तारीखे इस्लाम 2

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तारीखे इस्लाम 2 लेखक:
कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

तारीखे इस्लाम 2

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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तारीखे इस्लाम 2

तारीखे इस्लाम 2

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

तहवीले क़िबला सन् 2 हिजरी

दुनिया की हर क़ौम , हर गिरोह और हर मज़हब का एक इन्तियाज़ी शेआर होता है जिसके बग़ैर उस क़ौम की मुस्तक़िल हस्ती नहीं क़ायम रह सकती। इसलाम ने यह शेआर नमाज़ के क़िबले को क़रार दिया है। जो असल मक़सद के अलावा और बहुत से एहकाम व असरार का जामा है। इस्लाम का खुसूसी और नुमाया वस्फ़ , मसावात , जमहूरियत और अम्ल है यानि तमाम मुसलमान यकसां और मुत्ताहिद नज़र आयें। मज़हबे इस्लाम का रूकने आज़म नमाज़ है जिससे रोज़ाना पाँच वक़्त साबक़ा पड़ता रहता है नमाज़ की असली सूरत यह है कि जमाअत के साथ अदा की जाये। इसी बिना पर नमाज़े जमाअत में एक इमाम होता है इसलिए ज़रुरी है कि सबका मरजए अमल भी एक नज़र आये। यही वह उसूल है कि जिसकी बिना पर नमाज़ के लिये एक ख़ास क़िब्ला क़रार पाया और इस शआर का दायरा इस क़दर वसी किया गया कि क़िबले की तरफ रूख करना ही कुफ्र के दायरे से निकल आना है।

क़िबला किस सिम्त क़रार दिया जाये ? यह इस्लाम और पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के सामने एक अहम मसला था। यहूदी और ईसाइ बैतुल मुक़द्दस को क़िबला समझते थे क्योंकि उनकी कौ़मी और मज़हबी हस्ती बैतुल मुक़द्दस से वाबस्ता थी। इस उसूल के तहत बुतशिकन इब्राहीम (अ.स.) के जॉनशीन का क़िबला सिर्फ काबा हो सकता था जो इस मुवहिदे आज़म की यादगार और तौहीद का सबसे बड़ा मज़हर है।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) जब तक मक्के में थे दो मसले एक साथ दरपेश थे। मिलल्ते इब्राहीम की तासीस व तजदीद के लेहाज़ से काबे की तरफ रूख करने की ज़रुरत थी , और , शक्ल ये थी कि क़िबले की जो अस्ली गर्ज़ थी यानि इम्तियाज़ व एख़तेसारा , वह नहीं हासिल हुई थी क्योंकि मुशरेकीन और कुफ़्फ़ार भी काबे ही को अपना क़िबला समझते थे। इस बिना पर आन हज़रत (स.अ.व.व.) मुक़ामे इब्राहीम पर नमाज़ पढ़ते थे जिसका रूख बैतुल मुक़द्दस की तरफ था। इस तरह दोनों ही क़िब्ले सामने आ जाते थे।

मदीने में दो गिरोह आबाद थे मुशरेकीन जिनका क़िबला काबा था , और अहले किताब जो बैतुल मुक़द्दस की तरफ रूख करके नमाज़ अदा करते थे। शिरक के मुक़ाबले में यहूदियत और नसरानियत दोनों को तरजीह थी इसिलए आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने एक मुद्दत यानि तक़रीबन 16 महीनों तक बैतुल मुकद्दस की तरफ़ नमाज़ अदा की लेकिन जब मदीने में इस्लाम ज़्यादा फैल गाय तो अब कोई ज़रुरत न थी कि अस्ल किबला को छोड़कर दूसरी तरफ़ रूख़ किया जाता। चुनानचे यह आयत नाज़िल हुई कि तुम अपना मुँह मस्जिदुल हराम की तरफ़ फेर दो और जहाँ कहीं रहो उसी तरफ़ फ़िरो। मुफसेरीन का कहना है कि आयत का नाज़िल होना था कि दफ़तन क़िबला तबदील हो गया। इब्ने हष्शाम और तबरी का ब्यान है कि क़िबले की तहवील शाबान के महीने में मंगल के दिन मदीने में आन हज़रत (स.अ.व.व.) की तशरीफ आवरी के अट्ठारा माह बाद वाक़े हुई और इब्ने साद के मुताबिक़ 15 शाबान थी।

