इमाम अली से दुश्मनी क्यो

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इमाम अली से दुश्मनी क्यो कैटिगिरी: इमाम अली (अ)

इमाम अली से दुश्मनी क्यो

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

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इमाम अली से दुश्मनी क्यो

इमाम अली से दुश्मनी क्यो

हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

हरफ़े अव्वल

खि़दमते अक़दस इमामे आली मक़ाम हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.)

तारों ने अभी आंख न खोली थी अली था

न अमन का पैग़ाम न होनी थी अली था

काबा था दुआयें थी न होली थी अली था

ख़ालिक़ की ज़ुबां कुन भी न बोली थी अली था

फ़ज़ाएलो कमालात की दुनिया में कुछ नाम ऐसे होते हैं जो अपने फ़ज़ाएलों कमालात और अपनी मोजिज़ नुमाई से हमेशा दुनिया में आशकार रहते हैं और उनका तज़किरा दुनिया में ज़िक्रे अव्वल बन जाता है।

न लौहे क़लम था न मोअल्ला था अली था

मलकूतो महल थे न मोहल्ला था अली था

वाहिद इसी वाहिद का तजल्ला था अली था

उस वक़्त अली था कि जब अल्लाह था अली था

ज़ेरे नज़र किताब ‘‘ अली (अ.स.) से दुश्मनी क्यों ? ’’ आप क़ारीने हज़रात की खि़दमत में पेश की जा रही है इन्हीं मोजिज़ नुमा इमाम के बारे में है जिसे इस्लाम से हटा लिया जाये तो फिर इस्लाम तश्ना और तन्हा नज़र आयेगा । ये इमामे आली मक़ाम ही हैं जिन्होंने रिसालत के साथ क़दम से क़दम मिलाया और रिसालत की हर बात के गवाह बने हर हर दर्द व मुसीबत को बर्दाश्त किया ताकि ख़ुदा बाक़ी रहे दीने ख़ुदा नाफ़िज़ रहे।

इस्लाम के दामन में बस इसके सिवा क्या है

एक ज़र्बे यदुल्लाही एक सजदा ए शब्बीरी

लिहाज़ा मौला ए मुत्तक़ियान के किरदार पर जब हम रौशनी डालते हैं तो महसूस होता है कि ये वो ज़ाते अक़दस है जिनमें जमाले ख़ुदा वन्दी पूरी आबो ताब से चमक रहा है लिहाज़ा ख़ुद क़ुरआन गवाही दे रहा है ऐ अहलेबैत हम ने तुम्हें इस तरह पाक व साफ़ किया जिस तरह पाक व साफ़ व मुतहर होने का हक़ है ।

मौला ए कायनात की नूरानी शख़्सियत इस्लाम और ख़ुद नबूवत के लिये इतनी अहम है कि हज़रत अली (अ.स.) के लिये ख़ुद ज़ुबाने नबूवत कहती नज़र आती है। ‘‘ अली का ज़िक्र मेरा ज़िक्र , मेरा ज़िक्र ख़ुदा का ज़िक्र और ख़ुदा का ज़िक्र इबादत है । ’’

अगर गौर फ़रमायें तो बात वाज़ेह होती है कि अली (अ.स.) का ज़िक्र इबादत की मन्ज़िल तक पहुँच जाता है।

अली (अ.स.) की विलादत ख़ाना ए काबा में हुई। ख़ुदा ने उन्हें मौलूदे काबा होने का मुन्फ़रिद ऐजाज़ बख़्शा है। काबा क्या है , ख़ुदा का घर है लिहाज़ा विलादत में ही बात ख़ुदा तक पहुँच गई। विलादत के बाद आंख भी खोली तो दस्ते रसूल (स.अ.) पर , तिलावत भी की तो चारों आसमानी किताबों की जिन्हें ख़ुदा ने मुख़्तलिफ़ नबियों पर नाज़िल फ़रमाया। ये रसूल (स.अ.) किसका ? ख़ुदा का। ये किताब किसकी ? ख़ुदा की। अली (अ.स.) का ज़िक्र इबादत की मन्ज़िल से गुज़र रहा है । दावते ज़ुलअशीरा में इस्लाम और क़ुरआन की गवाही दी। इस्लाम भी ख़ुदा का क़ुरआन भी ख़ुदा की किताब। वक़्त गुज़र रहा है अली (अ.स.) का ज़िक्र इबादत बन रहा है।

शादी इन्सान की ज़िन्दगी का ज़ाती मसअला है मगर अली (अ.स.) व सय्यदा (अ.स.) का अक़्द दुनियां व आख़रत का पहला और आखि़र अक़्द था जिसे परवरदिगारे आलम ने अर्श पर पढ़ा।

सख़ावत की मन्ज़िल वो मन्ज़िल कि पूरी सूरा ए दहर इसकी गवाह बनी। शुजाअत ऐसी की एक ज़र्ब सक़लैन की इबादत से गरां ठहरी । इबादत ऐसी की तमाम रात तकबीर की सदायें आती रहती थीं।

तहारत पर आयते तत्हीर गवाह , नफ़्स की सदाक़त पर आयते मुबाहेला ने मुहर लगायी। नुमाइन्दा ए ख़ुदा की मन्ज़िल में आयते बल्लिग़ ने अली को पुकारा , ख़ैबर में कर्रार और ग़ैरे फ़र्रार का लक़ब मिला , ख़न्दक में कुल्ले ईमान कुल्ले ईमान के लक़ब से मुज़इय्यन हुए। ओहद मे ला फ़ता इल्ला अली ला सैफ़ इल्ला ज़ुलफ़ेक़ार की सदा आई। दहने रिसालत से बाबे इल्म का खि़ताब मिला। कभी लिसानुल्लाह कहा , कभी ऐनुल्लाह कहा , कभी कलामुल्लाह कहा , कभी यदुल्लाह कहा , कभी नफ़्स इतना पाक साफ़ तय्यबो ताहिर नज़र आया कि ख़ुदा को नफ़्स ख़रीदना पड़ा और रिज़ाए ईलाही की मिल्कियत अली (अ.स.) के सिपुर्द हुई और आख़री मक़सदे हयात की इस शान से पूरा किया कि शिकवा ज़रा सा भी नहीं है। मस्जिदे कूफ़ा में अली (अ.स.) ज़ख़्मी हैं और कहते जा रहे हैं ‘‘ रब्बे काबा की क़सम मैं कामयाब हो गया ’’ कामयाबी काहें की है ? यही न कि अल्लाह के लिये अपनी क़ुरबानी पेश कर रहे हैं और जमाले ख़ुदा वन्दी चेहरे पर आशकारा है।

