चौदह सितारे

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चौदह सितारे लेखक:
कैटिगिरी: शियो का इतिहास

चौदह सितारे

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना नजमुल हसन करारवी
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चौदह सितारे
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चौदह सितारे

चौदह सितारे

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

अमीरल मोमेनीन हज़रत अली ( अ स )

नुसरते दीं है , अली का काम सोते जागते

ख़्वाबो बेदारी है यकसां यह हैं ऐने किरदिगार

इसकी बेदारी की अज़मत को सने हिजरी से पूछ

जिसका सोना बन गया , तारिख़े दीं की यादगार

(साबिर थरयानी , कराची)

मौलूदे काबा हज़रत अली (अ.स.) अबुल ईमान हज़रत अबू तालिब व जनाबे फ़ात्मा बिन्ते असद के बेटे पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मौहम्मद मुस्तफ़ा स. सहीमे नूर , दामाद , भाई , जानशीन और फ़ात्मा स. के शौहर हज़रत इमामे हसन (अ स ) , इमामे हुसैन (अ.स.) ज़ैनबो उम्मे कुलसूम के पदरे बुज़ुर्गवार थे। आप जिस तरह पैग़म्बरे इस्लाम के नूर में शरीक थे , उसी तरह कारे रिसालत में भी शरीक थे। यौमे विलादत से ले कर पूरी जि़न्दगी पेग़म्बरे इस्लाम के साथ उनकी मदद करने में गुज़ारी। उमूरे मम्लेकत हो या मैदाने जंग आप हर मौक़े पर ताज दारे दो आलम के पेश पेश रहे। अहदे रिसालत स. के सही फ़तूहात का सेहरा आप ही के सर रहा। इस्लाम की पहली मंजि़ल दावते ज़ुल अशीरा से ले कर ता विसाले रसूल स. आपने वह कार हाय नुमायां किये जो किसी सूरत में भूलाये नहीं जा सकते और क्यों न हो जब कि आपका गोश्त पोस्त रसूल स. का गोश्त पोस्त था और अली (अ.स.) पैदा ही किये गये थे इस्लाम और पैग़म्बरे इस्लाम के लिये।

आपकी विलादत आपकी नूरी तख़्लीक़ , खि़ल्क़ते सरवरे कायनात के साथ साथ पैदाईशे आलम व आदम (अ.स.) से बहुत पहले हो चुकी थी लेकिन इन्सानी शक्लो सूरत में आपका ज़ुहूर व नमूद 13 रजब 30 आमूल फ़ील , मुताबिक़ 600 ई0 जुमे के दिन बमुक़ामे ख़ानाए काबा हुआ। आपकी मां फ़ात्मा बिन्ते असद और बाप अबू तालिब थे। आप दोनों तरफ़ से हाशमी थे। इतिहासकारों ने आपके ख़ाना ए काबा में पैदा होने के मुताअल्लिक़ कभी कोई इख़्तेलाफ़ जा़हिर न किया बल्कि बिल इत्तेफ़ाक़ कहते हैं कि लम यूलद कि़बलहा वला बादह मौलूद फ़ी बैतुल हराम आप से पहले कोई न ख़ाना ए काबा में पैदा हुआ है न होगा। इसके बारे में उलेमा ने तवातुर का दावा भी किया है।(मुस्तदरिक इमामे हाकिम जिल्द 3 पृष्ठ 483 ) तवारिख़े इस्लाम में वाकि़याए विलादत यूं बयान किया गया है कि फ़ात्मा बिन्ते असद को जब दर्दे ज़ेह की तकलीफ़ महसूस हुई तो आप रसूल करीम के मशवरे के मुताबिक़ ख़ाना ए काबा के क़रीब गईं और उसका तवाफ़ करने के बाद दीवार से टेक लगा कर खड़ी हो गईं और बारगाहे ख़ुदा की तरफ़ मुतावज्जे हो कर अर्ज़ करने लगीं , ख़ुदाया मैं मोमेना हूं तुझे इब्राहीम बानी ए काबा और इस मौलूद का वास्ता जो मेरे पेट में है , मेरी मुशकिल दूर कर दे। अभी दुआ के जुमले ख़त्म न होने पाए थे कि दीवारे काबा शक (टूटना) हो गई और फ़ात्मा बिन्ते असद काबे में दाखि़ल हो गईं और दीवार ज्यों की त्यों हो गई।(मनाकि़ब पृष्ठ 132, वसीलतुन नजात पृष्ठ 60 ) विलादत काबा के अन्दर हुईं। अली (अ.स.) पैदा तो हुए लेकिन उन्होने आंख नहीं खोली। मां समझी की शायद बच्चा बे नूर है , मगर जब तीसरे दिन सरवरे कायनात स. तशरीफ़ लाए और अपनी आग़ोशे मुबारक में लिया तो हज़रत अली (अ.स.) ने आंखे खोल दीं और जमाले रिसालत पर पहली नज़र डाली। सलाम कर के तिलावते सहीफ़ाए आसमानी शुरू कर दी। भाई ने गले लगाया और यह कह कर कि ऐ अली (अ.स.) जब तुम हमारे हो तो मैं तुम्हारा हूं , फ़ौरत मूंह मे ज़बान दे दी। अल्लामा अरबली लिखते हैं वअज़ ज़बाने मुबारक दवाज़दह चश्मए कशूदा शुद ज़बाने रिसालत स. से दहने इमामत में बारह चशमे जारी हो गये और अली (अ.स.) अच्छी तरह सेराब हो गये। इसी लिए इस दिन को यौमुल तरविया कहते हैं क्योंकि तरविया के माने सेराबी के हैं।(कशफ़ुल ग़म्मा पृष्ठ 132 )

अल ग़रज़ हज़रत अली (अ.स.) ख़ाना ए काबा से चौथे रोज़ बाहर लाए गये और उसके दरवाज़े पर अली (अ.स.) के नाम का बोर्ड लगा दिया गया। जो हश्शाम इब्ने अब्दुल मलिक के ज़माने तक लगा रहा। आप पाको पाकीज़ा , तय्यबो ताहिर और मख़्तून (ख़तना शुदा) पैदा हुए। आपने कभी बुत परस्ती नहीं की और आपकी पेशानी कभी बुत के सामने नहीं झुकी इसी लिए आपके नाम के साथ करम अल्लाह वजहा कहा जाता है।(नूरूल अब्सार , पृष्ठ 76, सवाएक़े मोहर्रेक़ा पृष्ठ 72 )

आपके नामे नामी मोवर्रेख़ीन का बयान है कि आपका नाम जनाबे अबू तालिब ने अपने जद्दे आला जामए क़बाएले अरब क़सी के नाम पर ज़ैद और मां फ़ात्मा बिन्ते असद ने अपने बाप के नाम पर असद और सरवरे काएनात स. ने ख़ुदा के नाम पर अली रखा। नाम रखने के बाद अबू तालिब और बिन्ते असद ने कहा हुज़ूर हमने हातिफ़े ग़ैबी से यही नाम सुना था।(रौज़ातुल शोहदा और किफ़ायत अल तालिब)

