हेमफरे के ऐतेराफात

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हेमफरे के ऐतेराफात

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

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हेमफरे के ऐतेराफात

हेमफरे के ऐतेराफात

हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

पेश लफ्ज़

यह किताब एक बर्तानवी जासूस मिस्टर हमफ़रे की याद दाश्तों का मजमूआ है। यह याद्दाश्त जब दूसरी आलमगीर जंग के दौरान जर्मनों के हाथों लगीं तो उन्हें ऐ जर्मन रिसाले स्पीगल में इसकी क़िस्तवार शाया करके बर्तानवी इस्तेअमार को ख़ूब ख़ूब रुस्वा किया। स्पीगल के बाद जब एक फ्रांसीसी रिसाले ने इन याद्दाश्तों को शाया किया और एक लेबनानी दानिश्वर ने इनका मुतालिआ किया तो उन्होंने उनको अवाम के फ़ायदे के लिये अरबी में छापा दिया और अब हम इन्हुों याद्दाश्तों का उर्दू से हिन्दी तर्जुमा आप तक पहुंचा रहे हैं ताकि आप बर्तानवी सामराज की तरफ़ से इस्लाम और मुसलमानों के ख़िलाफ होने वाली दो सौ साला पूरानी साज़िश से बाख़बर हो सकें।

यह वही बर्तानवी सामराज है , जिसने अपनी इस्लाम दुश्मनी की तस्कीन के लिये मशरिक़े वुस्ता में इस्राईल को वुजूद दिया। जिस तरह रुसी सामराज ने ख़लील में बहाई मस्लक की बुनियाद डाली थी , उसी तरह इस सामराज ने भी बर्रेसग़ीर में क़ादयानी मज़हब की बुनियाद रखी और सूडान में महदियत का फ़ितना खड़ा किया।

मुद्दतों हुकूमते बरतानिया अपनी अज़ीम और मुस्तहकम नौ आबादी के बारे में फ़िकमन्दी और उसकी सल्तनत के हुदूद ने इतनी वुसअ़त इख़्तियार की कि अब वहाँ सूरज भी गुरुब नहीं होता था लेकिन हिन्दुस्तान चीन और मशि्रक़ी वुस्ता के मुमालिक और दीगर बेशुमार नौ आबादियों के होते हुए भी ज़ज़ीरए बरतानिया बहुत छोटा दिखायी देता था। हुकूमते बरतानिया की सामराजी पालिसी भी हर मुल्क में यकसाँ नौइयत की नहीं है। बाज़ मुमालिक में अनाने हुकूमत ज़ाहिरन वहाँ के लोगों के हाथ में है लेकिन दरपरदा पूरा सामराजी निज़ाम कार फ़रमा है और अब इसमें कोई क़सर बाक़ी नहीं है कि वह मुमलिक अपनी ज़ाहिरी आज़ादी खोकर बरतानिया की गोद में चले आयें। अब हम पर लाज़िम है कि हम अपने नौ आबादयाती निज़ाम पर नज़रे सानी करें और ख़ास तौर से दो बातों पर लाज़िमी तवज्जोह दें

1. ऐसी तदाबीर इख़्तियार करें जो सल्तनते इंग्लिस्तान की नौ आबादियों में उसके अमल और कब्जे को मुस्तहाम करें।

2. ऐसे प्रोग्राम मुरत्तब करें जिनसे उन इलाकों पर हमारा असर रुसूख़ कायम हो जो अभी हमारे नौ आबादयाती निज़ाम का शिकार नहीं हुए हैं।

इंग्लिस्तान की नौ आबादियती इलाकों की विज़ारत ने मज़कूरा प्रोग्रामों को रव्वये अमल लाने के लिये इस बात की ज़रुरत महसूस की कि वह नौ आबादियाती या नीम आबादियाती इलाक़ों की विज़ारत में मुलाज़िमात के शुरु ही से हुस्ने कारकर्दगी का मुज़ाहिरा किया। ख़ास तौर पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अहद की जांच पड़ताल के सिलसिले में अच्छी कारकर्दगी ने मुझे विज़ारते ख़ज़ाना में एक अच्छे ओहदे पर फ़ाएज़ किया। यह कम्पनी बज़ाहिर तिजारती नौइयत की थी मगर दरहक़ीक़त जासूसी का अड्डा था और उसके क़याम का मक़सद हिन्दुस्तान में उन सूरतों या उन रास्तों की तलाश थी जिनके ज़रीए इस सरज़मीन पर मुकम्मल तौर पर मरतानिया का असरो नुफूज़ क़ायम हो सके और मशरिक़े वुस्ता पर उसकी गिरफ़्त मज़बूत हकी जा सके।

इन दिनों इंगिस्तान की हुकुमत हिन्दुस्तान से बड़ी मुतमइन और बेफ़िक्र थी क्योंकि क़ौमी , क़बाएली़ , मज़हबी ओर सक़ाफ़ती इख़्तिलाफ़ात मशरिक़े वुस्ता के रहने वालों को इस बात की फुरसत ही कहाँ देते थे कि वह इंग्लिस्तान के जाएजे असर व रुसूख़ के ख़िलाफ कोई शूरिश बरपा कर सकें। यही हाल चीन की सरज़मीन का भी था। बुध और कनफ़्यूशस जैसे मुर्दा मज़ाहिब के पैरोकारों की तरफ से भी अंग्रेंजी को कोई ख़तरा लाहक नहीं था और हिन्दु चीन में कसरत से बाहमी बुनयादी इख्तिलाफ़ात के पेशे नज़र यह बात बईद अज़ क़यास थी कि वहाँ के रहने वालों को अपनी आज़ादी और इस्तिक़लाल की फ़िक्र हो। यही वह एक मौजू था जो कभी उनके लिये काबिले तवज्जोह नहीं रहा। ताहम यह सोचना भी गैर दानिशमन्दी है कि आईन्दा के पेशे नज़र इन्किलाबात भी उन कौमों को अपनी तरफ़ मुतवज्जेह नहीं करेंगे। पस यह बात सामने आयी कि ऐसी तदाबीर इख़्तियार की जायें जिनसे उन क़ौमों में बेदारी की सलाहियत ही मफ़कूद हो जाये। यह तदाबीर तवीलुल मीआद प्रोग्रामों की सूरत में उन सरज़मीनों पर जारी हुऐ तो तमाम इफ़्तिराक़ , जिहालत , बीमारी और गुरबत की बुनियाद पर इस्तेवार थे। हमने उन इलाकों के लोगों पर उन मुसीबतों और बदबख़्तियों को वारिद करते हुए बुध तक की इस ज़र्बुल मसल को अपनाया जिसमें कहा गया हैः

“ बीमार को उसको अपने हाल पर छोड़ दो और सब्र का दामन हाथ से न जाने दो बिल आख़िर वह दावा को पूरी कड़वाहट के बावजूद पसन्द करने लगेगा।

हमने बावजूद उसके कि अपने दूसरे बीमार यानी सल्तनते उस्मानी से कई क़रारदादों पर अपने फ़ायदे में दस्तख़त करवा लिये थे ता हम नौ आबादियातदी इलाक़ों की विज़ारत के माहिरीन का कहना था कि एक सदी के अन्दर ही इस सल्तनत का पल्ला बैठ सकता है। हमने इसी तरह ईरान में उस्मानियों और उसी तरह ईरानियों के ज़ेरे असर सरगर्म अमल रहे और बावजूद उसके कि उन्होंने अंग्रेज़ी हुकूमत के मक़ासिद में नुमायाँ कामयाबियाँ हासिल की और दफ्तरों के निज़ाम को बिगाड़ कर रिश्वत सतानी आम कर दी , बादशाहों के लिये ऐशो इशरत के सामान फ़राहम किये और इस तरह उन हुकूमतों की बुनियादों को किसी हद तक पहले से ज़्यादा मुतज़लज़ल किया तो हम उस्मानी और ईरानी सल्तनतों की कमज़ोरी को सामने रखते हुए भी ज़ैल में बयान किये जाने वाले बाज़ वुजूहात की बिना पर हम अपने हक़ में कुछ ज्यादा मुतमइन नहीं थे और वह अहम तरीन वुजुहात यह थेः

1- लोगों में इस्लाम की हक़ीकी रुह का असरो नुफ़ूज़ जिसने उन्हें बहादुर , बेबाक और पुरअज़्म बना दिया था और यह कहना बेजा न होगा कि एक आम मुसलमान , मज़हबी बुनियादों पर एक पादरी का हम पल्ला था। यह लोग किसी सूरत भी अपने मज़हब से दस्तबदार नहीं होते थे। मुसलमानों मे शिया मज़हब के पैरोकार जिनका तअल्लुक ईरान की सरज़मीन से है , अक़ीदे और ईमान के एतेबार से ज्यादा मुहकम और ज़्यादा ख़तरनाक वाके़अ हुए हैं।

शिया हज़रात ईसाईयों को नाजिस और काफ़िर मुतलक समझते हैं। (यह इल्ज़ाम सरासर बेबुनियाद है और बेएतबार इस्लाम तमाम अहले किताब साहिबान हैः) उनके नज़दीक एक ईसाई ऐसी मुतअफ़्फन ग़िलाज़त है की हैसियत रखता है जिसे अपने दरमियान से हटाना हर मुसलमान के लिये ज़रुरी है। एक दफा मैंने एक मुसलमान शिया से पूछाः-

“ तुम लोग नसारा को हिक़ारत की निगाह से क्यों देखते हो हालांकि वह लोग खुदा , रसूल और रोज़े क़यामत पर ईमान रख़ते हैं। ?”

उसने जवाब दियाः

हज़रत मौहम्मद स 0अ 0 साहिब इल्म और साहिबे हिकमत पैग़म्बर थे और वह चाहते थे कि इस अन्दाज़ से काफ़िरों पर दबाव डालें कि वह दीने इस्लाम कुबूल करने पर मजबूर हो जायें। “ सियासी मैदान में भी जब कभी हुकुमतों को किसी फ़र्द या गिरोह से खटका होता है तो वह अपने हरीफ़ पर सख्तियाँ करती हैं और उसे रास्ते से हटने पर मजबूर करती हैं ताकि बिल आख़िर वह अपनी मुख़ालिफ़तों से बाज़ आ जाये और अपना सरे तस्लीम ख़म कर दे। ईसाईयों के नजिस और नापाक होने से मुराद उनकी ज़ाहिरी नापाकी नहीं बल्कि बातिनी नापाकी है और यह बात सिर्फ़ ईसाईयों तक महदूद नहीं है बल्कि इस में ज़र्द तशती भी शामिल हैं जो क़ौमी एतेबार से ईरानी है , इस्लाम उन्हें भी “ नापाक ” समझता है।

मैंने कहा।

अच्छा मगर ईसाई तो ख़ुदा , रसूल और आखि़रत पर ईमान रखते हैं।

उसने जवाब दियाः

हमारे पास उन्हें काफ़िर और नाजिस गरदान्ने के लिये दो दलीले हैं। पहली दलील तो यह है कि रसूले अकरम स 0अ 0 को नहीं मानते और कहते हैं मोहम्मद स 0अ 0 (नअूज़ोबिल्लाह) झूठे हैं। हम भी उनके जवाब में कहते हैं कि तुम लोग नापाक और नाजिस हो और यह तअल्लुक़ अक़्ल की बुनियाद पर हैं क्योंकि जो तुम्हें दुख पहुँचाये तुम भी उसे तकलीफ दो।

दूसरे यह कि ईसाई अम्बिया-ए-मुरसलीन अ 0स 0 पर झूठी तोहमतें बांधते हैं जो खुद एक ब़डा गुनाह और उनकी बे-हुरमती है , मसलन कहते हैं

हज़रते ईसा अ 0स 0 (नअूज़ो बिल्लाह) शराब पीते थे , इसलिए लानते इलाही में गिरफ़्तार हुए और उन्हें सूली दी गयी।

मुझे इस बात पर ब़डा ताव आया और मैंने कहाः

“ ईसाई हरगिज़ यह नहीं कहते। “

“ तुम नहीं जानते ” किताबे मुक़द्दस में यह तमाम तोहमतें वारिद हैं।

उसके बाद उसने कुछ नहीं कहा और मुझे यक़ीन था कि वह झूठ बोल रहा है। अगरचे मैंने सुना था कि बाज़ अफ़राद ने पैगम्बरे इस्लाम स 0अ 0 पर झूठ की निसबत दी है लेकिन मैं उससे ज़्यादा बहस नहीं करना चाहता था। मुझे खौफ़ था कि कहीं मेरा भांडा न फूट जाये और लोग मेरी असलियत से वाकिफ़ न हो जायें।

2. मज़हबे इस्लाम तारीखी पसे मन्ज़रों की बुनियाद पर एक हुर्रियत पसन्द मज़हब है और इस्लाम के सच्चे पैरोकार आसानी के साथ गुलामी कुबूल नहीं करते। उनके पूरे वजूद में गुज़श्ता अज़मतों का गुरुर समाया हुआ है यहाँ तक कि अपने इस नातवानी और पुरफुतूर दौर में भी वह उससे दस्तबरदार होने पर तैयार नहीं है। हम इस लात पर क़ादिर नहीं है कि तारीख़े इस्लाम की मन मानी तफ़सीरे पेश करके उन्हें यह बतायें कि तुम्हारी गुज़श्ता अज़मतों की कामयाबी इन हालात पर मुनहसिर थी जो इस ज़माने के तक़ाज़ा था मगर अब ज़माना बदल चुका है और नये तक़ाज़ों ने उनकी जगह ले ली है और अब गुज़श्ता दौर में वापसी ना मुमकिन है।

