हेमफरे के ऐतेराफात

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हेमफरे के ऐतेराफात

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

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हेमफरे के ऐतेराफात

हेमफरे के ऐतेराफात

हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

इसी दौरान लंदन से मुझे ख़त पहुँचा कि मैं फौरन करबला और नजफ़ के उन मुक़द्दस शहरों की तरफ़ रवाना हो जाऊँ जो शियों के लिये क़िबल-ए-आरज़ू और इल्म व रुहानियत के मराकज़ हैं। अब सबसे पहले मैं मुक़द्दमे के तौर पर उन दोनों मुक़द्दस शहरों का एक निहायत मुख़्तसर तारीख़ी पसमंज़र पेश करना चाहता हूँ।

अहले तशीअ के पहले इमाम और आम्मतुल मुस्लेमीन के चौथे ख़लीफ़ा हज़रत अलीअ 0 की तदफ़ीन शहरे नजफ़ की अहमियत का सरनौहा-ए-आगाज़ है और यहीं से इस बस्ती की वुजूद अमल में आता है और यह रोज़ बरोज़ फैलती चली जाती है और यह सिलसिला आज तक जारी है। हज़रत अलीअ 0 की शहादत के वक़्त मरक़ज़े ख़िलाफ़त यानि कूफे से नज़फ़ का फ़सिला छः किलो मीटर था़ , जिसे पैदल एक घण्टे में तय किया जा सकता था। आप की शहादत के बाद जनाबे हसनैनअ 0 आप के ज़नाजे को पोशीदा तौर पर उस दूर उफ़तादा इलाक़े में लाये जिसे आज नज़फ़ कहा जाता है और रात की तारीकी में आप को दफ़्न कर दिया। अब यह शहर बैनुल नहरैन का सबसे बड़ा इलाक़ा कहलाता है और उसकी आबादी कूफ़ा से कहीं ज़्यादा है। इस जगही अहले तशीअ का हौज़ा-ए-इल्मिया क़ायम है और दुनिया भर के ओलमा ने इस शहर में इख़्तियार किया है। हर साल इसके बाज़ारों , मदरसों और घरों में इज़ाफ़ा होता चला जा रहा है। शिया ओलमा खुसूसी एहतेराम के हामिल हैं। इस्तनबोल में मुक़ीम उस्मानी ख़लीफ़ा मुन्दर्जा ज़ैल वुजूहात की बिना पर उनका बड़ा एहतेराम करता था।

1. एहतेराम ईरान और तुर्की के दोस्ताना रवाबित में इस्तेहकाम का बाइस था और इस तरह दोनों मुमालिक में जंग का ख़टका ख़त्म हो जाता था।

2. नजफ़ के ईतराफ़ व अकनाफ़ में बहुत से क़बाएल आबाद थे जो सबके सब मुसल्लह और सख़्ती से शिया मराजे के पैरुकार थे। उनके पास फौ़ज़ी असलहा और फ़ौजी तरबियत नहीं थी। यह लोग क़बाएली ज़िन्दगी के आदी थे , लेकिन ओलमा की तौहीन बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। लेहाज़ा अगर उस्मानियों की तरफ़ से ओलमा की बेएहतेरामी अमल में आती तो वह सब के सब उस्मानियों के ख़िलाफ़ मुत्तहिद हो जाते और यह कोई अक़लमन्दी की बात न थी कि इस्तनबोल की ख़िलाफ़त ऐसा ख़तरा अपने लिये मोल लेती।

3. सारी दुनिया-ए-तशय्यो में शिया ओलमा की मरजइयत क़ायम थी लेहाज़ा अगर उस्मानियों की तरफ़ से ज़र्रा बराबर भी उनकी एहानत होती तो ईरान , हिन्दुस्तान , अफ्रीका और दुनिया के तमाम मुमालिक के शिया बरफ़रोख़्ता होता और यह बात तुर्क हुकूमत के हक़ मे न थी।

अहले तशय्यों का दूसरा मुक़द्दस शहर कर्बला ए मोअल्ला है। यह शहर भी हज़रत अलीअ 0 और हज़रत फ़ातेमास 0 मोअल्ला है। यह शहर भी हज़रत अलीअ 0 और हज़रत फ़ातेमास 0 के फ़रज़न्द हज़रत इमाम हुसैनअ 0 की शहादतद के बाद आज तक मुसलसल फैल रहा है। इराक़ के लोगों ने इमाम हुसैनअ 0 की शहादत के बाद आज तक मुसलसल फैल रहा है। इराक़ के लोगों ने इमाम हुसैनअ 0 के दात दी कि आप मुसलमानों के अम्रे ख़िलाफ़त को संभालने के लिये हिजाज़ से कूफ़ा तशरीफ़ लायें , लेकिन ज्योंहि आपअ 0 अपने ख़ानदान के साथ कर्बला पहुंचे जो कूफ़े से तक़रीबन 72 किलो मीटर के फ़ासले पर है। इराक़ के लोगों का मिज़ाज बदल गया और वह यज़ीद के हुक्म पर इमामअ 0 के ख़िलाफ़ लड़ने पर आमादा हा गये।

यज़ीद बिन माविया अमवी ख़लीफ़ा था , जिसकी शाम पर हुकूमत थी। अमवी लश्कर , हुसैनअ 0 और उनके घराने से बरसरे पैकार हुआ और आख़िरकार उन सब को क़त्ल कर दिया। इराक़ियों की वह बुज़दिली और वज़ीदी लश्कर की पलीदी और संगादिली इस्लामी तारीख़ की सबसे ज़्यादा शर्मनाक दास्तान है। इस वाक़िये के बाद से आज तक दुनिया के तमाम शिया कर्बला को ज़ियारत इबादत रुहानी लगाओ और तवज्जो का मरकज़ बनाये हुए हैं और हर तरफ़ से जोक़ दर जोक़ वहाँ पहुँचते हैं। कभी तो इतना मजमा होता है कि तारीख़ मसीहियत में कभी ऐसा इज्तेआम देखने में नहीं आया। कर्बला के शहर में भी शिया ओलमा और मराजे दीने इस्लाम की तालीम व तरवीज़ में हमेशा मसरुफ़ नज़र आते हैं यहां के दीनी मदरसे तालिब इल्मों से भरे रहते हैं। कर्बला और नजफ़ बिल्कुल एक दूसरे के मुमासिल हैं। दजल व फुरात इराक़ के दो बड़े दरिया हैं जिनका तरचश्मा तुर्की का एक कोहिस्तानी इलाक़ा है। बैनुल नहरैन की खेतियां इसी के दम से आबाद हैं और यहां के लोगों की खुशहाली इन्हीं दरियाओं की मरहूने मिन्नत हैं।

जब मैं लंदन वापस गया तो मैंने नो आबादयाती इलाक़ों की वज़ारत को यह पेशकश की कि वह हुकूमते इराक़ को अपना फ़रमांबरदार बनाने के लिये दजला व फुरात के संगम को कन्ट्रोल करे और शोरिश और बग़ावत के मौक़ों पर उसके रास्ते को तब्दील करे ताकि वहां के लोग अंग्रेज़ों के इस्तेमारी मक़ासिद को मानने पर मजबूर हो जायें।

मैं एक बरबरी सौदागर के भेंस में नजफ़ पहुँचा और वहाँ के शिया ओलमा से रस्म व राह बढ़ाने के लिये उनकी दर्सी मजलिसों और मुबाहिसे की महफिलों में शिरकत करने लगा। महफ़िलें बेशतर औक़ात मुझे अपने अन्दर जज़्ब कर लेती थइं क्योंकि उनमें क़ल्ब व ज़मीर की पाकी हुक्म फ़रमा थ। मैंने शिया ओलमा को इन्तेहाई पाक दामन और परहेज़गार पाया लेकिन अफ़सोस कि उनमें ज़माने की तब्दीली के असरात का फ़ुकदान था और दुनिया के इन्क़ेलाबात ने उनकी फ़िक्र में कोई तब्दीली पैदा नहीं की थी।

1. नजफ़ के ओलमा मराज़े उस्मानी हुक्काम के शदीद मुख़ालिफ़ थे। इस लिये नहीं कि वह सुन्नु थे बल्कि इस लिये कि वह ज़ालिम थे और अवाम उनसे नाख़ुश थे और अपनी निजात के लिये उनके पास कोई रास्ता नहीं था।

2. वह लोग अपना तमाम वक़्त दर्स व तदरीस और दीनी उलूम व मुबाहिस पर सर्फ़ करते और कुरुने वुस्ता के पादरियों की तरह उन्हें ज़दीद उलूम से दिलचस्पी नहीं थी और अगर कुछ जानते भी थे तो वह उनके लिये न जानने के बराबर था।

3. उन्हें दुनिया के सियासी वाक़िआत का क़तअन इल्म न था और इस क़िस्म के मसाएल पर सोचना उनके नज़दीक बिल्कुल आबस और बेहूदा था। उन्हें देख कर मैं आप ही आप कहता थाः वाक़ई यह लोग कितने बदबख़्त हैं। दुनिया जाग चुकी हैं मगर यह अभी ख़्वाबे ख़रगोश ही में पड़े हैं। शायद कोई तबाहकुन मौज ही उनको इस ख़्वाबे गरां से बेदार करे। मैंने बाज़ ओलमा से ख़िलाफते उस्मानिया के ख़िलाफ तहरीक चलाने पर गुफ़्तगू की , लेकिन उन्होंने अपनी तरफ़ से कोई रद्दे अमल ज़ाहिर नहीं किया और ऐसा मालूम होता था कि वह लोग इस क़िस्म के मसाएल से दिलचस्पी नहीं रखते। बाज़ लोग मेरा मज़ाक उड़ाते थे , और मेरी बात का यह मफ़हूम निकालते थे कि मैं दुनिया के हालात को दिगरगों और नज़मे आलम को बरहम करना चाहता हूँ। इन ओलमा की नज़र में ख़िलाफ़त मक़दूर व महतूम थी। उनका अक़ीदा था कि उन्हें ज़हूरे महदी मोऊदअ 0 (अज्जल्लाहा फ़राजा) से पहले आले उस्मान के ख़िलाफ कोई इक़दाम नहीं करना चाहिये। महदी मोऊदअ 0 शियों के बारहवें इमामअ 0 हैं जो बचपन ही से पर्दा-ए-ग़ैब में चले गये हैं और अबी तक ज़िन्दा हैं। आख़री ज़माने में उनका ज़हूर होगं और वह उस वक़्त दुनिया को अद्ल व इंसाफ़ से भर देंगे जब वह मुकम्मल तौर पर ज़ुल्म व ज़ियादती से भर चुकी होगी।

मैं इसी तरह का अक़ीदा रखने वाले इस्लामी दानिशमन्द के बारे में सख़्त हैरान था। उनका अक़ीदा बईयेना क़शरी ईसाईयों का अक़ीदा था जो क़यामे अद्ल के लिये हज़रत ईसाअ 0 की बाज़गश्त के क़ाएल थे। मैंने एक आलिम से पूछाः क्या आप का यह अक़ीदा नहीं है कि अभी से ज़ुल्म व जि़यादती के ख़िलाफ़ रिज़्म आरा हो कर दुनिया में इस्लाम का बोल बाला किया जाये ? बिल्कुल उसी तरह जैसे पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहू अलैहे व आलेहि वसल्लम) ने ज़ालिमों के ख़िलाफ़ जेहाद किया था ?