आपका एक मशहूर नाम हैदर भी है जो आपकी मां का रखा हुआ है। जिसकी तस्दीक़ इस रजज़ से होती है जो आपने मरहब के मुक़ाबले में पढ़ा था। जिसका पहला मिसरा यह है अना अल लज़ी समतनी अमी हैदरा इस नाम के मुताअल्लिक़ रवायतों में है कि जब आप झूले में थे एक दिन मां कही गई हुई थीं झूले पर एक सांप जा चढ़ा , आपने हाथ बढ़ा कर उसके मुँह को पकड़ लिया और कल्ले को चीर फेंका , माँ ने वापस हो कर यह माजरा देखा तो बे साख़्ता कह उठीं , यह मेरा बच्चा हैदर है।

कुन्नीयत व अल्क़ाब आपकी कुन्नीयत व अल्क़ाब बे शुमार हैं। कुन्नीयत में अबुल हसन और अबू तुराब और अल्क़ाब में अमीरूल मोमेनीन , अल मुर्तज़ा , असद उल्लाह , यदुल्लाह , नफ़्सुल्लाह , हैदरे करार , नफ़्से रसूल और साकि़ये कौसर ज़्यादा मशहूर हैं।

आपकी परवरिश

आपकी परवरिश रसूले अकरम स. ने की। पैदा होते ही गोद में लिया , मुँह में ज़बा नदी और दूध के बजाए लोआबे दहने रसूल स. से सेराब हो कर लहमोका लहमी के हक़दार बने।(सहरते हलबीता जिल्द 1 पृष्ठ 268 ) इसी दौरान में जब कि आप सरवरे कायनात के ज़ेरे साया आरज़ी तौर पर परवरिश पा रहे थे मक्के में शदीद कहर पड़ा , अबू तालिब की चूँकि औलादे ज़्यादा थीं इस लिये हज़रते अब्बास और सरवरे कायनात स. उनके पास तशरीफ़ ले गये और उनको राज़ी कर के हज़रत अली (अ.स.) को मुस्तकि़ल तौर पर अपने पास ले आये और अब्बास ने भी जाफ़रे तय्यार को ले लिया। हज़रत अली (अ.स.) सरवरे काएनात स. के पास दिन रात रहने लगे। हुज़ूरे अकरम स. ने तमाम नेमाते इलाही से बहरावर कर लिया और हर कि़स्म की तालीमात से भरपूर बना दिया यहां तक कि अली नामे ख़ुदा क़ुव्वते बाज़ू बन कर यौमे बेसत 27 रजब को कुल्ले ईमान की सूरत में उभरे और हुज़ूर की ताईद कर के इस्लाम का सिक्का बिठा दिया।

इज़हारे ईमान मुसलमानो में अक्सर यह बहस छिड़ जाती है कि सब से पहले इस्लाम कौन लाया और इस सिलसिले में हज़रत अली (अ.स.) का नाम भी आ जाता है हांलाकि आप इस मौजूए बहस से अलग हैं क्योंकि ज़ेरे बहस वह लाये जा सकते हैं जो या तो मुसलमान ही न रहे हों और तमाम उम्र र्शिको बुत परस्ती में गुज़ारी हो जैसे हज़रत अबू बक्र , हज़रत उमर , हज़रत उस्मान वग़ैरा या मुसलमान तो रहें हों और दीने इब्राहीम पर चलते रहें हों लेकिन इस्लाम ज़ाहिर न कर सके हों जैसे हज़रते हमज़ा , हज़रते जाफ़रे तय्यार और अबुल ईमान हज़रत अबू तालिब (अ.स.) वग़ैरा ऐसी सूरत में इन हज़रात के लिये कहा जायेगा कि इस्लाम क़ुबूल किया और बाद वाले ज़ैसे हज़रत अबू तालिब (अ.स.) वग़ैरा के लिये कहा जायेगा कि इसलाम ज़ाहिर किया। अब रह गये हज़रत अली (अ.स.) यह काबा में फि़तरते इस्लाम पर पैदा हुए। कुल्ले मौलूद यूलद अली फि़तरतुल इस्लाम रसूले इस्लाम स. की गोद में आँख खोली , लोआबे दहने रसूल स. से परवरिश पाई , आग़ोशे रिसालत मे पले , बढ़े , दस साल की उम्र में ब वजहे ज़ुरूरत ऐलाने ईमान किया। रसूल स. के दामाद क़रार पाये। मैदाने जंग में कामयाबियां हासिल कर के कुल्ले ईमान बने फिर अमीरूल मोमेनीन के खि़ताब से सरफ़राज़ हुए।

फ़ाजि़ल माअसर तारीख़े आइम्मा में लिखते हैं कि उल्माए मोहक़्क़ेक़ीन ने साफ़ साफ़ लिखा है कि हज़रत अली (अ.स.) तो कभी काफि़र रहे ही नहीं क्योकि आप शुरू से ही हज़रत रसूले ख़ुदा स. की किफ़ालत में इसी तरह रहे जिस तरह खुद हज़रत की औलादें रहती थीं और कुल मामेलात में हज़रत की पैरवी करते थे। इस सबब से इसकी ज़रूरत ही नहीं हुई कि आप को इस्लाम की तरफ़ बुलाया जाता और जिसके बाद कहा जाता कि आप मुसलमान हो जायें।(सिरते हलबिया जिल्द 1 पृष्ठ 269 ) मसूदी कहता है कि आप बचपन ही से रसूल स. के ताबे थे। ख़ुदा ने आपको मासूम बनाया और सीधी राह पर क़ायम रखा। आपके लिये इस्लाम लाने का सवाल ही नहीं पैदा होता।

(मरूजुल ज़हब , जिल्द 5 पृष्ठ 68 )

हज़रत अली (अ.स.) फ़रमाते हैं कि मैंने उस उम्मत में सब से पहले ख़ुदा की इबादत की और सब से पहले आं हज़रत स. के साथ नमाज़ पढ़ी।(इस्तीयाब जिल्द 2 पृष्ठ 472 ) पैग़म्बरे इस्लाम स. फ़रमाते हैं कि हज़रत अली (अ.स.) ने एक सेकेन्ड के लिये भी कुफ्ऱ इख़्तेयार नहीं किया।(सीरते हलबिया जिल्द 1 पृष्ठ 270 )

