तारीखे इस्लाम 2

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तारीखे इस्लाम 2 लेखक:
कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

तारीखे इस्लाम 2

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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तारीखे इस्लाम 2

तारीखे इस्लाम 2

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

शहरे मदीनें मे हुजूर (स.अ.व.व.) का दाख़िला

हज़रत अली 0 के बाआफियत पहुँचने के बाद आन हज़रत (स.अ.व.व.) तीन या चार दिन मज़ीद कुलसूम के मकान पर फरोकश रहे इसके बाद मुसल्लेह मुसलमानों के एक बड़डे मजमे के साथ आप शहरे मदीने में दाखि़ल हुये। हर शख़्स की यह तमन्ना थी कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) हमारे यहाँ कयाम फरमां हों मगर आपको किसी की ख़ातिर शिकनी कब गवारा थी ? फरमाया , मेरे नाक़े की मेहार छोड़ दो , यह खुदा के हुक्म से मुझे जिसके दरवाज़े पर ले जायेगा वही ठहर जाऊँगा चुनानचे मेहार छोड़ दी गयी , वह चला और आगे बढ़ता रहा यहाँ तक कि उस मुक़ाम पर पहुँचा जहाँ मस्जिदे नबवी है वहाँ आपने नमाज़ अदी की उसके बाद नाक़ा वहाँ से चल कर थोड़ी दूर पर वाक़े अबु अय्यूब अन्सारी के मकान के सामने बैठ गया। वह अपनी क़िस्मत पर नाज़ करते हुये खुशी खुशी आन हज़रत (स.अ.व.व.) को अपने घर ले गये और वहाँ आप क़याम पज़ीर हुये।

मस्जिदे नबवी की तामीर

अबु अय्यूब अन्सारी के मकान से मुतस्सिल जिस ज़मीन पर मस्जिदे नबवी की तामीर अमल में लाई गयी वह अल्लामा तबरसी के क़ौल के मुताबिक़ क़बीले ख़िज़रिज़ के दो यतीम बच्चों की मिलकियत थी और यह दोनों बच्चे असद बिन ज़रारा की तौलियत व केफ़ालत में थे। मगर इब्ने जरीर तबरी का कहना है कि उन दोनों यतीमों का ताल्लुक़ बनी निजार से था और यह मआज़ बिन अफरा के ज़ेरे कफालत थे।

यह ज़मीन , अपने दामन में कुछ खजूर के दरख़्तों और ज़मानये जाहेलियत के मुशरेकीन की कुछ बोसीदा कुहना क़ब्रों को लिये बरसों से उफ़तादा पड़ी हुई थी। और , चूँकि मदीने में उस वक़्त मुसलमानों की नमाज़े जमात के लिये कोई मख़सूस व मुस्तक़िल जगह न थी इसलिये अल्लाह के हबीब (स.अ.व.व.) ने चाहा कि वहाँ एक मस्जिद तामीर हो जाये चुनानचे आपने असहा व अन्सार से फरमाया कि तुम लोग इस ज़मीन के मालिकों से कहो कि वह इसे मेरे हाथ फ़रोख़्त कर दें ताकि मैं यहाँ एक मस्जिद बनवा दूँ। यतीमों से बात की गयी। वह इस शर्त पर राज़ी हुए कि बगै़र क़ीमत उसे हुजूर (स.अ.व.व.) के हक़ में हिबा कर दं मगर आपको यह गवारा न हुआ और आपने उनकी शर्त कुबूल करने से इन्कार किया। बिल आख़िर असद बिन ज़रारा या मेआज़ बिन अफरा के समझाने पर वह बच्चे क़ीमत लेने पर तैयार हुये और सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) ने दस दिरहम की क़ीमत पर उसे ख़रीद लिया।