उन्होनें फ़रमायाः पैग़म्बरे अकरम (सल्लल्लाहू अलैहे व आलेहि वसल्लम) ने इसी काम के लिये मामूर किया था और इसी लिये उनमें इस काम को अंजाम देने की तवनाई थी।

मैंने कहाः क्या कुरआन यह नहीं कहताः “ अगर तुम अल्लाह की मदद करोगे तो अल्लाह भी तुम्हारा मददगार होगा। ” (सूर-ए-मोहम्मदस 0 आयत 7) लेहाज़ा तुम भी अल्लाह की तरफ़ से ज़ालिमों के ख़िलाफ़ तलवार उठाने पर मामूर हो।

आख़िरक़ार जच होकर उसने कहाः “ तुम एक तिजारत पेशा आदमी हो और उन मौज़ूआत पर गुफ़्तगू के लिये एक सिलसिलए इल्म की ज़रुरत है जिसके लिये तुम मुनासिब नहीं हो। ”

अब ज़रा नजफ़ की तरफ़ जायें और हज़रत अलीअ 0स 0 के रोज़े के बारे में गुफ़्तगु करें। बड़ी पुरशिकोह और बाअज़मत आरामगाह है। पूरी इमारत सनाई , नक़्काशी , आईनाकारी और मुख़्तलिफ सजावटों का बेमिसाल शाहकार है। इतराफ़े मज़ार बड़े बड़े पुरशिकोह कमरे , तिलाई नाप का अज़ीम गुम्बद ओर सोने के दो मीनारे एक अजीब मंज़र पेश करती हैं। शिया हज़रात हर रोज गिरोह दर गिरोह रोज़े की ज़ियारत के लिये हाज़िर होते हैं और वहां की नमाज़े जमाअत में शिरकत करते हैं। वह लोग बड़े वलिहाना अन्दाज़ में इख़लास व इरादत का मुजस्सिमा बन कर ज़रीह को बोसा देते हैं दाख़िले से पहले आशिक़ाने इमाम दरवाज़े की चौखट पर अपने आप को गिरा देते हैं और बड़े एहतेराम से बाहरगाह की ज़मीन को चूमते हैं। फिर इमाम अलीअ 0 पर दुरुद भेजते हैं और इज़्ने दख़ूल पढ़ कर हरम में दाख़िल होते हैं। हरम के चारों तरफ़ एक अज़ीमुश्शान सहन है जिसमें बहुत से कमरे बने हुए हैं जो ओलमा-ए-दीन और ज़ायरीने हरम की इक़ामतगाह है।

करबला-ए-मोअल्ला में दो मशहूर आरामगाहें हैं जो थोड़े से इख़्तिलाफ़ के साथ नजफ़ में वाक़े हज़रत अलीअ 0 की आरामगाह के तर्ज़ पर बनाई गयी है। पहली आरामगाह इमाम हुसैनअ 0 की और दूसरी हज़रतअ 0 की है। कर्बला के ज़ायरीन भी नजफ़ की तरह रोज़ाना हरम में हाज़री देते हैं और इमामअ 0 की ज़ियारत करते हैं। कर्बला मजमूई तौर पर नजफ़ से ज़्यादा दरमियान दरिया के बहते पानी ने उसकी खूबसूरती में चार चाँद लगा दिये हैं।

इन शहरों की वीरानी और आशफ़ताहाली ने हमारी कामयाबी के मवाक़े फ़राहम कर रखे थे। लोगों की हालतेज़ार को देख कर यह अन्दाज़ा लगाया जा सकता था कि उस्मानी हुक्काम ने इन शहरों के रहने वालों के साथ किन-किन जराएम का इस्तेकाब किया और कैसी कैसी ज़ियादतियाँ कीं। यह लोग बड़े नादान , लालची और खुदसर थे और जो चाहते थे कर गुज़रते थे। ऐसा मालूम होता था कि इराक़ के लोग उनके ज़र ख़रीद गुलाम हैं पूरी क़ौम हुकूमत से नालां थी और जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ शिया हज़रत अपनी आज़ादी के छिन जाने के बावजूद हुक्काम के जुल्म व सितम को सब्र व सुकून से सह रहे थे और कोई रद्दे अमल ज़ाहिर नहीं कर रहे थे। अहले सुन्नत हज़रात का भी यही हाल था। वह लोग अपनी सरज़मीन पर तुर्क गवर्नर के तसल्लुत से बहुत नाखुश थे। ख़ास तौर पर जब्कि उनकी रगों में अरब अशराफ़ियत का ख़ून दौड़ रहा था। उधर ख़ानदाने रिसालतस 0 से वाबस्तगी रखने वाले अफ़राद हुकूमती इन्तेज़ामात में अपने आप को उस्मानी गवर्नर से ज़्यादा हक़दार समझते थे।

तमाम बस्तियाँ वीरान थीं। गर्दों गुबार बस्ती वालों का मुक़द्दर बन चुका था। हर तरफ़ बदनज़मी का दूर दौरा था। रास्तों पर लुटेरे काबिज़ थे और इस ताक में बैठे रहते थे कि हुकूमत की सरपरस्ती से आज़ाद कोई क़ाफ़िला वहां से गुज़रे और वह उन्हें लूटना शुरु कर दें लेहाज़ा बड़े बड़े क़ाफ़िले सिर्फ़ उसी वक़्त मंजिले मक़सूद तक पहुंच सकते थे जब उन्हें मुसल्लेह आदमियों के ज़रिये हुकूमत की हिमायत हासिल हो।

दूसरी तरफ़ क़बाएली झड़पों में भी इज़ाफ़ा हो गया था। कोई दिन ऐसा न ता जिसमें एक क़बीला दूसरे क़बीले पर हमला आवर न हो और क़त्ल व ग़ारतगरी का बाज़ार गर्म न होता हो। रोज़ाना कई अफ़राद मौत के घाट उतर जाते थे। नादानी और बेइल्मी ने पूरे इराक़ को अजीब तरह अपनी लपेट में ले रखा था। यह वाक़िआत कुरुने वुस्ता में पादरियों के दौर की याद ताज़ा कर रहे थे। सिर्फ़ नजफ़ और कर्बला के ओलमा इससे मुस्तसना थे या फिर किसी क़दर तालिबे इल्म या वह लोग जिनका उन ओलमा से मेल जोल था वगर न सबके सब जाहिल थे। मुल्की इक़्तेसाद का पहिया जाम हो गया था और बीमारी , बेरोज़गारी , ज़ेहालत और बदबख़्तियों ने शिद्दत से मुतवस्सित लोगों का घर देख लिया था। ममतलिकात का शीराज़ा बिख़र चुका था। हर तरफ एक हंगामा बपा था। हुकूमत और अवाम के दरमियान मुफ़ाहिमत की कमी थी और वह एक दूसरे को अपना दुश्मन समझते थे। उनका एक दूसरे के साथ तआवुन नहीं था। ओलमा-ए-दीन , इलाही मसाएल में इस तरह ग़र्क़ थे कि दुनिया की ज़िन्दगी की नज़रों से ओझल हो गयी थी।

ज़मीन ख़ुश्क और खेतियाँ उजाड़ थीं। दजला व फुरात के दोनों दरिया खेतों को सेराब करने के बजाये एक आशाफ़ता सर मेहमान की तरह प्यासी ज़मीन के बीच से बसरअत गुज़र रहे थे। मुल्क की यह आशफ़ता हाली यक़ीनन एक इन्क़ेलाब का पेश ख़ेमा थी।ॉ

मुख़्तसर यह कि मैंने कर्बला और नजफ़ में चार महीने गुज़ारे। नजफ़ में , मैं ऐसी बीमारी में मुब्तिला हुआ कि जीने की औस टूट गयी। तीन हफ़्ते तक मेरी बुरी हालत थी। आख़िरकार मुझे शहर के एक डाक्टर से रुजू करना पड़ा। उसने मेरे लिये कुछ दवायें तजवीज़ की जिनके इस्तेमाल से मैं बतदरीज , बेहतर होता चला गया। उस साल गर्मी भी बड़ी शदीद और नाक़बिले बर्दाश्त थी और मैंने अपनी बीमारी का तमाम वक़्त एक तहख़ाने में गुज़ारा जो किसी क़दर पुरसुकून और ठण्डा था। मेरा मालिके मकान मेरे दिये हुए मुख़्तसर पैसे से मेरे लिये दवा दारु और खाने पीने की इन्तेज़ाम करता था। वह हज़रत अलीअ 0 के ज़व्वारों की ख़िदमत को तक़रुबे इलाही का ज़रिया समझता था। बीमारी के इब्तिदाई दोनों में मेरी ग़िज़ा मुर्ग़ का सूप था लेकिन बाद में डाक्टर की इजाज़त से मैंने गोश्त और चावल भी इस्तेमाल करना शुरु किया।

बीमारी से किसी कद्र इफ़ाक़े के बाद मैं बग़दाद रवाना हुआ और वहां जा कर मैंने कर्बला , नजफ , हिल्ला और बग़दाद से मुतअल्लिक अपने मुशाहिदात के तक़रीबन सो सफ़हात पर मुश्तमिल एक रिपोर्ट में नो आबादयाती इलाकों की विज़ारत के लिये रक़म किया और लंदन भेजने के लिये उसे बग़दाद में मज़कूरा विज़ारत के नुमाइन्दा के सुपुर्द किया और अपने रुकने या लंदन वापस जाने से मुअल्लिक़ नये एहकामात के इन्तेज़ार में बै़ठा रहा।

यहां यह बीत भी बताता चलूं कि मैं वापसी के लिये बहुत बेक़रार था , क्योंकि अपने देश , ख़ानदान और अज़ीज व अक़ारिब से छूटे मुझे एक अरसा हो चुका था। ख़ास तौर पर रह रह कर रास्पोटीन का ख्याल आ रहा था जो मेरी इराक़ रवानगी के कुछ अर्से बाद ही इस दुनिया में वारिद होआ था। इस नो मौलूद की याद मुझे बहुत बेचैन कर रही थी। इसी बाएस मैंने दरख़्वास्त में एक मुख़्तसर अर्से के लिये वापस लंदन आने के लिये इजाज़त चाही थी। मुझे इराक़ में तीन साल का अर्सा हो चुका था। बग़दाद में नो आबादयाती इलाकों की विज़रात के नुमाइन्दे का इसरार था कि मैं बार बार उसके पास न जाऊँ क्योंकि इस तरह मुम्किन है लोग मुझे शक की निगाह से देखने लगे और इसी बात को मद्दे नज़र रखते हुए मैंने दजला के करीब एक मुसाफ़िर ख़ाने को अपना ठिकाना बनाया। लो आबादयाती इलाक़े के नुमाइन्दा ने कहा था कि लंदन से जवाब आते ही मुझे बाख़बर कर दिया जायेगा।

बग़दाद में अक़ामत के दौरान मैंने उसे शहर का आम हालतों में उस्मानी हुकूमत के पाया-ए-तख़्त “ कुस्तुनतुनिया ” से मवाज़ना किया तो मुझे उन दिनों में नुमायां फ़र्क़ महसूस हुआ जो अरबों की निस्बत उस्मानियों की दुश्मनी और बदनियती का ग़म्माज़ था। उन्होंने इराक़ी शहरों और इराक़ी आबादियों को हिफ़ाज़ाने सेहत के तमाम उसूलों के बरख़िलाफ़ ग़िलाज़त और गन्दगी का मिस्किन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

बसरा से कर्बला और नजफ़ पहुँचने के चन्द माह बाद मुझ मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब का ख्याल आया। मैं उसकी तरफ़ से बड़ा फ़क्रमन्द था। मैंने उस पर बड़ी मेहनत की थी , लेकिन मुझे उस पर भरोसा नहीं था , क्योंकि वह मतलूने मिज़ाज वाक़ै हुआ था। इसके अलावा वह गुस्से का भी बड़ा तेज़ था और ज़रा ज़रा सी बात पर आपे से बाहर हो जाया करता था। इन ख़ुसुसियात के पेशे नज़र मुझे धड़का था कि कहीं मेरी मेहनत अकारत न जाये और जिस ख़्वाहिश को मैं एक अर्से से अपने सीने में लिये फिर रहा था उस पर पानी न फिर जाये।

जिस दिन में बसरा कि सिम्त रवाना हो रहा था वह तुर्की जाने पर बज़िद था कि वहां जाकर उस शहर के बारे में मालूमात हासिल कर। मैंने ब़ड़ी सख़्ती से उसे उस सफ़र से बाज़ रखा और कहा मुझे डर है कि तुम वहाँ जा कर कोई ऐसी उलटी सीधी बात न कर बैठो जिससे तुम पर कुफ्र व इलहाम का इलज़ाम आयद हो और तुम्हार ख़ून रायगां जाये लेकिन सच्ची बात यह थी कि मैं नहीं चाहता था कि वहां जा कर वह बाज़ ओलमा-ए-अहले सुन्नत से कोई राब्ता क़ायम करे क्योंकि इसमें इस बात का ख़तरा था कि कहीं वह लोग अपनी मोहकम दलीलों के ज़रिये दोबारा उसे अपने जाल में न फांस लें और मेरे तमाम मन्सूबे धरे के धरे रह जायें।

जब मैंने देखा कि मोहम्मद बसरा से जाने पर मुसिर है तो मजबूरन मैंने उसे ईरान जने पर उभारा कि वहां जा कर वह शीराज़ और इस्फ़ेहान की सैर करे।

यहाँ इस बात की वज़हात भी ज़रुरी है कि उन दिनों शहरों के रहने वाले शिया मज़हब के पैरुकार हैं और यह बात बईद अज़ क़यास थी कि शेख़ उनके अक़ाएद से मुतस्सिर हो। मुझे इस बारे में पूरा इत्मिनान था , क्योंकि मैं शेख़ को अच्छी तरह जानता था।

रुख़सत होते हुऐ मैंने उससे पूछाः “ तक़य्या के बारे में तुम्हारा क्या ख़्याल है ” ?

