तफ़सीरे सूरऐ हम्द

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तफ़सीरे सूरऐ हम्द लेखक:
कैटिगिरी: तफसीरे कुरआन

तफ़सीरे सूरऐ हम्द

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: आयतुल्लाह नासिर मकारिम शीराज़ी साहब
कैटिगिरी: विज़िट्स: 3538
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तफ़सीरे सूरऐ हम्द
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तफ़सीरे सूरऐ हम्द

तफ़सीरे सूरऐ हम्द

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

तफ़सीरे सूरऐ हम्द

(तफ़सीरे नमूना )

लेखकः आयतुल्लाह नासिर मकारिम शीराज़ी

नोटः ये किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क के ज़रीऐ अपने पाठको के लिऐ हिन्दी जबान मे टाइप कराई गई है।

Alhassanain.org/hindi

बिस्मिल्लाह हिर्रेहमान निर्रहीम

सूरऐ हम्द

मक्की सूरत है और इस मे 7 आयात है

सूरऐ हम्द की ख़ुसूसियात

ये सूरत क़ुराने मजीद के दीगर सूरतो की निस्बत बहुत सी ख़ुसूसियात की हामिल है।

इन इम्तियाज़त का सर चश्मा नीचे लिखी खूबियां है।

1. लबो लहजे और असलूब बयानः

ये सूरत दीगर सूरतो से इस लिहाज़ से वाज़ेह इम्तियाज़ रखती है कि वो ख़ुदा की गुफ़्तुगू के उन्वान के हामिल है और ये बन्दों की ज़बान के तौर पर नाज़िल हुई है। दूसरे लफ़्ज़ों में इसमें ख़ुदावंदे आलम ने बन्दों को ख़ुदा से गुफ़्तुगू और मुनाजात के तरीक़े सिखाये है।

सूरे की इब्तेदा ख़ुदावंदे आलम की हम्दो सना से की गयी है। ख़ुदा शनासी और क़यामत पर ईमान के इज़हार के साथ साथ गुफ़्तुगू को जारी रख़ते हुए बन्दों के तक़ाज़ों , हाजात और ज़रूरीयात पर क़लाम को ख़त्म किया गया है।

2. असासे क़ुरानः

नबी अकरम के इरशाद के मुताबिक़ सूरह हम्द उम्मुल किताब है। एक मर्तबा जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी हज़रत (स.अ.व.व.) के ख़िदमत में हाज़िर हुए तो आप (स.अ.व.व.) ने फ़रमायाः

क्या तुम्हें सबसे फज़ीलत वाली सूरत की तालीम दूँ जो ख़ुदा ने अपनी किताब में नाज़िल फ़रमाई है। जाबिर ने अर्ज़ किया जी हां मेरे माँ बाप आप पर क़ुर्बान हो मुझे इसकी तालीम दीजिये। हज़रत ने सूरह हम्द जो उम्मुल किताब है उन्हें तालीम फ़रमाई और ये भी इरशाद फ़रमाया कि सूरह हम्द मौत के अलावा हर बीमारी के लिए शिफ़ा है।

(मजमउल बयान , नूरूस्सक़लैन)

हम जानते है कि उम्म का मतलब है बुनियाद और जड़। शायद इसी बिना पर आलमे इस्लाम के मशहूर मुफ़स्सिर इब्ने अब्बास कहते हैः

हर चीज़ की कोई असास व बुनियाद होती है और कुरआन की असास सूरे फ़ातेहा है।

3. पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) के लिए ऐज़ाज़:

ये बात क़ाबिल ऐ ग़ौर है कि क़ुरानी आयात मे सूरह हमद का तार्रुफ़ रसूले अकरम के लिए एक अज़ीम इनाम के तौर पर कराया गया है और इसे पूरे कुरआन के मुक़ाबले मे पेश फ़रमाया गया है।

जैसा के इरशादे इलाही है :

हमनें आपको सात आयतो पर मुश्तमिल सूरह हम्द अता किया जो दो मर्तबा नाज़िल किया गया और कुरआन ऐ अज़ीम भी इनायत फ़रमाया गया।

(सूरऐ हिज्र आयात 87)

