इमाम अली के मकतूबात (पत्र)

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इमाम अली के मकतूबात (पत्र) लेखक:
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इमाम अली के मकतूबात (पत्र)
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इमाम अली के मकतूबात (पत्र)

इमाम अली के मकतूबात (पत्र)

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


1

29-आपका मकतूबे गिरामी (अहले बसरा के नाम)

तुम्हारी तफ़रिक़ा परवाज़ी और मुख़ालफ़त का जो आलम था वह तुमसे मख़फ़ी नहीं है लेकिन मैंने तुम्हारे मुजरिमों को माफ़ कर दिया , भागने वालों से तलवार उठा ली , आने वालों को बढ़कर गले लगा लिया , अब इसके बाद भी अगर तुम्हारी तबाह कुन आराए और तुम्हारे ज़ालिमाना उफ़कार की हिमाक़त तुम्हें मेरी उलफ़त और अहद शिकनी पर आमादा कर रही है तो याद रखो के मैंने घोड़ों को क़रीब कर लिया है , ऊंटों पर सामान बार कर लिया है और अगर तुमने घर से निकलने पर मजबूर ककर दिया तो ऐसी मारेका आराई करूंगा के जंगे जमल फ़क़त ज़बान की चाट रह जाएगी। मैं तुम्हारे इताअत गुज़ारों के शरफ़ को पहचानता हूँ और मुखलेफ़ीन के हक़ को जानता हूँ , मेरे लिये यह मुमकिन नहीं है के मुजरिम से आगे बढ़कर बेख़ता पर हमला कर दूँ या अहद शिकन से तजावुज़ करके वफ़ादार से भी तारिज़ करूं (वफ़ादार को भी लपेट लूं)।

30 -आपका मकतूबे गिरामी (माविया के नाम)

जो कुछ साज़ व सामान तुम्हारे पास है उसमें अल्लाह से डरो और जो उसका हक़ तुम्हारे ऊपर है उस पर निगाह रखो , उस हक़ की फ़ुरक़त की तरफ़ पलट आओ (उन हक़ को पहचानो) जिससे नावाक़फ़ीयत क़ाबिले माफ़ी नहीं है , देखो इताअत के निशानात वाज़ेह , रास्ते रौशन , शाहेराहें सीधी हैं और मन्ज़िले मक़सूद सामने है जिस पर तमाम अक़्ल वाले वारिद होते हैं। (((पहले अहले बसरा ने वफ़ादारी का एलान किया तो हज़रत ने उस्मान बिन हनीफ़ को गवर्नर बनाकर भेज दिया , इसकेबाद आइशा वारिद हूईं तो अक्सरीयत मुनहरिफ़ हो गई और जंगे जमल की नौबत आ गई लेकिन आपने आम तौर से सबको माफ़ कर दिया और आइशा भी मदीने वापस चली गईं , लेकिन माविया ने फ़िर दोबारा वरग़लाना शुरू कर दिया तो आपने यह तन्बीही ख़त रवाना फ़रमाया के जंगे जमल तो सिर्फ़ मज़ा चखाने के लिये थी , जंग तो अब होने वाली है लेहाज़ा होश में आजाओ और माविया के बहकाने पर राहे हक़ से इन्कार न करो-)))

और पस्त फ़ितरत इसकी मुख़ालफ़त करते हैं , जो इस हदफ़ से मुनहरिफ़ हो गया वह राहे हक़ से हट गया और गुमराही में ठोकरें खाने लगा , अल्लाह ने उसकी नेमतों को सल्ब कर लिया और अपना अज़ाब उस पर वारिद कर दिया , लेहाज़ा अपने नफ़्स का ख़याल रखो और उसे हलाकत से बचाओ के परवरदिगार ने तुम्हारे लिये रास्ते को वाज़ेह कर दिया है और वह मन्ज़िल बता दी है जहां तक उमूर को जाना है , तुम निहायत तेज़ी से बदतरीन ख़सारे और कुफ्ऱ की मन्ज़िल की तरफ़ भागे जा रहे हो , तुम्हारे नफ़्स ने तुम्हें बदबख़्ती में डाल दिया है और गुमराही में झोंक दिया है , हलाकत की मन्ज़िलों में वारिद कर दिया है और सही रास्तों को दुश्वार गुज़ार बना दिया है।

31-आपका वसीयत नामा (जिसे इमाम हसन (अ 0) के नाम सिफ़्फ़ीन से वापसी पर मक़ामे हाज़ेरीन में तहरीर फ़रमाया है)

यह वसीयत एक ऐसे बाप की है जो फ़ना होने वाला और ज़माने के तसरूफ़ात का इक़रार करने वाला है जिसकी उम्र ख़ातमे के क़रीब है और वह दुनिया के मसाएब के सामने सिपरअन्दाख़्ता है। मरने वालों की बस्ती में मुक़ीम है और कल यहाँ से कूच करने वाला है। उस फ़रज़न्द के नाम जो दुनिया में वह उम्मीदें रखे हुए है जो हासिल होने वाली नहीं हैं और हलाक होने वालों के रास्ते पर गामज़न है बीमारियों का निशाना और रोज़गार के हाथों गिरवी है , मसाएबे ज़माने का हदफ़ और दुनिया का पाबन्द है , उसकी फ़रेब कारियों का ताजिर और मौत का क़र्जदार है , अजल का क़ैदी और रंज व ग़म का साथी , मुसीबतों का हमनशीं है और आफ़तों का निशाना , ख़्वाहिशात का मारा हुआ और मरने वालों का जानशीन।

अम्माबाद! मेरे लिये दुनिया के मुंह फेर लेने , ज़माने के ज़ुल्म व ज़्यादती करने और आखि़रत के मेरी तरफ़ आने की वजह से जिन बातों का इन्केशाफ़ हो गया है उन्होंने मुझे दूसरों के ज़िक्र और अग़यार के अन्देशे से रोक दिया है , मगर जब मैं तमाम लोगों की फ़िक्र से अलग होकर अपनी फ़िक्र में पड़ा तो मेरी राय ने मुझे ख़्वाहिशात से रोक दिया और मुझ पर वाक़ेई हक़ीक़त मुनकशिफ़ हो गई जिसने मुझे इस मेहनत व मशक़्क़त तक पहुंचा दिया जिसमें किसी तरह का कील नहीं है और इस सिदाक़त तक पहुंचा दिया जिसमें किसी तरह की ग़लत बयानी नहीं है। ((-बाज़ शारहीन का ख़याल है के यह वसीयतनामा जनाब मोहम्मद हनफ़िया के नाम है और सय्यद रज़ी अलैहिर्रहमा ने इसे इमाम हसन (अ 0) के नाम बताया है , बहरहाल यह एक आम वसीयतनामा है जिससे हर बाप को इस्तेफ़ादा करना चाहिये और अपनी औलाद को इन्हीं ख़ुतूत पर वसीयत व नसीहत करना चाहिये वरना इसका मुकम्मल मज़मून न मौलाए कायनात पर मुनतबिक़ होता है और न इमामे हसन (अ 0) पर , और न ऐसे वसीयतनामे किसी एक फ़र्द से मख़सूस हुआ करते हैं। यह इन्सानियत का अज़ीमतरीन तसव्वुर है जिसमें अज़ीमतरीन बाप ने अज़ीमतरीन बेटे को मुख़ातब क़रार दिया है ताके दीगर अफ़रादे मिल्लत इससे इस्तेफ़ादा करें बल्कि इबरत हासिल करें।))

मैंने तुमको अपना ही एक हिस्सा पाया बल्कि तुमको अपना सरापा वजूद समझा के तुम्हारी तकलीफ़ मेरी तकलीफ़ है और तुम्हारी मौत मेरी मौत है इस लिये मुझे तुम्हारे मुआमलात की इतनी ही फ़िक्र है जितनी अपने मुआमलात की होती है और इसीलिये मैंने यह तहरीर लिख दी है जिसके ज़रिये तुम्हारी इमदाद करना चाहता हूँ चाहे मैं ज़िन्दा रहूं या मर जाऊं।

फ़रज़न्द! मैं तुमको ख़ौफ़े ख़ुदा और उसके एहकाम की पाबन्दी की वसीयत करता हूँ , अपने दिल को उसकी याद से आबाद रखना और उसकी रीसमाने हिदायत से वाबस्ता रहना के उससे ज़्यादा मुस्तहकम कोई रिश्ता तुम्हारे और ख़ुदा के दरम्यान नहीं है। अपने दिल को मोएज़ा से ज़िन्दा रखना और उसके ख़्वाहिशात को ज़ोहद से मुर्दा बना दिया। उसे यक़ीन के ज़रिये क़वी रखना और हिकमत के ज़रिये नूरानी रखना , ज़िक्रे मौत के ज़रिये क़ाबू में करना और फ़ना के इक़रार पर उसे ठहराना , दुनिया के हवादिस से आगाह रखना और ज़माने के हमले और लैल व नहार के तसर्रूफ़ात से होशियार रखना। उस पर गुज़िश्ता लोगों के अख़बार को पेश करते रहना और पहले वालों पर पड़ने वाले मसाएब को याद दिलाते रहना , उनके दयार व आसार में सरगर्मे सफ़र रहना और यह देखते रहना के उन्होंने क्या किया है और कहां से कहां चले गए हैं , कहां वारिद हुए हैं और कहां डेरा डाला है।

फिर तुम देखोगे के वह अहबाब की दुनिया से मुन्तक़िल हो गए हैं और दयारे ग़ुरबत में वारिद हो गए हैं और गोया के अनक़रीब तुम भी उन्हीं में शामिल हो जाओगे लेहाज़ा अपनी मन्ज़िल को ठीक कर लो और ख़बरदार आखि़रत को दुनिया के एवज़ में फ़रोख़्त न करना , जिन बातों को नहीं जानते हो उनके बारे में बात न करना और जिस चीज़ का तुमसे ताल्लुक़ नहीं हो उनके बारे में गुफ़्तगू न करना। जिस रास्ते में गुमराही का ख़ौफ़ हो उधर क़दम आगे न बढ़ाना के गुमराही के तहय्युर से पहले (सरगर्दानियां देखकर) ठहर जाना , हौलनाक मरहलों में वारिद हो जाने से बेहतर है नेकियों का हुक्म देते रहना ताके उसके अहल में शुमार हो और बुराइयों से अपने हाथ और ज़बान की ताक़त से मना करते रहना और बुराई करने वालों से अपने इमकान भर दूर रहना , राहे ख़ुदा में जेहाद का हक़ अदा कर देना और ख़बरदार इस राह में किसी मलामतगर की मलामत की परवाह न करना , हक़ की ख़ातिर जहां भी हो सख्तियो में कूद पड़ना और दीन का इल्म हासिल करना , अपने नफ़्स को नाख़ुशगवार हालात में सब्र का आदी बना देना और याद रखना के बेहतरीन अख़लाक़ हक़ की राह में सब्र करना है , अपने तमाम उमूर में परवरदिगार की तरफ़ रूजू करना के इस तरह एक महफ़ूज़तरीन पनाहगाह का सहारा लोगे और बेहतरीन मुहाफ़िज़ की पनाह में रहोगे , परवरदिगार से सवाल करने में मुखलिस रहना के अता करना और महरूम कर देना उसी के हाथ में है , मालिक से मुसलसल तलबे ख़ैर करते रहना और मेरी वसीयत पर ग़ौर करते रहना , इससे पहलू बचाकर गुज़र न जाना के बेहतरीन कलाम वही है जो फ़ायदेमन्द हो और याद रखो के जिस इल्म में फ़ायदा न हो उसमें कोई ख़ैर नहीं है और जो इल्म सीखने के लायक़ न हो उसमें कोई फ़ायदा नहीं है।

फ़रज़न्द! मैंने देखा के अब मेरा सिन बहुत ज़्यादा हो चुका है और मुसलसल कमज़ोर होता जा रहा हूँ लेहाज़ा मैंने फ़ौरन वसीयत लिख दी और इन मज़ामीन को दर्ज कर दिया के कहीं ऐसा न हो के मेरे दिल की बात तुम्हारे हवाले करने से पहले मुझे मौत आ जाए या जिस्म के नुक़्स की तरह राय को कमज़ोर तसव्वुर किया जाने लगे या वसीयत से पहले ही ख़्वाहिशात के ग़लबे और दुनिया के फ़ितने तुम तक न पहुंच जाएं के तुम भड़क उठने वाले मुंहज़ोर ऊंट की तरह हो जाओ क्योंके कमसिन का दिल उस ख़ाली ज़मीन के मानिन्द होता है जिसमें जो बीज डाला जाता है उसे क़ुबूल कर लेती है ,

लेहाज़ा क़ब्ल इसके के तुम्हारा दिल सख़्त हो जाए और तुम्हारा ज़ेहन दूसरी बातों में लग जाए मैंने तालीम देने के लिये क़दम उठाया ताके तुम अक़्ले सलीम के ज़रिये उन चीज़ों के क़ुबूल करने के लिये आमादा हो जाओ के जिनकी आज़माइश और तजुर्बे की ज़हमत से तजुर्बेकारों ने तुम्हें बचा लिया है इस तरह तुम तलाश की ज़हमत से मुस्तग़नी और तजुर्बे की कुलफ़तों से आसूदा हो जाओगे और तजुर्बे व इल्म की वह बातें (बेताब व मशक़्क़त) तुम तक पहुंच रही हैं के जिन पर हम मुत्तेलाअ हुए और फिर वह चीज़ें भी उजागर होकर तुम्हारे सामने आ रही हैं के जिन में से कुछ मुमकिन है , हमारी नज़रों से ओझल हो गई हों , ऐ फ़रज़न्द! अगरचे मैंने इतनी उम्र नहीं पाई जितनी अगले लोगों की हुआ करती थीं फिर भी मैंने उनकी कारगुज़ारियों को देखा , उनके हालात व वाक़ेआत में ग़ौर किया और उनके छोड़े हुए निशानात में सैर व सयाहत की यहां तक के गोया मैं भी उन्हीं में का एक हो चुका हूँ।

