वालदा माजदा जनाबे ख़ैज़रान उर्फ़ सकीना थीं। उलमा का बयान है कि आप उम्मुल मोमेनीन जनबा मारया क़िबतिया यानी वालदा जनाबे इब्राहीम बिन रसूले करीम (स अ व व ) की नस्ल से थीं।(शवाहिद अल नबूवत पृष्ठ 204, रौज़तुल पृष्ठ जिल्द 3 पृष्ठ 16 )

इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) अपने आबाओ अजदाद की तरह , इमाम मन्सूस , मासूम , इमामे ज़माना और अफ़ज़ले काएनात थे। आप जुमला सिफ़ाते हुस्ना में यगाना रोज़गार और मुम्ताज़ थे। अल्लामा बिन तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं , ‘‘ वइन कान सग़ीर अलसन फ़हू कबीर अल क़दर , रफ़ीह अलज़कर ’’ इमाम (अ.स.) अगरचे तमाम मासूमीन में सब से कम सिन और छोटे थे लेकिन आपकी क़दरो मन्ज़ेलत आपके आबाओ अजदाद की तरह निहायत ही अज़ीम थी और आपका बुलन्द तज़किरा बर सरे नोक ज़बान था।(मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 195 )

अल्लामा हुसैन वाएज़ काशफ़ी लिखते हैं कि ‘‘ मुक़ामे वै बिसयार बुलन्द अस्त ’’ आपकी मन्ज़िलत और आपकी हस्ती नेहायत ही बुलन्द थी।(रौज़तुल शोहदा पृष्ठ 438 )

अल्लामा ख़विन्द शाह लिखते हैं ‘‘ दर कमाल फ़ज़ल व इल्म और हिकमत इमाम जवाद बा मरतबाबूदह कि ’’ हेच कसरा अज़ आज़मे सादात आन मरतबा ना बूदा ’’ इल्म व फ़ज़ल , अदब व हिकमत में इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) को वह कमाल हासिल था जो किसी को भी नसीब ना था।(रौज़तुल पृष्ठ जिल्द 3 पृष्ठ 16 )

अल्लामा शिबलन्जी लिखते हैं कि इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) कम सिनी के बावजूद फ़ज़ाएल से भर पूर थे ‘‘ व मुनक़बये कसीरा ’’ और आपके मनाक़िब व मदायह बेशुमार हैं।(नूरूल अबसार पृष्ठ 145 )

अल्लामा तबरसी लिखते हैं कि ‘‘ कान क़द बलग़ फ़ी कमाल अल अक़ल वल फ़ज़ल वा आलेम व अल हकम वा अलदाब व रिफ़अते माज़लतेही तम यसा व फ़ीहा अहद मन ज़ी अलसिन मन अलसादात वग़ैर हिम ’’ आप कमाले अक़ल और फ़ज़ल और इल्म व हिक्म व आदाब व बुलन्दी मनज़िलत में इन मदारिज पर फ़ाएज़ थे जिन पर आपके सिन और उमर के सादात और ग़ैर सादात में से कोई भी फ़ायज़ न था।(अलाम अल वरा पृष्ठ 202 ) अल्लामा शेख़ मुफ़ीद (र. अ.) आपकी बुलन्दी ए मन्ज़ेलत का ज़िक्र करते हुए तहरीर फ़रमाते हैं। ‘‘ मशाययख़ अहले ज़बान बा उमसावी दरफ़ज़ल न बुलन्द ’’ िकइस अहद में दुनियां के बड़े बड़े लोग फ़ज़ाएल व कमालात में आपकी बराबरी नहीं कर सकते थे।(इरशाद मुफ़ीद पृष्ठ 474 )

इमाम (अ.स.) की विलादत बा सआदत

उलमा का बयान है कि इमाम अल मुत्तक़ीन हज़रज इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) बा तारीख़ 10 रजबुल मुरज्जब 195 हिजरी में बा मुताबिक़ 811 ई 0 यौमे जुमा बामुक़ाम मदीना मुनव्वरा में मोतावल्लिद हुय ऐ।(रौज़ातुल अल पृष्ठ जिल्द 2 पृष्ठ 16 व शवाहेदुन नबूअत पृष्ठ 204 व अनवारे नोमानी पृष्ठ 127 )

अल्लामा यगाना जनाबे शेख़ मुफ़ीद (र. अ.) फ़रमाते हैं , चूंकि हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) के कोई औलाद आपकी विलादत से क़ब्ल न थी इस लिये लोग ताना ज़नी करते हुए कहते थे कि शियों के इमाम मुन क़ता उल नस्ल हैं। यह सुन कर हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) ने इरशाद फ़रमाया कि औलाद का होना ख़ुदा की इनाएत से मुताअल्लिक़ है उसे मुझे साहेबे औलाद किया है और अंक़रीब मेरे यहां मस्नदे इमामत का वारिस पैदा होगा। चुनांचे आपकी विलादत बा साअदत हुई।(इरशाद मुफ़ीद पृष्ठ 473 )

