मनाज़िले आख़ेरत

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मनाज़िले आख़ेरत कैटिगिरी: क़यामत

मनाज़िले आख़ेरत

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

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मनाज़िले आख़ेरत

मनाज़िले आख़ेरत

हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

उक़बए दोम

मौत के वक़्त हक़ से उदूल

यानी मरते वक़्त हक़ से बातिल की तरफ़ पलट जाना और यह उस तरह है कि शैतान मरने वाले के पास हाज़िर होकर उसे वसवसए शैतानियत में मुबतिला करके शुकूक व शुबहात में डालता है। यहां तक कि वह उसे ईमान से ख़ारिज़ कर देता है , इसीलिए शैतान से पनाह मांगने के लिए दुआएं मंकूल हैं। जनाब फ़ख़रूल महक़क़ीन (र 0 अ 0) इरशाद फ़रमाते हैं कि जो शख़्स इससे महुफूज़ रहना चाहे उसे चाहिए कि ईमान और उसूले ख़मसा को दलायले क़तैया के साथ ज़ेहन में हाज़िर करे और खुलूसे दिल के यह वसवसए शैतानियां का रद साबित हो औऱ अक़ाएदे हक़क़ा के विद्र के बाद यह दुआ पढ़े-

“ अल्लाहुम्मा या अरहमर राहिमीन इन्नी क़द अवदातुका यक़ीनी हाज़ा व दीनी व अन्ता मुसतौदीन व क़द आमरतना बेहिफ़ज़िल वदाएई फ़रुद्ददोहू अलय्या वक़्ता हूज़ूरे मौत। ”

फ़ख़रुल मोहक़्क़ीन के इरशाद के मुताबिक़ मशहूर दोआए अदीला के मानी को समझ कर हुजूरे क़ल्ब के साथ पढ़ना मौत के वक़्त हक़ से उदूल के ख़तरे से सलामती के ख़्वाहिश मन्द के लिए मुफ़ीद है। शेख़ तूसी (र 0 अ 0) ने मोहम्मद बिन सुलेमान दलेमी से रिवायत की है कि मैंने इमाम जाफरे सादिक (अ 0 स 0) की ख़िदमत में अर्ज़ किया कि आपके पैरोकार शिया कहते हैं कि ईमान कीदो क़िस्में हैं।

अव्वल- ईमान मुस्तकिर व साबित।

दोम- जो बतौर अमानत सुपुर्द किया गया है और ज़ायल भी हो सकता है।

आप मुझे ऐसी दुआ तालीम फ़रमाएं कि जब भी मैं उसको पढ़ूं मेरा ईमान कामिल हो जाए और ज़ायल न हो , फिर आपने फ़रमाया इस दुआ को हर वाजिब नमाज़ के बाद पढ़ा करो।

“ रज़ीतो बिल्लाहे रब्बों व बेमोहम्मदिन सल्लल्लाहो अलैहे वआलेही नबीय्यन व बिल इस्लामे दीनन व बिन कुर्आने किताबन वबिल कआबते क़िबलतन व बेआलेइन वलेयव्वा इमामन व बिल मोहम्मदिन वल बिन अलीइन बल हुज्जते बिल सलवातुल्लाहे अलैहिम अइम्मतन अल्लाहुम्मा इन्नी रज़ीतो बेहिम आइम्मतिन फ़अरज़िनी लहुम इन्नका अला कुल्ले शयइन क़दीर। ”

आसानी ए मौत के आमाल

( इन चीज़ों के बाब में जो इस सख़्त अक़बा में मुफ़ीद हैं।)

नमाज़ का पाबन्दिए वक़्त के साथ अदा करना। एक हदीस में है कि क़ायनात के मशरिक़ व मग़रिब में कोई भी साहबे ख़ाना ऐसा नीहं कि मलकुल मौत पांचों नमाज़ों के अवक़ात में उन्हें पाबन्दिए वक़्त के साथ नमाज़ पढ़ने का आदी है तो मलकुल मौत उसे शहादतैन की तलक़ीन करता है और इब्लीस को उससे दूर भगाता है।

मनकूल (कथन) है कि हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) ने एक शख़्स को लिखा कि अगर तू चाहता है कि तेरा ख़ात्मा आमाले सालेह के साथ हो और तेरी रुह ऐसी हालत में कब्ज़ की जाय की तू अफ़ज़ल आमाल की हामिल हो तो अल्लाह ताला के हुकूक़ को बुजुर्ग व बरतर समझ न कि तू उसकी अता कर्दा नेअमतों को उसकी नाफ़रमानी में सर्फ़ करे और उसके हिल्म (शमा) से नाजाएज़ फ़ायदा उठाकर मग़रुर हो जाय। हर उस शख़्स को इज़्ज़त की निगाह से देख जिसको तू हमारे ज़िक्र में मशगूल पाये या वह हमारी मुहब्बत का दावा करे। इसमें तेरे लिये कोई ऐब नहीं कि तू उसे इज़्ज़त की निगाह से देखे ख़्वाह वह उसमें सच्चा हो या झूठा , इसमें तुझे तेरी सिदक़ नियत तुझे नफ़ा देगी और झूठ का नुकसान पहुंचेगा।

ख़ात्मा बिलख़ैर औऱ बदबख़्ती को नेक बख़्ती में तब्दील करने के लिए सहीफए कामिला की ग्यारहवीं दुआएं तमजीद ( “ या मनज़िकरह शऱूफज्जाकरीन ” ) का पढ़ना मुफ़ीद है और काफ़ी में मज़कूर दुआए तमजीद का पढ़ना मुफ़ीद है।

जीक़ाद के यकशम्बा (इतवार) वारिद शुदा नमाज़ को इस ज़िक्र शरीफ़ के साथ पढ़ना ज़्यादा मुफ़ीद है।

“ रब्बना ला तुज़िग़ कुलूबना बादा इज़ हदैतना व हबलना मिल्लदुनका रहमह इन्नका अनतल बहाब। ”

तसबीहे जनाबे सैय्यदा का पाबन्दी के साथ पढ़ना। अक़ीक़ की अंगूठी पहनना , खुसुसन (विशेषकर) सुर्ख़ अक़ीक़ की अगर उस पर मोहम्मद नबी अल्लाह व अलीयुन वली उल्लाह नक़श (लिखा) हो तो और बेहतर है सूरह “ क़द अफलहाल मोमिनुना ” का हर जुमा को पढ़ना औऱ इस दुआ को नमाज़ सुबह , नमाज़ मग़रिब के बाद सात बार पढ़ना-

“ बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर रहीम लाहौला वला कुव्वता इल्ल बिल्लाहिल अलीइल अज़ीम। ”

22 रजब की शब (रात) को आठ रकत नमाज़ इस तरीक़े से पढ़े कि हर रकत में “ अलहम्दो ” एक बार औऱ कुल या अय्योहल काफ़ेरुना ” सात बार पढ़े और ख़्तम होने के बाद दस बार दरुद शरीफ़ और दस बार अस्तग़फार पढ़े।

सैयद बिने ताऊस ने रसूले अकरम से रवायत की है कि जो शख़्स 6 शाबान को चार रकत नमाज़ इस तरह पढ़े कि हर रकत में सूरए हम्द एक बार और सूरए तौहीद पचास बार पढ़े तो हक़ ताला उसकी रुह (आत्मा) को बड़ी नर्मी के साथ क़ब्ज़ करेगा उसकी कब़् कुशादा होगी और वह अपनी क़ब्र से इस तरह उठेगा कि उसका चेहरा चौहदवीं के चांद की तरह रोशन होगा और कलमए शहादत ज़बान पर जारी होगा।

यह नमाज़े बईना नमाज़े हज़रत अमीरूल मोमिनीन (अ 0 स 0) की तरह है , जिसके फज़ाएल बेशुमार हैं। मैं इस जगह चन्द हिकायात का वर्णन करना मुनासिब मौजूँ समझता हूँ।

हिकायते अव्वल

फुज़ैल बिने अयाज़ से जो सुफ़िया में से थे , मनकूल है कि उनका एक फाज़िल (योग्य) शागिर्द था। वह एक बार जब बीमार हुआ , नज़आ के वक़्त उसके सिराहने आकर बैठ गया और सुरए यासीन की तिलावत शुरु की। उस मरने वाले शागिर्द ने कहा फ़िर ऐ उस्ताद इस सूरे को मत पढ़ो। फुज़ैल ने सुकूत एखतेयार किया , फ़िर उसे कलमए तौहीद “ लाइलाहा इल्लल्लाहो ” पढ़ने को कहा , मगर उसने पढ़ने से इन्कार कर दिया और कहा , कि मैं इससे बेज़ार हूँ “ अलअयाज़ बिल्लाहे ” औऱ वह इसी हाल में मर गया। फुज़ैल यह हाल देखकर सख़्त नाराज़ हुआ औऱ अपने घर चला गया और फ़िर बाहर न निकला। फुज़ैल ने उससे पूछा , तू तो मेरे फ़ाज़िल (योग्य) शागिर्दों में से था , तुझे क्या हुआ कि खुदावन्दे तआला ने तुझसे मारिफ़त (परिचय) का ख़ज़ाना छीन लिया और तेरा अंजाम (परिणाम) बुरा हुआ ? उसने जवाब दिया , इसकी तीन वजूहात (कारण) हैं , जो मुझमें थी-

अव्वल (प्रथम)- चुग़लख़ोरी “ हलाकत ” है हर चुग़लख़ोर तानाबाज़ के लिए। ”

दोम (द्वितिय)- हसद करना , “ हसद ईमान को इस तरह खाता है कि जिस तरह आग लकड़ी को (उसूले काफ़ी)। ”

सोम (तृतीय)- नुक़ता चीनी करना।

“ फ़ित्ना क़त्ल से भी ज़्यादा बड़ा है। ” मुझे एक बीमारी थी जिसके लिए डाक्टर ने यह तजवीज किया था कि मैं हर साल एक प्याला शराब पिया करूँ। अगर यह न पिया तो बीमारी नहीं छोड़ेगी , इसलिए मैं डाक्टर की हिदायत के मुताबिक़ शराब पीता रहा , इन्हीं तीन वजूहात की बिना पर जो मुझमें थी मेरा अंजाम (परिणाम) बुरा हुआ और मुझे इस हालत में मौत आ गयी।

मुझे इस हिकायत के सम्बन्ध में इस वाक़िया का वर्णन करना मुनासिब मालूम होता है जो शेख़ कुलैनी (र 0) ने अबू बसीर से रवायत की है। वह कहता है मैं हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) की ख़िदमत में हाज़िर था कि उम्मे ख़ालिद बिने माबदिया ने आप की ख़िदमत में हाज़िर होकर अर्ज़ किया कि मेरा इलाज नबीज़ तजवीज़ किया है , जो एक क़िस्म की शराब है औऱ जानती थी कि आप इससे कराहत (घृणा) करते हैं लिहाज़ा मैंने आपसे इस मामले में मालूम करना ज़्यादा अच्छा समझा। आपने फ़रमाया तुझे इसके पीने से किस बात ने रोका। अर्ज़ करने लगीं , क्योंकि मैं दीनी (धार्मिक) मआमलात में आपकी मोक़ल्लिद (अनुयायी) हूँ इस वजह से क़यामत के दिन यह कह सकूं कि जाफ़र बिने मोहम्मद ने मुझे हुक्म दिया था या मना फ़रमाया था , इमाम अलैहिस्सलाम अबू बसीर की तरफ़ मुख़तिब हुए। ऐ अबू मोहम्मद क्या तू इस औरत की बात और मसला की तरफ़ ध्यान नहीं देता। फ़िर उस औरत ने कहा , ख़ुदा की क़सम मैं तुझे इसमें से एक क़तरा (बूंद) भी पीने की इजाज़त नहीं देता ऐसा न हो कि इसके पीने से उस वक़्त पशेमान हो जब तेरी जान यहां तक पहुंचे औऱ गले की तरफ़ इशारा किया औऱ तीन बार कहा , फ़िर उस औरत से कहा कि क्या तू अब समझ गयी कि मैंने क्या कहा ?

दूसरी हिकायत

शेख़ बहाई अतर उल्लाह “ मरक़दए कशकोल ” में ज़िक्र फ़रमाते हैं कि एक शख़्स जो ऐशो-इशरत में पला था , जब मरने के क़रीब हुआ तो उसे कलमए शहादतैन की तलक़ीन की गयी , मगर उसने शहादैन की जगह यह शेर पढ़ा।

“ कहां है वह औरत जो एक दिन मांदी ख़स्ता हालत में जा रही थी कि उसने मुझसे पूछा कि हम्माम मिनजानिब का रस्ता कौन सा है। ”

उसका इस शेर को पढ़ने का कारण यह था कि एक रोज़ एक पाक दामन और ख़ूबसूरत औरत अपने घर से निकली कि वह मशहूर व मारुफ़ हम्माम मिन जानिब की तरफ़ जाय , मगर वह हम्माम का रास्ता भूल गयी और रास्ता चलने की वजह से उसकी हालत बुरी हो रही थी कि एक शख़्स को मकान के दरवाज़े पर देखा। उस औरत ने उस शख़्स से हम्माम मिनजानिब का रास्ता पूछा। उसने अपने घर की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि हम्माम मिन जानिब यही है। वह पाक़ दामन उस मकान को हम्माम समझ कर दाख़िल हुई , उस शख़्स ने फौरन मकान का दरवाज़ा बन्द कर लिया औऱ उससे ज़िना की ख़्वाहिश की। वह बेकस औऱत समझ गयी अब वह इसकी गिरफ़्त से बिना किसी तदबीर के नहीं बच सकती , इसलिए बड़ी मोहब्बत औऱ दिलचस्पी का इज़हार किया और कहा मेरा बदन गंदा और बदसूरत है , मैंने इसी वजह से नहाने का इरादा किया था। अब बेहतर है कि आप मेरे लिए इतर और बेहतरीन खुशबू लाएं , ताकि मैं आपके लिए अपने आप को मोअत्तर करुं , और कुछ खाना भी लाएं ताकि दोनों मिलकर खांए। हां जल्दी आना क्योंकि मैं आपकी सख़्त मुशताक हूँ। जब उस शख़्स ने उसको अपना सख़्त मुश्ताक पाया तो संतुष्ट होकर उसे अपने मकान पर बिठाया और ख़ुद खाना और इतर लाने के लिए बाहर निकला , ज्यों ही उसने अपना क़दम बाहर रखा वह औरत भी घर से भाग निकली और उसके चुंगल से निजात पायी , जब वह शख़्स वापस आया तो औरत को न पाकर दुख प्रकट करने लगा। अब जब उस आदमी के एहतेज़ार का वक़्त आया तो उसी औरत का ख़्याल उसके दिल मे था और इस गुज़रे हुए वाक़या को कलमए तौहीद के बजाए एक शेर में ब्यान करता है।

ऐ भाई! इस हिकायत पर गौ़र कर कि एक गुनाह (पाप) के इरादे ने उस मर्द को मरते वक़्त कलमए शहादत के इक़रार किस तरह मरग़श्ता (विमुख) किया) , हालांकि उससे वह फ़ेल (कार्य) सरज़द नहीं हुआ। केवल इसके कि उसने ज़िना (व्यभीचार) के इरादे से अपने घर में दाख़िल किया और ज़िना का इरतिकाब (पाप) नहीं किया। इसी तरह कि और बहुत सी हिकायात हैं।

शेख़ कुलैनी ने हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) से रवायत की है , कि आपने फ़रमाया , जो शख़्स ज़कात की एक क़ैरात (सिक्का) भी रोके उसे इख़्तियार है कि मरते वक़्त हज अदा न करे।

लतीफ़ा

किसी आरिफ़ (ज्ञाता) से मनकूल (उधृत) है कि वह मोहतज़र के पास पहुंचे , हाज़रीन ने उनसे इलतिजा की कि इस मोहतज़र को तलक़ीन करे , उसने मोहतज़र को यह रूबाई पढ़ने को कहा-

गर मन गुनहा जुम्ला जां कर दस्तम!

