मुझे रास्ता मिल गया

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मुझे रास्ता मिल गया लेखक:
: अल्लामा ज़ीशान हैदर जवादी
कैटिगिरी: विभिन्न

मुझे रास्ता मिल गया

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: डाॅ. तेजानी समावी
: अल्लामा ज़ीशान हैदर जवादी
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मुझे रास्ता मिल गया

मुझे रास्ता मिल गया

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

मेरी हयात के मुख़तसर इशारे

मुझे आज तक याद है के बचपन मे मेरे वालिदे मोहतरम मुझे किस तरह इलाक़े की मस्जिद की तरफ़ ले गऐ थे जहॉ माहे रमज़ान मे नमाज़े तरावीह पढ़ाई जाती थी जबकि मेरी उम्र सिर्फ दस साल थी और मुझे नमाज़ियो पर मुक़द्दम कर दिया गया था।

जिस अम्र पर मैं अपने ताअज्जुब को पोशीदा ना रख सका। मैं ये जानता था के मेरे मुअल्लिमे क़ुरआन ने तमाम उमूर को मुरत्तब कर लिया था कि मैं जमाअत के साथ दो या तीन राते नमाज़े तरावीह पढाऊं वरना मैं आदतन इलाक़े के बच्चों के साथ जमाअत के पीछे पढ़ा करता था और इस बात का इंतेज़ार करता था कि इमाम क़ुरआने करीम के निस्फ सानी यानी सूर-ऐ-मरियम तक पहुंच जाऐं और चूंकि मेरे वालिद को ये शौक़ था कि मुझे दीनी मदरसे में क़ुरआन की तालीम दिलवाऐं और खुद मेरे घर मे रात के बाज़ हिस्सों में वो इमामे मस्जिद जो मेरे अक़रुबा मे थे और नाबीना थे हिफ़ज़े क़ुरआन का काम अंजाम दिया करते थे और मैं इस मुख़तसर उम्र में निस्फ़ क़ुरआन हिफ़ज़ कर चुका था।

मेरे मुअल्लिम ने चाहा कि मेरे ज़रिये अपने फ़ज़लो इजतेहाद का इज़हार करे तो तिलावत के दौरान रुकु के मवाक़े की भी तालीम दी और बार-बार उसकी तकरार की ताकि मेरी समझ का यक़ीन हासिल हो जाऐ और जब मैं इम्तेहान में कामयाब हो गया और तवक़क़ो के मुताबिक जमाअत के साथ नमाज़ और तिलावत तमाम कर चुका तो मजमा दस्त-बोसी के लिऐ मुझ पर टूट पड़ा।

सब मेरे हाफ़िज़े से ख़ुश और मेरे मुअल्लिम के शुक्र गुज़ार थे। लोग मेरे वालिद को मुबारकबाद दे रहे थे और सब के सब अल्लाह की हम्दो सना में मसरूफ़ थे कि उसने नेमते इस्लाम के साथ शैख़ की बरकात से भी सरफ़राज़ फ़रमाया है।

मैंने उस दौर मे ऐसेन अय्याम भी गुज़ारे हैं जो मरे हाफ़िज़ से महो नहीं हो सकते इस लिऐ कि मैं मुसलसल देख रहा था के लौग मेरे क़द्रदां हैं और मेरी शोहरत सारे शहर तक फ़ैल चुकी है। माहे रमज़ान की उन रातों ने मेरी ज़िन्दगी पर ऐसी छाप लगा दी के उसके आसार आज कत बाक़ी हैं। इस तरह के मेरे लिऐ जब भी मसाएल मुशतबा हो जाते हैं मैं एक ग़ैबी कूवत का एहसास करता हूँ जो मुझे सही राह की तरफ़ ले जाती है मैं जब भी शख़्सियत के जोफ़ और ज़िन्दगी की बेवक़अती का एहसास करता हूँ तो वो यादें मुझे रुहानियत के आला दरजात की तरफ़ ले जाती हैं और मेरे ज़मीर में वो ईमान का शोला भड़का देती हैं जो हर ज़िम्मेदारी संभालने के क़ाबिल बना सके।

कमसिनी में इमामते जमाअत की ज़िम्मेदारी जो मेरे वालिद और उस्ताद ने मेरे हवाले की थी उसने मुझे ये शऊरे मुस्तक़िल दिया की मैं उस सतह पर पहुँचने से क़ासिर हूँ जिसे मैं निगाहों में रखे हूँ या जिसका लोग मुझ से मुतालेबा कर रहे हैं इस लिऐ मैंने अपने बचपने और शबाब का ज़माना निस्बतन इस्तेकामत से ग़ुज़ारा है। जहां अकसर औक़ात बराअत , हस्बे इत्तेला और तक़लीद का दौरे दौरा था इनायते इलाहिया ने मुझे इस क़ाबिल बना दिया था कि अपने तमाम भाईयौं में सकून और संजीदगी के ऐतेबार से मुमताज़ हो जाऊ और मेरे क़दम मआसी और मोहलक़ात में फ़सलने ना पाऐं। मैं इस बात को नहीं भूल सकता मेरी ज़िनदगी में मेरी वालेदा का भी बहुत असर हैं। मेने जब आँख खोली तो उन्होने मूझे कूरआने करीम की तालीम दी। नमाज़ो तहारत सिखाई और मेरी तरबियत पर खुसूसी तवज्जोह दी क्यूंकि मैं उनका पहला फरज़न्द था और वो ये देख रही थी के उनके पहलू मे इसी घर में उनकी सौत भी थी जो उनसे बरसों पहले से थी और उसकी औलाद लगभग उनके हमसिन थी तो मेरी मां को मेरी तालीमों तरबियत से सुकून मिलता था और वो गोया इस तरह अपनी सौत और अपने शौहर की दूसरी औलाद के मुक़ाबले मे मसरूफ रहती थी मेरे नाम मे ये तीजानी जो मेरी वालिदा ने क़रार दिया है ये समावी ख़ानदान में ख़ास अहमियत रखता है जिसने तरीक़-ऐ-तीजानी को इस वक़्त गले से लगाकर रखा है जब शैख़ अहमद तीजानी की औलाद में से किसी ने जज़ाएर की वापसी में शहरे-क़फ़सा में क़याम किया था और समावी घराने को अपनी मंज़िल बनाया था उस ज़माने मे बहुत से अहले शहर खुसूसन इल्मी और मालदार इस सूफ़ी तरीक़े को अपना लिया था और इस कि तरवीज मे मसरूफ थे और चूंकि मेरा नाम तीजानी था लिहाज़ा मैं समावी घराने में बहुत मक़बूल हो गया। जहां बीस से ज़्यादा घराने आबाद थे और इस से बाहर भी तीजानी तरीक़े ताअल्लुक रखने वालो में मेरी महबूबियत बढ़ती गयी और इसी लिये अकसर बुज़ुर्ग नमाज़ी जो माहे रमज़ान की रातों में हाज़िर होते थे मेरे सर और हाथ के बोसे लेते थे और मेरे वालिद को ये कह कर मुबारकबाद पेश करते थे कि ये सब शैख़ अहमद तीजानी के बरकात का फ़ैज़ है।

क़ाबिले ज़िक्र बात ये है के तरीक़ा-ए-तीजानीया मग़रिब , जज़ाएर , तयूनस , लीबिया , सूडान और मिस्र में बाकसरत मुंतशिर हुआ और इसको गले लगाने वाले किसी ना किसी मिक़दार मुतास्सीब भी होते हैं और इसी लिऐ मकामाते औलिया की ज़ियारत नहीं करते हैं और उनका ऐतेक़ाद ये है के तमाम औलिया ने तसलसुल के साथ एक दूसरे से इल्म लिया है लेकिन शैख़ अहमद तीजानी ने बराहे रास्त अपना इल्म रसूललाह (स) से हांलांकि वो ज़माना-ऐ-रिसालत से तेरह सदी पीछे थे और उन लोगो की रवायत ये है के शैख़ अहमद तीजानी ने खुद बयान किया है के रसूललाह (स) उनके पास हालाते बेदारी मे तशरीफ़ लाते थे ना कि ख़ाब में जिस तरह ये लोग कहते है कि उनके शैख़ की मुरत्त्ब की हुई नमाज़ चालीस दिन के खत्मे क़ुरआन से बेहतर है। हम इख्तेसार का लिहाज़ रखते हुऐ तीजानियत के इस मिक़दार मे तआरुफ़ पर इकतेफ़ा करते है और इंशाअल्लाह आईनदा किसी दूसरे मक़ाम पर कदरे तफ़सील के साथ पेश करेगें।