3. हम ईरानी और उस्मानी हुकूमतों की दूर अन्देशों , होशियारियों और कार्यवाहियों से महफूज़ नहीं थे और हर आन यह ख़टका था कि कहीं वह हमारी सामराजी पालिसियों से बाख़बर होकर हमारे किये धरे पर पानी न फेर दें। यह दोनों हुकूमतों जैसा कि पहले बयान हो चुका है बहुत कमज़ोर हो चुकी थीं और उनका असर व रुसूख़ सिर्फ़ अपनी सरज़मीन की हद तक महदूद था। वह सिर्फ़ अपने ही इलाकें में हमारे ख़िलाफ असलाह और पैसा जमा कर सकते थे ता हम उनकी बदगुमानी हमारी आईन्दा कामयाबियों के लिये अदमे इत्मिनान का सबब थी।

4. मुसलमान ओलमा भी हमारी तशवीश की बाएस थे। जामेअ़हुल अज़हर के मुफ़्ती और ईरान व ईराक़ के शिया मरोज़अ़ हमारे सामराजी मक़ासिद की राह में एक अज़ीम रुकावट थे। यह ओलामा जदीद इल्म व तमद्दुन और नये हालात से यकसर बे ख़बर थे और उनकी तनहा तवज्जोह उस जन्नत के लिये थी जिसका वादा कुरआन ने उन्हें दे रखा था। यह लोग इस कद्र मुतअस्सिब थे के अपने मौक़िफ़ से एक इंच पीछे हटने को तैयार नहीं थे। बादशाह और ओमारा समेत तमाम अफ़राद उनके आगे छोटे थे। अहले सुन्नत हज़रात शियों की निस्बत अपने ओलामा से इस क़दर खौफ़ज़दा नहीं थे और हम देखते हैं कि उस्मानी सल्तनत में बादशाह और शेखुल इस्लाम के दरमियान हमेशा खुशगवार तअल्लुक़ात बरक़रार रहे थे और ओलामा का ज़ोर सियासी हुक्काम के ज़ोर के हम पल्ला था लेकिन शीअी मुमालिक में लोग बादशहों से ज्यादा ओलामा का एहतराम करते थे। मज़हबी ओलामा से उनका लगाव एक हक़ीकी लगाव था लेकिन हुक्काम या सलातीन को वह कुछ ज़्यादा अहमियत नहीं देते थे। बहरहाल सलातीन और ओलामा की क़द्रदानी से मुतअल्लिक़ शिया और सुन्नी नज़रयात का यह फर्क नौ आलदियाती इलाकों की विज़ारत और अंग्रेजी हुकुमत की शोरिश में कमी का बाएस नहीं थी।

हमने कई बार उन मुमालिक के साथ आपस की पेचीदा दुश्वारियों को दूर करने के सिलसिले में गुफ़्तगु की लेकिन हमेशा हमारी ग़ुफ्तगु ने बदगुमानी की सूरत कारकनों की दरख्वास्तें भी साबिका मुज़ाकरात की तरह नाकाम रहीं लेकिन फिर हम ना उम्मीद नहीं हुए क्योंकि हम एक मज़बूत और पुरशकीबा क़ल्ब के मालिक हैं।

मुझे याद है कि एक दफ़ा नौ आबादियाती इलाकों के वज़ीर ने लंदन के एक मशहूर पादरी और 25 दीगर मज़हबी सरबराहों के साथ एक इजलास मुनक़्किद किया जो पूरे तीन घंटे तक जारी रहा और जब यहाँ भी कोई ख़ातिर ख़्वाह नतीजा बरामद न हो सका तो पादरी ने हाज़रीन से मुख़ातिब होकर कहाः

“ आप लोग अपनी हिम्मते पस्त न करें , सब्र और हौसले से काम लें , ईसाईयत तीन सौ साल की ज़हमतों और दरबदरी के साथ हज़रते ईसा अ 0स 0 और उनके पारवकारों की शहादत के बाद आलमगीर हुई। मुमकीन है आईन्दा हज़रत ईसा अ 0स 0 की नज़रे इनायत हम पर हो और हम तीन सौ साल बाद काफ़िरों को निकालने में कामयाब हों। पस हम पर लाज़िम है कि हम अपने आपको मोहकम ईमान और पायदार सब्र से मुज़य्यन करें और उन तमाम वसाएल को बरोए कार लायें जो मुसलमान ख़ित्तों में ईसाइयत की तरवीज का सबब हों। अगर उसमें हमें सदियों का अरसा भी गुज़़र जाये तो घबराने की कोई बात नहीं , आबाओ अजदाद अपनी औलाद के लिये बीज बोते हैं। “

एक दफ़ा फिर नौ आबादयाती इलाकों की विज़ारत में रुस फ्रांस और बरतानिया के आला रुत्बा नुमाईन्दों पर मबनी कान्फ्रेन्स का इनइक़ाद हुआ। कान्फ्रेंस के शुराका में सियासी वुफूद , मज़हबी शख़्सियतें और दीगर मशहूर हस्तियाँ शामिल थीं। हु्स्ने इत्तेफाक़ से मैं भी वज़ीर से क़रीबी तअल्लुक़ात की बिना पर इस कान्फ्रेन्स में शरीक था। मौजूए गुफ़्तगू इस्लामी मुमालिक में सामराजी निज़ाम की तरवीज और उसमें पेश आने वाली दुश्वारियाँ थी।

शोरका का ग़ौरो फ़िक्र इस बात में था कि हम किस तरह मुस्लिम ताक़तों को दरहम बरहम कर सकते हैं और उनके दरमियान निफ़ाक़ का बीज बो सकते हैं। गुफ़्तगू उनके ईमान के तज़लजुल के सिलसिले में थी। बाज़ लोगों का ख़्याल था कि मुसलमानों के इसी तरह राहे रास्ते पर लाया जा सकता है जिस तरह स्पेन कई सदियों के बाद ईसाईयों की आगोश में चला आया था। क्या यह वही मुल्क नहीं था जिसे वहशी मुसलमानों ने फ़तह किया था ? कान्फ्रेंस के नताएज ज़्यादा वाज़ेह नहीं थे। मैंने उस कान्फ्रेंस में पेश आने वाले तमाम वाकिआत को अपनी किताब “ अज़ीम मसीह की सिम्त एक परवाज़ ” में ब्यान कर दिया है।

हकीक़तन मशरिक़ से मग़रिब तक फैलाव रखने वाले अज़ीम और तनावुर दरख़्त की जडों को काटना इतना आसान काम नहीं। फिर भी हमें हर क़ीमत पर उन दुश्वारियों का मुक़ाबला करना हैं क्योंकि ईसाई मज़हब उसी वक़्त कामयाब हो सकता है जब सारी दुनिया उसके कब्जे में आ जाये। हज़रते ईसा अ 0स 0 ने अपने सच्चे पैरवकारों को इस जहाँगीरी की बशारत दी है। हज़रत मोहम्मद स 0अ 0 की कामयाबी उन इजतिमाअ़ी और तारीख़ी हालात से वाबस्ता थी जो उस दौर का तक़ाज़ा था। ईरान व रोम से वाबस्ता मशरिकों मगरिब की सल्तनतों का इन्हितात इस्ल बहुत कम अरसे में हज़रत मोहम्मद स 0अ 0 की कामयाबी का सबब बना। मुसलमानों ने उन अज़ीम सल्तनतों को ज़ेर किया मगर अब हालात बिल्कुल मुख़तलिफ़ हो चुके हैं और इस्लामी मुमालिक बड़ी तेज़ी से रुबा ज़वाल है और उसके मुकाबले में ईसाई रोज़ बरोज़ तरक़्की की राह पर गामज़न हैं। अब वह वक़्त आ गया है कि ईसाई मुसलमानों से अपना बदला चुकायें और अपनी खोयी हुई अज़मत दोबारा हासिल करें। इस वक़्त सबसे ब़ड़ी ईसाई हुकूमत अज़ीम बरतानिया के हाथ में है जो दुनिया के तूलो अर्ज़ में अपना सिक्का जमाये हुए है और अब चाहता है कि इस्लामी मुमलिकतों से नबरुद आज़मायी का परचम भी उसी के हाथ में हो।
सन् 1710 0 में इंग्लिस्तान की नौ आबदियाती इलाकों की विज़ारत ने मुझे मिस्र , ईरान , हिजाज़ , और उस्मानी ख़िलाफत के मरकज़ इस्तम्बूल (आज का इस्तम्बूल उस वक़्त का कुस्तुनतुनिया था) की जासूसी पर मामूर किया। मुझे उन इलाकों में वह राहें तलाश करनी थीं जिनसे मुसलमानों को दरहम बरहम करके मुस्लिम मुमालिक में सामराजी निज़ाम राएज किया जा सके। मेरे साथ नौ आबदियाती इलाकों की विज़ारत के नौ और बेहतरीन तजुर्बेकार जासूस इस्लामी मुमालिक में इस काम पर मामूर थे और बड़ी तुन्दही से अंग्रेज़ी साम्राजी निज़ाम के तसल्लुत और नौ आबादियाती इलाकों में अपने असर व नुफूज़ के इस्तिहकाम के लिये सरगर्म अमल थे। उन वुफूद को वाफ़र मिक़दार में सरमाया फ़राहम किया गया था। यह लोग बड़े मुरत्तब शुदा नक्श़े और बिल्कुल नई और ताज़ा इत्तेलाआत से बहरामंद थे। उनको उमरा , वुज़रा , हुकूमत के आला ओहदेदारों और ओलामा व रोअसा के नामों की मुकम्मल फ़हरिस्त दी गयी थी। नौ आबदियाती इलाकों के मुआवन वज़ीर ने हमें रवाना करते हुए ख़ुदा हाफिज़ी के वक़्त जो बात कही , वह आज भी मुझे अच्छी तरह याद है। उसने कहा थाः

“ तुम्हारी कामयाबी हमारे मुल्क के मुस्तक़बिल की आईनादार होगी लिहाज़ा अपनी तमाम कुव्वतों को बरुए कार लाओ ताकि कामयाबी तुम्हारे क़दम चूमे। ”

मैं खुशी खुशी बहरी जहाज़ के ज़रीए इस्तम्बूल के लिए रवाना हुआ। मेरे जिम्मे अब दो अहम काम थे। पहले तुर्की ज़बान पर उबूर हासिल करना जो उन दिनों वहाँ की क़ौमी ज़बान थी मैने लन्दन में तुर्की ज़बान के चन्द अल्फाज़ सीख लिये थे। उसके बाद मुझे अरबी ज़बान , कुरआन , उसकी तफ़सीर औऱ फिर फ़ारसी सीखना थी। यहाँ पर यह बात भी क़ाबिले ज़िक्र है कि किसी ज़बान का सीखना और अदबी क़वाएद , फ़साहत और महारत के एतेबार से इस पर पूरी दस्तर्स रखना दो मुख़तलिफ़ चीज़ें हैं। मुझे यह ज़िम्मेदारी सौंपी गयी थी कि मैं उन ज़बानों में ऐसी महारत हासिल करुँ कि मुझमें और वहाँ के लोगों में ज़बान के एतेबार से कोई फर्क़ महसूस न हो। किसी ज़बान को एक दो साल में सिखाया जा सकता है लेकिन उस पर उबूर हासिल करने के लिये बरसों का वक़्त दरकरार होता है मैं इस बात पर मजबूर था कि उन ग़ैर मुल्की ज़बानों को इस तरह सीख़ूँ कि उसके क़वाएद व रुमूज़ का कोई नुकतए फ़र्द गुज़ाश्त न हो और कोई मेरे तुर्क ईरानी या अरब होने पर शक न करे।

उन तमाम मुशकिलात के बावजूद मैं अपनी कामयाबी के सिलसिले में हरासाँ नहीं था क्योंकि मैं मुसलमानों की तबीयत से वाकिफ़ था और जानता था कि उनकी कुशादा क़लबी , हुस्ने ज़न और मेहमान नवाज़ तबीयत जो उन्हें कुरआन व सुन्नत से विरसे में मिली थी उन्हें ईसाईयों की तरह बदगुमानी और बदबीनी पर महमूल नहीं करगी और फिर दूसरी तरफ से अस्मानी हुकूमत ग़ैर मुल्की जासूसों की कार्रवाईयों मालूम करने को कोई ज़रीआ नहीं था और ऐसा कोई इदारा मौजूद नहीं था जो हुकूमत को उन ना मतलूब अनासिर से बा ख़बर कर सके। फ़रमान रवा और उसके मुसाहिबीन पूरे तौर पर कमज़ोर हो चुके थे।

कई महीने के थका देने वाले सफ़र के बाद आख़िरकार हम उस्मानी दारुल ख़िलाफा पहुँचे। जहाज़ से उतरने से क़ब्ल मैने अपने लिये “ मोहम्मद ” का नाम तजवीज़ किया और जब मैं शहर की जामे मस्जिद में दाख़िल हुआ तो वहाँ लोगों के इजतिमाआ़त नज़्मों ज़ब्त और सफ़ाई सुथरायी देखकर महजूज़ हुआ और दिल ही दिल में कहाः आख़िर क्यों हम उन पाक दिल अफ़राद के आज़ार के दरपे हैं ? और क्यों उनसे उनकी आसाईश छीनने पर तुले हुए हैं ? क्या हज़रते ईसा अ 0स 0 ने उस किस्म के नाशाइस्ता उमूर की तजवीज़ दी है ? लेकिन फौरऩ लेकिन फ़ौरन ही मैंने उन शैतानी वसवसों और बातिल ख़यालात को ज़हन से झटक कर इस्तिग़फार किया और मुझे ख़याल आया कि मैं तो बरतानिया उज़मा की नौ आबादियती विज़ारत का मुलाजिम हूँ और मुझे अपने फ़राएज़ दियानतदारी से अंजाम देने चाहिये और मुँह से लगाये हुए सागर को आख़िरी घूंट तक पी जाती है।