लुत्फ़ तो उम्मीद अस्त गिर्द दस्तम।।

आजिज़ तर अज़ई मौं ख़्वाह का कनूं , हस्तुम।।

“ अगरचे मैंने तमाम दुनिया जहां के गुनाह कर डाले लेकिन मुझे उम्मीद है कि तेरी रहमत मेरा दामन पकड़ लेगी , तू कहता है कि मैं आजिज़ी के वक़्त के हाथ पकड़ लेता हूं इस वक़्त जिस क़द्र मैं आजिज़ हूँ उससे ज़्यादा औऱ कोई आजिज़ न होगा।

मौत के बाद क़ब्र तक

रुह (आत्मा) क़ब्ज होने के बाद रुह बदन से ऊपर ठहरी रहती है , फिर मोमिन (धर्मनिष्ठ) की रुह को , फ़िरश्ते (दूत) आसमान की तरफ़ ले जाते हैं औऱ काफ़िर (नास्तिक) की रुह को नीचे की है तो आवाज़ आती है मुझे जल्दी-जल्दी मंज़िल तक पहुंचाओ औऱ अगर काफ़िर (नास्तिक) है तो कहता है कि मुझे क़ब्र में ले जाने के लिए जल्दी न करो। गुस्ल (स्नान) के वक़्त मोमिन फ़िरश्तों के जवाब में कहता है जो पूछता हैं कि क्या तू वापस दुनिया में अपने परिवार के पास जाना चाहता है ? वह कहता है मैं नही चाहता कि दोबारा सख़्ती और मुसीबत औऱ परेशानी की तरफ़ वापस जाऊं।

मय्यत की रुह (आत्मा) गुस्ल और ताशीय जनाज़ा (अर्थी) के वक़्त हाज़िर होती है नहलाने वाले (ग़ुस्साल) को देखती है और बाज़ रवायात मे है कि नहलाने वाले (ग़स्साल) को देखती है और बाज़ रवायात में है कि नहलाते वक़्त और लिटाते वक़्त मय्यत को ऐसा महसूस होता है गोया किसी ने बाला ख़ाने से नीचे गिरा दिया और नहलाने वाले (ग़स्साल) के सख़्त हाथ ऐसे महसूस होते हैं गोया उसके जिस्म को पीटा जा रहा है , लिहाज़ा नहलाने वाले (ग़स्साल) को चाहिए कि वह नर्म हाथ लगाए ताकि तक़लीफ़ न हो। मय्यत हाज़रीन की बातों को सुनती है और उनकी शक्लों को पहचानती है , इसलिए चाहिए कि मय्यत के चारों तरफ़ जमा होने वाले लोग ज़्यादा बात न करें और आमद रफ़त ज़्यादा न करें। हायज़ा और नफ़सा औऱ जुनबी हज़रात मय्यत के पास इकट्ठा न हों , क्योंकि यह तमाम बातें मलाएकए रहमत की नफ़रत की वजह हैं। बल्कि ऐसे काम करने चाहिये जो नूजुले रहमते परवरदिगार का बायस है। जैसे यादे खुदा और तिलावते कलामे पाक वग़ैराह। एहतेज़ार , गुस्ल व कफ़न और दफ़न के वक़्त मज़हबी रूसूमात और मुस्तहबात की रियायत ज़रुर करनी चाहिए।

कुछ अख़बार में मोहददसीन ने फ़रमाया है कि दफ़न करने के बाद रुह बदन से दोबारा सम्बन्ध पैदा करती है और जब मशाइयत करने वालों को वापस घरों को जाते देखती है तो समझ लेती है कि अकेले छोड़ जा रहे हैं और बे आराम हो जाती है। हसरत भरी निगाह करती है कि जिस औलाद को तकलीफ़ के साथ पाला था पीठ फ़ेर कर जा रही है। अब सिवाय आमाल के कोई मूनिस व ग़मख़्वार नहीं है। सबसे पहली बशारत जो मोमिन (धर्मनिष्ठ) को क़ब्र में दी जाती है , वह यह है कि ऐ मोमिन! ख़ुदा ने तुझे और तेरे जनाज़ा (अर्थी) को मशाइयत करने वाले मोमनीन के तमाम गुनाह (पाप) बख़्श (शमा) दिए हैं।

फ़स्ल दोम

क़ब्र

आख़िरत (परलोक) की हौलनाक मंज़िलों में एक मंजिल क़ब्र है , जो हर दिन आवाज़ देती है “ अना बैतुल गुरबते ” मैं ग़रीब का घऱ हूँ , “ अना बैतुल वहशते ” मैं ड़रावना घर हूँ। ” “ अना बैतुद दूदे। ” मैं कीड़ों का घर हूँ। इस मंज़िल में बड़ी दुश्वार गुज़ार घाटियां हैं और बड़े हौलनाक मुक़ामात हैं। मैं इस जगह पर कुछ हौलनाक मुक़ामात का वर्णन करुँगा-

उक़बए (यमलोक) अव्वल

वहश्ते क़ब्र

किताब में है जब मय्यत को कब्र के पास लाया जाऐ तो फ़ौरन उसे क़ब्र में नहीं उतारना चाहिए। इसमें शक नहीं कि कब़र बड़ी हौलनाक़ जगह है और साहबे क़ब्र ख़ुदावन्दताला के ख़ौफ़े मालूमा से पहनाह मांगता है। मय्यत को थोड़ी देर के लिए कब्र से कुछ दूर रख देना चाहिए ताकि मय्यत कुछ सुस्ताकर क़ब्र की ख़ौफनाक़ मंज़िल के लिए हिम्मत और ताक़त पैदा कर सके , फिर थोड़ा चल कर रुक जाना चाहिए तब क़ब्र के पास चले जाय।

मजलिसी (र 0) इसकी तफसीर में फ़रमाते हैं कि अगरचे इन्सान की रुह बदन से जुदा हो जाती है और रुहे हैवानी ख़त्म हो जाती है लेकिन नफ़्से नातिक़ा ज़िन्दा होता है और उसका सम्बन्ध पूरी तरह से बदन से अलग नहीं होता।

क़ब्र की तारीकी , सवालाते मुनकिर व नकीर , फ़िशारे क़ब्र और दोज़ख़ का अज़ाब हौलनाक़ मरहला है। इसलिए दूसरों के लिए बायसे इबरत (उपदेश का कारण) है कि मय्यत के हालात पे ग़ौर व फ़िक्र करे , क्योंकि कल यही मराहिल (कठिन समस्याएँ) उसे भी दरपेश होंगे। एक हदीसे हसन में युनूस से मनकूल है (कथन) कि मैंने हज़रत मूसा क़ाज़िम (अ 0 स 0) से सुना कि हर उस घर का दरवाज़ा जिसका मैं ख़्याल करता हूं वही घर मेरे लिए तंग हो जाता है। आपने फ़रमाया औऱ यह इसलिए कि जब तू मय्यत को क़ब्र के पास ले जाय उसे थोड़ी सी मोहलत दे ताकि वह मुनकिर व नकीर के सवालात के लिए इस्तेताअत (शक्ति) पैदा कर सके इंतही।

बरआ बिने आज़िब से जो मशहूर सहाबी थे , मनकूल (कथन) है कि मैं एक मर्तबा रसूले अकरम (स 0 अ 0) के पास बैठा था कि आप की नज़र एक भीड़ पर पड़ी जो एक जगह इकट्ठा थी आपने दरयाफ़्त फ़रमाया कि यह लोग यहां पर क्यों इकट्ठा हुए हैं ? लोगों ने बतलाया कि यह क़ब्र खोदने के लिए इकट्ठा हुए हैं बरआ कहता है कि जब आँ हज़रत (स 0 अ 0) ने क़ब्र का नाम सुना जल्दी-जल्दी उनकी तरफ़ चल दिए और वहां पहुंच कर क़ब्र के एक किनारे पर बैठ गए और मैं आपके बिल मुक़ाबिल दूसरे किनारे पर बैठ गया , ताकि मैं देख सकूं कि आप क्या करते हैं ? मैंने देखा कि आप इतना ज़्यादा रोए कि आपका चेहरये मुबारक तर हो गया फिर हमारी तरफ़ मुख़ातिब होकर फ़रमाया-

यानी “ ऐ मेरे भाईयों! ” इसी मिस्ल मकान के लिए तैयारी करो। ”

शेख़ बहाई से मनक़ूल (कथन) है कि उन्होंने कुछ हाकिमों को देखा , जिन्हें मरते वक़्त सिर्फ़ हसरतो यास के और कुछ प्राप्त न हुआ। इस मरने वाले से पूछा गया कि तेरा यह हाल जो हम देख रहे हैं , किस वजह से है। उस मोहतज़र ने जवाब दिया कि आप उस आदमी के बारे में क्या गुमान (भ्रम) करते हैं जो एक लम्बे सफ़र पर बिना किसी ज़ादे राह के चला जाय और बग़ैर किसी मोनिस व ग़मख़्वार वहशतनाक क़ब्र में सुकूत करे और हाकिम आदिल के सामने बग़ैर किसी दौलत के पेश हो।

कुतुब रावन्दी से मनकूल (कथन) है कि हज़रत ईसा (अ 0 स 0) ने अपनी वालिदा मरयम (अ 0 स 0) को उनके इन्तिक़ाल के बाद आवाज़ देकर कहा – ऐ अम्मी! मेरे साथ कलाम (बात-चीत) करो। क्या आप दुनिया में वापसी की ख़्वाहिशमन्द हैं तो हज़रत मरयम ने जवाब दिया हाँ। इसलिए कि लम्बी सर्द रातों में नमाज़ पढ़ूं और लम्बे गरम दिनों में रोज़ा रखूं। ऐ जाने मन यह रास्ता सख़्त दर्दनाक है।

मनकूल है कि हज़रत फ़ातिमा (अ 0 स 0) ने हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ 0 स 0) को वसीयत की थी कि जब मैं रहलत (इन्तिकाल) कर जाऊँ तो आप ही मुझे गुस्ल व कफ़न दीजिएगा औऱ खुद ही नमाज़े जनाज़ा पढ़ कर क़ब्र में उतरिएगा और लहद में लिटाकर मेरे ऊपर मिट्टी डालिएगा। फ़िर मेरे सिराहने मेरी सूरत के मुक़ाबिल बैठकर मेरे लिए कुर्आन ख़्वानी कीजिएगा और मेरे लिए ज़्यादा दुआ कीजिएगा , क्योंकि यह ऐसा वक़्त होता है , जिसमें मुर्दा ज़िन्दा के उन्स व मुहब्बत का मोहताज होता है जब जनाबे फ़ात्मा (अ 0 स 0) बिन्ते असद का इन्तिक़ाल हुआ तो मौला अमीरुल मोमिनीन (अ 0 स 0) रोते हुए सरवरे कायनात की ख़िदमत में हाज़िर हुए और अर्ज़ किया कि मेरी वालिदा का इन्तिक़ाल हो गया है। रसूले खुदा (स 0 अ 0) ने फ़रमाया मेरी वालिदा दुनिया से गुज़र गयीं , क्योंकि उनका पैग़म्बरे ख़ुदा से अजीब ताअल्लुक था। कुछ मुद्दत हुजूर मां की तरह रखा। हुज़ूर ने अपने पैरहन में कफ़न दिया। कुछ देर क़ब्र में लेट कर दुआ करते रहे , दफ़न करने के बाद हज़ूर कुछ देर क़ब्र पर खड़े रहे , फिर आवाज़ दी। “ अबनका , अबनका अली अक़ीला व अली जाफ़र ” हुज़ूर से पूछा इन आमाल की वजह क्या है ? तो आपने फ़रमाया कि एक दिन बरोज़े क़यामत बरहना (नंगे) उठने का ज़िक्र हुआ , तो फ़ातिमा बहुत रोयीं और मुझसे कहा कि अपने पैरनह (कपड़े) में कफ़न दिजिएगा और फ़िशारे क़ब्र से डरती थीं , इसलिए मैं खुद कब्र में लेट गया और दुआ की ताकि परवर दिगारे आलम उनको फ़िशारे क़ब्र से अमान दे और यह जो मैंने कहा है , ( अबनका) यह इस वजह से था कि मुनकिर व नकीर ने सवाल किया ख़ुदा कौन है ? जवाब दिया अल्लाह। फिर पैग़म्बर के मुत्तालिक़ पूछा तो जवाब दिया मोहम्मद (स 0 अ 0) जब इमाम के मुत्तालिक़ सवाल हुआ तो फ़ातिमा जवाब न दे सकीं। (मालूम होता है ख़ुम ग़दीर पर ख़िलाफ़ते अली अ 0 स 0 के ऐलान सरीह से क़ब्ल फ़ौत हुई) तो मैंने कहा कहो अली। (अ 0 स 0) आप का बेटा अली (अ 0 स 0) न कि जाफ़र औऱ न ही अक़ील। जनाबे फ़ातिमा (अ 0 स 0) इस जलालते शान की मालिक थीं कि तीन दिन तक हज़रत अली (अ 0 स 0) की पैदाइश के वक़्त ख़ानए काबा के अन्दर परवरदिगारे आलम की मेहमान रहीं अमीरुल मोमनीन जैसे मासूम व मुतहर बच्चे की परवरिश का महल आपका बदन रहा और आप दूसरी औरत थीं जो पैग़म्बर पर ईमान लायीं। इतनी इबादात के बावजूद इन अक़बात (परलोक) से डरती थीं और रसूले अकरम (स 0 अ 0) ने इनके साथ इस क़द्र मेहरबानियां फ़रमायीं। इतने वाक़ियात के होते हुए भी हम अपने हालात की फ़िक्र नहीं करते और फ़िशारे क़ब्र और क़यामत के रोज़ की बरहनी का ग़म नहीं करते (मआद)