कुरआन मजीद अपनी तमाम तर अज़मत के बावजूद यहाँ सूरह हम्द के बराबर क़रार पाया। इस सूरह का दो मर्तबा नुज़ूल भी इस की बहुत ज़्यादा अहमियत की बिना पर है।

इन्ही कारणो की बिना पर इस सूरह की फ़ज़ीलत के सिलसिले में रसूल अल्लाह से मनक़ूल हैः

जो मुसलमान सूरह हम्द पढ़े उसका अजर व सवाब उस शख्स के बराबर है जिसने दो तिहाई कुरआन की तिलावत की हो ( एक और हदीस में पूरे कुरआन की तिलावत के बराबर सवाब मज़कूर है) और इसे इतना सवाब मिलेगा गोया उसनें हर मोमीन और मोमिना को हदीया पेश किया हो।

4. तिलावत की ताकीद:

इसी बिना पर हज़रत इमामे सादिक़ (अ.स.) ने इरशाद फ़रमाया हैं।

शैतान ने चार दफा नाले व फ़रयाद कियाः पहला वो मौक़ा था जब उसे बहार निकाला गया। दूसरा वो वक़्त था जब उसे जन्नत से ज़मीन की तरफ़ उतारा गया। तीसरा वो लम्हा था जब हज़रत मोहम्मद (स.अ.व.व.) को मबऊस ऐ बारिसालत किया गया और आख़िर वो मुक़ाम था जब सूरह हम्द को नाज़िल किया गया।

(तफ़सीरे नूरूस्सक़लैन जिल्द 1 पेज न. 4)

इस सूरे का नाम फ़ातेहा क्यों है।

फ़ातेहातुल किताब का माने है आग़ाज़े किताब (कुरआन) करने वाला सूरह। मुख्तलिफ़ रिवायात जो नबी अकरम (स.अ.व.व.) से नक़ल हुई है उनसे वाज़े होता है के ये सूरत ऑनहज़रत के ज़माने में भी उसी नाम से पहचाना जाता था यही से दुनियाए इस्लाम के एक अहमतरींन मसले की तरफ फ़िक्र का दरीचा कहलाता है और वो है कुरआन के जमा करने के बारे में एक गिरोह में ये बात मशहूर है कि कुरआने मजीद नबी अकरम (स.अ.व.व.) के ज़माने में मुन्तशिर व जुदा जुदा सूरत में था और आप के बाद हज़रत अबु बकर , हज़रत उस्मान , हजऱत उमर के ज़माने में जमा हुआ लेकिन फ़ातेहातुल किताब से ज़ाहिर होता है कुरआन मजीद पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) के ज़माने में उसी मौजूदा सूरत में जमा हों चुका था और इसी सूरह हम्द से उसकी इब्तेदा हुई थी वरना ये कोई सब से पहले नाज़िल होने वाली सूरत तो नही जो ये नाम रखा जाये और वो ही इस सूरत के लिए फ़ातेहतुल किताब नाम के इंतेखाब के लिए कोई दूसरी दलील मौजूद है बहुत से दीगर मदारिक भी हमारे पेशे नज़र है जो इसकी हकीक़त के निशानदेह है कि कुरआने मजीद बेसुरते मजमुए जिस तरह हमारे ज़माने में मौजूद है इसी तरह पैयम्बरे अकरम (स.अ.व.व.) के ज़माने में आप के हुक्म के मुताबिक जमा हो चुका था इनमे से चंद एक हम पेश करते है।

1. अली इब्ने इब्राहिम ने हज़रत इमाम सादिक़ (अ.स.) से रिवायात की है रसूले अकरम (स.अ.व.व.) ने हज़रत अली (अ.स.) से फ़रमाया के कुरआन रेशम के टुकड़ों , कागज़ के पुर्ज़ों और ऐसी दूसरी चीज़ों में मुन्तशिर है उसे जमा करो। उस पर हज़रत अली (अ.स.) मजलिस से उठ खड़े हुए और कुरआन को ज़र्द रंग के पारचे में जमा किया और फिर उस पर मोहर लगा दी अलावा इसके हदीस सकलैन जिसे शिया और सुन्नी दोनों ने नक़ल किया है गवाही देती है कि कुरआन किताबी सूरत में रसूल अल्लाह (स.अ.व.व.) के ज़माने में जमा हो चुका था पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया मैं तुमसे रुख़्सत हो रहा हुँ और तुम में दो चीज़े बतौर यादगार छोड़े जा रहा हूः ख़ुदा की किताब और मेरा ख़ानदान।

एक अहम सवाल!