हुलिया मुबारक

आपका रंग गंदुमी , आखें बड़ी सीने पर बाल , क़द मियाना , दाढ़ी बडी और दोनों शानें कोहनिया और पिंडलियां पुर गोश्त थीं , आपके पांव के पठ्ठे ज़बरदस्त थे शेर के कंधो की तरह आपके कंधों की हड्डियां चौड़ी थीं। आपकी गरदन सुराही दार और आपकी शक्ल बहुत ही ख़ूबसूरत थी। आपके लबों पर मुस्कुराहट खेला करती थी , आप खि़ज़ाब नहीं लगाते थे।

आपकी शादी ख़ाना आबादी आपकी शादी 2 हिजरी में हुज़ूरे अकरम की दुख़्तर नेक अख़तर हज़रत फ़ात्मा ज़हरा स. से हुई। आपके घर में लौंडी , ग़ुलाम और खि़दमतगार न थे। बाहर का काम आप खुद और आपकी वालेदा मोहतरमा करती थीं और उमूरे ख़ाना दारी के फ़राएज़ जनाबे फ़ात्मा ज़हरा स. अंजाम देती थीं , हो सकता है कि यह रिश्ता आम रिश्तों की हैसियत से देखा जाए , लेकिन दर हक़ीक़त इसमें एक अहम क़ुदरती राज़ छुपा हुआ है और उसका खुलासा इस तरह हो सकता है कि इस पर ग़ौर किया जाए कि हुज़ूरे अकरम स. का इरशाद है कि , अली (अ.स.) के अलावा फ़ात्मा स. का सारी दुनियां में रहती दुनियां तक कफ़ो नहीं हो सकता।(नूरूल अनवार) फिर फ़रमाते हैं कि मुझे ख़ुदा ने हुक्म दिया है कि मैं फ़ात्मा स. की शादी अली (अ.स.) से करूं और इसी सिलसिले में इरशाद फ़रमाते हैं कि हर नबी की नस्ल उसके सुल्ब से होती है लेकिन मेरी नस्ल सुल्बे अली से क़रार दी गयी है।(सवाएक़े मोहर्रेक़ा , पृष्ठ 74 ) इनत माम अक़वाल को मिलाने के बाद यह नतीजा निकलता है कि अली (अ.स.) और फ़ात्मा स. का रिैश्ता नस्ले नबूवत की बक़ा और दवाम के लिये क़ायम किया गया है। यही वजह है कि लोग पैग़ामे रिश्ता दे कर कामयाब नहीं हो सके। जिनकी बुनियाद नजासते कुफ़्र पर इस्तेवार हुई और जिनकी इन्तेहा गन्दगिऐ निफ़ाक़ पर हुई।

सरदारी और सयादते अली (अ.स.) की सिफ़ते ज़ाती हैं सरवरे कायनात स. से इत्तेहादे ज़ाती और इश्तेराके नूरी की बिना पर हज़रत अली (अ.स.) की सयादत मुसल्लम है जो मदाररिजे करम हुज़ूरे अकरम स. को नसीम हुए उन्हीं से मिलते जुलते हज़रत अली (अ.स.) को भी मिले। सयादत जिस तरह सरवरे कायनात स. के लिये ज़ाती है उसी तरह हज़रत अली (अ.स.) के लिये भी है। हाफि़ज़ अबू नईम ने हुलयतुल औलिया में लिखा है कि ग़दीर के मौक़े पर ख़ुतबे से फ़राग़त के बाद जब अमीरूल मोमिनीन हुज़ूरे अकरम स. के सामने आये तो आपने फ़रमायाः ऐ मुसलमानों के सरदार और ऐ परहेज़गारों के इमाम तुम्हें जानशीनीं मुबारक हो। इस इरशादे रसूल स. पर इज़हारे ख्याल करते हुए अल्लामा मौहम्मद इब्ने तल्हा शाफ़ेई ने मुतालेबुल सुऊल में लिखा है कि हज़रत की सयादते मुसलेमीन और इमामत मुत्तक़ीन जिस तरह सिफ़ते ज़ाती हैं। खुदा ने अपना नफ़्स क़रार दे कर , रसूल स. ने अपना नफ़्स फ़रमा कर अली (अ.स.) की शरफ़े सयादत को बामे ऊरूज पर पहुंचा दिया क्योकि जिस तरह असलिये नबविया में नफ़से नबूवत मशारिक है , उसी तरह असलिये सयादत में भी नफ़्स शरीक है। इस लिये हुज़ूरे अकरम स. हज़रत अली (अ.स.) को सय्यदुल अरब , सय्यदुल मोमेनीन , सय्यदुल मुसलेमीन फ़रमाया करते थे।(मतालिबुल सवेल , पृष्ठ 56, 57 ) और हज़रत फ़ात्मा स. को सय्यदुन्निसां अल आलेमीन और उनको फ़रज़न्दों को सय्यदे शबाबे अहले जन्ना के अलफ़ाज़ से याद किया करते थे , मालूम होना चाहिये कि अली (अ.स.) और फ़ात्मा स. की बाहमी मनाकहत व मज़ावेहत (शादी) ने सिफ़ते सयादत को दायमी फ़रोग़ दे दिया यानी जो बनी फ़ात्मा स. हैं उनका दरजा और है और जो दीगर औलादे अली (अ.स.) हैं जो बतने फ़ात्मा स. (फ़ात्मा स. के पेट) से पैदा नहीं हुए उनकी हैसियत और है क्यों कि बनी फ़ात्मा सिलसिलाए नस्ले नबूवत की ज़मानत हैं।

माँ की वफ़ात

आपकी वालेदा माजेदा जनाबे फ़ात्मा बिन्ते असद ने 1 बेसत में इज़्हारे इस्लाम किया। आप 1 हिजरी में शरफ़े हिजरत से मुशर्रफ़ हुईं। 2 हिजरी में आपने अपने नूरे नज़र को रसूल स. की लख़्ते जिगर से बियाह दिया और 4 हिजरी में इन्तेक़ाल फ़रमा गईं। आपकी वफ़ात से हज़रत अली (अ.स.) बेहद मुताअस्सिर हुए और आपसे ज़्यादा रसूले अकरम स. को रन्ज हुआ। रसूले करीम स. हज़रत अली (अ.स.) की वालेदा को अपनी माँ फ़रमाते थे और उनके वहां जा कर रहते थे। इन्तेक़ाल के बाद आपने क़ब्र खोदने में ख़ुद हिस्सा लिया। अपनी चादर और अपने कुरते को शरीके कफ़न किया और क़ब्र में लेट कर उसकी कुशदगी का अन्दाज़ा किया।

(कंज़ुल आमाल जिल्द 6 पृष्ठ 7, फ़ुसूले महमा , पृष्ठ 15 व असाबा जिल्द 8 पृष्ठ 160 व अज़ालतूल ख़फ़ा जिल्द 1 पृष्ठ 215 )