सैय्यद बिन ताऊस अलैहिर्रहमह ने हज़रत रसूले अकरम (स 0 अ 0) से रवायत की है कि मय्यत पर क़ब्र में पहली रात से ज़्यादा सख़्त घड़ी कोई नहीं होती। इसलिए अपने मुर्दों पर सदक़े के ज़रिए रहम करो। अगर तुम्हारे पास सदक़ा देने के लिए कोई चीज़ मौजून नहीं है तो तुममें से कोई शख़्स मय्यत के लिए दो रकत नमाज़ इस तरह पढ़े कि रकत अव्वल में एक मर्तबा सुरए फ़ातेहा और दो मर्तबा कुलहो अल्लाहो अहद और दूसरी रकत में सूरए फ़ातेहा एक मर्तबा औऱ सूरए अलहकमल तकासर दस मर्तबा पढ़ें। फ़िर सलाम पढ़ कर नमाज़ को ख़त्म करे और इस तरह कहेः-

“ अल्लाहुम्मा सल्ले अला मोहम्मदीन व आले मोहम्मद वबअस सवाबहा इला क़बरे ज़ालिकल मैय्यते फुलां बिन फुलां। ”

अल्लाहतआला उसी वक़्त उस मय्यत की क़ब्र पर एक हज़ार मलायक के लिबास और बेहश्ती हुलले देकर भेजता है और उसकी क़ब्र को सूर फूँकने (क़यामत) तक वसीअ और फ़राक़ कर देता है और नमाज़ पढ़ने वाले को बेशुमार नेकियां अता करता है और उसके लिए चालिस दर्जे बुलन्द फ़रमाता है।

नमाज़ दीगर

क़ब्र में पहली रात को ख़ौफ़ को दूर करने के लिए दो रकत नमाज़ हदियए मय्यत इस तरह पढ़ो कि पहली रकअत में सूरए हम्द और आयतल कुर्सी एक मर्तबा दूसरी रकअत मे सूरए हम्द के बाद दस मर्तबा सूरए इन्ना अनज़लना पढ़ो और जब सलाम पढ़ लिया जाये तो कहो , “ अल्ला हु्म्मा सल्ले अला मोहम्मदिन व आले मोहम्मद वबअस सवाबहा इला क़ब्रे फ़लां। और इस जगह मय्यत का नाम लो। ”

हिकायत

मेरे उस्ताद सिक़ततुल इस्लाम नूरी नूर अल्लाह मरक़दह ने अपने उस्ताद मादनुल वलमआली मौलाना अलहाज मुल्ला फ़तेह अली सुल्ताना बादी इत्तर उल्लाह मज़जआ से दारुल सलाम में न नक़ल फ़रमाया है कि मेरी आदत थी कि मैं जब भी मोहिब्बाने अहलेबैत में से किसी की वफ़ात की ख़बर सुनता उसके लिए दफ़न की पहली रात को दो रकत नमाज़ पढ़ाता , चाहे मरने वाला मेरे वाक़िफ़कारों में से होता या कोई दूसरा औऱ मेरे सिवा किसी शख़्स को मेरी इस आदत का इल्म (ग्यान) न था। एक दिन मेरे दोस्तों में से एक शख़्स मुझे राद में मिला और मुझसे कहा कि मैंने कल रात ख़्वाब में एक शख़्स को देखा , जिसने उसी ज़माने में वफ़ात पायी थी। मैंने उससे मौत के बाद के हालात मालूम किए तो उसने मुझे जवाब दिया कि मैं सख़्ती औऱ बला में गिरफ़्तार था और अभी सज़ा भुगत ही रहा था फलां (अमुक) शख़्स मेरे लिए पढ़ी हुई दो रकअत नमाज़ मेरे लिए नजात (छुटकारा) की वजह बनी और उसने आपका नाम लिया और कहा कि ख़ुदा उस एहसान के बदले उसके बाप पर रहमत करे जो उसने मुझ पर किया। मुल्ला फतेह अली मरहूम ने उस वक़्त फ़रमाया कि उस शख़्स ने मुझसे उन नमाज़ के बारे में मालूम किया कि वह कौन सी नमाज़ है ? मैंने उसे अपनी आदत से आगाह किया , जिसको मैंने मुर्दों के लिए अपनाया था औऱ नमाज़े हदियए मय्यत की तरकीब बतायी।

वह चीज़ें जो वहश्ते क़ब्र के लिए मुफ़ीद हैं

इनमें से यह है कि नमाज़ का रुकूअ पूरा करता हो , चूनांचे हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़र से मर्वी है कि जो शख़्स नमाज़ में रुकूअ मोकम्मल अदा करता हो उसकी क़ब्र में वहशत (डर) दाख़िल न होगी और जो शख़्स “ लाइलाहु इल्लल्लाहु मालिकुल हक़्कुल मुबीन ” हर रोज़ सौ बार पढ़े। वह जब तक ज़िन्दा रहेगा , फ़क़्र व फ़ाक़ा से महफूज़ रहेगा और वहशते क़ब्र से मामून रहेगा औऱ वह तवन्गर (धनवान) हो जाएगा। उसके लिए बेहशत (स्वर्ग) के दरवाज़े खोल दिए जाएंगे। चूनांचे एर रवायत में वारिद है कि जो शख़्स सूरए यासीन को सोने से पहले पढ़े औऱ नमाज़ लैलातुल रग़ायब पढ़े वह वहशते क़ब्र से महफूज़ रहेगा। मैंने इस नमाज़ के फ़ज़ायल (गुण) को “ मफ़ातीह अलजनान ” में माहे रजब के आमाल के ज़ैल में दर्ज किया है। मनकूल है जो शख़्स माहे शाबान में बाहर दिन रोज़ा रखे तो उसकी क़ब्र में हर रोज़ सत्तर हज़ार फ़रिश्ते क़यामत तक ज़ियारत के लिए आते रहते हैं।

औऱ जो शख़़्स किसी की आयादत करता है तो अल्लाहताला उसके लिए एक फ़रिश्ते को मोवक्किल करता है जो मशहूर (प्रलय) तक उसकी क़ब्र में अयादत करता है। अबू सईद ख़दरी से मनकूल है कि मैंने हज़रत रसूले अकरम (स 0 अ 0) को हज़रत अली (अ 0 स 0) से फ़रमाते हुए सुना है कि आपने फ़रमाया ऐ अली! अपने अपने शियों को खुशखबरी सुना दो कि उनके लिए मौत के वक़्त मायूस वहशते क़ब्र और महशर (प्रलय) का ग़म नहीं होगा।

उक़बए (प्रलय) दोम

तंगी व फ़िशारे क़ब्र

. यह वह उक़बा (प्रलय) है कि जसका केवल आभास (तसव्वर) , ही इन्सान को दुनिया में बेचैन करने के लिए काफ़ी है। हज़रत अमीरूल मोमनीन (अ 0 स 0) ने फ़रमाया-

“ ऐ अल्लाह के बन्दो! मौत के बाद क़ब्र में जो कुछ उस शख़्स के साथ होगा जिसके गुनाह माफ़ न होंगे , वह मौत से ज़्यादा सख़्त है , उसकी तंगिए फ़िशार क़ैद और तन्हाई से डरो। बेशक क़ब्र हर रोज़ कहती है कि मैं तन्हाई का घर हूँ , हौलनाक घर मैं कीड़ों का घर हूँ और क़ब्र या तो जन्नत के बाग़ात में एक है या आग के गड़हों में से गड़हा। यहां तक कि आपने फ़रमाया बेशख क़ब्र से याद किया है वह यह है कि वह काफ़िर पर निनन्यानबे ( 99) अज़देह उसकी क़ब्र में मुल्लत करेगा , जो उसके गोश्त को नाच लेंगे और उसकी हड्डियों को तोड-डालेंगे और क़यामत तक इसी तरह बार-बार करते रहेंगे। अगर इनमें से एक अज़दहा ज़मीन की तरफ़ सांस ले डाले तो ज़मीन पर कोई सब्जी न उगने पाए। ऐ अल्लाह के बन्दों। तुम्हारे नफ़्स कमज़ोर और तु्म्हारे जिस्म नाजुक हैं , जिनके लिए कमज़ोर तरीन अज़दा काफ़ी हैं। ”

रवायत में है कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) रात के आख़िरी हिस्से में नींद से बेदार होकर अपनी आवाज़ को इतना बुलन्द करते हैं कि अहले ख़ाना इस आवाज़ को सुनते और आप फ़रमाते-

अपने लिए नेकी और भलाई , अज़ाबे मौत सकराते मौत , अज़ाबे क़ब्र , तनहाई क़ब्र वग़ैरा की दुआएं पढ़ते थे।

फ़िशारे क़ब्र के असबाब

पेशाब की नजासत से अदम ऐहतराज़ (बचना) या इसकी नजासत को मामूली समझना या नुक्ताचीनी करना , ग़ीबत करना , औऱ रिश्तेदारों से क़तआ ताअल्लुक़ी करना , अज़ाबे क़ब्र का बायस है।

हज़रत सअद बिन मआज़ अन्सार के रईस थे। रसूले ख़ुदा (स 0 अ 0) औऱ मुस्लमीन के नज़दीक इतने मोहतरम थे कि जब वह सवार होकर आते तो रसूल खुदा (स 0 अ 0) मुसलमानों को उनके इस्तक़ेबाल का हुक्म देते। ख़ुद पैग़म्बरे ख़ुदा (स 0 अ 0) उनके वारिद होने पर खड़े हो जाते। यहूदियों के साथ लड़ाई के वक़्त जेहाद में जाना उनके लिए ज़रुरी न था। सत्तर हज़ार फ़रिश्तों ने उनके ज़नाज़े में शिरकत की और रसूले ख़ुदा (स 0 अ 0) नंगे पैर शुरू से आख़िर तक जनाज़े के साथ रहे और कंधा दिया और फ़रमाया कि मलाएका की सफ़ें नमाज़े जनाज़ा के वक़्त मौजूद थीं और मेरा हाथ जिबराइल के हाथ में था औऱ साद के जनाज़ा की मशाइयत कर रहे थे। हुज़ूरे अकरम (स 0 अ 0) के नज़दीक इतने मोहतरम कि खुद आं हज़रत (स 0 अ 0) ने उनको अपने हाथ से क़ब्र में उतारा। सअद की वालिदा ने बेटे से मुख़ातिब होकर कहा कि ऐ सअद! “ हैनीयन लकल जन्नह ” बेटा तुझे जन्नत मुबारक हो। हज़रत ने फ़रमाया कैसे मालूम किया तेरा फ़रज़न्द जन्नती है ? तेरे बेटे सअद पर फ़िशारे क़ब्र हो रहा है।

दूसरी रवायत में है कि इमाम अलैहिस्सलाम ने साद के फ़िशारे क़ब्र का सबब पूछा तो आप (स 0 अ 0) ने फ़रमाया अपने अहलो अयाल के साथ बदअख़लाकी किया करता था , इसी वजह से फ़िशारे क़ब्र है , ( पनाह बखुदा) (ख़ज़ीनतुल जवाहर)।

ग़ौर का मुक़ाम है कि इतना बड़ा मोहतरम सहाबी भी फ़िशारे क़ब्र से नहीं बच सका।

एक रवायत (कथन) के मुताबिक फ़िशारे क़ब्र उन चीज़ों का कफ़्फ़ारा है , जिनको मोमिन (धर्मनिष्ठ) नष्ट (ज़ाया) कर देता है शेख़ सदूक (र 0 अ 0) हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) से रवायत करते हैं कि एक आलिम (ग्यानी) को क़ब्र में कहा गया कि हम तुझे बतौर अज़ाबे खुदावन्दी एक सौ ताज़ियाने मारेंगे , उसने कहा तुझे बतौर बरदाशत की ताक़त नहीं , वह कम करते गये , यहां तक कि एक कोड़े तक पहुंचे और कहा कि अब एक ताज़ियाने के अलावा चारा नहीं। उसने कहा यह अज़ाब मुझे किस वजह से होगा। फ़रिश्तों ने कहा कि इसकी वजह यह है कि तूने एक रोज़ बग़ैर वुज़ू के नमाज़ पढ़ी थी और बूढ़े आदमी के पास से गुज़रा मगर उसकी इमदाद (सहायता) न की। बस उसे अज़ाबे ख़ुदा का एक ताज़ियानी मारा गया और उसकी क़ब्र आग से पुर हो गयी और आं हज़रत (स 0 अ 0) ने रवायत (कथन) है कि जब कोई मोमिन (धर्मनिष्ठ) बावजूद कुदरत (सामर्थ्य) अपने मोमिन भाई की हाजत (इच्छा) पूरी नहीं करता तो अल्लाहतआला उसकी क़ब्र में एक बड़ा अजदहा मुसल्लत करेगा जिसका नाम “ शुजा ” है जो हमेशा उसकी उंगलियों को काटता रहेगा।

एक दूसरी रवायत (कथन) में है कि वह उसकी अंगुश्त शहादत को क़यामत तक काटता रहेगा , चाहे उसका यह गुनाह (पाप) उसने बख्श दिया हो , अज़ाब का मुस्तहक़ रहेगा।

क्या ग़रीक़ (डूबने वाला) और सूली (फाँसी) चढ़ने वाले के लिए फ़िशारे क़ब्र है ?