मैं शहर के दूसरे नौजवानों की तरफ़ इसी ऐतेक़ाद पर पला बढ़ा कि हम सब के सब बेहम्देलिल्लाह मुसलमान और अहले सुन्नत-वल-जमाअत हैं। हम सब का मसलक इमामे मदीना मालिक इब्ने अनस का मज़हब है ये और बात के हम सूफ़ी तरीक़ो में मुखतलिफ़ हिस्सों में बटे हुऐ है। जैसा के ख़ुद शहरे क़फसा में भी इतने शोबे पाऐ जाते है। तीजानीया , क़ादिरया , रहमानिया , सलामिया , ईसाविया और इनमें से हर तरीक़े के अंसारो इत्तेबा हैं जो इन के क़सायदो अज़कारो औराद को हिफ़ज़ करते हैं जिनको मुख्तालिफ़ इजतेमाआत और शब्बे दारियों में अक़दे ज़वाज , खतना या कामयाबी या नज़्र की मुनासिबत से पेश हैं। ये सही है के इसके बाज़ नुक़सानात भी हैं लेकिन इसके बावजूद इन तरीक़ो ने शआऐरे दीन और ऐहतरामे औलिओ सालेहीन के तहफ़फ़ुज़ में बड़ा कारे नुमायां अंजाम दिया है।

हज-जे-बैतुल्लाहिल-हराम

मेरी उम्र अठठारह बरस की थी जब तयूनस की क़ौमी जमहूरिया ने इस बात पर इत्तेफाक़ किया के मुझे मक्का-ऐ-मुकर्रिमा में मुनअक़िद होने वाले इसलामी और अरबी इजतेमा में शिरक़त की दावत दी जाऐ जिस में पूरे तयूनस से सिरफ़ छह अफ़राद का इंतेख़ाब किया गया था और मैं सब में सिनो साल के ऐतेबार से छोटा और इल्मो सक़ाफ़त के ऐतेबार से कमतर था इसलिये के उनमे दो मदरसों के मुदिर थे तीसरा दारुल-हुकूमत मे उसताद था चौथा रिशता-ऐ-सहाफ़त से वाबसता था और पाँचवे के ओहदे से मैं वाक़िफ़ नही था लेकिन ये मालूम था कि उस ज़माने में खुद वज़ीर-तरबियत के क़राबतदारों में शुमार होता था हमारा ये सफ़र बराहे रासत नही था बलकि पहले हम योनान के दारुल-हुकूमकत ऐथेनज़ मे वारिद हुऐ। वहां तीन दिन ग़ुज़रने के बाद अरदन के दारुल-हुकूमकत अमान मे वारिद हुऐ वहां चार दिन ग़ुज़ारने के बाद सऊदिया पहुँचे जहाँ कानफ़्रेन्स मे शिरकत की और हज-जो-उमरा के मनासिक अदा किऐ। पहले पहले हुदूदे बैतुल्लाह में दाखिल होते हुऐ जो मेरे एहसासात थे उसका तसव्वुर नही हो सकता ऐसा मालूम होता था के मेरा दिल धड़कनों के सबब पसलियों को तोड़ कर बाहर निकलना चाहता है ताकि बराहे रास्त उस घर का मुशाहिदा कर सके जिसके खवाब देखते रहता था। ऑसुओं का एक सैलाब जारी हो गया जो बज़ाहर थकने वाला नही था और ऐसा मालूम होता था कि मुझे मलाएका तमाम हाजियों के सरों से बालातर उठाकर सतहे काबा तक ले जाना चाहते हैं जहाँ मैं तलबिया पढूगा----- लब्बेका अल्लाहुम्मा लब्बेक।

हज्जाजे किराम की तलबिया की आवाज़ें सुनकर मैने ये नतीजा अख्ज़ किया की इन्होंनें इस सफ़र की तैयारी , सामान की फ़राहमी और अमवाल की जमाआवरी में मुददतें गुज़ारी है लेकिन मेरी आमद अचानक बग़ैर किसी तैयारी के थी और मुझे याद है के मेरे वालिद ने जब हवाई जहाज़ के टिकट देखे और उन्हें मेरे सफ़र का यक़ीन हो गया तो अचानक रो पड़े और कमाले मोहब्बत से मुझे बोसे देकर इस तरह रुख्सत किया “बेटा मुबारक हो अल्लाह ने ये तय कर दिया था कि तुम इस कमसिनी में मुझ से पहले हज करो और क्यू ना होता तुम मेरे सरकार अहमद तीजानी की औलाद हो। बैतुल्लाह मे पहुँच कर मेरे हक़ में दुआ करना कि वो मेरे

गुनाहों को मुआफ़ कर दे और हज-जे-बैतुल्लाह की तोफ़ीक़ करामत फ़रमाऐ। इन हालात की बिना पर मेरा ख़याल था कि अल्लाह ने मुझे पुकारा है और अपनी इनायत को मेरे शामिले हाल कर दिया है और मुझे उस मंजिल तक पहुँचा दिया है जहाँ पहुँचने से पहले बेशुमार अफ़राद उममीदो हसरत लिये दुनिया से ग़ुज़र जाते हैं। अब मुझ से ज़्यादा तिलविये की ज़िम्मेदारी किस पर है इसलिए मै नमज़ो तवाफ़ों सई मे बहुत ज़्यादा दिलचस्पी लेता था यहाँ तक के ज़म ज़म का पानी पीने और पहाड़ो पर चढ़ने मे भी सब से आगे निकालना चाहता था ताकि ज़ब्ले नूर की बलन्दी पर पहुँच कर गारे हीरा की ज़ियारत करूँ और येही वजह थी के ऐक सूडानी जवान के अलावा जिसका मै ‘सानी-असनीन था कोई मुझसे आगे ना जा सका मै वहाँ जाकर रेत पर लोटने लगा गोया मुझे सरकारे दो आलम की आग़ोश मरहमत मिल गई है और मै उनकी ख़ुशबू महसूस कर रहा हूँ कितने हसीन थे वो मनाज़िर वो यादें जो मेरे दिल मे गहरा असर छोड़ गई जो कभी महो होने वाला नहीं है दूसरी इनायते परवरदिगार जिसने तमाम वुफूद के दरमियान मुझे महबूब बना दिया था और हर शख्स मेरा पता मांगने लगा था और खुद मेरे साथियों ने भी मुझसे इजहारे मोहब्बत करना शुरू कर दिया था। जबकि पहली मुलाक़ात मे हम लोग तयूनस के दारुल- हुकूमत मे जमा हिए थे तो सबने मुझे हिकारत की नज़र से देखा था और मैंने इस को महसूस भी कर लिया था लेकिन ये समझ कर सब्र कर लिया था के अहले शुमाल अहले जुनूब को हक़ीर और पस-मंदा ही शुमार करते हैं लेकिन बहुत जल्द सफ़रों मोतमर के दोरान उनकी निगाह बदल गई और तमाम वुफूद के दरमियान वो सुर्खरू हो गये कि मैं मुताअद्दीद अशआरो कसाएद का हाफिज़ था और इसी बिना पर मेने मुख्तलिफ़ मुकाबलों मे इनामात भी हासिल किए थे के मुल्क कि वापसी तक मेरे पास मुख्तलिफ़ मुल्कों के बीस अफराद के पते मोजूद थे सउदिया मे हमारा क़याम बीस दिन रहा जहां हमने उल्मा से मुलाक़ात की उनके बयानात में शिरकत की थी और मै ज़ाती तौर पर वहाबियों के बाज़ अकाएद से मुतास्सिर हुआ और मेरी ये आरज़ू हो गई के काश सारे मुसलमान इसी रास्ते पर चलें और मेरा ये ख़्याल था कि अल्लाह ही ने इन लोगो को अपने घर की हिफाज़त के-लिए मुन्तख़ब किया है लिहाज़ा ये रूऐ ज़मीन की तमाम मख्लूक़ात से ज़्यादा साहिबे इल्म और ज़्यादा पाकीज़ा नफ़्स हैं इन्हें अल्लाह ने पेट्रोल की दौलत इसी लिए दी है ताकि ये अल्लाह के मेहमानों की ख़िदमत करें और उनकी सलामती का इंतेज़ाम करें चुनांचे मैं अपने वतन वापस आया तो सऊदिया का मख़सूस लिबास पहन कर आया और उस इस्तेक़्बाल को देख कर हैरतज़दा हो गया जिसका ऐहतेमाम मेरे वालिद ने किया था के मुख्तलिफ़ जमाअतें स्टेशन पर हाजिर थीं और उनके आगे-आगे सूफी मसलक इसाविया , तीजानीया , क़ादिरया के शेयूख़ भी मौजूद थे जिनके साथ तबल और दफ़ भी बजाऐ जा रहे थे लोगो ने शहर की मुख्तलिफ़ सड़कों पर तकबीरों तहलील के साथ मुझे गश्त कराया और हम जब किसी मस्जिद के क़रीब से गुज़रते थे तो उसके आस्ताने पर थोड़ी देर के लिए रोके जाते थे और लोग हमारी दस्त-बोसी के लिए टूट पड़ते थे। ख़ुसूसन जो मुझे बोसा भी देते थे और ज़ियारते बेतुल्लाह ज़ियारते क़ब्रे रसूल के शोक़ में गिराया भी रहे थे और उन्होने मुझसे पहले इस उम्र के आदमी को हज करते ना देखा था। मैंने उस वक़्त अपनी ज़िन्दगी के हसीन तरीन लम्हात गुज़ारे हमारे घर में सलाम करने और मुबारकबाद देने के लिए कबारो अशराफ़ हाज़िर हुए और अक्सर मुझसे ये मुतालीबा किया जाने लगा के मैं अपने वालिद की मौजूदगी में फ़ातेहा और दुआ पढ़ूँ जिससे में कभी शर्मिंदा होता था कभी मेरे होसले बढ़ जाते थे मेरे वालिदा ने ज़ायरीन के हर गिरोह के निकाल जाने के बाद मेरे पास आकर ख़ुशबू सुलगाती थीं और तावीज़ का ऐहतेमाम करती थीं ताकि मैं हासीदों के शर और शयातीन के मक्र से महफूज़ रहूँ।

