तारीखे इस्लाम 2

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तारीखे इस्लाम 2 लेखक:
कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

तारीखे इस्लाम 2

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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तारीखे इस्लाम 2

तारीखे इस्लाम 2

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हिंदी

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साबेक़ीने इस्लाम पर कुरैश के मज़ालिम

साबेक़ीन इस्लाम की फहरिस्त मज़लूमीन में पहला नम्बर आले यासीर का है। जनाबे यासीर यमन के रहने वाले थे। गुरबत और नन्गदस्ती से परेशान होकर मक्के में आये और अबुहज़ीफा की कनीज़ समिय्या से शादी करके वही आबाद हो गये। समिय्या के बतन से दो बेटे जनाबे अम्मार अब्दुल्लाह और एक साहबज़ादी मुतवल्लिद हुयीं। ज़हूरे इस्लाम के बाद पैग़म्बर असालम (स.अ.व.व.) की दावत पर यह पूरा घराना मुसलमान हुआ लेकिन घर मे दौलते ईमान के सिवा कुछ न था। उनकी गुरबत , नादारी और बेचारगी की वजह से इसलाम लाने की पादाश में कुरैश उन पर तरह तरह के ज़ुल्म करते थे। अल्लामा दयार बकरी रक़म तराज़ है। कि जब इस्लाम को ख़ुदा ने ज़ाहिर फरमाया तो यासिर , उनके साहबज़ादे अम्मार और अब्दुल्लाह नीज़ उनकी बीवी समिय्या मुसलमान हुए। उनका इस्लाम इब्तेदाये इस्लाम ही से क़दीम था और यह वह बुर्जगवार थे। जिन पर ख़ुदा की राह में ज़ालिमों की तरफ से बे हिसाब जुल्म ढ़ाया गाय। एक दिन जब कुरैश उन पर मज़ालिम के पहाड़ तोड़ रहे थे तो इत्तेफाक़ से आन हज़रत (स.अ.व.व.) भी उधर से गुज़रे। जब आपने उस घराने का यह हाल देखा तो बेचैन हो गये और फरमाया कि ऐ परवरदिगार! तू आले यासिर को उनके आमाल के बदले में बख़्श दे।

इब्ने शहाब और तबरी की रिवायत के मुताबिक अबुजहल अबुलहब ने जनाबे यासिर और सुमिय्या के जिस्मों को नैज़े की अनी से छेद छेद कर उन्हें मार डाला रसूल अल्लाह सल्लललाहो अलैहे वआलेही वसल्लम ने ताज़ियत फ़रमाई और अम्मार यासिर से फ़रमाया कि आले यासिर सब्र करो बेहिश्त तुम्हारी वादगाह है।

अल्लामा दयार बकरी फ़रमाते हैं कि अबुजहल कमबख़्त ने यासिर की बीवी समिया को नैज़े की अनी से कोंच कोंचकर मार डाला ग़रीब यासिर का भी एसी शदीद ज़बों से ख़ातमा कर दिया मुवर्रिख़ ज़ाकिर हुसैन का कहना है कि यह इसलाम के शहीदे अव्वल हैं। हज़रत अम्मार यासिर के बारे में मुवर्रेख़ीन का बयान है कि कुफ़्फ़ारे कुरैश उन्हे जलती हुई रेत पर बरहना लेटा कर उनके जिस्म पर गरम पत्थर रखते थे , लोहे की गरम ज़ेरह पहनाते थे , दुर्रे मारते थे और खाना पानी बन्द कर देते थे लेकिन इन तमाम मज़ालिम के बावजूद आप इस्लाम से मुनहरिफ़ न हुए और न ही आपके पाये इस्तेक़लाल मे कभी कोई जुमबिश और लग़जिश पैदा हुई आपके मुतअल्लिक़ इरशादे पैगम़्बर है कि ईमान अम्मार के गोश्त व ख़ून का जुज़ है।

(2) ख़बबा बिन अरस-क़बीलये तमीम से थे- ज़मानये जाहेलियत में गुलाम बना कर फरोख़त किये गये और एक खातून ने उन्हें ख़रीद लिया। यह उस वक़्त इस्लाम लाये जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) अरक़म के घर में मुक़ीम थ और सिर्फ छः या सात अशख़ास इस्लाम ला चुके थे। कुरैश ने उन्हें तरह तरह की तकलीफें. दीं। एक दिन .दहकते हुए अँ.गारों पर उन्हें चित लिटाया गया और एक शख़्स उनकी छाती पर पाओं रख कर खड़ा हो गया ताकि करवट न बदलने पायें। यहाँ तक कि अँगारे पीठ के नीचे सर्द होकर कोयला बन गये। ख़ब्बाब ने यह वाकिया मुद्दतों बाद हज़रत उमर से ब्यान किया और अपनी पीठ खोल कर उन्हें दिखाई जिस पर जाबजां अँगारों से जलने के निशानात वाज़ेह थे।

ख़ब्बाब ज़मानये जाहेलियत में नज्जारी का काम करते थे। बाज़ड लोगों ज़िम्मे उनकी मज़दूरी बक़ाया थी। मांगते तो जवाब मिलता कि जब तक तुम ख़ुदा की वहदानियत और मुहम्मद (स.अ.व.व.) की नबूवत से इन्कार न करोगे एक कौड़ी न मिलेगी।