बल्कि उन सबके हालात व मालूमात जो मुझ तक पहुच गए हैं उनकी वजह से ऐसा है के गोया मैंने उनके अव्वल से लेकर आखि़र तक के साथ ज़िन्दगी गुज़ारी है , चुनान्चे मैंने साफ़ को गन्दे और नफ़े को नुक़सान से अलग करके पहचान लिया है और अब सबका निचोड़ तुम्हारे लिये मख़सूस कर रहा हूँ और मैंने ख़ूबियों को चुन चुन कर तुम्हारे लिये समेट दिया है और बे-मानी चीज़ों को तुमसे जुदा रखा है और चूंके मुझे तुम्हारी हर बात का उतना ही ख़याल है जितना शफ़ीक़ बाप को होना चाहिये और तुम्हारी एख़लाक़ी तरबीयत भी पेशे नज़र है। लेहाज़ा मुनासिब समझा है के यह तालीम व तरबीयत इस हालत में हो के तुम नौ उम्र और बिसाते दहर पर ताज़ा वारिद हो और तुम्हारी नीयत खरी और नफ़्स पाकीज़ा है और मैंने चाहा था के पहले किताबे ख़ुदा एहकाम शरा और हलाल व हराम की तालीम दूँ और उसके अलावा दूसरी चीज़ों का रूख़ करूं लेकिन यह अन्देशा पैदा हुआ के कहीं वह चीज़ें जिनमें लोगों के अक़ाएद व मज़हबी ख़यालात में इख़्तेलाफ़ है तुम पर उसी तरह मुश्तबा न हो जाएं जैसे उन पर मुश्तबा हो गई हैं , बावजूद यक इन ग़लत अक़ायद का तज़किरा तुमसे मुझे नापसन्द था मगर इस पहलू को मज़बूत कर देना तुम्हारे लिये मुझे बेहतर मालूम हुआ , इससे के तुम्हें ऐसी सूरते हाल के सिपुर्द कर दूँ जिसमें मुझे तुम्हारे लिये हलाकत व तबाही का ख़तरा है और मैं उम्मीद करता हूँ के अल्लाह तुम्हें हिदायत की तौफ़ीक़ देगा और सही रास्ते की राहनुमाई करेगा , इन वजह से तुम्हें यह वसीयत नामा लिखता हूँ।

बेटा याद रखो के मेरी इस वसीयत से जिन चीज़ों की तुम्हें पाबन्दी करना है उनमें सबसे ज़्यादा मेरी नज़र में जिस चीज़ की अहमियत है वह अल्लाह का तक़वा है और यह के जो फ़राएज़ अल्लाह की तरफ़ से तुम पर आएद हैं उन पर इक्तेफ़ा करो और जिस राह पर तुम्हारे आबाओ अजदाद और तुम्हारे घराने के अफ़राद चलते रहे हैं उसी पर चलते रहो क्योंके जिस तरह तुम अपने लिये नज़र व फ़िक्र कर सकते हो उन्होंने उस नज़र व फ़िक्र में कोई कसर उठा न रखी थी , मगर इन्तेहाई ग़ौर व फ़िक्र ने भी उनको उसी नतीजे पर पहुंचाया , के जो उन्हें अपने फ़राएज़ मालूम हों , उन पर इकतेफ़ा करें और ग़ैर मुताल्लुक़ चीज़ों से क़दम रोक लें लेकिन अगर तुम्हारा नफ़्स इसके लिये तैयार न हो के बग़ैर ज़ाती तहक़ीक़ से इल्म हासिल किये हुए जिस तरह उन्होंने हासिल किया था , इन बातों को क़ुबूल करे तो बहरहाल यह लाज़िम है के तुम्हारे तलब का अन्दाज़ सीखने और समझने का हो , न शुबहात में फान्द पड़ने और बहस व नज़ाअ में उलझने का और इस फ़िक्र व नज़र को शुरू करने से पहले अल्लाह से मदद के ख़्वास्तगार हो , और उससे तौफ़ीक़ व ताईद की दुआ करो , और हर उस वहम के शाएबे से अपना दामन बचाओ के तुम्हें शुबह में डाल दे या गुमराही में छोड़ दे , और फिर अगर तुम्हें इत्मीनान हो जाए के तुम्हारा दिल साफ़ और ख़ाशा (असर लेने की सलाहियत वाला) हो गया है और तुम्हारी राय ताम व कामिल हो गई है और तुम्हारे पास सिर्फ़ यही एक फ़िक्र रह गई है (तुम्हारा ज़ौक़ व शौक़ एक नुक्ते पर जम गया है) तो जिन बातों को मैंने वाज़ेह किया है उनमें ग़ौर व फ़िक्र करना वरना अगर हस्बे मन्शा फ़िक्र व नज़र का फ़राग़ (आसूदगी) हासिल नहीं हुआ है तो याद रखो के इस तरह सिर्फ़ शबकोर ऊंटनी की तरह हाथ पैर मारते रहोगे ; और अन्धेरे में भटकते रहोगे और दीन का तलबगार वह नहीं है जो अन्धेरों में हाथ पांव मारे और बातों को मख़लूत कर दे , इससे तो ठहर जाना ही बेहतर है।

फ़रज़न्द! मेरी वसीयत को समझो और यह जान लो के जो मौत का मालिक है वही ज़िन्दगी का मालिक है और जो ख़ालिक़ है वही मौत देने वाला है और जो फ़ना करने वाला है वही दोबारा वापस लाने वाला है और जो मुब्तिला करने वाला है वही आफ़ियत देने वाला है और यह दुनिया इसी हालत में मुस्तक़र रह सकती है जिसमें मालिक ने क़रार दिया है यानी नेमत , आज़माइश , आखि़रत की जज़ा या वह बात जो तुम नहीं जानते हो , अब अगर इसमें से कोई बात समझ में न आए तो उसे अपनी जेहालत पर महमूल करना के तुम इब्तिदा में जब पैदा हुए हो तो जाहिल ही पैदा हुए हो , बाद में इल्म हासिल किया है और इसी बिना पर मजहूलात की तादाद कसीर है जिसमें इन्सानी राय मुतहय्यरा रह जाती है (अभी कितनी ही ऐसी चीज़ें हैं के जिनसे तुम बेख़बर हो के उनमें पहले तुम्हारा ज़ेह्न परेशान होता है) और निगाह बहक जाती है और बाद में सही हक़ीक़त नज़र आती है , लेहाज़ा उस मालिक से वाबस्ता रहो जिसने पैदा किया है , रोज़ी दी है और मोतदिल बनाया है , उसी की इबादत करो , उसी की तरफ़ तवज्जो करो और उसी से डरते रहो , बेटा! यह याद रखो के तुम्हें ख़ुदा के बारे में इस तरह की ख़बरें कोई नहीं दे सकता है जिस तरह रसूले अकरम (स 0) ने दी हैं। लेहाज़ा उनको बख़ुशी अपना पेशवा और राहे निजात का क़ाएद तस्लीम करो , मैंने तुम्हारी नसीहत में कोई कमी नहीं की है और न तुम कोशिश के बावजूद अपने बारे में इतना सोच सकते हो जितना मैंने देख लिया है।

फ़रज़न्द! याद रखो अगर ख़ुदा के लिये कोई शरीक भी होता तो उसके भी रसूल आते और उसकी भी सल्तनत और हुकूमत के भी आसार दिखाई देते और इसके अफ़आल व सिफ़ात का भी कुछ पता होता , लेकिन ऐसा कुछ नहीं है लेहाज़ा ख़ुदा एक है जैसा के उसने ख़ुद बयान किया है , उसके मुल्क में उससे कोई टकराने वाला नहीं है और न उसके लिये किसी तरह का ज़वाल है। वह औलियत की हुदूद के बग़ैर सबसे अव्वल है और किसी इन्तेहा के बग़ैर सबसे आखि़र तक रहने वाला है। वह इस बात से अज़ीमतर है के उसकी रूबूबियत का असबाते फ़िक्र व नज़र के अहाते से किया जाए। अगर तुमने इस हक़ीक़त को पहचान लिया है तो इस तरह अमल करो जिस तरह तुम जैसे मामूली हैसियत , क़लील ताक़त , कसीर आजिज़ी और परवरदिगार की तरफ़ इताअत की तलब , इताब के ख़ौफ़ और नाराज़गी के अन्देशे में हाजत रखने वाले क्या करते हैं , उसने जिस चीज़ का हुक्म दिया है वह बेहतरीन है और जिससे मना किया है वह बदतरीन है।

फ़रज़न्द! मैंने तुम्हें दुनिया , उसके हालात , तसर्रूफ़ात , ज़वाल और इन्तेक़ाल सबके बारे में बाख़बर कर दिया है और आखि़रत और उसमें साहेबाने ईमान के लिये मुहैया नेमतों का भी पता बता दिया है और दोनों के लिये मिसालें बयान कर दी हैं ताके तुम इबरत हासिल कर सको और इससे होशियार रहो।

याद रखो के जिसने दुनिया को बख़ूबी पहचान लिया है उसकी मिसाल उस मुसाफ़िर क़ौम जैसी है जिसका क़हतज़दा मन्ज़िल से दिल उचाट हो जाए और वह किसी सरसब्ज़ व शादाब इलाक़े का इरादा करे और ज़हमते राह , फ़िराक़े अहबाब , दुश्वारी सफ़र , बदमज़गिए तआम वग़ैरा जैसी तमाम मुसीबतें बरदाश्त कर ले ताके वसीअ घर और क़रार की मन्ज़िल तक पहुंच जाए के ऐसे लोग उन तमाम बातों में किसी तकलीफ़ का एहसास नहीं करते और न इस राह में ख़र्च को नुक़सान तसव्वुर करते हैं और उनकी नज़र में इससे ज़्यादा महबूब कोई शै नहीं है जो उन्हें मन्ज़िल से क़रीबतर कर दे और अपने मरकज़ तक पहुंचा दे।

और इस दुनिया से धोका खा जाने वालों की मिसाल उस क़ौम की है जो सरसब्ज़ व शादाब मक़ाम पर रहे और वहां से दिल उचट जाए तो क़हत ज़दा इलाक़े की तरफ़ चली जाए के इसकी नज़र में क़दीम हालात के छट जाने से ज़्यादा नागवार और दुश्वारगुज़ार कोई शै नहीं है के अब जिस मन्ज़िल पर वारिद हुए हैं और जहां तक पहुंचे हैं वह किसी क़ीमत पर इख़्तेयार करने के क़ाबिल नहीं है।

बेटा! देखो अपने और ग़ैर के दरम्यान मीज़ान अपने नफ़्स को क़रार दो और दूसरे के लिये वही पसन्द करो जो अपने लिये पसन्द कर सकते हो और इसके लिये भी वह बात नापसन्द करो जो अपने लिये पसन्द नहीं करते हो , किसी पर ज़ुल्म न करना के अपने ऊपर ज़ुल्म पसन्द नहीं करते हो और हर एक के साथ नेकी करना जिस तरह चाहते हो के सब तुम्हारे साथ नेक बरताव करें और जिस चीज़ को दूसरे से बुरा समझते हो उसे अपने लिये भी बुरा ही तसव्वुर करना , लोगों की उस बात से राज़ी हो जाना जिससे अपनी बात से लोगों को राज़ी करना चाहते हो , बिला इल्म कोई बात ज़बान से न निकालना अगरचे तुम्हारा इल्म बहुत कम है और किसी के बारे में वह बात न कहना जो अपने बारे में पसन्द न करते हो।

याद रखो के ख़ुदपसन्दी राहे सवाब के खि़लाफ़ और अक़्लों की बीमारी है लेहाज़ा अपनी कोशिश तेज़तर करो और अपने माल को दूसरों के लिये ज़ख़ीरा न बनाओ और अगर दरम्यानी रास्ते की हिदायत मिल जाए तो अपने रब के सामने सबसे ज़्यादा ख़ुज़ूअ व ख़ुशूअ से पेश आना।

और याद रखो के तुम्हारे सामने वह रास्ता है जिसकी मसाफ़त बईद और मशक़्क़त शदीद है इसमें तुम बेहतरीन ज़ादे राह की तलाश और बक़द्रे ज़रूरत ज़ादे राह की फ़राहमी से बेनियाज़ हो सकते हो अलबत्ता बोझ हलका रखो और अपनी ताक़त से ज़्यादा अपनी पुश्त पर बोझ मत लादो के यह कराँबारी एक वबाल बन जाए और फिर जब कोई फ़क़ीर मिल जाए और तुम्हारे ज़ादे राह को क़यामत तक पहुंचा सकता हो और कल वक़्ते ज़रूरत मुकम्मल तरीक़े से तुम्हारे हवाले कर सकता हो तो उसे ग़नीमत समझो और माल उसी के हवाले कर दो क्योंके हो सकता है के फिर तुम ऐसे शख़्स को ढूंढो और न पाओ और जो तुम्हारी दौलतमन्दी की हालत में तुमसे क़र्ज़ मांग रहा है उस वादे पर के तुम्हारी तंगदस्ती के वक़्त अदा कर देगा तो उसे ग़नीमत जानो।