जब यह मरहला तय होगया तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने असहाब से फरमाया कि वह दरख़्तों को काट दें , क़ब्रों को हटा दें , और ज़मीन को हमवार कर दें चुनानचे दरख़्त काट दिये गये , क़ब्रों को बैरून मदीना किसी नामालूम मुक़ाम पर मुन्तक़िल कर दिया गया और ज़मीन हमवार कर दी गयी। इसके बाद मस्जिद का तामीरी महला शुरू हुआ।

मुसलमानों आलम के मुस्निफ मिस्टर ए 0 के 0 हमीद फरमाते हैं किः- सबसे पहला काम जो सरकार (स.अ.व.व.) ने मदीने पहुँचकर कर किया वह मस्जिदे नबवी की तामीर थी , जिसकी दीवारे कच्ची ईंटों से तीन गज़ ऊँची बनायी गयीं , नौ फिट छत डाली गयी और खजूर के तनों से शहतीरों का काम लिया था।)

खान-ए-काबा को अगर यह शरफ है कि इस के मेमार और मज़दूर हज़रत इब्राहीम (अ.स.) ख़लील उल्लाह और उनके फरज़न्द जनाबे इस्माईल अ) थे तो मस्जिद नबवी को भी यह शरफ , फज़ीलत और खुसूसियत हासिल है कि उसकी तामीर में फ़ख़रे अन्बिया हज़रत मुहम्मद (स.अ.व.व.) ने दीगर मुसलमानों के साथ मेमार और मज़दूर दोनों की हैसियत से काम किया। तबरी का कहना हैः-

(मस्जिद की तामीर का काम आपने खुद किया और असहाब व अन्सार व मुजाहरीन ने आपका साथ दिया)

साठ गज़ लम्बी और चव्वन गज़ चौड़ी इस अज़ीम तरीन मस्जिद का संगे बुनियाद रखने के लिये खुदायी के मौक़े पर पहला फावड़ा खुद हुजूर अकरम (स.अ.व.व.) ने अपने दस्ते मुबारक से चलाया।

सरवरे कौनैन (स.अ.व.व.) का यह जज़बये तामीर देखकर , फिर मुसलमानों में यह ताब कहाँ ती कि वह इस सआदत से महरूम रहते , तमाम सहाबा , मुहाजरीन , अन्सार और मोतक़दीन , जिन में बड़े बड़े दौलत मन्दाने क़बाएल और रूसा शामिल थे , सबके सब फावड़े और कुदालें ले कर टूट पडे और बुनियाद खोदने व मिट्टी फेंकने का काम अन्जाम देने लगे। ख़ालिस अक़ीदत और कामिले इरादत का यह हाल था कि जिन नाज़ परवर्दा जिस्मों पर ज़र्री अबायें थीं वह सरसें पाओं तक ख़ाक आलूदा हो गये और जिन सरों पर क़ीमती अमामे थे वह गर्द व गुब्बार से ढ़क गये। इब्ने हष्शाम का कहना है कि इस सआदत से सरफराज़ होने वालों में पहला नम्बर हज़रत अम्मार बिन यासीर का है जिन्होंने सबसे पहले इस मस्जिद की तामीर में हाथ लगाया।

इमाम क़स्तलानी और अल्लामा ज़रक़ानी ने तहरीर फरमाया है किः-

तमाम मुसलमान एक-एक ईंट उठाते थे और अम्मारे यासिर दो-दो ईँट एक अपने हिस्से की और एक हज़रत रसूले ख़ुदा की उठा कर लाते थे , आं हज़रत उनके साथ-साथ होते , उनके जिस्म से गर्दा गुब्बार साफ़ करते और फ़रमाते ऐ अम्मार। तुम्हें मुबारक हो कि सबके लिए एक सवाब और तुम दोहरे सवाब के मुस्तहक़ हो और दुनियां में दूध तुम्हारी आख़री गेज़ा होगी।

इसके बाद ज़रक़ानी रकमतराज़ हैं किः-

बुख़ारी ने अपने बाज़ नुस्खों में और मुस्लिम व तिरमिज़ी वग़ैरा ने बाअसनाद लिखा है कि आप (स.अ.व.व.) ने इस मौक़े पर यह भी फरमाया था कि ऐ अम्मार! इब्ने हष्शाम की तहरीर का खुलासा यह है किः-

आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फरमाया , अम्मार मेरी आँखों और नाक का दरमियानी हिस्सा है लेकिन उसे एक बाग़ी गिरोह क़त्ल करेगा) 3

मोहद्दस शिराज़ी रौज़तुल अहबाब में रक़म तराज़ हैः-

(हर सहाबी एक ईँट उठाता था और अम्मार दो ईँटे उठाते थे। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उनके जिस्म से ख़ाक झ़ाड़ते हुए फरमाया कि अम्मार मेरी दोनों आँखों के बराबर है मगर अफसोस कि उसे बाग़ी गिरोह क़त्ल कर देगा। 4

ग़र्ज़ कि तामीर का काम निहायत सरगर्मी , मुस्तैदी और तेज़ी के साथ मुसलसल व मुतावातिर जारी रहा और आक़िरक़ार सात माह में मस्जिद और अज़वाजे रसूल (स.अ.व.व.) के मकानात बन कर तैयार हो गये। तबरी का ब्यान है कि इस से क़बल आन हज़रत (स.अ.व.व.) किसी मुअय्यना जगह पर नमाज़ नहीं पढ़ते थे बल्कि मुख़तलिफ मुक़ामात पर जहाँ नमाज़ का वक़्त आ जाता था वहाँ पढ़ लिया करते थे

अल्लामा शिबली फरमाते हैं किः-

यह मस्जिद हर क़िस्म के तकल्लुफात से बरी और इस्लाम की सादगी की तस्वीर थी। कच्ची ईँटों की दीवारें , बर्ग खुरमें के छप्पर और खजूर के सतून थे। क़िबला बैतुल मुक़द्दस की तरफ रखा गया था लेकिन जब क़िबले की तरफ बदल गया तो शुमाली जानिब एक दरवाज़ा नया क़ायम कर दिया गया। फर्श चूँकि बिल्कुल ख़ाम था , बारिश में कीचड़ हो जाती थी , एक दफा सहाबा नमाज़ के लिये आये तो वह अपने साथ कंकरियाँ लाये और अपनी नशिस्त गाहों पर बिछा लीं आन हजरत (स.अ.व.व.) ने पसन्द फरमाया और संगरेज़ों का फर्श बनवा दिया। मस्जिद के सिरे पर एक मुस्सक़फ़ चबूतरा था जो सफ़ा कहलाता था यह उन लोगों के लिये था जो इस्लाम लाये थे और घरबार नहीं रखते थे

अज़वाज के मकानात ख़ाम ईँटों के थे , उनमें पाँच हुजरे ऐसे भी थे जो सिर्फ़ खजू़र की टट्टियों के बने थे। जो हुजर ईँटों के थे उनकी भी अन्दरूनी हिस्से टट्टियों के थे उनकी तरतीब यह थी कि उम्मे सलमा , उम्मे हबीबा , जवेरिया , मैमूना और ज़ैनब बिन्ते हजश के मकानात अक़ब मे थे और सोदा , सफीया और आय़शा के मकानात मस्जिद के सामने थे।

यह मकानात दस दस हाथ लम्बे और छः छः हाथ चौड़े थे। छत की ऊँचाई इतनी कम थी कि आदमी खड़े होकर छत छू लेता था उन मकानों के दरवाज़ों पर कम्बल का पर्दा पड़ा रहता था और रातों को रौशनी का कोई इन्तेज़ाम नहीं था। आन हज़रत (स.अ.व.व.) के पड़ोस में अबु अय्यूब अन्सारी का , साद बिन अबादा , अम्मार बिन हज़म और साद बिन मआज़ के मकानात थे।