आपके वालिदे माजिद का इन्तेक़ाल

आपके वालिदे माजिद अबुल ईमान हज़रत अबू तालिब (अ.स.) 535 ई0 में बमक़ामे मक्का पैदा हुए और वहीं पले बढ़े , आपकी बुनियाद दीने फि़तरत पर थी।(उमहातुल आइम्मता पृष्ठ 143 ) आपने हज़रत अली (अ.स.) को हिदायत की थी कि रसूल स. का साथ न छोड़ना।(तारीख़े कामिल , जिल्द पृष्ठ 60 ) आप ही की हिदायत से हज़रत जाफ़रे तय्यार ने हुज़ूरे अकरम स. के पीछे नमाज़ पढ़ना शुरू की थी।

(असाबा जिल्द 7 पृष्ठ 113 )

हज़रत अब्दुल मुत्तालिब के इन्तेक़ाल के वक़्त 578 ई0 में जब कि रसूले करीम स. की उम्र आठ साल की थी , आपने उनकी परवरिश अपने जि़म्मे ले ली और 45 साल की उम्र तक महवे खि़दमत रहे। इसी उम्र में ग़ालेबन 594 ई0 में आपने रसूले करीम स. की शादी जनाबे ख़दीजा के साथ कर दी औ ख़ुतबाए निकाह ख़ुद पढ़ा।

(असनिल मतालिब पृष्ठ 34, मिस्र में छपी , तारीख़े ख़मीस मोवाहेबुल दुनिया)

आपका इन्तेक़ाल 15 शव्वाल 10 बेसत में 80 साल की उम्र में हुआ। आपके इन्तेक़ाल से हज़रत अली (अ.स.) को बेइन्तेहा रंज हुआ और रसूल अल्लाह स. भी बे हद मुताअस्सिर हुए। आपने इन्तेहाई ताअस्सुर की वजह से इस साल का नाम आमुलहुज़्न रखा। हज़रत अबू तालिब को इस्लामी उसूल पर दफ़न किया गया।

(तारीख़े ख़मीस , सीरते हलबिया)

हज़रत अली (अ.स.) के जंगी कारनामे

उलेमा का इत्तेफ़ाक है कि इल्म और शुजाअत इकठ्ठा नहीं हो सकते लेकिन हज़रत अली (अ.स.) की ज़ात ने इसे वाज़े कर दिया कि मैदाने इल्म और मैदाने जंग दोनों पर क़ाबू किया जा सकता है बशरते इन्सान में वही सलाहियतें हों जो कु़दरत की तरफ़ से हज़रत अली (अ.स.) को मिली थीं। 2 हिजरी से ले कर अहदे वफ़ाते पैग़म्बरे इस्लाम तक नज़र डाली जाय तो अली (अ.स.) के जंगी कारनामे अवराक़े तारीख़े पर नज़र आयेंगे। जंगे ओहद हो या जंगे बद्र , जंगे ख़ैबर हो या जंगे ख़न्दक़ , जंगे हुनैन या कोई और मारेका हर मन्जि़ल में हर मौकि़फ़ पर अली (अ.स.) की ज़ुल्फि़क़ार चमकती हुई दिखाई देती है। तारीख़ शाहिद है कि अली (अ.स.) के मुक़ाबले में कोई बहादुर टिका ही नहीं। आपकी तलवार ने मरहब , अन्तर , हारिस व उम्रो बिन अब्दवुद जैसे बहादुरों को दमे ज़दन में फ़ना के घाट उतार दिया। (जंग के वाकि़यात गुज़र चुके हैं) याद रखना चाहिये कि अली (अ.स.) से मुक़ाबला जिस तरह इन्सान नहीं कर सकते थे , उसी तरह जिन भी आपसे नहीं लड़ सकते थे।

जंगे बेरूल अलम

मनाकि़ब इब्ने आशोब जिल्द 2 पृष्ठ 90 व कनज़ुल वाएज़ीन मुलला सालेह बरग़ानी में बा हवाला , इमामुल मोहक़्क़ेक़ीन अलहाज मौहम्मद तक़ी अल क़रदीनी बतवस्सुल हज़रत इमाम हसन असकरी (अ.स.) व अबू सईद ख़दरी व हुज़ैफ़ा यमानी लिखते हैं कि रसूले ख़ुदा स. जंगे सिकारसिक से वापसी में एक उजाड़ वादी से गुज़रें आपने पूछा यह कौन सा मका़म है , उम्र बिन अमिया ज़मरी ने कहा इसे वादी कसीबे अरज़क़ कहते हैं। इस जगह एक कुआं है जिसमें वह जिन रहते हैं जिन पर जनाबे सुलैमान (अ.स.) को क़ाबू नहीं हासिल हो सका। इधर से तेग़े यमानी गुज़रा था उसके दस हज़ार सिपाही इन्हीं जिनों ने मार डाले थे। आपने फ़रमाया कि अगर ऐसा है तो फिर यही ठहर जाओ। काफि़ला ठहरा , आपने फ़रमाया दस आदमी जा कर जिनों के कुऐं से पानी लायें। जब यह लोग कुएं के पास पहुँचे तो एक ज़बरदस्त इफ़रीयत बरामद हुआ और उसने एक ज़बरदस्त आवाज़ दी। सारा जंगल आग का बन गया। धरती कांपने लगी , सब सहाबी भाग निकले लेकिन अबुल आस सहाबी पीछे हटने के बजाए आगे बढ़े। और थोड़ी देर में जंगल जल कर राख हो गये। इतने में जिब्रईल नाजि़ल हुए और उन्होंने सरवरे कायनात स. से कहा कि किसी और को भेजने के बजाय आप अलम दे कर अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) को भेजिये। अली (अ.स.) रवाना हुए , रसूल स. ने दस्ते दुआ बलन्द किया , अली (अ.स.) पहुँचे इफ़रीयत बरामद हुआ और बड़े ग़ुस्से में रजज़ पढ़ने लगा। आपने फ़रमाया मैं अली इब्ने अबी तालिब हूँ। मेरा शेवा मेरा अमल सरकशों की सर कोबी है। यह सुन कर उसने आप पर ज़बरदस्त करतबी हमला किया। आप ने वार ख़ाली दे कर उसे ज़ुल्फि़क़ार से दो टुकड़े कर डाला। उसके बाद आग के शोले और धुएं के तूफ़ान कुऐं से बरामद हुए और ज़बरदस्त शोर मचा और बेशुमार डरावनी शक्लें सामने आ गईं , अली (अ.स.) ने बरदन व सलामन कहा और चन्द आयतें पढ़ीं। आग बुझने लगी धुवां हवा होने लगा। हज़रत अली (अ.स.) कुऐं की जगत पर चढ़ गए , और डोल डाल दिया। कुऐं से डोल बाहर फ़ेंक दिया। हज़रत अली (अ.स.) ने रजज़ पढ़ा और कहा मुक़ाबले के लिये आ जाओ। यह सुन कर एक इफ़रीयत बरामद हुआ। आपने उसे क़त्ल किया , फिर कुऐं में डोल डाला वह भी बाहर फेक दिया गया , ग़रज़ कि इसी तरह तीन बार हुआ। आखि़र में आपने असहाब से कहा कि मैं कमर में रस्सी बांध कर कुएं में उतरता हूँ , तुम रस्सी पकड़े रहो। असहाब ने रस्सी पकड़ ली और अली (अ.स.) कुएं में उतरे , थोड़ी देर बाद रस्सी कट गई और अली (अ.स.) और असहाब के बीच रिश्ता टूट गया। असहाब बहुत परेशान हुए और रोने लगे। इतने में कुऐ से चीख़ पुकार की आवाज़ें आने लगीं। उसके बाद यह सदा आईः अली हमें पनाह दो। आपने फ़रमाया क़ता व बुरीद और ज़रबे शदीद कलमें पर मौकूफ़ है। कलमा पढ़ो , अमान लो। ग़रज़ की कलमा पढ़ा गया। इसके बाद रस्सी डाली गई और अमीरूल मोमेनीन 20,000 (बीस हज़ार) जिनों को क़त्ल कर के और 24,000 (चौबीस हज़ार) क़बाएल को मुसलमान बना कर कुऐं से बाहर आये। असहाब ने ख़ुशी का इज़हार किया और सब के सब आं हज़रत स. की खि़दमत में हाजि़र हुए। हुज़ूरे अकरम स. ने अली (अ.स.) को सीने से लगाया , उनकी पेशानी का बोसा दिया और मुबारकबाद से हिम्मद अफ़ज़ाई फ़रमाई। फिर एक रात क़याम के बाद मदीने को रवानगी हुई।(अद्दमतुस् साकेबा पृष्ठ 176 ईरान में छपी व शवाहेदुन नबूवत अल्लामा जामी रूक्न 6 पृष्ठ 165, लखनऊ में 1920 0 में छपी)