मेरे वालिद ने तीजानी बारगाह में तीन रात मुसलसल इस शान से हाज़िरी दी कि रोज़ाना वलीमे के लिए एक दुन्बा ज़िबहा होता था और लोग मुझसे हर छोटी बड़ी बात के बारे में सवाल करते थे मेरे जवाब ज़्यादातर सउदियों कि मदहों सना और नशरे इस्लाम और नुसरते मुसलेमीन के बारे में उनकी ख़िदमात पर मुश्तमिल होते थे। शहर वालों ने मुझे हाजी का लक़ब दे दिया था और इस लफ़्ज़ से मेरे अलावा किसी और का तसव्वुर नहीं पैदा होता था। इसके बाद मेरी शोहरत और बढ़ गई और ख़ुसूसन जमाअते अख्वाने मुस्लेमीन जैसे दीनी हल्क़ों में मैं मस्जिदों का दोरा करके लोगों को जरिहों का बोसा देने और लड़कियों के मस करने को मना करता था और तमाम तर कोशिश यही थी कि मै इन्हे समझा सकूँ कि ये सब शिर्क है। मेरे निशाते अमल में और वुसअत पैदा हुई तो मैं मस्जिदों में जुमे के खुतबे से पहले दीनी दरस देने लगा और मस्जिदे अबू-याक़ूब से मस्जिदे-कबीर तक हर जगह हाज़िर होने लगा। इसलिऐ के जुमे कि नमाज़ दोनों मक़ामात पर मुख्तलिफ़ औक़ात में होती थी इसके अलावा इतवार के दिन मेरे हलक़ा-दरस में हर कालेज के तुल्लाब भी हाज़िर होते थे। जहां मैं टेक्नोंलाजी और तिब्बीयात के दरस देता था। लोग मेरे एक़दामात से ख़ुश होते थे और उन के मुहब्बतों ऐहतेराम में बराबर इज़ाफ़ा हों रहा था कि मैंने उन्हें अपने वक़्त का एक बड़ा हिस्सा दिया था कि मैं उनके अफ़्कार से उन बदलियों को छांट दूँ जो फ़लसफ़े के मुल्हिद , माददी और कम्युनिस्ट उस्तादों ने पैदा करदी थी। लोग बड़ी बेचैनी से इन इजतेमाआत का इंतेज़ार किया करते थे और बाज़ तो मेरे घर भी आया करते थे। मैंने इस काम के लिए बहुत सी दीनी किताबें भी ख़रीदी और इस के मुतालेऐ पर भी ज़ोर दिया ताकि मैं उस सतह तक पहुंच जाऊ जहां मुखतलिफ़ सवालात के जवाबात दिऐ जा सकते हों। उसी साल जिस साल मैंने हज-जे-बैतुल्लाह किया मैं अपने निस्फ़्दीन का भी मालिक हो गया यानी मेरी वालिदा की ये ख़्वाहिश सामने आई कि अपने मरने से पहले मेरा अक़्द कर दें क्योंकि उन्होने ही मेरे वालिद की दूसरी तमाम औलादों की तरबीयत की थी और उनकी शादियाँ की थीं तो अब उनकी तमन्ना थी की मुझे नोशा की शक्ल में देखें। अल्लाह ने उनकी तमन्ना को पूरा कर दिया और मैंने उनके हुक्म की इताअत में एक ऐसी लड़की से अक़्द कर लिया जिसे मैंने देखा भी नहीं था। वो मेरे पहले दो बच्चों की विलादत तक ज़िंदा रही और उसके बाद दारे दुनिया से रुख्सत हो गई। इस आलम में कि वो मुझसे खुश थी और उनसे दो साल पहले मेरे वालिद का इंतेक़ाल हुआ जबकि वो हज्जे-बैतुल्लाह भी कर चुके थे और वफ़ात से पहले तौबा-ऐ-खालिस भी कर चुके थे।

एक ऐसे दौर में जब इसराईल के मुक़ाबले मे शिकस्त खाने के बाद अरब और मुसलमान इंतेहाई ज़िल्लत-आमेज़ ज़िंदगी गुज़ार रहे थे अचानक लीबिया का इंकेलाब हुआ और काएदे इंकेलाब की शक्ल मे एक ऐसा जवान सामने आया जो इस्लाम का नाम लेता था , लोगो के सामने मस्जिद मे नमाज़ पढ़ता था और उस की आज़ादी का नारा लगता था। इन नारों की बिना पर मैं भी उस जवान का गिरवीदा हो गया। जिस तरह अरबी और इस्लामी मुल्कों मे आम नोजवानों का हाल होता है और हमने मज़ीद मालूमात हासिल करने के लिए लीबिया का एक सकाफती सफर मुरत्तब किया जिसमे शोब-ऐ-तालीम के चालीस अफराद साथ थे। हमने उस इलाक़े का दोरा इंकेलाब के इब्तेदाई दौर में किया और निहायत दर्जा-ऐ- खुशहाल वापस आऐ तो हमने देखा की हालात एक ऐसे मुस्तकबिल की ख़बर दे रहे है जो अरबी और इस्लामी कोम के लिए दर्जा सालह और खुशगवार होगा।