कुलैनी (र 0 अ 0) युनूस से रवायत (कथन) करते हैं कि हज़रत इमाम रज़ा (अ 0 स 0) से पूछा गया कि जिस शख़्स को सूली पर चढ़ाया गया हो क्या उस पर भी फ़िशारे क़ब्र होता है (पिछले ज़माने में कुछ लोगों को सूली पर चढ़ाते थे औऱ मरने के बाद उसे नीचे नहीं उतारा जाता था , चूनांचे हज़रत ज़ैद शहीद तीन साल तक बराबर सूली पर लटके रहे।) इमाम (अ 0 सद) ने फ़रमाया हां अल्लाहताला हवा को हुक्म देता है और वह उसे फ़िशार करती है।

दूसरी रवायत (कथन) में हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) से रवायत (कथन) है कि आपने फ़रमाया कि हवा और ज़मीन का परवरदिगार एक है। हवा को वही करता है और वह फ़िशार करती है और यह क़ब्र के फ़िशार से भी बदतर है। इसी तरह दरिया में ग़र्क (डूबने) होने वाले या जिसको दरिन्दे खा एक हों , फ़िशारे क़ब्र होता है।

न्यामते ख़ुदावन्दी का जिमाअ और कुफ़राने न्यामत भी फ़िशारे क़ब्र है।

वह आमाल जो अज़ाबे क़ब्र से नजात देते हैं

यह बहुत से आमाल है , मैं इस जगह पर उनमें से सिर्फ़ सत्तरह के वर्णन (ज़िक्र) करने पर संतुष्ठि (इकतिफ़ा) करूंगा।

1- हज़रत अमीरूल मोमनीन (अ 0 स 0) से रवायत (कथन) है कि जो शख़्स हर जुमा को सूरए निसां की तिलावत करता है , वह फ़िशारे क़ब्रे से महफूज़ रहेगा।

2- रवायत (कथन) है कि जो शख़्स सुरए ज़ख़रफ़ की तिलावत करता है हक़ताला उसे फ़िशारे क़ब्र से महफूज़ रखेंगे।

3- जो शख़्स सूरए नून वबक़लम को नमाज़े फ़रीज़ा या नाफ़िला में पढ़ता है , हक़ताला उसे फ़िशारे क़ब्र से पनाह देगा।

4- हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) से मर्वी है कि जिस शख़्स का , जवाल रोज़े पंजशम्बा और ज़वाले जुमा के दरमियान इन्तिक़ाल हो जाय अल्लाहतआला उसे फ़िशारे क़ब्र महफूज़ रखेगा।

5- हज़रत इमाम रज़ा (अ 0 स 0) से मनकूल है कि नमाज़े शब तुम्हारे लिए मुस्तहब है , जो शख़्स रात के आख़िरी हिस्से में उठ कर आठ रकअत नमाज़े शब दो रक़अत नमाज़े शफ़आ , एक नमाज़े वित्र औऱ कुनूत में सत्तर बार अस्तग़फार पढ़ेगा , अल्लाहतआला उसे अज़ाबे क़ब्र और अज़ाबे जहन्नुम से महफूज़ रखेगा , उसकी उम्र दराज़ औऱ रोज़ी फ़राख़ होगी।

6- हज़रत रसूले अकरम (स 0 अ 0) से मनकूल है कि जो शख़्स सोते वक़्त सुरए अलहाकोमुत्तकासिर पढ़े वह अज़ाबे क़ब्र से महफूज़ रहेगा।

7- जो शख़्स हर रोज़ दस बार दुआ “ आद्दतो लेकुल्ले हौलिन लाइलाहा इल्लल्लाह ” पढ़े , वह अज़ाबे क़ब्र से महफूज़ रहेगा। (यह दुआ पहले दर्ज़ कर दी गयी है।)

8- जो शख़्स नजफ़े अशरफ़ में दफ़न हो , क्यों कि वहां की ज़मीन की यह ख़ासियत (विशेषता) है कि जो शख़्स भी इस में दफ़न किया जाय , उससे अज़ाबे क़ब्र और सवाले मुनकिर नकीर साक़ित (समाप्त) हो जाता है।

9- मय्यत के साथ ज़रीदतैन यानी दो तर लकड़ियों का रकना अज़ाबे क़ब्र के लिए मुफ़ीद है। रवायत (कथन) है कि मय्यत पर उस वक़्त तक अज़ाबे क़ब्र नहीं होता जब तक शाख़ें तर रहें। रवायत (कथन) है कि हज़रत रसूले खुदा (स 0 अ 0) एक ऐसी कब़्र के पास से गुज़रे , जिसकी मय्यत पर अज़ाब हो रहा था। आपने एक शाख़ तलब फ़रमायी , जिसके पत्ते उखाड़े गए थे , उसको दरमियान से काटकर दो हिस्से किए , एक हिस्सा मय्यत के सिरहाने रखा और दूसरा मय्यत के पांव की तरफ़ रख दिया। और क़ब्र पर पानी छिड़कना भी मुफ़ीद है , क्योंकि रवायत (कथन) में है कि मय्यत पर उस वक़्त तक अज़ाब नहीं होता , जब तक क़ब्र की ख़ाक़ उस पानी से तर रहती है।

10- दो शख़्स रजब की पहली तारीख़ को दस रकत नमाज़ इस तरह पढ़े कि हर रकत में सूरए हम्द के बाद तीन बार सूरए तौहीद पढ़े तो वह फ़िशारे क़ब्र और अज़ाबे रोज़े क़यामत से महफूज़ रहेगा और रजब की पहली रात को मग़रिब की नमाज़ के बाद बीस रकत नमाज़ सूरए हम्द और सुरए तौहीद के साथ पढ़ना अज़ाबे क़ब्र के लिए फ़ायदेमन्द है।

11- माह रजब में चार दिन रोज़ा रखना इसी तरह माह शाबान में बाहर रोज़े रखना फ़ायदेमन्द है।

12- सूरह “ तबारकल्लज़ी बेयदिहिल मुल्क ” को क़ब्र पर पढ़ना अज़ाबे क़ब्र से नजात देती है। चुनांचे कुतुब रावन्दी ने इब्ने अब्बास से नक़ल किया है कि एक शख़्स ने एक जगह ख़ेमा लगाया , उसे वहां पर क़ब्र के वजूद का इल्म न था , उसने सुरए अब्बास से नक़ल किया है कि एक शख़्स ने एक जगह ख़ेमा लगाया , उसे वहां कब्र के वजूद का इल्म न था , उसने सुरए “ तबारकल्लज़ी बेयादिहिल मुल्क ” की तिलावत की कि अचानक उसने एक अवाज़ (सदा) को सुना जो कह रहा था , यह सूरह नजात देने वाली है उसने इस वाक़िया को हज़रत रसूले अकरम (स 0 अ 0) के पास ब्यान किया , आपने कहा यह सूरह नजात देहन्दा और अज़ाबे क़ब्र से बचाती है।

शेख़ कुलैनी (र 0) हज़रत इमाम मोहम्मद बाक़र (अ 0 स 0) से रवायत (कथन) करते हैं कि सूरए मुल्क अज़ाबे क़ब्र से बचाती है।

13- दआवते रावन्दी से मनकूल है कि हज़रत रसूले अकरम (स 0 अ 0) ने फ़रमाया जो शख़्स मय्यत को दफ़न करते वक़्त क़ब्र के पास तीन बार “ अल्लाहुम्मा इन्नी असअलोका बेहक़्के़ मोहम्मदिन व आले मोहम्मदिन अल्ला तोअज़्जिब हाज़ल मय्यते ” कहे हक़ताला क़यामत तक आज़बे क़ब्र से महफूज़ रखेगा।

14- शेख़ तूसी (र 0) ने मिस्बाहुल मुतहज़्द में हज़रत रसूले अकरम (स 0 अ 0) से रवायत की है कि जो शख़्स शबे जुमा को दो रकत नमाज़ इस तरह पढ़े कि हर रकत में सूरए हमद एक मर्तबा और “ इज़ा जुलज़िलातिल अरज़ो ” पन्द्रह मर्तबा पढ़े , हक़ताला उसे अज़ाबे क़ब्र और क़यामत के ख़ौफ़ से महफूज़ रखेगा।

15- पन्द्रह रजब की शब को तीस रकत नमाज़ इस तरह पढ़ना कि हर रकत में सूरए हम्द एक मर्तबा और सूरए तौहीद दस मर्तबा , अज़ाबे क़ब्र के लिए फ़ायदेमन्द है , इसी तरह 16 और 17 रजब की शब को यही नमाज़ पढ़ना मुफ़ीद है और पहली शाबान की शब सूरए हम्द और सूरए तौहीद के साथ सौ रकत नमाज़ पढ़ें और जब फ़ारिग़ हो तो पचास मर्तबा सूरए तौहीद पढ़ें और ऐसा ही 24 मर्तबा शाबान की शब को सौ रकत नमाज़ इस तरह पढ़े कि हर रकत में सूरए हम्द एक मर्तबा “ अज़ाजाआ नसरुल्लाहे ” दस मर्तबा और पन्द्रह रजब को पचास रकत सूरए हम्द , सुरए तौहीद , सूरए फलक़ और सूरए वन्नास के साथ पढ़ना , अज़ाबे क़ब्र के लिए फ़ायदेमन्द है , जैसा कि शबे आसूर सौ रकत पढ़ना। नमाज़ पढ़े और जब फ़ारिग़ हो तो पचास मर्तबा सूरए तौहीद पढ़ें और ऐसा ही 24 शबान की शब को सौ रकत नमाज़ इस तरह पढ़े कि हर रकत में सूरए हम्द एक मर्तबा “ इज़ाजाआ नसरुल्लाहे ” दस मर्तबा औऱ पन्द्रह रजब को पचास रकत सूरए हम्द , सूरए तौहीद , सूरए फलक़ और सूरए वन्नास के साथ पढ़ना , अज़ाबे क़ब्र के लिए फ़ायदेमन्द है , जैसा कि शबे आशूर सौ रकत पढ़ना।

16- ख़ाके शिफ़ा यानी इमाम हुसैन (अ 0 स 0) के मक़तल की ख़ाक , क़ब्र और कफ़न में रखना और आज़ाए सजदा पर मलना।

17- अनवारे नाआनियां में हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) से रवायत (कथन) है कि आपने फ़रमाया अगर चालीस आदमी मय्यत के पास हाज़िर होकर कहें “ अल्ला हुम्मा इन्ना ला नआमो मिनहो इल्ला ख़ैरन व अन्ता आलमो बेहि मिन्ना फ़ग़फ़िर लहू। ” तो परवर दिगारे आलम उसको अज़ाबे क़ब्र से महफूज़ रखेगा , और आपसे रवायत (कथन) है कि बनी इसराइल में एक आबिद था , जिसके मुताबिक़ अल्लाहतआला ने हज़रत दाऊद (अ 0 स 0) को वही फ़रमायी कि यह रियाकार है। जब वह आबिद (अ 0 स 0) को वही फ़रमायी कि यह रियाकार है। जब वह आबिद मरा तो हज़रत दाऊद (अ 0 स 0) उसके जनाज़े में शरीक न हुए , मगर चालीस आदमियों ने उसकी नमाज़े जनाज़ा पढ़ी और कहा-

“ अल्लाहुम्मा इन्ना ला नालमो मिनहो इल्ला ख़ैरन व अन्ता आलमो बेहि मन्ना फ़गडफ़िरलहु। ”

फिर चालीस आदमी औऱ आए और उन्होंने भी यही गवाही दी , चूंकि उन्हे इसके बातिन की ख़बर न थी हज़रत दाऊद (अ 0 स 0) को वही हुई कि तूने इस पर नमाज़ क्यों नहीं पढ़ी। आपने अर्ज़ किया कि बारे इलाहा! तूने ही तो बताया था कि यह आबिद रियाकार है। आवाज़े कुदरत आयी वह ख़बर दुरुस्त थी , लेकिन लोगों ने हाज़िर होकर उसकी अच्छाई की गवाही दी , इसलिए मैंने उसके गुनाहों को बख़्श दिया।

यह ख़ल्लाक़े आलम का फ़ज़ली करम है कि उसने अपने बच्चों को बग़ैर किसी पूछगछ के अज़ाब से रिहा कर दिया।

इसी वजह से नेक लोग ख़ासकर साबक़ीन अपने कफ़न को तैयार करके आपने पास रखते थे और अपने मोमनीन (धर्मनिष्ठ) अहबाब से उस पर गवाही तहरीर करवाते थे , जब भी देखते मौत की याद ताज़ा हो जाती और आख़िरत का ख़ौफ़ बढ़ जाता। हमें भी चाहिए कि अपने कफ़नों पर गवाही तहरीर करवा कर और मोमनीन के दस्तख़त करवाने के बाद अपने पास रखें ताकि यह गवाही हमारी बख़शीश का ज़रिया हो।

उक़बए (यमलोक) सोम

मुनकिर व नकीर का क़ब्र में सवाल

जिन चीज़ों पर ऐतेक़ाद रखना मज़हबे शिया का जुज़ है , उनमें से एक यह भी है कि , “ सवाल मुनकिर व नकीर फ़िल क़बरे हक़ ” मुसलमानों के लिए अजमलन इसका मोतक़िद होना ज़रुरी है। अल्लामा मजलिसी (र 0) बेरुल अनवार और हक़्कुल यक़ीन में इरशाद फ़रमाते हैं कि अहादीसे मोअतबर से यह ज़ाहिर होता है कि सवाल और फ़िशारे क़ब्र बदन असली और रुह पर है।

क़ब्र में अक़ायद औऱ आमाल के बारे में सवाल किया जाता है यह सवालात हर मोमिन और काफ़िर से किए जाते हैं इसके अलावा बच्चे , दीवाने औऱ कम अक़्ल , बेवकूफ़ लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है ज़मानए बरज़ख़ में उनके लिए जज़ा या सज़ा नहीं है।