इस्लाम पर अली (अ.स.) के एहसानात

इस्लाम पर अली (अ.स.) के एहसानात की फ़हरीस्त इतनी मुख़्तसर नहीं है कि हम उसे इस मुख़्तसर मजमूए हालात में लिख सकें। ताहम मुश्ते अज़ ख़र दारे लिख देते हैं।

1. दावते ज़ुलअशीरा के मौक़े पर जिस जगह रसूले अकरम स. को तक़रीर करने का मौक़ा नहीं मिल रहा था। आपने ऐसी जुर्रत और हिम्मत का मुज़ाहेरा किया के पैग़म्बरे इस्लाम स. कामयाब हो गये और आपने इस्लाम का डंका बजा दिया।

2. शबे हिजरत फ़र्शे रसूल स. पर सो कर इस्लाम की किस्मत बेदार कर दी और जान जोखम में डाल कर ग़ार में तीन रोज़ खाना पहुँचाया।

3. जंगे बद्र में जबकि मुसलमान सिर्फ़ 313 (तीन सौ तेरह) और कुफ़्फ़ार बेशुमार थे। आपने कमाले जुर्रत और हिम्मत से कामयाबी हासिल की।

4. जंगे ओहद में जब कि मुसलमान सरवरे आलम स. को मैदाने जंग में छोड़ कर भाग गये थे , उस वक़्त आप ही ने रसूले अकरम स. की जान बचाइ और इस्लाम की इज़्जत महफ़ूज़ कर ली थी।

5. कुफ़्फ़ार जिनके दिलों में बदले की आग भड़क रही थी , उमरो बिल अब्द वुद जैसे बहादुर को ले कर मैदान में आ पहुँचे और इस्लाम को चौलेंज कर दिया। पैग़म्बरे इस्लाम स. परेशान थे , और मुसलमानों को बार बार उभार रहे थे कि मुक़ाबले के लिये निकलें लेकिन अली (अ.स.) के अलावा किसी ने हिम्मत न की। आखि़र कार रसूल अल्लाह स. को कहना पड़ा कि आज अली (अ.स.) की एक ज़रबत इबादते सक़लैन से बेहतर है।

6. इसी तरह ख़ैबर में कामयाबी हासिल कर के आपने इस्लाम पर एहसान फ़रमाया।

7. मेरे ख्याल के मुताबिक़ हज़रत अली (अ.स.) का इस्लाम पर सब से बड़ा एहसान यह था कि , वफ़ाते रसूल स. के बाद दुख भरे वाके़यात और जान लेवा हालात के बावजूद आपने तलवार नहीं उठाई वरना इस्लाम मंजि़ले अव्वल पर ही ख़त्म हो जाता।

दुनिया हज़रत अली (अ.स.) की निगाह में

यह एक मुसल्लेमा हक़ीक़त है कि हज़रत अली (अ.स.) दुनिया और दुनिया के कामों से हद दरजा बेज़ार थे। आपने दुनिया को मुख़ातिब कर के बारह कहा कि ऐ दुनिया जा मेरे अलावा और किसी को धोखा दे। मैंने तुझे तलाक़े बाइन दे दी है जिसके बाद रूजु करने का सवाल ही पैदा नहीं होता। इब्ने तल्हा शाफ़ेई लिखते हैं कि , एक दिन हज़रत अली (अ.स.) ने जाबिर इब्ने अब्दुल्लाह अन्सारी को लम्बी लम्बी सांस लेते हुए देखा तो पूछा ऐ जाबिर क्या यह तुम्हारी ठंडी ठंडी सांस दुनिया के लिये है ? अर्ज़ की मौला , है। तो ऐसा ही आपने फ़रमाया। जाबिर सुनो इन्सान की जि़न्दगी का दारो मदार सात चीज़ो पर है और यही सात चीज़ें वह हैं जिन पर लज़्ज़तों का ख़ातमा है , जिनकी तफ़सील यह है 1. खाने वाली चीज़ें , 2. पीने वाली चीज़ें , 3. पहन्ने वाली चीज़ें , 4. लज़्ज़्ते निकाह वाली चीज़ें , 5. सवारी वाली चीज़ें , 6. सूंघने वाली चीज़ें 7. सुन्ने वाली चीज़ें।

ऐ जाबिर , अब इनकी हक़ीक़तों पर गौ़र करो। खाने में बेहतरीन चीज़ शहद है , यह मख्खी का लोआबे दहन (थूक) है और बेहतरीन पीने की चीज़ पानी है , यह ज़मीन पर मारा मारा फिरता है। बेहतरीन पहनने की चीज़ दीबाज़ है , यह कीड़े का लोआब है और बेहतरीन मन्क़ूहात औरत है जिसकी हद यह है कि पेशाब का मक़ाम पेशाब के मक़ाम में होता है , दुनिया इसकी जिस चीज़ को अच्छी निगाह से देखती है वह वही है जो उसके जिस्म में सब से गंदी है। और बेहतरीन सवारी की चीज़ घोड़ा है जो क़त्लो कि़ताल का मरकज़ है और बेहतरीन सूंघने की चीज़ मुश्क है जो एक जानवर के नाफ़ का सूखा हुआ ख़ून है। और बेहतरीन सुनने की चीज़ गि़ना (गाना) है जो बहुत बड़ा गुनाह है। ऐ जाबिर ऐसी चीज़ों के लिये आकि़ल क्यो ठंडी सांस ले ? जाबिर कहते हैं कि इस इरशाद के बाद मैंने कभी दुनिया का ख़्याल तक न किया।