अल्लामा तबरीसी लिखते हैं कि हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) ने इरशाद फ़रमाया था कि मेरे यहां जो बच्चा अंक़रीब पैदा होगा वह अज़ीम बरकतों का हामिल होगा।(अलामुल वरा पृष्ठ 200 ) वाक़ए विलादत के मुताअल्लिक़ लिखा है कि इमाम रज़ा (अ.स.) की बहन हकीमा ख़ातून फ़रमाती हैं कि एक दिन मेरे भाई ने मुझे बुला कर कहा कि आज तुम मेरे घर में क़याम करो क्यों कि ख़ैज़रान के बतन से आज रात को ख़ुदा मुझे एक फ़रज़न्द अता फ़रमायेगा। मैंने ख़ुशी के साथ इस हुक्म की तामील की। जब रात आई तो हमसाया और चन्द औरतें भी बुलाई गईं , निस्फ़ शब से ज़्यादा गुज़रने पर यका यक वाज़ेह हमल के आसार नमूदार हुए। यह हाल देख कर मैं ख़ैज़रान को हुजरे में ले गई और मैंने चिराग़ रौशन कर दिया। थोड़ी देर में इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) पैदा हुए। मैंने देखा कि वह मख़तून और नाफ़ बुरीदा हैं। विलादत के बाद मैंने नहलाने के लिये तश्त में बैठाया। इस वक़्त जो चिराग़ रौशन था गुल हो गया मगर फिर भी उस हुजरे में रौशनी ब दस्तूर रही और इतनी रौशनी रही कि मैंने बच्चे को आसानी से नहला दिया। थोड़ी देर में मेरे भाई इमाम रज़ा (अ.स.) भी वहां तशरीफ़ ले आए। मैंने निहायत उजलत के साथ साहब ज़ादे को कपड़े में लपेट कर हज़रत की आग़ोश में दे दिया। आपने सर और आंखों पर बोसा दे कर फिर मुझे वापस कर दिया। दो दिन तक इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) की आंखें बन्द रहीं हैं तीसरे दिन जब आंखें खुली तो आपने सब से पहले आसमान की तरफ़ नज़र की , फिर दाहिने बाऐ देख कर कलमा ए शहादतैन ज़बान पर जारी किया। मैं यह देख कर सख़्त मुतअजिब हुई और मैंने सारा वाक़ेया अपने भाई से बयान किया। आपने फ़रमाया , ताअज्जुब न करो , यह मेरा फ़रज़न्द हुज्जते ख़ुदा और वसीए रसूल (स अ व व ) हादी है। इस से जो अजाएबात ज़हूर पज़ीर हों , उनमें ताअज्जुब क्या। मोहम्मद बिन अली नाक़ील हैं , हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) के दोनों कंधों के दरमियान इसी तरह मोहरे इमामत थी जिस तरह दीगर आइम्मा (अ.स.) के दोनों कंधो के दरमियान मोहरें हुआ करती थीं।(मुनाक़िब)

नाम कुन्नियत और अलक़ाब

आपका इसमे गिरामी लौहे महफ़ूज़ के मुताबिक़ उनके वालिदे माजिद हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) ने मोहम्मद रखा। आपकी कुन्नियत अबु जाफ़र और आपके अलक़ाब जवाद , कानेह , मुर्तुज़ा थे और मशहूर तरीन लक़ब तक़ी था।(रौज़तुल अल पृष्ठ जिल्द 3 पृष्ठ 96, शवाहेदुन नबूअत पृष्ठ 202 आलामु वुरा पृष्ठ 199 )

बादशाहाने वक़्त

हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) की विलादत 195 हिजरी में हुई। इस वक़्त बादशाहे वक़्त , अमीन इब्ने हारून रशीद अब्बासी था।(दफ़ियात अल अयान) 198 हिजरी में मामून रशीद अब्बासी बादशाहे वक़्त हुआ।(तारीख़े ख़मीस व अबुल फ़िदा) 218 हिजरी में मोतसिम अब्बासी ख़लीफ़ाए वक़्त क़रार पाया।(अबुल फ़िदा) इसी मोतसिम ने सन् 220 हिजरी में आपको ज़हर से शहीद करा दिया।(वसीलतुन नजात)

इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) की नशो नुमा और तरबीअत

यह एक हसरत नाक वाक़िया है कि इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) को निहायत कमसिनी ही के ज़माने में मसाएब और परेशानियों का मुक़ाबला करने के लिये तैय्यार हो जाना पड़ा। उन्हें बहुत ही कम इतमेनान और सुकून के लमहात में बाप की मोहब्बत और शफ़क़तो तरबीअत के साए में ज़िन्दगी गुज़ारने का मौक़ा मिल सका। आपको सिर्फ़ पांचवा बरस था जब हज़रते इमाम रज़ा (अ.स.) मदीने से ख़ुरासान की तरफ़ सफ़र करने पर मजबूर हुए। इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) उस वक़्त से जो अपने बाप से जुदा हुए तो फिर ज़िन्दगी में मुलाक़ात का मौक़ा न मिला। इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) से जुदा होने के तीसरे साल इमाम रज़ा (अ.स.) की शहादत हो गई। दुनियां समझती होगी कि इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) के लिये इल्मी और अमली बलन्दियों तक पहुँचने का कोई ज़रिया नहीं रहा इस लिये अब इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) की इल्मी मस्नद शायद ख़ाली नज़र आए मगर ख़लक़े ख़ुदा की हैरत की इन्तेहा न रही जब इस कम सिन बच्चे को थोड़े दिन बाद मामून के पहलू में बैठ कर बड़े बड़े उलमा से फ़िक़ा व हदीस व तफ़सीर और कलाम पर मनाज़रे करते और उन सबको क़ाएल हो जाते देखा। उनकी हैरत उस वक़्त तक दूर होना मुमकिन न थी जब तक वह मद्दी असबाब के आगे एक मख़सूस ख़ुदा वन्दी मर्दसा तालीम व तरबीअत के क़ाएल न होते जिसके बग़ैर यह मोअम्मा न हल हुआ और न कभी हल हो सकता है। (सवाने इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) पृष्ठ 4) मक़सद यह है कि इमाम को इल्मे लदुन्नी होता है यह अम्बिया की तरह पढ़े लिखे और तमाम सलाहियतों से भर पूर पैदा होते हैं। उन्होंने सरवरे काएनात की तरह कभी किसी के सामने ज़ानूए तल्लमुज़ नहीं तह किया और न कर सकते थे। यह इसके भी मोहताज नहीं होते थे कि आबाओ अजदाद उन्हें तालीम दें। यह और बात है कि इज़दियाद व इल्म शरफ़ के लिये ऐसा कर दिया जाय या उलूमे मख़सूसा की तालीम दे दी जाए।

वालिदे माजिद के साया ए आत्फ़ियत से महरूमी

यूं तो उमूमी तौर पर किसी के बाप के मरने से साया ए आतिफ़त से महरूमी हुआ करती है लेकिन हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) अपने वालिदे माजिद के साया ए आतिफ़त से उनकी ज़िन्दगी ही में महरूम हो गए थे। अभी आप की उम्र छः साल की भी न हो पाई थी कि आप अपने पदरे बुज़ुर्गवार की शफ़क़तों अतूफ़त से महरूम कर दिये गए और मामून रशीद अब्बासी ने आपके वालिदे माजिद हज़रते इमाम रज़ा (अ.स.) को अपनी सियासी ग़रज़ के तहत मदीने से ख़ुरासान तलब कर लिया और साथ ही यह शर्त भी लगा दी कि आप के बाल बच्चे मदीने ही में रहेंगे। जिसका नतीजा यह हुआ कि आप सबको हमेशा के लिये ख़ैर बाद कह कर ख़ुरासान तशरीफ़ ले गए और वहीं आलमें गु़रबत में सब से जुदा मामून रशीद के हाथों ही शहीद हो कर दुनियां से रूख़सत हो गए।

आपके मदीने से तशरीफ़ ले जाने का असर ख़ानदान पर यह चढ़ा कि सब के दिल का सुकून जाता रहा और सब के सब अपने को ज़िन्दा दर गोर समझते रहे। बिल आखि़र यह नौबत पहुँची कि आपकी हमशीरा जनाबे फ़ात्मा जो बाद में मासूमा ए क़ुम के नाम से मुलक़्क़ब हुईं इन्तेहाई बेचैनी की हालत में घर से निकल कर ख़ुरासान की तरफ़ रवाना हो गईं। उनके दिल में जज़बात यह थे कि किसी तरह अपने भाई अली रज़ा (अ.स.) से मिलें लेकिन एक रवायत की बिना पर आप मदीने से रवाना हो कर जब मुक़ामे वसावा में पहुँची तो अलील हो गईं। आपने पूछा यहां से क़ुम कितनी दूर है ? लोगों ने कहा कि यहां से कु़म की मसाफ़त दस 10 फ़रसख़ हैं। आपने ख़्वाहिश ज़ाहिर की किसी सूरत से वहां पहुँचा दी जायें। चुनान्चे आप आले साद के रईस मूसा बिन ख़ज़रज की कोशिश से वहां पहुँची और उसी के मकान में 17 दिन बीमार रह कर अपने भाई को रोती पीटती दुनियां से रूख़सत हो गईं और मक़ामे बाबूलान क़ुम में दफ़्न हुई। यह वाक़िया 201 हिजरी का है।(अनवारूल हुसैनिया जिल्द 4 पृष्ठ 53 ) और एक रिवायत की बिना पर आप उस वक़्त ख़ुरासान पहुँची जब भाई शहीद हो चुका था और लोग दफ़्न के लिये काले काले अलमों के साये में लिये जा रहे थे। आप क़ुम आ कर वफ़ात पा गईं। हज़रते इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की जुदाई क्या कम थी कि उस पर मुस्तज़ाद अपनी फुफी के साए से भी महरूम हो गए। हमारे इमाम के लिये कम सिनी में यह दोनों सदमे इन्तेहाई तकलीफ़ देह और रन्ज रसा थे लेकिन मशीयते ऐज़दी में चारा नहीं। आखि़र आपको तमाम मराहिल का मुक़ाबेला करना पड़ा और आप सब्रो ज़ब्त के साथ हर मुसीबत को झेलते रहे।

मामून रशीद अब्बासी और हज़रते इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) का पहला सफ़रे ईराक़