शहर में दाख़िला के फ़ौरन बाद ही मेरी मुलाक़ात अहले तसन्नुन के एक बूढे पेशवा से हुई। उसका नाम अहमद आफ़िन्दी थी। वह एक बरजस्ता , साहिबे फ़ज़्ल और नेक तीनत आलिम था। मैंने अपने पादरियों में ऐसी बुजुर्गवार हस्ती नहीं देखी थी । वह दिन रात इबादत में मशगूल रहता था और बुजुर्गों और बरतरी में हज़रत मोहम्मद स 0अ 0 की मानिन्द था। वह रसूले खुदा स 0अ 0 को इन्सानियत को मज़हरे कामिल समझता था और आप स 0अ 0 की सुन्नत को अपनी ज़िन्दगी का मुतमह नज़र बनाये हुए था। हज़रत मोहम्मद स 0अ 0 का नाम आते ही उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग जाती थी। शेख़ के साथ मुलाक़ात में मेरी एक खुश नसीबी यह भी थी कि उसने मुझसे एक दफ़ा ही हस्बो नस्ब और ख़ानदान के बारे में सवाल नहीं किया ओर हमेशा मुझे मोहम्मद आफ़िन्दी के नाम से पुकारता था। जो कुछ मैं उससे पूछता था बड़े विकार और शराफत से जवाब देता था ओर मुझे बहुत चाहता था। खास तौर से जब उसे मालूम हुआ कि मैं ग़रीबुल वतन हूँ और उस अस्मानी सल्तनत के लिये काम कर रहा हूँ जो पैग़म्बर स 0अ 0 की जानशीन है तो मुझ पर और भी मेहरबान हो गया (यह वह झूठ था जो मैंने इस्तम्बूल में अपने क़याम की तौज़ह ब्यान करते हुए शेख़ के सामने बोला था)।

उसके अलावा मैंने शेख़ से यह भी कहा था कि मैं बिना माँ बाप का एक नौजवान हूँ। मेरे कोई बहन भाई नहीं है। मैं बिल्कुल अकेला हूँ लेकिन मेरे वालिदेन ने विरसे में मेरे लिये बहुत कुछ छोड़ा है। मैने इरादा किया है कि कुरआन और तुरकी और अरबी ज़बान सीखने के लिये इस्लाम के मरकज़ यानी इस्तम्बूल का सफ़र इख़्तियार करुँ और फिर दीनी और मअ़नवी सरमाया के हुसूल के बाद माद्दी कारोबार में पैसा लगाऊँ। शेख़ अहमद ने मुझे मुबारकबाद दी और चंद बातें कहीं जिन्हें मैं अपनी नोट बुक से यहाँ नक़्ल कर रहा हूँः-

ऐ नौजवान मुझ पर तुम्हारी पिज़ीराई और एहतेराम कई वुजूहात की बिना पर लाज़िम है और वह वुजूहात यह हैः

1- तुम एक मुसलमान हो और मुसलमान आपस में भाई भाई हैं। (हदीस)

2- तुम हमारे शहर में मेहमान हो और पैग़म्बरे इस्लाम स 0अ 0 का इरशाद हैः मेहमान को मोहतरम जानो। (हदीस)

3- तुम तालिबे इल्म हो और इस्लाम ने तालिबे इल्म के एहतेराम का हुक्म दिया है। तुम हलाल रोज़ी कमाना चाहते हो और उस पर “ कारोबार करने वाला अल्लाह का दोस्त है ” की हदीस सादिक आती है। (हदीस)

इस पहली मुलाक़ात ही में शेख ने अपने आला ख़साएल की बुनियाद पर मुझे अपना गिरवीदा बना लिया था। मैंने अपने दिल में कहाः काश ईसाइयत भी उन आशकार हकीक़तों से आशना होती लेकिन दूसरी तरफ में यह देख रहा था कि इस्लामी शरीअ़त इतनी बलन्द निगाही और बलन्द मक़ामी के बावजूद रूबा ज़वाल हो रही थी और इस्लामी हुक्मरानों की नालायकी , जूल्म ओ सितम , बद अतवारी और फिर ओलामाए दीन का तअस्सुब और दुनिया के हालात से उनकी बेख़बरी उन्हें यह दिन दिखा रही थी। मैंने शेख से कहाः

“ अगर आप की इजाज़त हो तो मैं आपसे अरबी ज़बान और कुरआन मजीद सीखने का ख़्वाहिशमंद हों। ”

शेख़ ने मेरी हिम्मत अफ़ज़ाई की और मेरी ख़्वाहिश का इस्तिक़बाल कि और सूरए हम्द को मेरे लसिये पहला सबक़ कत़रार दिया और बड़ी गरमजोशी के साथ आयतों की तफ़सीरों तावील पेश की। मेरे लिये बहुत से अरबी अल्फाज़ के तलफ्फ़ुज़ दुश्वार थे और कभी यह दुश्वारी बहुत बढ़ जाती थी। वह बार बार मुझसे कहता था कि मैं अरबी इबारत इस तरह तुम्हें नहीं सिखाऊँगा तुम्हें हर मुश्किल लफ़्ज़ को दस मर्तबा तकरार करना होगा ताकि अल्फ़ाज़ तुम्हारे ज़हन नशीन हो जायें

शेख़ ने मुझे हुरुफ़ को एक दूसरे से मिलाने के तरीके सिखाये। मुझे कुरआन की तजवीद ओ तफ़सीर सीखने में दो साल का अरसा लगा। दर्श शुरु करने से पहले वह खुद भी वुजू करता था और मुझे भी वुज़ू करने का हुक्म देता था। फिर हम क़िब्ला रुख़ बैठ जाते थे और दर्स का आगाज़ होता था। यह बात भी क़ाबिले ज़िक्र है कि इस्लाम में आज़ा को एक ख़ास तरतीब से धोने का नाम वुज़ू है। इब्तिदा में मुंह धोया जाता है। फिर पहले सीधे हाथ को उंगलियों और बाद में उल्टे हाथ से कुहनी तक धोया जाता है। उसके बाद सर , गर्दन और कानों के पिछले हिस्से का मसह किया जाता है और आख़िर में पैर धोये जाते हैं।

वुजू करते वक़्त कुल्ली करना और नाक में पाना चढ़ाना मुस्तहिब है। आदाबे वुजू से पहले एक खुश्क लकडी से दांतों का मिसवाक जो वहाँ की रस्म थी मेरे लिये बहुत नागवार थी और मैं समझता था कि यह खुश्क लकड़ी दांतों और मसूढ़ों के लिये इन्तिहाई नुक़सान देह है। कबी कभी मेरे मसूढ़ों से खून भी जारी हो जाता था मगर मैं ऐसा करने पर मजबूर था क्योंकि वुजू से पहले मिसवाक़ करना सुन्नते मुवक्किदा है और उसके लिये बहुत सवाब और फज़ीलत बयान की गयी है।

मैं इस्तमबूल में क़याम के दैरान रातों को एक मस्जिद में सो रहा था और उसके इवज़ वहाँ ख़ादिम को जिस का नाम मरवान आफिन्दी था कुछ रक़म दे देता था। वह एक बद इख़्लाक , गुस्सेवर शख्स था और अपने आपको पैग़म्बरे इस्लाम स 0अ 0 के एक सहाबी का हमनाम समझता था और उस नाम पर बड़ा मुफ़तख़र था। एक बार उसने मुझसे कहाः

“ अगर कभी ख़ुदा ने तुम्हें साहिबे औलाद किया तो ”

तुम अपने बेटे का नाम मरवान रखना क्योंकि इसका शुमार इस्लाम के अज़ीम मुजाहिदों में होता है।

रात का खाना मैं खादिम के साथ खाता था और जुमे का तमाम दिन जो मुसलमानों की ईद और छुट्टी का दिन था ख़ादिम के साथ गुज़ारता था। हफ़्ते के बाक़ी दिन एक बढ़ई की शागिर्द में काम करता था और वहाँ से मुझे एक हक़ीर सी रक़म मिल जाया करती थी। आधा दिन काम करता था क्योंकि शाम को मुझे शेख़ दर्स लेना होता था इसलिए मेरी दिहाड़ी भी आधी होती थी उस पर बढ़ई का नाम ख़ालिद था। दोपहर को खाने के वक़्त वह हमेशा फ़ातिहे इस्लाम “ ख़ालिद बिन वलीद ” का तज़कीरा करता था और उसके फ़ज़ाएल व मनाक़िब बयान करता था और उसे उन असहाबे पैग़म्बर स 0अ 0 में गरदान्ता था जिनके हाथों मुख़ालिफ़ीने इस्लाम ने हज़ीमत उठायी। हर चंद हज़रते उमर से उसके तअल्लुक़ात कुछ ज़्यादा इस्तिवार न थे और उसे यह खटका था कि अगर ख़िलाफत उन्हें मिली तो वह उसे मअ़जूल कर देंगे और ऐसा ही हुआ।

लेकिन ख़ालिद बढ़ई अच्छे किरदार का हामिल न था ता हम अपने दीगर शागिर्दों से कुछ ज़्यादा ही मुझ पर मेहरबान था जिसका सबब मुझे अब तक मालूम न हो सका। शायद इसलिए कि बग़ैर लैतो लअ़ल के उसके हर काम को बजा लाता था और उससे मज़हबी उमूर या अपने काम के बारे में किसी किस्स का कोई बहस व मुबाहिसा नहीं करता था। कई बार दुकान ख़ाली होने पर मैंने महसूस किया कि वह मुझे अच्छी नज़रों से नहीं देख रहा है। शेख अहमद ने मुझसे कहा था कि इक़लाम (बद फेअ़ली) इस्लाम में बहुत बड़ा गुनाह है लेकिन फिर भी ख़ालिद मुझसे इस फेल के इरतिकाब पर मुसिर था।

वह दीन ओर दिनयात का ज़्यादा पाबन्द नहीं था और दरहक़ीकत सही अक़ीदे और सही ईमान का आदमी नहीं था। वह सिर्फ़ जुमे के जुमा नमाज़ पढ़ने मस्जिद में जाया करता था और बाक़ी दिनों में उसका नमाज़ पढ़ना मुझ पर साबित नहीं था बहरहाल मैंने उसकी इस बेशर्माना तरग़ीब को रद किया लेकिन कुछ दिनों बाद उसने यह फेल शफ़ीअ़ अपनी दुकान के एक और ख़बरु कारीगर के साथ अंजाम दिया जो अभी नौ मुस्लिम था और यहूदियत से इस्लाम में वारिद हुआ था।

मैं रोज़ाना बढ़ई की दुकान में दोपहर का खाना खाकर ज़ोहर की नमाज़ के लिये मस्जिद में चला जाया करता था और वहाँ नमाज़े अस्र तक रहता था। अस्र की नमाज़ से फ़ारिग़ होकर शेख़ अहमद के घर जाया करता था और वह दो घंटे कुरआन ख़्वानी में सर्फ़ करता था। कुरआन के अलावा अरबी और तुरकी ज़बान भी सीखता था और हर जुमे को हफ़्ते भर की दिहाड़ी ज़कात के उनवान से शेख़ अहमद के हवाले करता था और यह ज़कात दर हक़ीक़त शेख़ से मेरी इदारत और लगाव का एक नज़राना और शेख़ के दर्स कुरआन का एक हक़ीर सा हक़्कुल ज़हमा था। कुरआन की तालीम में शेख़ ता तर्ज़ दर्स बे नज़ीर नौइयत का था। उसके अलावा वह मुझे इस्लामी एहकाम का मुबादियात अरबी और तुर्की ज़बान में सिखाता था।

जब शेख को मालूम हुआ कि मैं ग़ैर शादी शुदा हूँ तो उसने मुझे शादी का मशवरा दिया और अपनी बेटी मेरे लिये मुन्तख़ब की लेकिन मैंने बड़े मोअद्दिबाना से माज़िरत चाही और अपने आप को शादी के नाकाबिल ज़ाहिर किया। मैं यह मौक़िफ़ इख़्तियार करने पर मजबूर था क्योंकि शेख़ अहमद अपनी बात पर मुसिर था और हमारे तअल्लुक़ात बिगडने में कोई कसर बाक़ी नहीं रह गयी थी। शेख़ अहमद शादी को पैग़म्बरे इस्लाम स 0अ 0 की सुन्नत समझता था और इस हदीस का हवाला देता थाः

“ जो कोई मेरी सुन्नत सें एतेराज़ करे वह मुझसे नहीं है। ” (हदीस)

लेहाज़ा इस बहाने के अलावा मेरे पास और कोई चारा नहीं था। मेरे इस मसलिहत आमेज़ झूठ ने शेख़ को मुतमइन कर दिया और फिर उसने शादी से मुतअल्लिक़ कोई गुफ्तुगू नहीं की और हमारी दोस्ती फिर पहली मनज़िल पर आ गयी।

दो साल इंसतबूल में रहने ओर कुरआन समैत अरबी और तुरकी ज़बानों को सीखने के बाद मैंने शेख से वापस वतन जाने की इजाज़त चाही लेकिन शेख़ मुझे इजाज़त नहीं देता था और कहता था तुम इतनी जल्दी क्यों वापस जाना चाहते हो ? यह एक बड़ा शहर है। यहाँ तुम्हारी ज़रुरत की हर चीज़ मौजूद है। हरबनाये मशयीयते इलाही इस्तम्बूल में दीन और दुनिया दोनों दस्तयाब हैं। शेख़ ने अपनी गुफ्तुगू के दौरान कहाः

“ अब जबकि तुम अकेले हो और तुम्हारे माँ बाप ओर बहन भाई कोई नहीं तो फिर तुम इस्तम्बूल के अपना मसकन क्यों नहीं बनाते ?”