(मतालेबुल सूउल , पृष्ठ 191 )

कसबे हलाल की जद्दो जहद

आपके नज़दीक कसबे हलाल बेहतरीन सिफ़त थी। जिस पर आप खुद भी अमल पैरा थे। आप रोज़ी कमाने को ऐब नहीं समझते थे और मज़दूरी को बहुत ही अच्छी निगाह से देखते थे। मोहद्दिस देहलवी का बयान है कि हज़रत अली (अ.स.) ने एक दफ़ा कुएं से पानी खींचने की मज़दूरी की और उजरत के लिये फ़ी डोल एक ख़ुरमे का फ़ैसला हुआ। आपने 16 डोल पानी के खींचे और उजरत ले कर सरवरे कायनात स. की खिदमत में हाजि़र हुए और दोनों ने मिल कर तनावुल (खाया) फ़रमाया। इसी तरह आपने मिट्टी खोदने और बाग़ में पानी देने की भी मज़दूरी की है। अल्लामा मुहिब तबरी का बयान है कि , एक दिन हज़रत अली (अ.स.) ने बाग़ सींचने की मज़दूरी की और रात भर पानी देने के लिये जौ की एक मिक़दार (मात्रा) तय हुई। आपने फ़ैसले के अनुसार सारी रात पानी दे कर सुबह की और जौ (एक प्रकार का अनाज) हासिल कर के आप घर तशरीफ़ लाये। जौ फ़ात्मा ज़हरा स. के हवाले किये। उन्होंने उस के तीन हिस्से कर डाले और तीन दिन के लिये अलग अलग रख लिया। इसके बाद एक हिस्से को पीस कर शाम के वक़्त रोटियां पकाईं इतने में एक यतीम आ गया , और उसने मांग लीं। फिर दूसरे दिन रोटियां तय्यार की गईं , आज मिस्कीन ने सवाल किया , और सब रोटियां दे दी गईं , फिर तीसरे दिन रोटियां तय्यार हुईं आज फ़कीर ने आवाज़ दी , और सब रोटियां फ़कीर को दे दी गईं। अली (अ.स.) और उनके घर वाले तीनों दिन भूखे ही रहे। इसके इनाम में ख़ुदा ने सूरा हल अताः नाजि़ल फ़रमाया(रियाज़ुन नज़रा जिल्द 2 पृष्ठ 237 ) बाज़ रवायत में है कि सूरा हल अता के बारे में इसके अलावा दूसरे अन्दाज़ का वाके़या मिलता है।

हज़रत अली (अ.स.) अख़लाक़ के मैदान में

आप बहुत ही ख़ुश अख़लाक़ थे। उलेमा ने लिखा है कि आप रौशन रू और कुशादा पेशानी रहा करते थे। यतीम नवाज़ थे। फ़़कीरों में बैठ कर ख़ुशी महसूस करते थे। मोमिनों में अपने को हक़ीर और दुश्मनों में अपने को बा रोब रखते थे। मेहमानों की खि़दमत खुद किया करते थे। कारे ख़ैर में सबक़त करते थे। जंग में दौड़ कर शामिल होते थे। हर मुस्तहक़ की इमादाद करते थे। हर काफि़र के क़त्ल पर तकबीर कहते थे। जंग में आपकी आंखे ख़ून के मानन्द होती थीं। इबादत खाने में इन्तेहाई ख़ुज़ु व ख़ुशु की वजह से बेहिस मालूम होते थे। हर रात को वह हज़ार रकअत नवाफि़ल अदा करते थे। अपने बाल बच्चों के साथ घर के कामां में मदद करते थे। घर में इस्तेमाल होने वाला सारा सामान ख़ुद बाज़ार से ख़रीद कर लाते थे। अपने कपड़ों में ख़ुद पेवन्द लगाते थे। अपनी और रसूले अकरम स. की जूती ख़ुद टांकते थे। हर रोज़ दुनिया को तीन तलाक़ देते थे। वह ग़ुलाम अपनी मज़दूरी से ख़ुद ख़रीद कर आज़ाद करते थे।(जन्नातुल ख़ुलूद) किताब अरजहुल मतालिब पृष्ठ 201 में है कि हज़रत अली (अ.स.) हुज़ूरे अकरम स. की तरह कुशादा हंसने वाले और ख़ुश तबआ थे और मिज़ाह (मज़ाक़) भी फ़रमाया करते थे।

हज़रत अली (अ.स.) ख़ल्लाक़े आलम की नज़र में

1. ख़ल्लाक़े आलम ने खि़लक़ते कायनात से पहले नूरे अलवी को नूरे नब्वी स. के साथ पैदा किया।

2. फिर मसजूदे मलाएक क़रार दिया।

3. फिर जिब्राईल का उस्ताद बनाया।

4. फिर अम्बिया के साथ अपनी तरफ़ से मददगार बना कर भेजा।(हदीसे क़ुदसी व मदीनतुल मगा़हिज़ पृष्ठ 19 ईरान में छपी)

5. अपने मख़सूस घर , ख़ाना ए काबा में अली (अ.स.) को पैदा किया।

6. इस्मत से बहरावर फ़रमाया।

7. आपकी मोहब्बत दुनिया वालों पर वाजिब क़रार दी।

8. रसूले अकरम स. का खुद जां नशीन बनाया।

9. मेराज में अपने हबीब से उन्हीं के लहजे में कलाम किया।

10. हर इस्लामी जंग में उनकी मदद की।

11. आसमान से अली (अ.स.) के लिये ज़ुल्फि़क़ार नाजि़ल फ़रमाई।

12. अली (अ.स.) को अपना नफ़्स क़रार दिया।

13. इल्मे लदुन्नि से मुम्ताज़ किया।

14. फ़ात्मा स. के साथ अक़्द का खुद हुक्म दिया।

15. मुबल्लिग़े सूरा ए बराअत बनाया।

16. मदहे अली (अ.स.) में कसीर (काफ़ी तादाद में) आयात नाजि़ल फ़रमाईं।

17. अली (अ.स.) ने इन्तेहाई सबरो ज़ब्त दे कर रसूल स. के बाद फ़ौरी तलवार उठाने से रोका।