इन चंद बरसों के दौरान बाज़ दोस्तों से मुरासेलत का सिलसिला जारी रहा और मेरे शोंक मे इज़ाफा होता रहा मेरे ताल्लुक़ात का मरकज़ वो चंद अफराद थे जिन्होने मुलाक़ात पर ज़्यादा ज़ोर दिया था। चुनांचे मेने ये निज़ाम मुरत्तब किया कि गर्मियों में तीन महीनों कि छुट्टियों में एक तवील सफ़र करूँ जिसका प्रोग्राम ये बना कि ख़ुश्की के रास्ते सफ़र लीबिया से शुरू किया जाऐ उसके बाद मिस्र उसके बाद लुबनान उसके बाद शाम , अरदन और आखिर में सउदिया जहां मनासिके उमरा अदा करना थे और उन वहाबियों से तजदीदे अहद करना था जिनके अक़ाएद की नौजवानों के हल्कों में और अख़वाने मुस्लेमीन की मस्जिदों में बकसरत तबलीग़ की थी और उस दौर में मेरी शोहरत मुख्तलिफ़ अतवारों जवनिब में पहुँच चुकी थी और अक्सर सामेईन जुमा पढ़ने के लिए और उन बयानत में शिरकत करने के लिए आ जाया करते थे और फिर अपने इलाक़े में इसका चर्चा किया करते थे यहाँ तक कि ये ख़बर सूफियों के बुज़र्ग शैख इस्माईल बावफ़ी तक पहुंची जिनके पैरो और मुरीद तयूनस और उसके बाहर फ्रांस और जर्मनी में बकसरत पाऐ जाते हैं और उन्होंने अपने वुक़्ला के ज़रिये मुझे अपनी ज़ियारत कि दावत दे दी। उनके वुक़्ला ने मुझे एक मुफ़स्सल ख़त लिखा जिस में इस्लाम और मुस्लेमीन के बारे में मेरी ख़िदमात की क़द्रदानी करते हुऐ ये दावा किया के ये सारे आमाल ज़र्रा बराबर भी ख़ुदा से क़रीब नहीं कर सकते जब तक किसी शैखे आरिफ़ के वसीले से ना हों और अपने हलक़े की मशहूर हदीस का हवाला देते हुऐ कि “जिस के पास कोई शैख नहीं होता उसका शैतान होता है ’’ या ये कि “हर शख़्स के लिए एक शैख़ का होना ज़रूरी है वरना आधा इल्म नाक़िस रह जाऐगा ’’ ये कह कर इस बात की बशारत दी के साहिबुज़्ज्मान यानी शैख इस्माईल ने मुझे ख्वास में शामिल करने का फैसला कर लिया है। ये ख़बर सुनकर मेरे होशो हवास उड़ गऐ और मै इनायते इलाहिया पर बेइख्तियार रो पड़ा कि जिसकी बिना पर मैं मुसलसल बलन्दियों की मंज़िलें तय कर रहा था। इसलिऐ कि मैं इससे पहले माज़ी में सैय्यद हादी हफ़ियान का पैरो रह चुका हूँ जिनके मुख्तलिफ़ करामातों मोजिज़ात नक़्ल किऐ जा चुके हैं और उसके बाद सैय्यद सालेह और सैय्यद जीलानी की सोहबत का शर्फ़ भी हासिल कर चुका हूँ और अब शैख़ इस्माईल कि बारगाह में तलब किया गया हूँ। मैं बेचैनी से उन से मुलाक़ात का इंतेज़ार करता रहा। यहाँ तक की जब शैख़ के घर में दाख़िल हुआ तो एक-एक चेहरे को हैरतो हसरत से देखता रहा कि मजलिस में मुरीदों और मशाएख़ का मजमा था और सब इंतेहाई सफ़ेद लिबास पहने हुए थे। मरासीमे हाज़री की अंजाम देही के बाद शैख़ इस्माईल हुजरे से बाहर तशरीफ लाये और सारे मजमे ने ऐहतेराम से उनके हाथ चूमे और एक नुमाइंदे ने इशारा किया कि शैख़ ये ही है लेकिन मैने किसी जज़्बे का इज़हार नहीं किया इस लिए कि मैं इन हालात के अलावा किसी और बात का मुंतज़िर था और मेरे ज़ेहन में शैख़ के वक़ील और मुरीदों ने करामतों मोजिज़ात की जो ख्याली तस्वीर बनाई वो कुछ और ही थी। मुझे शैख़ एक मामूली आदमी नजर आऐ जिनके चेहरे पर ना कोई विकार था ना कोई हैबत , थोड़ी देर के बाद वकील ने मुझे उनके सामने पेश किया उन्होने “ मरहबा ” कहते हुऐ दाहिनी तरफ बैठाया और खाना पेश किया। खाने पीने के बाद फिर महफिल जम गई और मुझे वकील ने दोबारा शैख़ के सामने पेश किया ताकि मैं उनसे अहद और विरद हासिल कर सकूँ। मजमे में मुझे मुबारकबाद दी और मुझसे गले मिले और मुझे ये अंदाज़ा हुआ कि उन्होने मेरे बारे मे बहुत कुछ सुन रखा है और इसी कदरदानी ने मुझे इस बात पर आमादा किया कि मैं शैख़ के बाज़ जवाबात पर जो सवाल करने वालों को दिये गऐ थे एतेराज़ करूँ और अपनी बात पर क़ुरानों सुन्नत से दलील दूँ।

ज़ाहिर है ये जुरअत बाज़ हाज़ेरीन को नागवार गुज़री और उन्होने इसे शैख़ की बारगाह में सूऐ – अदब क़रार दिया कि वो तो इस बात के आदी थे कि शैख़ के सामने बिला इजाज़त ज़बान न खोले। शैख़ ने महसूस कर लिया के हाज़ेरीन को मेरी बात नागवार गुज़री है इसलिऐ निहायत ही होशियारी से सूरते हाल का इज़ाला करते हुऐ ऐलान किया कि जिसकी इब्तेदा दिलसोज़ होती है उसकी इंतेहा ताबनाक होती है।

हाज़ेरीन ने ये खयाल किया कि ये सरकार की तरफ़ से एक सनद है और अन्क़रीब मेरा अंजाम ताबनाक होने वाला है इसलिऐ मुझे सबने इस बात की भी मुबारकबाद दी। लेकिन शैख़ इन्तेहाई होशियार और तरबियत याफ़ता थे उन्होने मेरी इस गुस्ताख़ी का रास्ता रोकने के लिए फ़िल्फ़ौर एक आरिफ़ का क़िस्सा ब्यान किया कि उनके हलक़े में एक आलिम आ गऐ तो उन्होने उनसे कहा कि जाओ गुस्ल करो ” वो गुस्ल करके वापस आऐ तो दोबारा फिर यही हुक्म दिया वो इस मर्तबा पहले से बेहतर अंदाज़ मे ग़ुस्ल करके आऐ और बैठना चाहा था कि शैखे आरिफ़ ने डांट दिया और कहा जाओ फिर ग़ुस्ल करो और आलिम ने रोते हुऐ अर्ज़ की कि मैं अपने इल्म के मुताबिक़ बेहतरीन गुस्ल कर चुका हूँ। अब अल्लाह आपके तुफ़ैल से कुछ और इन्केशाफ़ कर दे तो दूसरी बात है तो आरिफ़ ने फरमाया अच्छा अब बैठ जाओ। मै फ़ौरन समझ गया कि इस क़िस्से का मक़सूद मै ही हूँ और हाज़ेरीन ने भी महसूस कर लिया और शैख़ के जाने के बाद मेरी मलामत भी की और मुझे शैख़ की बारगाह में खामोशी का हुक्म देते हुऐ इस आयाते क़ुरआन से इस्तेदलाल किया कि “ईमान वालों , खबरदार! अपनी आवाज़ों को पैगम्बर की आवाज़ों पर बुलंद न करना और उनसे बुलंद लहजे में बात भी न करना। जैसे आपस में बातें करते हो कहीं ऐसा न हो की तुम्हारे आमाल बर्बाद हो जाऐ और तुममे शऊर भी न पैदा हो ” मैंने अपनी औक़ात पहचान ली और नसीहतों का इम्तेसाल किया जिसके बाद शैख़ की बारगाह में कुछ ज़्यादा ही मुक़र्रब हो गया और तीन दिन के क़याम के दौरान इम्तेहान के लिए मुख्तलिफ़ सवालात करता रहा और शैख़ को भी इस बात का अन्दाज़ा होता रहा और वो यही कहते रहे कि क़ुरआन के लिए ज़ाहिर भी है और बातिन भी है और सात सात बातिन हैं जिसके बाद उन्होने अपने ख़ज़ाने को खोलकर एक ख़ास कागज़ दिया जिसमें सालेहीन और आरेफ़ीन का सिलसिलाऐ सनद अबुल हसन शाज़री तक पहुंचता था और उनके बाद मुख्तालिफ़ औलिया से गुज़रता हुआ हज़रत अली इब्ने अबीतालिब करमुल्लाहो वजहू तक पहुँचता था।