अब्बासी ख़लीफ़ा मामून रशीद अब्बासी हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) की शहादत से फ़राग़त के बाद या इस लिये की उस पर इमाम रज़ा (अ.स.) के क़त्ल का इल्ज़ाम साबित न हो सके या इस लिये कि वह इमाम रज़ा (अ.स.) की वली अहदी के मौक़े पर अपनी लड़की उम्मे हबीबा की शादी का ऐलान भी कर चुका था कि वली अहद के फ़रज़न्द इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) के साथ करेगा। उसे निभाने के लिये या इस लिये की अभी उस की सियासी ज़रूरत उसे मोहम्मद तक़ी (अ.स.) की तरफ़ तवज्जो की दावत दे रही थी। बहरहाल जो बात भी हो। उसने यह फ़ैसला कर लिया कि इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) को मदीने से बग़दाद बुलाया जाए। जो इमाम रज़ा (अ.स.) की शहादत के बाद पाऐ तख़्त बनाया जा चुका था चुनान्चे दावत नामा इरसाल किया और उन्हें इसी तरह मजबूर कर के बुलाया जिस तरह इमाम रज़ा (अ.स.) को बुलवाया था। ‘‘ हुक्मे हाकिम मर्गे मफ़ाजात ’’ बिल आखि़र इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) को बग़दाद आना पड़ा।

बाज़ और मछली का वाक़िया

इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) जिनकी उम्र उस वक़्त तक़रीबन 9 साल की थी। एक दिन बग़दाद के किसी गु़जरगाह में खड़े हुए थे और चन्द लड़के वहां खेल रहे थे कि नागाह ख़लीफ़ा मामून की सवारी दिखाई दी , सब लड़के डर कर भाग गए मगर इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) अपनी जगह पर खड़े रहे। जब मामून की सवारी वहां पहुँची तो उसने इमाम हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) से मुख़ातिब हो कर कहा कि साहब ज़ादे सब लड़के भाग गए तो तुम क्यों नहीं भागे। उन्होंने बेसाख़्ता बिला ताअम्मुल जबाव दिया मेरे खड़े रहने से रास्ता तंग न था , जो हट जाने से वसी हो जाता और न कोई जुर्म किया था कि डरता नीज़ मेरा हुसने ज़न है कि तुम बेगुनाह को ज़र्र नहीं पहुँचाते। मामून को हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) का अन्दाज़े बयान बहुत पसन्द आया। इसके बाद मामून वहां से आगे बढ़ा। उसके साथ शिकारी बाज़ भी थे जब आबादी से बाहर निकल गया तो उसने एक बाज़ को एक चकोर पर छोड़ा। बाज़ नज़रों से ओझल हो गया और जब वापस आया तो उसकी चोच में एक छोटी सी ज़िन्दा मछली थी जिसको देख कर मामून बहुत मुताअज्जिब हुआ। थोड़ी देर में जब वह इसी तरह लौटा तो उसने हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) को दूसरे लड़कों के साथ वहीं देखा जहां वह पहले थे। लड़के मामून की सवारी देख कर फिर भागे लेकिन हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) बदस्तूर साबिक़ वहीं खड़े रहे। जब मामून उनके क़रीब आया , तो मुठ्ठी बन्द कर के कहने लगा , साहब ज़ादे बताओ मेरे हाथ में क्या है ? उन्होंने फ़रमाया अल्लाह ताअला ने अपने दरिया ए क़ुदरत में छोटी मछलियां पैदा की हैं और सलातीन अपने बाज़ से उन मछलियों का शिकार कर के अहले बैते रिसालत के इल्म का इम्तेहान लेते हैं। यह सुन कर मामून बोला , बे शक तुम अली बिन मूसा रज़ा (अ.स.) के फ़रज़न्द हो। फिर उनको अपने साथ ले गया।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 123, मतालेबुस सूऊल पृष्ठ 290, शवाहेदुन नबूअत पृष्ठ 204 नुरूल अबसार पृष्ठ 145, अरजहुल मतालिब पृष्ठ 459 )

यह वाक़िया हमारी भी बाज़ किताबों में है , इस वाक़िये के सिलसिले में जिन किताबों का हवाला दिया है उनमें ‘‘ इन्नल्लहा ख़लक़ फ़ी बहरे कु़दरताहू समाकन सग़ारत ’’ मुन्दरिज है। अलबत्ता बाज़ कुतुब में ‘‘ बैन अल समाआ व अल हवाअन ’’ लिखा है। अव्वल उज़ ज़िक्र के मुताअल्लिक़ तवील का सवाल ही पैदा नहीं होता क्यों कि हर दरिया ख़ुदा की क़ुदरत से जारी है और मज़कूरा वाक़िये में इमकान क़वी है कि बाज़ ऐसी ज़मीन पर जो दरिया हैं उनमें से किसी एक से शिकार कर के लाया होगा। अलबत्ता अखि़र उज़ ज़िक्र के मुतअल्लिक़ कहा जा सकता है।