यहां ये सवाल पैदा होगा कि इस बात को कैसे बावर किया जा सकता है कि कुरआन रसूल अल्लाह (स.अ.व.व.) के ज़माने में जमा हुआ जबकि उलेमा के एक गिरोह में मशहूर है कि कुरआन पैगम्बर के बाद जमा हुआ है। हज़रत अली (अ.स.) के ज़रिये या दीगर अशखास के ज़रिये।

जवाब: जो कुरआन हज़रत अली (अ.स.) ने जमा किया था वो कुरआन तफ़सीरे शाने नुज़ूल आयात वग़ैरह का मजमुआ था।

1. बिस्मिल्ला हिर्रहमा निर्हीम

2. अलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन

3. अर्रहमा निर्रहीम

4. मालेके योमिद्दीन

5. इय्याका नअबोदो व इय्यका नसतईन।

6. ऐहदे नस सिरातल मुस्तकीम।

7. सिरातल लज़ीना अनअमता अलैहिम। ग़ैरिल मग़ज़ूबे अलैहिम वलज्जाल लीन।

तर्जुमा

1. शूरू अल्लाह के नाम से जो रहमान ओ रहीम है।

2. हम्द मख़सूस उस ख़ुदा के लिए जो तमाम जहानो का मालिक है।

3. ख़ुदा जो मेहरबान और बख़्शने वाला है। जिसकी रहमत आम खा़स सब पर फैली हुई है।

4. वो ख़ुदा जो रोज़े जज़ा का मालिक है।

5. परवरदिगार हम तेरी ही इबादत करते हैं और तुझ ही से मदद चाहते है।

6. हमे सीधी राह की हिदायत फ़रमा।

7. उन लोगो की राह जिन पर तुने इनाम फ़रमाया। उनकी राह नहीं जिन पर तेरा गज़ब हुआ और ना वो जो कि गुमराह हो गए।

1. बिस्मिल्ला हिर्रहमा निर्हीम

शूरू अल्लाह के नाम से जो रहमान ओ रहीम है।

तफ़सीर

तमाम लोगों में यह रस्म है कि हर अहम और अच्छे काम का आगाज़ किसी बुज़ुर्ग के नाम से करते है। किसी अज़ीम इमारत की पहली ईंट उस शख़्स के नाम पर रखी जाती है। जिसमें बहुत ज्यादा क़ल्बी लगाव हो यानी उस काम को अपनी पसंदीदा शख्सीयत के नाम मनसूब कर देते है। मगर क्या ये बेहतर नहीं है कि प्रोग्राम को दावाम बख़्शने और किसी मिशन को बरकरार रखने के लिए किसी ऐसी हसती से मनसूब किया जाए जो पायेदार हमीशा रहने वाली हो और जिसकी ज़ात में फना का गुज़र ना हो इस जहान की तमाम मौजूदात पुरानी होने वाली है और ज़वाल की तरफ रवां दवां है। सिर्फ वही चीज़ बाक़ी रह जाएगी जो इस ज़ात ला यज़ाल से वाबस्ता होगी तमाम मौजूदात में फख़त ख़ुदा अज़ली व अबदी है। इसलिए चाहिए कि तमाम अमूर को उसी के नाम से शुरू किया जाऐ। उसके साये में तमाम चीज़ो को क़रार दिया जाये और उसी से मदद तलब की जाये।

इसी लिए कुरआन का आगाज बिस्मिल्ला से होता है। यही वजह है कि रसूले अकरम की मशहूर हदीस में हम पढ़ते हैः जो भी अहम काम खुदा के नाम के बगैर शुरू होगा नाकामी से हमकिनार होगा।

(तफ़सीरे अलबयान जिल्द न. 1 पेज न. 461)