ये बात नागुफ़्ता न रह जाऐ के ये हलक़ात तमामतर रूहानी होते थे और इनका इफ़्तेताह शैख़ क़ुरआने करीम की तिलावत से करते थे जिसके बाद क़सीदे का मतला पढ़ा जाता था और तमाम मुरीद उसे दोहराते थे इसलिऐ के सबको ये क़साएदों अजकार हिफ़्ज़ होते थे और उनका बीशतर हिस्सा दुनिया की मज़म्मत और आखिरत की तरगीब पर मुश्तमिल होता था। शैख़ की तिलावत के बाद उनकी दाहिनीं तरफ़ बैठने वाला उसका इआदा करता था उसके बाद शैख़ नऐ क़सीदे का मतला पढ़ते थे और सब उसको दोहराते थे यूं ही हर शख़्स एक-एक आयत की तिलावत करता था और फ़िर क़सीदे पर सबको इजतेमाई तौर पर हाल आने लगता था जहां क़सीदे की धुन पर सब दाएं बाएं झूमने लगते थे और जब शैख़ खड़े हो जाते थे तो सारे मुरीद उनके साथ खड़े हो जाते और वो घूम घूम कर एक-एक मुरीद को देखते थे और हर तरफ़ से आह आह की आवाज़े आती थीं ऐसा मालूम होता था के तबल बजाया जा रहा है और बाज़ अफराद की हरकतें जुनूनी अंदाज़ की होती थीं और ये सारी आवाज़ें एक मुनज्जम नगमे की शक्ल में बुलंद होने के काफी देर के बाद थम जाती थीं और शैख़ आख़िरी क़सीदा पढ़ते थे जिस के बाद लोग उनके सर और शाने का बोसा देने के बाद बैठ जाते थे मैंने भी उन लोगों के साथ बाज़ हरकतों में हिस्सा लिया लेकिन मैं फितरतन मुतमईन नहीं था बल्कि मैं इन बातों को उस अकीदे के बिल्कुल मुताज़ात पता था जो मैंने साऊदिया से हासिल किया था के गैरे खुदा से तवस्सुल नहीं हो सकता।

मैं गोया ख़ाक पर गिर पड़ा और मेरे आँसू जारी हो गऐ और मैं हैरतज़दा दो तूफ़ानों के बीच खड़ा था। एक तरफ सूफियत का माहोल जहां ऐसी रूहानियत जो इंसान के दिल मैं खोफ़े खुदा , ज़ोहद और औलिया-ए-सालेहीन के ज़रिऐ तकर्रुब का जज़्बा पैदा कराऐ और दूसरी तरफ वहाबियत का तूफान जिसने ये तालीम दी है के ये सब शिर्क है और शिर्क को खुदा माआफ नहीं कर सकता और जब पैग़ंबर रसूल अलल्हा होने के बाद काम नहीं आ सकते और उनसे तवस्सुल नहीं हो सकता तो इन ओलिया- ऐ-सलेहीन की क्या हक़ीक़त है। अगरचे शैख़ ने मुझे एक मनसब भी इनायत कर दिया था कि मुझे कफसा मे अपना वकील बना दिया था लेकिन मैं अंदर से मुतमइन नहीं था अगरचे कभी-कभी सूफियत की तरफ माइल हो जाता था लेकिन हमेशा सोचता रहता था के मैं इस तरीक़े का अहतेराम तो कर रहा हूँ लेकिन खुदा के इस हुक्म की मुखालफत कर रहा हूँ के “अल्लाह के साथ किसी और खुदा को ना पुकारो ” इस के अलावा कोई और खुदा नहीं है और जब ये शख्स कहता था के परवरदिगर का इरशाद है के “ईमान वालों अल्लाह से डरो और वसीला तलाश करो ” तो फ़ोरन साऊदी ओलेमा का सिखाया हुआ जवाब दोहरा देता था वसीला अमले सलाहे है।

बहरहाल मैंने वो वक़्फ़ा इज़्तेराब के आलम में गुज़ारा जबकि मेरे पास बहुत से मुरीद हाज़िरी दिया करते थे। हम रात भर हाल क़ाल की महफ़िलें जमाया करते थे। हमारे हमसाऐ के लोग हमारी इस आह आह से आजिज़ थे लेकिन खुलकर इसका इज़हार नहीं कर सकते थे उन्होने अपनी औरतों के ज़रिये मेरी अहलिया से शिकायत की और जब मुझे मालूम हुआ तो मैंने अपने मुरीदों से कहा कि वो इन हल्क़ात को अपने घरों में ले जाएं और ये कह कर हाज़िरी से माज़ेरत कर ली कि मियां तीन महीने के लिए मुल्क से बाहर जा रहा हूँ और मैं अपने अहलो अयाल और अक़रुबा को रुख्सत करके खानाऐ ख़ुदा के इरादे से निकल पड़ा उसी पर मेरा ऐतेमाद था और इसके अलावा मेरा कोई दूसरा ख़ुदा नहीं था।

तौफ़ीक़ आमेज़ सफ़र

मिस्र-लीबिया के दारुल-हुकूमत तराबलस में मेरा उतना ही क़याम रहा कि मैं मिस्री सिफ़ारत खाने से मिस्र का वीज़ा हासिल कर लूँ। चुनांचे इसके दौरान बाज़ दोस्तो से मुलाकात भी हुई और उन्होने इस राह में मेरी मदद भी की।

क़ाहिरा का रास्ता तक़रीबन तीन शबो रोज़ में तय होता है मैंने टैक्सी से तय किया जिसमें चार मिस्री और थे जो लीबिया में काम करते थे और अपने वतन वापस जा रहे थे। दौराने सफ़र मै उनसे बात करता रहा और उन्हे क़ुरआन सुनाता रहा जिसकी बिना पर उन्होने मुझसे इजहारे मुहब्बत किया और हर शख़्स ने अपने घर क़याम की दावत दी। मैंने उनके दरमियान से एक शख़्स का इन्तेखाब किया जिसका नाम अहमद था और मेरा नफ़्स उसके ज़ोहदो तक़वा से मुतमइन था। उसने भी बक़ाएदा मेज़बानी के फराएज़ अंजाम दिऐ। क़ाहिरा में मैंने बीस दिन गुज़ारे जिसमें मशहूर मौसीक़ीकार अतरश से उनके घर पर मुलाक़ात की इसलिऐ के मैंने अखबारात रसाएल में उनके जिस एखलाक़ो तवाज़ो का तज़किरा पढ़ा था उससे मैं मुतास्सिर था लेकिन मेरी मुलाकात सिर्फ बीस मिनट जारी रह सकी क्योंकि वो लेबनान जाने के लिए एअर-पोर्ट जा रहे थे।