नमाज़ , रोज़ा , हज़ ज़कात , खुम्स औऱ मुहब्बते अहलेबैत (अ 0 स 0) औऱ उम्र औऱ माल के बारे में सवाल किए जाते हैं , जैसा कि इमाम ज़ैनुल आबदीन (अ 0 स 0) से एक रवायत (कथन) में मर्वी है कि अक़ाएदे इस्लामिया के बाद दरयाफ़्त किया जाता है।

“ अपनी उम्र को कहां ज़ाए करता रहा। माल कैसे कमााय औऱ कहां खर्च किया। ”

कुछ लोगों की ज़बानें गूंगी हो जाती हैं , खौफ़ की वजह से जवाब नहीं दे सकते या ग़लत जवाब देते हैं औऱ फ़रिश्तों के सवाल पर कहते हैं , तुम ख़ुदा हो। कभी कहते हैं , अगर दुनिया में इन अक़ाएद (श्रद्धाओं) से वास्ता रहा है तो ठीक-ठाक जवाब देता है सही जवाब देने वाले के लिए क़ब्र को उसकी हद्दे नज़र तक वसीह (बड़ा) कर दिया जाता है , और आलमे बरज़ख आराम और क़यामते ख़ुदावन्दी से फ़ायदा उठाते हुए गुज़ारा देता है और फ़रिश्ते उसके कहते हैं नई ब्याही औरत की तरह सो जा। (उसूले क़ाफी)

अगर काफ़िर (नास्तिक) और मुनाफ़िक (विरोधी) है और सही जवाब नहीं दे सका तो उसकी क़ब्र की तरफ़ जहन्नुम का दरवाज़ा खोल दिया जाता है और उसकी क़ब्र आग से पुर हो जाती है जैसा कि अल्लाह तआला का इरशाद हैः-

“ और अगर झुठलाने वाले गुमराहों में से है तो (उसकी) मेहमानी खौलता हुआ पानी है और जहन्नुम में दाख़िल कर देना। ”

हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) से वारिद है , इन तीनों चीज़ों का मुनकिर हमारा शिया नहीं। ( 1) मेराज ( 2) सवाले क़ब्र ( 3) शफ़ाअत।

मर्वी (वर्णित) है कि क़ब्र में दो फ़रिश्ते ऐसी डरावनी सूरत में आते हैं कि उनकी आवाज़ बिजली की तरह गरज़दार और आंखे बिजली की तरह खेरह (चौंधयायी हुई) करने वाली होती हैं , वह आकर सवाल करते हैं-

(1) मन रब्बोका “ तेरा रब कौन है ” ?

(2) मन नबीका “ तेरा नबी कौन है ” ?

(3) मन दीनका “ तेरा दीन क्या है ” ?

(4) मन इमामेका “ तेरा इमाम कौन है ” ?

चूंकि इस हालत में मय्यत के लिए जवाब देना मुश्किल होता है , जैसा कि गुज़रा है औऱ वह मददगार का मोहताज होता है , इसलिए मय्यत को दो मुक़ामात पर इन एतेक़ादात की तलक़ीन की जाती है।

अव्वल- क़ब्र में उतारने के बाद- बेहतर यह है कि दायें हाथ से दायें कांधे और बायें हाथ से बांये कांधे को पकड़ कर उसके नाम के वक़्त हरकत देकर तलक़ीन करें।

दोम- जब मय्यत को दफ़न कर दिया जाय- सुन्नत है कि मय्यत का क़रीबी रिश्तेदार लोगों के चले जाने के बाद क़ब्र के सिराहने बैठकर बुलन्द आवाज़ में तलक़ीन पढ़े बेहतर है कि अपनी दोनों हथेलियों को क़ब्र पर रखे और अपने मुंह को क़ब्र के नज़दीक ले जाय। अगर किसी को तलक़ीन के लिए नायब मुक़र्रर करें तो यह भी दुरुस्त है। मर्वी (वर्णित) है कि जब तलक़ीन पढ़ी जाती है तो मुनकिर नकीर से कहता है , आओ चलें। उसकी हुज्जत के लिए तलक़ीन पढ़दी गयी है , अब पूछने की ज़रुरत नहीं और बह बग़ैर सवाल किए वापस चले जाते हैं।

तम्बीह- अगर कोई यह कहे कि तलक़ीन से मुर्दा को क्या फ़ायदा जब कि रुह निकल चुकी है , इसका जवाब यह है कि वह हमसे बेहतर कलाम को समझतो और सुनता है बल्कि जो भी इस जगह पहुंचता है , उसके लिए तमाम ज़बानों का समझ़ना यकसाँ है। अरबी हो या फ़ारसी , क्योंकि महदूदियत इस आलमे माद्दी का नतीजा है।

मन ला यहज़रहलफ़क़ीहे में है कि जब हज़रत अबूज़र (र 0) ग़फ़्फ़ारी के बेटे ज़र ने वफ़ात पायी तो आप उसकी क़ब्र के सिराहने बैठ गए , औऱ उसकी क़ब्र पर हाथ फ़ेर के कहा , ऐ ज़र ख़ुदा तुम पर रहमत करे। ख़ुदा कि क़सम तू मेरी निस्बत नेक था औऱ हुकूक़े फरज़न्दी को अदा करता रहा , अब जबकि तुझे मुझसे ले लिया गया , मैं तुझसे खुश हूं। बख़ुदा मुझे तेरी जान का कोई ग़म नहीं। मुझे अल्लाह के सिवा किसी से कोई हाजत नहीं। अगर मुझे मरने के बाद पेश आने वाली दुशवारियों का ख़ौफ़ न होता तो तेरे बजाय मैं ख़ुद मरने को तैयार होता , लेकिन मैं चाहता हूं कि चन्द रोज़ और गुनाहों की तौबा और उस आलम की तैयारी में सर्फ़ कर सकूं।

बेशक तेरी दुश्वारी के गम ने मुझे तेरा ग़म करने के बजाय इस चीज़ में मशग़ूल किया कि ऐसी इबादत औऱ अताअत करूँ जो तेरे लिए मुफ़ीद हो औऱ उस चीड़ ने मुझे तेरी जुदायी में घुलने से बाज़ रखा। खुदा की क़मस मैं इसलिए ग़मनाक नहीं कि तू फ़ौत हो गया और मुझ़से जुदा हो गया , बल्कि मैं इसलिए ग़मगीन हूँ कि तुझ पर क्या गुज़र रही होगी और तेरा क्या हाल होगा ? काश! मुझे इल्म होता कि तूने क्या कहा और तुझे क्या हुक्म मिला ? खुदावन्दा मैंने वह तमाम हुकूक़ बख़श दिए हैं , जो मेरे मुत्तालिक़ उस पर वाजिब थे औऱ तू उसे अपने हुकूक़ माफ़ फ़रमा जो तूने उस पर वाजिब फ़रमाए थे , क्यों तू अपनी बख़्शिश औऱ सख़ावत के एतबार से मुझसे ज़्यादा सज़ावार है।

हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) से मनकूल (उदधृत) है कि जब मोमिन (धर्मनिष्ठ) को क़ब्र में दाख़िल किया जाता है तो नमाज़ उसके दायें , ज़कात उसके बायें तरफ़ औऱ (बर्रा) नेकी और एहसान उसके सिर पर सायाफ़िग़न होते हैं और सब्र उसके क़रीब होता है और जिस वक़्त दोनों फ़रिश्ते सवाल करते हैं तो सब्र नमाज़ ज़कात , औऱ नेकी से कहता है कि अपने मालिक को घेर लो , यानी मय्यत की हिफ़ाज़त करो , जब भी यह आजिज़ होता था तो मैं ही इसके नज़दीक होता था।

अल्लामा मजलिसी (र 0) महासिन में बसन्द सही इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) व इमाम मोहम्मद बाक़र (अ 0 स 0) से रवायत (कथन) करते हैं कि जब मोमिन मरता है तो उसके हमराह छः सूरते उसकी क़ब्र में दाख़िल होती हैं , जिनमें से एक दूसरों की निस्बत ज़्यादा नूरानी , पाकीज़ा औऱ मोअत्तर होती है , इनमें से एक दायें , दूसरी बायें , तीसरी सामने चौथी सिर की तरफ़ पांचवी पांव की तरफ़ खड़ी हो जाती है और जो सबसे ज़्यादा नूरानी होती है , वह सिर पर साया फ़िगन होती है , जिस तरफ़ से भी सवाल या अज़ाब आता है , तो उस तरफ़ खड़ी सूरत उसके और मय्यत के दरमियान हायल होकर रोकती है। नूरानी सूरत सबसे मुख़ातिब होकर कहती है। खुदा तुम्हें जज़ाए ख़ैर दे। तुम कौन हो ? दायें होकर कहती है। खुदा तुम्हें जज़ाए ख़ैर दे। तुम कौन हो ? दायें तरफ़ वाली कहती है , मैं उसकी नमाज़ हूँ। बायीं तरफ़ वाली कहती है मैं इसकी ज़कात हूँ। चेहरे के मुक़ाबिल वाली सूरत कहती है मैं उसका रोज़ा हूँ। सिऱ की तरफ़ वाली कहती है। मैं उसका हज व उमरा हूँ और जो सूरत उस के पांव की तरफ़ होती है वह कहती है मैं उसका वह एहसान हूँ जो यह मोमिन भाइयों के साथ करता था। यह तमाम सूरतें पिळती हैं कि तू कौन है , जो हम सबसे ज़्यादा नूरानी और ख़ूबसूरत है ? वह जवाब देती है मैं वलाए आले मोहम्मद सलवातुल्लाह अलैहिम अजमइन हूँ।

शेख़ सद्दूक (र 0) ने माहे शाबान के रोज़ों की फ़ज़ीलत के बारे में रवात (वर्णन) किया है कि जो शख़्स इस महीने में नौ रोज़े रखे तो मुनकिर व नकीर सवालात के वक़्त उस पर मेहरबान होंगे। हज़रत इमाम बाकर (अ 0 स 0) से एक रवायत (वर्णन) में उस शख़्स के लिए बेशुमार फ़ज़ीलत वारिद है , इन फ़जायल में से एक यह भी है कि हक़ तआला उससे मुनकिर व नकीर के ख़ौफ को दूर करता है , और उसकी क़ब्र से एक ऐसा नूर सातेअ होता है जो तमाम दुनिया को मुनव्वर कर देता है।

हज़रत रसूले अकरम (स 0 अ 0) से रवायत है कि ख़िजाब की चार विशेषताएं हैं इनमें से एक यह भी है कि मुनकिर व नकीर इससे हया (शर्म) करते हैं , इससे पहले आपको मालूम हो चुका है कि नज़फ़े अशरफञ की ज़मीन की यह विशेषता (ख़ासियत) है कि इस जगह पर दफ़न होने वाले से मुनकिर व नकीर का हिसाब साकि़त है। इस जगह पर उसकी ताईद में मैं हिकायत दर्ज करता हूँ।

हिकायत

अल्लाहमा मजलिसी (र 0) ने तोहफ़ा में इरशादुल कुलूब और फ़रहतुल ग़ोरा से नक़ल फ़रमाया है कि अहले कूफ़ा में से एक मर्द सालेह ने कहा कि मैं एक बारनी रात को मस्जिदे कूफ़ा में मौजूद था कि अचानक हज़रत मुस्लिम (अ 0 स 0) की तरफ़ वाले दरवाज़े को दस्तक दी गयी , ज्योंही दरवाज़े को खोला तो एक जनाज़ा अन्दर दाख़िल किया गया और उसे हज़रत मुस्लिम की क़ब्र की तरफ़ चबूतरे पर रखा गया। उनमें से एक पर नींद ग़ालिब हुई , उसने ख़्वाब में देखा कि दो शख़्स जनाज़ा के पास आए , उनमें से एख ने दूसरे से कहा , कि मेरा उसके ज़िम्मे इस क़द्र हिसाब है , चाहता हूं कि उसके नजफ़ में दफ़न होने से पहले वसूल कर लूं क्योंकि मैं उसके बाद उसके क़रीब नहीं जा सकूंगा। वह शख़्स ख़ौफ़ के मारे बेदार हुआ और अपने साथियों से तमाम हक़ीक़त ब्यान की। उन्होंने उसी वक़्त जनाज़े को उठाकर नजफ़े अशरफ़ की हदूद में दाख़िल किया ताकि हिसाब औऱ अज़ाब से नजात पाए।

मैं कहता हूँ खुदा भला करे , जिसने कहा किः-

“ जब मैं मर जाऊँ तो मुझे हज़रत अली (अ 0 स 0) के पहलू में दफ़न करना जो हसन (अ 0 स 0) और हुसैन (अ 0 स 0) के वालिद हैं क्योंकि मुझे उनके पड़ोस में जहन्नुम की आग का कोई डर नहीं औऱ न ही मुनकिर व नकीर का ख़ौफ़ रखता हूँ क्योंकि जब सहरा में ऊँट की रस्सी गुम हो जा तो मोहाफिज़ पर महफूज़ चीज़ का पेश करना आर है , जब तक वह उसकी हिफ़ाज़त में हो (हज़रत अली अ 0 स 0 के लिए यह आर है कि मलाएकए अज़ाब के सुपुर्द कर दें।) ”

हिकायत

उस्तादे अकबर मोहक़क़िए बहबहाई से मनकूल (उद्धृत) है कि आपने फ़रमाया कि मैंने एक बार हज़रत अबा अबदुल्ला अल हुसैन (अ 0 स 0) को ख़्वाबमें देखा और पूछा या हज़रत (अ 0 स 0) आप के क़रीब में दफ़न होने वालसे से भी सवाल होगा। आपने फ़रमाया किस फ़िरश्ते की जुर्रत है कि उससे सवाल करे। अरब की एक मिसाल है।

यानी “ फ़ला आदमी अपनी पनाह में आने वाले की हिमायत टिड्डी को पनाह देने वाले से ज़्यादा हिमायत करने वाला है। ”