1. जहां तक मुझे इल्म है गहरे से गहरे दरिया की इन्तेहा किसी सतह अरर्ज़ी पर है।

2. बक़ौल अल्लामा मजलिसी दरिया ऐसे हैं जिनसे अब्र छोटी मछलियों को उड़ा कर ऊपर ले जाते हैं।

3. 1932 ई 0 के अख़बार में यह शाया हो चुका है कि अमरीका की नहर पनामा में जो सन्डबोल बन्दरगाह के क़रीब है मछलियो की बारिश हुई है।

4. आसमान और हवा के दरमियान बहरे मुतलातिम से मुराद फ़िज़ा की वह कैफ़ियत हों जो दरिया की तरह पैदा होते हैं।

5. कहा जाता है कि इल्म हैवान में यह साबित है कि मछली दरिया से एक सौ पचास गज़ तक बाज़ हालात में बुलन्द हो जाती हैं। बहर हाल इन्हीं गहराईयों की रौशनी में फ़रज़न्दे रसूल (स अ व व ) ने मामून से फ़रमाया कि बादशाहे बहरे क़ुदरत ख़ुदावन्दी से शिकार कर के लाया है और आले मोहम्मद (स अ व व ) का इम्तेहान लेता है।

हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) से उलमाए इस्लाम का मनाज़ेरा और अब्बासी हासिदों की शिकस्ते फ़ाश

उलमाए इस्लाम का बयान है कि बनी अब्बास को मामून की तरफ़ इमाम रज़ा (अ.स.) को वली अहद बनाया जाना ही ना क़ाबिले बर्दाश्त था। इमाम रजा़ (अ.स.) की वफ़ात से एक हद तक उन्हें इतमीनान हासिल हुआ था और उन्होंने मामून से अपने हस्ब दिलख़्वाह तसलीम कर लिया गया। इसके अलावा इमाम रज़ा (अ.स.) की वली अहदी के ज़माने में अब्बासीयों का मख़सूस शुमार यानी काला लिबास तर्क हो कर जो सब्ज़ लिबास का रवाज हो रहा था उसे मन्सूख़ करके फिर स्याह लिबास की पाबन्दी आएद कर दी गई ताकि बनी अब्बास के रवायाते क़दीम मख़सूस रहे। यह सब बातें अब्बासीयों के यक़ीन दिला रहीं थी कि वह मामून पर पूरा क़ाबू पा चुके हैं , मगर अब मामून का यह इरादा कि वह इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) को अपना दामाद बनाऐ। उन लोगों के लिये तशवीश का बाएस बना और इस हद तक बना कि वह अपने दिली रूझान को दिल में न रख सके और एक वफ़द की शक्ल में मामून के पास आ कर अपने जज़बात का इज़हार कर दिया। उन्होंने साफ़ साफ़ कहा कि इमाम रज़ा (अ.स.) के साथ जो आपने तरीख़ा इख़्तेयार किया , वही हम को ना पसन्द था। मगर वह ख़ैर कम अज़ कम औसाफ़ व कमालात के लेहाज़ से ना क़ाबिले इज़्ज़त भी समझे जा सकते थे , मगर यह उन के बेटे मोहम्मद तो अभी बिल्कुल कम सिन हैं। एक बच्चे को बड़े बड़े उलमा , मुवज़्ज़ेज़ीन पर तरजीह देना और इस क़दर इसकी इज़्ज़त करना हर गिज़ ख़लीफ़ा के लिए ज़ेबा नहीं है फिर उम्मे हबीबा का निकाह जो इमाम रज़ा के साथ किया गया था , उससे हम को क्या फ़ायदा पहुँचा जो उम्मे अफ़ज़ल का निकाह मोहम्मद बिन अली के साथ किया जा रहा है।

मामून ने तमाम तक़रीर का यह जवाब दिया कि मोहम्मद कमसिन ज़रूर हैं मगर मैंने ख़ूब अन्दाज़ा कर लिया है , औसाफ़ और कमालात में वह अपने बाप के पूरे जानशीन हैं और आलमे इस्लाम के बडे़ बड़े उलमा जिनका तुम हवाला दे रहे हो वह इल्म में उनका मुक़ाबला नहीं कर सकते। अगर तुम चाहो तो इम्तेहान ले कर देख लो फिर तुम्हे भी फ़ैसले से मुत्तफ़िक़ होना पडे़गा।

यह सिर्फ़ मुन्सेफ़ाना जवाब ही नहीं , बल्कि एक तरह का चैलेन्ज था जिस पर मजबूरन उन लोगों को मनाज़िरा की दावत मंज़ूर करनी पड़ी हालांकि ख़ुद मामून तमाम सलातीन बनी अब्बास में यह ख़ुसूसीयत रखता है कि मोर्वेख़ीन इसके लिये यह अल्फ़ाज़ लिख देते हैं। ‘‘ काना यादा मन कबारल फ़ुक़ाहा ’’ यानी इनका शुमार बड़े बड़े फ़क़ीहों में है। इस लिये इसका फ़ैसला ख़ुद कुछ कम वक़त न रखता था , मगर इन लोगों ने इस पर इक़्तेफ़ा नहीं की बल्कि बग़दाद के सब से बड़े आालिम यहया बिने अक्सम को इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) से बहस के लिये मुन्तख़ब किया। मामून ने एक अज़ीमुश्शान जलसा इस मनाज़िरे के लिये मुनअक़िद किया और आम ऐलान करा दिया। हर शख़्स इस अजीब और बज़ाहिर ग़ैर मुतावाज़िन मुक़ाबले के देखने का मुश्ताक़ हो गया। जिस में एक तरफ़ एक नौ बरस का बच्चा था और दूसरी तरफ़ एक आमूदाकार आरै शोरा ए अफ़ाक़ क़ाज़िउल कुज़्ज़ाज़त। इस का नतीजा था कि हर तरफ़ से ख़लाएक़ का हुजूम हो गया।