उसने कहाः “ दुरुस्त हैं क्योंकि पैग़म्बरे अकरमस 0 के एक सहाबी अम्माररजि 0 उन मुशरेकीन के डर से जिन्होंने उनके माँ बाप को क़त्ल कर दिया था अपने आपको मुशरिक ज़ाहिर करते रहे और ख़त्म मरतबतस 0 ने जनाबे अम्मार यासिररजि 0 की इस रविश की तरफ़ इशारा भी किया है। ”

मैंने उससे कहाः “ पस तुम पर भी वाजिब है कि ईरान जा कर तक़य्ये को न भूलो और अपने आपको ख़ालिस शिया ज़ाहिर करो ताकि एतराज़ात से बचे रहो और ओलमा की सोहबत भी तुम्हें हासिल रहे और साथ ही साथ ईरानियों के आदाब व रुसूम भी तुम पर खुल जायें क्योंकि आईन्दा चल कर यह मालूमात तुम्हारे बहुत काम आयेगी और तु्म्हें अपने मक़़ासिद में ब़ड़ी कामयाबी अता करेगी ” ।

इस गुफ्त़गू के बाद मैंने उसे कुछ रक़म “ ज़कात ” के उन्वान से दी। ज़कात एक तरह का इस्लामी टैक्स है जिसे सरमायादारों से वसूल किया जाता है ताकि उस आमदनी को उम्मत के फ़लाह व बहबूद पर ख़र्च किया जाये। जाते हुए मैंने रास्ते ही में उसे एक घोड़ा ख़रीद कर दिया क्योंकि उसे उसकी सख़्त ज़रुरत थी और फिर मैं उससे अलग हो गया और उस दिन से अब तक उसकी कोई ख़बर नहीं है और नहीं मालूम उस पर क्या बीती होगी। मुझे ज़्यादा तशवीश इस लिये भी थी कि हमने बसरे से निकलते वक़्त यह तय किया था कि हमें वापस असरा ही पहुंचना है और अगर हममें से कोई वहां न पहुँच सके तो अपनी कैफ़ियत “ अब्दुर रज़ा तुरखान ” को लिख भेजे ताकि दूसरा उससे बाख़बर हो मगर अब तक उसकी तरफ़ से कोई इत्तिला नहीं मिली थी।

कुछ अर्से इन्तेज़ार के बाद बिलआख़िर नोआबादयाती इलाकों की विज़ारत से ज़रुरी ऐहकामात बग़दाद पहुंचे और मेरी हुकूमत ने मुझे फ़ौरी तौर पर तलब किया। लंदन पहुंचते ही नौआबादयाती इलाक़ों की विज़ारत के सेक्रेट्री और आला ओहदादारों के साथ हमने एक कमीशन तशकील दिया। मैंने इस जलसे में अपने फराएज़ , इक़दामात और मुतालिआत पर मब्नी रिपोर्ट को लंदन हुक्काम के सामने पेश किया और उन्हें बैनुल नहरैन की कैफ़ियत से भी आगाह किया।

इराक़ से मुतअल्लिक़ मेरी फ़राहमकर्दा मालूमात और मेरी कारगुज़ारियों ने सबके दिल जीत लिये थे। पहले भी इराक़ से मैंने कई रिपोर्ट उनके लिये रवाना की थी और उन सबसे वह मुतईन थे। उधर सफ़िया ने भी एक रिपोर्ट भेजी थी जो पूरी तरह मेरी रिपोर्ट की ताईद करती थी। इसके अलावा मुझे यह बात भी मालूम हुई कि विज़ारतख़ाना ने मेरी निगरानी के लिये कुछ मख़सूस अफ़राद को मेरे पीछे लगा रखा था जो सफ़र व हज़र में मुझ पर निगाह रखते थे। उन अफ़राद ने भी अपनी रिपोर्टों में मेरे तर्ज़ अमल और दिलचस्पी से रिज़ाइयत की इज़हार किया था और उन रिपोर्टों की तस्दीक व ताईद की थी जिन्हें मैंने लंदन मालूम हुई कि विज़ारतख़ाना ने मेरी निगरानी के लिये कुछ मख़सूस अफ़राद को मेरे पीछे लगा रखा था जो सफ़र व हज़र में मुझ पर निगाह रखते थे। उन अफ़राद ने भी अपनी रिपोर्टों में मेरे तर्ज़ अमल और दिलचस्पी से रिज़ाइयत की इज़हार किया था और उन रिपोर्टों की तस्दीक व ताईद की थी जिन्हें मैंने लंदन भेजा था। इस मर्तबा कुल्ली तौर पर मैदान मेरे हाथ और सब मुझशे खुश थी यहाँ तक कि उस दौर के सेक्रेट्री ने वज़ीर से मेरी मुलाक़ात के लिये वक़्त लिया और मैं उसके साथ वज़ीर से मिलने गया। मुझे देखते ही वज़ीर के चेहरे पर एक गोना शगुफ़्तगी आ गयी और ब़ड़े पुरतपाक अन्दाज़ में खुश आमदीद कहते हुए उसने मुझसे हाथ मिलाया। यह मुलाक़ात गुज़िश्ता की बेजान और मुख़्तसर करती थी कि मैंने उसके दिल में अपने लिये जगह पैदा कर ली है।

वज़ीर ख़ास तौर से मेरी महारत का मोअतरिफ़ था जिसकी बुनियाद पर मैंने शेख़ मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब को अपने कब्ज़े मे कर लिया था। मुझे याद है कि उसने अपनी गुफ़्तगू के दौरान मुझसे कहा थाः “ मोहम्मद पर तसल्लुत नोआबादयाती विज़ारत का सबसे अहम मसअला था ” उसने बड़ी शिद्दत से यह ताकीद की थी कि मैं मोहम्मद को एक मुनज़्जम मनसूबे के तहत उन उमूर से आगाह करुं जिन्हें आईन्दा चल कर उसे हमारे लिये , अंजाम देना है। वह बार-बार इस बात का एतराफ़ कर रहा था कि अज़ीम बर्तानिया के लिये मेरी तमाम ख़िदमात शे़ मोहम्मद जैसे शख़्स की जुस्तजू और उस पर अपना असर व नुफूज़ करने के मुक़ाबिले में पासिंग भी नहीँ। नोआबादयाती इलाक़ों के वज़ीर को जब इस बात का इल्म हुआ कि मैं शेख़ की गुमशुदकी के बारे में बहुत परेशाह हूँ तो उसने निहायत इत्मिना से जवाब दियाः “ परेशान होने की ज़रुरत नहीं। तुमने जो कुछ शेख को पढाया था वह अभी तक उसे याद है और हमारे आदमी इस्फ़ेहान में उससे राब्ता क़ायम रखे हुए हैं। उनकी रिपोर्टों से मालूम होता है कि शेख़ अभी तक अपनी डगर पर क़ायम है। मैंने आप ही आप कहा शेख़ ने अपने इस गुरुर व नख़ूत के साथ अंग्रेज़ जासूस को क्योंकर इजाज़त दी होगी कि वह उसके बारे में मालूमात फ़राहम कर सके। इस मौजू़ पर वज़ीर से बात चीत करते हुए मुझे ख़ौफ़ महसूस हुआ कि कहीं वह बुरा न मान जाये। बाद में शेख़ से दोबारा मुलाक़ात पर मुझे सब कुछ इल्म हो गया और उसने तमाम माजरा कह सुनाया। उसने बताया कि इस्फ़ेहान में उसकी दोस्ती अब्दुल करीम नामी एक शख्स से हुई जो अपने आपको अहले क़लम ज़ाहिर करता था और उसी ने शेख़ पर अपना सिक्का बिठा कर उसके तमाम राज़ मालूम किये थे। इसके साथ ही सफ़िया भी कुछ अर्से बाद इस्फ़ेहान आई और उसने मज़ीद दो महीने के लिये थी बल्कि अब्दुल करीम ने उसे अपने साथ रखा हुआ था। शीराज़ में अब्दुल करीम ने शेख़ के लिये सफ़िया से भी ज़्यादा ख़ूबसूरत लड़की का इन्तेजाम किया था और वह शीराज़ के एक यहूदी ख़ानदान की हसीन व जमील लड़की थी जिसका नाम आसिया था। अब्दुल करीम इस्फ़ेहान के एक मादर पिदर आज़ाद ईसाई का फ़र्ज़ी नाम था और वह भा आसिया का तरह ईरान में बर्तानिया के नौआबादयाती इलाक़ों की विज़ारत का एक क़दीम मुलाजि़म था।

मुख़्तसर यह कि अब्दुल करीम , सफ़िया , आसिया और राक़िमुल हुरुफ़ ने मिल कर अपनी रात दिन की कोशिशों से शेख़ मोहम्मद बिन अब्दुल वहाब को नौआबादयाती इलाकों की विज़ारत की ख़्वाहिशात के ऐन मुताबिक़ ढाला और आईऩ्दा की प्लानिंग को रु बा अमल लाने की ज़िम्मेदारी उठाने पर आमादा किया। यहां यह नुकता भी काबिले ज़िक्र है कि वज़ीर से मुलाक़ात के मौक़े पर सेक्रेट्री के अलावा विज़ारत के दो और आला ओहदादार भी वहां मौजूद थे जिन्हें उस वक़्त तक मैं नहीं जानता था। वज़ीर ने इजलास के इख्तिताम पर मुझसे कहाः “ अब तुम इंग्लिस्तान की नोआबादयाती विज़ारत के दो और आला ओहदादार भी वहां मौजूद थे जिन्हें उस वक़्त तक मैं नहीं जानता था। वज़ीर ने इजलास के इख़्तिमाम पर मुझसे कहाः “ अब तुम इंग्लिस्तान की नोआबादयाती विज़ारत के सबसे बड़े इफ्तिख़ारी निशान के हक़दार हो और यह वह एजाज़ा है जिसे हमारी हुकूमत सफ़े अव्वल के जासूस को दिया करती है। ” ख़ुदा हाफ़ज़ी के मौक़े पर उसने क़तई अन्दाज़ में कहा ” : मैंने सेक्रेट्री से कह दिया है कि वह तुम्हें हुकूमत के बाज़ “ पोशीदा ” और “ राज़दराना ” मसाएल आगाह करे ताकि तुम अपनी जिम्मेदारियों को ज़्यादा बेहतर तरीक़े से अंजाम दे सको। ”

वज़ीरे की खुशनूदी के सबब मेरी दस दिन की छुट्टी मंजूर हुई और मुझे अपनी बीवी और एक अदद बच्चे से मिलने का मौक़ा हाथ आया। मेरा लड़का जो अब तीन साल का हो चुका था , बिल्कुल मेरा हसमशकल था और बाज़ अल्फ़ाज़ बड़े मीठे अंदाज़ में बोलने लगा था। उसने चलना भी सीख लिया था। मैं हक़ीक़तन अपने दिल के टुकड़े को ज़मीन पर चलता फिरता महसूस कर रहा था। अफसोस कि खुश के यह लम्हात बड़ी तेज़ी से गुज़र रहे थे। बीवी और बच्चे के साथ गुजरने वाले यह पुरमुसर्रत लम्हात वाक़ई नाक़ाबिले बयान हैं और ज़िन्दगी की तमाम लज्ज़तें उसे आगे हैज हैं मेरी एक उम्र रसीदा चची थी जिसकी मुझ पर बचपन ही से नवाज़िशात और मेहरबानियां रही हैं। मैं उससे मिल कर किस क़द्र खुश हुआ , इसका अंदाज़ा किसी को नहीं हो सकता। मेरी उससे यह आख़री मुलाकात थी इस लिये कि दस दिन की छुट्टियों के बाद जब मैं तीसरी मर्तबा अपने सफ़र पर रवाना हुआ तो निहायत अफ़सोस के साथ मुझे उसकी मौत की इत्तिला मिली।

मेरी दस दिन की यह छुट्टियाँ पलक झपकते गुज़र गयीं। यह एक तल्ख़ हक़ीक़त है कि ज़िन्दगी के पुरमर्सत लम्हात हमेशा बड़े तेज़ी से गुज़रते हैं और मुसीबत की घड़ियाँ अपने दामन में सालों का फ़ासिला रखती हैं। लंदन के पुरमसर्रत लम्हात में मैंने अपनी नजफ़ की बीमारी को याद किया जिसका हर लम्हा मेरे लिये एक सदी बन गया था। मैं किसी तरह भी मुसीबत के उन अय्याम को भुला नहीं सकता। खुशी के लम्हात को इतना दवाम नहीं कि वह मुीबतों के दिनों की कोफ़्त को यादों के दरीचों में न आने दें।

