तारीखे इस्लाम 2

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तारीखे इस्लाम 2 लेखक:
कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

तारीखे इस्लाम 2

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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तारीखे इस्लाम 2

तारीखे इस्लाम 2

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हिंदी

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जंगे बद्र (सन् 2 हिजरी)

मदीने के यहूदी ने अगर चे पैगम़्बर इस्लाम (स.अ.व.व.) की आमद पर उनसे यह मुहायिदा कर लिया था कि अगर मदीने पर हमला हुआ तो वह दुश्मनों के ख़िलाफ एक दूसरे की मदद करेंगे। मगर पैगम्बर (स.अ.व.व.) की बढ़ती हुई कूवत व ताक़त को देख कर उन्हें ख़ुद अपना इक़तेदार ख़तरे मे नज़र आया तो उन्होंने कुरैश से राबिता कायम कर लिया और मुसलमानों के ख़िलाफ रेशा दवानाइयां शुरू कर दी। चुनानचे फितना व फसाद को हवा देने के लिये करज़ इब्ने जाबिन फेहरी ने मदीने की चरागाहों पर हमला किया और अहले मदीना के मवेशी हांक कर अपने साथ ले गया। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने वादी सिफवान तक इसका पीछा किया मगर वह हाथ न आया। इन हालात में ज़रुरत थी कि उन लोगों की नकल व हरकत पर नज़र रखी जाये ताकि बरवक़्त उनकी शरअंगेजियों को तदारूक किया जा सके। उसी देख भाल के लिये आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने अब्दुल्लाह बिन हजिश को चन्द आदमियों के हमराह नख़ला की जानिब रवाना किया जो मक्के और तायफ़ के दरमियान एक मशहूर जगह थी जब यह लोग नख़ला में वारिद हुए तो कुरैश का एक काफिला जो तायफ़ से माले तिजारत लेकर आ रहा था फरोक्श हुआ। अब्दुल्लाह इब्ने हजश के हमराहियों मे से एक शख़्स वाक़िद इब्ने अब्दुल्लाह तमीमी ने कुरैश के अम्र बिन हज़रमी को तीर मार कर हलाक कर दिया और उसमान इब्ने अब्दुल्लाह व हकम इब्ने कीसाम को गिरफ़्तार कर लिया। अब्द्ल्लाह इब्ने हजश उन दोनों असीरों और क़ाफिले के माल व मता को समेट कर मदीने चले आये। ये वाक़िया चूँकि माहे रजब की आख़िरी तारीख़ में हुआ था जिसमें जंग व क़ताल ममनू है इसलिए आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने अब्दुल्लाह बिन हजश की सरज़निश की और दोनों असीरों को आज़ाद और क़ाफिले को लूटा हुआ माल वापिस कर दिया। अगर चे यह इन्फेरादी फेल था जो पैगम़्बर (स.अ.व.व.) की इजाज़त के बग़ैर सरज़द हुआ मगर इससे कुरैश को जंग छोड़ने का बहाना मिल गया और उन्होंने इब्ने हज़रमी के क़सास का ढ़िंढ़ोरा पीट कर जंगी तैयारियाँ शुरू कर दी और यह तय किया कि अबू सुफ़यान की वापसी पर मुसलमानों पर हमला कर दिया जाए अबु सुफ़यान तेजारती काफ़ेला लेकर शाम गया हुआ था। और उसे वापसी पर मदीने से गुज़रना था क्योंकि मदीना कुरैश के क़ाफिलों की गुज़रगाह था। इधर अहले मक्का इसकी वापसी के मुंतज़िर थे कि उसने शाम से पलटते हुए अहले मक्का को सुमसुम इब्ने उमर ग़फारी के ज़रिये यह ग़लत और शऱअंगेज़ पैग़ाम भेजा कि मुसलमान धावा बोलकर माल लूटना चाहते हैं। लेहाज़ा तुम जंगी हथियारों के साथ निकल पड़ो। कुरैश पहले ही से जंग के लिये आमादा थे फौरन उठ खड़े हुए। इधर अबुसुफियान ने आम रास्ता छोड़ समुन्द्र का साहिली रास्ता इख़ितयार किया और जद्दा होते हुए आठवें दिन मक्के पहुँच गया।

जब कुरैश का लश्करस बद्र के क़रीब पहुँचा तो उसे क़ाफिले के सही व सालिम पहुँचने की इत्तेला मिली बनि ज़हरा के चन्द लोगों ने कहा कि क़ाफिला तो आ चुका है अब जंग की क्या ज़रूरत है ? हमें वापस पलट जाना चाहिये। मगर अबुजहल जंग से दस्तबरदार होने पर तैयार न हुआ और अपनी ज़िद पर अड़ा रहा। अबुजहल की ज़िद और हटधर्मी से साफ ज़ाहेर है कि कुरैश के पेशे नज़र क़ाफिले का बचाओ न था बल्कि वह हर हालत में जंग छेड़ना और अहले मदीना को ताराज व तबाह करना चाहते थे। चुनानचे कुरैश की इस रविश को देखकर बनि ज़हरा वापस चले आये और जंग में शरीक न हुए।