मुवर्रेख़ीन का बयान है कि अरकाने दौलत और मोअज़्ज़ेज़ीन के अलावा इस जलसे में नव सौ कुर्सियां फ़क़त उलमा व फ़ुज़ला के लिये मख़सूस थीं और इसमें कोई ताज्जुब भी नहीं इस लिये कि यह ज़माना अब्बासी सलतनत के शबाब और बिल ख़ुसूस इल्मी तरक़्क़ी के ऐतबार से ज़री दौर था और बग़दाद दारूल सलतनत था जहां तमाम अतराफ़े मुख़्तलिफ़ उलूम और फ़ुनून के माहेरीन खिंच कर जमा हो गए थे। इस ऐतबार से यह तादात किसी मुबालग़े पर मुबनी नहीं होती।

मामून ने हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) के लिये अपने पहलू में मसनद बिछवाई थी और हज़रत के सामने यहया बिने अक़सम के लिये बैठने की जगह थी। हर तरफ़ कामिल सन्नाटा था मजमा हमातन चश्म व गोश बना हुआ गुफ़्तुगू शुरू होने के वक़्त का मुन्तज़िर ही था िकइस ख़ामोशी को यहिया के इस सवाल ने तोड़ दिया जो उसने मामून की तरफ़ मुख़ातिब हो कर किया था आप इजाज़त देते हैं मैं आपसे कुछ दरयाफ़्त करूँ।

हज़रत ने फ़रमाया ऐ याहिया ऐ याहिया तुम जो पूछना चाहते हो पूछ सकते हो। यहिया ने कहा यह फ़रमाईये कि हालते एहराम में अगर कोई शख़्स शिकार करे तो इसका क्या हुक्म है ? इस सवाल से अन्दाज़ा होता है कि यहिया हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) की इल्मी पाबन्दी से बिल्कुल वाक़िफ़ न था। वह अपने ग़ुरूरे इल्म और जिहालत से यह समझता था कि यह कमसिन साहब ज़ादे तो हैं ही रोज़मर्रा के रोज़े नमाज़ के मसाएल से वाक़िफ़ हों तो हों। मगर हज वग़ैरा के अहकाम और हालते अहराम में जिन चीज़ों की मुमानियत है उनके कफ़्फ़ारों से भला कहां वाक़िफ़ होंगे।

इमाम (अ.स.) ने इसके जवाब में इस तरह सवाल के गोशों की अलग अलग तहलील फ़रमाई जिससे बग़ैर कोई जवाब अस्ल मसले का दिए हुए आपके इल्म की गहराईयों का यहिया और तमाम अहले महफ़िल को अन्दाज़ा हो गया। यहिया ख़ुद भी अपने को सुबुक पाने लगा और तमाम मजमे को भी इसका सुबुक होना महसूस होने लगा। आपने जवाब में फ़रमाया: यहिया तुमहारा सवाल बिल्कुल मुबहम है और मोहमल है। सवाल के ज़ैल में यह देखने की ज़रूरत है कि शिकार हिल में था कि हरम में। शिकार करने वाला मसले से वाक़िफ़ था या ना वाक़िफ़ था। इसने अमदन जानवर को मार डाला या धोखे से क़त्ल हो गया। या वह शख़्स आज़ाद था या ग़ुलाम , कमसिन था या बालिग़ , पहली मरतबा ऐसा किया था या इसके पहले भी ऐसा कर चुका था। शिकार परिन्द का था या कोई और , छोटा था या बड़ा। वह अपने फ़ेल पर इसरार रखता है या पशेमान है। रात को या पोशीदा तरीक़े पर उसने यह शिकार किया या दिन दहाड़े और एलानियाँ। एहराम उमरे का था या हज का। जब तक यह तमाम तफ़सीलात न बताए जाएं इस मसले का कोई मोअय्यन हुक्म नहीं बताया जा सकता।

यहिया कितना ही नाक़िस क्यों न होता। बहरहाल फ़िक़ही मसाएल पर कुछ उसकी नज़र थी। इन कसीउत्ताए दाद शिक़ों के पैदा ही करने से ख़ूब समझ गया कि उनका मुक़ाबेला मेरे लिए आसान नहीं है उसके चेहरे पर ऐसी शिकस्तगी के आसार पैदा हुए जिनका तमाम देखने वालों ने अन्दाज़ा कर लिया उसकी ज़बान ख़ामोश थी और वह कुछ जवाब न देता था।