दस दिनों की छुट्टियां मनाने के बाद आइन्दा के लाएहा अमल से बाख़र होने के लिये मैं बादिले ना ख़्वास्ता वज़ारत ख़ज़ाना गया। सेक्रेट्री से मुलाक़ात के मौक़े पर मैंने उसे हमेशा की तरह खुश व ख़ुर्रम पाया। उसने मुझसे बड़ी गर्मजोशी के साथ हाश मिलाया और दोस्ताना लहजे में कहाः

नोआबादयाती उमूर के ख़ुसूसी कमीशन की मर्ज़ी के मुताबिक़ वज़ीर ने ख़ुद मुझे यह हुक्म दिया है कि मैं तुम्हें दो अहम रुमूज़ से आशना करुं। इन रुमूज़ से वाक़फ़ियत आईन्दा के प्रोग्रामों में तुम्हारे लिये बहुत मुफ़ीद साबित होगी और इन दो बातों से नोआबादयाती इलाक़ों की विज़ारत के सिर्फ़ चन्द एक मिम्बरान ही बाख़बर हैं। यह कहकर उसने मेरा हाथ थामा और अपने साथ विज़ारतख़ाने के एक कमरे में ले गाय जहाँ कुछ लोग एक गोल मेज़ इतराफ़ बैठे हुए थे। उन्हें देख कर तअज्जुब से मेरी चीख़ निकलते रह गयी क्योंकि उस इजलास के आदमियों की कैफ़ियत कुछ यूँ थी।

1. हू बहू सल्तनते उस्मानी का जलालत अफ़रोज़ पैकर जो तुर्की और अंग्रेज़ी ज़बानों पर पड़ी महारत से मुसल्लत था।

2. कुस्तुनतुनिया के शेख़ुल इस्लाम की दूसरी हक़ीक़त से क़रीब तस्वीर।

3. शहंशाहे ईरान के शिया आलिम की मुकम्मल शबीह।

4. नजफ़ में शियों के मराजे तक़लीद का बेमिस्ल सरापा

यह आख़री तीन अफ़राद फ़ारसी और अंग्रेज़ी ज़बानों में गुफ़्तगू कर रहे थे। सबके नज़दीक उनके प्राईवेट सेक्रेट्री बिराजमान थे जो उनकी बातों का नोट बना कर हाज़ेरीन के लिये उसका तर्जुमा पेश कर रहे थे। ज़ाहिर है कि इन तमाम प्राईवेट सेक्रेट्रियों का किसी ज़माने में मज़कूरा पाच शख़्सियतों से बहुत क़रीब का राब्ता कर चुका था और उनकी मुकम्मल रिपोर्ट के तहत उन पांच हमशबीह अफ़राद कतो बईनहे तमाम आदत व ख़साएल के साथ ज़ाहिरी और बातिनी एतबार से असली अफ़राद की मुकम्मल तस्वीर बनाया गया था। यह पाँचों सवांगी अपने फ़राएज़ और मक़ाम व मंसब से बख़ूबी आशना थे। सेक्रेट्री ने आग़ाज़े सुख़न करते हुए कहाः उन पाच अफ़राद ने असली शख़्सियतो का बहरुप भर रखा है और यह बताना चाहते हैं कि वह किसी तरह की सोच रखते हैं और आईन्दा के बारे में उनका क्या ख़्याल है। हमने इस्तनबोल , तेहरान और नजफ़ की मुकम्मल इत्तिलाआत उन्हें फ़राहम कर दी है। अब वह अपनी हैइयत कज़ाई को हक़ीक़त पर महमूल किये बैठे हैं और इसी अहसास के साथ अपनी हासिलकर्दा मालूमात से हमारे सवालों का जवाब फ़राहम करते हैं। हमारी जांच पड़ताल के मुताबिक उनके सत्तर फ़ीसद जवाबात हक़ीक़त के ऐन मुताबिक या यूँ कहिये कि असली शख़्सियतों के उफ़कार से हम आहंग होते हैं। सेक्रेट्री में अपनी गुफ़्तुगू के दौरान मुझे मुख़ातिब ले सकते हो। मिसाल के तौर पर नजफ़ के शिया मरजा तक़लीद से जो चाहो पूछ सकते हो। ” मैंने कहाः “ बहुत अच्छा ” और फ़ौरन ही कुछ सवालात पूछ डाले।

मेरा पहला सवाल थाः “ किब्ला व काबा। ” क्या आप अपने मुक़ल्लेदीन को इस बात की इजाज़त देते हैं कि वह सुन्नी और मुतअस्सुब उस्मानी हुकूमत की मुख़ालिफ़त पर कमरबस्ता हों और उनके खिलाफ एलाने जंग करें ?”

नक़ली या सवांगी मराजा तक़लीद ने कुछ देर सोचा और कहा। “ मैं मुतलिक़ जंग की इजाज़त नहीं देता क्योंकि वह सुन्नी मुसलमान हैं ओर कुरआन की आयत कहती है कि “ तमाम मुसलमान आपस में भाई-भाई हैं। ” सिर्फ़ उस सूरत में जंग जाएज़ है जब उस्मानी हुक्मरान जुल्म व सितम पर उतर आयें। ऐसी हालत में अम्र बिल मारुफ़ और नेहि अनिल मुन्कर के तहत उनसे जंग लड़ी जा सकती है। वह भी उस वक़्त तक जब आसारे ज़ुल्म ज़ाएल न हो जायें और ज़ालिम जुल्म से बाज़ न आ जाये। ”

मैंने फिर दूसरा सवाल पूछाः “ हुज़ूरे वाला। ” यहूदियों और ईसाईयों की निजासत के बारे में आप का क्या ख़़्याल है क्या यह लोग वाक़ई नापाक है ?”

उसने कहाः “ हाँ यह दोनों फ़िर्क़े मसलन नाजिस हैं और मुसलमानों को उनसे दूर रहना चाहिये। ”

मैंने पूछाः “ इसकी वजह क्या है ” ?

उसने जवाब दियाः “ यह दरअसल मसावियाना सुलूक का मसअला है कि क्योंकि वह लोग भी हमें काफ़िर गर्दान्ते हैं और हमारे पैग़म्बरअ 0 की तकज़ीब करते हैं। ”

उसके बाद मैंने पूछाः “ पैग़म्बरे अकरम (सल्ललल्लाहो अलैहे व आलेहि वसल्लम) की सफ़ाई से मुतअल्लिक़ इतनी ताकीदात के बाद कि सफाई ईमान की अलामत है , फिर क्यों हज़रत अलीअ 0 के सहने मुतहर और तमाम बाज़ारों में इस कद्र गन्दग़ी फैली रहती है ?”

मरज-ए-तक़लीद ने जवाब दियाः “ बेशक इस्लाम ने सफाई और सुथराई को ईमान की दलील जाना है मगर उसको क्या किया जाये कि उस्मानी हुकूमत के आमाल की बेतवज्जेही और पानी की किल्लत ने यह सूरत पैदा की है। “

दिलचस्प बात यह थी कि इस बनावटी मरजा तक़लीद की आमादगी और हाज़िर जवाबी नजफ़ के हक़ीक़ी मरजा तक़लीद के ऐन मुताबिक़ थी। फ़क़त उस्मानी हुकूमत के आमाल की बेतवज्जेही की बात उसने अपनी तरफ से उसमें मिलाई थी क्योंकि नजफ़ के आलिम की ज़बान से यह जुमला नहीं सुनाया गया था। बहरहाल मैं इस हमआहंगी और मुशाबिहत पर सख़्त मुतहय्यर था , क्योंकि तमाम जवाबात बईयेहनही अस्ल मरजा तक़लीद के बयानात थे जिसे उसने फ़ारसी में पेश किया था और अक़ली मरजा भी फ़ारसी ही में गुफ़्तगू कर रहा था।

सेक्रेट्री ने मुझसे कहाः “ दीगर चार अफ़राद से भी चाहो तो सवाल कर सकते हो। यह चारों अफ़राद भी तुम्हें असली शख़्सियतों की तरह जवाब देंगे। ”

मैंने कहा कि मैं इस्तनबोल के शेखुल इस्लाम अहमद आफ़न्दी के उफ़कार और बयानात से बख़ूबी वाक़िफ हों और उसकी बातें मेरे हाफिज़े में महफूज़ हैं। आपकी इजाज़त से मैं उसके हमशक्ल से गुफ्तगू करुंगा। उसके बाद मैंने पूछा “ आफ़न्दी साहब। ” क्या उस्मानी ख़लीफ़ा की इताअत वाजिब है ?”

उसने कहाः “ हाँ मेरे बेटे। उसकी इजाज़त खुदा , और उसके रसूलअ 0 की इताअत की तरह वाजिब है। “

मैंने पूछाः “ किस दलील की बुनियाद पर ?”

उसने जवाब दियाः “ क्या तुमने यह आयते करीमा नहीं सुनी है किः ख़ुदा , उसके रसूल (सल्ललल्लाहो अलैहे व आलेहि वसल्लम) और उलुल उम्र की इताअत करो। ” (सूर-ए-निसा आयत 59)

मैंने कहाः “ अगर हर ख़लीफ़ा उलुल अम्र है तो गोया ख़ुदा ने हमें यज़ीद की इताअत की भु हुक्म दिया है क्योंकि वह उस वक़्त का ख़लीफ़ा था दरआंहालिया कि उसने मदीने की ताराजी का हुक्म दिया था और सिब्ते रसूलअ 0 हज़रत इमाम हुसैनअ 0 को क़त्ल किया था। ख़ुदा वन्दे अलीम किस तरह वलीद की इताअत का हुक्म देगा जबकि वह शराबख़ोर था। ”

नक़ली शेखुल इस्लाम ने जवाब दियाः “ मेरे बच्चे। ” यज़ीद अल्लाह की तरफ़ से मोमिनों का अमीर था , लेकिन क़त्ले हुसैनअ 0 में उससे ख़ता हो गयी थी जिसके लिये बाद में उसने तौबा कर ली थी। मदीने में क़त्ल व ग़ारतगरी का सबब वहां के लोगों की सरकशी और यज़ीद की इताअत से इन्हेराफ़ था जिसमें यज़ीद का कोई कसूर नहीं था। अब रह गया वलीद तो इसमें शक नहीं कि शराब पीता था , लेकिन शराब में पानी मिला कर पीता था ताकि उसकी मस्ती ख़त्म हो जाये और यह इस्लाम में जाएज़ है। ” (शराबखो़री इस्लाम में मुतलक़म हराम है और यह हुरमत किसी शर्त से नहीं टूटती)

मैंने कुछ अर्से क़ब्ल इस्तनबोल में हुरमते शराब से मुतअल्लिक मसअले को वहां के शेखुल इस्लाम शेख़ अहमद से दरियाफ़्त कर लिया था। इसका जवाब थोड़े से इख़्तिलाफ़ के साथ लंदन के उस नक़ली शेखुल इस्लाम के जवाब से मिलता जुलता था। मैंने अस्ल से नक़्ल की ऐसी शबाहत तैयार करने की कोशिशों को सराहते हुए सेक्रेट्री से पूछाः “ आख़िर इस काम से क्या फ़ायदा हो सकता है ?”