याद रखो! तुम्हारे सामने एक दुश्वारगुज़ार खाई है जिसमें हलका फुलका आदमी गरांबार आदमी से कहीं अच्छी हालत में होगा अैर सुस्त रफ़्तार तेज़ क़दम दौड़ने वाले की बनिस्बत बुरी हालत में होगा और इस राह में ला मुहाला तुम्हारी मन्ज़िल जन्नत होगी या दोज़ख़। लेहाज़ा उतरने से पहले जगह मुन्तख़ब कर लो और पड़ाव डालने से पहले इस जगह को ठीक ठाक कर लो , क्यूंके मौत के बाद ख़ुशनूदी हासिल करने का मौक़ा न होगा और न दुनिया की तरफ़ पलटने की कोई सूरत होगी। यक़ीन रखो के जिसके क़ब्ज़े में क़ुदरत में आसमान व ज़मीन के ख़ज़ाने हैं उसने तुम्हें सवाल करने की इजाज़त दे दखी है और क़ुबूल करने का ज़िम्मा लिया है और हुक्म दिया है के तुम मांगो के वह दे , रहम की दरख़्वास्त करो ताके वह रहम करे , उसने अपने ऊपर तुम्हारे दरम्यान दरबान खड़े नहीं किये जो तुम्हें रोकते हों न तुम्हें उस पर मजबूर किया है के तुम किसी को इसके यहां सिफ़ारिश के लिये लाओ तब ही काम हो और तुमने गुनाह किये हों तो उसने तुम्हारे लिये तौबा की गुन्जाइश ख़त्म नहीं की है , न सज़ा देने में जल्दी की है और न तौबा व अनाबत के बाद वह कभी ताना देता है (के तुमने पहले यह किया था , वह किया था) न ऐसे मौक़े पर उसने तुम्हें रूसवा किया के जहां तुम्हें रूसवा ही होना चाहिये था और न उसने तौबा के क़ुबूल करने में (कड़ी शर्तें लगाकर) तुम्हारे साथ सख़्तगीरी की है , न गुनाह के बारे में तुमसे सख़्ती के साथ जिरह करता है और न अपनी रहमत से मायूस करता है बल्कि उसने गुनाह से किनाराकशी को भी एक नेकी क़रार दिया है और बुराई एक हो तो उसे एक (बुराई) और नेकी एक हो तो उसे दस (नेकियों) के बराबर ठहराया है , उसने तौबा का दरवाज़ा खोल रखा है जब भी उसे पुकारो वह तुम्हारी सुनता है और जब भी राज़ व नियाज़ करते हुए उससे कुछ कहो वह जान लेता है। तुम उसी से मुरादें मांगते हो और उसी के सामने दिल के भेद खोलते हो , उसी से अपने दुख दर्द का रोना रोते हो और मुसीबतों से निकालने की इल्तिजा करते हो और अपने कामों में मदद मांगते हो और उसकी रहमत के ख़ज़ानों से वह चीज़ें तलब करते हो जिनके देने पर और कोई क़ुदरत नहीं रखता , जैसे उम्रों में दराज़ी , जिस्मानी सेहत व तवानाई और रिज़्क़ में वुसअत और इस पर उसने तुम्हारे हाथ में अपने ख़ज़ानों के खोलने वाली कुन्जियां दे दी हैं इस तरह के तुम्हें अपनी बारगाह में सवाल करने का तरीक़ा बताया , इस तरह जब तुम चाहो दुआ के ज़रिये उसकी नेमत के दरवाज़ों को खुलवा लो , उसकी रहमत के झालों को बरसा लो , हाँ बाज़ औक़ात क़ुबूलियत में देर हो तो उससे नाउम्मीद न हो , इसलिये के अतिया नीयत के मुताबिक़ होता है और अकसर क़ुबूलियत में इसलिये देर की जाती है के साएल के अज्र में इज़ाफ़ा हो , और उम्मीदवार को अतिये और ज़्यादा मिलें और कभी यह भी होता है के तुम एक चीज़ मांगते हो और वह हासिल नहीं होती मगर दुनिया या आखि़रत में इससे बेहतर चीज़ें तुम्हें मिल जाती हैं या तुम्हारे किसी बेहतर मफ़ाद के पेशे नज़र तुम्हें इससे महरूम कर दिया जाता है इसलिये के तुम कभी ऐसी चीज़ें भी तलब कर लेते हो के अगर तुम्हें दे दी जाएं तो तुम्हारा दीन तबाह हो जाए। लेहाज़ा तुम्हें बस वह चीज़ तलब करना चाहिये जिसका जमाल पाएदार हो अैर जिसका वबाल तुम्हारे सर न पड़ने वाला हो , रहा दुनिया का माल तो न यह तुम्हारे लिये रहेगा और न तुम उसके लिये रहोगे।

याद रखो! तुम आखि़रत के लिये पैदा हुए हो न के दुनिया के लिये , फ़ना के लिये ख़ल्क़ हुए हो न बक़ा के लिये , मौत के लिये बने हो न हयात के लिये , तुम एक ऐसी मन्ज़िल में हो जिसका कोई ठीक नहीं है और एक ऐसे घर में हो जो आखि़रत का साज़ो सामान मुहैय्या करने के लिये है और सिर्फ़ मन्ज़िले आखि़रत की गुज़रगाह है। तुम वह हो जिसका मौत पीछा कये हुए है जिससे कोई भागने वाला बच नहीं सकता है और उसके हाथ से निकल नहीं सकता है , वह बहरहाल उसे पा लेगी। लेहाज़ा उसकी तरफ़ से होशियार हो के वह तुम्हें किसी बुरे हाल में पकड़ ले और तुम ख़ाली तौबा के लिये सोचते ही रह जाओ और वह तुम्हारे और तौबा के दरम्यान हाएल हो जाए के इस तरह गोया तुमने अपने नफ़्स को हलाक कर दिया।

फ़रज़न्द! मौत को बराबर याद करते रहो और इन हालात को याद करते रहो जिन पर अचानक वारिद होना है और जहां तक मौत के बाद जाना है ताके वह तुम्हारे पास आए तो तुम एहतियाती सामान कर चुके हो और अपनी ताक़त को मज़बूत बना चुके हो और वह अचानक आकर तुम पर क़ब्ज़ा न कर ले और ख़बरदार अहले दुनिया को दुनिया की तरफ़ झुकते और इस पर मरते देख कर तुम धोके में न आ जाना के परवरदिगार तुम्हें इसके बारे में बता चुका है और वह ख़ुद भी अपने मसाएब सुना चुकी है और अपनी बुराइयों को वाज़ेह कर चुकी है। दुनियादार अफ़राद सिर्फ़ भौंकने वाले कुत्ते और फाउण्डेशऩ खाने वाले दरिन्दे हैं जहां एक-दूसरे पर भौंकता है और ताक़त वाला कमज़ोर को खा जाता है और बड़ा छोटे को कुचल डालता है , यह सब जानवर हैं जिनमें बाज़ बन्धे हुए हैं और बाज़ आवारा , जिन्होंने अपनी अक़्लें गुम कर दी हैं और नामालूम रास्ते पर चल पड़े हैं गोया दुश्वार गुज़ार वादियों में मुसीबतों में चरने वाले हैं जहां न कोई चरवाहा है हो सीधे रास्ते पर लगा सके और न कोई चराने वाला है जो उन्हें चरा सके। दुनिया ने इन्हें गुमराही के रास्ते पर डाल दिया है और इनकी बसारत को मिनाराए हिदायत के मुक़ाबले में सल्ब कर लिया है और वह हैरत के आलम में सरगर्दां हैं और नेमतों में डूबे हुए हैं , दुनिया को अपना माबूद बना लिया है और वह उनसे खेल रही है और वह इससे खेल रहे हैं और सबने आखि़रत को यकसर भुला दिया है।

ठहरो! अन्धेरे को छटने दो , ऐसा महसूस होगा जैसे क़ाफ़िले आखि़रत की मन्ज़िल में उतर चुके हैं और क़रीब है के तेज़ रफ्तार अफ़राद अगले लोगों से मुलहक़ हो जाएं।

फ़रज़न्द! याद रखो के जो शब व रोज़ की सवारी पर सवार है वह गोया सरगर्मे सफ़र है चाहे ठहरा ही क्यों न रहे और मसाफ़त क़ता कर रहा है चाहे इत्मीनान से मुक़ीम ही क्यों न रहे। यह बात यक़ीन के साथ समझ लो के तुम न हर उम्मीद को पा सकते हो और न अजल से आगे जा सकते हो , तुम अगले लोगों के रास्ते ही पर चल रहे हो लेहाज़ा तलब में नर्म रफ़्तारी से काम लो और कस्बे माश में मयानारवी इख़्तेयार करो , वरना बहुत सी तलब इन्सान को माल की महरूमी तक पहुंचा देती है और हर तलब करने वाला कामयाब भी नहीं होता है और न हर एतदाल से काम लेने वाला महरूम ही होता है , अपने नफ़्स को हर तरह की पस्ती से बलन्दतर रखो चाहे वह पस्ती पसन्दीदा चीज़ो तक पहुंचा ही क्यों न दे इसलिये के जो इज़्ज़ते नफ़्स दे दोगे उसका कोई बदल नहीं मिल सकता और ख़बरदार किसी के ग़ुलाम न बन जाना जबके परवरदिगार ने भी आज़ाद क़रार दिया है। देखो उस चीज़ में कोई ख़ैर नहीं है जो शर के ज़रिये हासिल हो और वह आसानी आसानी नहीं है जो दुश्वारी के रास्ते से मिले। (((-बेहतरीन फ़लसफ़ाए हयात और बलीग़तरीन मोएज़ा है अगर इन्सान फ़िक्रे सलीम और अक़्ले मुस्तक़ीम रखता हो , हर गुज़रने वाला दिन और हर बीत जाने वाली रात इन्सान की ज़िन्दगी में से एक हिस्सा कम कर देती है और इस तरह इन्सान मुसलसल सरगर्मे सफ़र है अगरचे मकानी एतबार से अपनी जगह पर मुक़ीम है और हरकत भी नहीं कर रहा है , हरकत सिर्फ़ मकान ही में नहीं होती है , ज़मान में भी होती है और यही हरकत इन्सान को सरहदे मौत तक ले जाती है-)))

ख़बरदार लालच की सवारियां तेज़ रफ़्तारी दिखलाकर तुम्हें हलाकत के चश्मों पर न वारिद कर दें और अगर मुमकिन हो के तुम्हारे और ख़ुदा के दरम्यान कोई साहबे नेमत न आने पाए तो ऐसा ही करो के तुम्हें तुम्हारा हिस्सा बहरहाल मिलने वाला है और अपना नसीब बहरहाल लेने वाले हो और अल्लाह की तरफ़ से थोड़ा भी मख़लूक़ात के बहुत से ज़्यादा बेहतर होता है। अगरचे सब अल्लाह ही की तरफ़ से होता है।

ख़ामोशी से पैदा होने वाली कोताही की तलाफ़ी कर लेना गुफ़्तगू से होने वाले नुक़सान के तदारूक से आसानतर है , बरतन के अन्दर का सामान मुंह बन्द करके महफ़ूज़ किया जाता है और अपने हाथ की दौलत का महफ़ूज़ कर लेना दूसरे के हाथ की नेमत के तलब करने से ज़्यादा बेहतर है। मायूसी की तल्ख़ी को बरदाश्त करना लोगों के सामने हाथ फैलाने से बेहतर है और पाकदामनी के साथ मेहनत मशक़्क़त करना फ़िस्क़ व फ़ुजूर के साथ मालदारी से बेहतर है।

हर इन्सान अपने राज़ को दूसरों से ज़्यादा महफ़ूज़ रख सकता है और बहुत से लोग हैं जो उस अम्र के लिये दौड़ रहे हैं जो उनके लिये नुक़सानदेह है। ज़्यादा बात करने वाला बकवास करने लगता है और ग़ौर व फ़िक्र करने वाला बसीर हो जाता है। अहले ख़ैर के साथ रहो ताके उन्हीं में शुमार हो और अहले शर से अलग रहो ताके उनसे अलग हिसाब किये जाओ। बदतरीन इनआम माले हराम है और बदतरीन ज़ुल्म कमज़ोर आदमी पर ज़ुल्म है। नर्मी नामुनासिब हो तो सख़्ती ही मुनासिब है। कभी कभी दवा मर्ज़ बन जाती है और मर्ज़ दवा और कभी कभी ग़ैर मुख़लिस भी नसीहत की बात कर देता है और कभी-कभी मुख़लिस भी ख़यानत से काम ले लेता है। देखो ख़बरदार , ख़्वाहिशात पर एतमाद न करना के यह अहमक़ों का सरमाया हैं अक़्लमन्दी तजुर्बात के महफ़ूज़ रखने में है और बेहतरीन तजुर्बा वही है जिससे नसीहत हासिल हो , फ़ुरसत से फ़ायदा उठाओ क़ब्ल इसके के रन्ज व अन्दोह का सामना करना पड़े , हर तलबगार मतलूब को हासिल भी नहीं करता है और हर ग़ायब पलट कर भी नहीं आता है।