(3) हज़रत बिलाल-यह वही बिलाल हैं जो मोअज़्जि़न मशहूर है। उमय्या बिन ख़लफ़ के गुलाम और हब्शउल नसल थे। आप पोशीदा तौर पर इब्तेदा ही में ज़ेवरे ईमान से आरास्ता हो चुके थे और हसबे इरशाद पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ख़ुफिया तरीक़े से अल्लाह की इबादत किया करते थे। रफता रफता यह ख़बर उमय्या इब्ने ख़लफ को मालूम हुई तो उसने गुलामों को हुक्म दिया कि सुबह सूरज निकलते ही उनके तमाम जिस्म में बबूल के काँटे पेवस्त कर दिये जायें और जब आफताब की हरारत से जमीन खूब गर्म हो तो उन्हें धूप में चित लिट कर उन पर जलते हुए वज़नी पत्थर रख दिये जायें ताकि यह हिल न सकें फिर उसके चारों तरफ आग रौशन कर दी जाये काति उसकी गर्मी से उनका बदन झुलसता रहे और जब शाम हो जाये तो हाथ पैर बाँधकर कोठरी में डाल दिया जाये और बारी बारी उन्हें ताज़याने लगाये जायें यहाँ तक कि फिर सुबह हो और फिर यही अमल जारी रखा जाये।

हज़रत बिलाल को इस जॉ कनी के आलम में एक मुद्दत गुज़री।

ईमान का नूर आपके दिल में जगमगाता रहा और आप ज़बान से अल्लाह की रबूवियत और रसूल (स.अ.व.व.) की रिसालत का इक़रार करते रहे। जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) को उन अन्दोहनाक वाक़ियात की ख़बर हुई तो आप ने अब्बास के जरिये उनके मालिक से उन्हें ख़रीद लिया।

(4) सहीब रूमी- यह रूमी मशहूर ज़रुर हैं लेकिन दरहक़ीक़त रूमी नही थे. उनके वालिद सनाने किसरा की तरफ से अब्बला के हाकीम थे और उनका ख़ानदान मूसल में आबाद था। रूमियों ने मूसल पर हमला किया और जिन लोगों को क़ैद करके ले गये उनमें सहीब भी थे यह रोम ही में पले बढ़े और जवान हुए इसलिए अरबी ज़बान से नावाक़िफ थे। एक अरब ने उन्हें खरीद लिया था। इसलिए यह मक्का में आये यहाँ आने के बाद अब्दुल्लाह बिन जदआन ने उन्हें खरीद कर आज़ाद कर दिया। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने जब इस्लाम की तबलीग़ शुरू की तो जनाबे अम्मार बिन यासिर के साथ यह भी मुसलमान हुए कुफ्फारे कुरैश उन पर इतना तशद्दुद करते थे कि उनके होश व हवास मुअत्तिल हो जाते थे। जब उन्होंने मदीने को हिजरत कहना चाही तो कुरैश ने कहा कि जाना है तो अपना सारा माल व मताअ छोड़कर जाओ चुनानचे आप खाली हाथ मक्के से रवाना हुए और मदीने आ गये।)

(5) अबु फकीह- आपका अस्ल नाम अफ़लह और कुन्नियत अबूफ़कीह थी सफ़यान बिन उमय्या के गुलाम थे हज़रत बिलाल के साथ मुसलमान हुए सफ़वान को जब मालूम हुआ तो उसने चन्द सख़्त दिल लोगों को इस बात पर मामूर किया कि वह आपके पांव में रस्सी बाँद कर तपती हुई रेत पर बरहना घसीटा करें चुनानचे जब आप घसीटे जाते तो खाल उधड़ जाती थी और सारा जिस्म लहुलुहान हो जाता था। एक दिन आपके सीने पर इतना वज़नी पत्थर रखा गाय कि ज़बान बाहर निकल पड़ी थी।

(6) .हज़रत अबुबकर बिन कहफ़ा-तारीख़े खमीस में (मुन्तक़ी) के हवाले से मरकूम हैं कि इस्लाम अबी इब्तेदाई मराहिल में थआ कि हज़रत अबुबकर ने रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) से इसरार किया कि अब आप खुफिया तबलीग़ के बजाये एलानिया कार तबलीग़ अन्जाम दें। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उन्हें समझाया कि ऐ अबुबकर नासमझी की बातें न करो अभी इसका मौक़ा नहीं है क्योंकि हम क़लीलुल तादाद हैं मगर हज़रत अबुबकर ने जि़द की और किसी तरह न माने बिल आख़िर आन हजरत (स.अ.व.व.) मजबूर होकर एक नवाही मस्जिद में तशरीफ ले गये। कुफ्फारे कुरैश को ख़बर हुई तो वह भी वहाँ जमा होना शुरू हो गये। हज़रत अबुबकर खुतबा देने की ग़र्ज़ से खड़े हुए उस पर इस क़दर इन्तेशार व हैजान पैदा हुआ कि सारे मुशरेकीन आप पर टूट पड़े और मारने लगे। अतबा बिन रबिया भी उनमें शामिल था उसने पाँव से जूते निकाले जो पेवन्द दार थे और इस तरकीब से मारना शुरी किया कि जिधऱ पेवन्द होता था उसी को चहरे की तरफ घुमा देता था हज़रत अबुबकर का मुँह ऐसा सूज गया था कि चेहरे पर नाक नहीं मालूम होती थी। रसूले अकरम (स.अ.व.व.) ने बीच बचाओ की बड़ी कोशिश की मगर मुशरेकीन बाज़ न आये इतने में इत्तेफाक़ से बनि तीम के कुछ लोग वहां पहुँच गये और अबुबकर को उनके हाथों से छुडाकर एक चादर में लिटाया और बेहोशी की हालत में घर ले गये। शाह वली उल्लाह मोहददिस ने तहरिर किया है कि हज़रत अबुबकर का इश्लाम काहिनो और नुजुमियों का मरहूने मिन्नत है क्योंकि आपने सुन रखा था कि यह मज़हब अनक़रीब तक़र्की करके दुनिया भर में फैल जायेगा इस लिए वह मुसलमान हो गये थे।