उसने जवाब दियाः “ इस तरह हम बादशहों और सुन्नी ओलमा के उफ़कार और उनके मीलाने तबअ से आशनाई हासिल करते हैं। फिर इन मकालमात को परखा जाता है और उनसे नताएज अख़ज़ किये जाते हैं और फिर हम इलाके के दीनी और सियासी मसाएल में दख़ल अन्दाज़ी करते हैं मसलन अगर हमें यह मालूम हो जाये कि फलां आलिम या फ़लां बादशाह इलाक़े की मशरक़ी सरहदों में हमसे मुख़ासिमत पर उतर आया है तो हम उसके अमल को नाकारा बनाने के लिये हर तरफ़ से अपनी तवानाईयों को उस सिमत में मरकूज़ कर देते हैं , लेकिन अगर हमें न मालूम हो कि हमारा हक़ीक़ी दुश्मन किस मक़ाम पर सरगरमे अमल है तो फिर हमें अपनी तवानाईयों को इलाक़े के चप्पे चप्पे में फैलाना पड़ता है। मज़कूरा अमल हमें इस बात में भी मदद देता है कि हम इस्लाम के अहकाम व फ़रामीन से एक फ़र्द मदद देता है कि हम इस्लाम के अहकाम व फ़रामीन से एक फ़र्द मुस्लिम के तर्ज़ इस्तेनबात को समझें और उसके ज़ेहन में शक और तज़बज़ुब पैदा करने के लिये ज़्यादा वाजेह और ज़्यादा मिन्तक़ी मतालिब फ़राहम करें और उसके अक़ाएद को बातिल क़रार दें। इख़्तिलाफ़ात , तफ़रिके , गड़बड़ और मुसलमानों के अक़ाएद में तज़लजुल पैदा करने के लिये इस तरह के इक़दामात बेइन्तेहा मोसिर पाये जाते हैं। इसके बाद सेक्रेट्री ने मुझे एक हज़ार सफ़हों पर मुश्तमिल एक ज़ख़ीम किताब मुतलिये के लिये दी। उस किताब में असली और नक़ली अफ़राद की गुफ़्तगू और मुनाक़िशात के तजज़िये और मुक़ाबिलों के नताएज से मुतअल्लिक़ आदाद व शुमार दर्ज थे और मुझे हासिल शुदा नताएज की बुनियाद पर इस्लामी दुनिया में फौजी , माली , तालीमी और मज़हबी मसाएल से मुतअल्लिक़ हुकूमते बरतानिया के मुरत्तब शुदा प्रोग्रामों से वाक़फ़ियत हासिल करना थी। बहरहाल मैं किताब घर ले गया और तीन हफ़्ते के अर्से में बड़ी तवज्जो के साथ शुरु से आख़िर तक उसका मुतालिआ किया और मुक़रर्रा मुद्दत में नोआबदयाती इलाक़ों की विज़रात को वापस दे आया। किताब वाक़ई बड़ी मेहनत से तैयार की गयी थी। उसमें साहिबाने इल्म , साहिबाने सियासत और इस्लाम की दीनी शख़्यितों के अक़ाएद व नज़रियात के बारे में इस ख़ूबी से बहस की गयी थी और नतीजा अख़ज़ किया गया था , कि पढ़ने वाला दंग रह जाता था। सत्तर फ़ीसद मुबाहिसे हक़ीक़त पर मिन्तकी थे जबकि 30 फ़ीसद में इख़्तिलाफ़ था। किताब के मुतालिये के बाद मुझे इत्मिनान हो गया कि मेरी हुकूमत यक़ीनन् अपने अमल में कामयाब होगी और मज़कूरा किताब की पेशगोई के मुताबिक़ सल्तनते उस्मानी एक सदी से कम अर्से में बहरहाल ख़त्म हो जायेगी।

सेक्रेट्री से मिलने के बाद मुझे यह बात मालूम हो गयी कि नोआबादयती इलाक़ों की विज़ारत में दुनिया के तमाम मुमालिक के लिये ख्वाह वह इस्तेमारी हों या नीम इस्तेमारी इस तरह की शबीहसाज़ी या नक़ली रुप का अमल बरुयेकार लाया गया है और इन तमाम मुमालिक को पूरी तरह इस्तेमार के शिकंजे में जकड़ने के इन्तेज़ाम मुकम्मल किये गये हैं।

सेक्रेट्री ने अपनी गुफ़्तगू के दौरान मुझसे कहा था कि यह वह पहला राज़ है जिसे उसने वज़ीर के हुक्म के मुताबक मुझे बताया है मगर दूसरे राज़ को वह मज़कूरा किताब कू दूसरी जिल्द के मुतालिये पर एक माह बाद मुझे बतायेगा।

मैंने दूसरी किताब लेकर उसका मतालिआ शुरु किया।

मैंने दूसरी किताब लेकर उसका मुतालिआ शुरु किया। यह किताब पहली किताब को मुकम्मल करती थी। इसमें इस्लामी मुमालिक से मतअल्लिक़ नई इत्तिलाआत ज़िन्दगी के मुख़्तलिफ़ मसाएल में शिया सुन्नी अक़ाएद व उफ़कार जो हुकूमत की मसाएल में शिया सुन्नी अकाएद व उफ़कार जो हुकूमत की कमज़ोरी या तवानाई को ज़ाहिर करते थे और मुसलमानों की पसमान्दगी के असबाब व अलल वग़ैरा पर गुफ़्तगू थी। इस किताब में उन मौज़ूआत पर बड़ी सेर हासिले बहत की गयी थी और मुसलमानों के कमज़ोर पहलुओं या ताक़त के ज़राए को नुमायां किया गया था और उनसे अपने हक़ में फ़ायदा उठाने की तदाबीर समझाई गय थी। इस किताब में मुसलमानों की जिन कमज़ोरियों की तरफ इशारा किया गया था वह यह थी।

1. (अ) शिया सुन्नी इख़्तिलाफ़

(ब) हुक्मरानों के साथ कौमों के इख़्तिलाफ़ात।

(स) ईरानी और उस्मानी हुकूमतों के इख़्तिलाफ़ात।

(द) क़बाएली इख़्तिलाफ़ात।

(ज) ओलमा और हुकूमत के ओहदादारों के दरमियान ग़लत फ़हमियां।

2. तक़रीबन तमाम मुसलमान मुल्कों में जेहालत और नादानी की फ़रावनी।

3. फ़िक्री जमूद और तअस्सुब , रोज़ाना के हालात से बेख़बरी , काम और मेहनत की कमी।

4. माद्दी ज़िन्दगी से बेतवज्जेही , जन्नत की उम्मीद में हद से ज़्यादा इबादत जो इस दुनिया में बेहतर जि़्नदगी के रास्तों को बन्द कर देती थी।

5. खुदसर फ़रमांरवाओं के जुल्म व इस्तेबदाद।

6. अम्न व अमान का फुक़दान , शहरों के दरमियान सड़कों और रास्तों का फ़ुक़दान , इलाज मुआलिजे की सहूलतों और हि़फ़ाज़ाने सेहत के उसूलों का फ़ुक़दान जिसकी बिना पर ताऊन या इस जैसी मुतअद्दी बीमारियों से हर साल आबादी का एक हिस्सा मौत की नज़र हो जाता।

7. शहरों की वीरानी , आबपशी के निज़ाम का फ़ुक़दान , ज़राअत और खेती बाड़ी की कमी।

8. हुकमती दफ़्तरों में बदइन्तेज़ामी और क़ायदे क़वानीन का फुक़दान , कुरआन और अहकामे शरीअत के एहतेराम के बावजूद अमली तौर पर उससे बेतवज्जेही।

9. पसमान्दा और ग़ैर सेहतमन्दाना इक़्तिसाद। पूरे इलाक़े में आम गुरबत और बीमारी का दूर दौरा।

10. सही तरबियत याफ़्ता फ़ौजों का फुक़दान , असलहा और दिफ़ाई साज़ो सामान की कमी और मौजूदा असलहों की फ़रसूदगी।

11. औरतों की तहक़ीर और उनके हकूक़ की पामली।

12. शहरों और देहातों की गन्दगी , हर तरफ़ कूड़े करकट के अम्बार , सड़कों , शाहेराहों और बाज़ारों में अशियाए फ़रोख़्त के बेहंगम ढेर वगैरा।

मुसलमानों के इन कमज़ोर पहलुओं को गिनवाने के बाद किताब ने इस हक़ीक़त की तरफ़ भी इशारा किया था कि शरीयते इस्लाम का क़ानून मुसलमानों की इस तर्ज़ ज़िन्दगी से रत्ती बराबर मेल नहीं खाता , लेकिन यह बात ज़रुरी है कि मुसलमानों को इस्लाम की हक़ीकी रुह से बेख़बर रखा जाये और हक़ाएक़़े दीन तक न पहुँचने दिया जाये। इस के बाद किताब ने बसूरते फ़ेहरिस्त उन अवामिर व अहकामात की तरफ़ भी इशारा किया था जो दीने इस्लाम के उसूल व मबानी को ज़ाहिर करते थे और उनकी सूरत यह थी।

1. वहदत , दोस्ती और भाई चारा की ताकीद और तफ़रिक़े से दूरी। (सूर-ए-आले इमरान आयत 103)

2. तालीम व तरबियत की ताकीद। (हदीस)

3. जुसत्जू और इब्तेकारी की ताकीद (सूर-ए-आल इमरान आयत 201)

4. माद्दी ज़िन्दगी को बेहतर बनाने की ताकीद (सूर-ए-बक़रा आयत 201)

5. ज़िन्दगी के मसाएल में लोग से राय मशविरे की ताकीद। (सूर-ए-शूरा आयत 38)

6. शाहेराहें बनाने की ताकीद (सूर-ए-मुल्क आयत 15)

7. हदीसे नबवीस 0 की बुनियाद पर तन्दरुस्ती मुआलिजे की ताकीद।

(अ) इल्मे फ़िक़ह , दीन की हिफ़ाज़त के लिये।

(ब) इल्मे तिब , बदन की हिफ़ाज़त के लिये।

(स) इल्मे नहो , ज़बान की हिफ़ाज़त के लिये

(द) इल्मे नुजूम , ज़माने की पहचान के लिये (हदीस)

8. आबादकारी की ताकीद । (सर-ए-बक़रा आयत 29)

9. अपने कामों में नज़म व तरबियत। (हदीस)

10. मुआशी इस्तेहकाम की ताकीद। (हदीस)

11. जदीद तरीन असलहा और जंगी साज़ो सामान से लैस फौज़ी तंज़ीम की ताकीद। (सूर-ए- इन्फ़ाल आयत 60)

12- जदीद तरीन असलहा और जंगी साज़ों सामान से लैस फ़ौजी तंज़ीम की ताकीद। (सूर-ए-इन्फ़ाल आयत 60)

12. औरतों के हुकूक़ की हिफ़ाज़त और उसके एहतेराम की ताकीद (सूर-ए-बक़रा आयत 228)

इन अवामिर के तज़किरे के बाद किताब अपने दूसरे बाब में इस्लाम के ताक़त व कुव्वत के सरजश्मों और मुसलमानों की पेशरफ्त के असबाब पर रौशनी डालती है और उन्हें तबाही से दो चार करने के लिये तरक़्क़ी व तकामुल की राहों के ख़िलाफ़ इक़दामात को नोआबादयाती इलाक़ों की विज़रात का नुक़्ता आग़ाज़ की क़रार देती है और वह तरक़्की व तकामुल की राहें यह थीः

1. रंग व नस्ल , ज़बान , तहज़ीब व तमद्दुन और क़ौमी तअस्सुबात को ख़ातिर में न लाना।

2. सूद , ज़ख़ीरा अन्दोज़ी , अदअमली , शराब और सूअर के गोश्त वग़ैरा की मुमानिअत।

3. ईमान व अक़ीदा की बुनियाद पर ओलमा-ए-दीन से शदीद मोहब्बत और वाबस्तगी।

4. मौजूदा ख़लीफा की निस्बते आम्मतुल मुस्लेमीन का एहतेराम मोहब्बत और यह अक़ीदा कि वह पैग़म्बरस 0 का जानशीन और उलुल अम्र है जिसकी बिना पर उसके अहकामात की बजाआवरी ख़ुदा और रसूल (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेहि वसल्लम) के अहकामात की बजाआवरी है।

5. क़ुफ़्फार के ख़िलाफ वजूबे जेहाद।

6. गै़र मुस्लिमों की नापाकी पर मब्नी अहले तशय्यो का अक़ीदा।

7. तमाम अदयान और मज़ाहिब पर इस्लाम की बालादस्ती का एतक़ाद (हदीस)

8. इस्लामी सरज़मीन पर यहूदी और नसरानी इबादताहों की तामीर के बारे में शिया हज़रात की मुमानिअत।

9. जज़ीरतुल अरब से तमाम यहूदियों और नसरानियों के इनख़ेला पर अकसर मुसलमानों का इत्तिफाक़।

10. इश्तियाक़ के साथ नमाज़ , रोज़ा और हज के फ़राएज़ की अंजामदेही मदावमत।

11. ख़ुम्स की अदायगी के बारे में अहले तशय्यो का अक़ीदा और ओलमा की तरफ़ से मुस्तहक़ीन को उस रक़्म की तक़सीम।

12. ईमान व इख़लास के साथ इस्लाम के दीनी अक़ाएद से दिलचस्पी।

13. घरेलू इस्तेहकाम के बुनियादी मक़सद के साथा बच्चों और नौजवानों की रवायती तालीम व तरबियत और बच्चों के साथ वालदैन के दायमी इरतेबात की ज़रुरत व अहमियत का रुजहान।

14. औरतों को परदा की ताकीद जो उन्हें ग़ैर शरई रवाबित और बदअमलियों से रोकती है।

15. नमाज़े जमाअत का इस्तेहबाब और हर जगह के लोगों का दिन में कई मर्तबा एक मस्जिद में इकट्ठा होना।