मदाहिबे लदुनिया , तारीख़ मदीना और शहरे ज़रक़ानी में है कि तहवील क़िबला का वाक़िया मस्जिद क़िबलतैन में वाक़े हुआ। सराकरे दो आलम नमाज़ पढ़ ही रहे थे कि तीसरी रकत में तबदीले क़िबले का हुक्म नाज़िल हुआ और उसी वक़्त आपने नाम रूख़ काबे की तरफ फेर दिया जब कि ख़ुदा फरमाता है कि मैंने तुझ को इस क़िबले की तरफ फेर दिया जिससे तू राज़ी था।) 2

एक रवायत में है कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) मस्जिदे कुबा में जो मदीने में से डेढे कोस के फासले पर है नमाज़ ज़ोहर में मशगूल थे और दो रसकते पढ़ चुके थे कि तबदीले क़िबला का हुक्म नाज़िल हुआ और आन हज़रत (स.अ.व.व.) बैतुल मुक़द्दस की तरफ से खान-ए-काबा की तरफ़ रुख करके पढ़ी इसी लिए मस्जिद को जूक़िबलतें यानि दो क़िबले वाली मस्जिद कहते हैं।

जिहाद का हुक्म

बेइस्त के बाद तेरह बरस तक सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) , मुशरेकीने मक्का के मज़ालिम सहते रहे। और जब मक्के से हिजरत करके मदीने में तशरीफ फरमां हुए तो कुफ्फार व मुशरेकीन के ख़िलाफ इन्तेक़ामी कार्रवाई का कोई तसव्वुर आपके ज़ेहन में नहीं था लेकिन कुरेश जो अपने मनसूबों की नाकामी पर पेच व ताब खा रहे थे और आन हज़रत (स.अ.व.व.) के जान बचाकर निकल जाने पर कफे अफसोस मल रहे थे फितना व शोरिश के लिये उठ खड़े हुए और मुसलमानों को घकर से बेखर करने के बाद इस्लाम की तौसीय व तर्क़ी को रोकने के लिये हरब व पैकार पर उतर आये और मुसलमानों को अपनी तागूती ताक़त से कुचलने का फैसला कर लिया। पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) जिन्होने मक्के में पुर अमन तरीक़े से ज़ेहनी इन्क़ेलाब पैदा करना चाहा था और क़बायेल यहूद से मदीने में सुलह व अम्न का तहरीरी मुहायिदा किया ता वह कुरैश की शरअंगेज़ियों के बावजूद यह नहीं चाहते थे कि जंग की नौबत आये और कुश्त व खून की गर्म बाज़ारीहो मगर कुरैश की शरपसन्दी व फितना अंगेज़ी ने जब मुसलमानों के सुकून व इत्मिनान को दरहम बरहम कर दिया और उनके सरों पर जंग मुसल्लत करस दी तो इसके अलावा कोई चारा न था कि जारेहाना हमलों के ख़िलाफ मुदाफेआना क़दम उठाया जाये। चुनानचे आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उस वक़्त तक जंग का नाम नहीं लिया और न किसी को लड़ने की इजाज़त दी जब तक कुरैश व यहूद ने आपको जंग के लिये मजबूर नहीं कर दिया और कुदरत ने कुफ़्फ़ार के बढ़ते हुए जुल्म व तशद्दुद को रोकने के लिये इजाज़त नहीं दे दी। चुनानचे अल्लाह ताला का इरशाद हुआः-

(जिन (मुसलमानों) के ख़िलाफ़ (काफिर) लड़ा करते हैं अब उन्हें भी जंग की इजाज़त है। इस बिना पर कि उन पर मज़ालिम हुए हैं और यक़ीनन अल्लाह उनकी मदद पर क़ादिर है। (कुरआन मजीद सूरये हज आयत 36)