मोहददिस देहलवी की तहरीर से पता चलता है कि इस्लाम के मुहासिन और उसकी अफादियत की बिना पर हज़रत अबुबकर ने उसे कुबूल नही किया बल्कि काहनों और नुजूमियों के कहने से किसी मुफाद को नज़र में रखते हुए दायरए इस्लाम में दाख़िल हुए थे।

(7) हज़रत उसमान बिन अफ़ान- हज़रत उसमान के मुसलमान होने की ख़बर जब उनके चचा को हुई तो वह बदबख़्त आपको खजूर के पेड़ में करता था। इसी तरह जुबैर बिन अवाम का चचा च़टाई में लपेट कर उनकी नाक में धुआ दिया करता था। इसी तरह ज़ुबैर बिन अवाम का चचा चटाई में लपेट कर उनकी नाक में धुआँ दिया करता था। मसअब बिन उमैर के इस्लाम लाने पर उनकी काफिरा माँ ने उन्हें घर से निकाल दिया था। साद इब्ने अबीविक़ास अगर चे अपने क़बीले में मोअजिज़ व मुक़तदिर थे मगर वह भी कुरैश के मज़ालिम से न बच सके। हज़रत उमर के चचा ज़ाद भाई सईद बिन ज़ैद जब इस्लाम लाये तो उमर उन्हें रस्सी से बाँधकर पीटा करते थे।

मुसलमान औरतें भी मज़ालिम से मुसतसना न थीं हज़रत उमर अपनी कनीज़ लबीना को इस क़दर मारते थे कि थक जाते और थोड़ी देर दम लेकर फिर मारना शुरू कर देते थे। अबुजहल ने अपनी कनीज़ ज़नीरा को इतना मारा कि वह अँधी हो गयी। नहदिया और उम्मे जबीस भी कनीजें थीं उनका भी यह हाल था।

साबेक़ीन इस्लाम की यह दर्द अंगेज़ दास्तां एक ऐसी रौशन और ताबिन्दा हक़ीक़त है जिस से इन्कार मुम्किन नहीं है।

हिजरते हब्शा ( 5) पाँच बेइस्त

आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने जब यह देखा कि मुसलमानों पर कुफ्फारे कुरैश के मज़ालिम का सिलसिला बतदरीज बढ़ता जा रहा है और मक्के में उन ग़रीबों पर तंग होती जा रही है तो उनके तहाफुज़ को नज़र में रखते हुए आपने उन्हें हिजरत का हुक्म दिया और फरमाया कि तुम्हारे लिये बेहतर है कि तुम लोग यहाँ से हिजरत करके हब्शा की तरफ चले जाओ क्योंकि वहाँ का बादशाह रहमदिल और इन्साफ पसन्द है इसलिए हुकूमत में कोई शख़्श किसी शख़्स पर जुल्म नहीं करता लेहाज़ा जब तक मक्के के हालात साज़गार न हों तुम लोग वहीं क़याम करो।

इस हुक्मे पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के मुताबिक ग्यारहं मर्दों और चार औरतों पर मुश्तमिल पहला क़ाफिला मक्के से हब्शा की तरफ रवना हुआ उसमें हज़रत उसमान और उनकी ज़ौजा रूक़य्या , जुबैर बिन अवाम , आमिर बिन रबिया और उनकी ज़ौजा लैला अबु सलमा और उनकी ज़ौजा उम्मे सलमा अबु हुज़ैफ़ा बिन अतबा और उनकी ज़ौजा सहल बिन्ते सहील , अब्दुल्लाह बिन मसऊद , अब्दुल रहमान बिन औफ , मआसब बिन उमैर , सुहैल इब्ने बैज़ाअ , हातिब बिन अम्र और उसमान बिन मज़ऊन शामिल थे। यह नबूवत के पाँचवे साल माहे रज़ब का वाक़िया है।

जब यह क़ाफिला हबशा पहुँचा तो वहाँ के बादशाह नजाशी ने उन महाजिरींन का ख़ैर मकदम किया , हुस्ने सुलूक व कशादा दिली के साथ पेश आया और उन्हें अमान व मज़हबी आज़ादी दी। इब्ने हश्शाम , उम्मुल मोमेनीन उम्मे सलमा का क़ौल ख़ुद उनकी ज़बानी नक़ल करते हैः-