मदीने में यह ख़बर आम हो चुकी थी कि अबुसुफियान का क़ाफिला बारबरदार ऊँटों पर सामाने तिजारत लादकर उधर से गुज़रेगा मगर इसके साथ ये ख़बरें भी पहुँच रही थीं कि कुरैश का लश्कर पूरे जंगी साज व सामान के साथ मदीने पर हमला आवर होने को पर तौल रहा है। मुसलमान कम और बेसरोसमानी की हालत में थे और कुरैश की मुसल्लेह व मुन्तज़िम फौज से दूबदू होकर लड़ने से बचना चाहते थे. और रह रह कर उनकी निगाहें रह गुज़र की तरफ उठती तथीं कि अबुसुफियान के क़ाफिले से मुठभेड़ हो जायें तो बेहतर है क्योंकि वह गिनती के लोग होंगे और उन्हें ज़ेर कर लेना कोई मुश्किल अमर न होगा।

उमवी हवाख़्वहों की ख़ुद साख़्ता रवायात पर एतमाद करते हुए बाज़ मोअर्रेख़ीन ने यह लिख डाला है कि पैगम़्बर इस्लाम (स.अ.व.व.) (माज़ अल्लाह) अबुसुफियान के क़ाफिले को लूटने के लिये निकले थे मगर अचानक कुरैश का सामना हो गया और जंग छिड गयी। बेशक बाज़ लोगों की नजरे माले दुनिया पर थी और वह क़ाफिले को लूटना भी चाहते थे मगर तारीख़ नवीसों की यह सितम ज़रीफी है कि उन्होंने पैग़म्बर इस्लाम (स.अ.व.व.) को भी इसमें शरीक कर लिया और सिर्फ क़ाफिले का लूटना ही इस मुहिम का मक़सद क़रार दे लिया चुनानचे बुख़ारी तक ने ये लिख दिया है-

रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) तो कुरैश के तिजारती क़ाफिले के इरादे से निकले थे मगर अल्लाह ने नागहानी तौर पर उनका और उनके दुश्मनों का सामना करा दिया।

अगर पैगम़्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) का यह इक़दाम क़ाफिला लौटने की ग़र्ज़ से होता तो यह मुसलमानों की खुवाहिश के ऐन मुताबिक़ था , लेहाज़ा कोई वजह न थी कि वह क़ाफिले में चालिस से ज़्यादा अफ़राद न थे और मुसलमानों की तादाद तीन सौ से ऊपर थी। यह ख़ौफ व हेरास और एहसास नागवारी सिर्फ कुरैश के लश्करस ही से हो सकता है जिससे देफ़ाअ की सकते वह अपने अन्दर नहीं पते थे। इस तजज़िये की रौशनी में बहर हाल यह तसलीम करना पड़ेगा कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) क़ाफिले के ताअक़्कुब में हरगिज़ नहीं निकले बल्कि कुरैश की पेशक़न्दी को रोकने की ग़र्ज़ से सफआरा हुए थे। चुनानचे हज़रत अली (अ.स.) का इरशाद है किः-

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) बद्र के बारे में पूछा करते थे। जब हमें मालूम हुआ कि मुशरेकीन आगे बढ़ आये हैं तो रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) बद्र की जानिब रवाना हुये बद्र एक कुँए का नाम है जहाँ हम लोग मुश्रेकीन से पहले पहुँच गये थे। 2