मामून उसकी कैफ़ियत का सही अन्दाज़ा कर के उससे कुछ कहना बेकार समझा और हज़रत से अर्ज़ किया कि फिर आप तमाम शिकों के एहकाम बयान फ़रमा दीजिए ताकि हम सब को इस्तेफ़ादे का मौक़ा मिल सके। इमाम (अ.स.) ने तफ़सील के साथ तमाम सूरतो से जुदागाना जो एहकाम थे फ़रमा दिये। आपने फ़रमाया कि ‘‘ अगर एहराम बांधने के बाद ‘‘ हिल ’’ में शिकार करे और वह शिकार परिन्दा हो और बड़ा भी हो तो उस पर कफ़्फ़ारा एक बकरी है और अगर ऐसा शिकार हरम में किया है तो दो बकरियां हैं और अगर किसी छोटे परिन्दे को हिल में शिकार किया है तो दुम्बे का एक बच्चा जो अपनी मां का दूध छोड़ चुका हो। कफ़्फ़ारा देगा , और अगर हरम में शिकार किया हो तो उस परिन्दे की क़ीमत और एक दुम्बा कफ़्फ़ारा देगा और अगर वह शिकार चौपाया हो तो उसकी कई क़िस्में हैं। अगर वह वहशी गधा है तो एक गाय और अगर शुतुरमुर्ग़ है तो एक ऊंट और अगर हिरन है तो एक बकरी कफ़्फ़ारा देगा। यह कफ़्फ़ारा तो जब है कि हिल में शिकार किया हो लेकिन अगर हरम में किया हो तो यही कफ़्फ़ारे दुगने देने होंगे और उन जानवरों को जिन्हें कफ़्फ़ारे में देगा , अगर एहराम उमरे का था तो ख़ाना ए काबा तक पहुँचायेगा और मक्के में क़ुर्बानी करेगा और अहराम हज का था तो मिना में क़ुर्बानी करेगा और इन कफ़्फ़ारों में आलिम व जाहिल दोनों बराबर हैं और इरादे से शिकार करने में कफ़्फ़ारा देने के अलावा गुनाहगार भी होगा। हां भूले से शिकार करने में गुनाह नहीं होगा। और आज़ाद अपना कफ़्फ़ारा ख़ुद देगा और ग़ुलाम का कफ़्फ़ारा उसका मालिक देगा और छोटे बच्चे पर कोई कफ़्फारा नहीं है और बालिग़ पर कफ़्फ़ारा देना वाजिब है और जो शख़्स अपने इस फ़ेल पर नादिम हो आख़ेरत के अज़ाब से बच जायेगा लेकिन अगर इस फ़ेल पर इसरार करेगा तो आख़ेरत में भी इस पर अज़ाब होगा। ’’

यह तफ़सीलात सुन कर यहिया हक्का बक्का रह गया और सारे मजमे से अहसन्त अहसन्त की आवाज़ बुलन्द होने लगी। मामून को भी क़द थी कि वह यहिया की रूसवाई को इन्तेहाई दर्जे तक पहुँचा दे। उसने इमाम से अर्ज़ की कि अगर मुनासिब मालूम हो तो आप यहिया से सवाल फ़रमाएं। हज़रत ने एख़लाकन यहिया से दरियाफ़्त फ़रमाया कि क्या मैं भी तुम से कुछ पूछ सकता हूँ। यहिया अपने मुताअल्लिक़ किसी धोखे में मुब्तिला न था। उसने कहा ‘‘ कि हुज़ूर दरियाफ़्त फ़रमायें ! अगर मुझे मालूम होगा तो अर्ज़ करूगां वरना खुद भी हुज़ूर से मालूम कर लूगां ’’ हज़रत ने सवाल किया।

उस शख़्स के बारे में क्या कहते हो जिसने सुबह को एक औरत की तरफ़ नज़र की वह उस पर हराम थी। दिन चढ़े हलाल हो गई , ग़ुरूबे आफ़ताब पर फिर हराम हो गई। असर के वक़्त फिर हलाल हो गई , आधी रात को हराम हो गई सुबह के वक़्त हलाल हो गई। बताओ एक ही दिन में इतनी दफ़ा वह औरत उस शख़्स पर किस तरह हराम व हलाल होती रही। इमाम (अ.स.) की ज़बाने मोजिज़बयान से इस सवाल को सुन कर क़ाज़िउल क़ुज़्ज़ात यहिया बिन अक़सम मबहूत हो गए और जवाब न दे सके , बिल आखि़र इन्तेहाई आजज़ी के साथ कहा फ़रज़न्दे रसूल आप ही इसकी वज़ाहत फ़रमा दें और मसले को हल कर दें।

इमाम (अ.स.) ने फ़रमाया , सुनो ! वह औरत किसी की लौंड़ी थी। उसकी तरफ़ सुबह के वक़्त एक अजनबी शख़्स ने नज़र की तो वह उसके लिये हराम थी , दिन चढ़े उसने वह लौड़ी ख़रीद ली वह हलाल हो गई। जौहर के वक़्त उसको आज़ाद कर दिया वह हराम हो गई , असर के वक़्त उसने निकाह कर लिया फिर हलाल हो गई , मग़रिब के वक़्त उससे ज़हार किया तो फिर हराम हो गई , इशा के वक़्त ज़हार का कफ़्फ़ारा दे दिया , तो फिर हलाल हो गई , आधी रात को उस शख़्स ने उसको तलाक़े रजई दी , जिससे फिर हराम हो गई और सुबह के वक़्त उस तलाक़ से रूजू कर लिया ‘’ हलाल हो गई ’’