(जब हम लोग हब्शा में वारिद हुए तो वहाँ के बादशाह हमारे साथ नमीं और रहम दिली से पेश आया हम लोग अमन व चैन से अपने दीन पर क़ायम रहे और आज़ादी से ख़ुदा की इबादत करत रहे न हमें कोई सताने वाला था और न हम मकरूहात सुनते थे।)

पन्द्रह इन्सानी पर मुबनी महाजिरीन की इस मुख़तसर सी जमात को हब्शा में रहते अभी दो ही माह गुज़रे थे कि किसी ने यह मशहूर कर दिया कि मक्के में सारे कुरैश मुसलमान हो गये। ज़ाहिर है कि इस ख़बर के बाद मुहाजिरीन को अपने मरकज़ की तरफ पलट आना चाहिये था चुनानचे यही हुआ कि यह जमाअत हब्शा से मक्के के लिये फिर रवाना हो गयी मगर जब इस जमाअत के लोग मक्के के क़रीब पहुँचे तो उन पर यह हक़ीक़त आशकार हुई कि कुफ्फारे कुरैश पहले से ज़्यादा दुश्मनी पुर उतर आये हैं। यक़ीनन एक हौसला शिकन और परेशान कुन ख़बर थी जिसे सुन कर अब्दुल्लाह इब्ने मसऊद तो हब्शा की तरफ फिर पलट गये और बाकी़ लोगों ने मग़फी तौर पर ऐसे लोगों के यहाँ क़याम किया जो मुसलमान हो चुके थे या उनके दिलों में इस्लामी जज़बा पैदा हो चुका था।

इधर मक्के में खुफिया तौर पर लोग कसमापुर्सी और बेचारगी की हालत में रह कर अपने ईमान व इस्लाम की हिफाज़त कर रहे थे और उधर कुफ्फ़ार की तरफ से रोज़ ब रोज़ जुल्म व सितम का बाज़ार गर्म होता जा रहा था लेहाज़ा मुसलमानों की इज़्ज़त , जान , माल और विक़ार को ख़तरे में देखर नबूवत के सातवें साल सरवरे दो आलम (स.अ.व.व.) ने फिर हिजरत का हुक्म सादिर फ़रमाया।

इस मर्तबा बच्चों के अलावा 33 मर्द और 18 औरतें मुताफर्रिक़ तौर पर हब्शा गये और आखिर में जाफर इब्ने अबुतालिब की क़यात में एक बड़ा क़ाफिला रवाना हुआ जिसमें औरतों और मर्दों की तादाद पचास बतायी गयही है। इस तरह मुहाजिरीन की मजमूयी तादाद 101 तक पहुँच गयी।

इब्ने हष्शाम ने मुहाजिरीन के नामों की जो फेहरिस्त तरतीब दी है उसमें उन्होंने छियासी नाम मर्दों के और अट्ठारा नाम औरतों के मरक़ूम किये हैं उससे मुहाजिरीन की मजमूयी तादाद 104 मालूम होती है। इब्ने साद रक़म तराज़ हैं कि कुल मुहाजिरीन की तादाद 101 थी जिसमें 83 मर्द 11 कुरैशी औरतें और 7 दीगर क़बीलों की औरतें शामिल थीं।

अकसर मोअर्रिख़ीन का ख़्याल है कि हिजरत सिर्फ उन्हीं लोगों ने की जिनका कोई हामी और मददगारी नही था लेकिन इब्ने हष्शाम या इब्ने साद ने मुहाजिरीन की जो फेहरिस्त मुरत्तब की है उसमें हर दर्जे के लोग नज़र आते हैं। हज़रत उसमान बनि उमय्या से थे जो अरब में सबसे ज़्यादा मालदार और ताक़तवर क़बीला था , हज़रत जाफर इब्ने अबुतालिब ख़ुद रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) के ख़ानदान से थे। अब्दुल रहमान बिन औफ और अबुसीरा वग़ैरा मामूली शख़्सियत के लोग नहीं थे इस बिना पर ज़्यदा क़यास यह है कि कु़रैश के मज़ालिम सिर्फ़ ग़रीबों और नादारों तक महदूद नहीं थे बल्कि बड़े लोग भी उनके जुल्म व सितम से परशान थे। अजीब बात यह है कि जो लोग ज़्यादा मज़लूम थे और जिन्हें अँगारों के बिस्तर पर सोना पड़ा था मसलन यासिर , अम्मार और बिलाल वग़ैरा उन लोगों के नाम फेहरिस्ते मुहाजिरीन में नहीं है या तो उनकी बे सरो सामानी इस हद तक पहुँची हुई थी कि सफर करना ही दुश्वार था या फिर यह लोग ईमान व इरफान की इस बुलन्दी पर थे जहाँ मज़ालिम और तशद्दुद की परवा नहीं रह जाती।