सच्ची बात तो यह है कि एक बशर अमीरूल मोमेनीन अली (अ.स.) की क्या फ़ज़ीलत बयान कर सकता है जिसे ख़ुद ख़ुदा ने अपना मज़हर कहा है।

दुआ है ख़ुदा वन्दे आलम हमारा हशर व नशर मोहम्मद (स.अ.) व आले मोहम्मद (अ.स.) के साथ महशूर फ़रमाये। (आमीन) सैय्यदा ततहीर फ़ातिमा रिज़वी

मुनाजाते बारगाहे परवरदिगार

बारे इलाही बन के सवाली तेरे हुज़ूर

दामन में अपने लाए हैं बे इन्तेहा कुसूर

लेकिन हमारे सीनों पे मातम का देख नूर

अपने नबी के सदक़े में तो बख़्शे गा ज़रूर

या वजीहन इन्दल्लाहिशफ़ा लना इन्दल्लाह

मौला अली (अ.स.) का रब्बे जहां तुझको वास्ता

या रब बराए फ़ात्मा (अ.स.) सिद्दीक़ा ताहेरा

दे अलम और रिज़्क़ का साग़र भरा हुआ

टूटे न नेमतों का मेरे घर से सिलसिला

या वजीहन इन्दल्लाहिशफ़ा लना इन्दल्लाह

मालिक इमाम हसन (अ.स.) का तुझको वास्ता

जिसके लहू से करबोबला की है इब्तेदा

हां उस इमामे अमन के सदक़े में किबरिया

इस मुल्क में हो अम्न का परचम खुला हुआ

या वजीहन इन्दल्लाहिशफ़ा लना इन्दल्लाह

अब वास्ता हुसैन (अ.स.) का

परवर दिगार सब्रे शहे तश्ना काम का

जिसके लबों पे विर्द था तेरे ही नाम का

ख़न्जर तले जो क़ारी था तेरे कलाम का

या वजीहन इन्दल्लाहिशफ़ा लना इन्दल्लाह

या रब तू मेरी हस्ती को ऐसा संवार दे

तू अपनी रहमतों से मेरा घर निखार दे

सज्जाद (अ.स.) का तू सदक़ा ऐ परवरदिगार दे

बीमार को शिफ़ा ए मुकम्मल क़रार दे

या वजीहन इन्दल्लाहिशफ़ा लना इन्दल्लाह

मलिक इमाम बाक़र (अ.स.) व जाफ़र (अ.स.) का वास्ता

मजलिस में मैं हुसैन (अ.स.) की करता हूँ ये दुआ

दोनों का वास्ता तुझे देता हुँ ऐ ख़ुदा

मक़रूज़ जो हैं ग़ैब से कर उनका क़र्ज़ अदा

या वजीहन इन्दल्लाहिशफ़ा लना इन्दल्लाह

या रब बराए मूसा काज़िम (अ.स.) अली रजा़ (अ.स.)

मशहद में और नजफ़ में हैं जो क़िब्ला ए दुआ

तू उनके वास्ते से वो औलाद कर अता

मां बाप जिनसे शाद हों जिनकी हो ये सदा

या वजीहन इन्दल्लाहिशफ़ा लना इन्दल्लाह

या रब बराए मौला नक़ी (अ.स.) तक़वा ए तक़ी (अ.स.)

दे जज़्बा ए जिहाद बसद शाने असकरी (अ.स.)

मेहदी (अ.स.) का भी ज़हूर दिखा दे उसी सदा

तेरे हुज़ूर मेरी दुआ है ये आख़री

या वजीहन इन्दल्लाहिशफ़ा लना इन्दल्लाह

इस्लाम की पहली दावत

मैं आज की मजलिस में आपके सामने वाज़ेह करना चाहता हूँ कि लोग हज़रत अली (अ.स.) के मुख़ालिफ़ क्यों हुए और क्यों अहले बैत (अ.स.) को तरह तरह की तकलीफ़ें दीं और उनके दुश्मन हुए।

ये तो आप पहले ही जानते हैं कि हज़रत अली (अ.स.) हुज़ूर के चचा ज़ाद भाई थे। एक दिन हुज़ूर ने अली (अ.स.) से कहा कि जाओ और ख़ानदाने कु़रैश से कहो कि हज़रत मोहम्मद (स.अ.) के घर आज दावत है। लिहाज़ा सब लोग आए। जब सूरज गु़रूब हुआ और रात आई तो सब लोग हुज़ूरे अकरम (स.अ.) के घर आए।

हुज़ूरे अकरम (स.अ.) ने सब आदमियों को खाना खिलाया , जब सोब लोग सैर हो चुके तो हुज़ूर खड़े हुए और कहा , मुझे ख़ुदा ने रसूल बना कर भेजा है ताकि तुम लोगों को सही रास्ते पर लाऊं , तुम लोग बुतों की पूजा करनी छोड़ दो , ये सिर्फ़ पत्थर हैं , ये तुम्हें कुछ फ़ायदा नहीं दे सकते। सिर्फ़ एक ख़ुदा को मानो। बोलो इस नेक काम में कौन कौन मेरा साथ देगा ? हुज़ूर (स.अ.) की ये बात सुन कर सब ने अपना सर झुका लिया। हज़रत अली (अ.स.) ने जो लोगों को देखा कि सब ख़ामोश बैठे हैं। आप खड़े हुए और कहा: या रसूल अल्लाह (स.अ.) मैं आप का साथा दूंगा। हुज़ूर ने फिर कहा: कौन है जो मेरा साथ देगा ? सब ख़ामोश बैठे रहे। सरवरे कायनात ने अली (अ.स.) को गले लगा लिया और कहा मरहबा। दावत के बाद सब लोग अपने अपने घरों में चले गये और साथ में हुज़ूर नबी करीम (स.अ.) का मज़ाक उड़ाना लगे।

चन्द दिन के बाद उन्हें ख़बर मिली कि एक आदमी मुसलमान हो गया। उसको लोगों ने ख़ूब मारा लेकिन उसने इस्लाम नहीं छोड़ा। इसी तरह रोज़ किसी न किसी के मुसलमान होने की ख़बरें आने लगीं। अब तमाम कुफ़्फ़ार में ग़म व ग़ुस्से की लहर दौड़ गई। तमाम लोग तरह तरह के मन्सूबे बनाने लगे। चुनान्चे तय पाया कि सब (काफ़िर) वालदैन अपने बच्चों को कह दें कि मुहम्मद (स.अ.) जहां से गुज़रें तो वो तालियां बजाएं और मजनूं मजनूं की सदा ए लगाएं। अगर हमज़ा मदद करेगा तो हम कहेंगे कि देखो बड़ा आदमी बच्चों को मार रहा है। बच्चे अकसर शरीर होते हैं , चाहे हमारे घर के हों या आपके घर के। मसलन आप हमारे घर आए तो हमारे बच्चे आपकी मुरव्वत में कुछ देर चुप हो गये या हम आपके घर गए तो आपके बच्चे चुप हो गये तो हम समझे कि आपके बच्चे सीधे साधे हैं हालां कि न हमारे बच्चे सीधे हैं न आपके बच्चे। बच्चों का मिजाज़ एक जैसा होता है। हां फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि मुहज्ज़िब घर के बच्चे शरीर तो हो सकते हैं मगर मद तमीज़ नहीं होते , मगर जाहिलों के बच्चे न सिर्फ़ शरीर बल्कि बद तमीज़ भी होते है।