बहरहाल शेख़ को मेरे वहाँ रहने पर बड़ा इस्रार था। उसे मुझसे उनुस हो गया था। मुझे भी इससे बहुत दिलचस्पी थी मगर अपने वतन इंग्लिस्तान के बारे में मुझ पर जो जि़म्मेदारियाँ आएद थीं वह मेरे लिये सबसे ज़्यादा अहम थीं और मुझे लंदन जाने पर मजबूर कर रही थी। मेरे लिये ज़रुरी था कि मैं लंदन जाकर नौ आबादियाती इलाकों की विज़ारत को अपनी दो साला का गुज़ारी की मुकम्मल रिपोर्ट करुँ और वहाँ से नये एहकामात हासिल करुँ।

इस्तम्बूल में दो साल की रिहाइश के दौरान मुझे उस्मानी हुकूमत के हालात पर हर माह एक रिपोर्ट लंदन भेजनी पड़ती थी। मैं ने अपनी एक रिपोर्ट में बदकिरदार बढ़ई के उस वाक़िए को भी लिखा था जो मेरे साथ पेश आया था। नौ आबादियों इलाक़ों की विज़ारत ने जवाब में मुझे यह हुक्म दिया अगर तुम्हारे साथ बढ़ई का यह फेल हमारे लिये मनज़िले मक़सूद तक पहुंचने की राह को आसान बनाता है तो इस काम में कोई मज़ाइका नहीं। जब मैंने यह इबारत पढ़ी तो मेरा सर चकराने लगा और मैंने सोचा हमारे अफ़्सरान को शर्म नहीं आती कि वह हुकूमत की मसलिहतों की ख़ातिर मुझे इस बेशर्मी की तरग़ीब देते हैं। बहरहाल मेरे पास कोई चारए कार नहीं था और होठों से लगाये हुए उस कड़वे जाम को आख़िरी घूंट तक पी जाता था हम मैंने इस हुक्म का कोई नोटिस नहीं लिया और लंदन के आला ओहदेदारों की इस बेमहरी की किसी से शिकायत की। मुझे अलविदाअ कहते हुए शेख़ की आँखों में आँसू भर आये और उसने मुझे इल अल्फा़ज़ के साथ रुख़्सत किया।

“” ख़ुदा हाफ़िज़ बेटे मुझे मालूम है कि अब जब तुम लौट कर आओगे तो मुझे इस दुनिया मैं नहीं पाओगे। मुझे न भुलाना। इन्शाअल्लाह रोज़े महशर पैग़म्बरे इस्लाम स 0अ 0 के हजूर हम ऐ दूसरे से मिलेंगे। ”

दर हक़ीकत शेख़ अहमद की जुदाई से मैं एक अर्से तक आजुर्दा ख़ातिर रहा और उसके ग़म में मेरी आँखें आँसू बहाती रहीं लेकिन क्या किया जा सकता था ? फ़राएज़ की अंजाम जाते एहसासात से मावरा है।

मेरे नौ दीगर साथियों को भी लंदन वापस बुलाया गया था मगर बद क़िस्मती से उनमें से सिर्फ पांच वापस लौटे थे। बाक़ी मांदा चार अफ़राद में से एक मुसलमान हो चुका था और वहीं मिस्र मे रिहाइश पिज़ीर था। इस वाकिए को नौ आबादियाती इलाकों की विज़ारत के सेकेट्री ने मुझे बताया लेकिन वह इस बात से खुश था कि मज़कूरा शख़्स ने उनके किसी राज़ को अफ़शा नहीं किया था। दूसरा जासूस रुसी निज़ाद था और रुस पहुँचकर उसने वहीं बूदो बाश इख्तियार कर ली थी। सेकेट्री उसके बारे में बड़ा फिक्रमंद था। उसे खटका था कि कहीं यह रुसी निज़ाद जासूस जो अब अपनी सरज़मीन में पहुँच चुका है हमारे राज़ फाश न कर दे। तीसरा शख़्स बग़दाद के क़रीब वाकिअ़ “ अम्मारा ” में हैज़े से हलाक हो गया था और चौथे के बारे में कोई इत्तेला मौसूलस न हो सकी थी। नौ आबादियाती इलाकों की विज़ारत को उसके बारे में उस वक़्त तक इत्तेला रही जब तक वह यमन के पायए तख़्त “ सनआ ” में रहते हुए सलसल एक साल तक अपनी रिपोटें मज़कूरा विज़ारत को भेजता रहा लेकिन उसके बाद जब कोई इत्तेला मौसूल न हुई तो हर चंद कोशिश के बावजूद नौ आबदयिती इलाक़ों की विज़ारत को उसका कोई निशान न मिल सका। हुकूमत एक ज़बरदस्त जासूसों की गुमशुदगी के नताएज से अच्छी तरह बाख़बर थी यह हर मुलाज़िम के काम की अहमियत को बड़़ी बीरकी के साथ जांचती थी और दर हक़ीकत इस तरह के मुलाज़िम में किसी मिलाज़िम की गुमशुदगी इस सामराजी हुकूमत के लिये तशवीशनाक थी जो इस्लामी मुमालिक में उज़्र मचाने ज़ेर करने की इस्कीमों की तैयारी में मसरुफ हो।

हमारा तअ़ल्लुक़ एक ऐसी क़ौम से है जो आबादी के एतेबार से कम होने के साथ बड़ी अहम जि़म्मेदारियों का बोझ सहार रही हैं और तज्रुबेकार अफ़राद की कमी यक़ीनन हमारे लिये शदीद नुक़्सान का बाअिस थी।

सिक्रेट्री ने मेरी आख़िरी रिपोर्ट के अहम हिस्सों के मुतलिए के बाद मुझे इस कान्फ्रेंस में शिरकत की हिदायत की जिसमें लंदन बुलाये गये पांच जासूसों की रिपोर्ट सुनी जाने वाली थीं। इस कान्फ्रेंस में जो वज़ीर ख़ारजा की सदारत में हो रही थी नौ आबादियाती विज़ारत के आला ओहदेदार शिरकत कर रहे थे। मेरे तमाम साथियों ने अपने रिपोर्ट के अहम हिस्सों को पढ़कर सुनाया। वज़ीरे ख़ारज़ा , नौआबादियाती इलाकों की विज़ारत के सिकेट्री और बाज़ हाज़िरीन ने मेरी रिपोर्ट को बड़ा सराहा। ताहाम मैं इस मुहासिबे में तीसरे नम्बर पर था। दो और जासूसों ने मुझसे बेहतर कारकर्दगी का मुज़ाहिरा किया था जिनमें पहला नम्बर जी बिलको़ड G BELCOUD और दूसरा हेनरी फैन्स HENRY FANSE का था।

यह बात काबिले ज़िक्र है कि मैंने तुर्की अरबी तजवीदे कुरआन और इस्लामी शरीअ़त में सबसे ज़्यादा दस्तर्स हासिल की थी लेकिन उस्मानी हुकूमत के ज़वाल के सिलसिले में मेरी रिपोर्ट ज़्यादा कामयाब नहीं थी। जब सेकेट्री ने कान्फ्रेन्स के इख़्तिताम पर मेरी इस कमज़ोरी का ज़िक्र किया तो मैं ने कहाः

इन दो सालों में मेरे लिये दो ज़बानो का सीखना , तफ़सीरे कुरआन और इस्लामी शरीअ़त से आशनाई ज़्यादा अहमियत की हामिल थी और दूसरे उमूर पर तवज्जोह देने के लिये मेरे पास ज़्यादा वक़्त नहीं था। अगर आप भरोसा करें तो में यह कसर आईन्दा सफ़र में पूरी कर दूंगा।

सिकेट्री ने कहाः इसमें कोई शक नहीं कि तुम अपने काम में कामयाब रहो हो लेकिन हम चाहते हैं कि तुम इस राह में दूसरों से बाज़ी ले जाओ।

उसने यह भी कहाः आईन्दा के लिये तुम्हें दो अहम बातों का ख़्याल रखना हैः

1. मुसलमानों की उन कमज़ोरियों की निशानदेही करो जो हमें उन तक पहुंचने और उनके मुख़तलिफ गिरोहों के दरमियान फूट डालने में कामयाबी फ़राहम करे क्योंकि दुश्मन पर हमारी कामयाबी का राज़ उन मसाएल की शिनाख़्त पर मुनहसिर है।

2. उनकी कमज़ोरियाँ जान लेने के बाद तुम्हारा दूसरा काम उनमें फूट डालना है। इस काम में पूरी कुव्वत सर्फ़ करने के बाद तुम्हें यह इल्मियान हो जाना चाहिये कि तुम्हारा शुमार सर्फ़ अव्वल के अंग्रेज़ जासूसों में होने लगा है और तुम एज़ाज़ी निशान के हक़दार हो गये हो। छः माह लन्दन में क़याम के बाद मैने अपने चाचा की लड़की “ मेरी शिवी ” से शादी कर ली जो मुझसे एक साल बड़ी थी। उस वक़्त मैं 22 और वह 23 साल की थी। “ मेरी ” एक दरमियाना दर्जे की ज़हीन लड़की थी लेकिन बड़े दिलकश ख़दो ख़ाल की मालिक थी। मेरी बीवी का मुझसे मुतावाज़िन सुलूक था और मैने अपने ज़िन्दगी के बेहतरीन दिन उसके साथ गुज़ारे। शादी के पहले साल ही मेरी बीवी उम्मीद से थी और मैं नये मेहमान का बेचैनी से मुनतज़िर था लेकिन ऐसे मौक़े पर मुझ़े विज़ारत ख़ाने से यह हतमी हुक्म मौसूल हुआ कि मैं वक़्त ज़ाया किये बग़ैर फ़ौरन ईराक़ पहुँचूँ जो बरसहा बरस से उस्मानी ख़िलाफ़त के इस्तेहसाल था।

हम मियाँ बीवी जो अपने पहले बच्चे के इन्तिज़ार में थे इस हुक्मनामे से बहुत आजुरदा हुए लेकिन मुल्क व मिल्लत से मोहब्बत एहसास जाह तलबी और अपने साथियों से रक़ाबत , तमाम घरेलू आसाएशात ज़ज्बात और बच्चे की मोहब्बत पर छा गयी और मैंने बग़ैर तरद्दुद के इस नई मामूरियत के कुबूल कर लिया हालांकि मेरी बीवी बार बार यह ज़ोर देती रही कि मैं अपनी रवानगी को बच्चे की पैदाइश तक मुलतवी रखूँ। जब मैं उससे रुख़सत हो रहा था तो वह और मैं बोतहाशा से रहे थे। उस पर मुझ से ज़्यादा रिक्क़त तारी थी और वह कह रही थी मुझे भूल न जाना , ख़त ज़रुर लिखते रहना , मैं भी अपने बच्चे के सुनहरे मुस्तकबिल के बारे में तुम्हें लिखती रहूँगी। उसकी बातों ने मेरा दिल पसीज दिया और मुझ उस मंज़िल तक पहुँचाया कि मैं अपने सफ़र को कुछ अरसे तक मुलतवी कर दूँ लेकिन फिर मैंने अपने आप पर काबू पाया और उससे रुख़सत होकर नये एहकामात हासिल करने के लिये विज़ारत ख़ाना रवाना हो गया। समन्दरों में छह माह के तवील सफ़र के बाद आख़िरकार मैं बसरा पहुँचा। इस शहर में रहने वाले ज़्यादा तर वहीं अतराफ़ के क़बाएल थे जिनमें ईरानी और अरब अक़वाम के दो अहम बाजू शिया और सुन्नी एक साथ ज़िन्दगी बसर करते थे। बसरे में ईसाईयों की तादाद बहुत कम थी। अपनी ज़िन्दगी में यह पहला मौक़ा था। कि मैं अहले तशय्योअ़ और ईरानियों से मिल रहा था। यहाँ यह बात ना मुनासिब नहीं होगी अगर मैं अहले तशीअ़ और अहले तसन्नुन के अक़ाएद के बारे में मुख़्तसर कुछ कहता चलूँ। शिया हज़रात , हज़रत मोहम्मद मुस्तफा स 0अ 0 के दामाद और चचाज़ाद भाई अली बिन तालिब (अ 0स 0) के मुहिब हैं और उनको हज़रते मोहम्मद स 0अ 0 का बरहक़ जानशीन समझते हैं। उनका ईमान है कि हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा स 0अ 0 ने नस्से सरीह के जरीए हज़रत अली अ 0स 0 को अपना जानशीन मुन्तख़ब फ़रमाया था और आपके ग्यारह फरज़न्द यके बाद दीगरे इमाम और रसूल खुदा स 0अ 0 के बरहक जानशीन हैं।