कुफ़्फ़ारे कुरैश को उन मुहाजिरीन से कोई ज़ाती अदावत नहीं थी बल्कि उन्हें इस (तहरीक) से अदावत थी जो उनके बातिल नज़रियात और ख़ुद साख़ता खुदाओं के खिलाफ तदरीज फैलती जा रही थी। पहली हिजरत के दौरान हब्शा के हालात व वाक़ियात यह सुन चुके थे अब उन्हें यह अन्देशा पैदा हो गया था कि कहीं वहाँ इस तहरीक को फलने फूलने का मौक़ा न मिल जाये लेहाज़ा इस मर्तबा उन्होंने मुहाजिरीन का पीछा किया मगर कुफ्फार के पहुँचने से पहले यह लोग किश्तियों पर सवार हो चुके थे और किश्तियां रवाना हो चुकीं थी इसलिए वह कुफ्फार के पन्जों से निकल कर हिफ़ज़ों अमान के साथ हब्शा पहुँच गये।

नज्जाशी के दरबार में हज़रत जाफर का तबलीग़ी कारनामा

साबिक़ा मुराअत खुसूसी की तरह हब्शा में मुहाजिरीन को इस मर्तबा भी अमान मिला , आज़ादी नसीब हुची और यह लोग खुशगवार फज़डा में सुकून व इत्मिनान की ज़िन्दगी बसर करने लगे। मुसलमानों का यह इत्मिनान व सुकून कुफ्फार को कब गवारा था ? लेहाज़ा उन्होंने अम्र बिन आस और अब्दुल्लाह बिन रबिया को अपने नुमाइन्दों की हैसियत से तोहफे तहाएफ देकर नज्जाशी के दरबीर में भेजा इस दोरूकनी वफ़द ने बादशाह के रूबरु हाजि़र होकर अपने मारूज़ात पेश किये और कहा कि मक्के के कुछ शर पसन्द लोग भाग कर आपके मुल्क में पनाह ले चुके हैं। हमारा मुतालिबा है कि उन्हें हमारे हवाले कर दिया जाये। नज्जाशी ने कहा , जब तक हम दूसरे फरीक़ की बातें न सुन लें उस वक़्त तक कोई फैसला नहीं कर सकते।

चुनानचे हज़रत अली 0 (अ.स.) के भाई महाजिरीन ने सलारे आज़म हज़रत जाफर इब्ने अबुतालिब दरबार में तलब किये गये और जब मुहाजिरी की जमाअत के साथ वह दरबार मे तलब में हाज़िर हुए तो नज्जाशी ने पूछा कि आप लोगों के उसूल व अक़एद क्या हैं ? और कुरैश मक्का आपके खिलाफ क्यों हैं ? इन सवालों के जवाब मे हज़रत जाफर ने अपनी तक़रीर इस तरह शुरु कीः-

(ऐ बादशाह! हमारे मुल्क के लोग जाहिल और तहज़ीब व तमद्दुन से नाआशन थे। मुरदार जानवरों का गोश्त उनकी ख़ुराक और बेहूदा गुफतनी उनका शेवा था। इन्सानियत , हमदर्दी , मेहमान नवाज़ी और हमसायग़ी के हुकूक से बिल्कुल) ही नाबलद थे न किसी आईन का पास व लिहाज़ था और न किसी क़ानून व ज़ाबत के पाबन्द थे हमारे पूरे मुल्क पर जाहेलियत पूरी तरह मुसल्लत थी कि इन हालात में ख़ुदा ने अपने फज़ल व करम से हमारे दरमियान एक रसूल भेजा जिस की अमानत व दयानत सिदक़ व सफ़ा , हसब व नसब और ज़ाहद व तक़वा से हम अच्छी तरह वाक़िफ थे , उसने हमे शिरक व बुत परस्ती की गुमराही से निकाला , मुकारिमे इखलाक़े व उसवए हस्ना का दर्स दिया , तौहीद की दावत दी , गुनाहों से बचने , नमाज़ पढ़ने रोज़ा रखने ज़कात अदा करने और सच बोलने की तलक़ीन फरमायी। हामारा कुसूर सिर्फ यह है कि हम उस नबी की नबूवत और ख़ुदा की वहदानियत पर ईमान लाये। बस इसी जुर्म में हमारी क़ौम हम सख़्ती और तशद्दुद करने पर तुले गय है वह चाहती है कि हम अल्लाह की इबादत तर्क करके लकड़ी , मिट्टी और पत्थरों से बने हुए बुतों की परस्तिश करें। लेहाज़ा उनके जुल्म और तशद्दुद से बचने के लिये हमने आपके मुल्क में पनाह ली है।)

इस तक़रीर का नज्जाशी के दिल पर गहरा असर पड़ा और उसने उस कलामे ख़ुदा को सुनने की तमन्ना का इज़हार किया जो रसूल अल्लाह (स.अ.व.व.) पर नाज़िल हुआ था हज़रत जाफर ने सुरये मरियम की तिलावत फरमायी जिसे सुन कर बख़्खाशी की आँखों में आँसू आ गये। उसने आन हज़रत की सदाक़त व नबूवत का एतराफ किया और कहा बे शक यह वही रसूल है जिनके तशरीफ लाने की ख़बर हज़रत ईसा मसीह ने दी है , खुदा का शुक्र है कि मैं उनके ज़माने में हूँ।

इसके बाद बादशाह ने कुरैश के भेजे हुए तहाएफ़ वापस कर दिये और मुहाजिरीन को उनके हवाले करने से साफ इन्कार कर दिया बिल आख़िर कुरैश के दोनों नुमाइन्दे मायूसी की हालत में मक्के वापस आ गये , और मुसलमान एक अरसे तक हब्शा में रह कर निहायत चैन व सुकून की ज़िन्दगी बसर करते हैं।