इंसान जिस काम को अंजाम देना चाहे चाहिए कि बिस्मिल्लाह कहे और जो अमल खुदा के नाम से शुरू हो वह मुबारक है।

इमाम मुहम्मद बाकिर फरमाते हैं कि जब कोई काम शुरू करने लगो बडा हो या छोटा बिस्मिल्लाह कहो ताकी वो बा बरकत भी हो और पुर अज अमनो सलामती भी।

खुलासा ये हैं कि किसी अमल कि पायदारी और बका बिस्मिल्लाह के राबते खुदा से वाबस्ता है। इसी मुनासबात से जब खुदा तआला ने पैगम्बर ए अकरम पर वही नाजिल फरमाई तो उन्होंने हुक्म दिया कि तबलीग ए इस्लाम की अजीम जिम्मेदारी को खुदा के नाम से शुरू करें।

इक़रा बिस्मे रब्बेकल लज़ी खलक़। (सूरे इक़रा आयत न. 1)

हम देखते है कि जब तअज्जुबखेज़ और सख्त तूफान के आलम मे हज़रत नूह किश्ती पर सवार हुऐ , पानी की मौजे पहाड़ो की तरह बुलंद थी और हर सेकेन्ड खतरो का सामना था। ऐसे मे मंज़िले मक़सूद तक पहुँचने और मुश्किलात पर क़ाबू पाने के लिऐ आपने अपने साथियो को हुक्म दिया कि किश्ती के चलते और रूकते बिस्मिल्ला कहो। (सूरह हूद आयत 41)

लेहाज़ा उन लोगो ने इस खतरो से भरे सफर को तोफीक़े इलाही के साथ कामयाबी से तय कर लिया और अमनो सलामती के साथ कश्ती से उतरे (सूरे हूद आयत 48)

जब जनाबे सुलैमान ने मलीकाऐ सबा को खत लिखा तो उसका उनवान बिस्मिल्ला ही को रखा।

ये (खत) सुलैमान की तरफ से है और बेशक इस का मज़मून ये है कि शूरू करता हुँ अल्लाह के नाम से जो बड़ा महरबान और निहायत रहम वाला है।

(सूरऐ नमल आयत 30)

इसी बिना पर कुरआन हकीम की तमाम सूरतो की इब्तेदा बिस्मिल्लाह से ही होती है। ताकि नोऐ बशर की हिदायत व सआदत का असली मक़सद कामयाबी से हमकिनार हो और बग़ैर किसी नुकसान के अंजाम पज़ीर हो सिर्फ सूरे तौबा ऐसी सूरत है। जिसकी इब्तेदा में बिस्मिल्लाह नज़र नही आती। क्योंकि उसका आग़ाज़ मक्का के मुजरिमो और वादा तोड़ने वालो से ऐलाने जंग के साथ हो रहा है। लिहाज़ा ऐसे मौकों पर ख़ुदा की सिफत रहमानो रहीम का ज़िक्र मुनासिब नहीं।

यहां एक नुक़ते कि तरफ तवज्जो देना ज़रूरी है।

1. क्या बिस्मिल्लाह सूरह हम्द का जुज़ है।

शिया उलेमा व मुहक़्क़ीन मे इस मसले पर कोई इख़्तेलाफ नहीं किया कि बिस्मिल्लाह सूरऐ हम्द और दिगर सूरे कुरआन का जुज़ है। बिस्मिल्लाह का तमाम सूरतो की इब्तेदा में होना उसूली तौर पर इस बात का ज़िंदा सबूत है के ये जुज़े कुरआन है। क्योंकि हमें मालूम है कि कुरआन में कोई इज़ाफ़ी चीज़ नहीं लिखी गई और बिस्मिल्लाह ज़माना ऐ पैगम्बर से लेकर अब तक सूरतो की इब्तेदा मौजूद है। इन सबके अलावा मुसलमानों की ये सीरत रही है कि वो कुरआन मजीद की तिलावत के वक्त बिस्मिल्लाह हर सूरत की इब्तेदा में पढ़ते रहे है। तवातुर से यह साबित है कि पैगम्बर अकरम भी इसकी तिलावत फरमाते थे। ये कैसे मुमकिन है कि जो चीज़ कुरआन का जुज़ न हो उसे पैगम्बर और मुसलमान हमेशा कुरआन के ज़मन पढ़ते रहे हो और सदा इस अमल को जारी रखा हो।