हज़रत उमर ने अपने दौरे हुकूमत में इस मस्जिद को वसी किया मगर साख़्त वही रही , हज़रत उस्मान बिन अफान जब ख़लीफा हुए तो उन्होंने इस में तग़य्युरात पैदा किये और उसे पत्थरों से मुनक़्कश व मुस्तहकम किया वलीद बिन अब्दुल मलिक के दौर में यह मस्जिद और ज़्यादा वसी की गयी और अज़वाजे पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के मकानात इस में शामिल कर लिये गये , मामून रशीद ने उसे इस तरह मुज़ैय्यन किया कि उसके सारे ख़ुदा खाल तबलीद हो गये। चुनानचे जब जुनून मिस्री जो मजजूब थे , मदीने आये तो उन्होंने बेताबी की हालत में तमाम शहर की ख़ाक छान डाली मगर उन्हें मस्जिद नवबी न मिली। उनका ख़्याल था कि मस्जिद अपनी असली हालत पर होगी। जब लोगों ने बताया तो कहने लगे , यह तो किसी बादशाह की महल रहां है। मैं वह कच्ची ईँटों वाली मस्जिद ढूँढता हूँ जो दरख्ते खुरमा की लकडियों से आरास्ता थी , जिस पर कंकरियों का फ़र्श था और जिस पर आन हज़रत (स.अ.व.व.) और उनके साथी नमाज़ पढ़ा करते थे और जिसका ज़र्रा ज़र्रा सरकार के जस्मे अतहर से मस हुआ था। यह कहकर रोने लगे। कुछ देर खामोश खड़े रहे और फिर अपनी राह ली।

असहाबे सुफ़्फ़ा

सुफ़्फ़ा- सायेबीन , ऐवान ख़ाना , या उस दालान को कहते हैं जिसकी छत पटी हुई हो। रसूले अकरम (स.अ.व.व.) ने मस्जिद नवबी से मुलहिक़ एक किनारे पर सायेबान तैयार करके मुफ़्लिस , नादार और बेघर असहाब को उसमें आबाद कर दिया था जिनकी तादाद औरतों समें तक़रीबन चार सौ लथी। आन हज़रत (स.अ.व.व.) के पास जब कहीं से सदक़े का खाना वग़ैरा आता तो उनके पास भेज देते औऐर जब दावत का खाना आता तो खुद भी उन लोगों के साथ बैठ कर खाते। आप उन लोगों से बड़ी मुहब्बत और शफ़क़्क़त के साथ पेश आते और इन्तेहाई हुस्ने सुलूक का बरताव रवां रखते थे। जनाबे फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) ने एक मर्तबा आपसे दरख़्वास्त की कि बाबा जान! चक्की पीसते पीसते मेरे हाथों में छाले पड़ गये हैं अगर मुनासिब हो तो मुझे एक कनीज़ इनायत कर दें। आपने फरमाया बेटी! असहाबे सुफ़फा और उनकी औरतें इफलास के मारे हुए और फाका ज़दा हैं , उनमें से किसी औरत को व तुम्हारी कनीज़ कैसे क़रार दूँ ? बेहतर है कि तुम 34 मर्तबा अल्लाहो अकबर 33 मर्तबा अलहमदो लिल्लाह और 33 मर्तबा सुबहानअल्लाह कह लिया करो यह तुम्हारे हक़ में लौड़ी से कहीं बेहतर है। यह तसबीह ज़हरा (स.अ.व.व.) आज तक जारी है और हर नमाज़ के बाद पढ़ी जाती है।

नमाज़ व ज़कात

रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) के वारिदे मदीने होने के एक माह बाद नमाज़े पँजगाना की 17 रकतें क़रार पायीं जो आज तक जारी व सारी हैं। इससे पहले सिर्फ मग़रिब की नमाज़ में तीन रकतें मुक़र्र थी बाक़ी नमाजें दो-दो रकतों पर तमाम होती थीं। इब्ने खलदून का कहना है कि इसी साल ज़कात भी वाजिब हुई जिसे सदक़ा भी कहते हैं और इसी साल जुमा यौमुल सिबत क़रार पाया।