अब रसूल अकरम (स.अ.) घर से निकले। देखिये कुफ़्फ़ार ने जो पालिसी मुरत्तब की है हक़ीक़त मं यह मामूली बात नहीं। आप ज़रा मामले की नज़ाकत समझें। बहुत से वाक़ियात इस्लामी तारीख़ में ऐसे आपको मिलेंगे जिसकी नज़ाकत लोगों ने समझी नहीं।

पहले एक मिसाल से अपनी बात दोहराता हूँ कि आप जंगल में जा रहे हैं और एक शेर या किसी जंगली दरिन्दे ने आप पर हमला कर दिया , आपके हाथ में हथियार हो न हो , मगर जो हवास दुरूस्त हैं तो हो सकता है कि आप की जान बच जाए और शेर के हमले से बच जाएं। आपके पास आला दर्जे की तलवार , उम्दा क़िस्म का रिवालवर भी है , ख़न्जर और बन्दूक़ भी है और किसी ने शहद की मक्खियों के छत्ते पर पत्थर दे मारा और तमाम मक्खियां आप पर टूट पड़ें। बताएं कौन सा अस्लाह काम आयेगा ? चारों तरफ़ से मक्खियों का हमला जब कि एक मक्खी की तो कोई ताक़त नहीं। ताक़त कैसे बनी ? जब एक साथ दो लाख मक्खियों ने हमला कर दिया , उन्होंने आपको ज़रूर काट लेना है चाहें बन्दूक़ से दफ़ा करें या तलवार से।

तो ये प्लान काफ़िरों ने बना लिया था इस लिये की अगर हमज़ा (अ.स.) बोलते हैं तो ज़माना कहेगा कि हमज़ा इतने बड़े आदमी हो कर बच्चों से झगड़ा कर रहे हैं। अगर अबु तालिब (अ.स.) बोलते हैं तो तभ भी यही आवाज़ आयेगी। अगर किसी बच्चे को रसूल (स.अ.) तमाचा मारेंगे तो तब भी हमारी दिली मुराद पूरी होगी।

देखा न जी कि हम पहले ही कहते हैं कि (नाऊज़ो बिल्लाह) दिमाग़ ठीक नहीं ख़ुद मुशाहेदा कर लें कि रसूल (स.अ.) बच्चे से लड़ाई झगड़े में मसरूफ़ हैं।

तो आईय्ये असल बात की तरफ़ कि रसूल (स.अ.) निकले हैं अपने घर से तो चारों तरफ़ से कुफ़्फ़ार के बच्चों का हुजूम , हर तरफ़ से मजनूं दीवाना की आवाज़ें बलन्द हुईं।

अली (अ.स.) मुहम्मद (स.अ.) के हमराह:- रसूल (स.अ.) पर कुफ़्फ़ार के बच्चों ने पत्थर फ़ेंकना शुरू किए , मगर जो बच्चा रसूले ख़ुदा (स.अ.) के पीछे चल रहा था एक दम घूमा और घूम घूम कर बच्चों से कहने लगा कि ख़बरदार ! ‘‘ अल्लाह के रसूल के साथ गु़स्ताख़ी मत करो और भाग जाओ अपने घरों को ’’

कुफ़्फ़ार के पढ़ाए हुए जाहिल बच्चे क्या समझ पाते उस जुमले को क्यों कि वह देख रहे हैं कि यह अकेला है और हम तादाद में ज़्यादा हैं। यह हम में कितने लड़कों को मार लेगा , इतने हुजूम से तो यह मार ही खायेगा। लेकिन मुझे क़सम है उस ज़ाते किबरिया की जिसके क़ब्ज़ा ए क़ुदरत में मेरी जान है। आज तक जिसने भी अली (अ.स.) के मुताअल्लिक़ ऐसा सोचा है उसने खुद मार खाई है। अली (अ.स.) ने कहा , ख़बरदार ! भाग जाओ।

मगर वह क्यों जाते वह घर से कसीर तादाद में शरारत करने आए थे। एक लड़के ने रसूल (स.अ.) से ग़ुस्ताख़ी के लिये अपना हाथ लहराया तो लहरा कर ही रह गया। अली (अ.स.) ने बढ़ कर उस लड़के को पटख़ दिया। दूसरा उसकी मदद को आया अली (अ.स.) ने उसे गिरा दिया तीसरा आया अली (अ.स.) ने गिरा दिया। जब चारों तरफ़ से एक दूसरे पर गिरने लगे तो बाक़ी देख कर भागे। ‘‘ अरे बड़े बड़े भाग जाते हैं अली (अ.स.) के मुक़ाबले में यह तो अभी बच्चे थे। ’’

तो बच्चा जब पिट कर जाता है तो अपनी ख़ता नहीं बताता लेकिन यहां जितने पिट कर जा रहे हैं किसी का घुटना टूटा है , किसी का पांव टूटा है , किसी के कान से ख़ून बह रहा है और किसी को दिखाई नहीं दे रहा है। जब बच्चे घरों में पहुँचे तो अपनी ख़ता याद नहीं कि हम ने तालियां बजाईं थी या हम ने मजनूं कहा था सिर्फ़ यही कह रहे थे कि अम्मी मुझे अली ने मारा , हम आ रहे थे अली ने पटख़ दिया।