दारूल अरक़म में आन हज़रत (स.अ.व.व.) का क़याम

मुहाजिरीने हब्शा के मक्के से चले जाने के बाद भी आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने अपनी तबलीगी सरगर्मियां बादस्तूर जारी रखीं और नये नये लोग दायरये इस्लाम में दाख़िल होते रहे। यह देखकर कुफ़्फार ने आप को और ज़्यादा सताना शुरू कर दिया यहाँ तक कि हुजूर (स.अ.व.व.) को मजबूर होकर अपने बाक़ी मांदा साथियों के साथ अक़रम बिन अबी अरक़म के घर में पनाह लेना पड़ा। यह मकान कोहे सफ़ा पर वाक़े था वहाँ आप एक माह दो दिन मुक़ीम रहे और लोगों को दावते इस्लाम देते रहे। बाज़ मोअर्रिख़ीन का कहना है कि इसी मकाम में कयाम के दौरान हज़त हमज़ा और उनके तीन दिन बाद हज़रत उमर ने इस्लाम क़ुबूल किया। लेकिन तारीख़े ख़मीस में अल्लाह दयार बकरी ने इस बात को ग़लत क़रार दिया है वह कहते हैं कि हज़रत हमज़ा ने 2 बेइस्त में इस्लाम कुबूल किया था लेकिन मसलहतन उन्होंने अपने इस्लाम को पोशीदा रखा और बिल आख़िर अबुजहल की बत्तमिज़ियों की वजह से 6 बेइस्त मे उसे ज़ाहिर कर दिया। मेरे नज़दीक यही दुरुस्त भी है।

हज़रत उमर का मुसलमान होना

हज़रत उमर ने इस्लाम क्यों कर कुबूल किया ? इसकी तफसील का इजमाल यह है कि रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) के बदतरीन दुश्मन और हज़रत उमर के मामू अबूजहब ने कुफ्फारे मक्का के एक मजमे में यह ऐलान किया कि जो शख़्स मुहम्मद (स.अ.व.व.) का सर काट कर लायेगा उसे सौ ऊँट या चालीस हज़ार दिरहम इनाम में दिये जायेंगे

हज़रत उमर भी अपने मामू अबुजहल की तरह पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के बदतरीन दुश्मन थे चुनानचे उन्होंने काह यह काम मैं अन्जाम दूँगा। घर आये , तलवार ली और दारूल अरक़म की तरफ जहाँ रसूले अकरम (स.अ.व.व.) मुक़ीम थे , चल पड़़े। रास्ते में नईम इब्ने अब्दुल्लाह अदवी से मुलाक़ात हुई जो अपने को मग़फी रखे हुए थे। उन्होंने पूछा ऐ उमर! तलवार लेकर कहाँ चले ? कहा मुहम्मद (स.अ.व.व.) को क़त्ल करने। उन्होंने कहा कि फिर तो तुम्हें बनी अबदे मनाफ़ ज़िन्दा नहीं छोडेंगे। उस पर उमर ने तलवार निकाल ली और कहने लगे कि मालूम होता है कि तू भी दीन से निकल गया। नईम ने कहा , पहले अपनी बहन फ़ात्मा और बहनोई सईद बिन ज़ैद की ख़बर ले कि वह भी मुसलमान हो गये हैं। यह सुनना था कि ग़ैज़ व ग़ज़ब का बिफरा हुआ तूफ़ान बहनोई के घर की तरफ़ मुड़ गया। जिस वक़्त यह दरवाज़े पर पहुँचे उस वक़्त दोनों मियां बीवी सूरये ताहा की तिलावत कर रहे थे आवाज़ सुनकर घर में घुसे और बहनोई पर टूट पड़े दोनों मे खूब जमकर मारपीट हुई। बहन ने बीच बचाओ की कोशिश की तो उस बेचारी की नाक पर एक ज़ोरदार घूँसा जड़ दिया जिससे वह लहू लुहान हो गयी इस हरकत पर आपके बहनोई ने वह ज़बरदस्त ख़ातिर की कि दिन में तारे दिखायी देने लगे आख़िर कार जान बचाकर भागे और सीधे अरक़म के घर पहुँचे। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने आपकरे ख़तरनाक इरादों को भाँप लिया , आगे बढ़े , कलाई पकड़़ी और फिशार देना शुरू किया। यह मुहम्मदी फिशार कुछ ऐसा था कि आप घुटनों के बल ज़मीन पर बैठ गये। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फरमाया , ऐ उमर अब बता तेरा क्या इरादा है ? फिशार कि शिद्दत ने जब आपको यह यक़ीन दिला दिया कि अब जान का मुश्किल है तो कहने लगे कि हुजूर (स.अ.व.व.) मैंतो इस्लाम कुबूल करने की ग़र्ज़ से हाजिर हुआ था। मुख़तसर ये कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) एक तरफ हज़रत उमर की कलाई थामें हुए फिशार दे रहे थे और दूसरी तरफ़ हज़रत उमर क जबान पर अशहदों अन ला इलाहा इल्ललाह मुहम्मदन रसूल उल्लाह के कलेमात जारी हो रहे थे। इब्ने असीर का कहना है कि आपने 26 मर्दों और 23 औरतों के बाद इस्लाम कबूल किया।