यह बात ढ़की छुपी नहीं है कि कुफ़्फार ने पहले मुसलमानों को जिला वतन किया और फिर उनके ठिकानों पर हमला आवर होकर उन्हें ख़त्म करने की ठान ली। इस सूरत में उनके ख़िलाफ़ अगर एलाने जंग न किया जाता तो खुद मुसलमानों की बक़ा ख़तरे में पड़ सकती थी। बेशक इस्लाम अमन व सलामती मुहाफिज़ और सुलहा व आशती का पैग़म्बर है मगर उसके यह मानि नहीं है कि दुश्मन की चीरा दस्तीयों और फित्ना अंगेज़ियों को देखते हुए जान बूझकर खामोश राह जाये और उन्हें मन मानी की खुली छूट दे दी जाये। अल्लाह ने मज़लूम व सितम रसीदा लोगों को हक़ दिया है कि वह दुश्मन की बढ़ती हुई सतीज़ा करियों के इन्सदाद और अपनी जान व माल के तहाफुज़ के लिये इमकानी जद्दो जहद करें। ज़ाहिर है कि जिस जमाअत से जीने और साँस लेने का हक़ छीन लिया जाये उसके लिए जंग के अलावा चारा कार ही क्या रह जाता है। अगर जंग मज़मूम और क़ाबिले नफरत शै है तो उसके इरतेक़ाब का इल्ज़ाम उस पर आयद होगा जिसने अज़खुद जंग छेड़कर इन्सानी हुकूक पर दस्तदराज़ियां की हों और कमज़ोर व नातवां को अपने मज़ालिम का निशाना बनाया हो लेकिन जो मज़लूम की हिमायत , फितने के इन्सदाद , जमाअती हुकूक़ के तहाफुज़ और एतक़ाद व अमल की आज़ादी के लिये दुश्मन से टकराये वह हरगिज़ मूरिदे इल्ज़ाम नहीं क़रार दिया जा सकता।

इस्लाम , (सलम) से मुश्तक़ है जिसके मानी सुलह के है। इस नाम ही से ज़ाहिर है कि इस्लाम बुनियादी तौर पर खूँरेज़ी का मुख़ालिफ़ , हरब व पैकार का दुश्मन और सारी दुनिया के लिये अमन व सलामती का पैग़ाम है और इसमें रंग व नस्ल और क़ौम व वतन के तास्सुब और अक़ाएद के इख़तेलाफ़ की बिना पर फौजकशी व सफ आराई की क़तअन गुंजाइश नहीं है और न मुल्कगीरी को इस्लाम और इस्लामी तालिमात से दूर का वास्ता है। इस्लाम सिर्फ़ दो सूरतों में जंग की इजाज़त देता है एक यह कि दुश्मन मुसलमानों के इस्तेहाद के लिये मरकज़े इस्लाम पर हमला आवर हो और बगै़र जान व माल और नामूस का तहाफुज़ ग़ैर मुम्किन हो। दूसरी सूरत यह है कि दुश्मन जंगी तैयारियों में सरगर्मे अमल हो और ढ़ील देने की सूरत में उसकी असकरी कूवत व मादरी वसायल के बढ़ जाने का अन्देशा हो चुनानचे उन्हें दो सूरतों में जब कि जंग नागुज़ीर थी , पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने अलमे जंग बुलन्द किया और मुसलमानों को इजाज़त दी कि वह हिफ़ाज़त खुद अख़ितयारी और इस्लाम की बक़ा के लिये दुश्मनों से लड़ें।

अगर चे इब्तेदा में मुसलमान कुफ़्फार के मुक़ाबले में हर लिहाज़ से कमज़ोर थे मगर दुश्मन की कसरत व कूवत और अपनी बे सरो सामानी के बावजूद मैदाने हरब व ज़र्ब में उतर आये कभी बदर के कुँओं पर उनसे टकराये , कभी औहद की पहाडियों में लड़े और कभी मदीने के हुदूद में रह कर मदाख़ेलत की। यह मुक़ामात महले वक़ू के लिहाज़ से (दारूल) इस्लाम (मदीने से क़रीब और (दारूल कुफ्र) मक्के से फासले पर वाक़े है। उन जंगी मेहाज़ों का नकशा देख कर हर बाबसीरत इन्सान बाआसानी फैसला कर सकता है कि जारेहाना इक़दाम किस की तरफ से हुआ और मदाफआना क़दम किसने उठाया। अगर इस्लाम का एक़दाम जारेहाना होता तो जंगों के जाएवक़ू को दुश्मन के मसकन के करीब होना चाहिए था और मुसलमानों के महल व मुक़ाम से दस्तूर लेकिन हर महाज़े जंग इस्लाम के मरकज़ के क़रीब नज़र आता है और कुफ़्फ़ार के मरकज़ से दूर। जो इस अमर की वाज़े दलील है कि पेशक़दमी दुश्मन की जानिब से हुई और मुसलमान इस पेशक़दमी को रोकने की ग़र्ज़ से सफ आरा हुए। अलबत्ता ख़ैबर एक ऐसी जगह है जो इस्लाम के मरकज़ से दूर यहूदियों की जाये क़रार थी मगर अमर वाक़िया यह है कि यह वही लोग थे जो अहद शिकनी के नतीजे में मदीने से निकाले गये थे और अब एक गरां लश्कर शिकनी के नतीजे में मदीने से निकाले गये थे और अब एक गरां लश्कर के साथ मुसलमानों पर हमला आवर होने के लिये पर तोल रहे थे और गिर्दवनवाह के क़बीलों से मुहायिदा करके जंगी तैयारियाँ मुकम्मल कर चुके थे अगर पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) पेशक़दमी न करते और आगे बढ़ कर उनका रास्ता न रोकते तो वह पूरी तैयारी के साथ मदीने पर हमाल आवर होते और मुसमलानों के लिये इस उमजे हुए सेलाब का रोकना मुश्किल हो जाता।