जब जा कर माओं से शिकायतें करने लगे तो चूंकि औरतों की आदत होती है कि फ़ौरी तौर पर लड़ने के लिये ख़ड़ी हो जाती हैं। आज भी सीधी साधी औरतें बच्चों के मामले में लड़ने के लिये निकल आती हैं तो अरब की ज़बरदस्त औरतें लड़ने के लिये निकल आईं , क्यों कि उनका लड़का अली (अ.स.) से दुश्मनी के उस बीज का पौधा निकल रहा था वो बीज जो दावते ज़ुलअशीरा में बोया गया था। औरत की फ़ितरत में है कि जब उसका बस न चले तो कोस्ती है और मर्द लड़ता है। वह कुफ़्फ़ार की औरतें सारा दिन कोस्ती रहीं। अल्लाह का नाम नहीं ले रही , रसूल (स.अ.) का नाम नहीं ले रहीं। ख़ूब ग़म व ग़ुस्से में कह रही हैं , ऐ लात ! तुम अली को पटख़ दो। ऐ हबल ! तुम अली को मार डालो। ऐ उक़्बा ! तुम अली का सर फोड़ दो। और वह ज़बाने हाल से कह रहे होंगे कि हम से क्या कह रही हो हम तो ख़ुद अपनी ख़ैर मना रहे हैं। जिस दिन इधर आ निकले हम भी यहां नहीं रहेंगे। अब दिन भर तो यह लड़के रोते पीटते रहे जब रात हुई तो कुफ़्फ़ार के मर्द घरों के लौटे और आ कर देखा कि किसी का बेटा लंगड़ा है , किसी का काना है और किसी के दांत नहीं। आप तो सारा दिन जुआ खेलने , शराब पीने और डाका डालने में मसरूफ़ रहे थे। आते ही उन्होंने अपने बच्चों का यह हाल देखा , तो अपने बच्चों से तमाम रिर्पोट तलब की। उन्होंने पूछा कि कल तुम कितने लड़के थे ? उन्होंने कहा कि हम कसीर तादाद में थे। पूछा क्या हुआ ? लड़के कहने लगे , हमने मजनूं दीवाना कहना शुरू किया , तालियां बजाईं तो अली ने हमें मना किया। हम ने अली की बात को कोई असर न दिया तो उसने हमें मारा।

कहा तुम अकेले क्यों गए थे अली के मुक़ाबले में ? कहा: मैं अकेला नहीं था हम सब मिल कर गए थे। कहा तुम्हारी तरफ़ से कोई न बोला ? कहा बोले तो सभी थे मगर सभी ने ख़ूब मार खाई।

उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि लड़का क्या कह रहा है। कहने लगे रसूल के साथ कल कितने अफ़राद थे ? क्या हमज़ा थे ? क्या अबु तालिब थे ? कहा: नहीं वह वहां नहीं आए थे। मुहम्मद लड़ रहे थे। ? कहा: नहीं वो आराम से अलाहेदा खड़े रहे। तो फिर कौन कौन था ? बस अली थे।

वो कहने लगे , तो अली ने क्या किया ? कहा: हम सब को मारा ।

तुम ने क्यों न मारा । कहा: मारा था तो मगर हाथ उन पर पड़ा ही नहीं।

कहा: फिर तुम्हारे साथियों ने तुम्हारा साथ न दिया ?

कहने लगेः कोशिश तो हर किसी ने की होगी मगर एक लमहें में अली हम सब पर वारिद ही ऐसे हुए कि हम एक दूसरे को देखते थे तो सभी पीटे हुए दिखाई देते थे। काफ़िर बड़े हैरान हुए कि अजीब बात है कि हम ज़हनी तौर पर लड़ने वाली क़ौम हैं फिर भी पिट गए।

कुफ़्फ़ार हज़रत अबु तालिब (अ.स.) की खि़दमत में:- बहर हाल उनकी ये साज़िश भी फ़ेल हो गई। वह अपने अपने बच्चों को ले कर सुबह हज़रत अबु तालिब (अ.स.) के पास आए। सरकारे अबु तालिब (अ.स.) एक पुर वक़ार शख़्सियत थे। उनके इर्द गिर्द लोग जमा थे। काफ़िर आ कर चीख़ना शुरू हो गए कि ऐ अबु तालिब ! कल तुम्हारे लड़के ने हमारे लड़कों को बहुत पीटा है। कोई कहता कि अली ने मेरे बेटे के दांत तोड़े , कोई कहता कि अली ने मेरे बेटे का सर फ़ोड़ दिया , कोई कहने लगा कि अली ने मेरे बेटे की टांग तोड़ दी। देखते जाइए अली (अ.स.) से दुश्मनी बढ़ती जा रही है। ये ऊंट का गोश्त खाने वाले कीना परवर अरबों के लड़के जब जवान होंगे तो क्या अली (अ.स.) के दोस्त होंगे ? अली (अ.स.) से दुश्मनी का पौधा बढ़ रहा है। सब जमा हो गए। अबू तालिब (अ.स.) ने उनकी तरफ़ देखा पूरी साज़िश फ़ेल हो गई , कुफ़्फ़ार के उस अज़्म पर पानी फिर गया।

अबु तालिब (अ.स.) ने कहा कि तुम ने अपनी अपनी बात ख़त्म कर ली ? अब मेरी बात सुनो ! तुम तमाम लोग अपने बच्चों को समझा दो कि वो आइन्दा कभी मेरे भतीजे और अल्लाह के रसूल से बद तमीज़ी न करें , अली तुम्हारे बच्चों को कुछ नहीं कहेगा। समझदार बाप ने बेटे का मिजाज़ बता दिया। दुनियां मोहम्मद (स.अ.) से दुश्मनी छोड़ दे अली (अ.स.) हाथ उठाना छोड़ देगा।

उस बात को ज़हन में रखयेगा कि अली (अ.स.) से दुश्मनी का बीज बोया गया। मोमिन ज़हन से तो आपको ये वाक़ेया ख़ुश गवार महसूस हो रहा है ज़रा काफ़िर ज़हन से सोचो कि ये वाक़िया तह दिल में ज़ख़्म बनाते जा रहे हैं। दावते ज़ुल अशीरा में नुस्रत के वादा किया। वहां अली (अ.स.) की दुश्मनी का बीज ज़मीन पर पड़ा। अब जो अली (अ.स.) ने बच्चों की पिटाई कर दी तो हर घर में अली (अ.स.) का नाम ले कर बुराई हो रही है। दुश्मनी का पौधा जो है वो थोड़ा थोड़ा बढ़ा हो गया।

ख़ुदा वन्द तआला र्क़ुआन मजीद में इरशाद फ़रमाता है कि ‘‘ ऐ रसूल (स.अ.) कह दीजिए कि मैं तबलीग़े रिसालत के सिलसिले में कोई मज़दूरी नहीं चाहता , कोई बदला नहीं चाहता सिर्फ़ अपने क़राबतदारों की मुहब्बत चाहता हूँ उनकी मवद्दत चाहता हूँ। ’’

इस सिलसिले में यह बात ज़हने आली में रहे कि दुनिया में मुहब्बत आला शय है। उसके दोहरे असरात होते हैं।