क़ाहिरा ही में मैंने मशहूर क़ारी जिन से मैं बे-हद मुतास्सिर था शैख़ अब्दुल बासित मुहम्मद अब्दुल समद से मुलाकात की तीन दिन उनके साथ क़याम रहा और मुख्तलिफ़ मौज़ूआत पर उनके अकरुबा-ओ-दौस्तों से तबादला-ऐ-खयालात करता रहा और वो लोग जुरअत , सराहत और मालूमात की कसरत से बेहद मुतास्सिर हुए , वो लोग जब फन के बारे मे बहस करते थे तो मैं इसके कमाल का इज़हार करता था और जब ज़ोहदो तसव्वुफ़ की बाते करते थे तो मैं तीजनिया और मदीना तरीकों से अपने ताअल्लुक का इज़हार करता था और जब मग़रिब की गुफ़्तगू करते थे पेरिस , लन्दन , हालेंड , इटली , स्पेन , के किस्से बयान करता था जिनहे गर्मियों की छुट्टी के दौरान देखा था और जब हज की गुफ़्फ़्तगु छेडी तो मेने ये खबर भी सुनाई के मैं एक बार हज कर चुका हूँ और अब उमरे के लिए जा रहा हूँ और मेने उन मकामात का तज़किरा किया जिनसे साथ-साथ हज करने वाले भी वाकिफ नहीं थे जेसे गारे हिरा , गारे सूर और कुर्बानगाहे इस्माईल अलैहिस सलाम और जब वो लोग उलूम और इख्तेराआत की बात करते थे मैं उसके आदादो मुस्तेलाहात का हवाला देकर उनकी इल्मी तशनगी को दूर करता था और जब सियासत का ज़िक्र छेड़ते थे तो मैं अपनी ज़ाती राय से ये कह कर उन्हे खामोश कर देता था के ख़ुदा सलाहुद्दीन अय्युबी पर रहमत नजील करे के उसने हँसना तो दरकिनार अपने लिए मुस्कुराहट को भी हराम करार दे दिया था और जब मुकर्रेबीन ने ये कह कर मलामत की के सरकारे दो आलम हमेशा मुसकुराते नज़र आते थे तो जवाब दिया के मैं कैसे मुस्कुरा सकता हूँ जब के मस्जिदे अकसा पर दुशमनाने ख़ुदा का क़ब्ज़ा है और ख़ुदा की क़सम मैं उस वक़्त तक ना मुस्कुराउगा जब तक उसे आज़ाद ना करा लूं या मर ना जाऊँ।

इन इजतेमाआत में जामिया-ऐ-अज़हर के शयूख भी हाज़िर होते थे और मेरे ज़ब्ते-अहादीसो आयतों दलाएले मुहकम से मुतस्सिर भी होते थे और ये पूछा करते थे के मै किस जामए से फ़ारिग-उल-तहसील हूँ तो मैं निहायत फख्र से जवाब देता था के मै जामिअ-ऐ-ज़ैतून का तालिबे इल्म हूँ जों अज़हर से पहले क़ायम हुआ था और फातमीईन जामआ-ऐ-अज़हर की तासीस के लिए तयूनूस ही से गए थे। मैंने जामआ-ऐ-अज़हर के बहुत से उलमा से मुलाक़ात की जिन्होने मुझे किताबें भी दीं और एक दीं जब मै अज़हर के एक ज़िम्मेदार के दफ़्तर में बैठा हुआ था। मिस्र मजलिसे इंकेलाब के एक रुकन और उन्होने उस मसउल को मिस्र की एक कंपनी की तरफ़ से मुनाक़िद होने वाले इस्लामी इजतेमा में शिरकत की दावत दी और उन्होने इस बात पर इसरार कि मैं उनके साथ जाऊँ। चुनांचे मैंने उस जलसे में शिरकत की और अजहरी आलिम और फ़ादर शनुदा के दरमियान बिठाया गया लोगो मे मुझसे तक़रीर का भी मुतालेबा किया और मैंने निहायत आसानी से काम अंजाम दिया। इसलिऐ के मैं मजलिस और सक़ाफती इजतेमाआत में तक़रीरों का आदी हो चुका था।

इन तमाम बयानात का नतीजा ये है के मेरा शऊर बराबर तरक़्क़ी कर रहा था और मुझमें ये गुरूर भी पैदा हो चला था कि अब मै भी आलिम हो गया हूँ और ऐसा क्यों न होता जब के उल्मा-ऐ-अज़हर ने मेरे इल्म की शहादत दी थी और मुझसे कहा था के आप जैसे हज़रात को यहाँ अज़हर में होना चाहिऐ था और इस से ज़्यादा क़ाबिले फ़ख्र ऐजाज़ ये है के रसूले अकरम ने मुझे अपने आसार की ज़ियारत का शरफ़ इनायत फ़रमाया जब क़ाहिरा में मस्जिदे रासुल-हुसैन(अ।स) के मसउल ने मुझसे ब्यान किया और मुझे एक ऐसे हुजरे में ले जाने के बाद दरवाजा बंद कर के वो खज़ाना खोला जिसमें रसूल अल्लाह की क़मीज़ और दूसरे आसार निकाल कर मुझे ज़ियारत कराई और मै इंतेहाई मुतास्सिर और अश्कबार वापस आया।

जबकि इस मसउल ने मुझ से किसी रक़म का भी मुतालेबा नहीं किया बल्कि इन्कार कर दिया मेरे इसरार पर सिर्फ़ एक मामूली रक़म लेकर मुझे इस बात की बशारत और मुबारकबाद दी के मै रसूले अकरम की बारगाह का एक मक़बूल इंसान हूँ इस वाक़िऐ ने मेरे दिल पर बेहद असर किया और मै मुतआदिद रातों में वहाबियों के इस बयान पर गौर करता रहा के “रसूल मर गऐ और उनका क़िस्सा तमाम हो गया ” मुझे ये बात बिल्कुल पसंद नहीं थी बल्कि मुझे इस अक़ीदे के मोहमल होने का यक़ीन पैदा हो गया था के अगर राहे ख़ुदा में क़त्ल होने वाला शहीद मुर्दा नहीं होता बल्कि ज़िंदा रहता है और अपने परवर्दिगार से रिज़्क़ हासिल करता है तो वो क्योंकर मुर्दा हो सकता है जो सैयद-उल-आलेमीनो वल आखिरीन है और ये शऊर कुवतो वज़ाहत के ऐतेबार से और भी तरक़्क़ी करता रहा। उन तालीमात की बुनियाद पर जो सूफीयों से हासिल हुई थी जहाँ औलिया ओ शयूख़ में ये सलाहियत पाई जाती थी की निज़ामे क़ायनात पर असर अंदाज़ हो सकें के ये सलाहियत उन्हे परवर्दिगार ने आता की है के उन्होने उसकी इताअत की है और उसने हदीसे क़ुदसी में वादा किया है के “मेरे बंदे मेरी इताअत कर तू मेरा नमूना बन जाएगा और जिस चीज़ के बारे में कह देगा वो हो जाऐगी ” मेरे दाख़िल में अक़ाऐद में जंग जारी रही और मैंने मुख्तलिफ़ मस्जिद की ज़ियारत करने उन में नमाज़ अदा करने के बाद मिस्र में क़याम का सिलसला तमाम कर दिया। हर मसलक की मस्जिद में नमाज़ अदा की और सैयदा ज़ैनब(अ।स) और सैयय्देना हुसैन की ज़ियारत की और तीजानी ज़ाविये की भी ज़ियारत की जिसकी दास्तान बेहद तावील है।