16. पैग़म्बरे अकरमस 0, अहलेबैतअ 0 और सुलहा की ज़ियारतगाहों की ताज़मी और उन मक़ामात को मुलाक़ात और इज्तेमाअ के मराकज़ क़रार देना।

17. सादात का एहतेराम और रसूले अकरमस 0 का इस तरह तज़किरा करना गोया वह अभी ज़िन्दा हैं और दुरुद व सलाम के मुस्तहक हैं।

18. शियों की तरफ़ से अज़ादारी का इंऐक़ाद ख़ास तौर पर मोहर्रम और सफ़र को अज़ीम इज्तेमाआत और उनमें ओलमा व ज़ाकेरीन कु मुन्तज़िम तक़रीरें जो यक़ीनन मुसलमानों के ईमानी इस्तेहकाम में एक नाक़बिले इन्कार असर छोड़ जाती है और उन्हें नेक चाल चलन पर उभीरती है।

19. इस्लाम अहम उसूलों को उन्वान से अम्र बिलमारुफ़ और नेही अनिल मुन्कर का वुजूब।

20. शादी ब्याह , कसरते औलाद और ताअद्दे अज़वाजव का मुस्तहब होना।

21. काफ़िरों की हिदायत पर इतना ज़ोर कि अगर कोई किसी काफ़िर को मुसलमान करे तो यह काम उसके लिये तमाम दुनिया की दौलत से मुफ़ीद होगा।

22. नेक अमल अंजाम देने की अहमियतः “ जो कोई किसी नेक अमल की पैरवी करेगी उसके लिये दो जज़ायें मख़सूस हैं। एक ख़ुद उस नेक अमल की अपनी जज़ा और दूसरे नेक अमल को अंजाम देने की जज़ा। ” (हदीस)

23. कुरआन व हदीस का बेइन्तहा पास व एहतेराम और सवाबे आख़रत के लिये उन पर अमल पैरा होने की शदीद ज़रुरत।

इस्लाम के उन सरचश्मे हाये कुव्वत के तज़किरे के बाद किताब के अगबे अबवाव में दियानत के उन मोहकम सुतूनों को कमज़ोर बनाने के अमली रास्तों पर मोहकम दलीलों के साथ ग़ुफ़्तगू की गयी थी। उसके बाद बसूरते फ़ेहरिस्त इन इक़दामात की ताक़ीद थी जिनके ज़रिये इस्लामी दुनिया को कमज़ोर बनाया जा सकता था और वह यह थीः

1. बदगुमानी और सूए तफ़ाहुम के ज़रिये शिया और सुन्नी मुसलमानों मे मज़हबी इख़्तिलाफ़ात पैदा करना और दोनों गिरोहों की तरफ़ से एक दूसरे के ख़िलाफ़ एहानत आमेज़ और तोहमत अंगेज़ बातें लिखना और निफ़ाक़ व तफ़रिक़े के इस सूदमन्द प्रोग्राम को रु बा अमल लाने के लिये भारी अख़राजात की हरगिज़ परवा न करना।

2. मुसलमानों को जेहालत और लाइल्मी के आलम में रखना। किसी तालीमी मरकज़ के क़याम की कोशिश को कमयाब न होने देना। तबाअत और नश्र व अशाअत पर पाबन्दी आयद करना और ज़रूरत पड़े तो अवामी किताब ख़ानों को नज़रे आतिश करना। बच्चों को दीनी मदारिस में जाने से रोकने के लिये ओलमा और मराजे दीनी पर तोहमतें लगाना।

3. काहिली फैलाने और ज़िन्दगी की जुस्तजू से मुसलमानों को महरुम करने के लिये मौत के बात की दुनिया में रंग आमेज़ी और जन्नत की ऐसी तौसीफ़ बयान करना कि वह मुजस्सम बन कर लोगों के ज़ेहन पर क़ल्ब पर छा जाये और वह उसको हासिल करने के लिये अपनी मआशी तग व दो से दस्तबरदार हो जायें और मलकुल मौत के इन्तेज़ार में बैठे रहें।

4. हर तरफ़ दरवेशों की ख़ांक़ाहों का फैलाओ और ऐसी कितबों और रिसालों की तबाअत जो लोगों को दुनिया व माफ़िहा से बरगशता करके उन्हें मरदुम बेज़ारी और गोशा नशीनी की तरफ़ माएल करें जैसे ग़ज़ाली की अहयाउल उलूम , मौलाना रोम की तसनवी और महियुद्दीन अरबी की किताबें वग़ैरा

5. मुस्तबिद और ख़ुदख़्वाह हुक्मरानों की हक़्क़ानियत के सुबूत में मुख़्तलिफ़ अहादीस की अशाअत मसलनः “ बादशाह ज़मीन पर अल्लाह का साया है। ” या फिर यह दावा कि हज़रत अबूबकर , उमर , उस्मान और अलीअ 0, बनी उमय्या और बनी अब्बास सब के सब बिलजहर तलवार के ज़ोर से हुकूमत के मनसब पर फ़ाएज़ हुए और बज़ोरे शमशीर हुक्मरानी या सक़ीफ़ा की कार्रवाई को एक तमाशे की सूरत में पेश करना दलाएल क़ायम करना जैसे हज़रत अली (अलैहिस्सलाम) के तरफ़दारों ख़ास तौर पर आप की ज़ौजा हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (अलैहिमुस्सलाम) का घर जलाना नेज़ यह साबित करना किः

(1) हज़रत उमर कि ख़िलाफ़त , ज़ाहेरन हज़रत अबूबकर की वसीयत और बातेनन मुख़ालेफ़ीन को डरा धमका कर अमल में आई।

(2) हज़रत अली (अलैहिस्सलाम) की मुख़ालिफ़त की बुनियाद पर हज़रत उस्मान के इन्तेख़ाब में एक ड्रामाई शुरा की तश्कील , जो बिलआख़िर मुख़ालिफत , शोरिश , ख़लीफ़ा सोम के क़त्ल और हज़रत अलीअ 0 की ख़िलाफ़त पर मुन्तिही हुई।

(3) मक्रों हीला और शमशीर के ज़रिये माविया का बरसरे इक़्तिदार आना और इसी सूरत में उसके जानशीनों का इस्तेक़रार।

(4) अबू मुस्लिम की क़यादत में सफ़्फ़ाह की मुसल्लह शोरिश और बज़ोरे शमशीर ख़िलाफ़ते बनी अब्बास का क़याम।

(5) हज़रत अबूबकर से लेकर उस्मानियों की हुक्मरानी के इस दौर तक तमाम खोलफ़ाए इस्लाम आमिर थे और यह कि

(6) निज़ामे इस्लाम में हमेशा आमरियत का दौर दौरा रहा है।

6. रास्तों में अदअम्नी के असबाब फ़राहम में फ़ितना व फ़साद बरपा करना और गुण्डों फ़सादियों और ड़ाकूओं की पुश्तपनाही करना और उनहें असलहा और रक़म फ़राहम करके उनकी तशवीक़ करना।

7. हिफ़ज़ाने सेहत की कोशिशों के आड़े आना और जबरी और कुदरती उफ़कार को तरजीह देना और यह बताना कि हर चीज़ अल्लाह की तरफ़ से है। बीमारी भी अल्लाह की देन है और इसका इलाज बेसूद है। इस सिलसिले में यह आयत पेश करनाः "वही है जो मुझे खाना देता है और प्यास की हालत में सेराब करता है और जब मैं बीमार होता हूँ तो मुझे तन्दुरुस्ती अता करता है ” (सूर-ए-शोअरा आयत 81) शिफ़ा अल्लाह के हाथ में है। मौत और हयात भी उसके क़बज़-ए-कुदरत में है। बीमारी से शिफ़ायाबी और मौत से रेहाई उसकी मशीयत और उसके इरादे के बग़ैर क़तई नामुम्किन है और यह तमाम रुनुमा होने वाले वाक़िआत क़ज़ाए इलाही है।

8. इस्लामी मुमालिक को फ़क़रो फ़लाकत में बाक़ी रखना और उनमें से किसी क़िस्म का तग़य्युर व तबद्दुल या इस्लाह अमल को जारी न होने देना।

9. फ़ितना व फ़साद और हंगामा आराईयों को हवा देना और इस अक़ीदा को लोगों में राख़िस कना कि इस्लाम महज़ इबादत और परहेज़गारी का नाम है और दुनिया और उसके उमूर से उसको कोई वास्ता नहीं। हज़रत ख़तमी मरतब (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेहि वसल्लम) और उनके जानशीनों ने कभी इन मसाएल में पड़ने की कोशिश नहीं की और सियासी और इक़्तिसादी तंज़ीम से कोई सरोकार नहीं रखा।

10. ऊपर दिये हुए उमूर पर तवज्जो इक़्तसादी बदहाली और ग़ुरबत व बेकारी में इज़ाफ़ा का बाइस होग मगर इसके साथ साथ पासमान्दगी में इज़ाफ़ा करने के लिये ज़रुरी है कि किसानों के ग़ल्ले के ढ़ेरों को नज़रे आतिश किया जाये , तिजारती कश्तियां डिबो दी जायें. तिजारती ज़हाज़ और सनअती मराक़ज में बड़े पैमाने पर आग भड़काई जाये। दरियाओं के बन्द तो़ड़ कर बस्तियां वीरान की जायें और पीने के पानी को ज़हर आलूद बनाया जाये ताकि इस लिहाज़ से इलाक़े वालों की पसमान्दगी और फ़क्र व फ़लाकत का सामान फ़राहम किया जा सके।

11. इस्लामी हुक्मरानों के मिज़ाज को बदला जाये और उनमें शराब नोशी , जूए बाज़ी और दीगर अख़लाक़ी बुराईयाँ पैदा की जायें। क़ौमी ख़ज़ाने में ख़ुर्द बुर्द और लूट घसोट की ऐसी सूरत पैदा की जाये कि उनके पास अपने दिफ़ा , मुलकी मईशत और तरक़्कि़याती उमूर के लिये कोई रक़म बाक़ी न रहे।

12. “ मर्द औरतों पर हाकिम हैं। ” (सूर-ए-निसा आयत 34) की आयत या “ औरतें बदी का पुतला हैं। ” की हदीस के सहारे औरतों की तौहीन व तहक़ीर और कनीज़ी का प्रचार किया जाये।

13. इसमें कोई शक नहीं कि मुसलमानों की शहरी और गन्दगी का सबसे बड़ा सबब उन इलाकों में पानी की कमी है और हमें चाहिये कि हम हर मुम्किन तरीक़े से गंजान आबाद इलाकों में पानी की फ़रावानी रोक दें ताकि उन इलाकों में ज़्यादा कसरत से गन्दगी में इजाफा हो।

किताब के एक और बाब में मुसलमानों की कुव्वत व ताक़त को तोड़ने और उन्हे कमज़ोर बनाने के दीगर उसूलों पर भी गुफ़्तगू की गई थी जो दिलचस्पी से ख़ाली नहींः

1. ऐसे उफ़कार की तरवीज जो क़ौमी , क़बाएली और नसली असबियतों को हवा दें और लोगों को गुज़िश्ता क़ौमों की तारीख़ ज़बान और सक़ाफ़ात की तरफ़ शिद्दत से माएल करें और वह मा क़ब्ल इस्लाम की तारख़ी शख़्सियतों पर फ़रीफ़ता हो जायें और उनका एहतराम करें। मिस्र में फ़िरऔनियत का अहिया , ईरान में दीन ज़रोतश्त और बैनुल नहरैन में बाबुल की बुत परस्ती इन ही की मिसालें हैं। किताब के इस हिस्से में एक बड़े नक़शे का भी इज़ाफ़ा किया गया था जिसमें उन मराकज़ की निशानदेही की गयी थी जिनमें साबिकुज़ ज़िक्र ख़ुतूत पर अमल दरामद हो रहा था।