अज़ान व अक़ामत

मस्जिद नबवी की तामीर व तकमील के बाद पांचो वक़्तों की नमाज़े बाजमात पढ़ी जाने लगीं लेकिन चूँकि एलाने नमाज़ का उस वक़्त कोई बाक़ायदा इन्तेज़ाम नहीं था इसलिये लोग आगे पीछे आया करते थे। जो जिस वक़्त आ गया उसने नमाज़ पढ़ ली जिसका नतीजा यह होता था कि जमात में नमाज़ियों की तादाद बहुत कम होती थी।

इस्लाम ने चूँकि इबादते इलाही के तमाम संजीदा तरीक़ों मे इजतेमा व इत्तेहाद के उसूल को मद्दे नज़र रखा है इसिलये यह परागन्दगी व तफरीक , मिज़ाजे रिसालत पर बार गुज़रती थी और हुजूर (स.अ.व.व.) की नापसन्दगी का बाअस होती थी। इस लिये तमाम मुसलमानों को वक़्त मोअय्ना पर मस्जिद में आने और जमाअत के साथ नमाज़ अदा करने के लिये आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने अज़ान की शक्ल में एलाने आम का तरीक़ा बताया जो पहले ही से मनशाये कुदरत और ईमाये मशीयत के मुताबिक़ तय हो चुका था लेकिन उसका निफाज़ मस्जिद की तकमील तक इलतेवा में था। चुनानचे आपने बिलाल को बुलाया , उन्हें अज़ान के अरकान की तालीम दी और इरशाद फरमाया कि आज स नमाज़ के वक़्त इसी तरह ऐलान किया करो ताकि उसे सुनकर हर मुसलमान मस्जिद में आ जाये। इस मौक़े पर इत्तेफाक़ से सहाबिये रसूल अबदुल्लाह बिन ज़ैद भी मौजूद थे , अज़ान के अरकान सुन कर उन्होंने कहा , या रसूल अल्लाह (स.अ.व.व.) ! चन्द रोज़ पेशतर मैंने ख़्वाब में अज़ान का यही तरीक़ा देखा है।

अल्लामा इब्ने हजर ने फतहुलबरी में लिखा है कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के सिवा और किसी के ख़्वाब से हुक्मे शरयी साबित नहीं हो सकता। काफी में इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ.स.) का इरशाद है कि शबे मेराज , आन हज़रत (स.अ.व.व.) जब बैतुल मामूम में तशरीफ ले गये तो नमाज़ का वक़्त हो चुका था , जिबरील (अ.स.) ने अज़ान दी और इक़ामत की। इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) से मरवी है कि जब हज़रत जिबरील हुक्मे अज़ान लेकर नाज़िल हुए तो उस वक़्त हज़रत (स.अ.व.व.) का सरे मुबारक हज़रत अली इब्ने अबुतालिब (अ.स.) की आगोश में था , जिबरील ने अज़ान व इक़ामत कही , जब रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) बेदार हुए तो पूछा या अली तुमने भी सुना ? फरमाया हाँ , पूछा कि याद भी कर लिया है ? कहा हाँ ,। फरमाया कि बिलाल को बुलाकर तालीम कर दो , चुनानचे हज़रत अली (अ.स.) ने बिलाल को तरीक़ये अज़ान तालीम फरमाया।

हक़ीक़त सिर्फ इतनी है कि जिबरील के ज़रिये अ़ज़ान व इक़ामत बहुक्मे ख़ुदा , आन हज़रत (स.अ.व.व.) और हजरत अली (अ.स.) तक पहुँची और उन्होंने जनाबे बिलाल को तालमी फरमा दिया लेकिन अफसोस है कि हुकूमते उमवी के हाथों बिके हुए कुछ मोअर्रेख़ीन व मोहद्देसीन ने इस वाकिये को कुछ लोगों के ख्वाब सा ताबीर करके उसे चीसतां बना दिया है। क़स्तलानी का कहना है कि वह वाक़िया सन् 2 हिजरी का है।