बहरी जहाज़ की एक मुलाक़ात

बहरी जहाज़ से रिज़र्वेशन के मुताबिक़ मैं स्कंदरिया पहुंचा और वहाँ से मिस्री जहाज़ से बैरूत का सफर इख्तियार किया। मैं अपने आप को निहायत इज़तेराब के आलम में जिस्मानी और फ़िक्री ऐतेबार से ख़स्ता हाल प रहा था और अपनी बर्थ पर लेटे हुए फ़िक्र में डूबा हुआ था और जहाज़ दो तीन घंटों से रवां दवां था। थोड़ी देर आराम करने के बाद अचानक उठ गया। जब मेरे बराबर वाले की आवाज़ कानों में आई “मालूम होता है बहुत थक गऐ हैं ” मैंने कहा हाँ मैं स्कंदरिया तक जहाज़ में सवर होने के लिए आ गया और रात को बहुत कम सो सका मैंने उनके लहजे से अंदाज़ा लगा लिया के वो मिस्री नहीं हैं और मेरे दख्ल दर माक़ूलात की आदत ने मुझे आमादा किया के उन का ताअरुफ़ हासिल करूँ तों मैंने अपना ताअरुफ़ कराते हुऐ उनका ताअरुफ़ हासिल किया तों मालूम हुआ के वो ईराक़ी हैं और उनका नाम मनअम है। बग़दाद यूनिवर्सिटी के उस्ताद है और अज़हर में डॉक्टरेट की थीसेस जमा करने के लिऐ क़ाहिरा आऐ थे। हमारी गुफ़्तगू का आग़ाज़ मिस्र आलमे अरबो इस्लाम , अरबों की शिकस्त और यहूदियों की फ़तेह से हुआ। ये गुफ़्तगू इन्तेहाई दर्दनाक थी मैंने दौराने कलाम ये कहा कि शिकस्त का असल सबब अरब और मुसलमानों का मुख्तालिफ़ हुकूमतों , मुख्तालिफ़ गिरोहों और मुख्तालिफ़ मज़ाहिब मे तक़सीम हो जाना है कि इतनी कसरते अदद के बावजूद दुशमनों की निगाह में कोई वज़न और ऐतबार नहीं रखते है। हमने मिस्र और मिश्रेयों के बारे में बहुत सी बातें कीं और दोनों हज़ीमत के असबाब पर मुत्तफ़िक़ थे और मैंने ये इज़ाफ़ा किया के मैं इन तकसीमात का सख़्त मुखालिफ हूँ। ये इस्तेमार ने हमारे दरमियान पैदा कराई है ताकि हम पर क़ब्ज़ा करना और हमें ज़लील करना आसान हो जाऐ लेकिन हम आज भी मालिकी और हनफ़ी के झगड़े में पड़े है और मैंने एक दर्दनाक क़िस्सा सुनाया जो मेरे साथ उस वक़्त पेश जब मैं क़हिरा की मस्जिद अबु हनीफ़ा में दाख़िल हुआ और हाज़ेरीन के साथ बा-जमाअत नमाज़े अस्र अदा की तो नमाज़ के बाद जो शख़्स पहलू में खड़ा हुआ था उसने इंतेहाई गुस्से से कहा के तुमने हाथ क्यों नहीं बांधे ? मैंने अदब और ऐहतेराम से जवाब दिया के मैं मालिकी हूँ और मालिकी हाथ खोल कर नमाज़ पढ़ते है। तो उसने कहा के अगर ऐसा है तो मालिक की मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ो! मैं वहाँ से इस सूरते हाल से बेज़ार होकर बाहर निकल आया और मेरी हैरतों में इज़ाफ़ा हो गया। मेरी इन बातों पर ईराक़ी उस्ताद ने मुस्कुरा कर कहा और मई तो शिया हूँ। मैं इस ख़बर से चोंक गया और मैंने निहायत बे ऐतेनाई से कहा के अगर मालूम होता के तुम शिया हो तो मई तुमसे बात भी न करता उसने कहा “क्यों ” ?

मैंने कहा इसलिए के तुम लोग मुसलमान नहीं हो। तुम लोग अली इब्ने अबी तालिब की इबादत करते हो और तुम में जो मोतदिल है वो अल्लाह की इबादत करते हैं लेकिन रिसालते पैगंबर पर ईमान नहीं रखते हैं और जिब्राईल को गलियाँ देते हैं के उन्होने खयानत से काम लिया है और रिसालत को अली के बजाए मुहम्मद के हवाले कर दिया है। मैंने इस तरह अपने बयानात को जारी रक्खा और मेरा साथी कभी मुस्कुराता और कभी लाहौल पढ़ता था और जब मेरी गुफ़्तगू तमाम हुई तो अज़ सारे नौ ये सवाल किया की आप उस्ताद हैं और तुल्लाब को दरस देते हैं ? मैंने कहा हाँ! उसने कहा जब असातेज़ा की फिक्र का ये आलम है तो अवाम से क्या कहा जाए। जिनके पास कोई सक़ाफ़त नहीं होती है। इसका मक़सद क्या है ? उसने कहा मुआफ़ फरमाएगा। ये गलत इल्ज़ामात आपको कहाँ से मालूम हुऐ ? मैंने कहा तारीख़ की किताबों और लोगो के दरमियान शोहरत से!उसने कहा लोगो की शोहरत छोड़िये। आपने तारीख़ की कौन सी किताब पढ़ी है ? मैंने किताबें शुमार करना शुरू की। अहमद अमीन की फज़रुल-इसलाम , जुहा-उल-इसलाम , जुहरुल-इसलाम वगैरा।

अहमद अमीन शियों के लिए किस तरह सनद हो गए। अदलो इंसाफ का तक़ाज़ा तो ये था के उनके नज़रयात उन्हीं के मसादिर से दरयाफ़्त किए जाते।

मैंने कहा के मुझे क्या ज़रूरत है के मै ऐसी बात के बारे में तहक़ीक़ करूँ जो ख्वाया सो अवाम के दरमियान मशहूर हों। उन्होने कहा के अहमद अमीन ने ख़ुद ईराक़ का दौरा किया है और मै उन असातेज़ा में से था जिन से उन्होने नजफ़ में मुलाक़ात की है जब हम लोगो ने उनकी तहरीरों पर शियों के बारे में ऐतेराज़ किया तो उन्होने ये कह कर माज़ेरत की के मै आप लोगों के बारे में कुछ नहीं जानता और आज पहले पहल शियों से मुलाक़ात कर रहा हूँ तो हम लोगों ने कहा उज़रे गुनाह बदतर अज़ गुनाह। जब आप हमारे बारे में कुछ नहीं जानते हैं तो आपको ऐसी बदतरीन बातों के लिखने का क्या हक़ है ? इसके बाद उसने इस बात का इज़ाफ़ा के अगरचे कुरआन हमारे लिऐ सनद है लेकिन हम यहूदों नसारा के अकाएद की गलती पर कुरआन से इस्तेदलाल केरें तो क्या फायदा होगा जब के वो लोग कुरआन को नहीं मानते हैं। हमारी दलील उसी वक़्त क़वी और मोहकम होगी जब हम उन के ऐतेकाद को उन्ही की किताबों से नक़ल केरें ‘अज़ बाबे श्हद शाहिद मिन अहलोहा ’

हमारे साथी के इस बयान ने हमारे दिल पर वही असर किया जैसे किसी प्यासे को आबे सर्दो शीरी मिल जाऐ और मैंने अपने दाखिल में एक इंकेलाब महसूस किया। दुश्मनी से तनकीद की तरफ , इस लिए के मैं एक सही मनतिक और मुस्तहक दलील के सामने खड़ा था।

मैंने कोई झिझक महसूस नही की और कहा के इसका मतलब तो ये है के आप लोग हमारे पैगंबर की रिसालत का अक़ीदा रखते हैं! उसने कहा के तमाम शियों का यही अक़ीदा है और आप के लिऐ क्या ज़हमत है अगर आप बराहे रास्त तहक़ीक़ कर लें और अपने भाइयों के बारे मे बद गुमानी छोड़ दें के बाज़ गुमान गुनाह होते हैं और अगर आप हकाएक की मरेफ़त चाहते हैं और अपनी आंखो से देख कर यकीन पैदा करना चाहते हैं तो मैं आप को इराक़ के दोरे की दावत देता हूँ ताकि आप उलमाए शिया से मुलाक़ात करें और आप को दुश्मन के किज़्बो इफतिरा का सही अंदाज़ा हो जाऐगा।