इस हक़ीकत से इन्कार नहीं किया जा सकता कि पैगम़्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के बाद इस्लाम के नाम पर कुछ जारेहाना जंगे भी लड़ी गयीं जिन में इख़लाक़ी हुदूद और जेहादे इस्लामी के शराएत व आदाब को नज़र अन्दाज़ किया गया। अगर चे एक तबक़े ने क़हर व ग़लबे को हक़ का मेयार क़रार दे कर इस क़िस्म की जांगो को भी जेहादे इस्लामी में शामिल कर लिया है और क़त्ल व खूँरेज़ी के ज़रिये हासिल होने वाली कामयाबी को हक़ व सदाकत की कामयाबी का नाम दिया है मगर इस्लाम न ऐसे इक़दामात का हामी है और न उन जंगो की ज़िम्मेदारी इस्लाम पर आयद होती है इसलिये कि न वह इस्लामी तालीमात के ज़ेरे असर लड़ी गयीं और न उनमें कोई इस्लामी मुफ़ाद मुज़मिर था। इस्लाम का वाज़े ऐलान है। ला इकराहा फिद्दीन। दीन के मामले में कोई ज़बरदस्ती नहीं है और कुरआने मजीद में जिस क़दर भी आयतें जिहाद के मुतालिक़ वारिद हुई हैं वह उन्हीं मवाक़े के लिये है जहाँ दुश्मने इस्लाम की आवाज़ को कूवत व ताक़त से दबाने और मुसलमानों की जमीअत को कुचलने के लिये लश्कर कशी करता है। इस्लाम की तरफ से न जारहाना इक़दाम की इजाज़त है और न ज़बरदस्ती किसी पर अपने अक़ाएद को मुसल्लत करने की हिदात है। उन जंगों की जि़म्मेदारों उन शहंशाहों पर आयद होती है जिन्होंने मुल्कगीरी व किशवर कुशाई के लिये फौज कशी की और गिर्दोपेश के अमन पसन्द मुल्कों को जेहाद की आड़ में पामाल किया। इस तरह अमने आम्मा में ख़लल डाल करस इस्लाम की सुलह जूई और अमन पसन्दी को दाग़दार कर दिया और अपने ज़ालिमाना तर्ज़ेअमल से कुछ लोगों को यह कहने का मौका़ फराहम कर दिया कि इस्लाम का फैलाओ तलवार और दबाव का मरहून है।

इक़सामे जेहाद

दौरे रिसालत में जेहाद दो तरह के होते थे। एक वह जिस में पैग़म्बर इस्लाम (स.अ.व.व.) खुद बा नफ्से नफ़ीस शिरकत फरमाते थे , इसको मोअर्रिख़ीन की इस्तेलाह में गजवा कहते हैं। दूसरा वह जिसने आन हज़रत (स.अ.व.व.) ख़ुद नहीं जाते थे बल्कि किसी दूसरे को अपने क़ायम मुक़ाम की हैसियत से भेजते थे इसकोसरया कहा जात है। इस्लामी ग़जवात की तादाद 16 से 27 तक और सरयो की तादाद 56 बतायी जाती है।