फ़साद की एक क़िस्म ज़ादे राह का ज़ाया कर देना और आक़ेबत को बरबाद कर देना भी है , हर अम्र की एक आक़ेबत है और अनक़रीब वह तुम्हें मिल जाएगा जो तुम्हारे लिये मुक़द्दर हुआ है। तिजारत करने वाला वही होता है जो माल को ख़तरे में डाल सके , कभी थोड़ा माल ज़्यादा (तमाले फ़रावां) से ज़्यादा बाबरकत होता है। उस मददगार में कोई ख़ैर नहीं है जो ज़लील हो और वह दोस्त बेकार है जो बदनाम हो। ज़माने के साथ सहूलत का बरताव करो जब तक इसका ऊंट क़ाबू में रहे और किसी चीज़ को उससे ज़्यादा की उम्मीद में ख़तरे में मत डालो , ख़बरदार कहीं दुश्मनी और अनाद की सवारी तुमसे मुंहज़ोरी न करने लगे।

अपने नफ़्स को अपने भाई के बारे में क़तअ ताल्लुक़ के मुक़ाबले में ताल्लुक़ात , आराज़ के मुक़ाबले में मेहरबानी , कंजूसी के मुक़ाबले में अता , ( जब वह दोस्ती तोड़े तो तुम उसे जोड़ो , वह मुंह फेर ले तो तुम आगे बढ़ो और लुत्फ़ व मेहरबानी से पेश आओ , वह तुम्हारे लिये कन्जूसी करे तो तुम उस पर ख़र्च करो) , दूरी के मुक़ाबले में क़ुरबत , शिद्दत के मुक़ाबले में नर्मी और जुर्म के मौक़े पर माज़ेरत के लिये आमादा करो गोया के तुम उसके बन्दे हो और उसने तुम पर कोई एहसान किया है और ख़बरदार एहसान को भी बेमहल न क़रार देना और न किसी न अहल के साथ एहसान करना , अपने दुश्मन के दोस्त को अपना दोस्त न बनाना के तुम अपने दोस्त के दुश्मन हो जाओ और अपने भाई को मुख़लिसाना नसीहत करते रहना चाहे उसे अच्छी लगें या बुरी , ग़ुस्से को पी जाओ के मैंने अन्जामकार के एतबार से इससे ज़्यादा शीरीं कोई घूंट नहीं देखा है और न आक़ेबत के लेहाज़ से लज़ीज़तर , और जो तुम्हारे साथ सख़्ती करे उसके लिये नरम हो जाओ शायद कभी वह भी नरम हो जाए , अपने दुश्मन के साथ एहसान करो के इसमें दो में से एक कामयाबी और शीरींतरीन कामयाबी है और अगर अपने भाई से क़तअ ताल्लुक़ करना चाहते हो तो अपने नफ़्स में इतनी गुंजाइश रखो के अगर उसे किसी दिन वापसी का ख़याल पैदा हो तो वापस आ सके।

जो तुम्हारे बारे में अच्छा ख़याल रखे उसके ख़याल को ग़लत न होने देना , बाहेमी रवाबित की बिना पर किसी भाई के हक़ को ज़ाया न करना के जिसके हक़ को ज़ाया कर दिया फिर वह वाक़ेअन भाई नहीं है और देखो तुम्हारे घरवाले तुम्हारी वजह से बदबख़्त न होने पाएं और जो तुमसे किनाराकश होना चाहते हैं उसके पीछे न लगे रहो , तुम्हारा कोई भाई क़तअ ताल्लुक़ात में तुम पर बाज़ी न ले जाए और तुम ताल्लुक़ात मज़बूत कर लो और ख़बरदार बुराई करने में नेकी करने से ज़्यादा ताक़त का मुज़ाहिरा न करना और किसी ज़ालिम के ज़ुल्म को बहुत बड़ा तसव्वुर न करना के वह अपने को नुक़सान पहुंचा रहा है और तुम्हें फ़ायदा पहुंचा रहा है और जो तुम्हें फ़ायदा पहुंचाए उसकी जज़ा यह नहीं है के तुम उसके साथ बुराई करो।

और फ़रज़न्द!! याद रखो के रिज़्क़ की दो क़िस्में हैं , एक रिज़्क़ वह है जिसे तुम तलाश कर रहे हो और एक रिज़्क़ वह है जो तुमको तलाश कर रहा है के अगर ततुम उस तक न जाओगे तो वह ख़ुद तुम तक आ जाएगा। ज़रूरत के वक़्त ख़ुज़ूअ व ख़ुशू का इज़हार किस क़द्र ज़लीलतरीन बात है और बे नियाज़ी के आलम में बदसलूकी किस क़द्र क़बीह हरकत है। इस दुनिया में तुम्हारा हिस्सा इतना ही है जिससे अपनी आक़ेबत का इन्तेज़ाम कर सको , और किसी चीज़ के हाथ से निकल जाने पर परेशानी का इज़हार करना है तो हर उस चीज़ पर भी फ़रयाद करो जो तुम तक नहीं पहुंची है। जो कुछ हो चुका है उसके ज़रिये इसका पता लगाओ जो होने वाला है के मामलात तमाम के तमाम एक ही जैसे हैं और ख़बरदार उन लोगों में न हो जाओ जिन पर उस वक़्त तक नसीहत असरअन्दाज़ नहीं होती है जब तक पूरी तरह तकलीफ़ न पहुंचाई जाए इसलिये के इन्साने आक़िल अदब से नसीहत हासिल करता है और जानवर मारपीट से सीधा होता है ,, दुनिया में वारिद होने वाले हुमूम व आलाम को सब्र के अज़ाएम और यक़ीन के हुस्न के ज़रिये रद कर दो , याद रखो के जिसने भी एतदाल को छोड़ा वह मुनहरिफ़ हो गया , साथी एक तरह का शरीके नसब होता है और दोस्त वह है जो ग़ीबत में भी सच्चा दोस्त रहे। ख़्वाहिश अन्धेपन की शरीक कार होती है। बहुत से दूर वाले ऐसे होते हैं जो क़रीब वालों से क़रीबतर होते हैं और बहुत से क़रीब वाले दूर वालों से ज़्यादा दूरतर होते हैं।

(((- इस मसले का ताल्लुक़ दुनिया में इख़लाक़ी बरताव से है जहां ज़ालिमों को इस्लामी इख़लाक़ात से आगाह किया जाता है और कभी लश्करे माविया पर बन्दिश आब को रोक दिया जाना जाता है और कभी इब्ने मुलजिम को सेराब कर दिया जाता है। वरना अगर दीन व मज़हब ख़तरे में पड़ जाए तो मज़हब से ज़्यादा अज़ीज़तर कोई शै नहीं है और ज़ालिमों से जेहाद भी वाजिब हो जाता है। इसमें कोई शक नहीं है के इन्सान की ज़िन्दगी में बेशुमार ऐसे मौक़े आते हैं जहां यह एहसास पैदा होता है के जैसे इन्सान रिज़्क़ की तलाश में नहीं है बल्कि रिज़्क़ इन्सान को तलाश कर रहा है और इन्सान जहां जहां जा रहा है उसका रिज़्क़ उसके साथ जा रहा है। और परवरदिगार ने ऐसे वाक़ेआत का इन्तेज़ाम इसीलिये किया है के इन्सान को इसकी रज़्ज़ाक़ियतत और ईफ़ाए वादा का यक़ीन हो जाए और वह रिज़्क़ की राह में इज़्ज़ते नफ़्स या दारे आखि़रत को पहुंचने के लिये तैयार न हो-)))

ग़रीब वह है जिसका कोई दोस्त न हो , जो हक़ से आगे बढ़ जाए उसके रास्ते तंग हो जाते हैं और जो अपनी हैसियत पर क़ायम रहता है उसकी इज्ज़त बाक़ी रह जाती है तुम्हारे हाथों में मज़बूत तरीन वसीला तुम्हारा और ख़ुदा का रिश्ता है , और जो तुम्हारी परवाह न करे वही तुम्हारा दुश्मन है। कभी कभी मायूसी भी कामयाबी बन जाती है जब हर्स व लालच मूजिबे हलाकत हो , हर ऐब ज़ाहिर नहीं हुआ करता है और न हर फ़ुरसत का मौक़ा बार-बार मिला करता है , कभी कभी ऐसा भी होता है के आंखों वाला रास्ते से भटक जाता है और अन्धा सीधे रास्ते को पा लेता है , बुराई को पसे पुश्त डालते रहो के जब भी चाहो उसकी तरफ़ बढ़ सकते हो। जाहिल से क़तअ ताल्लुक़ आक़िल से ताल्लुक़ात के बराबर है , जो ज़माने की तरफ़ से मुतमईन हो जाता है ज़माना उससे ख़यानत करता है और जो इसे बड़ा समझता है उसे ज़लील कर देता है हर तीरअन्दाज़ का तीर निशाने पर नहीं बैठता है जब हाकिम बदल जाता है तो ज़माना बदल जाता है , रफ़ीक़ सफ़र के बारे में रास्ते पर चलने से पहले दरयाफ़्त करो और हमसाये के बारे में अपने घर से पहले ख़बरगीरी करो , ख़बरदार ऐसी कोई बात न करना जो मज़हकाख़ेज़ हो चाहे दूसरों ही की तरफ़ से नक़्ल की जाए।

ख़बरदार औरतों से मशविरा न करना के उनकी राय कमज़ोर और उनका इरादा सुस्त होता है , उन्हें परदे में रखकर उनकी निगाहों को ताक झांक से महफ़ूज़ रखो के परदे की सख़्ती उनकी इज़्ज़त व आबरू को बाक़ी रखने वाली है और उनका घर से निकल जाना ग़ैर मोतबर अफ़राद के अपने घर में दाखि़ल करने से ज़्यादा ख़तरनाक नहीं है , अगर मुमकिन हो के वह तुम्हारे अलावा किसी को न पहचानें तो ऐसा ही करो और ख़बरदार उन्हें उनके ज़ाती मसाएल से ज़्यादा इख़्तेयारात न दो इसलिये के औरत एक फूल है आौर हाकिम व मुतसर्रफ़ नहीं है। उसके पास व लेहाज़ को उसकी ज़ात से आगे न बढ़ाओ और उसमें दूसरों की सिफ़ारिश का हौसला न पैदा होने दो , देखो ख़बरदार ग़ैरत के मवाक़े के अलावा ग़ैरत का इज़हार मत करना के इस तरह अच्छी औरत भी बुराई के रास्ते पर चली जाएगी और बेऐब भी मशकूक हो जाती है।

अपने हर ख़ादिम के लिये एक अमल मुक़र्रर कर दो जिसका मुहासेबा कर सको के यह बात एक दूसरे के हवाले करने से कहीं ज़्यादा बेहतर है। अपने क़बीले का एहतेराम करो के यही तुम्हारे लिये परवाज़ का मरतबा रखते हैं और यही तुम्हारी असल हैं जिनकी तरफ़ तुम्हारी बाज़गश्त है और तुम्हारे हाथ हैं जिनके ज़रिये हमला कर सकते हो। अपने दीन व दुनिया को परवरदिगार के हवाले कर दो और उससे दुआ करो के तुम्हारे हक़ में दुनिया व आखि़रत में बेहतरीन फ़ैसला करे , वस्सलाम। (((-इस कलाम में मुख़्तलिफ़ अहतेमालात पाए जाते हैं -- एक एहतेमाल यह है के उस दूर के हालात की तरफ़ इशारा है जब औरतें 99फ़ीसदी जाहिल हुआ करती थीं और ज़ाहिर है के पढ़े लिखे इन्सान का किसी जाहिल से मश्विरा करना नादानी के अलावा कुछ नहीं है। दूसरा एहतेमाल यह है के इसमें औरत की जज़्बाती फ़ितरत की तरफ़ इशारा है के इस मशविरे में जज़्बात की फ़रमानी का ख़तरा ज़्यादा है लेहाज़ा अगर कोई औरत इस नुक़्स से बलन्दतर हो जाए तो इससे मश्विरा करने में कोई हर्ज नहीं है। तीसरा एहतेमाल यह है के इसमें उन मख़सूस औरतों की तरफ़ इशारा हो जिनकी राय पर अमल करने से आलमे इस्लाम का एक बड़ा हिस्सा तबाही के घाट उतर गया है और आज तक उसी तबाही के असरात देखे जा रहे हैं।-)))

15-आपकी दुआ (जिसे दुश्मन के मुक़ाबले के वक़्त दोहराया करते थे )

ख़ुदाया तेरी ही तरफ़ दिल खिंच रहे हैं और गर्दनें उठी हुई हैं और आंखें लगी हुई हैं और क़दम आगे बढ़ रहे हैं और बदन लाग़र हो चुके हैं।

ख़ुदाया छिपे हुए कीने सामने आ गए हैं और अदावतों की देगें जोश खाने लगी हैं। ख़ुदाया हम तेरी बारगाह में अपने रसूल की ग़ैबत और दुश्मनों की कसरत की और ख़्वाहिशात के तफ़रिक़े की फ़रयाद कर रहे हैं। ख़ुदाया हमारे और दुश्मनों के दरम्यान हक़ के साथ फ़ैसला कर दे के तू बेहतरीन फ़ैसला करने वाला है।