एक दिन माविया ने अपनी हुकुमत के ज़माने में नमाज़े जमात में बिस्मिल्लाह नही पढ़ी तो नमाज के बाद मुहाजरीन और अंसार के एक गिरोह ने पुकार कर कहाः

क्या मुआविया ने बिस्मिल्लाह को छोड़ दिया है या भूल गए है।

(बेहक़ी जुज़ 2 पेज 49)

2. ख़ुदा के नामो में से अल्लाह जामेतरीन नाम है।

बहरहाल कलमऐ अल्लाह जो ख़ुदा के नामो में से सबसे ज्यादा जामे है। ख़ुदा के इन नामो को जो कुरआन मजीद या दीगर मसादरे इस्लामी में आए है। अगर देखा जाए तो पता चलता है कि वो ख़ुदा की किसी एक सिफ़त को मुनअकिस करते है। लेकिन वो नाम जो तमाम सिफ़तो कमालाते इलाही की तरफ इशारा करते है। दूसरे लफ़्ज़ों में जो सिफ़त जलालो जमाल का जामे है। वो सिर्फ अल्लाह है।

यही वजह है कि ख़ुदा के दूसरे नाम अमूमन कलमऐ अल्लाह की सिफ़त की हैसियत से ज़िक्र किए जाते है। मिसाल के तौर पर चंद एक का ज़िक्र किया जाता है।

फइन्नल्लाहा गफूरूर रहीम

(सुरऐ बक़रा आयत 226)

ये सिफ़ते ख़ुदा की सिफ़त बख़्शिश की तरफ इशारा है।

समीउन अलीम

समीअ इशारा है इस बात की तरफ़ की ख़ुदा तमाम सुनी जाने वाली चीज़ो से आगाही रखता है। और आलिम इशारा है कि वो तमाम चीजों से बा ख़बर है।

फइन्नल लाहा समीउन अलीम

(सूरऐ बक़रा आयत 227)

ज़ाहिर हुआ कि अल्लाह ही ख़ुदा के तमाम नामो में से जामेतरीन है। यही वजह है कि एक ही आयत मे हम देखते हैं कि बहुत से नाम अल्लाह करार पाए है।

अल्लाह वो है जिसके सिवा कोई माबूद नही वो हाकिमे मुतलक है। मुनज़्ज़ा है। हर ज़ुल्मो सितम से पाक है। अमन बख़्शने वाला है। सबका निगेहबान है। तवाना है। किसी से शिकस्त खाने वाला नहीं और तमाम मौजूदात पर क़ाबिर ओ ग़ालिब है और बा अज़मत है।

(सुरऐ हशर आयत 23)

इस नाम की जामीयत की एक वजह शायद यह है कि इमान ओ तौहीद का इज़हार सिर्फ़ (ला इलाहा इल्लल लाह) के जुमले से हो सकता है। और जुमला (ला इलाहा इल्लल अलीम इल्लल खालिक़ इल्लल राज़िक़) और दिगर इस किस्म के जुमले ख़ुदा से तौहीदो इस्लाम की दलील नहीं हो सकते यही वजह है कि दिगर मज़हब के लोग जब मुसलमानों के माबूद की तरफ इशारा करना चाहते हैं तो लफ्ज़ अल्लाह का जिक्र करते है। क्योंकि खुदावंद आलम की तारीफो तौसीफ लफ्ज़े अल्लाह से मुसलमानों के साथ मख़सूस है।

खुदा की रहमते आम और रहमते ख़ास

मुफास्सिरीन के एक तबके में मशहूर है कि सिफ़त रहमान रहमत ए आम की तरफ इशारा है। यह वो रहमत है जो दोस्त व दुश्मन , मोमीन और काफिर , नेक और बद सबके लिए है।