दुहरे असर का मतलब:- दुहरे असर का मतलब यह है कि एक वाक़ेया ये है कि एक वाक़ेआ अपने अन्दर दो असर रखता है। मसलन एक आदमी का लड़का इम्तेहान में पास हो गया , यह एक की कामयाबी है मगर उसके दो असर हैं। ये मुसर्रत भी बनेगा और सबबे ग़म भी। दोस्त के लिये यही कामयाबी सबबे मुसर्रत है और दुश्मन के लिये यह कामयाबी सबबे ग़म है। उसी तरह एक लड़का फेल हो गया उसके भी दो असर हैं। दोस्त के लिये ग़म और दुश्मन के लिये ख़ुशी। मालूम हुआ कि मुहब्बत की दुनियां बयक वक़्त अपने अन्दर दो ताक़ते रखती है। उसमें एक ही वाक़ेया एक तरफ़ ख़ुश गवार असर छोड़ता है और दूसरी तरफ़ ना ख़ुशगवार। एक तरफ़ मुसर्रत और दूसरी तरफ़ ग़म। यही कैफ़ियत मोहब्बते अली (अ.स.) की भी है। उसमें भी दोहरा असर है। फ़ज़ाएले अली (अ.स.) की मिसाल इस्लाम में बिजली के करंट की सी है। जिस तरह करंट जिधर जाता है दो काम करता है कहीं हीटर चलाता और कहीं एयर कण्डीशनर चलाता है। लाइन एक है और काम दो दो हो रहे हैं। चूल्हे (हीटर) पे खाना पक रहा है और फ्रिज में पानी ठण्डा हो रहा है। करन्ट एक ही है असर अलग अलग है।

यहां कौसर का जाम चाहने वालों के लिये ठंडा हो रहा है और इधर अली (अ.स.) से बुग़्ज़ रखने वाले जल रहे हैं। दोस्ती की दुनियां में अलग काम हो रहा है और दुश्मनी की दुनियां में अलग काम हो रहा है।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) ने अली (अ.स.) को अपना वसी मुक़र्रर किया तब से अली (अ.स.) से दोस्ती और दुश्मनी का सिलसिला शुरू हो गया।

दोस्तों के दिलों में अली (अ.स.) की मुहब्बत का दरिया ठाठें मारने लगे और दुश्मनों के दिलों में बुग़्ज़े अली (अ.स.) के शोले बलन्द होने लगे फिर जब अली (अ.स.) ने कुफ़्फ़ार के बच्चों की जिन्होंने रसूल (स. .अ) को मजनूं दीवाना कहा था और तालिया बजाते थे , पिटाई की तो अली (अ.स.) से दुश्मनी का पौधा परवान चढ़ने लगा , क्यो कि हज़रत अबु तालिब (अ.स.) ने कहा था कि ऐ कुफ़्फ़ार ! आज से तुम्हारे लड़के मेरे भतीजे से कोई वाज़ेह हरकत न करें तो ये ख़ुदा का शेर तुम्हारे बेटों को कुछ नहीं कहेगा।

चूंकि ये बात माकूल थी इस लिये पलट आए और अबु तालिब (अ.स.) के सामने ज़्यादा बातें करने की र्जुअत भी नहीं थी मगर दिलों में कदूरत लिये लौट आए , दिल साफ़ नहीं हुए। जब आदमी किसी चीज़ को रोक नहीं सकता तो फिर मसालेहत वाला रास्ता इख़्तेयार करता है। अब उन्होंने महसूस किया कि ऐसे रोकने से ये तहरीक रहने वाली नहीं है।

कुफ़्फ़ार का हंगामी इजलास

इधर दूसरी काफ़िरों की मीटिंग हुई। उसमें हसब ज़ौक़ उमर हसब मिजाज़ तजवीज़ें आईं। किसी ने कहा कि इस्लाम इस लिये है कि यह कुछ माल वग़ैरा चाहते हैं , दौलत के ख़्वाहिश मन्द होंगे जिस वजह से इन्होंने ला इलाहा इल्लल्लाह का चक्कर चलाया है। किसी ने कहा कि नहीं यह तुम्हारा ख़्याल है उन्हें पैसा वग़ैरा नहीं चाहिये क्यों कि ख़दीजा (अ.स.) से बढ़ कर मालदार कौन है ? किसी ने कहा कि हो सकता है कि अबु तालिब(अ.स.) अपने भतीजे की शादी किसी आला ख़ानदान में किसी ख़ूब सूरत लड़की से करना चाहता हैं इस लिये यह ग्राउण्ड बना रहे हैं। इस पर दूसरे ने इस बात की नफ़ी की और अपना ख़्याल ज़ाहिर किया कि ऐसी बात हरगिज़ नहीं अगर ऐसा होता तो गुज़िश्ता चालीस बरस से वो हमारे दरमियान रह रहा है , ऐसी ख़्वाहिश आज तक उसमें नहीं देखी गईं। यह यकी़नन बादशाहत का चक्कर है। वह बादशाह बनना चाहता है।

बहर हाल यह तमाम तजावीज़ात उन्होंने लाकर सरवरे काएनात के सामने रख दी। कहने लगे ऐ अबू ताबिल अपने भतीजे से कह दो ला इलाहा इल्लल्लाह कहना छोड़ दे जितनी दौलत चाहता है ले ले। अगर किसी ख़ानदान में निकाह का ख़्वाहिश मन्द है तो हम निकाह करने के लिये तैय्यार हैं। अगर बादशाहत का शौक है तो ला इलाहा इल्लल्लाह कहना छोड़ दे जिस दीन पर हम क़ाएम हैं उसी पर वो क़ाएम हो तो हम उनके सर पर ताज रख कर उन्हें बादशाह बना कर उनकी ताबेदारी के लिये तैय्यार हैं।

अबु तालिब (अ.स.) ने कहा ठीक है , मैं तुम्हारा यह पैग़ाम तुम्हारी पेशकश मुहम्मद (स.अ.) तक पहुँचा दुंगा। चुनान्चे वह रसूल (स.अ.) के पास आए और कहा भतीजे काफ़िर आए थे और यह कह रहे थे। बस रसूल (स.अ.) ने कहा ऐ चचा जान ! उन से कह दें कि अगर वह अपने एक हाथ पर चांद और दूसरे हाथ पर सूरज रख कर भी आजाएं तो मैं तबलीग़े ला इलाहा इल्लल्लाह से बाज़ नहीं आऊंगा। उनसे कह दें कि रिसालत वह मन्सफ़े जलीला है जो दौलत , हुस्न और हुकूमत सब को ठुकरा दे और काफ़िर वह हैं जो रिसालत के लिये दौलत , हुस्न और हुकूमत का तसव्वुर करें।

अब जिन महलों में दौलत मिले , हुस्न मिले , हुकूमत मिले यह अबु लहबी इस्लाम है और जो दौलत , हुस्न और हुकूमत को अपनी जूती की नोक पर भी न मारे समझ लो मोहम्मदी इस्लाम है। यह काफिर यहां से भी मायूस हुए और उनकी तरकीब कामयाब न हुई। अब मुख़ालिफ़त में मज़ीद शिद्दत हुई। इतनी शिद्दत हुई कि अबु तालिब (अ.स.) को यह ख़तरा ला हक़ हुआ कि इस बड़े हंगामे में मेरे भतीजे की जान न चली जााए।