16-आपका मकतूब गिरामी (जो जंग के वक़्त अपने असहाब से फ़रमाया करते थे)

ख़बरदार तुम पर वह फ़रार गराँ न गुज़रे जिसके बाद हमला करने का इमकान हो और वह पसपाई परेशान कुन न हो जिसके बाद दोबारा वापसी का इमकान हो , तलवारों को उनका हक़ दे दो और पहलू के भल गिरने वाले दुश्मनों के लिये मक़तल तैयार रखो , अपने नफ़्स को शदीद नैज़ाबाज़ी और सख़्त तरीन शमशीरज़नी के लिये आमादा रखो और आवाज़ों को मुर्दा बना दो के इससे कमज़ोरी दूर हो जाती है , क़सम है उस ज़ात की जिसने दाने को शिगाफ़ता किया है और जानदार चीज़ों को पैदा किया है के यह लोग इस्लाम नहीं लाए हैं बल्कि हालात के सामने सिपर अन्दाख़्ता हो गए हैं और अपने कुफ्ऱ को छिपाए हुए हैं और जैसे ही मददगार मिल गए वैसे ही इज़हार कर दिया। (((-इसमें कोई शक नहीं के मैदाने जंग में ऐसे हालात आ जाते हैं जब सिपाही को अपनी जगह छोड़ना पड़ती है और एक तरह से फ़रार का रास्ता इख़्तेयार करना पड़ता है , लेकिन इसमें कोई इश्काल नहीं है बशर्ते के हौसलाए जेहाद बरक़रार रहे और जज़्बाए क़ुरबानी में फ़र्क़ न आए। मैदाने ओहद का सबसे बड़ा ऐब यही था के “ सहाबाए कराम ” जज़्बाए क़ुरबानी से आरी हो गए थे और रसूले अकरम (स 0) के पुकारने के बावजूद पलट कर आने के लिये तैयार न थे ऐसी सूरते हाल यक़ीनन इस क़ाबिल है के उसकी मज़म्मत की जाए और यह नंग व आर नस्लों में बाक़ी रह जाए वरना फ़रार के बाद हमला या पस्पाई के बाद वापसी कोई ऐसी बात नहीं है जिस पर मज़म्मत या मलामत की जाए।-)))

17-आपका मकतूबे गिरामी (माविया के नाम उसके एक ख़त के जवाब में)

तुम्हारा यह मुतालबा के मैं शाम का इलाक़ा तुम्हारे हवाले कर दूँ , तो जिस चीज़ से कल इनकार कर चुका हूँ वह आज अता नहीं कर सकता हूं और तुम्हारा यह कहना के जंग ने अरब का ख़ातेमा कर दिया है और चन्द एक अफ़राद के अलावा कुछ नहीं बाक़ी रह गया है तो याद रखो के जिसका ख़ात्मा हक़ पर हुआ है उसका अन्जाम जन्नत है और जिसे बातिल खा गया है उसका अन्जाम जहन्नम है। रह गया हम दोनों का जंग और शख़्सियात के बारे में बराबर होना , तो तुम शक में इस तरह तेज़ रफ़्तारी से काम नहीं कर सकते हो जितना मैं यक़ीन में कर सकता हूँ और अहले शाम दुनिया के बारे में इतने हरीस नहीं हैं जिस क़द्र अहले इराक़ आखि़रत के बारे में फ़िक्रमन्द हैं। और तुम्हारा यह कहना के हम सब अब्दे मुनाफ़ की औलाद हैं तो यह बात सही है लेकिन न उमय्या हाशिम जैसा हो सकता है और न हर्ब अब्दुलमुत्तलिब जैसा , न अबू सुफ़ियान अबूतालिब का हमसर हो सकता है और न राहे ख़ुदा में हिजरत करने वाला आज़ाद कर्दा अफ़राद जैसा। न वाज़ेह नसब वाले का क़यास शजरे से चिपकाए जाने वाले पर हो सकता है और न हक़दार को बातिल नवाज़ जैसा क़रार दिया जा सकता है। मोमिन कभी मुनाफ़िक़ के बराबर नहीं रखा जा सकता है , बदतरीन औलाद तो वह है जो इस सल्फ़ के नक़्शे क़दम पर चले जो जहन्नम में गिर चुका है। इसके बाद हमारे हाथों में नबूवत का शरफ़ है जिसके ज़रिये हमने बातिल के इज़्ज़तदारों को ज़लील बनाया है और हक़ के कमज़ोरों को ऊपर उठाया है और जब परवरदिगार ने अरब को अपने दीन में फ़ौज दर फ़ौज दाखि़ल किया है और यह क़ौम बख़ुशी या ब-कराहत (नाख़ुशी से) मुसलमान हुई है तो तुम उन्हें दीन के दायरे में दाखि़ल होने वालों में थे या ब-रग़बत (लालच से) या ब-ख़ौफ़ जबके सबक़त हासिल करने वाले सबक़त हासिल कर चुके थे और मुहाजेरीन अव्वलीन अपनी फ़ज़ीलत पा चुके थे , देखो ख़बरदार शैतान को अपनी ज़िन्दगी का हिस्सेदार मत बनाओ और उसे अपने नफ़्स पर राह मत दो , वस्सलाम। (((-माविया ने अपने ख़त में चार नुक्ते उठाए थे और हज़रत ने सबके अलग-अलग जवाबात दिये हैं और हक़ व बातिल का अबदी फ़ैसला कर दिया है और आखि़र में यह भी वाज़ेह कर दिया है के तमाम मुआमलात में मसावात फ़र्ज़ कर लेने के बाद भी शरफ़े नबूवत का कोई मुक़ाबला नहीं हो सकता है जो परवरदिगार ने बनी हाशिम को अता किया है है और इसका बनी उमय्या से कोई ताल्लुक़ नहीं है। और ज़ाती किरदार के एतबार से भी बनी हाशिम इस्लाम की मन्ज़िल पर फ़ाएज़ थे और बनी उमय्या ने फतहे मक्का के मौक़े पर मजबूरन कलमा पढ़ लिया था और ज़ाहिर है के अस्तसलाम इस्लाम के मानिन्द नहीं हो सकता है-)))

18-हज़रत का मकतूबे गिरामी (बसरा के गवर्नर अब्दुल्लाह बिन अब्बास के नाम)

याद रखो के यह बसरा इबलीस के उतरने और फ़ितनों के उभरने की जगह का नाम है लेहाज़ा यहाँ के लोगों के साथ अच्छा बरताव करना और उनके दिलों से ख़ौफ़ की गिरह खोल देना। मुझे यह ख़बर मिली है के तुम बनी तमीम के साथ सख़्ती से पेश आते हो और उनसे सख़्त क़िस्म का बरताव करते हो तो याद रखो के बनी तमीम वह लोग हैं के जब उनका कोई सितारा डूबता है तो दूसरा उभर आता है , यह जंग के मामले में जाहेलीयत या इस्लाम कभी किसी से पीछे नहीं रहे हैं और फिर हमारा उनसे रिश्तेदारी और क़राबतदारी का ताल्लुक़ भी है के अगर हम इसका ख़याल रखेंगे तो अज्र पाएंगे अैर क़तअ ताल्लुक़ करेंगे तो गुनहगार होंगे , लेहाज़ा इब्ने अब्बास ख़ुदा तुम पर रहमत नाज़िल करे , उनके साथ अपनी ज़बान या हाथ पर जारी होने वाली अच्छाई या बुराई में सोच-समझ कर क़दम उठाना के हम दोनों इन ज़िम्मेदारियों में शरीक हैं , और देखो तुम्हारे बारे में हमारा हुस्ने ज़न बरक़रार रहे और मेरी राय ग़लत न साबित होने पाए।

19-आपका मकतूबे गिरामी (अपने बाज़ गवर्नरो के नाम)

अम्माबाद! तुम्हारे शहर के ज़मीनदारों ने तुम्हारे बारे में सख़्ती , संगदिली , तहक़ीर व तज़लील और तशद्दुद की शिकायत की है और मैंने उनके बारे में ग़ौर कर लिया है , वह अपने शिर्क की बिना पर क़रीब करने के क़ाबिल तो नहीं हैं लेकिन अहद व पैमान की बिना पर उन्हें दूर भी नहीं किया जा सकता है और उन पर ज़्यादती भी नहीं की जा सकती है लेहाज़ा तुम नके बारे में ऐसी नरमी का शोआर इख़्तेयार करो जिसमें क़द्र से (कहीं-कहीं) सख़्ती भी शामिल हो और उनके साथ सख़्ती और नर्मी के दरम्यान का बरताव करो के कभी क़रीब कर लो , कभी दूर कर दो , कभी नज़दीक बुला लो और कभी अलग रखो , इन्शाअल्लाह।

20-आपका मकतूबे गिरामी (ज़ियाद बिन अबिया के नाम)

जो बसरा के गवर्नर अब्दुल्लाह बिन अब्बास का नायब हो गया था और इब्ने अब्बास बसरा और अहवाज़ के तमाम एतराफ़ के गवर्नर थे)

मैं अल्लाह की सच्ची क़सम खाकर कहता हूँ के अगर मुझे ख़बर मिल गई के तुमने मुसलमानों के माले ग़नीमत में छोटी या बड़ी क़िस्म की ख़यानत की है तो मैं तुम पर ऐसी सख़्ती करूंगा के तुम नादार , बोझिल पीठ वाले और बेनंग व नाम (बेआबरू) होकर रह जाओगे। वस्सलाम। (((-वाज़ेह रहे के किसी का क़रीब कर लेना और है और उसके साथ आदिलाना और मुनसिफ़ाना बरताव करना और है , इस्लाम आदिलाना बरताव का हुक्म हर एक के बारे में देता है लेकिन क़ुरबत का जवाज़ सिर्फ़ साहिबाने ईमान व किरदार के लिये है) कुफ़्फ़ार व मुशरेकीन को तो उसने हरमे ख़ुदा से भी दूर कर दिया है और उनका दाखि़ला हुदूदे हरम में बन्द कर दिया है , यह और बात है के आज आलमे इस्लाम में कुफ़्फ़ार व मुशरेकीन ही क़रीब बनाए जाने के क़ाबिल हैं और कलमागो मुसलमान इस लाएक़ नहीं रह गए हैं और उनसे सुबह व शाम सर्द जंग सिर्फ़ कुफ़्फ़ार व मुशरेकीन से क़ुरबत पैदा करने या बरक़रार रखने की बुनियाद पर की जा रही है , अल्लाह इस इस्लाम पर रहम करे और इस उम्मत को अक़्ले सलीम इनायत फ़रमाए। वाज़ेह रहे के हज़रत इख़्तेयारी तौर पर किसी ऐसे शख़्स को ओहदा नहीं दे सकते हैं जिसका नसब मशकूक हो , यह काम इब्ने अब्बास ने ज़ाती तौर पर किया था , इसीलिये हज़रत ने नेहायत ही सख़्त लहजे में खि़ताब फ़रमाया है-)))

21-आपका मकतूबे गिरामी (ज़ियाद इब्ने अबिया के नाम)

इसराफ़ को छोड़कर मयानारवी इख़्तेयार करो और आज के दिन कल को याद रखो , बक़द्रे ज़रूरत माल रोक कर बाक़ी रोज़े हाजत (मोहताजी के दिन) के लिये आगे बढ़ा दो (फ़ुज़ूल ख़र्ची से बाज़ आओ)। क्या तुम्हारा ख़याल यह है के तुम मुतकब्बिरों में रहोगे और ख़ुदा तुम्हें मुतवाज़ेह अफ़राद जैसा अज्र देगा या तुम्हारे वास्ते सदक़ा व ख़ैरात करने वालों का सवाब लाज़िम क़रार देगा और तुम नेमतों में करवटें बदलते रहोगे , न किसी कमज़ोर का ख़याल करोगे और न किसी बेवा का जबके इन्सान को उसी का अज्र मिलता है जो उसने अन्जाम दिया है और वह उसी पर वारिद होता है जो उसने पहले भेज दिया है , वस्सलाम।

22-आपका मकतूबे गिरामी

(अब्दुल्लाह बिन अब्बास के नाम , जिसके बारे में ख़ुद इब्ने अब्बास का मक़ैला था

के मैंने रसूले अकरम (स 0) के बाद किसी कलाम से इस क़द्र इस्तेफ़ादा नहीं किया है जिस क़द्र इस कलाम से किया है)

अम्माबाद! कभी कभी ऐसा होता है के इन्सान उस चीज़ को पाकर भी ख़ुश हो जाता है जो उसके हाथ से जाने वाली नहीं थी और उस चीज़ के चले जाने से भी रन्जीदा हो जाता है जो उसे मिलने वाली नहीं थी लेहाज़ा तुम्हारा फ़र्ज़ है के उस आखि़रत पर ख़ुशी मनाओ जो हासिल हो जाए और उस पर अफ़सोस करो जो इसमें से हासिल न हो सके , दुनिया हासिल हो जाए तो इस पर ज़्यादा ख़ुशी का इज़हार न करो और हाथ से निकल जाए तो बेक़रार होकर अफ़सोस न करो , तुम्हारी तमामतर फ़िक्र मौत के बाद के बारे में होनी चाहिये।

23-आपका इरशादे गिरामी (जिसे अपनी शहादत से पहले बतौर वसीयत फ़रमाया है)