इसका वाक़िया यूं है कि एक आदमी जो क़बीला “ तै ” के बादिया नशीनों में से था। उसका नाम मदलज बिने सुवैद था। एक दिन अपने ख़ेमे में बैठा था कि क़बीले तै के एक गिरोह को आते हुए देख़ा , जो अपना साज़ो सामान साथ उठाए हुए था , उसने पूछा क्या ख़बर है , उन्होंने कहा , कि बहुत से टिड्डीदल आपके ख़ेमें के क़रीब उतरे हुए हैं , हम उन्हें पकड़ने के लिए आए हैं। मदलज ने जब उनका इरादा मालूम किया तो फ़ौरन उठकर अपने घोड़े पर सवार हुआ औऱ नेज़े को सम्हाल कहा , खुदा की कसम जो भी इन टिड्डियों को नुकसान पहुंचाएगा , मैं उसे क़त्ल कर दूँगा।

“ यह टिड्डी दल मेरी पनाह लें और तुम इन्हें पकड़ने का इऱदा करो , ऐसा हरगिज़ नहीं होगा। ”

और यह बराबर उनकी हिमायत करता रहा , यहा तक कि धूप नि्ल आयी और वह टिड़्डी दल उड़ गये उस वक़्त उसने कहा यह टिड्डी दल मेरे पड़ोस मे मुताक़िल हुए है।

हिकायत

क़िताब हबलुलमतीन से मनकूल है कि मीर मुइनुद्दीन अशरफ़ ने जो रौज़ा इमाम रज़ा अली के नेक खुद्दामों में से था कहा कि मैंने ख़्वाब मे देखा कि मैं मुहाफिज़ ख़ानए मुबारिका में हूँ औऱ तजदीदे वुज़ू की ख़ातिर रौज़ए मुबारका से बाहर निकला ज्यों ही मैं अमीर शहर के चबूतरे के क़रीब पहुंचा तो मैंने एक बहुत बड़ी जमाअत को सहने मुतहर में दाख़िल होते हुए देखा जिन के आगे-आगे एक नूरानी और अज़ीमुश्शान हस्ती हैं और इन लोगों के हाथों में बेलचे हैं , ज्योंही वह सहने मुक़द्दस में पहुंचे , उस बुजुर्ग ने जो रहमनुमाई कर रहा था , एक ख़ास क़ब्र की तरफ़ इशारा करते हुए हुक्म दिया कि इस क़ब्र को ख़ोदकर ख़बीस को बाहर निकालो। जिस वक़्त उन्होंने क़ब्र को खोदना शुरु किया , मैंने एक शख़्स के क़रीब जाकर पूछा यह बुर्ज़गवार जिन्होंने हुक्म दिया है कौन हैं ? उसने कहा यह हज़रत अमीरुल मोमनीन (अ 0 स 0) हैं। इसी हालत में मैंने देखा कि आठवें इमाम ज़ामिन हज़रत इमाम रज़ा (अ 0 स 0) रौज़ए मुबारका से बाहर तशरीफ़ लाए और ख़िदमते हज़रत अमीरुल मोमनीन (अ 0 स 0) में पहुंच कर सलाम अर्ज़ किया। हज़रत अमीरुल मोमनीन (अ 0 स 0) ने सलाम का जवाब दिया। इमाम रज़ा (अ 0 स 0) ने अर्ज़ किया दाद जान मैं आपसे सवाल करता हूँ और उम्मीद है आप इस शख़्स को माफ़ फ़रमाएंगे क्योंकि इसने यहां आकर मेरी पनाह ली है। इसलिए आप मेरी ख़ातिर उसे माफ़ फ़रमाएंगे। हज़रत ने फ़रमाया आप जानते हैं कि यह फ़ासिक़ व फ़ाजिर औऱ शराब ख़ोर है। अर्ज़ किया मुझे इल्म है , लेकिन इसने मरते वक़्त अपने रिश्तेदारों को वसीयत की थी कि वह उसे मेरे जवार में दफ़न करें , मुझे उम्मीद है आप माफ़ फ़रमाएंगे।

हज़रत ने फ़रमाया , मैं उसे तुम्हारी ख़ातिर माफ़ करता हूँ और हज़रत तशरीफ ले गए। मैं ख़ौफ़ के मारे बेदार हुआ औऱ रौज़ाए मुबारका के दूसरे खुद्दामों को बेदार किया , और उस जगह पर पहुंचे , जिसे मैंने ख़्वाब में देखा था। हमने एक ताज़ा क़ब्र देखी , जिससे कुछ मिट्टी बिखरी पड़ी थी। मैंने पूछा क़ब्र किसकी है ? उन्होंने कहा एक इतराक आदमी की है , जिसे कल यहां दफ़न किया गया है।

हाजी अली बग़दादी इमाम अस्र (अ 0 स 0) अरवाहनालहुलफ़िदा की ख़िदमत से मुशर्रफ़ हुए और आप से सवालात नक़्ल किए गए। वह कहता है मैंने अर्ज़ किया आक़ा! क्या यह दुरुस्त है कि जो शख़्स शबे जुमा को इमाम हुसैन (अ 0 स 0) की ज़ियारत करे , उसे अमान है। फ़रमाया हां। ख़ुदा की क़सम आप की आंखों से आंसू भी जारी हुए और रोने लगे। मैंने अर्ज़ किया आक़ा मसला दरपेश है। फ़रमाया पूछो। मैंने अर्ज़ किया सन् 1269 हिजरी में हमने इमाम रज़ा (अ 0 स 0) की ज़ियारत की और एक बद्दू अरब जो मशरेक़ी नजफ़ अशरफ़ के इलाक़े से ताअल्लुक रखता था , उससे हमारी मुलाक़ात हुई , हमने उसकी दावत की और उससे पूछा कि विलायते इमाम रज़ा (अ 0 स 0) के बारे में तेरा क्या ख़्याल है ? उसने कहा बेहश्त है। आज पन्द्रह रोज़ से मैं इमाम रज़ा (अ 0 स 0) का मालस खा रहा हूँ मुनकिर व नकीर को क्या हक़ पहुंचता है कि वह क़ब्र में मेरे नज़दीक आएं। मेरा गोश्त व पोस्त उनके मेहमान ख़ाने का खाना ख़ाकर बना है इमामुल अस्र ने फ़रमाया यह सही है कि अली बिने मूसी रज़ा (अ 0 स 0) तशरीफ़ लाकर उसे मुनकिर व नकीर नजात दिलाएं। खुदा कि क़सम मेरा दादा ज़ामिन है।

फ़स्ल सोम

बरज़ख़ (पर्दा)

इन हौलनाक़ मंज़िलों में से एक मंजिल बरज़ख है। बरज़ख़ लोग़त (शब्द कोष) में उस पर्दा औऱ रुकावट को कहा जाता है , जो दो चीज़ों के दर्मियान हो और उनको आपस में न मिलने दे। मसलन कड़वा और शीरीं इकट्ठे दोनों दरिया मौज़ें मार रहै हैं और परवर दिगारे आलम ने उनके दर्मियान ऐसा पर्दा हायल कर दिया है , जो इन दोनों को आपस में मिलने नहीं देता। जैसा कि अल्लाहतआला ने फ़रमायाः-

“ उसी ने दो दरिया बहाए जो बाहम मिल जाते हैं , उनके दर्मियान एक हद्दे फ़ासिल (आड़) है , जिससे वह तजाउज़ नहीं करते। ” उस पर्दे को बरज़ख़ कहते हैं।

लेकिन इस्तेलाह के लिहाज़ से बरज़ख़ वह आलम (काल) है , जिसको परवर दिगारे आलम ने दुनियां और क़यामत के दर्मियान क़रार दिया है। हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) एक हदीस के जुज़्व में फ़रमाते हैं कि ख़ुदा कि क़सम मुझे तुम्हारे बरज़ख़ का ज़्यादा ख़ौफ़ है। रावी कहता है , मैंने अर्ज़ किया बरज़ख़ क्या है ? आपने फ़रमाया , वह मरने से क़यामत तक का ज़माना है (बेहार) और कुर्आन मजीद में है-

“ और इसके पीछे क़यामत तक का वक़्त बरज़ख है। ”

आलमे (काल) बरज़ख़ औऱ बदन

बरज़ख़ को आलमे मिसाली (उदाहरण काल) भी कहा जाता है , क्योंकि वह बज़ाहिर इसी आलम (काल) की तरह है , मगर शक्ल व सूरत मादह और उसके खुसुसियात के लिहाज़ से इस आलम से बिल्कुल भिन्न है। मरने के बाद जिस आलम (दशा) में हम वारिद होंगे। यह आलमे दुनियां उसकी निस्बत से ऐसा ही है जैसा कि शिकमे मादर (मां के पेट) को इस दुनिया से निस्बत है।

इसी तरह आलमे बरज़ख़ में बदन भी मिसाली होगा। अर्थात शक्ल व सूरत , आज़ा व जवारह के लिहाज़ से हुबहू इशी माद्दी (मायावी) बदन की तरह होगा मगर माद्दह का मोहताज न होगा , बल्कि हवा से भी ज़्यादा लतीफ़ होगा और कोई चीज़ मानेह न होगी , जो बदन मिसाली को एक तरफ़ से दूसरी तरफ़ की चीज़ को देखने में हायल हो। हज़रत सादिक़ आले मोहम्मद (अ 0 स 0) फ़रमाते हैं कि अगर तू उस बदन मिसाली को देख ले तो बेसाख़्ता कह उठे कि यही बदन है। लौ राएैतहू लकुलता होवा होवा।

अगर आप अपने मुर्दो बाप को ख़्वाब में देखें तो कहेंगे कि यह वही दुनियावी बदन है , हालांकि उश का जिस्म और माद्दा उसकी क़ब्र में है और उसकी सूरत बदन मिसाली है। बदन बरज़ख़ी या बदन मिसाली की आंखे , उन्हीं आंखों की तरह हैं , मगर उन आंखों के लिए तक़लीफ़ औऱ नज़र की कमज़ोरी नहीं है , और न ही कमज़ोरी की वजह से ऐनक की ज़रुरत है। इसी तरह बाक़ी अंगो की कमज़ोरी नहीं होती दांत नहीं गिरते। मोमिन (धर्रमनिष्ठ) जवानी के मज़े उड़ाता है और काफ़िर (नास्तिक) मुनाफ़िक़ बुढ़ापे की तकलीफ़ में मुबतिला होता है और उसके लिए अज़ाब का कारण होता है।

हुकमा व मुतकल्ललमीन उसको इस तस्वीर के साथ तश्बीह देते हैं , जो आईना में हासिल होती है लेकिन इसमें दो शर्ते हैं-

1- बदन मिसाली क़ायम बज़ात है न कि आईना का मोहताज।

2- बाशऊर और साहबे फ़हम व फ़रासत है। बख़िलाफ़ आईना की तस्वीर के।

इसकी नजीर वह ख़्वाह है जो हम देखते हैं , कि हम चश्मज़दन में दूर की मसाफ़त तै करके सरगोधा से कराची और दूसरे अन्य शहरों में पहुंच जाते हैं। वहां विभिन्न प्रकार के खानों , फ़लों औऱ पीने की चीज़ों और नग़मए दिलरुबा से लुत्फ़ उठाते हैं , जिसकी ताक़त अहले दुनियां में नहीं है। इसी तरह अरवाह भी बदने मिसाली के साथ विभिन्न प्रकार के खानों औऱ स्वादों से फ़ायदा उठाते हैं। अलबत्ता इस आलम की हर खाने-पीने की चीज़ लतीफ़ होती है और माद्दी कसाफ़तों से पाक है , जैसा कि रवायत से मुस्तफ़ाद है। एख ही चीज़ जन्नत में मोमिन के इरादे से मुख़तलिफ़ चीजों में तब्दील हो जाएगी। बेर सेब में फ़िर अगर ख़्वाहिश अंगूर की है तो वही अंगूर या दूसरे फलों में तब्दील हो जाएंगे , जैसा कि अमीर हमज़ा (अ 0 स 0) की रवायत (कथन) में ज़िक्र होगा। (मआद)

तासीर व ताअसुर की शिद्दत

आलमें बरज़ख़ में बदन मिसाली का अदराक (पाना) क़वी होता है , हालांकि खुद लतीफ़तर है यह तमाम दुनिया के स्वादों (लज्ज़) औऱ फ़ल की शीरीनी जो हम ख़ाकर हासिल करते हैं , आलमें बरज़ख़ की लज्ज़ात और शीरीनी के मुक़ाबिले में बिल्कुल हेच है , क्योंकि उनकी अस्ल वहां होगी। यहां उनकी मिसाल है। हुरूल ऐन अगर इस आलमे दुनियां की तरफ़ सिर्फ़ एक बार देख लें और लेहाज़ा भर नक़ाब कुशाई करें तो नूरे आफ़ताब इसके मुक़ाबिले में तारीक नज़र आए और आंख़ें ख़ेरा हो जाएं। इसलिए जमाले मुतलक़ वहां पर मौजूद हैं। कुर्आन पाक में है-

“ जो कुछ ज़मीन में है , हमने उसको ज़मीन के लिए ज़ीनत क़रार दिया है ताकि उसके ज़रिए तुम्हारा इम्तेहान लें कि क़ौन इश ख़िलौने के साथ अपने दिल को बहलाता है और कौन उसके फ़रेब से अपने आप को बचाता है और हक़ की लज़्ज़त और जमाल वाक़ई सच्ची खुशी को तलब करता है। ”

इस इजमाल से अर्थ केवल आलमे बरज़ख़ की कुव्वते तासीर और शिद्दत ब्यान करना है , मुक़ाबिला मक़सूद नहीं है। किसी-किसी समय इस दुनियां वालों के इबरत के लिए वाक़यात भी पेश आते हैं , इश जगह पर इनमें से सिर्फ़ दो वाक़यात पेश करता हूं।

हिकायत

मरहूम नराक़ी ख़ज़ायान में अपने सिक़ए असहाब से नक़ल फ़रमाते हैं कि उन्होंने कहा मैं आलमे शबाब में अपने वालिदे बुजुर्गवार और रोफ़ाक़ा (दोस्तों) के साथ ईदे नौरोज़ के दिन असफ़हान में एक दोस्त से मुलाक़ात के लिए जा रहा था जिसका घर काफ़ी दूर क़ब्रिस्तान के क़रीब था। हम थकावट दूर करने और अहले कुबूर की ज़ियारत की ख़ातिर क़ब्रिस्तान में बैठ गए। हमारे एक साथी ने नज़दीकी क़ब्र से बतौर मिज़ाह कहा। ऐ सहाबे क़ब्र! क्या आज ईद के दिन हमारी पज़ीराई करोगे ? फ़ौरन क़ब्र से आवाज़ आई कि अगले हफ़्ते बरोज़ मंगल तुम मेरे मेहमान होना।