2. शराब ख़ोरी , जुए बाजी , बदफ़ेली और शहवतरानी की तरवीज , सूअर के गोश्त के इस्तेमाल की तरग़ीब , इन कारगुज़ारियों में यहूदी , नसरानी , ज़रोतश्ती और साबई अक़्लियतों को एक दूसरे के साथ हाथ बटाना चाहिये और इन बुराईयों को मुसल्लम मुआशिरे में ज़्यादा से ज़्यादा फ़रोग़ देना चाहिये जिनके एवज़ नोआबादयाती इलाक़ों की विज़ारत उन्हें इनाम व इकराम ने नवाज़ेगी। इस काम के लिये मुतअद्दिद अफ़राद की ज़रुरत है जो किसी भी मौक़े को हाथ से न जाने दें और शराब , जुआ , फ़ोहश और सूअर के गोश्त को जहाँ तक हो सके लोगों में मक़बूल बनायें। इस्लामी दुनिया में अंग्रेज़ी हुकूमत के कारिन्दों का यह फ़रीज़ा था कि वह माल व दौलत , इनाम व इकराम और हर मुनासिब तरीके से इन बुराईयों की पुश्तपनाही करें और इन पर आमिल अफ़राद को किसी तरह का गुज़िन्द न पहुँचने दें और मुसलमानों को इस्लामी अहकामात और उसके अवामिर व नवाही से रुगरदानी की तरग़ीब दें क्योंकि अहकामे शरअ से बेतवज्जेही मुआशिरे में बदनज़मी और अफ़रा तफ़री का सबब होती है। मिसाल के तौर पर कुरआन मजीद में सूद की शिद्दत से मज़म्मत की गयी है कि और उसका शुमार गुनाहाने कबीरा में होता है। पर लाज़िम है कि हर हाल में सूद और हराम सौदे बाज़ी को आम करने की कोशिश की जाये और इक़्तिसादी बदहाली को मुकम्मल तौर पर मुज़महिल बनाया जाये। इस काम के लिये ज़रुरी है कि सूद की तहरीम से मुतअल्लिक आयात की ग़लत तफ़सीर की जाये और इस उसूल को पेशेनज़र रखा जाये कि कुरआन के एक हुक्म से सरताबी इस्लाम के तमाम अहकाम से रुगर्दानी की जरुअत का आईनादार होती है। मुसलमानों को यह समझाने की ज़रुरत है कि कुरआन ने जिस सूद को मना किया है वह सूद मरकब (या सूद दर सूद) है वगर न आम सूद में कोई क़बाहत नहीं है। कुरआन कहता है “ अपने माल को कई गुना करने की ख़ातिर सूद न खाओ। ” (सूर-ए-आले इमरान आयत 130) इस बिना पर आम हालत में सूद हराम नहीं है।

3. 4. ओलमा-ए-दीन और अवाम के दरमियान दोस्ती और एहतेराम की फ़िज़ा हर मुलाज़िम को याद रखना चाहिये। इस काम के लिये दो बातों पर इल्ज़ाम तराशी करना।

अ. ओलमा व मराजे पर इल्ज़ाम तराशी करना।

ब. नोआबादयाती इलाकों की विज़ारत से मुन्सलिक बाज़ अफ़राद को ओलमा-ए-दीन की सूरत में देना और उन्हें अल अज़हर यूनिवर्सिटी , नजफ़ , कर्बला और इस्तनबोल के इल्मी और दीनी मराकज़ में उतारना , ओलमा-ए-दीन से लोगों का रिश्ता तोड़ने के लिये एक रास्ता यह भी है कि बच्चों को नोआबादयती इलाक़ों की विज़ारत के प्रोग्रामों के मुमताबिक़ तरबियत दी जाये। इस काम के लिये ऐसे असातज़ा की ज़रुरत है जो हमारे तंख़्वाहदार हों ताकि वह जदीद उलूम की तदरीस के ज़िम्न में नौजवानों को ओलमा-ए-दीन और उस्मानी ख़लीफ़ा से मुतनफ़र करें और उनकी अख़लाक़ी बुराईयों और जुल्म व ज़ियातियों को बड़ी आब व ताब के साथ बयान करें और यह बतायें कि वह किस तरह क़ौमी सरमाये को अपनी अय्याशियों की नज़र करते हैं और उनमें से किसी पहलू से इस्लामी झलक नहीं पाई जाती।

5. वुजूबे जेहाद के अक़ीदे में तज़लजुल पैदा करना और यह साबित करना कि जेहाद सिर्फ़ सदरे इस्लाम के लिये था ताकि मुख़ालेफ़ीन की सरकूबी की जाये मगर आज इसकी क़तअन ज़रुरत नहीं है।

6. काफ़िरों की पलीदी और निजासत से मुमतअल्लिक़ मौज़ूअ जो ख़ास तौर पर शिया हज़रात का अक़ीदा है , इन मसाएल में से है जिसे मुसलमानों के ज़ेहन से ख़ारिज होना चाहिये और उसके लिये कुरआन और हदीस से मदद लेने की ज़रुरत है। मिसाल के तौर पर यह आयत जिसमें कहा गया है कि “ अहले किताब जो खाना खाते हैं वह तुम पर हलाल है और जो तुम खाते हौ वह उन पर हलाल है और पाक़ दामन मोमिन औरतें और पाकदामन अहले किताब (यहूद व नसारा) औरतें तुम पर हलाल हैं। ” (सूर-ए-मायदा आयत 5) क्या रसूले खुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेहि वसल्लम) ने सफिया और मारिया नामी यहूदी और मसीही औरतों से शादी नहीं की थी ? और क्या यह कहा जा सकता है कि (नऊज़ोबिल्लाह) रसूल (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेहि वसल्लम) की बीवियाँ नाजिस थी ?

7. मुसलमानों कोयह बात समझनी चाहिये कि दीन से हज़रत ख़त्मी मरतबत (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेहि वसल्लम) की मुराद सिर्फ़ इस्लाम नहीं बल्कि जैसा कि कुराने हकीम से भी साबित है दीन में अहले किताब यानि यहूद व नसारा भी शामिल है. और तमाम अदयान के पैरोकार को मुसलमान कहा जायेगा। कुरआन मजीद में हज़रत युसुफ़ (अलैहिस्सलाम) ख़ुदा से दुआ करते हैं कि इस दुनिया से मुसलमान जायें। (सूर-ए-युसुफ आयत 12) हज़रत इब्राहीम व इस्माईल (अलैहिमुस्सलाम) की भी यही तमन्ना है कि “ परवर दिगार हम दोनों को मुसलमानों के ज़मरे में और हमारे ख़ानदान को उम्मते मुस्लिमा क़रार दे। ” (सूर-ए-अलबक़रा आयत 128) हज़रत याकूब (अलैहिस्सलाम) अपने फ़रज़न्दों से कहते हैं “ न मरना मगर हालते इस्लाम मैं। ” (सैर-ए-आले इमरान आयत 102)

8. दूसरा अहम मौज़ू कलिसाओं और कनीसाओं की तामीरात के असबाब से मुतअल्लिक़ है। कुरआन , हदीस और तारीख़े इस्लाम की रोशनी में लोगों को यह बावर कराया जाये कि अहले किताब की इबादतगाहें मोहतरम हैं। कुरआन का इरशाद हैः “ अगर ख़ुदा वन्दे आलम लोगों को मना न फ़रमाता तो लोग नसारा के कलियाओं , यहूदियों के कनीसाओं और ज़दतशियों के आतिशकदों को तबाह व बर्बाद कर देते हैं। (सूर-ए-हज आयत 40) इस आयत से यह हक़ीक़त सामने आती है कि इस्लाम में इबादतगाहें मोहतरम हैं और इन्हें हरगिज़ नुक़सान नहीं पहुँचाया जा सकता।

9. दीने यहूद से इन्कार पर मब्नी चन्द हदीसें जनाबे रिसालतमाब (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेहि वसल्लम) से नक़्ल की गयी हैं मसलन यहूदियों को ज़जीरतुल अरब से बाहर निकाल दो या जज़ीरतुल अरब में दो मुतफ़ादत अदयान की गुंजाइश नहीं। “ हमें हर हाल में इन अहादीस की तरदीद करनी चाहिये और यह बताना चाहिये कि अगर यह अहादिस सही होती तो हज़रत ख़तमी मरतबतस 0 कभी यहूदी औरत से शादी न करते। ”

10. लाज़िम है कि मुसलमानों को इबादत से रोका जाये और इसके वजूब के बारे में इनके दिलों में शुकूक पैदा किये जाये , ख़ास तौर से इस नुके पर जोर दिया जाये कि ख़ुदा वन्दे आलम बन्दों की इबादत से बेनियाज़ है। हज को एक बेहूदा अमल क़रार दिया जाये और मुसलमानों को शिद्दत के साथ मक्के जाने से रोका जाये। इस तरह मजालिस और इस सिलसिले के तमाम इज्तेमाआत पर पाबन्दी लगाई जाये। यह इज्तेमाआत हमारे लिये ख़तरे की घण्टी हैं और इन्हें शिद्दत के साथ रोकना ज़रुरी है। मसाजिद , आइम्म-ए-दीन (अलैहिमुस्सलाम) के मज़ारात , इमाम बारगाहों और मदरसों की तामीरात पर भी बन्दिश आयद की जाये।

11. खुम्स और ग़नाएम जंगी की तक़सीम भी इस्लाम की तक़वियत का एक सबब है। ख़ुमस का तअल्लुक लेन देन , तिजारती और कारोबारी मुनाफे से नहीं है। मुसलमानों को इस बात से आगाह करने की ज़रुरत है कि इस मद में रक़म की अदायगी पैग़म्बर अकरम (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेहि वसल्लम) और इमामों (अलैहिस्सलाम) के ज़माने में वाजिब थी , लेकिन अब ओलमा-ए-दीन को इसका इख़्तियार नहीं है कि वह लोगों से इस रकम को हासिल करे , ख़ास तौर पर जब कि यह लोग इस रक़म से ज़ाती फ़ायदे हासिल करते हैं और अपने लिये भेड़ , बकरियाँ , गाये , घोड़े , बाग़ात और महलात ख़रीदते हैं। इस एतबार से शरअन ख़ुम्स की रक़म उनके लिये जाएज़ नहीं है।

12. लोगों को बरगश्ता करने के लिये यह ज़ाहिर करने की ज़रुरत है कि इस्लाम फ़ितना व फ़साद और अबतरी और इख़्तिलाफ़ात का दैन है और उसके सुबूत में इस्लामी मुमालिक में रुनुमा होने वाले वाक़िआत को पेश करना चाहिये।

13. अपने आपको तमाम घरानों में पहुँचा कर बाप , बेटों के तअल्लुक़ात इस हद तक बिगाड़ा जाये कि बुजुर्गों की नसीहत बेअसर हो जाये और लोग आमरियत की तहज़ीब व तमाद्दुन का शिकार हो जायें। इस सूरत में हम नौजवानों को उनके दीनी अक़ाएद से मुन्हरिफ़ करके उन्हें ओलमा से दूर रख सकते हैं।

14. औरतों की बेपरदगी के बारे में हमें सअ़ी बलीग़ की ज़रुरत है ताकि मुसलमान औरतें ख़ुद पर्दा छो़ड़ने की आरज़ू करने लगें। इस सिलसिले में हमें तारीख़ी दलाएल व शवाहिद का सहारा लेकर यह साबित करना होगा कि पर्दा का रिवाज बनी अब्बास के दौर से हुआ और यह हरगिज़ इस्लाम की सुन्नत नहीं है। लोग रसूले अकरमस 0 की बीवियों को बग़ैर पर्दा देखते रहे हैं। सदरे इस्लाम की औरतें ज़िन्दगी के तमाम शोअबों में मर्दों के शाना बशाना रही हैं। इन कोशिशों के बारआवर होने के बाद हमारे साथियों का यह फर्ज़ है कि वह नौजवान नस्ल को मशरु रवाबित और अय्याशियों की तरग़ीब दें और इस तरह बुराईयों को इस्लामी मुआशिरे में रिवाज दें। ज़रुरी है कि ग़ैर मुस्लिम मुआशिरे में पेश करें ताकि मुसलमान औरतें उन्हें देख कर उनकी तक़लीद करें।

15. जमाअत का नमाज़ से लोगों को रोकने के लिये ज़रुरी है कि अइम्मा व जमाअत पर इल्ज़ाम तराशियां की जायें और उनके फ़सक़ फ़जूर पर मब्नी दलाएल पेश किये जायें ताकि लोग मुतनफ़र होकर उनसे अपना राब्ता तोड़ लें।