मुहम्मद (स.अ.) शेबे अबु तालिब (अ.स.) में:- चुनान्चे अबु तालिब (अ.स.) रसूल (स.अ.) को ले कर अपने उस क़िला नुमा मकान में चले गए जो एक पहाड़ की घाटी में था , जहां अच्छी तरह हिफ़ाज़त की जा सकती थी , उस जगह का नाम शेबे अबु तालिब (अ.स.) था और वहां से हर आने जाने वाले आदमी पर नज़र रखी जा सकती थी और हर तरह के हमले का सामना किया जा सकता था।

काफ़िरों ने सोशल बाईकाट कर दिया और काफ़िरों की यह स्कीम थी कि रसूल (स.अ.) की तरफ़ जाने वाली लाईन काट दो ताकि यह भूख प्यास से तंग आ कर अपना मिशन रोक देंगे या मर जायेंगे और हमारा मक़सद हल हो जायेगा। बाहर निकलेंगे तो हम अपनी शराएत पेश करेंगे और अपनी शराएत पर सुलह करेंगे।

तारीख़त शाहिद है कि यह मुहासेरा तीन बरस तक रहा। आज जिसका जी चाहे वो मोहसिने इस्लाम बने , मुहाफ़िज़े दीन बने जो खि़ताब दिल चाहे हासिल करे उसे अख़्तियार है लेकिन जिस वक़्त इस्लाम ख़तरे में था , सभी रिसालत के दुश्मन थे , ला इलाहा इल्लल्लाह ख़तरे में था उस वक़्त फ़क़त यह अबु तालिब (अ.स.) का फ़रज़न्द था जो काम आ रहा था। एक दो दिन नहीं बल्कि पूरे तीन बरस यह सख़्त मुहासेरा जारी रहा।

तारीख़ शाहिद है कि यह कमाल अली (अ.स.) का है कि उस सख़्त तरीन मुहासरे के बावजूद वो हर ज़रूरते ज़िन्दगी रसूल (स.अ.) को मोहय्या करते रहे। ख़बर आती थी कि चार मश्कें पानी और दस बोरी गेंहू पहुँच गया है। पहुँचाया कैसे ? हम तो इधर पहरे पर बैठे थे और वो मेन लाईन से ले गए। हम यह सोच भी नहीं सकते थे कि वह दिन की रौशनी में सबके सामने से ले गए , न तो उनमें से कोई अली (अ.स.) को गिरफ़्तार कर सका और न सामान छीन सका। ऐसे अली (अ.स.) नासिरे नबूवत के फ़राएज़ अन्जाम देते रहे।

ग़ौर फ़रमाईये , इस्लाम के नाम पर खाने वाले लाखों लेकिन रसूल (स.अ.) तक ग़िज़ा पहुँचाने वाला कोई नहीं। ख़बरे मुतावातिर पहुँच रही थीं आज इतनी ख़ुराक पहुँच गई , इतनी दूसरी अश्या पहुँच गईं।

हज़रात ! ज़रा अबु लहब के ज़हन से सोचिये या दीगर कुफ़्फ़ार के ख़्यालात का अन्दाज़ा लगाईये कि उनके दिल पर क्या गुज़रती होगी , जब उनकी हर साज़िश अली (अ.स.) के हाथों नाकाम हो रही थी। इसी तरह तीन बरस गुज़र गए और अली (अ.स.) से दुश्मनी का पौधा फ़लता रहा। तारीख़ गवाह है कि उस मुआहदे को दीमक खा गई थी। रसूल अल्लाह (स.अ.) ने फ़रमाया मैं निकलता हूँ और यह कह कर आप बाहर तशरीफ़ ले आए और मुहासेरा ख़त्म हो गया।

फिर तबलीग़ शुरू हो गई और मुख़ालिफ़त भी शुरू हो गई अब वो मक्का जहां ज़िन्दगी अपने बारह साल तमाम कर चुकी है , इस मुख़ालिफ़त और हंगामे के माहौल में इस्लाम के दो बडे मोहसिन यानि हज़रत अबु तालिब (अ.स.) और उम्मुल मोमेनीन जनाबे ख़दीजातुल कुबरा (अ.स.) एक ही साल में रूख़सत हो गए।

उनकी जुदाई ने रसूल (स.अ.) को ग़म ज़दा कर दिया। आप ग़म व हुज़्न में डूब गए। इतना सदमा हुआ कि सरवरे काएनात ने उस साल को ‘‘ आमुल हुज़्न ’’ यानि ग़म का साल मुक़र्रर किया।

काफ़िरों ने मीटिंग की कि अब क्या करना चाहिये , तो उन्होंने तय पाया कि उनको क़त्ल कर दें क्यों कि अब उनके दो मोतबर मद्दगार नहीं हैं , अब डर कोई नहीं।

मुझे अफ़सोस है आज के मुसलमानों पर जो कहते हैं कि अबु तालिब (अ.स.) ईमान नहीं लाए थे जब कि उस दौर के दुश्मन काफ़िर यह तस्लीम कर रहे थे कि अबु तालिब (अ.स.) मोहसिने रिसालत हैं। ख़ैर तजवीज़ यह तय पाई कि उनको क़त्ल कर दें लेकिन बनी हाशिम ज़िन्दा नहीं छोड़ेंगे , गो अबु तालिब (अ.स.) नहीं रहे अली (अ.स.) तो हैं। आखि़र में यह तजवीज़ आई कि कोई एक आदमी मोहम्मद (स.अ.) को क़त्ल न करे बल्कि तमाम अरब के क़बाएल का एक एक आदमी उनके जिस्म पर तलवार लगाए ताकि क़त्ल मुशतरका तलवारों से हो और उनका ख़ून सारे कु़रैश में बटे और यह बनी हाशिम को तमाम क़बाएल से लड़ना मुश्किल होगा वह बदला नहीं ले सकेंगे। लिहाज़ा क़ातिल भी बच जायेंगे और मुहम्मद (स.अ.) नाऊज़ो बिल्लाह क़त्ल भी हो जायेगें।

यह तजवीज़ सबको पसन्द आई और इन्हें अपनी इस बेहतरीन प्लानिंग पर बड़ी ख़ुशी हुई कि हम ने अब कामयाब हो जाना है मगर एक बोला , नहीं अब भी एक नुक़्स है वह यह है कि तमाम क़बाएल के अफ़राद तो जमा हो जाऐंगे मगर क़ुरैश में एक क़बीला बनू हाशिम भी है उनमें कौन हमारा साथ देगा ?