हम सभी लोग इस शख से खौफ़ज़दा हो गए कि हमारी ज़िन्दगियां खत्म होने वाली हैं और इस्लाह आमाल और वसीयतें करने लगे , लेकिन मंगल के दिन तक किसी के मरने की ख़बर न सुनी। उस रोज़ हम फिर इकट्ठा होकर उस क़ब्र की तरफ़ रवाना हुए। जब हम उसके पास पहुंचे तो हममें से एक ने कहा! ऐ साहेबे क़ब्र वायदा पूरा करो , आवाज़ आयी आओ। परवर दिगारे आलम ने आलमें बरजख़ का पर्दा आंखों से दूर किया औऱ चश्में मलकूती खुल गयी। हमने देखा कि एक नेहायत सरसब्ज़ व शादाब और साफ़ बाग़ है , जिसमें साफ़ पानी की नहरें जारी हैं। बाग़ मेवाहाय रंगारंग से लदे हुए हैं। दरख़्तों पर खुश अलहान परिन्दे सनाए परवर दिगार कर रहे हैं , यहां तक कि हम एक आरास्ता व पैरास्ता इमारत में पहुंचे जो इन बाग़ात के दर्मियान में थी। हम अन्दर दाख़िल हुए। एक निहायत हसीन व जमील शख़्स ख़िदमतगारों के दर्मियान मौजूद हैं ज्यों ही उसने हमें देखा अपनी जगह से उठा और इस्तेक़बाल किया और अज़्ख़्वाही की। अन्वाह व अक़साम के मेवाजात और मिठाईयां मौजूद थीं जिन का तसव्वर भी हम इस दुनियां में नहीं कर सकते। खाने इतने लज़ीज़ थे कि हमने इस क़द्र लज़्ज़त कभी किसी चीज़ में ना चक्खी थी , जितना भी हम खाते गए , सेर न होते थे , ख़्वाहिश बाक़ी रही कि यह खायें वह खायें। विभिन्न प्रकार के खाने , मज़े मुख़्तलिफ़ , बस हम खाने के बाद कुछ देर बैठे और फ़िर उठ खड़े हुए कि देखें , इस शख़्स का क्या इरादा है , वह हमारे साथ चला और हम बाग़ के दरवाज़े पर पहुंचे। मेरे वालिद ने उससे पूछा आप कौन हैं ? और परवर दिगारे आलम ने यह नेअमात कैसे अता की कि अगर तू चाहे तो तमाम आलम की मेहमान नवाज़ी कर सकता है और यह जगह कौन सी है ? उसने कहा कि मैं भी आपका हम वतन फलां (अमुक) मोहल्ले का क़स्साब (क़साई) हूँ और इन दरजात का मोजिब दो चीज़ें हैं।

मैंने अपने काम में कभी तौल में कमी नहीं की थी। अपनी उम्र में कभी भी अव्वल वक़्त पर नमाज़ अदा करना तर्क़ नहीं किया। ज्योंहि अल्लाह हो अकबर की आवाज़ कान में पड़ी तराजू रखकर वज़न करना छोड़ देता और नमाज़ की ख़ातिर मस्जिद की तरफ़ चल देता , इसलिए आलमे बरज़ख़ में यह जगह मुझे दी गयी। पिछले हफ़्ते आपने यह कलाम किया लेकिन मुझे अन्दर लाने की इजाज़त न थी। इस हफ़्ते इसकी इजाज़त ली , इसके बाद हममें से हर एक ने अपनी उम्र पूछी और उसने जवाब दिया और मुझसे कहा कि तू अभी पन्द्रह साल ज़िन्दा रहेगा , उसके बाद उसने ख़ुदा हाफ़िज़ कहा और हमने उसे वापस जाने को कहा और अचानक हमने अपने आप को उसी क़ब्र के सिराहने ख़ड़े पाया। (मआद)

बरज़ख़ की लज़्ज़त फ़ानी (नाशवर) नहीं है

आलमे बरज़ख़ की दूसरी विशेषताओं में से एक दवाम (स्थायित्व) और सबात है इस दुनिया में किसी चीज़ को बक़ा नहीं है अगर जमाल (सुन्दरता) है तो बुढ़ापे की स्याही से ख़त्म। ख़ुराक जब तक मुंह में है खुशमज़ा है , इसी तरह निकाह और खु़राक़ और मेवा को दवाम नहीं , कुछ वक़्त के बाद गल सड़ जाते हैं। किसी चीज़ को दवाम और सबात हासिल नहीं है लेकिन आलमे बरज़ख़ फ़साद पज़ीर नहीं है , क्योंकि वह चीज़ें तरकीबे माद्दा और अनासिर की मोहताज नहीं है। इसी दावे पर शाहिद वह कज़िया है। किताबे दारुस्सलाम में शेख़ महमूद ईराक़ी ने अल्लामा शेख़ महदी नराक़ी मरहूम से नक़ल किया है। उन्होंने फ़रमाया कि नजफ़ अशरफ़ में मुजावरत के ज़माने में सख़्त कहेत (अकाल) आया। एक दिन मैं अपने गर से बाहर निकला , जबकि बच्चे भूख और प्यास से तड़प रहे थे , ताकि वादी अलसलाम में अमवात की ज़ियारत के ज़रिए अपने ग़म को ग़लत करूँ। जब वहां पुहंचा तो देखा कुछ लोग एक जनाज़ा को लाए और मुझे भी साथ आने को कहा। मै उनके साथ चला। बस उन्होंने जनाज़े को एक वसीह बाग़ में दाख़िल किया और उसे आलीशान महल में रखा , जो हर तरह के सामानो ऐशो आराम से आरास्ता था। मैंने इधर-उधर देखा और पीछे से एक दरवाज़ा में दाख़िल हुआ और देखा कि एक जवान शाहाना लिबास पहने (मलबूस) सोने के तख़्त पर बैठा है। ज्योंही उसने मुझे देखा मेरा नाम लेकर मुझे सलाम किया औऱ अपनी तरफ़ बुला कर मुझे अपने पास तख़्त पर बैठाया और बड़ी इज़्ज़त की , और मुझसे कहा तूने मुझे नहीं पहचाना मैं वही साहबे जनाज़ा हूं जिसको तूने देखा था। मैं फलां (अमुक) शहर का रहने वाला शख़्स हूं और जिन अश्ख़ास को तूने देखा था , वह तमाम मलाएक नक़ाला थे , जिन्होंने मुझे मेरे शहर से इस बरज़ख़ी बेहश्त के बाग में मुंतक़िल किया है , ज्योंहि मैंने यह कलमात उस जवान से सुने मेरका ग़म दूर हो गया औऱ उस बाग़ की सैर करने लगा , ज्योंही बाग़ से बाहर निकला चन्द और महल देखे , जब उनके दरवाज़े पर निगाह की मां , बाप औऱ चन्द रिश्तेदारों पर निगाह पड़ी , उन्होंने मुझे दावत दी , उनके खाने निहायत लज़ीज़ थे। जब मैं खाने से लज़्ज़त महसूस कर रहा था। मुझे बीवी और बच्चों , की भूख याद आयी कि उन पर किस क़द्र भूख और प्यास ग़लबा है और मेरा चेहरा मुतग़य्यर हो गया। मेरे वालिद ने कहा। बेटा महदी! तुझे क्या हो गया ? मैंने कहा मेरे बच्चे और बीवी भूखें हैं। मेरे बाप ने कहा , यह चावलो का ढेर है। मैंने एबा को चावलों से भर लिया और उन्होंने कहा इसको उठा लो , ज्योंही मैंने एबा को उठाया , क्या देखता हूँ कि वही जगह है जहां मैं वादी अस्सलाम में खड़ा था , बाग़ नहीं है और एबा चावलों से भरा है। घर लाया। मेरे अयाल ने पूछा कहां से लाए हो ? मैंने कहा तुम्हें इससे क्या काम ? काफ़ी मुद्दत गुज़र गयी , उन्हीं में से खाते हुए , मगर अभी तक मौजूद हैं। ख़त्म नहीं हुए , बिल आख़िर मेरी बीवी ने इसरार किया औऱ महदी नराक़ी ने बताया , बीवी उठी ताकि उनमें से उठाए मगर चावल मौजूद न थे।

इस क़िस्सा के ब्यान करने का मतलब यह है कि इस आलम की न्यामत और लज़्ज़त को दवाम (स्थायित्व) है दूसरी तरफ़ जो आज़ाबे बरज़ख़ में मुबतिला हैं अगर उनकी आह व फ़रियाद की आवाज़ हमारे कानों में पहुंच जाय तो दुनियाँ की तमाम मुसीबते भूल जाएं।

बहारुल अनवार जिल्द 3 में है कि रसूले खुदा (स 0 अ 0) ने फ़रमाया कि क़ब्ल अज़ बेसत एक रोज़ मैं गोसफ़न्द चरा रहा था कि देखा कि गोसफ़न्द हैरत की हालत में है औऱ चरना छोड़कर खड़े हो जाते हैं , लेकिन कोई ऐसी चीज़ नज़र नहीं आती। बस नुजूले वही पर जिबरईल से मालूम किया तो उसने कहा कि जब अमवात की आलमे बरज़ख़ में चीख़ व पुकार की आवाज़ आती है तो जिन्नों और इन्सानों के सिवा हर हैवान सुनता है औऱ यह उस फ़रियाद का असर है।

आलमे बरज़ख़ के इस दुनिया में अज़ाब के बहुत से वाक़यात हैं , अगर इन तमाम को यहां नक़ल किया जाय तो किताब तवील होगी। सिर्फ़ वाक़या नक़ल किया जाता है।

किताबे दारुस्सलाम में आलिम , ज़ाहिद सैय्यद हाशिम बहरानी से नक़ल है कि उन्होंने फ़रमाया , नजफ़ अशरफ़ में एक अत्तार था कि हर रोज़ नमाज़े जुहर के बाद अपनी दुकान पर वह लोगों को वाज़ किया करता था और उसकी दुकान पर कभी लोगों की भीड़ से ख़ाली न होती थी। एक हिन्दी शाहज़ादा नजफ़े अशरफ़ में मुक़ीम था , उसे एक सफ़र दरपेश हुआ। उसने अपने जवाहरात और क़ीमती चीज़ें उस अत्तार के पास बतौर अमानत रख दीं। जब वह वापस आया तो उस अत्तार ने शाहज़ादे के मुतालिबे पर अमानत वापस करने से इन्कार कर दिया शाहज़ादा इस मामले में हैरान व परेशान हुआ और हज़रत अली (अ 0 स 0) की क़ब्र की पनाह ली , और अर्ज़ किया कि या अली (अ 0 स 0)! मैंने अपने वतन को छोड़कर आपकी क़ब्र के पास रिहाइश एख़्तयार किया और तमाम सामाम फ़लां अत्तार के पास अमानत रखा। अब वह मुलकिर हो गया और इस बात पर मेरा कोई गवाह नहीं है और सिवाय आपके मेरा कोई फरियादरस नहीं है रात को ख़्वाब में मौला अली (अ 0 स 0) ने फ़रमाया जब शहर के दरवाज़े खुल जांय तुम बाहर निकलना और जो शख़्स तुम्हें पहले मिले उससे अमानत तबल करना वह तुझे देगा। ज्योंही नींद से उठा शहर से बाहर निकला , सबसे पहले उसे एक बूढ़ा आबिद व ज़ाहिल मिला , जिसके कंधे पर ईंधन का गट्ठा था और वह अपने अहलो अयाल के लिए बेचना चाहता था। बस श्रम की वजह से सवाल न किया और वापस हरमे मुतहर में आ गया यही वाक़या दूसरी रात दरपेश आया और सुबह फ़िर वही बूढ़ा जाहिद मिला औऱ बग़ैर सवाल के वापस आ गया फ़िर तीसरी रात वही ख़्वाब देखा। सुबह वही बुजुर्ग मिला। उसको अपने हालात से आगाह किया और अमानत का मुतालबा किया। उस बुजुर्ग ने कुछ सोचने के बाद शाहज़ादे से कहा कि जुहर की नमाज़ के बाद अत्तार की दुकान पर आना तुझे अमानत दूंगा जुहर के वक़्त जब तमाम लोग जमा थे। उस बुजुर्ग आबिद ने अत्तार से कहा आज मुझे नसीहत करने का मौक़ा दो। उसने कुबूल किया , उस बुजूर्ग ने कहा-

ऐ लोगो! मैं फ़लां (अमुक) का बेटा फ़लां हूं और लोगों के अधिकारों (हक़) से सख़्त भयभीत हूँ। खुदा का शुक्र है कि दुनिया के माल की दोस्ती मेरे दिल में नहीं है और अहले क़नाअत हूँ और एकान्त के दिन काट रहा हूं और जो वाक़या मेरे साथ पेश आया , उसके बारे में तुम्हें बा ख़बर करना चाहता हूँ और तुम्हें अज़ाबे इलाही की सख़्ती और जहन्नुम से ड़राना चाहता हूं और रोज़े जज़ा की बाज़ गुजारशात तुम तक पहुंचाना चाहता हूँ। ध्यान से सुनो! मैं एक रोज़ क़र्ज़ का मोहताज हुआ और एक यहूदी से दस क़रान क़र्ज इस शर्त पर लिया कि हर रोज़ आधा करान उसे वापस कर दूंगा। बस दस दिन उसससे आधा क़रान वापस देता रहा , मगर उसके बाद वह मुझे नज़र न आया। उसके बारे में लोगों से पूछ़ा , उन्होंने कहा कि वववह बग़दाद चला गया है। मुझे और दूसरे लोगों को मौक़िफे हिसाब पर लाया गाय। मैं हिसाब से फ़ारिग़ होकर जन्नतियों के सससाथ जन्नत की तरफ़ चलने लगा , ज्यों ही पुले सरात पर पहुंचा जहन्नुम की आवाज़ सुनी बस उस यहूदी मर्द को देखा कि आग के शोले की तरह जहन्नुम से बाहर निकला और मेरे रास्ते में हायल हो गया और कहा मुझे पांच क़रान दो। उसके सामने अर्ज़ किया और कहा कि मैंने तुझे बहुत तलाश किया कि तुझे वापस देता , उसने कहा कि मैं तुझे उस वक़्त तक नहीं जाने दूंगा। जब तक तू मेरा मुतालबा पूरा न करेगा। मैंने कहा इस वक़्त मेरे पास तो हैं नहीं कि तुझे दूं। उसने कहा मुझे एक अंगुल अपने जिस्म में गाड़ने दो फिर गुज़र जाना। बस उसने अपनी एक अंगुश्त मेरे सीने में गाड़ दी और मैं उसकी सोज़िश (गर्मी) की वजह से फ़रियाद करता हुआ बेदार हुआ। देखा कि जिस जगह उसने उंगली गाड़ी थी , ज़ख़्म है और अब तक मजरुह (ज़ख़्मी) हूं जो दवाई भी करता हूं कारगर नहीं होती और उसने अपने सीने को खोलकर ज़ख़्म दिखलाया। जब लोगों ने देखा आह , फ़रियाद करने लगे और वह अत्तार अज़ाबे इलाही की सख़्ती से डरा और उस हिन्दी शहज़ादे को घर ले जाकर उसकी अमानत उसे वापस की और माफ़ी मांगी। (मआद)।