कुछ मोअर्रेख़ीन का कहना है कि हज़रत उमर जब वलीद बिन मुग़ीरा के तिजारती क़ाफिले के सात रोम के सफर पर थे तो वहाँ के राहीबों ने यह पेशीनगोई की थी कि इस्लाम के तवस्सुल से आपको हुकूमत मिलेगी इस वजह से आप मुसलमान हुए। यह वाकिया अज़ालतल ख़िफा में भी है , मसऊदी ने भी लिखा है और तबरी ने भी यही वाकिया ब्यान किया है। बहर हाल वाकिया कुछ सही , यह बात तवातुर से साबित है कि हज़रत उमर का इस्लाम खुलूस और अक़ीदत से आरी था।

बैतुल्लाह में एलानिया पहली नमाज़

अल्लामा दयार बकरी का ब्यान है कि मुसलमान होने के बाद हज़रत उमर ने पैग़म्बे इस्लाम (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में यह अर्ज़दाश्त पेश की किः- या रसूल अल्लाह! जब हम हक पर और कुफ़्फार बातिल पर हैं तो क्या वजह है कि हम अपने दीन को छुपायें फिरें ? आप आज मुशरेकीन की परवा किए बग़ैर हमारे साथ खान-ए-काबा में तशरीफ ले चलें , हम नमाज़ वहीं पढ़ेंगे।) आन हज़रत ने फरमाया कि मुसलमानों की तादा कुफ्फार के मुक़ाबिल में अभी बहुत कम है और जो हालात हैं उन्हें तुम देख रहे हो लेहाज़ा अभई ज़ब्त व सब्र से काम लो इन्शाअल्लाह तुम्हारी यह खुवाहिश भी एक दिन पूरी होगी। मगर हज़रत उमर अपनी ज़िद के आगे भला कब मानने वाले थे ? इसरार करके आन हज़रत (स.अ.व.व.) को खान-ए-काबा तक इस तरह ले गये कि ख़ुद शमशीरे बकफ आगे आगे थे , दाहिने और बायें हज़रत अबुबकर व दीगर असहाब चल रहे थे। जब यह लोग खान-ए-काबा में दाखिल हुए तो मुशरेकीन ने मज़ाहमत करना चाही। हज़रत अली (अ.स.) हमज़ा , उमर , अबुबकर और असहाब भी आसतीने सूत कर आगे बढ़े। आख़िरकार मुशरेकीन खौफ व दहशत की वजह से भाग खड़े हुए और आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने एलानिया नमाज़ पढ़ी। (तारीख़े ख़मीस)

इसमें शक नहीं कि हुजूरे अकरम (स.अ.व.व.) को हज़रत उमर ने बिल ऐलान नमाज़ पढ़वा दी मगर उसका अन्जाम यह हुका कि कुफ्फारे कुरैश की आतिशे अदावत इस तरह भ़ड़की कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) को तमाम बनि हाशिम समेत तीन बरस तक मुसलसल शोअबे अबुतालिब में महसूर रहना पड़ा जिसकी मुकम्मल तफसील अबुतालिब (अ.स.) के हालात में मरकूम हो चुकी है।

ताएफ़ का सफ़र

हज़रत अबुतालिब (अ.स.) की वफात के बाद मक्के की सर ज़मीन का चप्पा चप्पा पैगम्बर इस्लाम (स.अ.व.व.) के लिए खारज़ार बन गया था और मुशरेकीन की ईज़ारसानियों में एक दम से शिद्दत पैदा हो गयी थी। आपने सोचा कि कुछ दिनों के लिए उनकी नज़रों से ओझल हो जाना ज़्यादा मुनासिब होगा , इससे उनका वक़्ती जज़बा मुख़ालिफ भी कुछ कम हो जायेगा और इस्लाम के हलक़ए तबलीग़ में उसअत भी पैदा हो जायेगी। चुनानचे इसी ख़्याल के तहत आप ज़ैद बिन हारसा को अपने हमराह ले कर ताएफ़ की तरफ़ रवाना हो गये। इब्ने साद का कहना है कि यह माहे शव्वाल की आख़िरी तारीखों में बेइस्त से दसवी साल का वाक़िया है।

ताएफ़ मक्के मोअज़्जमा से पचास साठ मील की दूरी पर एक सर सबज़ व शादाब मुक़ाम है जहाँ के मेवे दुनिया भर में तमशहूर हैं। ख्वाजा मुहम्मद लतीफ़ फरमाते हैं किः- (ताएफे मक्का से तबरी का ब्यान है कि वहाँ क़बीले सक़ीफ़ का मुसतक़र ताएफ में आन हज़रत (स.अ.व.व.) दस दिन तक क़्याम पज़ीर रहे। वहाँ के मक़सूसीन से मिले और उन्हें दावते इस्लाम दी मगर उन लोगों ने कुबूल करने से इन्कार कर दिया बल्कि उन्होंने इस अन्देशे के तहत कि कहीं हमारी क़ौम के नौजवानों पर इस तबलीग़ का असर न हो जाये , आपसे यह तक कह दिया कि आप हमारे शहर से चले जाये और कहीं दूसरी जगह क़्याम करें। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि उन लोगों ने अपनी क़ौम के जाहिलों और ऊबाशों को आपकी ईज़ा रसानी के लिए उभार दिया और वह लोग आपको पत्थर मारने लगे। उन पत्थरों के मुक़ाबले में ज़ैद बिन हारसा तनहा आपकी सिपर बनते थे जिसकी वजह से उनके सर में बहुत से ज़ख़्म आ गयचे और आन हज़रत (स.अ.व.व.) के पाये मुबारक से खून जारी हो गया।