वह कुफ्र व इस्लाम के दरमियान पहला मारका रुनुमा होने वाला था। मुसलमान असलहा जंग के लिहाज़ से कमज़ोर और कुफ़्फार की मुतावक़्क़ा तादाद के मुक़ाबले में कम थे इसलिये पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने ज़रूरी समझा कि अन्सार मुहाजरीन का नज़रिया मालूम करें कि वह कहाँ तक अज़्म व सिबात के साथ दुश्मन का मुक़ाबिला कर सकते हैं चुनानचे आन हज़रत (स.अ.व.व.) के इस्तेफ़सार पर लोगों ने मुख़तलिफ़ जवाबात दिये। कुछ हौसला शइकन थे और कुछ हिम्मत अफज़ां। सही मुस्लिम में है कि हज़रत अबु बकर और हज़रत उमर के जवाब पर आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने मुँह फेर लिया। मिक़दाद इब्ने असूद ने पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के चेहरे पर जब तक़द्दुर के आसार देखे तो कहा , या रसूल उल्लाह! हम बनि इसराईल नहीं है कि जिन्होंने हज़रत मूसा (स.अ.व.व.) से कहा था कि तुम्हारा ख़ुदा और तुम दोनों लड़ो और हम यहाँ बैठे हैं। उस ज़ाते गिरामी का क़सम जिसने आपको ख़लअते रिसालत पहनाया है हम आपके आगे पीछे और दाये बायें रह कर लड़ेंगे यहाँ तक कि अल्लाह आपको फ़तह व कामरानी अता करे। इस जवाब से पैग़म्बर (स.अ.व.व.) का तकद्दुर जाता रहा और आपने मिक़दाद के हक़ में दुआयें ख़ैर फ़रमायी। फिर अन्सार की तरफ रूख करके पूछा कि तुम लोगों की क्या राय है ? साद इब्ने माज़ अन्सारी ने बड़ी गर्म जोशी से कहा , या रसूल उल्लाह! हम आप पर ईमान लाये और इताअत का अहद व पैमान किया अगर आप समुन्द्र में फाँदेगे तो हम भी आपके साथ फाँदेंगे और कोई चीज़ हमारी राह में हायल न होगी। आप अल्लाह का नाम लेकर उठ खड़े हों , हम में एक फर्द भी पीछे नही रहेगी। पैग़म्बर (स.अ.व.व.) इस जवाब पर खुश हुए और फरमाया।

ख़ुदा की क़सम! अब मैं दुश्मनों के गिर कर मनरे की जगहों को अपनी आँखों से देख रहा हूँ।

रसूले करीम (स.अ.व.व.) तीन सौ तेरह आदमियों की एक मुख़तसर जमीअत के साथ जिन में 77 मुहाजरीन और बाक़ी अन्सार थे , मदीने से निकल खड़े हुए और बदर के कुऐ से कुछ फासले पर पड़ाव डाल दिया। यह अन्देशा तो था ही कि कहीं दुश्मन अचानक हमला न कर दे या शब खून न मारे आपने पेश बन्दी करते हुए हजरत अली (अ.स.) , साद इब्ने अबी विक़ास और जुबैर बिन अवाम को हुक्म दिया कि वह आगे बढ़कर दुश्मन का ठिकाना मालूम करें और देखें कि वह यहाँ से कितने फासले पर हैं। यह तीनों देखते भालते हुए बदर के कुऐं तक पहुँच गये वहाँ पर चन्द आदमियों को देखा , जो उन्हें देखते ही भागे। हज़रत अली (अ.स.) ने उनमें से दो को दौ़ड़कर पकड़ लिया अपने साथ आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में ले आये। सहाबा उन्हें देखते ही उनमें गिर्द जमा हो गये और पूछा कि तुम कौन हो ? कहा , हम कुरैश के सक़्क़ा हैं उन्होंने हमें पानी लाने के लिये भेजा था। सहाबा ने कुरैश का नाम सुना तो उनके तेवर बिगड़ गये और मार पाट कर उनसे कहलवाना चाहा कि हम कुरैश के गुलाम नहीं हैं बल्कि अबुसुफियान के आदमी हैं। पैग़म्बर (स.अ.व.व.) नमाज़ में मशगूल थे। जब नमाज़ से फारिग़ हुए तो फरमाया , यह अजीब बात है कि वह सच बोलते हैं तो तुम उन्हें पीटते हो और झूट बोलते हैं तो उन्हें छोड़ देते हो , यह कुरैश ही के आदमी हैं। फिर आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उनसे पूछा गय़ की तो उन्होंने अबु सूफियान के क़ाफिले से लाइल्मी का इज़हार किया और बताया कि कुरैश का लश्कर यहाँ से तीन मील के फासले पर मौजूद है , आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने पूछा लश्करस की तादाद क्या है ? कहा , हमें तादाद का सही इल्म नहीं है अलबत्ता कभी नौ और कभी दस ऊँट महर किये जाते हैं। फरमाया कि फिर उनकी तादाद नौ सौ से लेकर एक हज़ार तक है। फिर दरयाफ्त फरमाया कि उनमें नुमाया और सरकर्दा अफ़राद कौन कौन हैं ? उन्होंने चन्द सरदाराने कुरैश के नाम लिये। उस पर आपने फरमाया कि , मक्के ने तो अपने जिगरपारों को मैदान में उडेंल दिया है।