मैंने कहा के ये तो मेरी आरज़ू हे के मैं कभी इराक़ की ज़ियारत करूँ और उसके इस्लामी आसार को देखूँ जो अब्बासी खुल्फ़ा बिल खुसूस उसके सर बाहर हारून रशीद ने छोड़े हैं लेकिन अव्वलन तो मेरे इमकानात महदूद हैं और मे उमरे के लिए जा राहा हूँ और दूसरी बात ये हे के मेरे पासपोर्ट में इराक़ मे दाखिल होने की इजाज़त भी नहीं है। उसने कहा जब मेने आप को दावत दी हे तो इसका मतलब ही ये है के मैं बेरूत से बगदाद तक आमदो रफ्त और इराक़ में कायम के जुमला इखराजात का जिम्मेदार हूँ और आप मेरे घर मे मेरे महमान होंगे और जहां तक इराक मे दाखले की इजाज़त का सवाल है तो इस काम को अल्लाह के हवाले कर दे अगर ये बात मुकद्दर मे है तो ये काम होकर रहेगा और हम खुद बेरूत पहुचने के बाद कोशिश करेगे के इजाज़त हासिल कर लें।

मैं उसकी इन बातों से बे हद खुश हुआ और मेने ये वादा कर लिया के मैं इनशाअल्लाह कल जवाब दूंगा।

जहाज़ मे कैबिन से निकाल कर हवाखोरी के लिए मैं छत पर गया तो मेरे जेहन मे एक नई फिक्र थी और मेरी अक़ल उस समंदर मे गुम हो गई थी। जिसने आफाक को पुर कर दिया था और मैं उस खुदा की तसबी कर रहा जिसने कायनात को पैदा किया और मुझे इस मंज़िल तक पहुंचाया मैं ये दुआ कर रहा था शर और अहले शर से महफूज रखे और हर खताओ लग़ज़िश से बचाए रहे। मेरे ज़हन मे सारा सिलसिला-ऐ-हालात गर्दिश कर रहा था वो सआदतें जो बचपन से आज तक देखी थी और जिनसे बेहतरीन मुस्तक़्बिल की आरज़ू रखता था और ये एहसास पैदा करता था के इनायते ईलाही मेरा ऐहाता किऐ हुऐ है।

मैं एक मर्तबा मिस्र की तरफ मुतावज्जह हुआ जिसके बाज़ साहिल अभी भी नज़र आरहे थे मैंने उस सर ज़मीन को अलविदा कहा जहां कमीज़े पैगंबर को बोसा दिया था जो मेरी ज़िंदगी की अज़ीज़ तरीन यादगार है। इसके बाद मै उस शिया की बातों पर गौर करने लगा जिसने मेरे उस ख़्वाब को शर्मिंदा-ऐ-ताबीर बनाने का इरादा ज़ाहिर करके मुझे बेहद खुश कर दिया था के मै इराक़ की ज़ियारत करूंगा जिसका नक्शा मेरे ज़हन में हारून और मामून के क़सरे-शाही ने बनाया है जिसने उस दारुल हकूमत की तासीर की थी जहां हर दौर मैं मगरिब के तुललबे उलूम तहसीले इल्म के लिए जया करते थे। इसके अलावा इराक़ कूतुबे रब्बानी शैख़ समादानी अब्दुल कादिर जीलानी का मुल्क है जिनकी शोहरत सारी काएनात में है जिनकी तरीक़त का चर्चा हर बस्ती और इलाक़े में है। मेरे इस ख़्वाब की ताबीर परवरदिगार की जदीद तरीन मेहरबानीए है अब मै उम्मीदों समंदर तैर रहा था यहाँ तक के जहाज़ वालों की तरफ से ऐलान हुआ के मुसाफिरीने मोहतरम शब के खाने के लिए तशरीफ ले आऐ। मैं डाइनिंग हाल की तरफ चला तो यहाँ लोग हसबे आदत एक दूसरे को ढकेल कर आगे बढ़ने की फिक्र में थे और एक शोरे हँगामा बरपा था आचनक मेरे शिया साथी ने मेरा दमन पकड़ कर खींचा और कहा के अपने को ज़हमत में ना डालिऐ हम थोड़ी देर के बाद बगैर किसी ज़हमत के खा लेंगे और मैं तो आप को तलाश ही कर रहा था उस के बाद उसने पूछा आप ने नमाज़ पढ़ ली है। मैंने कहा नहीं तो उस ने कहा आइऐ पहले नमाज़ पढ़ें उस के बाद खाने के लिए जाऐगें जब तक जगह खाली हो जाऐगी। मैंने इस राय को पसंद किया और एक खाली जगह पर जाकर वुज़ू किया और अपने साथी को इमाम बनाकर आगे बढ़ा दिया के देखूँ ये किस तरह नमाज़ पढ़ता है उस के बाद मैं अपनी नमाज़ का ऐआदा कर लूँगा।

उसने मग़रिब की नमाज़ शुरू की और जब क़िराअतो दुआ को तमाम किया तो मेरी राय बदल गई और ऐसा महसूस हुआ जैसे मैं सहाबा-ऐ-किराम में किसी के पीछे पढ़ रहा हूँ जिन के वुरु-ओ-तक़द्दूस के बारे में बहुत कुछ पढ़ता रहा हूँ।

नमाज़ के बाद उसने दुआ को तूल दिया और ऐसी दुआएं पढ़ी जिनको मैंने इससे पहले अपने मुल्क में या किसी दूसरे मुल्क में नहीं सुना था।

मेरा दिल उस वक़्त बहुत खुश होता था जब वो मुहम्मदो आले मुहम्मद पर सलवात पढ़ता था और उनकी साना-ओ-सिफ़त करता था मैंने नमाज़ के बाद देखा के उसकी आँखों में आंसुओं के आसार हैं और ये सुना के वो मेरी बसीरत और हिदायत के लिए अल्लाह से दुआ कर रहा है।

हम लोग डाइनिंग हाल में उस वक़्त दाखिल हुऐ जब मजमा जा चुका था उसने पहले मुझे बिठाया उसके बाद खुद बैठा। हमारे लिए खाने की दो पलेटें लायी गई उसने पलेटों को तब्दील कर दिया इसलिऐ के हमारी पलेट में गोष्ट कम था और इस तरह इसरार करना शुरू किया जैसे मैं उसी का मेहमान हूँ। उसने आदाबे अकुल्लो शरब के बारे में ऐसी रवायतें बयान कीं जो मैंने कभी नहीं सुनी थी मुझको उसका ऐख्लाक़ बेहद अच्छा लगा। हमने उसके साथ इशा की नमाज़ पढ़ी उसने दुआ को इतना तूल दिया के मुझपर गिरया तारी हो गया और मैंने अल्लाह से दुआ की के उसके बारे में मेरे ख्यालात को बादल दे इसलिऐ के बाज़ ख्यालात गुनाह बन जाते हैं। लेकिन कौन जनता था। रात को मै सोया तो ख़्वाब में इराक़ की रातें देख रहा था और उस वक़्त बेदार हुआ जब उसने नमाज़े फज्र के लिऐ बेदार किया हमने नमाज़ पढ़ी फिर बैठकर अल्लाह की नेमतों का तज़किरा शुरू कर दिया हम दोबारा आकर सो गऐ जब उठे तो देखा वो अपनी सीट पर तसबीह लेकर ज़िक्रे खुदा कर रहा है। बेहद खुशी महसूस हुई और मेरा दिल मुतमइन हो गया और मैंने परवरदिगार से इस्तग्फ़ार किया। हम खाना खा रहे थे जब ऐलान हुआ के जहाज़ साहिल से क़रीबतर हो रहा है और अन्क़रीब दो घंटे बाद हम बेरूत के पोर्ट पर पहुँच जाएंगें।

उसने मुझसे पूछा क्या आप गोर कर चुके और आपने क्या फेसला लिया ? मेने कहा अगर परवरदिगार ने वीज़े की सहूलत दिलवा दी तो बजाहिर कोई मानेअत नहीं है और मेने उसकी दावत का शुक्रिया अदा किया।

हम बेरूत मे वारिद हुए और रात वहाँ गुज़ारी फिर दमिश्क का सफर किया और वहाँ पाहुचते ही इराक के सिफ़रत खाने गऐ और नाकाबिले तसव्वुर हद तक उजलत के साथ वीज़ा हासिल कर लिया और इस आलम मे निकले के वो मुझे मुबारकबाद दे रहा था और मैं अल्लाह की मदद पर शुक्रिया अदा कर रहा था।