मेरी सोज के मुताबिक हज़रत अली अ 0स 0 और आपके दो फ़रजन्द इमामे हसन अ 0स 0 और इमाम हुसैन अ 0स 0 की ख़िलाफ़त के बारे में शिया हज़रात मुकम्मल तौर पर हक़ बजानिब हैं क्योंकि अपने मुआमलात की बुनियाद पर बाज़ शवाहिद व असनाद मेरे इस दावे पर दलालत करते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि हज़रते अली अ 0स 0 ही वह हस्ती थे जो मुमताज़ सिफ़ात के हामिल थे और सही तौर पर फ़ौज और इस्लामी हुकूमत की सरबराही के अहले थे। इमाम हसन अ 0स 0 और इमाम हुसैन अ 0स 0 की इमामत के बारे में हज़रत मोहम्मद स 0अ 0 की बहुत सी हदीसें दस्तायाब हैं और अहले सुन्नत को भी उनसे इन्कार नहीं हैं और दोनों फ़रीक़ उस पर मुत्तहिद हैं (हज़रत अलीअ 0स 0 जनाबे हुसैनअ 0 और दीगर अइम्माअ 0 की इमामत के बारे में कसरत से अहादीस लक़ल हुई है। मुलाहिज़ा फ़राइयेः किताबे तौहीद अज़ शेख़ सुदूक) , अलबत्ता मुझे बाक़ी नौ अफ़राद की जानशीनी तरद्दुद है जो हुसैन अ 0स 0 बिन अली अ 0स 0 की औलाद हैं और शिया हज़रात उन्हें इमामे बरहक़ मानते हैं (इस अंग्रेंज़ जासूस का शुबह बेबुनियाद है इस कि औलादे इमाम हुसैनअ 0 की इमारत और हज़रतअ 0 की ग़ैबत के बारे में बहुत सी अहादीस मौजूद हैं। मुलाहिज़ा फ़रमाइयेः किताबे तौहीद अज़ शेख़ सुदूक़। मुन्तहीयुल आमाल अज शेख़ अब्बास कुम्मी वग़ैरा)

यह कैसे मुमकिन है कि पैग़म्बर स 0अ 0 उन अफ़राद की इमामत के ख़बर दें जो अभी पैदा ही न हुए हों ? अगर मोहम्मद स 0अ 0 अल्लाह के बरहक पैग़म्बर हों तो ग़ैब की ख़बर दे सकते हैं जैसा कि हज़रते ईसा अ 0स 0 ने आईन्दा की ख़बरें दी हैं लिकिन हज़रत मोहम्मद स 0अ 0 की नबूव्वत ईसाईयों के नज़दीक मुसल्लम नहीं है। (एक अंग्रेज़ जासूस से इस तरह के नज़रियात ख़िलाफ़ तवक़्के नहीं हैं ख़ास तौर पर जब उसे मुसलमानों की सरकूबी के लिये भेजा गया हो)

मुसलमानों का कहना है कि कुरआन पैग़म्बर स 0अ 0 की नबूव्वत पर भरपूर दलील है लेकिन मैने जितना भी कुरआन पढ़ा मुझे ऐसी कोई दलील नहीं मिली। (यह क्योंकर हो सकता है कि एक क़ारी कुरान की नज़र इस आयत पर न गयी हो जिसमें हज़रत ईसाअ 0 की रिसालत पर सरीहन चार आयतें मौजूद हैं। सूरा आले इमरान आयत 144, सूरा अहजाब आयत 40, सूर मोहम्मद आयत 3, सूरा फ़तह आयत 29)

इसमें कोई शक नहीं कि कुरआन एक बलन्द पाया किताब है और इस उसका मक़ाम तोरतै और इंजील से बढकर है। क़दीम दास्तानें , इस्लामी अहकाम व आदाब , तालीमात और दीगर बातों ने इस किताब को ज़्यादा मुमताज बना दिया है लेकिन क्या सिर्फ़ यह खुसूसी फ़ौकियत मोहम्मद स 0अ 0 की सच्चाई पर दलील बन सकती है ? मैं हैरान हूँ कि एक सेहरा नशीन जिसे लिखना और पढना भी न आता हो किस तरह एक ऐसी अरफअ़ व आला किताबे इन्सानियत के हवाले कर सकता है। यह काम तो कोई पढ़ा लिखा और साहिबे इस्तिअ़दाद आदमी भा अपनी पूरी होशमन्दी के बावजूद अंजाम नहीं दे सकता। फिर किस तरह एक सहराई अरब बगैर तालीम के ऐसी किताब लिख सकता है ? और जैसा कि मैं पहले भी अर्ज़ कर चुका हूँः “ क्या यह किताब की नबूवत पर दलील हो सकती है ?”

मैनें इस बारे में हक़ीक़त से आगाही के लिये बहुत मुतालिआ़ क्या है। लंदन में जब मैंने एक पादरी के सामने इस मौजू को पेश किया तो वह भी कोई क़ाबिले इत्मिनान जवाब न दे सका। तुर्की में भी मैंने शेख़ अहमद से कई दफ़ा इस मौजू पर बातचीत की मगर वहाँ भी मुझे इत्मिनान नहीं हुआ। यह बात क़ाबिले ज़िक्र है कि मैं लन्दन के पादरी के मुक़ाबिल , शेख़ अहमद से इतनी गुफ़्तगू नहीं कर सकता था इसलिए कि मुझे ख़तरा था कि कहीमं मेरा पोल न खुल जाये या फिर कम अज़ कम पैग़म्बरे इस्लाम स 0अ 0 के बारे में इसे मेरी नियत पर शक न हो जाये। बहरहाल मैं हज़रते मोहम्मद स 0अ 0 की क़द्रो मनज़िलत की अज़मत और बुजुर्गी का क़ाएल हूँ। बेशक आपका शुमार उन बा फ़ज़ीलत अफ़राद में होता है जिनकी कोशिशें तरबियते बशर के लिये नाक़ाबिले इन्कार हैं और तारीख़ इस बात पर शाहिद है लेकिन फिर भी मुझे उनकी रिसालत में शक है। ता हम अगर उन्हें पैग़म्बरे तसलीम न भी किया जाये तो भी उनकी बुजुर्गी उन अफ़राद से बढ़कर है जिन्हें हम नवाबिग़ समझते हैं। मोहम्मद स 0अ 0 तारीख़ के होशमन्द तरीन अफ़राद से ज़्यादा होशमन्द थे।

अहले सुन्नत कहते हैः हज़रत अबू बकर , उमर और उस्मान सलीम आरा की बुनियाद पर हज़रत अली अ 0स 0 से ज़्यादा अम्रे ख़िलाफत के हक़दार थे। इस तरह उन्होंने खुलाफ़ा इक़दाम किया। इस तरह के इख़्तिलाफ़ात अक्सर अदयान बिलखुसूस ईसाईयत में पाये जाते हैं लेकिन शिया सुन्नी इख्लितलाफ़ का नाक़ाबिले फ़हम पहलू उसका इस्तिक़रार या मुसलसल जारी रहना है जो हज़रत अली अ 0स 0 और हज़रत उमर के गुज़रने के सदियों बाद भी अब तक , इसी ज़ोर ओ शोर से बाक़ी है। अगर मुसलमान हक़ीक़तन अक़्ल से काम लेते तो ग़ुज़ारी तारीख़ और भूले ज़माने के बजाये आज के बारे में सोचते। एक दफ़ा मैंने शिया सुन्नी इख्तिलाफ़ात के मौजू को अपनी नौ आबादियाती इलाकों की विज़ारत के सामने पेश किया और उनसे कहाः

“ मुसलमान अगर ज़िन्दगी के सही मफ़हूम को समझते हैं तो उन इख़्तिलाफ़ात को छोड़ बैठते और वहदत् व इत्तेहाद की बात करते। ”

अचानक सदरे जलसा ने मेरी बात काटते हुए कहाः

“ तुम्हारा काम मुसलमानों के दरमियान इख़्तिलाफ़ की आग भड़काना है न यह कि तुम उन्हें इत्तेहाद और यक जहती की दावत दो। ”

ईराक़ जाने स पहले सिक्रेट्री ने अपनी एक नशिस्त में मुझ से कहाः

हमफ़रे। तुम जानते हो कि जंग और झगड़े इन्सान के लिये एक फ़ितरी अम्र हैं और जब से ख़ुदा ने आदम अ 0स 0 को ख़ल्क़ किया और उसके सुल्ब से हाबील और क़ाबील पैदा हुए इख़्तिलाफ़ ने सर उठाया और अब उसको हज़रते ईसा अ 0स 0 की बाज़गश्त तक उसी तरह जारी रहना है। हम इन्सान इख़्तिलाफ़ात को पांच बातों पर तक़सीम कर सकते हैंः

1- नस्ली इख़्तिलाफ़ात

2- क़बाएली इख़्तिलाफ़ात

3- अरज़ी इख़्तिलाफ़ात

4- क़ौमी इख़्तिलाफ़ात

5- मज़हबी इख़्तिलाफ़ात

इस सफ़र में तुम्हारा अहम तरीन फ़रीज़ा मुसलमानों के दरमियान इख़्तिलाफ़ात के मुख़तलिफ़ पहलुवों को समझना और उन्हें हवा देने के तरीक़ों को सीखना है। इस सिलसिले में जितनी भी मालूमात मुहय्या हो सके तुम्हें इसकी इत्तेला लन्दन के हुक्काम तक पहुंचाना है। अगर तुम इस्लामी मुमालिक के बाज़ हिस्सों में सुन्नी शिया फ़साद बरपा करो तो गोया तुमने हुक़ूमत बरतानिया की अज़ीम ख़िदमत की है।

जब तक हम अपने नौ आबादियती इलाकों में निफ़ाक , तफ़रिका , शोरिश और इख़्तिलाफ़ात की आग को हवा नहीं देंगे पुरसुकून और मुरफ़्फ़हुल हाल नहीं हो सकते। हम उस वक़्त उस्मानी सल्तनत को शिकस्त नहीं दे सकते जब तक उसके क़लमरु में शहर शहर , गली गली फ़ितना व फ़साद बरपा न कर दें। इतने बड़े इलाक़े पर अंग्रेजों की मुख़्तसर सी क़ौम सिवाये इस हथकन्डे के और किस तरह छा सकती है।

पस ऐ हमफ़रे तुम्हें चाहिये कि तुम पहले अपनी पूरी कुव्वत सर्फ़ करके हंगामे , शोर शराबे , फूट और इख़्तिलाफात की कोई राह निकालों और फिर वहाँ से अपने काम का आगाज़ करो। तुम्हें मालूम होना चाहिये कि इस वक़्त उस्मानी और ईरानी हुकूमतें कमज़ोर हो चुकी हैं। तुम्हारा फर्ज़ है कि तुम लोगों के उनके हुक्मरानों के ख़िलाफ़ भड़काव। तारीख़ी हक़ाएक़ की बुनियाद पर हमेशा इन्कि़लाबात , हुक्मरानों के ख़लिफ़ अवाम की शोरिश से वुजूद में आये हैं। जब कभी किसी इलाक़े के अवाम में फूट और इन्तिशार पड़ जाये तो इस्तिअ़मार की रहा बड़ी आसानी से हमवार हो सकती है।

बसरा पहुँच कर मैं एक मस्जिद में दाखिल हुआ। मस्जिद के पेश इमाम अहले सुन्नत के मशहूर आलिम शेख़ उम्र ताई थे। मैंने उन्हें देखकर बड़े अदब से सलाम किया लेकिन शेख़ इब्तिदाई लमहे से ही मुझ पर मज़नून हुआ और मेरे हस्ब नस्ब और ग़ुजश्ता जिन्दगी के बारे में मुझसे सवालात करने लगा। मेरा ख़याल है कि मेरे चेहरे और लहजे ने उसे शक में डाल दिया था लेकिन मैं ने बड़ी तरकीब से अपने आप को उसकी गिरफ़्त से बचा लिया और शेख़ के जवाब में कहाः

मैं तुर्की में वाकिअ़ “ आग़दीर ” का रहने वाला हूँ और मुझे कुसतुनतुनिया के शेख़ अहमद की शागिर्दी का शरफ़ हासिल है मैं ने वहाँ ख़ालिद बढ़ई के पास भी काम किया है।

मुख़्तसर यह कि तुर्की में जो कुछ मैंने सीखा था वह सब उससे बयाह किया। मैंने देखा कि शेख़ हाज़िरी में से किसी को आँख के ज़रीए इशारा कर रहा है। मालूम होता था कि वह जानना चाहता है कि मुझे तुर्की आती भी नहीं। उस शख़्स ने आँखों से हामी भरी। मैं दिल में बहुत खुश हुआ कि मैंने किसी हद तक शेख़ की दिल जीत लिया है लेकिन कुछ ही देर बाद मुझे अपनी ग़लत फहमी का एहसास हुआ और मैंने महसूस किया शेख़ का शुबहा अभी अपनी जगह बाक़ी है और वह मुझे उस्मानियों का जासूस समझता है। मशहूर था कि शेख़ , बसरा के गवर्नर का सख़्त मुख़ालिफ़ था जिसे उस्मानियों ने मोअय्यन किया था।

बहरहाल मेरे पास उसके सिवा कोई चारए कार नहीं था कि मैं शेख़ उमर की मस्जिद से इलाक़े के एक ग़रीब नवाज़ मुसाफिर ख़ाने में मुनतक़िल हो जाऊँ। मैंने वहाँ एक कमरा किराया पर लिया। मुसाफ़िरख़ाने का मालिक एक अहमक़ आदमी था जो हर सुबह सवेरे मुसाफ़िरों को परेशान किया करता था। अज़ान के बाद अंधेरे मुँह मेरा दरवाज़ा ज़ोर ज़ोर से पीटता था और मुझे नमाज़ के लिये जगाता था

और फिर सूरज निकलने तक कुरआन पढ़ने पर मजबूर करता था। जब मैं उससे कहता कि कुरआन पढ़ना वाजिब नहीं है फिर क्यों तुम्हें इस अम्र में इतना इसरार है ? तो वह कहता कि तुलूए आफ़ताब से क़ब्ल की नींद फुक्र और बदबख़्ती लाती है और इस तरह उस मुसाफिर ख़ाने के तमाम मुसाफ़िर बदबख़्ती का शिकार हो जायेंगे। मुझे इसकी बात माननी पड़ी क्योंकि वह मुझे वहाँ से निलक जाने की धमकी देता था। हर रोज़ सुबह मैं नमाज़ के लिये जाने की धमकी देता था। हर रोज़ सुबह मैं नामाज़ के लिये उठता था और फिर एक घंटा या उससे भी ज़्यादा वक़्त तक कुरआन की तिलावत करता था।