अगर बनी हाशिम वाला भी कोई उनमें शरीक होता तो हमारे दामन पर जो बदनामी का धब्बा लगने वाला है वो भी न लगता। इस काम के लिये अबू लहब ने अपने आपको पेश किया , इस लिये कि वह बनू हाशिम का पोता था उसने कहा कि मैं हाशिम की तरफ़ से तलवार मारूंगा।

अब आप जितनी मरज़ी उस पर लानत कर लें मगर कुफ़्फ़ार ने तो उनकी बड़ी तारीफ़ की होगी। उन्होंने तो कहा होगा कि क्या शान है आपकी , कितने बुज़ुर्ग हैं आप दीन की ख़ातिर आपकी यह क़ुर्बानी है यह सब आपके दम से ही है बुतों को सिर्फ़ एक आपके दम का सहारा है।

उन्होंने कहा हाँ मैं मारूंगा। क़त्ले रसूल (स.अ.) की यह बदतरीन तजवीज़ थी। वह बदतरीन लोग थे जिन्होंने यह साज़िश की थी उन बदतरीन इंसानों को भी इतना होश था कि इज्तेमा करें तो बनी हाशिम के नुमाइन्दे को शामिल कर लें। क़त्ले नबी (स.अ.) के लिये जमा हुए तो हाशमी को बुलाया। इधर यह जमा हुए , उधर अल्लाहा ने जिब्राईल (अ.स.) को रसूल (स.अ.) के पास भेजा , ‘‘ ऐ मेरे हबीब ! आज काफ़िरों ने अरब के सारे क़बाएल को जमा कर के यह तजवीज़ बनाई कि मुहम्मद (स.अ.) को सोते में मिल कर क़त्ल करें । ’’ बिस्तर पर ख़बर आ गई , जिब्राईल (अ.स.) ने आ कर कह दिया। रसूल (स.अ.) ने अली (अ.स.) को बुलाया , कहा या अली ! अभी अभी जिब्राईल आए थे और अल्लाह का पैग़ाम सुना कर गए हैं अल्लाह ने कहला भेजा है कि काफ़िरों ने तय पाया है कि तमाम अरब क़बाएल मिल कर आज रात मुहम्मद (स.अ.) के बिस्तर पर हमला कर देंगे और मुझे टुकड़े टुकड़े कर दें। या अली (अ.स.) क्या आज रात मेरे बिस्तर पर सो जाओगे ? दूसरे लफ़्ज़ों में कहूं कि आज रात मेरे बदले बिस्तर पर क़त्ल होना पसन्द करोगे ?

अली (अ.स.) बिस्तरे रसूल (स.अ.) पर:- अली (अ.स.) मुस्कुरा कर कहने लगे या रसूल अल्लाह (स.अ.) ! क्या मेरे क़त्ल होने से या मेरे सोने से आपकी जान बच जायेगी ?

कहा , हां या अली !

जैसे ही रसूल (स.अ.) की ज़बान से हां निकला अली (अ.स.) का सर सजदे में गिर गया। अली (अ.स.) ने सजदा ए शुक्र अदा किया और सजदे से सर उठा कर कहा , जाइये रसूल (स.अ.) मैं सो रहा हूँ। तमाम रात अली (अ.स.) आराम से सोए रहे बल्कि तारीख़ कहती है कि पूरी ज़िन्दगी इस रात के अलावा जी भर कर नहीं सोए। अली (अ.स.) सो रहे हैं और काफ़िर घर का चक्कर काट रहे हैं । कु़दरत भी शायद यह मन्ज़र देख कर ख़ुश हो रही होगी कि ठीक है काटे जाओ चक्कर। बिस्तर पर कुल्ले ईमान सो रहा है और कुफ़्र सदके़ हो रहा है। रात भर यह काफ़िर जागते रहे और घर का पहरा देते रहे। रात भर जागने से तबीयत में गिरानी है या नहीं ? और जाग इस उम्मीद पर रहे हैं कि यूं तलवार लगाएगे , यू गला काटेंगे , तरह तरह की तराकीब ज़हनों में जन्म ले रही थीं। बारह साल पहले दावते ज़ुल अशीरा में अबु तालिब (अ.स.) ज़िन्दा थे तब कुछ न कर सके। हमारे बच्चों को पिटवाया कुछ न कर सके , तीन साल मुहासेरा किये रहे तब भी कुछ न कर सके। एक एक बात याद आ रही थी हर दिल में एक अजीब ग़ुस्सा था , यहां तक कि सवेरा हो गया और सुबह की किरने फूटीं कोई भयानक क़िस्म का काफ़िर दीवार पर चढ़ का नीचे कूदा और उस के पीछे दो चार और कूदे इधर सोने वाले ने चादर उल्टी , नज़र से नज़र मिली , आंखें मिली , आंखें दो से चार हुईं , बढ़े हुए क़दम रूक गए , तलवार वाले हाथ जो उठे थे उठे ही रह गए। सब से आगे वाले काफ़िर ने चीख़ कर पूछा कहां गए तुम्हारे भाई ? अली (अ.स.) ने ग़ुस्से में कहा , क्या मेरे हवाले कर गए थे जो मांगने आए थे ? काफ़िर गु़स्से और डर से थर थर कांप रहे थे। आगे बढ़ने की जुरअत नहीं हो रही थी क्यों कि थे तो वही तो बचपन में पिट चुके थे वो गुज़रा हुआ ज़माना आंखो के सामने घूम रहा था। जहां थे वहीं रूक गए। इधर उधर देखा वो तो गए। यह जो नाकाम और मायूस पलटे होंगे , हवा में तलवार लहराते जाते क्या क्या सोच कर आए थे , घरों में कह कर आए थे कि आज रात हम घर नहीं आयेंगे , आज रात हम मोहम्मद का सर काटने जा रहे हैं , हमारा इन्तेज़ार न करना।

अब सुबह सुबह अपने दरवाज़े पर पहुँचे होंगे , दरवाज़ा ख़ुला होगा , सवाल हुआ होगा कि काट आए मोहम्मद का सर ? गु़स्से में तलवार इधर फ़ेकी , अबा इधर फेंकी , अरे क्या काट आए मोहम्मद का सर क्या हुआ ? क्या होना था वही हुआा। अरे कुछ तो बताओ। क्या बताएं वो निकल गए , वहां अली सो रहे थे। हम समझे कि मोहम्मद सो रहे हैं। अली की वजह से स्कीम फे़ल हो गई , हम ने तो काम कर दिया था। क्या वही अली जिसने हमारे भाई को मारा था ?