मज़वात की इस फेहरिस्त में जंगे ओहद , जंगे बद्र , जंगे बनि क़ुरैजा , जंगे मरयसी , जंगे ख़ैबर , जंगे वदिउल क़ुरा , फ़तहे मक्का और जंगे हुनैन बहुत मशहूर हैं जिनमें क़िताल वाक़े हुआ।

ग़ज़वा अबवा (सन् 2 हिजरी)

अबुवा मक्के की जानिब मदीने से तीन मील के फासले पर वाक़े है। इज़ने जेहाद का पहले अमलदरामद इसी मुक़ाम पर हुआ। सबब यह बय्ान किया जाता है कि यहाँ कुफ़्फ़ारे कुरैश क़बीलये बनि सरवर को अपना हरीफ बना कर मुसलमानों कर हमला आवर होने की ग़र्ज़ से जमा हुए थे। आन हज़रत (स.अ.व.व.) दो सौ आदमी लेकर मुक़ाबिले को निकले मगर लड़ाई की नौबत नहीं आयी और कुरैश भाग खड़े हुए। क़बीलये बनि सरवन ने आन हज़रत (स.अ.व.व.) से यह मुहायिदा किया कि न हम कुरैश का साथ देंगे और न मुसलमानों के मामले में दख़ल अन्दाजी़ करेंगे। इब्ने खलदून का कहना है कि इसी गज़वे में हज़रत हमज़ा अलमबदार थे और हज़रत हमज़ा का अलम पहला अलम है जो इस्लाम में तैयार किया गया।

सरया राबिग़ (सन् 2 हिजरी)

मक्के से कुछ कुरैश मसला होकर निकले थे , उनके मुक़ाबले में साठ मुहाजरीन अबुअबीदा बनि हारिस की सरबराही में रवाना किये गये। मुक़ामे वतन राबिग़ पर सिर्फ तीरों से मुक़ाबला हुआ। कुफ़्फार भाग गये। इस सरया में बरवायत हबीबुल सैर मुसता बिन असासा अलमबदार थे और कुरैश की तरफ से उनका सरदार अबुसुफियान बिन हरब था।

सरया सैफुल बहर (सन् 2 हिजरी)

अबुजहल की क़यादत में कुछ मुशरेकीन कुरैश जंगी इमदाद के लिये मक्के से शाम की तरफ जा रहे थे कि यह ख़बर मदीने पहुँची। 30 मुहाजिरीन के साथ हज़रत हमज़ा उनके मुक़ाबले के लिये भेजे गये। समुन्द्र के किनारे सैफुल बहर के मुक़ाम पर मुडभेड़ हुई मगर मजदी बिन उमर जहनी ने जो मुसलमानों और कुफ्फ़ार दोनों का हलीफ़ था बीच में प़ड़ कर लड़ाई न होने दी। उस वक़्त अबु मुरसिद ग़नवी अलमब्रदार था।

सरया खुरार (सन् 2 हिजरी)

साद बिन अबी विक़ास 20 मुहाजरीन के साथ एक क़ाफिले की ख़बर पर मामूर हुए। खुरार तक गये क़ाफिला न मिला तो वापस पलट आये।

ग़जूवा जुलअशीरा (सन 2 हिजरी)

आन हज़रत (स.अ.व.व.) को यह मालूम हुआ कि अबु सुफियान के साथ बहुत से कुफ़्फ़ारे कुरैश तिजारत की ग़र्ज़ से शाम की तरफ जा रहे हैं। आप (स.अ.व.व. ) दो सौ साथियों को लेकर उनकी तलाश में निकले। हज़रत अली (अ.स.) और हज़रत हमज़ा भी आपके साथ थे। जुलअशीरा के मुक़ाम पर पहुँचे तो यह मालूम हुआ कि क़ाफिला निकल चुका है। आपने मराजियत फरमायी और उसी सफ़र में बनि मुदलेज और बनि हमजा के साथ मुहायिदा फरमाया।

अल्लामा दयार बकरी का ब्यान है कि इसी सफर में अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) एक दरख़्त के नीचे जब आराम करने के बाद आन हजरत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में आये तो आपने देखा कि जिस्म ख़ाक आलूद है। आपने प्यार से अबुतराब कह कर पुकारा उसी दिन से हज़रत अली (अ.स.) की कुन्नियत अबुतुराब हुई 1। इस सफर में अलमदार हमज़ा बिन अब्दुल मुत्तालिब थे।