मेरी मुश्किल यही ख़्तम नहीं हुई। एक दिन मुसाफ़िर ख़ाने के मालिक मुरशद आफ़िन्दी ने आकर कहाः जब से तुमने इस मुसाफ़िर खाने में रिहाइश इख़्तियार की है मुसीबतों ने मेरा घर देख लिया है और उसकी वजह तुम और तुम्हारी लायी हुई नहूसत है इसलिए कि तुमने अभी तक शदी नहीं की है और किसी को अपना शरीके हयात नहीं बनाया है। तुम्हें या शादी करनी होगी या फिर यहाँ से जाना होगा।

मैंने कहाः आफ़िन्दी। मैं शादी के लिये सरमाया कहाँ से लाऊँ ? इस दफ़ा मैंने अपने आपको शादी के नाक़ाबिल जा़हिर करने से एहतेराज़ किया क्योंकि मैं जानता था कि मुरशद आफ़िन्दी टोह लगाये बग़ैर मेरी बात पर यकीन करने वाला आदमी नहीं था।

मुरशद आफ़िन्दी ने जवाब दियाः ओ नाम के ज़ईफुल एतेक़ाद मुसलमान। क्या तुमने कुरआन का मुतालेआ़ नहीं किया जहाँ वह फ़रमाता हैः

“ वह लोग जो फ़ुक्र में मुब्तिला हैं खुदावन्दे आलम उनहें अपनी बुजूर्गी से मालामाल कर देगा ”

मैं हैरान था कि इस नासमझ इन्सान से किसी तरह पीछा छुड़ाऊँ। आख़िरकार मैंने उसेसे कहाः आप का इरशाद बजा है रक़म के बग़ैर कैसे शादी कर सकता हूँ ? क्या आप ज़रूरी अख़राजात के लिये मुझे कुछ रक़म कर्ज़ दे सकते हैं। इस्लाम में महर अदा किया बगैर कोई औरत किसी के अक़्द में नहीं आ सकती।

आफ़िन्दी कुछ देर सोज में पड़ गया और फिर कर्ज़े हसना की बात करने के बजाये अचानक उसने सुर बुलन्द किया और ऊँची आवाज़ में चीख़ीः मुझे कुछ नहीं मालूम या तुम्हे शादी करनी होगी या फिर रजब की पहली तारीख़ तक कमरा छो़ड़़ना होगा।

इस दिन जमादिउस्सानी की पांचवीं तारीख़ थी और सिर्फ़ 25 दिन मेरे पास थे।

इस्लामी महीनों के नामों के बारे में भी यहाँ कुछ तज़किरा न मुनासिब न होगाः

1- मोहर्रम 2- सफर

3- रबीउल अव्वल 4- रबीउस्सानी

5- जमादिउल अव्वल 6- जमादिउस्सानी

7- रजब 8- शाबान

9- रमज़ान 10- शव्वाल

11- ज़ीक़ाद 12- ज़िलहिज्जा

हर महीने चांद के आगाज़ से शुरु होता है और 30 दिन से ऊपर नहीं जाता लेकिन कभी कभी चांद 29 दिन का भी होता है।

मुख़्तसर यह कि मुसाफ़िर ख़ाना के मालिक की सख्तगीरी के सबब मुझे वह जगह छोड़ना पड़ी। मैंने यहाँ भी एक तरखान की दुकान पर इस शर्त के साथ नौकरी कर ली वह मुझे रहने और खाने की सहूलत फ़राहम करेगा और उसके इवज़ मज़दूरी कम देगा। मैं रजब से पहले ही नई जगह मुनतक़िल हो गया और तरखान की दुकान पर पहुँचा। तरखान अब्दुररज़ि निहायत शरीफ़ और मोहतरम शख़्स था और मुझसे अपने बेटों जैसा सुलूक करता था।

अब्दुररिज़ा ईरानी अल अस्ल शिया था और खुरासान का रहने वाला था मैंने मौक़े से फ़ायदा उठाते हुए उससे फ़ारसी सीखना शुरु की। दोपहर के वक़्त उसके पास बसरे में मुक़ीम ईरानी जमा होते थे जो सब के सब शिया थे। वहाँ बैठकर इधर उधर की गुफ़्तगू होती थी। कभी सियासत और मअ़ीशत उनवान कलाम होता और कभी उस्मानी हुकूमत को बुरा भला कहा जाता। ख़ास तौर पर सल्तनते वक़्त और इस्तम्बूल में मुकर्रर होने वाला ख़लीफ़ए मुसलिमीन उनकी तनक़ीद का नीशाना होता लेकिन जूँ ही कोई अजनबी ग्राहक दुकान में आता वह सब के सब ख़ामोश हो जाते और ज़ाती दिलचस्पी के मुतअल्लिक़ ग़ैर अहम बातें हो लगती।

मुझे मालूम नहीं मैं क्योंकर उनके लिये क़ाबिले एतेमाद था और वह मेरे सामने हर क़िस्म की गुफ़्तगू को जाएज़ समझते थे। यह बात मुझे बाद में मालूम हुई कि उन्होंने मुझे आज़र बाईजान का रहने वाला ख़्याल किया था क्योंकि मैं तुरकी में बातचीत करता था और आज़र बाईजानियों की तरह मेरा चेहरा सुर्ख़ व सफेद था।

इन दिनों जब मैं तुरखान का काम करता था मेरी मुलाकात एक ऐसे शख़्स से हुई जो वहाँ आता जाता रहता था और तुर्की , फ़ारसी और अरबी ज़बानों में गुफ़्तुगू करता था। वह दीनी तालिबे इल्मों का लिबास पहनता था। उसका नाम मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब था। वह एक ऊँचा उड़ने वाला , एक जाह तलाब और निहायत गुस्सीला इन्सान था। उसे उस्मानी हुकूमत से सख़्त नफ़रत थी और वह हमेशा उसकी बुराई करता था लेकिन हुकूमते ईरान से उसको कोई सरोकार नहीं था। तुरखान अब्दुल रिज़ा से उसकी दोस्ती वजह मुशतरिक यह थी वह दोनों ही उस्मानीं ख़लीफ़ा को अपना सख़्त तरीन दुश्मन समझते थे लेकिन मेरे इल्म में यह बात न आ सकी कि उसने अब्दुर रिज़ा तुरखान से किस तरह दोस्ती बढ़ाई थी जबकि यह सुन्नी और वह शिया था। मुझे यह भी नहीं मालूम हो सका उसने कि उसने फ़ारसी कहाँ से सीखी थी ? अलबत्ता बसरे में शिया सुन्नी मुसलमान एक साथ ज़िन्दगी बसर करते थे और एक दूसरे के साथ उनके रवाबित भी दोस्ताना थे और वहाँ औ़ फ़ारसी और अरबी दोनों ज़बानों बोली जाती थीं ताहम तुरकी समझने वालों की तादाद भी वहाँ कुछ कम न थी।

मोहम्मद अब्दुल वहाब एक आज़ाद आदमी था। उसका ज़हन शिया सुन्नी तासियात से बिल्कुल पाक था हालांकि वहाँ के बेशतर सुन्नी हज़रत शियों के ख़िलाफ़ थे और बाज़ सुन्नी मुफ़्ती शियों की तकफ़ीर भी करते थे। शेख़ मोहम्मद के नज़दीक हनफ़ी , शाफ़िअी , हम्बली और मालिकी मकातीब फ़िक्र में से किसी मकतबे फ़िक्री की कोई ख़ास अहमियत नहीं थी। वह कहता था कि खुदा ने जो कुछ कुरआन में कह दिया है बस वही हमारे लिये काफी है।

इन चार मकातीब फ़िक्र की दास्तान भी कुछ यूँ है कि हज़रते पैग़म्बरे स 0अ 0 की वफ़ात से सौ साल बाद आलमे इस्लाम में बलन्द पाए ओलामा का जूहूर अमल में आया जिनमे चार अफ़राद अबू हनीफ़ अहमद बिन हम्बल , मालिक बिन अनस और मोहम्मद बिन इदरीस शाफ़ई अहले सुन्नत की पेशवाई के मक़ाम तक पहुँचे। अब्बासी ख़ोलफ़ा का ज़माना था और इन अब्बासी ख़ोलफ़ा ने मुसलमानों पर दबाव डाल रखा था कि वह मज़कूरा चार अफ़राद के अलावा किसी की तक़लीद न करें अगरचे कोई कुरआन व सुन्नत में उनसे बढकर दस्तरिस क्यों न रखता हो। अब्बासी ख़ोलफ़ा ने उनके अलावा किसी मुतज्जिर और आला पाया आलिम को उनके मुक़ाबिल में उभरने नहीं दिया और इस तरह दरहक़ीक़त उन्होंने इल्म के दरवाज़े को बन्द कर दिया और यह बात अहले सुन्नत वल जमाअत के फ़िक्री जमूद का बाइस बनी। इसके बरअक्स शिया हज़रात ने अहले सुन्नत की इस पाबन्दी और जमूदी कैफ़ियत से फ़ायदा उठाते हुए अपने अक़ायद व नज़रियात को वसीअ पैमाने पर मुन्तशिर करना शुरु किया और दूसरी सदी हिजरी के मुक़ाबिल में दस फ़ीसद थी उनकी तादाद में मुसलसल इज़ाफा होने लगा और वह अहले सुन्नत के हम पाया हो गये और यह एक फ़ितरी अम्र था क्योंकि शिया हज़रात के पास इज्तेहाद का दरवाज़ा खुला हुआ था और यह बात मुसलमानों की ताज़गीये फ़िक्र , इस्लामी फ़िक़हा की पेशरफ़्त और नई रौशनी में कुरआन व सुन्नत के फ़हम का बाइस बनी और उसने इस्लाम को नये ज़मानो के तक़ाज़ों से हमआहंग किया। इज्तेहाद ही वह बड़ा वसीला था जो फ़िक्री जमूद से नबर्दआज़मा रहा और उसके ज़रिये इस्लाम ने जिला पाई और फि़क्रों में इंक़ेलाब रुनुमा हुआ। इस्लाम को चार मकातीबे फ़िक्र में मुक़य्यिद करना , मुसलमानों के लिये जुस्तजू और तलाश के रास्तों को बंद करना और नई बात से उनकी समाअत को रोकना और वक़्त के तकाज़ों से उन्हें बेतवज्जो रखना दरअसल वह पोशीदा असलाह था जिसने मुसलमानो की पोशरफ़्त रोक दी। ज़ाहिर है कि जब दुश्मन के हाथ में नया असलाह हो और आप अपने पुराने जंगजदा असलेह से इसका मुक़ाबिला करेंगे तो यक़ीनन जल्द या बा देर आपको हज़ीमत उठाना प़ड़ेगी मैं पेशीनगोई से काम लेते हुए यह कहूँगा कि अहले सुन्नत के साहिबाने अक़्ल अफ़राद बहुत जल्द ही मुसलमानों पर इज्तेहाद का दरवाज़ा खोल देंगे और यह काम मेरे अंदाज़े के मुताबिक अकली सदी तक रुबा अमल आयेगी और सो साल बाद मुसलमानों में इज्तेहाद के हामी शियों की अक्सरियत होगी और अहले तसन्नुन अक़लियत में रह जायेंगे।

अब मैं शेख मोहम्मद अब्दुल वहाब के बारे में अर्ज़ करुँ कि यह शख़्स कुरआन व हदीस का अच्छा मुतालिआ रखता था और अपने उफ़कार की हिमायत में बुजुर्गाने इस्लाम के अक़वाल व आरा को बतौर सनद पेश करता था , लेकिन कभी कभी इसकी फ़िक्र मशाहिरे ओलमा के ख़िलाफ़ होती थी। वह बात पर कहताः

पैग़म्बरे ख़ुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेहि वसल्लम) ने सिर्फ़ किताब व सुन्नत को नाक़ाबिले तग़य्युर उसूल बना कर हमारे लिये पेश किया और कभी यह नहीं कहा कि सहाब-ए-कराम और अइम्मा-ए-दीन के फ़रमूदात अटल और वहीये मुन्ज़िल हैं। पस हम पर वाजिब है कि हम सिर्फ़ किताब व सुन्नत की पैरवी करें। ओलामा , अइम्मा अरबा हत्ता कि सहाबा की राय ख़्वाह कुछ भी क्यों न हो , हमें उनके इत्तिफ़ाक़ व इख्तिलाफ़ पर अपने दीन को उस्तवार नहीं करना चाहिये।

एक दिन उसकी ईरान से आने वाले एक आलिम से खाने के दस्तरख़्वान पर झड़प हो गयी। उस आलिम का नाम शेख़ जवाद कुम्मी था और उसे अब्दुल रिज़ा तर खाने ने अपने पास मेहमान बुलाया था। शेख़ जवाद कुम्मी के मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब से उसूली इख़्तिलाफ़ात थे और उनकी गुफ़्तगू ने जल्द ही तलख़ी और तरशीर का रंग इख़्तियार कर लिया।

मुझे उनके दरमियान होने वाली तमाम गुफ़्तगू तो याद नहीं अलबत्ता जो जो हिस्से मुझे याद हैं , मैं उनको यहाँ पेश करना चाहता हूँ।

शेख़ कुम्मी ने इन जुमलों से अपने गुफ़्तगु का आगाज़ किया और मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब से कहाः

“ अगर तुम एक आज़ाद ख़्याल इंसान हो और अपने दावे के मुताब़क़ इस्लाम का काफ़ी मुतालिआ कर चुके हो तो फिर क्या वजह है कि तुम हज़रत अलीअ 0स 0 को वह फ़ज़ीलत नहीं देते जो शिया देते हैं ?”