बदने जिस्मानी में रुह (आत्मा) की तासीर और क़ब्र के साथ तआल्लुक़

आलमें बरज़ख़ में रुह (आत्मा) या तो न्यामतों से बहरामन्द होती हैं या गुनाहों (पापों) की सज़ा के तौर पर अज़ाब में मुबतिला होती है , लेकिन मुमकिन है कि ताक़त रुह के वास्ते बदने ख़ाक़ी भी मुस्तासीर (प्रभावित) हो और वह भी अज़ाब की वजह से ख़ाकस्तर हो जाय या न्यामतों से बहरामन्द हो और मोअत्तर (सुगन्धित) देखा जाय और उन लोगों का यह कहना बेजा है कि मोमनीन की कब्र की ज़ियारत की क्या ज़रुरत है ? जबकि उनकी अरवाह (आत्माएं) क़ालिबे मिसाली में वादी अलसलाम में हैं जैसा कि मोहद्दिसे जज़ायरी ने अनवारे नामानिया के अबाख़िर (अंत) में नक़ल किया है , इसका जवाब यह है कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ 0 स 0) से रवायत (कथन) है कि बेशक अरवाह (आत्माए) वादी अलसलाम में हैं , लेकिन महले कुबूर के लिए उनके अरवाह (आत्माएं) अहातए इल्मियां रखते हैं , वह क़ब्र के ज़ायर (ज़ियारत करने वाले) को देखते हैं , जो कोई भी वहां आता है औऱ इमाम (अ 0 स 0) ने अरवाह को आफ़ताब (सूरज) के साथ तश्बीह (दी) कि आफ़ताब ज़मीन पर नहीं है और वह आसमान में है , लेकिन उसकी शोआएं (किरणें) जमीन की हर जगह का अहाता किए हुए होती हैं। इसी तरह अरवाह का अहाता इल्मिया है और महल क़बूर से ताअल्लुक़ है , जैसा कि जनाबे हुर बिने यज़ीद रियाही का वाक़या है। अनवारे नामानिया में मोहद्दिसे जज़ायरी तहरीर फ़रमाते हैं कि जिस वक़्त शाह इस्माइल सफ़वी कर्बला में वारिद हुआ , उसने कुछ लोगों से हुर के बारे में तान व तश्नीअ के अलफ़ाज़ सुने जो हुर को अच्छा नहीं समझते थे। उसने हुर की क़ब्र को खोदने का हुक्म दिया , उसने देखा तो हुर का बदन उसी तरह पड़ा है जैसा रखा गया था और कोई तब्दीली नही हुई और उस के सिर पर रुमाल बंधा हुआ है , जैसा कि तारीख़ में है कि रोज़े आशूरा सय्युश्शोहदा ने अपना रुमाल उसके ज़ख़्म पर बांधा था शाह ने खोलने का हुक्म दिया ताकि उसको अपने क़फन मे रखे ज्यों ही जुदा (अलग) किया गया ज़ख़्म से ख़ून बहने लगा , फ़िर ज़ख़म पर रुमाल बांधा तो ख़ून बन्द हो गया। शाह ने हुक्म दिया कि इसके बजाए दूसरा रुमाल बांध दो , जब ऐसा किया गया तो फ़िर भी ख़ून न रुका , बस नाचार उसी रुमाल को बांधा गया और बादशाह को उसके हुस्ने आक़बत पर यक़ीन हुआ , इसके बाद शाह नो रौज़ा तामीर करवाया और वहां ख़ादिम मुक़र्रर किया।

इसी तरह कुलैनी (र 0) की क़ब्र और इब्ने बाबूया और शेख़ सद्दूक़ के अबदान भी अपनी क़ब्रों में मोअत्तर (सुगंधित) पड़े हुए सही व सालिम देखे गए जैसे सो रहे हैं , यहां तक कि सद्दूक़ के नाख़ूनों पर उसी तरह मेंहदी के निशान मौजूद थे और उनके अबदान में ज़िन्दगी के आसार नज़र आते थे।

इस के विपरीत अगर कोई शख़्स अहले अज़ाब में से है , तो रुह के अज़ाब का असर (प्रभाव) उसके जिस्म पर क़बार में भी पाया जाता है , चुनांचे जिस वक़्त बनी अब्बास को बनी उमैया पर ग़लबा (आधिपत्य) हासिल हुआ और वह वारिदे दमिश्क हुए तो उन्होंने बनी उमैया की कुबूर को ख़बराब करना चाहा , ज्योंही यज़ीद मलून की क़ब्र को ख़ोदा तो उसमें सिर्फ़ एक मिट्टी की लकीर के और कोई चीज़ नज़र न आयी। कुम में एक शख़्स को क़ब्रिस्तान में दफ़न किया गया तो उसके क़ब्र से आग का शोला निकला , जिसने आस पास की तममा चीज़ों को जला कर राख कर दिया। इसी तरह पाकिस्तान में भी कई वाक़यात अक़बारात में प्रकाशित हुए हैं।

वादी उस्सलाम

मुमकिन है कुछ लोग के ज़ेहनों में यह सवाल पैदा हो कि इतना लम्बा चौड़ा आलमे बरज़ख़ कहां वाक़ेय है ? हमारी अक़्ल इसके समझने से विवश है। अलबत्ता रवायात में कुछ उदाहरणों का वर्णन मौजूद है , कि आ्रलमे बरज़ख़ उस आलमे ज़मीन व आसमान को मुहीत है , जैसा कि यह आलमें रहमे मादर को मुहीत है इससे ज़्यादा स्पष्ट उदाहरण से ताबीर करना मुश्किल है। अगर बच्चे मां के पेट में कहा जाय कि इस आलम के बाहर एक ऐसा आलम है कि शिकमें मादर की उसके सामने कोई वक़अत नहीं तो इसके लिए खोज करना मुश्किल है। इसी तरह हमारी महसूसात की खोज करने वाली अक़लें बरज़ख़ का इदराक (खोज) नहीं कर सकती , जैसा कि कुर्आन पाक में है-

“ कोई शख़्स सादिक़ ने हमें जो कुछ बताया है , उसकी तसदीक़ करना हम पर वाजिब है। ”

बस मुख़बिर सादिक़ ने हमें जो कुछ बताया है , उसकी तसदीक़ करना हम पर वाजिब है।

अहादीस में मौजूद है कि मशरिक़ म मग़रिब में जो मोमिन भी मरता है , उसकी रुह जिस्म मिसाली के साथ अमीरूल मोमनीन (अ 0 स 0) के करीब वादी उलसलाम में पहुंच जाती है। एक और जगह मरज़मीने नजफ़ अशरफ़ को मलकूते अलिया की नुमाइशगाह कहा गया है अगर रुह का ताअल्लुक़ आला इल्लीईन के साथ है और उसका जिस्म भी नजफ़ में दफ़न है तो वह ज्यादा सआदत का हामिल है , लेकिन अगर खुदा न करे किसी शख़्स का जिस्म नजफ़ में दफ़न किया जाए और उसकी रुह वादिए बरहूत में मुबतिलाए अज़ाब है तो उसकी रुह जिस्म के साथ इतसाल को मज़बूत करती है और वादी अलसलाम में उसका दफ़न बे असर नहीं होता , जैसा कि इसी किताब में बाज़ हिकायात से वाज़ेह (प्रकट) है। (मआद)

वादिए बरहूत

वादिए बरहूत वह बियाबान और खुश्क सहरा है जहां आबेदाना का नामोनिशान तक नहीं है। परिन्दे (पक्शी) भी ख़ौफ़ (भय) के मारे नहीं गुज़रते। यह वादी बरज़ख़ी अज़ाब का मज़हर है , जहां तक क़सीफ़ और ख़बीस अरवाह (आत्माएं) मुबतिलाए अज़ाब हैं और यह यमन में वाक़ेय है , मतलब को ज़ाहिर करने के लिये एक हदीस को नक़्ल करता हूं-

एक रोज़ एक आदमी मजलिसे ख़ातिमुल अम्बिया (अ 0 स 0) में आया जिसके चेहरे से वहशत के आसार ज़ाहिर थे , उसने अर्ज़ किया कि आक़ा! मैंने अजीब चीज़ देखी है , आप ने पूछा क्या देखा ? उसने बतलाया कि उशकी बीवी सख़्त मरीज़ा (रोगी) थी , उसने कहा , कि वादिए बरहूत के कुंए से अगर पानी लाए तो मैं ठीक हो जाऊंगी। (मादनी पानी से बाज़ जिल्दी अमराज़ का इलाज होता है)। बस मैंने मश्क और प्याला लिया ताकि पानी लाऊँ और रवाना हुआ। मैं वहशतनाक सहरा को देखकर बहुत डरा और उस वादी में कुए की तलाश करने लगा। अचानक ऊपर की तरफ़ से ज़ंजीर की आवाज़ सुनी औऱ नीचे आते हुए एक शख़्स को देखा , जिसने मुझसे कहा कि मुझे पानी दो , मैं प्यास से हलाक हो रहा हूं। जब मैंने पानी का प्याला देने के लिए सिर को ऊँचा किया , देखा की एक शख़्स के गले में ज़ंजीर है जब पानी का प्याला बढ़ाया तो उसको ऊपर खींच लिया गया , यहां तक कि वह क़्रसे आफ़ताब (सूरज) तक पहुंच गया। मैंने मश्क को पानी से भरना शुरू किया तो फ़िर उस शख़्स को आते देखा और उसने वही ख़्वाहिश (इच्छा) ज़ाहिर की , जब पानी देने लगा तो पहले की तरह ऊपर खींच लिया गया। इसी तरह तीन बार हुआ। मैंने मश्क का तसमा बांधा और तीसरी बार उसे पानी न दिया। मैं डरता हुआ आपकी ख़िदमत में हाज़िर हुआ ताकि मालूम करुं कि वह क्या मामला था। रसूले ख़ुदा (स 0 अ 0) ने फ़रमाया कि वह बदबख़्त क़ाबील है , जिसने अपने भाई हाबील को क़त्ल किया था। क़यामत तक इसी जगह इसी अज़ाब में मुबतिला रहेगा। यहां तक कि आख़िरत में जहन्नुम के सख़्त अज़ाब में मुबतिला होगा।

किताब नूरूल अबसार में सैयद मोमिन शबलंजी शाफ़ई अबुल कासिम बिने मोहम्मद से रवायत (वर्णन) करते हैं , उन्होंने कहा कि मैंने मसजिदुलहराम में मुक़ामे इब्राहिम के पास कुछ लोगों को जमा देखा और वजह पूछा , उन्होंने कहा कि एक राहिब मुसलमान हुआ है , और उसने मक्का में आकर अजीब वाक़या सुनाया है। मैं उसके पास गया तो देखा , एक बूढा हट्टा-कट्टा , पशमीना का लिबास पहने बैठा है और कह रहा है कि मैं एक रोज़ दरिया के किनारे अपने इबादत ख़ाने में बैठकर दरिया का नज़ारा कर रहा था कि मैंने गिदह की शक्ल एक बहुत बड़ा परिन्दा (पक्शी) देखा , जो एक पत्थर पर आकर बैठ गया और उसने इन्सानी बदन का चौथाई हिस्सा उगला , इसी तरह चार बार अज़ाए (अंग) इन्सानी को उगला , वह आदमी उठ कर पूरा मर्द बन गया , मैं यह देखकर सख़्त हैरान हुआ। फ़िर देखा कि वही परिन्दा आया और मर्द का चौथाई हिस्सा बग़ैर चबाए निगल गया और उड़ गया और उसी तरह चार बार किया , वापस आकर निगला और उड़ गया। मेरे ताअज्जुब की हद हो गया कि यह क्या मामला है ? और यह मर्द कौन है ? और उस पर अफ़सोस करने लगा कि काश! मैंने इससे पूछ लिया होता। फिर दूसरे रोज़ इसी तरह उस परिन्दे को देखा कि उसने एक पत्थर पर आकर एक चौधाई आदमी उगला और इसी तरह चार बार किया औऱ वह उठा औऱ पूरा आदमी बन गया। मैं अपने इबादतख़ाने से निकला औऱ उसके पास पहुंचकर पूछा कि तुझे उस ज़ात की क़सम जिसने तुझे पैदा किया तै बता कि तू कौन है ? उसने कहा मैं इब्ने मुलजिम हूं। मैंने पूछा कि तेरा क़िस्सा क्या है ? उसने कहा की मैंने अली बिने अबू तालिम (अ 0 स 0) को शहीद किया था। अल्लाहतआला ने इस परिन्दे को मेरा गुमाश्ता क़रार दिया है कि वह हर रोज़ मुझे इसी कि़स्म का अज़ाब दे , जैसा कि तूने देखा। बस मैं इबादतख़ाना से बाहर निकला और पूछा कि अली बिने अबू तालिम (अ 0 स 0) कौन हैं ? लोगों ने कहा मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम के चचा ज़ाद भाई और उनके वसी हैं। बस मैंने इस्लाम कुबूल किया और हज और ज़ियारत क़ब्रे रसूले खुदा (स 0 अ 0) से मुर्शरफ़ हुआ। (मआद)।