कहा , हां हां वही अली इब्ने अबी तालिब ।

अब यह दुश्मनी का पौधा जवान हो गया , इधर दुश्मनी का पौधा जवान हुआ , उधर हमारे दिलों में मोहब्बत का पौधा जवान हो गया। इधर बिस्तरे रसूल (स.अ.) पर अली (अ.स.) सो गए उधर ख़रीदार की सदा आई।

ख़रीदार भी कौन जो बादशाहों का बादशाह है। आदिल है , जौहरी है इस लिये माल की जांच पड़ताल करेगा , खोटा माल नहीं लेगा। बादशाह है इस लिये बेहतरीन माल ख़रीदेगा क्यों कि अद्ल से ख़रीदारी करेगा जैसा माल होगा वैसी क़िमत अदा करेगा।

ख़रीदार ने जिन्स को देखा , इब्तेदा देखी , ज़हन की परवाज़ देखी दिल की गहराई देखी , तन्हाई की ज़िन्दगी देखी , वफ़ादारी देखी , जब इब्तेदा से इन्तेहां तक देख लिया कहीं कोई धब्बा तो नहीं , कोई दाग़ तो नहीं , बे दाग़ नगीना है , मेरे ख़ज़ाने के लायक़ है। अब जौहरी हर तरह से मुतमईन हो गया और सोचने लगा कि इस बेश किमती नगीने की क्या क़ीमत लगाए ? सोचा जन्नत दे दी जाए , फिर कहा वो तो कम है क्यों कि यह तो उसकी तीन रोटियों के बारबर है।

फिर कहा विलायत दे दी जाए , फिर कहा , नहीं वो तो उसकी एक अंगूठी में मिल जाएगी। इबादतों का सवाब दिया जाए , कहा यह भी कम है , वह तो उसकी एक ज़र्बत में मिल जाएगी। जब ख़रीदार ने अपने ख़ज़ाने में नज़र दौड़ाई तो कहा फिर क़ीमत क्या दी जाए। तो ख़ुदा ने ही फ़ैसला किया कि मेरी रिज़ाए उसकी हो जाएं और उसका नफ़्स मेरा हो जाए।

अब रिज़ाए इधर आ गईं , नफ़्स उधर चला गया। वहां ख़रीद व फ़रोख़्त हो गई , सौदा हो गया , बैनामा क़ुरआन में है , सब ज़िक्र कु़रआन में है ताकि झगड़ा न हो सके।

व मिनन्नासे मन् यशरी नफ़्सहुब्तेग़ाअ मरज़ातिल्लाह बैनामा क़ुरआन में रजि. है अल्लाह ने झगड़ा ही ख़त्म कर दिया है नफ़्स बेचा अली (अ.स.) ने ख़रीदा ख़ुदा ने।

अजीब मन्ज़िल है , यह बेचना और ख़रीदना क्या है ? मिल्कियत का तबादला क्या है । शबे हिजरत से पहले पहले जिसको अल्लाह की रिज़ा (मर्ज़ी) चाहिये वह अल्लाह के पास जाए और हिजरत और हिजरत के बाद जिसे अल्लाह को राज़ी करना है वह अली (अ.स.) के पास आए। जिसको अली (अ.स.) से बैअत लेनी है ख़ुदा से बैअत ले। तारीख़े इस्लाम की यह मशहूर बात है और तारीख़ दिन में यह रात तमाम रातों से मुख़्तलिफ़ है कि रसूले ख़ुदा (स.अ.) के बिस्तर पर एक बन्दे ने अपना नफ़्स अल्लाह को बेचा है। उस रात अल्लाह मख़्लूक़ से एक जान , नफ़्स ख़रीद रहा है और एक नफ़्स के बदले में क़ीमत क्या है ? क़ीमत है अल्लाह की रिज़ा । अल्लाह ख़ुद अपनी मर्ज़ियां दे रहा है तो जब यह सौदा हुआ तो उस वक़्त अली (अ.स.) की शादी नहीं हुई थी , क्यों कि यह वाक़ेया है मक्का का और शादी हुई है मदीना जाके , बस समझ में आ गया कि नस्ले अली (अ.स.) में जितने अली (अ.स.) होंगे वो ख़ुदा के हाथ बिके हुए होंगे और जो अली (अ.स.) का वारिस होगा वह रिज़ाए का वारिस होगा।

हां हां यह कोई छोटी फ़ज़ीलत है ? उससे बढ़ कर और क्या फ़ज़ीलत हो सकती है लेकिन इधर भी तो देखिए कि बिस्तरे रसूल (स.अ.) उस रात कोई अमन की जगह नहीं। तलवारों के साए में , तीरों के निशाने पर , अल्लाह के दीन की ख़ातिर , रसूल (स.अ.) की रिसालत के लिए अबु तालिब (अ.स.) का लख़्ते जिगर सो गया ।

आवाज़े क़ुदरत आई , ऐ अली हमें जान की ज़रूरत पड़ी तुम ने दी , अब जहां मेरी रिज़ा की ज़रूरत पड़े दे देना। ऐ अली आज मेरी रिज़ा तेरी रिज़ा और तेरी जान मेरी जान। ग्यारह मरतबा ज़िन्दगी मांगी तो ज़िन्दगी पेश कर दी , बारहवीं दफ़ा कहा कि तुम्हारी हयात चाहिये। कहा ऐ माबूद ! जो तेरी मर्ज़ी , हम तेरे लिये ही जीते हैं और तेरे ही लिये शहादत क़ुबूल करते हैं।। अब समझे।

बस काफ़िर तिलमिला कर रह गए। तेरी बरस की दुश्मनीं और फिर उस रात , जिस रात उन्होंने अपनी कामयाबी के ख़्वाब देखे थे सब अधूरे रह गए।

आज दुनियां हैरान होती है कि अली (अ.स.) से मदद क्यों मांगते हैं , अली (अ.स.) के सदके़ , अली (अ.स.) के वसीले से दुआए क्यों मांगी जाती हैं। अरे ना समझ ! समझ नहीं आती कि अल्लाह की रिज़ा चाहिये तो जिसके पास रिज़ा कन्ट्रोल है उसके ज़रिए ही अल्लाह राज़ी होगा। अल्लाह आदिल है , अल्लाह अली (अ.स.) के बग़ैर राज़ी नहीं होता क्यों कि यह बात खि़लाफ़े अद्ल है कि एक चीज़ एक चीज़ के बदले में दे दी गई हो , फिर उसको इस्तेमाल किया जाए , उस नफ़्स के बग़ैर जिसके बदले में अल्लाह ने अपनी रिज़ा दी , मगर न जाने क्यों अली (अ.स.) से अदावत है इन लोगों को ?

ख़ैर जूं जूं उनके दिलों में अदावत बढ़ती जाऐगी , हमारे दिलों में मुहब्बत बढ़ती जाएगी।