16. हमारी दुश्वारियों में से एक बड़ी दुश्वारी बुज़ुर्गाने दीन के मज़ारों पर मुसलमानों की हाज़री है। ज़रुरी है कि मुख़्तलिफ़ दलाएल से यह साबित किया जाये कि क़ब्रों को अहमियत देना और उनकी अराइशात पर तवज्जो देना बिदअत और ख़िलाफ़े शरअ है और ख़तमी मरतबत (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेहि वसल्लम) के ज़माने में मुर्दा परस्ती और इस क़िस्म की बातें राएज नहीं थी। आहिस्ता आहिस्ता उन क़ब्रों को मिस्मार करके लोगों उनकी ज़ियारत से रोका जाये। इस सिलसिले में एक मुफ़ीद प्रोग्राम यह भी है कि उन मराकज़ की असलियत के बारे में लोगों को मुश्तबा किया जाये। मसलन यह कहा जाये कि हज़रत ख़तमी मरतब (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेहि वसल्लम) मस्जिदे नबवी में मदफून नहीं है बल्कि अपनी वालिदा गिरामी की क़ब्र में सो रहे हैं और इसी तरह तमाम बुजूगाने दीन के बारे में कहा जाये कि वह उन मक़ामात पर नहीं है जिन मक़ामात को उनसे मंसूब किया गया है। हज़रत अबूबकर व उमर दोनों जन्नतुल बक़ी में मदफू़न हैं। हजरत उस्मान की क़ब्र का कहीं पता नहीं है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम की आरामगाह बसरा में है और वह क़ब्र जो नजफ़े अशरफ़ में मुसलमानों की ज़ियारतगाह हैं। दरअसल उसमें मग़ीरा बिन शोअबा दफ़्न हैं। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का सरे अक़दस मस्जिदे “ हन्नाना ” में दफ़्न है और आप के जिस्मे अक़दस की तदफीन के बारे में सही इत्तिला नहीं है। काज़मैन की मशहूर ज़ियारतगाह में इमाम मूसा काज़िम (अलैहिस्सलाम) और इमाम मोहम्मद तक़ी (अलैहिस्सलाम) के बजाये दो अब्बासी ख़लीफ़ा दफ़्न हैं। मशहद में इमाम रिज़ा (अलैहिस्सलाम) नहीं बल्कि हारुन रशीद दफ़्न हैं। सामरा में भी इमाम अली नक़ी (अलैहिस्सलाम) और इमाम हसन असकरी (अलैहिस्सलाम) के बजाये अब्बासी ख़ोलफ़ा दफ़्न हैं। हमें बक़ी के क़ब्रिस्तान के सिलसिले में कोशिश करनी चाहिये कि वह ख़ाक के यकसां हो जाये और तमाम इस्लामी मुमालिक की ज़ियारतगाहें वीरानियों में बदल दी जायें।

17. खा़नदाने रिसालत से अहले तशय्यों की अक़ीदत व एहतेराम ख़त्म करने के लिये झूठे और बनावटी सादात पैदा किये जायें और इस काम के लिये हमें चन्द तंख़्वाहदार अफ़राद की ज़रुरत है जो स्याह और सब्ज़ अमारियों के साथ लोगों में ज़ाहिर हों और अपने आप को औलादे रसूल से निस्बत दें। इस तरह वह लोग जो उनकी हक़ीक़त से वाक़िफ़ हैं आहिस्ता आहिस्ता हक़ीक़ी सादात से बरगश्ता हो जायेंगे और औलादे रसूल पर शक करने लगेंगे। दूसरा काम हमें यह करना होगा कि हम हक़ीक़ी सादात और ओलमा-ए-दीन के सरों से उनके आमामे उतरवायें ताकि पैग़म्बरे खुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेहि वसल्लम) से वाबस्तगी का सिलसिला ख़त्म हो और लोग ओलमा का एहतेराम छोड दें।

18. इमाम हुसैन (अलैहिस्साल) की आज़ादरी के मराकज़ की गुमराही की राह रोकने और दीन को बदबख़्ती और नाबूदी से बचाने के उन्वान से होना चाहिये। अपनी तमाम कोशिशों को बरुएकार लाकर लोगों को मजालिसे अज़ा में जाने से रोकने की कोशिश की जाये और अज़ादारी को बतदरीज ख़त्म किया जाये। इस काम के लिये इमाम बारगाहों की तामीर और ओलमा व ज़ाकेरीन के इन्तेख़ाब की शराएत को सख़्त बनाया जाये।

19. आज़ाद ख़्याली और चून व चरा वाली कैफ़ियत को मुसलमानों के इज़हान में रासिख़ करना चाहिये ताकि हर आदमी आज़ादाना तौर पर सोचने के क़ाबिल हो औऱ हर काम अपनी मर्ज़ी से अंजाम दे। अम्र बिल मारुफ़ और नेहि अनिल मुन्कर वाजिब नहीं। अहकामे शरीयत की तरवीज का अमल मतरुक होना चाहिये। अगर अम्र बिल मारुफ़ और नेहि अनिल मुन्कर को वाजिब समझा जाये तो यह काम बादशाहों का है। अवामुन्नास को इसमें कोई दख़ल नहीं।

20. नस्ल को कन्ट्रोल किया जाये और मर्दों को एक से ज़्यादा बीवी इख्तियार करने की इज़ाज़त न दी जाये। नये क़वानीन वज़अ करके शदी के मसअले को दुश्वार बनाये जाये मसलन किसी अरब मर्द को ईरानी औरत और ईरानी मर्द को अरब औरत से शादी की इज़ाज़त न दी जाये। इस तरह तुर्क , ईरानियों से शादी नहीं कर सकेंगे।

21. इस्लामी तालीम की आफ़क़ियत के मसअले को मोहकम दलाएल से रद किया जाये और यह बताया जाये कि इस्लाम उसूलन दीन हिदायत नहीं है बल्कि उसका तअल्लुक़ सिर्फ़ एक क़बीले और एक क़ौम से है जैसा कि कुरान ने इक़रार किया हैः “ यह दीन तुम्हारी और तुम्हारे क़बीले की हिदायत के लिये है। ” (सूर-ए-जख़रिफ़ आयत 44)

22. मसाजिद , मदारिस , तरबियती मराकज़ और अच्छी बुनियादों पर क़ायम होने वाली तामीरात से मुतअल्लिक़ इस्लाम की तमाम सुन्नतों को कालइद्म या कम अज़ कम महदूद कर दिया जाये। इस क़िस्म के उमूर का तअल्लुक़ ओलमा से नहीं बल्कि सरबराहाने ममलिकत से है और जब हुकूमतें इस क़िस्म का काम अंजाम देंगी तो अज़ खुद उनकी दीनी क़द्रों क़ीमत जाती रहेगी।

23. ज़रुरी है कि मुसलमानों के हाथों में मौजूद कुरआन में कमी बेशी करके लोगों को शक मे मुब्तिला किया जाये। ख़ास तौर पर कुफ़्फार और यहूद व नसारा के बारे में तौहीन आमेज़ आयात नेज़ अम्र बिल मारुफ़ और जेहाद से मुतअल्लिक़ आयतों को कुरआन से हज़फ़ किया जाये और उन कुरानों को तुर्की और फ़ारसी ज़बानों में तर्जुमा करके बाज़ारों में लाया जाये। ग़ैर अरब मुस्लिम हुकूमतों को तरग़ीब दी जाये कि वह अपने अपने इलाकों में कुरान , अज़ान और नमाज़ को अरबी ज़बान में पढ़ने से परहेज़ करें। दूसरा मसअला अहादीस व रिवायत में तशकीक पैदा करना है और कुरान की तरह इसमें भी तहरीफ़ व तर्जुमे से काम लेना है।

मुख़्तसर यह कि इसदूसरी किताब में भी मुझे बड़ी कारआमद चीज़ें दिखाई दी। इस किताब का नाम “ इस्लाम को क्योंकर सफ़हे हस्ती से मिटा जाये ” रखा गया था। इस में वह बेहतरीन अमली प्रोग्राम मुरत्तब थे जिन पर मुझे और मेर दीगर साथियों को काम करना था। इस किताब ने मुझ पर बड़ा असर क़ायम किया था। किताब के मुतलिये के बाद मैं इसे वापस करने नोआबादयाती इलाक़ों की विज़ारत पहुँचा जहाँ दूसरी मर्तबा सेक्रेट्री से मेरी मुलाक़ात हुई। उसने मुझे मुख़ातिब करके कहाः

“ जिन उमूर को तुम्हें अंजाम देना है इसमें तुम अकेले नहीं हो बल्कि तक़रीबन पांच हज़ार सच्चे और खरे अफ़राद मुख़्तलिफ़ गिरोहों की सूरत में तमाम इस्लामी मुमालिक में तुम्हारी मदद के लिये आमदा है। नोआबदयाती इलाक़ों की विज़ारत का ख़्याल है कि वह काम की पेशरफ़्त के साथ साथ उन अफ़राद की तादाद में इज़ाफ़ा करके उन्हें एक लाख तक पहुंचा दे। जब भी हमें उस अज़ीम गिरोह की तशकील में कामयाबी हुई यक़ीनन हम तमाम आलमे इस्लाम पर छा जायेंगे और इस्लामी आसार को मुकम्मल तौर पर मिटा देंगे। ”

इसके बाद सेक्रेट्री ने अपनी गुफ़्तगू जारी रखते हुए कहाः

“ मैं तुम्हे यह ख़ुशख़बरी देता हूँ कि हम आईन्दा एक सदी में अपनी मुराद को पहुंच जायेंगे और अगर आज हमारी नस्ल इस कामयाबी को न देख सके तो हमारी औलादें ज़रुर यह अच्छे दिन देखेंगी और यह ईरानी ज़रबुल मिस्ल कितनी मानी खेज़ है जिसमें कहा गया हैः “ कल दूसरो ने बोया हमने खाया। आज हम बो रहे है कल दूसरे खायेंगे। ” जिस दिन भी अज़ीम बर्तानिया या (समन्दरों की मलका) को इस्लामी मुमालिक पर फ़तहमन्दी नसीब हुई दुनियाए मसीहत उन तमाम तकालीफ़ से निजात पा जायेगी जिसे वह बारह सदियों से बर्दाश्त कर रही है। मुसलमानों ने इस अर्से में हम पर बड़ी जंगें मुसल्लत की जिनमें सलीबी जंगें बतौरे मिसाल है। यह जंगे बिल्कुल मुग़लों की यलगार की तरह बेमकसद थी कि जहाँ सिवाये क़त्ल व ग़ारतगरी , वीरानी व तबाही और लूट मार के कोई मक़स नहीं था लेकिन इस्लाम के ख़िलाफ हमारी जंग मुग़लों की तरह फ़ौज़ी कार्रवाईयों ओर क़त्ल व ग़ारतगरी पर मुन्हसिर नहीं है। हमें इस काम में जल्दी भी नहीं है। अज़ीम बर्तानिया की हुकूमत इस्लाम को मिटाने के लिये पूरे मुतालिये के साथ आगे बढ़ेगी और बड़े सब्र व तहम्मुल के साथ अपने अज़ीम कामों को बरुएकार लायेगी और अपने मक़सद में कामयाब होगी अलबत्ता हम ज़रुरी मवाक़े पर फ़ौजी कार्रवाईयों से भी दरेग़ नहीं करेंगे मगर यह इस सूरत में होगा जब हम इस्लाम हुकूमतों पर पूरी तरह छा जायेंगे और कुछ अनासिर हमारी मुख़ालिफ़त पर कमरबस्ता होकर मैदान में उतर आयेंगे। इस में कोई शक नहीं कि इस्तन्बोल के हुक्मरान बड़ी होशमन्दी और फ़तानत के मालिक हैं और इतनी जल्द हमें अपने प्रोग्रामों में कामयाब नहीं होने देंगे लेकिन हमें अभी से मुतवस्सित तबक़े के बच्चों को उन स्कूलों में तरबियत देना है , जो हमने उनके लिये क़ायम किये हैं। हमें उन इलाक़ों में मुतअद्दिद चर्च भी बनाने हैं , शराब , जुआ और शहवतरानी को इस तरह फैलाना है कि नौजवान नस्ल दीन व मज़हब को भूल जायें। हमें इस्लामी मुमालिक के हुक्मरानों के दरमियान इख़्तिलाफ़ात की आग भी हवा देना है। हर तरफ़ हरज मरज और फ़ितना व फ़साद का बाज़ार गर्म करना है। अरकाने हुकूमत और साहिबाने ईसाई औरतों के दाम में फंसाना है औऱ उनकी महफ़िलों को उन परीवशों से रौनक़ बख़्शना है ताकि वह आहिस्ता आहिस्ता अपने दीनी और सियासी इक़्तिदार से हाथ धो बैंठे। लोग उनसे बदज़न हो जायें और इस्लाम के बारे में उनका ईमान कमज़ोर हो जाये जिसके नतीजे में ओलमा , हुकूमत और अवाम का इत्तिहाद टूट जाये और ऐसे हालात में जंग की आग भड़का कर हम उन मुमालिक में इस्लाम की जड़ बुनियाद उखाड़ फेंकेंगे। ”