18. उनकी नस्ल से क़यामत तक के लिये इमामत क़रार दी।

19. क़सीम अल नारो जन्नतः बनाया (जन्नत और दौज़ख़ को बांटने वाला)।

20. लवाएल हम्द का मालिक बनाया।

21. और साकि़ये कौसर क़रार दिया।

अली (अ.स.) की शान में मशहूर आयात

1. आयए तत्हीर 2. आयए सालेह अल मोमेनीन 3. आयए विलायत 4. आयए मुबाहेला 5. आयए नजवा 6. इज़्ने वायता 7. आयए अतआम 8. आयए बल्लिग़ , तफ़सील के मुलाहेज़ा हों रूह अल क़ुरआन , मोअल्लेफ़ा हक़ीर लाहौर में छपा।

हज़रत अली (अ.स.) रसूले ख़ुदा की निगाह में

1. फ़ख़रे मौजूदात हज़रत मौहम्मद मुस्तफ़ा स. ने अली (अ.स.) के काबा में पैदा होते ही मुँह में अपनी ज़बान दी।

2. अली (अ.स.) को अपना लोआबे दहन चूसाया।

3. परवरिश व परदाख़्त खुद की।

4. दावते ज़ुलअशीरा के मौक़े पर जब कि अली (अ.स.) की उम्र 10 या 14 साल की थी।

5. दामादी का शरफ़ बख़्शा।

6. बुत शिकनी के वक़्त अली (अ.स.) को अपने कन्धों पर सवार किया।

7. जंगे खन्दक़ में आपके कुल्ले ईमान होने की तस्दीक़ की।

8. इल्मो हिक्मत से बहरा वर किया।

9. अमीरूल मोमेनीन का खि़ताब दिया।

10. आपकी मोहब्बत ईमान और आपका बुग़्ज़ कुफ्र क़रार दिया।

11. अली (अ.स.) को अपना नफ़्स क़रार दिया।

12. शबे हिजरत आपने अपने बिस्तर पर जगह दी।

13. आप पर भरोसा कर के फ़रमाया कि अमानतें वग़ैरा तुम अदा करना।

14. अली (अ.स.) को मख़सूस क़रार दिया कि वह ग़ार मे खाना पहुँचाएं।

15. 18 जि़ल्हिज को आपकी खि़लाफ़त का 1,24,000 (एक लाख चौबीस हज़ार) असहाब के मजमे में ग़दीर ख़ुम के मक़ाम पर एलान फ़रमाया।

16. वफ़ात के करीब जांनशीनी की दस्तावेज़ लिखने की कोशिश की।

17. आपकी मदहो सना में बेशुमार अहादीस फ़रमाईं।

18. आपको हुक्म दिया कि मेरे बाद फ़ौरी जंग न करना।

19. मौक़ा हाथ आने पर मुनाफि़क़ों से जंग करना ताके हुक्मे खुदा जाहद अल कुफ़्फ़ा रवल मुनाफ़ेक़ीन की तकमील हो सके जो कि मेरे लिये है।

अली (अ.स.) की शान में मशहूर अहादीस

1. हदीसे मदीने , 2. हदीसे सफ़ीना , 3. हदीसे नूर , 4. हदीसे मन्जि़लत 5. हदीसे ख़ैबर 6. हदसे खन्दक़ , 7. हदीसे तैर , 8. हदीसे सक़लैन , 9. हदीसे ग़दीर।

(तफ़सील के लिये अब्क़ातुल अनवार मुलाहेज़ा हो)

नक़्शे ख़ातमे रसूल स. और अली वली अल्लाह

इमामुल मोहद्देसीन अल्लामा मौहम्मद बाक़िर मजलिसी , अल्लामा मौहम्मद बाक़र नजफ़ी , अल्लामा शेख़ अब्बास क़ुम्मी तहरीर फ़रमाते हैं कि रसूले करीम स. हज़रत अली (अ.स.) को एक नगीना दे कर मोहर कुन (नगीने पर नक़्श बनाने वाले) के पास जो अंगूठियों के नगीनों पर कन्दा करता था भेजा और फ़रमाया कि इस पर मौहम्मद बिन अब्दुल्ला कन्दा करा लाओ। हज़रत अली (अ.स.) ने उसे कन्दा करने वाले को दे कर इरशादे रसूल स. के मुताबिक़ हिदायत कर दी। अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) जब शाम के वक़्त उसे लाने के लिये गये तो उस पर मौहम्मद बिन अब्दुल्ला के बजाय मौहम्मद रसूल अल्लाह कन्दा था। हज़रत ने फ़रमाया कि मैंने जो इबारत बताई थी तुमने वह क्यो न कन्दा की। कन्दा करने वाले ने अर्ज़ की मौला , आप इसे हुज़ूर के पास ले जाइये फिर वह जैसा इरशाद फ़रमाऐगें वैसा किया जाऐगा। हज़रत ने उसे क़ुबूल फ़रमा लिया। रात गुज़री , सुबह के वक़्त वजू़ करते हुए देखा कि इस पर मौहम्मद रसूल अल्लाह स. के नीचे अली वली अल्लाह कन्दा है। आप इस पर ग़ौर फ़रमा रहे थे कि जिब्राईल अमीन ने हाजि़र हो कर अर्ज़ कि हुज़ूर फ़रमाया गया है कि ऐ नबी। जो तुमने चाहा तुमने लिखवाया , जो मैने चाहा मैंने लिखवा दिया। तुम्हें इसमें तरदुद क्या है।

(बेहारूल अनवार , दमए साकेबा , सफ़ीनतुल बेहार , लिल्द 1 पृष्ठ 376 नजफ़े अशरफ़ में छपी)

नियाबते रसूल (स अ . व . व . )

हर अक़्ले सलीम यह करने पर मजबूर है कि मनीब व मनाब में तवाफ़ुक़ होना चाहिये। यानी जो सिफ़ात नाएब बनाने वाले में हो , उसी कि़स्म की सिफ़तें नाएब बनने वाले में भी होनी चाहिये। अगर नाएब बनाने वाला नूर से पैदा हो तो जां नशीन को भी नूरी होना चाहिये। अगर वह मासूम हो तो , उसे भी मासूम होना चाहिये। अगर उसे ख़ुदा ने बनाया हो तो , उसे भी ख़ुदा के हुक्म से ही बनाया गया हो। हज़रत अली (अ.स.) हज़रत मौहम्मद मुस्तफ़ा के जां नशीन थे , लिहाज़ा उनमें नब्वी का सिफ़ात का होना ज़रूरी था। यही वजह है कि जिन सिफ़ात के हामिल सरवरे कायनात थे , उन्हीं सिफ़ात से हज़रत अली (अ.स.) भी बहरावर थे।