तुम सबके लिये मेरी वसीयत यह है के ख़बरदार ख़ुदा के बारे में किसी तरह का शिर्क न करना और हज़रत मोहम्मद (स 0) की सुन्नत को ज़ाया और बरबाद न करना इन दोनों को क़ायम रखो और इन दोनों पर चिराग़ों को रौशन रखो , इसके बाद किसी मज़म्मत का कोई अन्देशा नहीं है। मैं कल तुम्हारे साथ था और आज तुम्हारे लिये इबरत बन गया हूँ और कल तुमसे जुदा हो जाऊंगा , इसके बाद मैं बाक़ी रह गया तो अपने ख़ून का साहबे इख़्तेयार मैं ख़ुद हूँ वरना अगर मेरी मुद्दते हयात पूरी हो गई तो मैं दुनिया से चला जाऊंगा। मैं अगर माफ़ कर दूँ तो यह मेरे लिये क़ुरबते इलाही का ज़रिया होगा और तुम्हारे हक़ में भी एक नेकी होगी लेहाज़ा तुम भी माफ़ कर देना “ क्या तुम नहीं चाहते हो के अल्लाह तुम्हें बख़्श दे ” ख़ुदा की क़सम यह अचानक मौत ऐसी नहीं है जिसे मैं नापसन्द करता हूँ और न ऐसा सानेहा है जिसे मैं बुरा समझता हूँ , मैं उस शख़्स के मानिन्द हूँ जो रात भर पानी की जुस्तजू में रहे और सुबह को चश्मे पर वारिद हो जाए और तलाश के बाद अपने मक़सद को पा ले और फ़िर “ ख़ुदा की बारगाह में जो कुछ भी है वह नेक किरदारों के लिये बेहतर ही है। ”

सय्यद रज़ी- इस कलाम का एक हिस्सा पहले गुज़र चुका है लेकिन यहाँ कुछ इज़ाफ़ात थे लेहाज़ा मुनासिब मालूम हुआ के उसे दोबारा नक़्ल कर दिया जाए।(((-वाज़ेह रहे के इस माफ़ी से मुराद दुनिया में इन्तेक़ाम न लेना है के क़ातिल के जुर्म की दो हैसियतें होती हैं- वह इन्सानी दुनिया में एक ख़ून का ज़िम्मेदार होता है जिसके नतीजे में क़सास का क़ानून सामने आता है और मज़हबी दुनिया में हुक्मे इलाही की मुख़ालेफ़त का मुजरिम होता है जिसका अन्जाम आतिशे जहन्नम है। दुनिया के क़सास व इन्तेक़ाम में फ़सादात के अन्देशे होते हैं और अदावतों के शोले मज़ीद भड़क उठते हैं लेकिन आखि़रत के अज़ाब में कोई ख़तरा नहीं होता है। इसलिये साहेबाने अक़्ल व दानिश यहाँ के इन्तेक़ाम को नज़रअन्दाज़ कर देते हैं ताके मज़ीद फ़साद न पैदा हो सके और इस बात से मुतमईन रहते हैं के मुजरिम के लिये अज़ाबे जहन्नम ही काफ़ी है और ख़ुदा से बेहतर इन्तेक़ाम लेने वाला कौन है ?-)))

24-आपकी वसीयत (अपने अमवाल के बारे में जिसे जंगे सिफ़्फ़ीन की वापसी पर तहरीर फ़रमाया है)

यह बन्दए ख़ुदा , अली बिन अबीतालिब (अ 0) अमीरूलमोमेनीन का हुक्म है अपने अमवाल के बारे में जिसका मक़सद रिज़ाए परवरदिगार है ताके उसके ज़रिये जन्नत में दाखि़ल हो सके और रोज़े महशर के हौल से अमान पा सके। इन अमवाल की निगरानी हसन (अ 0) बिन अली करेंगे , बक़द्रे ज़रूरत इस्तेमाल करेंगे और बक़द्रे मुनासिब अनफ़ाक़ करेंगे। इसके बाद अगर उन्हें कोई हादसा पेश आ गया और हुसैन (अ 0) बाक़ी रह गए तो ज़िम्मेदार वह होंगे और इसी अन्दाज़ पर काम करेंगे। औलादे फ़ातेमा (अ 0) का हक़ अली (अ 0) के सदक़ात में वही है जो दीगर औलादे अली (अ 0) का है , मैंने निगरानी का काम औलादे फ़ातेमा (अ 0) को सिर्फ़ रिज़ाए इलाही और क़ुरबते पैग़म्बर (स 0) के ख़याल से सौंप दिया है के इस तरह हज़रत की हुरमत का एहतेराम भी हो आएगा और आपकी क़राबत का एज़ाज़ भी बरक़रार रहेगा। लेकिन इसके बाद भी वाली के लिये यह शर्त है के माल की असल को बाक़ी रखे और सिर्फ़ इसके समरात को ख़र्च करे , वह भी उन राहों में जिनका हुक्म दिया गया है और जिनकी हिदायत दी गई है और ख़बरदार इस क़रिया के नख़लिस्तान में से एक पौदा भी फ़रोख़्त न करे यहां तक के वह ज़मीन में दोबारा बोने के लाएक़ न रह जाए। मेरी वह कनीज़ें जिनसे मेरा ताल्लुक़ रह चुका है और उनकी औलाद भी मौजूद है या वह हामेला हैं , उनको उनकी औलाद के हिसाब से (बच्चे के हक़ में) रोक लिया जाए और उन्हीं का हिस्सा क़रार दे दिया जाए (वह उसके हिस्से में शुमार होगी)। इसके बाद अगर बच्चा मर जाए और कनीज़ ज़िन्दा रह जाए तो उसे आज़ाद कर दिया जाए के गोया इसकी ग़ुलामी ख़त्म हो चुकी है और आज़ादी हासिल हो चुकी है। सय्यद रज़ी- इस वसीयत में हज़रत का इरशाद “ वदिया भी फ़रोख़्त न किया जाए ’ इसमें वदिया से मुराद ख़ुर्मा के छोटे दरख़्त हैं जिसकी जमा वदी होती है और “ हती तशकल अरज़हा ग़रासा ’ एक फ़सीहतरीन कलाम है जिसका मक़सद यह है के ज़मीन में खजूर की दरख़्तकारी इतनी ज़्यादा हो जाए के देखने वाला इसकी असल हैसियत का अन्दाज़ा न कर सके और इसके लिये मसलए मुश्तबा हो जाए के शायद यह कोई दूसरी ज़मीन है। (((मोअर्रेख़ीन के बयान के मुताबिक़ अमीरूलमोमेनीन (अ 0) ने अपनी ज़िन्दगी में सिर्फ़ अरवाह व नुफ़ूस की सरज़मीनों को ज़िन्दा करने का काम अन्जाम नहीं दिया है , बल्कि माद्दी ज़मीनों में भी मुसलसल काम करते रहे हैं , ज़मीनों को क़ाबिले काश्त बनाया है , चश्मों को जारी किया है , दरख़्तों की सिंचाई की है और एक मज़दूर जैसी ज़िन्दगी गुज़ारी है और फिर अपनी सारी ज़हमतों और मेहनतों के नतीजे को राहे ख़ुदा में वक़्फ़ कर दिया है ताके बन्दगाने ख़ुदा इस्तेफ़ादा कर सकें और औलादे अली (अ 0) भी सिर्फ़ बक़द्रे ज़रूरत फ़ायदा उठा सके , ऐसा किरदार अब सिर्फ़ काग़ज़ात पर रह गया है वरना इसका वजूद दुनिया से अनक़ा हो चुका है अली (अ 0) वालों में देखने में नहीं आता है। सरबराहाने ममलिकत फोटो खींचवाने के लिये हाथ में फावड़ा और कुदाल ले लेते हैं वरना उन्हें ज़राअत से क्या ताल्लुक़ है , ज़मीनों का ज़िन्दा रखना अबूतुराब का काम था और उन्होंने इसका हक़ अदा कर दिया। बाक़ी सब दास्तानें हैं जो सफ़हे क़रतास पर महफ़ूज़ कर दी गई हैं और उनमें रोशनाई की चमक है , किरदार और हक़ीक़त की रोशनी नहीं है।-)))

25-आपकी वसीयत (जिसे हर उस शख़्स को लिख कर देते थे जिसे सदक़ात का आमिल क़रार देते थे)

सय्यद रज़ी- मैंने यह चन्द जुमले इसलिये नक़्ल कर दिये हैं ताके हर शख़्स को अन्दाज़ा हो जाए के हज़रत किस तरह सुतूने हक़ को क़ायम रखते थे

और हर छोटे बड़े और पोशीदा व ज़ाहिर उमूर में अद्ल के नमूने क़ायम फ़रमाते थे।

ख़ुदाए वहदहू लाशरीक का ख़ौफ़ लेकर आगे बढ़ो और ख़बरदार न किसी मुसलमान को ख़ौफ़ज़दा करना और न किसी की ज़मीन पर जबरन अपना गुज़र करना और जितना उसके माल में अल्लाह का हक़ निकलता हो उससे ज़र्रा बराबर ज़ायद (ज़्यादा) न लेना , और जब किसी क़बीले पर वारिद होना तो उनके घरों में घुसने के बजाए पहले उनके चश्मे और कनवीं पर वारिद होना और उसके बाद सुकून व वेक़ार के साथ उनकी तरफ़ जाना और उनके दरम्यान खड़े होकर सलाम करना और सलाम करने में कंजूसी से काम न लेना , इसके बाद उन से कहना के बन्दगाने ख़ुदा मुझे तुम्हारी तरफ़ परवरदिगार के वली और जानशीन ने भेजा है ताके मैं तुम्हारे अमवाल में से परवरदिगार का हक़ ले लूँ तो क्या तुम्हारे अमवाल में कोई हक़्क़े अल्लाह है जिसे मेरे हवाले कर सको ? अगर कोई शख़्स इन्कार कर दे तो उससे ज़्यादा तकरार न करना और अगर कोई शख़्स इक़रार करे तो उसके साथ इस अन्दाज़ से जाना के न किसी को ख़ौफ़ज़दा करना न धमकी देना , न सख़्ती का बरताव करना और न बेजा दबाव डालना जो सोना या चान्दी दे दें वह ले लेना और अगर चैपाया या ऊंट हों तो उनके मरकज़ पर अचानक बिला इजाज़त वारिद न हो जाना के ज़्यादा हिस्सा तो मालिक ही का है , उसके बाद जब चैपायों के मरकज़ तक पहुंच जाना तो किसी ज़ालिम व जाबिर की तरह दाखि़ल न होना न किसी जानवर को भड़का देना और न किसी को ख़ौफ़ज़दा कर देना और मालिक के साथ भी ग़लत बरताव न करना बल्कि माल को दो हिस्सों में तक़सीम करके मालिक को इख़्तेयार देना के वह जिस हिस्से को इख़्तेयार कर ले उस पर कोई एतराज़ न करना , फिर बाक़ी को दो हिस्सों पर तक़सीम करना और उसे इख़्तेयार देना और फिर उसके हिस्से पर एतराज़ न करना , यहांतक के उतना ही माल बाक़ी रह जाए जिससे हक़्क़े ख़ुदा अदा हो सकता है तो इसी को ले लेना बल्कि अगर कोई शख़्स पहले इन्तेख़ाब को मुस्तर्द करके दोबारा इन्तेख़ाब करना चाहे तो उसे इसका मौक़ा दो और सारे माल को मिलाकर फ़िर पहले की तरह तक़सीम करना और आखि़र में इस बचे माल में से हक़्क़े अल्लाह ले लेना , बस इसका ख़याल रखना के बूढ़ा , ज़ईफ़ कमर शिकस्ता , कमज़ोर और ऐबदार ऊंट न लेना और उन ऊंटों का अमीन भी उसी को बनाना जिसके दीन का एतबार हो और जो मुसलमानों के माल में नर्मी का बरताव करता हो। ताके वह वली तक माल पहुंचा दे और वह उनके दरम्यान तक़सीम कर दे , इस मौज़ू पर सिर्फ़ उसे वकील बनाना जो मुख़लिस , ख़ुदातरस अमानतदार और निगराँ हो , न सख़्ती करने वाला हो , न ज़ुल्म करने वाला , न थका देने वाला हो न शिद्दत से दौडाने वाला , इसके बाद जिस क़द्र माल जमा हो जाए वह मेरे पास भेज देना ताके मैं अम्रे इलाही के मुताबिक़ उसके मरकज़ तक पहुंचा दूँ। अमानतदार को माल देते वक़्त इस बात की हिदायत दे देना के ख़बरदार ऊंटनी और उसके बच्चे को जुदा न करे और सारा दूध न निकाल ले जो बच्चे के हक़ में मुज़िर हो , सवारी में भी शिद्दत से काम न ले और उसके और दूसरी ऊंटनियों के दरम्यान अद्ल व मसावात से काम ले। (((-दुनिया में कौन ऐसा सरबराहे ममलेकत है जो अपने एहकाम को इतनी शदीद पाबन्दियों में जकड़ दे और अपनी रिआया को इस क़द्र सहूलत दे दे , दुनिया के हुक्काम में तो इसका तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता है , हैरतअंगेज़ अम्र यह है के इस्लाम के ख़ोलफ़ा में भी दूर-दूर तक इस किरदार का पता नहीं मिलता है और हुकूमत का आग़ाज़ ही जब्र , ज़ोर और असीरी व ख़ानासोज़ी से होता है। ज़रूरत है के इस वसीयत नामे को बग़ौर पढ़ा जाए और इसकी एक-एक दिफ़ा पर ग़ौर किया जाए ताके यह अन्दाज़ा हो के इस्लामी सल्तनत में रिआया का क्या मरतबा होता है। हक़्क़े अल्लाह की अदायगी में किस क़द्र सहूलत फ़राहम की जाती है और इन्सानों की तरह जानवरों के साथ किस तरह बरताव किया जाता है।-)))