इस हालत में आप ताएफ से रुख़सत होकर मक्के की जानिब फिर वापस हुए। मगर यह आलम था कि अब हरम में भी आपके लिए कोई जाये पनाह न थी। आप कोहे हिरा तक पहुँचे तो आपने दस्तूरे अरब के मुताबिक़ मुतीम बिन अदी को जो जनाबे अबुतालिब के क़दीम दोस्तों में थे , पैग़ाम भेजा कि मैं तुम्हारी पनाह में आना चाहता हूँ , पुराने तालुक़ात की बिना पर मुतीम ने सब मनजूर कर लिया और अपनी औलादों नी़ ख़ास अज़ीज़ों से कहा कि तुम सब मुसल्लह हो जाओ इसलिए कि मैंने मुहम्मद (स.अ.व.व.) को अपनी पनाह में ले लिया है। चुनानचे वह सब हथियारों से लैस होकर खान-ए-काबा के इर्द गिर्द जमा हो गये। जिसके बाद ज़ैद बिन हारसा के साथ आप मस्जिदुल हराम तक तशरीफ लाये , रुकन के पास पहुँचे , इस्तेमाल किया , दो रकत नमाज़ पढ़ी और फिर मुतीम बिन अदी और उनकी औलादों के घेरे में अपने घर तक तशरीफ लाये।

मसाएब की शिद्ददत

हज़रत रसूले खुदा (स.अ.व.व.) की जिस्मानी ईज़ा रसानियों के जितने भी वाक़ियात हैं जैसे पत्थरों की बारिश और सरे मुबारक पर खस व ख़ाशाक वग़ैरा का डाला जाना , यह सब इसी दौर से मुतालिक़ हैं , जब आपके सर से जनाबे अबुतालिब (अ.स.) का साया उठ चुका था। मगर यह आन हज़रत (स.अ.व.व.) का सब्रों इस्तेक़लात था कि चचा की वफात के बाद , आप सिर्फ चन्द रोज़ गोशा नशीन रहे फिर ताएफ का सफर इख़तियार करके तल्ख़ तजुर्बा किया और उसके बाद पलटे तो मुतीम इब्ने अदी से पनाह ले कर मक्के में दाखिल हुए , मगर इस अमर हक़ीक़त से आप अच्छी तरह वाक़िफ थे कि मैं पनाह लेने दुनिया में नहीं आया बल्कि गुमराहियों के सेलाब में डूबी हुई इस दुनिया को अपने साये रहमत में पनाह देने आया हूँ। इसिलए आपने घर पहुँच कर मुतीम बिन अदी का शुक्रिया अदा किया और फरमाया कि बस अब आपकी ज़िम्मेदारी ख़त्म हुई आप अपनी पनाह के बार से शुबकदोश कर दीजिये।

इसके बाद आप मक्के की गलियों , सड़कों और बाज़ारों में निकलते तो ज़्यादा तर हज़रत अली (अ.स.) आपके साथ होते मगर तन्हा वह भी क्या करते जब मशियते खु़दा वन्दी नहीं चाहती थी कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) फिलहाल किसी माद्दी कूवत को बरुये कार लाकर मुशरेकीन का मुक़ाबला करें।

चढ़ती हुई जवानी के आलम में हज़रत अली (अ.स.) का यह ज़ब्ते तहम्मुल , उनके लिये यक़ीनन एक सख़्त इम्तेहानी मरहला था मगरवह भी इस हक़ीक़त से बेगाना न थे कि उनका जिहाद पर बिनाये मसलहत इसी अमर का मुतक़ाज़ी है कि वह सब्रों इस्तेक़लाल से काम लें। ताकि तबलीग़े हक़ की राह में कोई रुकावट पैदा न हो।

अकसर ऐसा भी होता था कि किसी ख़ास सबब की बिना पर हज़रत अली (अ.स.) या ज़ैद बिन हारसा पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के साथ न होते तो उस वक़्त कुफ्फार के हौसले और भी बुलन्द हो जाते और दिल खोलकर वह आपको तकलीफें पहुँचाते मगर आपको सब्रों सबात का यह हाल था कि आप दुश्मनों की तरफ मुड़कर भी नहीं देखते थे। और जब भी मौक़ा हाथ आता कारे तबलीग़ में कोताही न करते , ख़ुसूसन जब हज का ज़माना आता और लोगों की तलवारें नयामो में चली जाती तो आप इधर उधर से आने वाले क़बाइल के ख़ेमों तशरीफ ले जाते और हर एक को दावते हक़ देते मगर उसका नतीजा भी क्या होता ? इब्ने साद का कहना है कि अरब का हर एक क़बीला आपकी दावत पर लब्बैक न कहता था बल्कि आपको आज़ार पहुँचाता था, पत्थर मारता था और गालियां देता था।