जानशीन बनाने का हक़ सिर्फ़ ख़ुदा को है क़ुरआने मजीद के पारा 20 , रूकू 7 - 10 में ब सराहत मौजूद है कि ख़लीफ़ा और जानशीन बनाने का हक़ सिर्फ़ ख़ुदा वन्दे करीम को है। यही वजह है कि उसने तमाम अम्बिया का तक़र्रूर खुद किया और उनके जांनशीन को खुद मुक़र्रर कराया , अपने किसी नबी तक को यह हक़ नहीं दिया विह बतौर खुद अपना जांनशीन मुक़र्रर कर दे। न कि उम्मत को इख़्तेयार देना कि इजमा से काम ले कर मन्सबे इलाहिया पर किसी को फ़ाएज़ कर दे। और यह हो भी नहीं सकता था क्योंकि तमाम उम्मत ख़ताकार है। ख़ताकारों का इजमा न सवाब बन सकता है और न खातियों का मजमूआ मासूम हो सकता है और जांनशीने रसूल स. का मासूम होना इस लिये ज़रूरी है कि रसूल मासूम थे। यही वजह है कि खुदा ने रसूले करीम स. का जांनशीन हज़रत अली (अ.स.) और उनकी 11 (ग्यारह) औलाद को मुक़र्रर फ़रमाया।(यनाबिउल मोअद्दता पृष्ठ 93 ) जिसकी संगे बुनियाद दावते ज़ुलअशीरा के मौक़े पर रखा और आयते विलायत और वाकि़ए तबूक़(सही मुस्लिम जिल्द 2 पृष्ठ 272 ) से इस्तेहकाम पैदा किया। फिर इज़ा फ़रग़ता फ़ननसब से हुक्मे निफ़ाज़ का फ़रमान जारी फ़रमाया और आयए बल्लिग़ के ज़रिये से ऐलाने आम का हुक्म नाफि़ज़ फ़रमाया।

चुनांचे रसूले करीम स. ने यौमे जुमा 18 जि़ल्हिज्जा 10 हिजरी को बामुक़ामे ग़दीर ख़ुम एक लाख चौबीस हज़ार (1,24,000) असहाब की मौजूदगी में हज़रत अली (अ.स.) की खि़लाफ़त का ऐलाने आम फ़रमाया।(रौज़ातुल सफ़ा जिल्द 2 पृष्ठ 215 ) में है कि मजमे को एक जगह पर जमा करने के लिये जो ऐलान हुआ था वह हय्या अला ख़ैरिल अमल के ज़रिये से हुआ था। कुतुबे तवारीख़ व अहादीस में मौजूद है कि इस ऐलान पर हज़रत उमर ने भी मुबारक बाद अदा की थी जिसकी तफ़सील बाब 1 में गुज़री।

18 जि़ल्हिज्जा

अल्लामा जलाल उद्दीन स्यूती ने लिखा है कि हज़रत उमर ने इस तारीख़ को यौमे ईद क़रार दिया है। रईसुल उलेमा हज़रत अल्लामा बहावुद्दीन आमेली तहरीर फ़रमाते हैं कि सरवरे कायनात स. की विलादत से 4 साल बाद 18 जि़ल्हिज्जा 10 हिजरी को हज़रत अली (अ.स.) की जांनशीनी अमल में आई और आपके इमाम अल इन्सो जिन होने का ऐलान किया गया और इसी तारीख़ 34 हिजरी में हज़रते उस्मान क़त्ल हुए और हज़रत अली (अ.स.) की बैअत की गई। इसी तारीख़ हज़रते मूसा (अ.स.) साहिरों पर ग़ालिब आये और हज़रते इब्राहीम (अ.स.) को आग से नजात मिली और इसी तारीख़ को हज़रते मूसा (अ.स.) ने जनाबे यूशा इब्ने नून को , हज़रते सुलैमान ने जनाबे आसिफ़ इब्ने बरखि़या को अपना जांनशीन मुक़र्रर किया और इसी तारीख़ को तमाम अम्बिया ने अपने जांनशीन मुक़र्रर फ़रमाए।

(जामेए अब्बासी या नज़द वबाबी पृष्ठ 58, 1914 0 देहली में छपा व इख़्तेयारात मजलिसी रहमतउल्लाह इलैह)

दस्तावेज़े खि़लाफ़त

सरवरे कायनात स. ने इब्तेदाए इस्लाम से ले कर जि़न्दगी के आखि़री दिनों तक हज़रत अली (अ.स.) की जांनशीनी का बार बार मुख़तलिफ़ अन्दाज़ व उन्वान से ऐलान करने के बाद वफ़ात के वक़्त यह चाहा कि उसे दस्तावेज़ी शक्ल दे दें लेकिन हज़रत उमर ने बनी बनाई इस्कीम के तहत रसूले करीम स. को कामयाब न होने दिया और उनके आखि़री फ़रमान (क़लम दवात की तलबी) को बकवास और हिज़यान से ताबीर कर के उन्हें मायूस कर दिया जिसके मुताअल्लिक़ आपका ख़ुद बयान है कि जब आं हज़रत स. ने वक़्ते आखि़र मरज़ुल मौत में हक़ को छोड़ कर बातिल की तरफ़ जाना चाहा ताके अली (अ.स.) की सराहत कर दें तो ख़ुदा की क़सम मैंने आं हज़रत स. को मना कर दिया और आं हज़रत स. अली (अ.स.) के नाम को तहरीरन ज़ाहिर न कर सके।

(तारीख़े बग़दाद व शरह इब्ने अबिल हदीद , जिल्द 1 पृष्ठ 51 तेहरान में छपी)

इमामें ग़ज़ाली फ़रमाते हैं कि रसूल अल्लाह स. ने अपनी वफ़ात से पहले असहाब से कहा कि मुझे क़लम दवात और काग़ज़ दे दो। ला ज़ैल अनकुम इशक़ाल अल मरज़ा जि़क्र लकुम मिनल मुस्तहक़ बादी क़ाला उमरा औ अल रजल फ़ाना लेहजर ताके मैं तुम्हारे लिये इमारत व खि़लाफ़त की मुश्किलात को तहरीरन दूर कर दूँ कि मेरे बाद इमारत व खि़लाफ़त का मुस्तहक़ कौन है। मगर हज़रत उमर ने उस वक़्त यह कह दिया कि इस मर्द को छोड़ दो यह हिज़यान बक रहा है और बकवास कर रहा है। (माअज़ अल्लाह)

मुलाहेज़ा हो:-

(सेराआलेमीन बम्बई में छपी , पृष्ठ 9, सतर 15 किताब अल शिफ़ा , काज़ी अयाज़ , बरेली में छपी , पृष्ठ 308 व नसीम अल रियाज़ शरह शिफ़ा , शरह मिश्क़ात , मोहद्दिस देहलवी व मदारिजे नबूवत , हबीब अल सैर जिल्द 1 पृष्ठ 144, रौज़तुल अहबाब जिल्द 1 पृष्ठ 550, बुखा़री जिल्द 6 पृष्ठ 656, अल फ़ारूक़ जिल्द 2 पृष्ठ 48 )