थके मान्दे ऊंट को दम लेने का मौक़ा दे और जिसके खुर घिस गए हों या पांव शिकस्ता हों उनके साथ नर्मी का बरताव करे , रास्ते में तालाब पड़ें तो उन्हें पानी पीने के लिये ले जाए और सरसब्ज़ रास्तों को छोड़कर बेआब व ग्याह रास्तों पर न ले जाए वक़्तन-फ़वक़्तन आराम देता रहे और पानी और सब्ज़े के मुक़ामात पर ठहरने की मोहलत दे यहाँ तक के हमारे पास इस आलम में पहुचे तो हुक्मे ख़ुदा से तन्दरूस्त हो गए हों व उनकी हड्डियों के गूदे बढ़ चुके हों। थके मान्दे और दरमान्दा न हों ताके किताबे ख़ुदा और सुन्नते रसूल (स 0) के मुताबिक़ उन्हें तक़सीम कर सकें के यह बात तुम्हारे लिये भी अज्रे अज़ीम का बाएस और हिदायत से क़रीबतर है , इन्शाअल्लाह।

26-आपका अहदनामा (बाज़ गवर्नरो के लिये जिन्हें सदक़ात की जमाआवरी के लिये रवाना फ़रमाया था)

मैं उन्हें हुक्म देता हूँ के अपने पोशीदा उमूर और मख़फ़ी आमाल में भी अल्लाह से डरते रहें जहां उसके अलावा कोई दूसरा गवाह और निगरां नहीं होता है और ख़बरदार ऐसा न हो के ज़ाहेरी मामेलात में ख़ुदा की इताअत करें और मख़फ़ी मसाएल में इसकी मुख़ालेफ़त करें , इसलिये के जिसके ज़ाहिर व बातिन और क़ौल व फ़ेल में इख़्तेलाफ़ नहीं होता है वही अमानते इलाही का अदा करने वाला और इबादते इलाही में मुख़लिस होता है और फ़िर हुक्म देता हूं के ख़बरदार लोगों से बुरे तरीक़े से पेश न आएं और उन्हें परेशान न करें और न उनसे इज़हारे इक़तेदार के लिये किनाराकशी करें के बहरहाल यह सब भी दीनी भाई हैं और हुक़ूक़ की अदाएगी में मदद करने वाले हैं।

देखो इन सदक़ात में तुम्हारा हिस्सा मुअय्यन है और तुम्हारा हक़ मालूम है लेकिन फ़ोक़रा व मसाकीन और फ़ाक़ाकश अफ़राद भी इस हक़ में तुम्हारे शरीक हैं , हम तुम्हें तुम्हारा पूरा हक़ देने वाले हैं लेहाज़ा तुम्हें भी इनका पूरा हक़ देना होगा के अगर ऐसा नहीं करोगे तो क़यामत के दिन सबसे ज़्यादा दुश्मन तुम्हारे होंगे और सबसे ज़्यादा बदबख़्ती इसी के लिये है जिसके दुश्मन बारगाहे इलाही में फ़ोक़रा व मसाकीन , साएलीन , महरूमीन , मक़रूज़ और ग़ुरबत ज़दा मुसाफ़िर हों और जिस शख़्स ने भी अमानत को मामूली तसव्वुर किया और ख़यानत की चरागाह में दाखि़ल हो गया और अपने नफ़्स और दीन को ख़यानतकारी से नहीं बचाया , उसने दुनियां में भी अपने को ज़िल्लत और रूसवाई की मन्ज़िल में उतार दिया और आखि़रत में तो ज़िल्लत व रूसवाई उससे भी ज़्यादा है और याद रखो के बदतरीन ख़यानत उम्मत के साथ ख़यानत है और बदतरीन फ़रेबकारी सरबराहे दीन के साथ फ़रेबकारी का बरताव है।

(((- काश दुनिया के तमाम हुक्काम को यह एहसास पैदा हो जाए के फ़ोक़रा व मसाकीन इस दुनिया में बे आसरा और बे सहारा हैं लेकिन आखि़रत में उनका भी वाली व वारिस है और वहां किसी साहबे इक़्तेदार का इक़्तेदार काम आने वाला नहीं है। अदालते इलाही में शख़्सियात का कोई असर नहीं है हर शख़्स को अपने आमाल का हिसाब देना होगा और इसके मवाख़ेज़ा और मुहासेबा का सामना करना होगा। वहाँ न किसी की कुर्सी काम आ सकती है और न किसी का तख़्त व ताज। अफ़राद के साथ ख़यानत तो बरदाश्त भी की जा सकती है के वह इन्फ़ेरादी मामला होता है और उसे अफ़राद माफ़ कर सकते हैं लेकिन क़ौम व मिल्लत के साथ ख़यानत नक़ाबिले बरदाश्त है के इसकी मुद्दई तमाम उम्मत होगी और इतने बड़े मुक़दमे का सामना करना किसी इन्सान के बस का काम नहीं है-)))

27-आपका अहदनामा (मोहम्मद बिन अबीबक्र के नाम- जब उन्हें मिस्र का हाकिम बनाया)

लोगों के सामने अपने शानों को झुका देना और अपने बरताव को नरम रखना , कुशादारोई से पेश आना और निगाह व नज़र में भी सब के साथ एक जैसा सुलूक करना ताके बड़े आदमियों को यह ख़याल न पैदा हो जाए के तुम उनके मफ़ाद में ज़ुल्म कर सकते हो और कमज़ोरों को तुम्हारे इन्साफ़ की तरफ़ से मायूसी न हो जाए , परवरदिगार रोज़े क़यामत तमाम बन्दों से उनके तमाम छोटे और बड़े ज़ाहिर और मख़फ़ी आमाल के बारे में मुहासेबा करेगा उसके बाद अगर वह अज़ाब करेगा तो तुम्हारे ज़ुल्म का नतीजा होगा और अगर माफ़ कर देगा तो उसके करम का नतीजा होगा।

बन्दगाने ख़ुदा! याद रखो के परहेज़गार अफ़राद दुनिया और आखि़रत के फ़वाएद लेकर आगे बढ़ गए वह अहले दुनिया के साथ उनकी दुनिया में शरीक रहे लेकिन अहले दुनिया उनकी आखि़रत में शरीक न हो सके , वह दुनिया में बेहतरीन अन्दाज़ से ज़िन्दगी गुज़ारते रहे जो सबने खाया उससे अच्छा पाकीज़ा खाना खाया और वह तमाम लज़्ज़तें हासिल कर लीं जो ऐश परस्त हासिल करते हैं और वह सब कुछ पा लिया जो जाबिर और तकब्बुर अफ़राद के हिस्से में आता है। इसके बाद वह ज़ादे रराह लेकर गए जो मन्ज़िल तक पहुंचा दे और वह तिजारत करके गए जिसमें फ़ायदा ही फ़ायदा हो , दुनिया में रहकर दुनिया की लज़्ज़त हासिल की और यह यक़ीन रखे रहे के आखि़रत में परवरदिगार के जवारे रहमत में होंगे , जहां न उनकी आवाज़ ठुकराई जाएगी और न किसी लज़्ज़त में इनके हिस्से में कोई कमी होगी।

बन्दगाने ख़ुदा! मौत और उसके क़ुर्ब से डरो उसके लिये सरो सामान मुहैया कर लो के वह एक अज़ीम अम्र और बड़े हादसे के साथ आने वाली है , ऐसे ख़ैर के साथ जिसमें कोई शर न हो या ऐसे शर के साथ जिसमें कोई ख़ैर न हो , जन्नत या जहन्नम की तरफ़ उनके लिये अमल करने वालों से ज़्यादा क़रीबतर कौन हो सकता है तुम वह हो जिसका मौत मुसलसल पीछा किये हुए है , तुम ठहर जाओगे तब भी तुम्हें पकड़ेगी और फ़रार करोगे तब भी अपनी गिरफ़्त में ले लेगी वह तुम्हारे साथ तुम्हारे साये से ज़्यादा चिपकी हुई है। उसे तुम्हारी पेशानियों के साथ बान्ध दिया गया है और दुनिया तुम्हारे पीछे से बराबर लपेटी जा रही है , इस जहन्नम से डरो जिसकी गहराई बहुत दूर तक है और इसकी गर्मी बेहद शदीद है और इसका अज़ाब भी बराबर ताज़ा होता रहेगा।

वह घर ऐसा है जहां न रहमत का गुज़र है और न वहां कोई फ़रयाद सुनी जाती है और न किसी रंज व ग़म की कशाइश का कोई इमकान है अगर तुम लोग यह कर सकते हो के तुम्हारे दिल में ख़ौफ़े ख़ुदा शदीद हो जाए और तुम्हें इससे हुस्ने ज़न हासिल हो जाए तो इन दोनों को जमा कर लाो के बन्दे का हुस्ने ज़न उतना ही होता है जितना ख़ौफ़े ख़ुदा होता है और बेहतरीन हुस्ने ज़न रखने वाला वही है जिसके दिल में शदीदतरीन ख़ौफ़े ख़ुदा पाया जाता हो , मोहम्मद बिन अबी बक्र! याद रखो के मैंने तुमको अपने बेहतरीन लशकर अहले मिस्र पर हाकिम क़रार दिया है।

(((- बेहतरीन ज़िन्दगी से मुराद क़स्रे शाही में क़याम और लज़ीज़तरीन ग़िज़ाएं नहीं हैं , बेहतरीन ज़िन्दगी से मुराद तमाम असबाब हैं जिनसे ज़िन्दगी गुज़र जाए और इन्सान किसी हराम और नाजाएज़ में मुब्तिला न हो। मौत के आने का मतलब यह नहीं है के आखि़रत में या सिर्फ़ ख़ैर है या सिर्फ़ शर और मख़लूत आमाल वालों की कोई जगह नहीं है , मक़सद यह है के आखि़रत के सवाब व अज़ाब का फ़लसफ़ा यही है के इसमें किसी तरह का इख़लात व इमतेराज नहीं है , दुनिया के हर आराम में तकलीफ़ शामिल है और हर तकलीफ़ में आराम का कोई न कोई पहलू ज़रूर है लेकिन आखि़रत में अज़ाब का एक लम्हा भी वह है जिसमें किसी राहत का तसव्वुर नहीं है और सवाब का एक लम्हा भी वह है जिसमें किसी तकलीफ़ का कोई इमकान नहीं है। लेहाज़ा इन्सान का फ़र्ज़ है के उस अज़ाब से डरे और इस सवाब का इन्तेज़ाम कर ले-)))

अब तुमसे मुतालेबा यह है के अपने नफ़्स की मुख़ालफ़त करना और अपने दीन की हिफ़ाज़त करना चाहे तुम्हारे लिये दुनिया में सिर्फ़ एक ही साअत बाक़ी रह जाए और किसी मख़लूक़ को ख़ुश करके ख़ालिक़ को नाराज़ न करना के ख़ुदा हर एक के बदले काम आ सकता है लेकिन इसके बदले कोई काम नहीं आ सकता है।

नमाज़ उसके मुक़र्ररा औक़ात में अदा करना , न ऐसा हो के फ़ुर्सत हासिल करने के लिये पहले अदा कर लो और न ऐसा हो के मशग़ूलियत की बिना पर ताख़ीर कर दो। याद रखो के तुम्हारे हर अमल को नमाज़ का पाबन्द होना चाहिये। याद रखो के इमामे हिदायत और पेशवाए हलाकत एक जैसे नहीं हो सकते हैं नबी का दोस्त और दुश्मन यकसाँ नहीं होता है। रसूले अकरम (स 0) ने ख़ुद मुझसे फ़रमाया है के “ मैं अपनी इमामत के बारे में न किसी मोमिन से ख़ौफ़ज़दा हूँ और न मुशरिक से , मोमिन को अल्लाह उसके ईमान की बिना पर बुराई से रोक देगा और मुशरिक को उसके शिर्क की बिना पर मग़लूब कर देगा , सारा ख़तरा उन लोगों से है जो ज़बान के आलिम हों और दिल के मुनाफ़िक़। कहते वही हैं जो तुम सब पहचानते हो और करते वह हैं जिसे तुम बुरा समझते हो। ”

28-आपका मकतूबे गिरामी (माविया के ख़त के जवाब में जो बक़ौल सय्यद रज़ी आपका बेहतरीन ख़ुत्बा है)