मोहम्मद ने जवाब दिया इस लिये कि हज़रत उमर और दीगर अफ़राद की तरह उनकी बातें भी मेरे लिये हुज्जत नहीं है। सिर्फ़ किताब व सुन्नत को मानता हूँ।

कुम्मीः अच्छा अगर तुम सुन्नत के आमिल हो तो क्या पैग़म्बरे अकरमस 0 ने यह नहीं कहा थाः “ मैं शहरे इल्म हूँ और अली उसका दरवाज़ा है ” (अना मदीनतुल इल्म व अलीयुन बाबोहा) और क्या यह कह कर पैग़म्बरस 0 ने अलीअ 0 और सहाबा दरमियान फ़र्क़ क़ायम नहीं किया ?

मोहम्मदः अगर ऐसा ही है तो फिर पैग़म्बरस 0 को यह कहना चाहिये था किः “ मैं तुम्हारे दरमियान दो चीज़ें छोड़े जाता हूँ एक किताब और एक अलीअ 0 बिन अबीतालिबअ 0” ।

कुम्मीः बेशक यह बात भी पैग़म्बरस 0 ने अपने मक़ाम पर कही है किः मैंने तुम्हारे दरमियान किताब और अहलेबैतअ 0 को छो़ड़ा है। ” (इन्नी तारेकुम फ़ीकोमुस सक़लैन केताबल्लाहे व इतरती व अहलाबैती) बेशक अलीअ 0 अहलेबैतअ 0 के सरबआवरदा अफ़राद में से है।

मोहम्मद ने इस हदीस को झुठलाया लेकिन शेख़ कुम्मी ने उसूले काफ़ी के असनाद की बुनियाद पर पैग़म्बरस 0 से इस हदीस को साबित किया और मोहम्मद को ख़ामोश होना पड़ा। अब उसके पास कोई जवाब नहीं था। अचानक उसने शेख़ पर एतराज ठोंकाः पैग़म्बरस 0 ने हमारे लिये सिर्फ़ किताब और अपने अहलेबैतअ 0 को बाक़ी रखा है तो फिर सुन्नत कहां गयी ?

कुम्मी ने जवाब दियाः सुन्नत उसी किताब की तफ़सीर व तशरीह का नाम है , और इसके अलावा कुछ भी नहीं। पैग़म्बरे ख़ुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेहि वसल्लम) ने फ़रमाया अल्लाह की किताब और मेरे अहलेबैतअ 0 यानि किताबे खुदा इस तशरीह व तफ़सीर के साथ जो सुन्नत कहलाती है और उसके बाद सुन्नत की तकरार की ज़रुरत बाक़ी नहीं रहती।

मोहम्मद ने कहाः अगर आप के दावे के मुताबिक़ इतरत या अहलेबैतअ 0 ही कलामे इलाही की तफ़सीर हैं तो फिर क्यों मतने हदीस में इसका इज़ाफ़ा हुआ है ?

कुम्मी ने जवाब दियाः “ जनाबे रिसालतमाब (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेहि वसल्लम) ” ने अपनी ग़ैबी इल्म की बुनियाद पर किताबे इलाही को अस्ले साबित और इतरत मुफ़स्सिर व शारेअ किताब बना कर उम्मत के हवाले किया।

हैरानी के साथ साथ मुझे उनकी गुफ़्तगु से बड़ा मज़ा रहा था। मैंने देखा कि मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब उस ज़ईफुल उम्र शेख़ जवाद कुम्मी कि आगे एक ऐसी चिड़िया की मानिन्द फड़फड़ा रहा था जैसे क़फ़स में बन्द कर दिया गया हो और उसके परवाज़ की राह मसदूद हो गयी हो।

मोहम्मद अब्दुल वहाब से मेल जोल और मुलाकातों के एक सिलसिले के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि बर्तानवी हुकूमत के मक़ासिद को अमली जामा पहनाने के लिये यह शख़्स बहुत मुनासिब दिखाई देता है। इसकी ऊँचा उड़ने की ख़ुवाहिश , जाह तलबी , गुरुर , ओलमा व मशाएख़े इस्लाम से उसकी दुश्मनी , इस हद तक खुदसरी कि ख़ोलफ़ा-ए-राशेदीन भी इसकी तंक़ीद का निशाना बनें और हक़ीक़त के सरासर ख़िलाफ़ कुरआन व हदीस से इस्तेफ़ादा उसकी कमज़ोरियाँ थीं जिससे बड़ी आसानी से फ़ायदा उठाया जा सकता था।

मैंने सोचा कहां यह मग़रुर नौजवान और कहां इस्तनबोल का वह तुर्क बूढ़ा आदमी (अहमद आफ़न्दी) जिसके उफ़कार व किरदार गोया हज़ार साल पहले के अफ़राद की तस्वीरकशी करते थे। उसने अपने अन्दर ज़रा भी तब्दीली पैदा नहीं की थीं हनफ़ी मज़हब से तअल्लुक़ रखने लाला वह बूढ़ा शख़्स अबूहनीफ़ा का नाम ज़बान पर लाने से पहले उठ कर वज़ू करता था या मसलन सहीह बुख़ारी बिल्कुल बचर और बेहूदा है।

बहर सूरत मैंने मोहम्मद से बहुत गहरे मरासिम क़ायम कर लिये और हमारी दोस्ती में नाक़ाबिले इस्तेहकाम पैदा हो गाय। मैं बार बार उसके कानों में यह रस घोलता था कि ख़ुदा तुम्हें हज़रतअ 0 और हज़रत उमर से कहीं ज़्यादा साहिबे इस्तेदाद बनाया है और तुम्हें बड़ी फ़ज़ीलत और बुजूर्गी बख़्शी है। अगर तुम जनाबे रिसालतमाबस 0 के ज़माने में होते तो यक़ीनन उनकी जानशीन का शरफ़ तुम्हें मिलता। मैं हमेशा पुरउम्मीद लहजे में उससे कहताः

“ मैं चाहता हूँ कि इस्लाम में जिस इन्क़ेलाब को रुनुमा होना है तुम्हारे ही मुबारक हाथों से अंजाम पज़ीर हो इसलिये कि सिर्फ़ तुम ही वह शख़्सियत हो जो इस्लाम को ज़वाल से बचा सकते हो और इस सिलसिले में रुब की उम्मीदें तुम से वाबस्ता हैं। ”

मैने मोहम्मद के साथ तय किया कि हम दोनों बैठ कर ओलमा , मुफ़स्सेरीन , पेशवायाने दीन व मज़हब और सहाब-ए-कराम से हट कर नये उफ़कार की बुनियाद पर कुरआन मजीद पर गुफ़्तगू करें। हम कुरआन पढ़ते और आयत के बारे में इज़हारे ख़्याल करते। मेरा लाएहा अमल यह था कि मैं किसी तरह उसे अंग्रेज़ नौआबादियती इलाकों की वज़रात के दाम में फंसा दूं।

मैंने आहिस्ता आहिस्ता इस ऊँची उड़ान वाले ख़ुदपरस्त इंसान को अपनी गुफ़्तगू की लपेट में लेना शुरु किया यहां तक कि उसने हक़ीक़त से कुछ ज़्यादा ही आज़ाद ख्याल बनने की कोशिश की।

एक दिन मैंने उससे पूछाः “ क्या जेहाद वाजिब है ?” उसने कहाः क्यों नहीं। खुदा वन्दे आलम फ़रमाता है “ काफ़िरों से जंग करो। ”

मैंने कहाः खुदा वन्दे आलम फ़रमाता हैः काफ़िरो और मुनाफ़िकों दोनों से जंग करो और अगर काफ़िरों और मुनाफ़िक़ों से जंग वाजिब है तो फिर पैगम्बर (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेहि वसल्लम) ने मुनाफ़िकों से क्यों जंग नहीं की ?”

मोहम्मद ने जवाब दियाः “ जेहाद सिर्फ़ मैदाने जंग ही में नहीं होता। पैग़म्बर ख़ुदास 0 ने अपनी रफ्तार व गुफ़्तार ज़रिये मुनाफि़कों से जंग की है। ”

मैनें कहाः “ फिर इस सूरत में कुफ़्फार के साथ जंग भी रफ़्तार व गुफ़्तार के साथ वाजिब है। ”

उसने जवाब दियाः नहीं , इसलिये कि पैग़म्बरस 0 ने जंग के मैदान में उनके साथ जेहाद किया है। ”

मैंने कहाः “ कुफ़्फार के साथ रसूले ख़ुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेहि वसल्लम) की जंग अपने दिफ़ाअ के लिये थी क्योंकि वह उनकी जान के दुश्मन थे। ”

मोहम्मद ने इस्बात में अपना सर हिलाया और मैंने महसूस किया कि मैं अपने काम में कामयाब हो गया हूँ।

एक और दिन मैंने उससे कहाः “ क्या औरतों के साथ मुतअ जाएज़ है ?”

उसने कहाः “ हरगिज़ नहीं। ”

मैने कहाः “ फिर क्यों कुरआन ने इसे जाएज़ क़रार देते हुए कहा हैः और जब तुम उनसे मुतअ करो तो उनका मेहर अदा करो। ” (सूर-ए-निसा आयत 24)

उस ने कहाः हाँ , आयत तो अपनी जगह ठीक है मगर हज़रत उमर ने इसे यह कहकर हराम क़रार दिया किः मुतअ पैग़म्बरस 0 के ज़माने में हलाल था , मैं इसे हराम क़रार देता हूँ और अब जो इसका मुरतकिब होगा मैं उसे सज़ा दूँगा।

मैंने कहाः बड़ी अजीब बात है। तुम तो हज़रत उमर की पैरवी करते हो और फिर आपको उससे ज़्यादा साहिबे अक़्ल भी कहते हो। हज़रत उमर को क्या हक़ पहुँचता है कि वह हलाले मोहम्मदस 0 को हराम करे। तुमने कुरान को भुला कर हज़रत उमर की राय को तस्लीम कर लिया ?

मोहम्मद ने चुप साध ली और ख़ामोशी उसकी रिज़ामन्दी की दलील थी। इस मौज़ू पर उसके ख्यालात दुरुस्त करके मैंने उसके जिन्सी ग़रीज़ा को उभारना शुरु किया। वह एक ग़ैर मुताहिल शख़्स था। मैंने उससे पूछाः “ क्या तुम मुताअ के ज़रिये अपनी ज़िन्दग़ी को पुरमसर्रत बनाना चाहते हो ?”

मोहम्मद ने रिज़ा व रग़बत की अलामात से अपना सर झुका लिया।

मैं अपने फ़राएज़ के इन्तेहाई अहम मोड़ पर पहुँच चुका था। मैंने उससे वादा किया कि मैं बहरहाल तुम्हारे लिये इसका इन्तेज़ाम करुँगा। मुझे सिर्फ इस बात का ख़दशा था कि कहीं मोहम्मद बसरा के उन सुन्नियों से खौफ़ज़दा न हो जाये जो इस बात के मुख़ालिफ़ थे। मैंने उसे इत्मिनान दिलाया कि हमारा प्रोग्राम बिल्कुल मख़फ़ी रहेगा यहां तक की औरत को भी तुम्हारा नाम नहीं बताया जायेगा। इस गुफ़्तगू के फ़ौरन बाद मैं इस बदक़िमाश नसरानी औरत के पास गया जो इंग्लिस्तान के नो आबादयाती इलाक़ों की वज़ारत की तरफ़ से बसरे मैं इस्मत फ़रोशी पर मामूर थी और मुसलिम नौजवानों को बेराहेरवी पर उभारती थी। मैंने उससे तमाम वाकिआत ब्यान किये। जब राज़ी हो गया तो मैंने उसका आरज़ी नाम “ सफ़िया ” रखा और कहा कि मैं शेख़ को ले कर उसके पास आऊँगा।

मुक़र्ररा दिन में शेख़ मोहम्मद को ले कर सफ़िया के घर पहुँचा। हम दोनों के सिवा वहाँ और कोई नहीं था। मोहम्मद ने एक अशर्फ़ी मेहर पर एक हफ़्ते के लिये सीग़े से अक़्द किया। मुख़्तसर यह कि मैं बाहर और सफ़िया अन्दर से मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब को अपने आईन्दा के प्रोग्रामों के लिये तैयार कर रहे थे। सफ़िया ने अहकामे दीन की पामाली और आज़ादिये राय का पुरकैफ़ मज़ा मोहम्मद को चखा दिया था।