क्योंकि उसकी रहमत की बेहिसाब बारिश सबको पहुंचती है और इसका खवान ए नेमत हर कहीं बिछा हुआ है। उसके बंदे की जिंदगी का गुनागून रेनाइयो से भरा हुआ है। अपनी रोज़ी इसके दस्तर ख्वान से हासिल करते है। जिसपर बेशुमार नेमते रखी है। यह वो रहमते उमूमी है। जिसने आलमे हसती का इहाता कर रखा है और सबके सब इस दरिया ए रहमत में गोताज़न है। रहमते ख़ुदावंदे आलम की रहमते ख़ास की तरफ इशारा है यह वो रहमत है जो इसके सालेह और फ़रमा बरदार बंदो के साथ मख़सूस है। क्योंकि उन्होंने ईमान और अमले सालेह के बिना पर यह शाइस्तगी हासिल कर ली है कि वो इस रहमते एहसाने ख़ुसूसी से बेहरमंद हो जो गुनहगारो और ग़ारत गरो के हिस्से में नहीं हैं।

एक चीज़ जो मुमकिन है। उसी मतलब की तरफ इशारा हो यह है कि लफ्ज़ रहमान कुरआन में हर जगह मुतलक़ आया है जो उमूमियत की निशानी है जब के रहीम कभी मुक़य्द ज़िक्र हुआ है। मसलनः व काना बिल मोमेनीना रहीमा।

ख़ुदा मोमीनीन के लिए रहीम है।

(सुरऐ अहज़ाब आयत 43)

और कभी मुतलक़ जैसे के सूरह हम्द में है। एक रिवायत में है कि हज़रत इमाम जाफर सादिक़ ने फरमाया

ख़ुदा हर चीज का माबूद है। वो तमाम मख़लूक़ात के लिए रहमान और मोमीनीन पर ख़ुसूसियात के साथ रहीम है।

(अल मीज़ान बे सनदे काफ़ी , तौहीद सदूक़ और मआनीउल अख़बार)

खुदा की दीगर सिफ़त बिस्मिल्लाह में क्यूं मज़कूर नहीं

यह बात क़ाबिले तवज्जो है कि कुरआन की तमाम सूरते सिवाऐ सुराऐ बरात के जिसकी वजह बयान हो चुकी है बिस्मिल्लाह से शुरू होती है और बिस्मिल्लाह में मख़सूस नाम अल्लाह के बाद सिर्फ सिफ़त ए रहमानियत का ज़िक्र है। इससे सवाल पैदा होता है कि यहाँ पर बाक़ी सिफ़त का ज़िक्र क्यूं नहीं है।

अगर हम एक नुक़्ते की तरफ तवज्जो करें तो उस सवाल का जवाब वाज़े हो जाता है और वो यह है कि हर काम की इब्तेदा में ज़रूरी है कि ऐसी सिफ़त से मदद ले जिसके असर तमाम जहान पर साया फिगन हो जो तमाम मौजूदात का इहाता किए हो और आलमे बोहरान में मुसीबतज़दो को निजात बख़्शने वाली हो। मुनासिब है कि इस हकीक़त को कुरआन की ज़बान से सुना जाऐ

इरशादे इलाही है

मेरी रहमत तमाम चीज़ों पर फैली है।

(सुरऐ आराफ आयत 154)

एक और जगह हामेलान ए अर्श की एक दुआ ख़ुदा वंदे करीम ने यूँ बयान फ़रमाया है

परवरदिगार तूने अपना दामने रहमत हर चीज़ तक फैला रखा है।

(सुरऐ मोमीन आयत 7)

हम देखते हैं कि अम्बिया कराम निहायत सख़्त हवादिस और ख़तरनाक दुश्मनों के चंगुल से निजात के लिए रहमते ख़ुदा के दामन में पनाह लेते है। क़ौमे मूसा फिरओनियो के ज़ुल्म से निजात के लिए पुकारती है।

ख़ुदाया हमें ज़ुल्म से निजात दिला और अपनी रहमत का साया अता फ़रमा।

(सुरऐ युनूस आयत 86)

हज़रत हुद (अ.स.) और उनके पैरोकार के सिलसिले में इरशाद है।

हज़रत हुद (अ.स.) और उनके साथियों को हमनें अपनी रहमत के वसीले से निजात दी।

(सुरऐ आराफ आयत 72)