अम्माबाद! मेरे पास तुम्हारा ख़त आया है जिसे तुमने रसूले अकरम (स 0) के दीने ख़ुदा के लिये मुन्तख़ब होने और आपके परवरदिगार की तरफ़ से असहाब के ज़रिये उनको क़ूवत व तवानाई मिलने का ज़िक्र किया है लेकिन यह तो एक बड़ी अजीब व ग़रीब बात है जो ज़माने ने तुम्हारी तरफ़ से छिपाकर रखी थी के तुम हमको उन एहसानात की इत्तेलाअ दे रहे हो जो परवरदिगार ने हमारे ही साथ किये हैं और उस नेमत की ख़बर दे रहे हो जो हमारे ही पैग़म्बर (स 0) को मिली है। गोया के तुम मक़ामे हिज्र की तरफ़ ख़ुरमे भेज रहे हो या उस्ताद को तीरअन्दाज़ी की दावत दे रहे हो। इसके बाद तुम्हारा ख़याल है के फ़ुलां और फ़ुलां तमाम अफ़राद बेहतर थे तो यह ऐसी बात है के अगर सही भी हो तो इस काम से तुम्हारा कोई ताल्लुक़ नहीं है और अगर ग़लत भी हो तो तुम्हारा कोई नुक़सान नहीं है। तुम्हारा इस फ़ाज़िल व मफ़ज़ूल , हाकिम व रिआया के मसले से क्या ताल्लुक़ है , भला आज़ादकरदा ग़ुलाम और उनकी औलाद को मुहाजेरीन अव्वलीन के दरम्यान इम्तियाज़ क़ायम करने , उनके दरजात का ताअय्युन करने और उनके तबक़ात के पहुंचाने का क्या हक़ है (यह तो उस वक़्त मुसलमान भी नहीं थे) अफ़सोस के जुए के तीरों के साथ बाहर के तीर भी आवाज़ निकालने लगे और मसाएल में वह लोग भी करने लगे जिनके खि़लाफ़ ख़ुद ही फ़ैसला होने वाला है।

(((- माविया ने ख़त अबू इमामा बाहेली के ज़रिये भेजा था और इसमें मुतादद मसाएल की तरफ़ इशारा किया था , सबसे बड़ा मसला हज़रात शैख़ीन के फ़ज़ाएल का था के हज़रत अली (अ 0) के साथ अकसरीयत उन्हीं अफ़राद की थी जो आपको सिलसिले से चौथा ख़लीफ़ा तस्लीम करते थे , अब अगर उनके बारे में अपनी सही राय का इज़हार कर दे तो क़ौम बदज़न हो जाएगी और मुआशरे में एक नया फ़ितना खड़ा हो जाएगा और अगर उनके फ़ज़ाएल का इक़रार कर लें तो गोया इन तमाम कलेमात की तकज़ीब कर दी जो कल तक अपनी फ़ज़ीलत या मज़लूमियत के बारे में बयान करते थे। हज़रत ने इस हस्सास सूरते हाल का बख़ूबी अन्दाज़ा कर लिया और वाज़ेह जवाब देने के बजाय माविया को इस मसले से अलग रहने की तलक़ीन फ़रमाई और उसे इसकी औक़ात से भी बाख़बर कर दिया के यह मसले सद्रे इस्लाम का है और उस वक़्त तो तुम्हारा बाप भी मुसलमान नहीं था तुम्हारा क्या ज़िक्र है ? लेहाज़ा ऐसे मसाएल में तुम्हें राय देने का कोई हक़ नहीं है , अलबत्ता यह बहरहाल साबित हो जाता है के इन फ़ज़ाएल में तुम्हारे ख़ानदान का कोई ज़िक्र नहीं है।-)))

ऐ शख़्स तू अपने लंगड़ेपन को देखकर अपनी हद पर ठहरता क्यों नहीं है और अपनी कोताह दस्ती को समझता क्यों नहीं है और जहां क़ज़ा व क़द्र का फै़सला तुझे पीछे हटा चुका है वहीं पीछे हट कर जाता क्यों नहीं है। तुझे किसी मग़लूब की शिकस्त या ग़ालिब की फ़तेह से क्या ताल्लुक़ है। तू तो हमेशा गुमराहियों में हाथ पांव मारने वाला और दरम्यानी राह से इन्हेराफ़ करने वाला है , मैं तुझे बाख़बर नहीं कर रहा हूँ बल्कि नेमते ख़ुदा का तज़किरा कर रहा हूं वरना क्या तुझे नहीं मालूम है के मुहाजेरीन व अन्सार की एक बड़ी जमाअत ने राहे ख़ुदा में जानें दी हैं और सब साहेबाने फ़ज़्ल हैं लेकिन जब हमारा कोई शहीद हुआ है तो उसे सय्यदुशशोहदा कहा गया है और रसूले अकरम (स 0) ने उसके जनाज़े की नमाज़ में सत्तर तकबीरें कही हैं। इसी तरह तुझे मालूम है के राहे ख़ुदा में बहुत सों के हाथ कटे हैं और साहेबाने शरफ़ हैं लेकिन जब हमारे आदमी के हाथ काटे गए तो उसे जन्नत में तय्यार और ज़ुलजनाहीन बना दिया गया और अगर परवरदिगार ने अपने मुंह से अपनी तारीफ़ से मना न किया होता तो बयान करने वाला बेशुमार फ़ज़ाएल बयान करता जिन्हें साहेबाने ईमान के दिल पहचानते हैं और सुनने वालों के कान भी अलग नहीं करना चाहते हैं। छोड़ो उनका ज़िक्र जिनका तीर निशाने से ख़ता करने वाला है , हमें देखो जो परवरदिगार के बराहेरास्त साख़्ता व परदाख़्ता हैं और बाक़ी लोग हमारे एहसानात का नतीजा हैं। हमारी क़दीमी इज़्ज़त और तुम्हारी क़ौम पर बरतरी हमारे लिये इस अम्र से मानेअ नहीं हुई के हमने तुमको अपने साथ शामिल कर लिया तो तुमसे रिश्ते लिये और तुम्हें रिश्ते दिये जो आम से बराबर के लोगों में किया जाता है और तुम हमारे बराबर के नहीं हो और हो भी किस तरह सकते हो जबके हममें से रसूले अकरम (स 0) हैं और तुममें से इनकी तकज़ीब करने वाला , हम में से असदुल्लाह हैं और तुममें से असदुल हलाफ़ , हम में सरदाराने जवानाने जन्नत हैं और तुम में जहन्नुमी लड़के , हममें सय्यदते निसाइल आलमीन हैं और तुम में हम्मालतल हतब और ऐसी बेशुमार चीज़ें हैं जो हमारे हक़ में हैं और तुम्हारे खि़लाफ़। हमारा इस्लाम भी मशहूर है और हमारा क़ब्ले इस्लाम का शरफ़ भी नाक़ाबिले इनकार है और किताबे ख़ुदा ने हमारे मुन्तशिर औसाफ़ को जमा कर दिया है , यह कहकर के “ क़राबतदार बाज़ बाज़ के लिये ऊला हैं ” और यह कहकर के “ इब्राहीम के लिये ज़्यादा क़रीबतर वह लोग हैं जिन्होंने उनका इत्तेबाअ किया है और यह पैग़म्बर (स 0) और साहेबाने ईमान और अल्लाह साहेबाने ईमान का वली है। (((-यह उस अम्र की तरफ़ इशारा है के रसूले अकरम (स 0) ने अपने हाथ की परवरदा लड़कियों का अक़्द बनी उमय्या में कर दिया और अबू सुफ़ियान की बेटी उम्मे हबीबा से ख़ुद अक़्द कर लिया हालांके आम तौर से लोग रिश्तों के लिये बराबरी तलाश करते हैं , मगर चूंके इस्लाम ने ज़ाहिरी कलमे को काफ़ी क़रार दिया है लेहाज़ा हमने भी रिश्तेदारी क़ायम कर ली और तुम्हारी औक़ात का ख़याल नहीं किया ताके मज़हब समाज पर हाकिम रहे और समाज मज़हब पर हुकूमत न करने पाए।-)))

यानी हम क़राबत के एतबार से भी ऊला हैं और इताअत व इत्त्तेबाअ के ऐतबार से भी , इसके बाद जब मुहाजेरीन ने अन्सार के खि़लाफ़ रोज़ सक़ीफ़ा क़राबते पैग़म्बर (स 0) से इस्तेदलाल किया और कामयाब भी हो गए , तो अगर कामयाबी का राज़ यही है तो हक़ हमारे साथ है न के तुम्हारे साथ और अगर कोई और दलील है तो अन्सार का दावा बाक़ी है।

तुम्हारा ख़याल है के मैं ख़ोलफ़ा से हसद रखता हूँ और मैंने सबके खि़लाफ़ बग़ावत की है तो अगर यह सही भी है तो इसका ज़ुल्म तुम पर नहीं है के तुमसे माज़ेरत की जाए , ( यह वह ग़लती है जिससे तुम पर कोई हर्फ़ नहीं आता) बक़ौल शायर

और तुम्हारा यह कहना के मैं इस तरह खींचा जा रहा था जिस तरह नकेल डालकर ऊंट को खींचा जाता है ताके मुझसे बैअत ली जाए तो ख़ुदा की क़सम तुमने मेरी मज़म्मत करना चाही और नादानिस्ता तौर पर तारीफ़ कर बैठे और मुझे रूसवा करना चाहा था मगर ख़ुद रूसवा हो गए।

मुसलमान के लिये इस बात में कोई ऐब नहीं है के वह मज़लूम हो जाए जब तक के वह दीन के मामले में शक में मुब्तिला न हो , और इसका यक़ीन शुबह में न पड़ जाए , मेरी दलील असल में दूसरों के मुक़ाबले में है लेकिन जिस क़द्र मुनासिब था मैंने तुमसे भी बयान कर लिया।

इसके बाद तुमने मेरे और उस्मान के मामले का ज़िक्र किया है तो इसमें तुम्हारा हक़ है के तुम्हें जवाब दिया जाए इसलिये के तुम उनके क़राबतदार हो लेकिन यह सच सच बताओ के हम दोनों में उनका ज़्यादा दुश्मन कौन था और किसने उनके क़त्ल का सामान फ़राहम किया था , उसने जिसने नुसरतत की पेशकश की और उसे बिठा दिया गया और रोक दिया गया या उसने जिससे नफ़रत का मुतालेबा किया गया और उसने सुस्ती बरती और मौत का रूख़ उनकी तरफ़ मोड़ दिया यहां तक के क़ज़ा व क़द्र ने अपना काम पूरा कर दिया , ख़ुदा की क़सम मैं हरगिज़ इसका मुजरिम नहीं हूँ और अल्लाह उन लोगों को भी जानता है जो रोकने वाले थे और अपने भाइयों से कह रहे थे के हमारी तरफ़ चले आओ और जंग में बहुत कम हिस्सा लेने वाले थे। मैं उस बात की माज़ेरत नहीं कर सकता के मैं उनकी बिदअतों पर बराबर एतराज़ कर रहा था के अगर यह इरशाद और हिदायत भी कोई गुनाह था तो बहुत से ऐसे लोग होते हैं जिनकी बेगुनाह भी मलामत की जाती है और “ कभी कभी वाक़ई नसीहत करने वाले भी बदनाम हो जाते हैं ” मैंने अपने इमकान भर इसलाह की कोशिश की और मेरी तौफ़ीक़ सिर्फ़ अल्लाह के सहारे है , उसी पर मेरा भरोसा है और उसी की तरफ़ मेरी तवज्जो है। ”

तुमने यह भी ज़िक्र किया है के तुम्हारे पास मेरे और मेरे असहाब के लिये तलवार के अलावा कुछ नहीं है तो यह कहकर तुमने रोते को हंसा दिया है , भला तुमने औलादे अब्दुल मुत्तलिब को कब दुश्मनों से पीछे हटते या तलवार से ख़ौफ़ज़दा होते देखा है ? “ ज़रा ठहर जाओ के हमल मैदान जंग तक पहुंच जाए ” ( शायर) (((-क़यामत की बातत है के माविया तलवार की धमकी साहबे ज़ुलफ़ेक़ार को दे रहा है जबके उसे मालूम है के अली (अ 0) उस बहादुर का नाम है जिसने दस बरस की उम्र में तमाम कुफ़्फ़ार व मुशरेकीन से रसूले अकरम (स 0) को बचाने का वादा किया था और हिजरत की रात तलवार की छांव में निहायत सुकून व इतमीनान से सोया है और बद्र के मैदान में तमाम रोसाए कुफ़्फ़ार व मुशरेकीन और ज़ामाए बनी उमय्या का तनो तन्हा ख़ात्मा कर दिया है।-))) अनक़रीब जिसे तुम ढूंढ रहे हो वह तुम्हें ख़ुद ही तलाश कर लेगा और जिस चीज़ को बईद ख़याल कर रहे हो उसे क़रीब कर देगा। अब मैं तुम्हारी तरफ़ मुहाजेरीन व अन्सार के लशकर के साथ बहुत जल्द आ रहा हूँ और मेरे साथ वह भी हैं जो उनके नक़्शे क़दम पर ठीक तरीक़े से चलने वाले हैं , इनका हमला शदीद होगा और ग़ुबारे जंग सारी फ़िज़ा में मुन्तशिर होगा। यह मौत का लिबास पहने होंगे और उनकी नज़र में बेहतरीन मुलाक़ात परवरदिगार की मुलाक़ात होगी , उनके साथ असहाबे बद्र की ज़ुर्रियत और बनी हाशिम की तलवारें होंगी। तुमने उनकी तलवारों की काट अपने भाई , मामू , नाना और ख़ानदान वालों में देख ली है और वह ज़ालिमों से अब भी दूर नहीं है। ”


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