मसले का हल सुन कर सिर्फ़ यहिया ही नहीं बल्कि सारा मजमा हैरान रह गया और सब में मर्सरत की लहर दौड़ गई। मामून को अपनी बात के ऊँचा रहने की ख़ुशी थी , उसने मजमे की तरफ़ मुख़ातिब हो कर कहा मैं न कहता था कि यह वह घराना है जो क़ुदरत की तरफ़ से मालिक क़रार दिया गया है। यहां के बच्चों का भी कोई मुक़ाबला नहीं कर सकता। मजमे में जोशो ख़रोश था सब ने यही एक ज़बान हो कर कहा कि बेशक जो आपकी राय है वह बिल्कुल ठीक है और यक़ीनन अबू जाफ़र मोहम्मद बिने अली (अ.स.) का कोई मिस्ल नहीं है। (सवाऐक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 122 रवाहिल मुस्तफ़ा 191 नूरूल अबसार पृष्ठ 142 शरा इरशाद 478 से 479, तारीख़े आइम्मा 485, सवानह मोहम्मद तक़ी (अ.स.) पृष्ठ 6)

इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) के साथ उम्मे फ़ज़ल का अक़्द और ख़़ुत्बा ए निकाह

इस अज़ीमुश्शान मनाज़रा में इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) की शान दार कामयाबी ने मामून को आपका और गिरवीदा बना दिया , और उसकी मंज़िले एतराफ़ में इन्तेहाई बुलन्दी पैदा हो गई , इसके हर क़िस्म के हुस्ने ज़न में यक़ीन की रूह दौड़ गई।

उलमा लिखते हैं कि ‘‘ मामून ने इसके बाद फ़ौरन ही अपनी दिली मुराद को अमली जामा पहनाने का तहय्या कर लिया और ज़रा भी ताख़ीर मुनासिब न समझते हुए इसी जलसे में इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) ने ख़ुतबा और निकाह पढ़ा और यह तक़रीब पूरी कामयाबी के साथ अन्जाम पज़ीर हुई , मामून ने ख़ुशी में बड़ी फ़य्याज़ी से काम लिया , लाखों रूपए ख़ैरो ख़ैरात में तक़सीम किए गए और तमाम रेआया को इनामात व अतीया के साथ माला माल किया गया। ’’(सफ़र नामा हज व ज़्यारत पृष्ठ 434 प्रकाशित पेशावर 1972 0 )

अल्लामा शेख़ मुफ़ीद और अल्लामा शिब्लंजी लिखते हैं कि हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) ने जो ख़ुत्बा ए निकाह पढ़ा वह यह था। ‘‘ अलहम्दो लिल्लाह अक़रार अब्नाहताह व आलाल्लाहा अख़्लासन लौहदा नैहतेही अलख़. ’’ और जो महर किया वह महरे फ़ातमी मुब्लिग़ पाँच सौ ( 500) दिरहम था।(इरशाद मुफ़ीद पृष्ठ 477 नूरूल अबसार पृष्ठ 146 ) मालूम होना चाहिये इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) ने जो ख़ुत्बा ए निकाह अपनी ज़बाने मुबारक पर जारी किया था वह वही है जो इस वक़्त भी निकाह के मौक़े पर पढ़ा जाता है। मेरी नज़र में इस ख़ुत्बे के होते हुए दूसरे ख़ुत्बे को पढ़ना मुनासिब नहीं है।

अल्लामा शिबलन्जी का बयान है कि हर क़िस्म की ख़ुश्बू की बास में अक़दे निकाह हुआ , और हाज़ेरीन की हलवे से तवाज़ो की गई।(नूरूल अबसार पृष्ठ 146, सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 123 शवाहेदुन नबूवत पृष्ठ 204, रौज़तुल पृष्ठ जिल्द 3 पृष्ठ 17, इरशाद पृष्ठ 477, कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 116 )

अल्लामा शेख़ मुफ़ीद तहरीर फ़रमाते हैं कि शादी के बाद शबे उरूस की सुबह को जहां और लोग हज़रत इमाम मोहम्मद तक़ी (अ.स.) की खि़दमत में मुबारक बाद अदा करने के लिए आए , एक शख़्स मोहम्मद बिन अली हाशमी भी पहुँचे। उनका बयान है कि मुझे दफ़तन सख़्त प्यास महसूस हुई , मैं अभी पासे अदब में पानी मांगने न पाया था कि आपने हुक्म दिया और आबे खुनक आ गया , थोड़ी देर बाद फिर ऐसा ही वाक़ेया दर पेश हुआ। मैं हज़रत के इस इल्मे ज़माएर से बहुत मुताअस्सिर हुआ , और मुझे यक़ीन हो गया कि इमामिया आपके जुमला उलूम में माहिर होने का जो अक़ीदा रखते हैं बिल्कुल दुरूस्त है।(इरशाद पृष्ठ 481 )