बिस्मिल्ला से वाज़ेह तौर पर ये दरस हासिल किया जा सकता हैं कि ख़ुदा वंदे आलम के हर काम की बुनियाद रहमत पर है और बदला या सज़ा तो अलग सूरत है जब तक यक़ीनी अवामिल पैदा नही हो सज़ा मुतहक़्क़ नही होती। जैसा कि हम दुआ में पढ़ते है।

ऐ वो ख़ुदा के जिसकी रहमत इसके ग़जब पर सबक़त ली गयी है। (दुआऐ जोशने कबीर)

इंसान को चाहिये के वो ज़िन्दगी के प्रोग्राम पर यूं अमल पैदा हो के हर काम की बुनियाद रहमतो मोहब्बत को क़रार दे और सख़्ती को फ़क़त बवक़्ते ज़रुरत इख़्तियार करे। कुरआन मजीद के 114 सूरतो में से 113 की इब्तेदा रहमत से होती है और फ़क़त एक सूरह तोबा है जिस का आग़ाज़ बिस्मिल्लाह की बजाये ऐलान ऐ जंग और सख़्ती से होता है।

2. अलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन

हम्द ओ सना उस ख़ुदा के लिए है जो तमाम जहानों का परवरदिगार और मालिक है।

तफ़सीर

सारा जहान उसकी रहमत में डूबा हुआ है।

बिस्मिल्लाह जो सूरत की इब्तेदा है उस के बाद बन्दों की पहली ज़िम्मेदारी ये है के वो आलमे वजूद के अज़ीम मबदा और उस की तमाम न होने वाली नेमतों को याद करें। वो बेशुमार नेमतें जिन्होंने हमारे पूरे वजूद को घेर रखा है। परवरदिगारे आलम की मारेफ़त की तरफ रहनुमाई करती है बल्कि उस रास्ते का सबब भी यही है क्योंकि किसी इंसान को जब कोई नेमत हासिल होती है तो वो फ़ौरन चाहता है कि उस नेमत के बख़्शने वाले को पहचाने और फरमाने फ़ितरत के मुताबिक़ उस की शुक्रगुज़ारी के लिए खड़ा हो और उस के शुक्रिया का हक़ अदा करे। यही वजह है कि उलेमाऐ इल्म कलाम इस इल्म की पहली बहस में जब गुफ़्तुगू मारेफ़त ख़ुदा की इल्लत व सबब के मुताल्लिक़ करते है तो वो कहता है कि फ़ितरी व अक़्ली हुक्म के मुताबिक़ मारेफ़ते ख़ुदा इस लिए वाजिब है क्योंकि मोहसिन के एहसान का शुक्रिया वाजिब है। ये जो हम कहते है कि मारेफ़त की रहनुमाई उस की नेमतों से हासिल होती है तो उसकी वजह ये है कि ख़ुदा को पहचानने का बेहतरीन और जामेतरीन रास्ता असरारे आफरीनश व ख़िलक़त का मुतालेआ करना है। इन मे ख़ास तौर पर उन नेमतों का वजूद है जो नोऐ इंसान की ज़िंदगी को एक दूसरे से मरबूत करती है। उन दो वजह की बिना पर सूरऐ फ़ातेहातुल किताब -अलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन- से शुरू होती है। इस जुमले की गहराई और अज़मत तक पहुँचने के लिए ज़रूरी है कि हम्द , मदह और शुक्र के दरम्यान फ़र्क़ और इसके नतायज की तरफ तवज्जो की जाये।

हम्दः नेक़ इख़्तियारी काम या नेक़ सिफ़त की तारीफ़ को अरबी ज़बान में हम्द कहते है यानी जब कोई सोच समझ कर कोई अच्छा काम अंजाम दे या किसी अच्छी सिफ़त को इंतेख़ाब करे जो नेक़ इख़्तियारी आमाल का सर चश्मा हो तो उस पर की गयी तारीफ व तौसीफ़ को हम्दो सताएश कहते है।