मैं इस तक़रीब के तीसरे दिन फिर मोहम्मद से मिला और हमने एक बार फिर अपनी गुफ़्तगू शराब की हुरमत के मुतअल्लिक थी। मेरी कोशिश थी कि मैं इन आयात के रद् करुं जो मोहम्मद के नज़दीक हुरमते शराब पर दलील थी। मैंने उससे कहाः “ अगर माविया , यज़ीद , ख़ोलफ़ा-ए-बनु उमय्या और बनी अब्बास की शराब नोशी हमारे नज़दीक मुसल्लम हो तो क्योंकर हो सकता है कि यह तमाम पेशवायाने दीन व मज़हब गुमराही की ज़िन्दगी बसर करते हों और तन्हा तुम सच्चे रास्ते पर हो ? बेशक वह लोग किताबे इलाही और सुन्नते रसूलस 0अ 0 को हम से ज़्यादा बेहतर जानते थे। पस यह बात सामने आती है कि इरशादाते ख़ुदा और (रसूल सल्लल्लाहो अलैहे व आलेहि वसल्लम) से उन बुजूर्गों ने जो इस्तेनाबात किया था वह शराब की हुरमत नहीं बल्कि उसकी कराहत थी। इसके अलावा यहूद व नुसारा की मुकद्दस किताबों में सराहत से शराब पीने की इजाज़त है हालांकि यह भी इलाही अदयान हैं और इस्लाम उन अदयान के पैग़म्बरों को मोअतक़िद है। यह कैसे मुम्किन है कि शराब अल्लाह के भेजे हुए एक दीन में हलाल और दूसरे में हराम हो ? क्या यह सब अदयान बरहक या ख़ुदाये यकता के भेजे हुए नहीं है ? हमारे पास तो यह भी रिवायत है कि हज़रत उमर उस वक़्त तक शराब पीते रहे जब तक यह आयत नाज़िल नहीं हुईः “ क्या तुम शराब और जूए से दस्तबरदार नहीं हो गये। ” (सूर-ए-मायदा आयत 91) अगर शराब हराम होती तो रसूल ख़ुदारस 0 हज़रत उमर की शराब नोशी पर हद जारी फ़रमाते मगर आप का उन पर हद जारी न करना इत बात की दलील है कि शराब हराम नहीं है।

मोहम्मद जो बड़े ग़ौर से मेरी गुफ़्तुगू सुन रहा था अचानक संभला और कहाः “ रिवायत में है कि हज़रत उमर शराब में पानी मिला कर पीते थे ताकि उसकी वलह कैफ़ियत दूस हो जाये जो नशा पैदा करती है। वह कहते थे शराब की मस्ती हराम है न कि खुद शराब। वह शराब जिससे नशा तारी न हो हराम नहीं है। ”

मोहम्मद , हज़रत उमर के इस नजरिये को इस आयत की रोशनी में दुरुस्त जानता था , जिसमें इरशाद होता है।

“ शैतान चाहता है कि तुम्हारे दरमियान शराब और जुए के जरिये अदावत और दुश्मनी पैदा करे और तुम्हे यादे खुदा और नमाज़ से बाज़ रखे। ” (सूर-ए-मायदा आयत 91)

आगर शराब में मस्ती और नशा न हो तो पीने वाले पर इसके असरात मुरतब नहीं होंगे और इसी लिये वह शराब जिसमें मस्ती नहीं हराम नहीं है।

मैंने मोहम्मद के साथ शराब से मुतअल्लिक़ गुफ़्तुगू को सफ़िया के गोशगुज़ार किया और उसे ताकीद की कि मौक़ा मिलते ही मोहम्मद को नशो में चूर कर दिया और जितना हो सके शराब पिलाओ।

दूसरे दिन सफ़िया ने मुझे इत्तिला दि कि उसने शेख़ के साथ जी खोल कर शराब नोशी की यहां तक कि वह आपे से बाहर हो गया ओर चीख़ने चिल्लाने लगे। रात की आख़री घड़ी में कई मर्तबा मैंने उससे मुक़ारिबत की और अब उस पर नक़ाहत का आलम तारी है और चेहरे की आब व ताब ख़त्म हो चुकी है। ख़ुलासा कलाम यह कि मैं और सफ़िया पूरी तरह मोहम्मद पर छा चुके थे। इस मंज़िल पर मुझे नो आबादयाती इलाक़ों के वज़ीर की दो सुनहरी बात याद आई जो उसने मुझे अलविदा कहते वक़्त कही थी। उसने कहा थाः

“ हमने स्पेन को कु़फ़्फार (मुराद अहले इस्लाम हैं) से शराब और जुए के ज़रिये दोबारा हासिल किया। अब उन्हें दो ताक़तचों के ज़रिये दूसरे इलाक़ों को भी पामर्दी के साथ वापस लेना है। ”

मोहम्मद के साथ मज़हबी ग़ुफ़्तगू के दौरान एक दिन मैंने रोज़े के मसअले को हवा दी और कहाः “ कुरआन कहता हैः “ रोज़ा तुम्हारे लिये बेहतर है। ” (सूर-ए-अलबक़रा आयत 184) उसने यह नहीं कहा कि तुम पर वाजिब है। ” लेहाज़ा इस्लाम में रोज़ा वाजिब नहीं मुस्तहब है। ”

इस मौके पर मोहम्मद को गुस्सा आया और उसने कहाः “ तुम मुझे दीन से ख़ारिज करना चाहते हो ”

मैंने कहाः “ ऐ मोहम्मद दीन क़ल्ब की पाक़ी , जान की सलामती और एतदाल का नाम है। यह कैफ़ियत इन्सान को दूसरों पर जुल्म व ज़ियादती से रोकती है। क्या हज़रत ईसाअ 0 ने यह नहीं कहा कि मज़हब इश्क़ व वारफ़तगी का नाम है। ” क्या कुरआन यह नहीं कहताः “ यक़ीन हासिल करने तक अल्लाह की इबातदत करो ” (सूर-ए-हजर आयत 99) अब अगर इंसान यक़ीने कामिल की मंज़िल पर पहुंच जाये , खुदा और रोज़े क़यामत उसके दिल में रासिख़ हो जायें , ईमान से उसका दिल लबरेज़ हो जाये और वह अच्छे सुलूक का हामिल हो तो फिर रोज़े की क्या ज़रुरत बाक़ी रह जाती है ? इस मंज़िल में वह आला तरीन इंसानी मरातिब से वाबस्ता हो जाता है। ”

मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब ने इस मर्तबा मेरी शदीद मुख़ालिफत की और अपनी नाराज़गी का इज़हार किया। फिर एक दफ़ा मैंने उससे कहाः नमाज़ वाजिब नहीं। ”

उसने पूछाः “ क्यों ?

मैंने कहाः इस लिये कि ख़ुदा वन्दे आलम ने कुरआन में कहा है कि “ मुझे याद करने के लिये नमाज़ क़ायम करो। ” सूर-ए-ताहा आयत 14) पस नमाज़ का मक़सद ज़क्रे इलाही और तुम्हें चाहिये कि तुम उसका नाम अपनी ज़बान पर जारी रखो। ”

मोहम्मद ने कहाः “ हाँ मैंने सुना है कि बाज़ औलमा-ए-दीन नमाज़ के वक़्त अल्लाह के नाम की तकरार शुरु करते हैं और नमाज़ अदा नहीं करते। ”

मैं मोहम्मद के इस एतराफ़ से बहुत ज़्यादा खुश हुआ पर एहतियातन कछ देर मैंने उसे नमाज़ पढ़ने की तलक़ीन भी की जिसका नतीजा यह निकला कि उससे नमाज़ की पाबन्दी छूट गयी। अब वह कभी नमा़ज़ पढ़ता और कभी न पढ़ता। ख़ास तौर से सुबह की नमाज़ ग़ालबन उसने तर्क ही कर दी थी। हम लोग रात को देर तक जिसकी वजह से सुबह उठने और वज़ू करने की उसमें हिम्मत बाक़ी न रहती थी।

क़िस्सा मुख़्तसर , आहिस्ता मैं मोहम्मद के बदन से ईमान का लबादा उतारने में कामयाब हो गया। मैंने हर रोज़ उससे अपनी मीठी गु़फ़्तगू का सिलसिला जारी रखता। अंजामकार एक दनी मैंने गुफ़्तगू की हदूद को जनाबे रसूल ख़ुदा (सल्लल्लाहू अलैहे व आलेहि वसल्लम) की जात (अक़दस) तक आगे बढ़ाया। अचानक उसके चेहरे पर तब्दीली आयी और वह इस मौज़ू पर गुफ़्तगू के लिये तैयार नहीं हुआ। उसने मुझसे कहाः “ अगर तुमने रसूले खुदा (सल्लल्लाहू अलैहे व आलेहि वसल्लम) की शान में गुस्ताख़ी की तो हमारी तुम्हारी दोस्ती के दरवाज़े यहीं से हमेशा के लिये बन्द हो जायेंगे। ” मैंने अपनी मेहनतों पर पानी फिरते देखा तो फ़ौरन् अपना मौज़ू-ए-गुफ़्तगु बदल लिया और फिर इस मौज़ू पर गुफ़्तगू नहीं की।

उस दिन के बाद से मेरा मक़सद मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब को रहबरी और पेशवाई की फ़िक्र देना हो गया। मुझे उसके क़ल्ब व रुप में उतर शिया सुन्नी फ़िरक़ों के अलावा इस्लाम में एक तीसरे फ़िर्के की सरबराही की पेशकश को उसके लिये क़िबिले अमल बनाना था। इस मक़सद के हुसूल के लिये ज़रुरी था कि पहले मैं उसके ज़ेहन को बेज़ा मजनून और अन्धे तअसुबात से पाक कर दूँ इस उन्वान से इसकी आज़ाद ख़्याली और बुलन्द परवाज़ी को तक़वियत पहुँचाऊँ। इस काम मैं सफिया भी मेरी मददगार थी क्योंकि मोहम्मद उसे दीवानों की तरह चाहता था और हर हफ़्ते मुतअ की मुद्दत को बढ़ाता जाता था। मुख़्तसर यह कि सफ़िया ने मोहम्मद से सब्र व क़रार और उसके तमाम इख्तियार छीन लिये थे।

मैंने अपनी एक मुलाक़ात में मोहम्मद से कहाः “ क्या यह दुरुस्त है कि जनाबे रसूले खुदा (सल्लल्लाहू अलैहे व आलेहि वसल्लम) की तमाम असहाब से दोस्ती थी ?”

उसने जवाब दियाः “ हाँ ”

मैंने पूछाः “ इस्लाम के क़वानीन दायमी हैं या वक्ती ?”

उसने कहाः “ बेशक दायमी हैं ” इसलिये कि रसूले खुदास 0 फ़रमाते है किः “ हलाले मोहम्मदस 0” क़यामत तक हलाल और हलाले मोहम्मदस 0 क़यामत तक हराम है। ”

मैंने बिला ताख़ीर कहाः “ पस हमें भी उनकी सुन्नत पर अमल करते हुए एक दूसरे का दोस्त और भाई बनना चाहिये। ”

उसने मेरी पेशकश को कुबूल किया और उस दिन के बाद से तमाम सफ़र व हज़र में हम एक दूसरे के साथ रहने लगे।

मैं इस कोशिश में था कि जिस पौदे को सींचने में मैंने अपनी जवानी के दिन सर्फ़ किये हैं अब जितनी जल्द हो सके उसके फलों से इस्तेफ़ादा करूं।

हिस्बे मामूल मैं अपने हर महीने की रिपोर्ट इंग्लिस्ताम में मो आबादयाती इलाक़ों की वज़ारत को भेजता रहा। रिपोर्ट लिखना अब मेरी आदत में शामिल हो गया था जिसमें कभी मैं कोताही नहीं करता था। वहां से जवाबात लिखे जाते थे वह तमाम के तमाम बड़े हौसला औफ़ज़ा और पुरउम्मीद हुआ करते थे और मोहम्मद ने जिस रास्ते का तअय्युन किया था हम उसे बड़ी तेज़ी से तय कर रहे थे। मैं सफ़र और हज़र में कभी उसको तन्हा नहीं छोड़ता था। मेरी कोशिश यही थी कि मैं आज़ाद ख़्याली और मज़हबी अक़एद में जिद्दत पसन्दी की रुह को उसके वजूद में इस्तेहकाम बख़शो में हमेशा उसेको यह साथ दिलाता रहता था , कि एक ताबनाक मुस्क़बिल तुम्हारे इन्तेज़ार में है।

एक दिन मैंने उससे अपना एक झूठा ख़्वाब बयान किया और कहाः रात मैंने जनाबे ख़त्मी मरतबतस 0 को बिल्कुल उसी सरापा के साथ कुर्सी पर बैठे देखा जैसे ज़ाकेरीन और वाएज़ीन मिम्बरों पर बयान करते रहते हैं। बड़े बड़े ओलमा और बुजुर्गाने दीन ने जिनसे मेरी कोई वाक़फ़ियत नहीं थी चारों तरफ़ से उनको घेरे रखा था। ऐसे में , मैंने देखा कि अचानक तुम उस मजमे में दाख़िल हो गये। तुम्हारे चेहरे ते नूर की शुआयें फू़ट रही थी जब तुम रिसालतमाब (सल्लल्लाहू अलैहे व आलेहि वसल्लम) के सामने पहुँचे तो उन्होंने खड़े होकर तुम्हारी ताज़ीम की और माथा घूमा और कहाः “ ऐ मेरे हमनाम मोहम्मद तुम मेरे इल्म के वारिस और मुसलमानों के दीनी और दुनियावी उमूर को संवारने में मेरे जानशीन हो ”

यह सुन कर तुमने कहाः “ या रसूल अल्लाह। (सल्लल्लाहू अलैहे व आलेहि वसल्लम) ” लोगों पर अपने इल्म को ज़ाहिर करते हुए मुझे ख़ौफ़ महसूस होता है। ”

जनाबे रिसालतमाबस 0 ने फ़रमायाः ख़ौफ़ को अपने दिल में जगह न दो क्योंकि जो कुछ तुम अपने बारे में सोचते हो , उससे कहीं ज़्यादा साहिबे मर्तबा हो।

मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब ने मेरे इस मनगढंत ख़्वाब को सुना तो खुशी से फूला नहीं समाया। वह बार-बार मुझसे पूछता था क्या तुम्हारे ख़्वाब सच्चे होते हैं ? और मैं उसे मुसलसल इत्मिनान दिलाता रहा। मैंने महसूस किया कि ख़्वाब के तज़किरे के साथ ही उसने अपने दिल में नये मज़हब के एलान का मुसम्मम इरादा कर लिया है।