1. जो इंसान भी ख़ैर और बरक़त का सर चश्मा है वो पैग़म्बर और खुदायी रहनुमा नूर हिदायत से दिलो को मुनव्वर करता है और दरस देता है। जो सखी भी सख़ावत करता है और जो कोई तबीब जानलेवा ज़ख़्म पर मरहम पट्टी लगाता है। इनकी तारीफ़ का मबदा भी ख़ुदा की तारीफ़ है और इनकी सना दर असल उसी की सना है बल्कि अगर ख़ुर्शीद नूर अफ़शानी करता है। बादल बारिश बरसाता है और ज़मीन अपनी बरकते हमें देती है तो ये सबकुछ भी उसकी जानिब से है लिहाज़ा तमाम तारीफों की बाज़ गश्त इसी ज़ात बा बरक़त की तरफ़ है दूसरे लफ़्ज़ों में -अलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन- तौहीदे ज़ात , तौहीदे सिफ़ात और तौहीद अफआल की तरफ इशारे है। इस बात पर ख़ुसूसी ग़ौर किया जाऐ।

2. क़लमऐ हम्द से ये बात वाज़े तौर पर मालूम होती है कि ख़ुदा वंदे आलम ने ये तमाम इनायात और नेकीयां अपने इरादे व इख़्तियार से ईजाद की। इसलिए ये बात इन लोगो के नुक़्ते नज़र के ख़िलाफ़ है जो ये कहते है कि ख़ुदा भी सूरज की तरह एक मजबूर फैज़ बख़्श (मुफीद चीज़) है यहाँ ये बात भी क़ाबिले ग़ौर है कि हम्द सिर्फ इब्तेदायी कार में ज़रूरी नही बल्के इख़्तेताम कार पर भी लाज़िम है जैसा के कुरआन हमें तालीम देता है ।

अहलेबहीश्त के बारे में कुरआन की नज़र से

पहले तो वो कहेंगे के अल्लाह तो हर ऐब व नक़्स से पाक है एक दूसरे से मुलाक़ात के वक़्त सलाम कहेंगे और हर बात के ख़ात्मे पर कहेंगे -अलहम्दो लिल्लाहे रब्बिल आलमीन-

3. क़लमऐ रब के असली माना है किसी चीज़ का मालिक या साहिब जो इसकी तरबियत व इस्लाह करता हो क़लमेऐ -रबीबा- किसी शक़्स की बीवी की उस बेटी को कहते है जो इसके किसी पहले शोहर से हो लड़की अगरचे दूसरे शोहर से होती है लेकिन मुँह बोले बाप की निगरानी में परवरिश पाती है।

लफ़्ज़े -रब- मुतलक़ और अकेला तो सिर्फ़ ख़ुदा के लिए बोला जाता है अगर ग़ैरे ख़ुदा के लिए इस्तेमाल हो तो ज़रूरी है कि इज़ाफ़त भी साथ हो। मसलन हम कहते है रब्बुल्दार (घर का मालिक) ,या रब्बुल सफ़ीना (कश्ती वाला)।

तफ़्सीरे मजमउल बयान में एक और माने भी हैः बड़ा शख़्स जिसके हुक्म की इताअत की जाती हो. बईद नही के दोनों माने के बाज़गश्त एक ही असल की तरफ हो।

लफ्ज़े आलमीन आलम का बहुवचन है और आलम के माने है मुख़्तलिफ़ मौजूदात का वो मजमुआ जो मुशतरक सिफ़ात का हामिल हो या जिन का ज़मान और मकान मुशतरक हो। मसलन हम कहते है आलमे इंसान , आलमे हैवान या आलमे ग्याह या फिर हम कहते है आलमे मशरिक़ , आलमे मग़रिब , आलमे इमरुज़ या आलमे दीरुज़। लिहाज़ा आलम अकेला जमीयत (ज़्यादती) का माना रखता है और जब आलमीन की शक़्ल मे जमा का सेगा हो तो फिर उससे इस जहान के तमाम मजमुओ की तरफ इशारा होगा।

एक रिवायत में जो शैख़ सूदूक़ ने उयूनूल अख़बार में हज़रत अली (अ.स.) से नक़्ल की है। उसमें है के इमाम ने अल्हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन की तफ़्सीर के ज़िम्न में फ़रमायाः

रब्बुल आलेमीन से मुराद तमाम मख़लूक़ात का मजमूआ है चाहे वो बेजान हो या जानदार।