यह ख़बर सुनकर लश्कर इस्लाम ने हरकत की और बदर के कुऐ की जानिब रवाना हो गया। लश्करे कुरैश वादीये बदर के आख़िरी किनारे पर रेत के एक टीले के पास ख़ेमा ज़न था। उनकी तादाद एक हज़ार के लगभग थी और सात ऊँट , तीन सौ घोड़े उनके साथ थे , नैज़ों , तलवारों और हथियारों की कोई कमी न थी उसके बरअक्स मुसलमान तादाद में कम और सामाने जंग के लिहाज़ से इन्तेहाई कमज़ोर थे उनके पास जंगी असलहों में से चन्द तलवारें और गिनती की चन्द ज़िरहें थी और सिर्फ दो घोड़े थे। एक पर मिक़दद सवार थे और दूसरा मुरसिद की सवारी था।

जब कुरैश का लश्कर अपने मुक़ाम से हट कर मुसलमानों के मुक़ाबिल सफआरा हो गया तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने भी फौज की सफें , और मैमना व मैसरा तरतीब दे कर अन्सार का अलम साद बिन अबादा को और मुहाजिरीन का अलम हज़रत अली इब्ने अबुतालिब (स.अ.व.व.) के सुपुर्द फरमाया।

इब्ने कसीर ने तहरीर किया है किः-

रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ने बद्र के दिन अलमे जंग हज़रत अली (अ.स.) को दिया उस वक़्त आपकी उम्र बीस साल की थी।

जब दोनों लश्कर बिलमुक़ाबिल हुए तो दुश्मन की सफों से अतबा इब्ने रबिया उसका भाई शीबा और बेटा वलीद , निकल कर मुबारिज़ तलब हुए। मुसलमानों के लश्कर से औफ इब्ने हारिस मऊज़ इब्ने हारिस और अब्दुल्लाह इब्ने रवाहा मुक़ाबिले के लिये निकले। अतबा ने पूछा , तुम कौन हो ? कहा हम अन्सारे मदीना हैं। अतब ने कहा , वापस जाओ , तुम हमारे हम मर्तबा नहीं हो। फिर उसने आन हज़रत (स.अ.व.व.) को पुकार कर कहा , ऐ मुहम्मद (स.अ.व.व.) ! हमारे मुक़ाबिले में हमारे हमसर लोगों को भेजो जो हमारी क़ौम में से हों। यह तीनों अपनी सफों में वापस आ गये। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने जब कुरैश की यह ज़ेहनियत देखी तो वह अन्सार को अपना हरीफ व मुदेमुक़ाबिल नहीं समझतें तो उनकी जगह अबीदा इब्ने हारिस , हमज़ा इब्ने अब्दुल मुत्तालिब और अबी इब्ने अबुतालिब को भेजा। अतबा का मुतालिबा तो यह था कि उनके मुक़ाबले में कुरैश आये मगर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने न सिर्फ कुरैश बल्कि अब्दुल मुत्तालिब के जिगर परों को मुन्तख़ब किया ताकि किसी को यह कहने का मौक़ा न मिले कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने अपने अज़ीज़ों को रोके रखा और दूसरों को जंग के शोलों में झोंक दिया। हालाँकि हज़रत अबीदा सत्तर ( 70) साल के बूढ़े थे और हज़रत अली (अ.स.) अबी नौख़ेज़ थे और पहली मर्तबा एक नेर्बद आज़मां की हैसियत से मैदाने कारज़ार में उतरे थे। जब अतबा को मालूम हुआ कि अली (अ.स.) , हमज़ा (अ.स.) और अबीदा लड़ने आये हैं तो कहा यह बराबर की जोड़ है। हज़रत अबीदा , अतबा से , हज़रत हमज़ा शीबा से और हज़रत अली (अ.स.) , वलीद से दो दो हाथ करने के लिये आगे बढ़े , वलीद ने हमला करना चाहा मगर अली (अ.स.) ने एक तीर मार कर उसे बेबस कर दिया। तीर खाते ही वह अपने बाप अतबा के दामन में पनाह लेने के लिये भागा मगर फ़रज़न्दे अबुतालिब ने इस तरह घेरा कि वह जान तोड़ कोशिश के बावजूद तलवार की ज़़द से बच न सका और बाप की गोद में पहुँचने से पहले मौत की आगोश में सो गया। जब अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) वलीद के क़त्ल से फारिग़ हुए तो मुसलमानों ने पुकार कर कहा , ऐ अली (अ.स.) ! शीबा आपके चचा हमज़ा पर छाया जा रहा है। आपने आगे बढ़ कर देखा कि दोनों आपस में गुथे हुए हैं। तलवारे कुन्द हो चुकी हैं और ढ़ाल के टुकड़े पड़े है तो आपने आगे बढ़ कर शीबा पर वार किया और तलवार से उसका सर उड़ा दिया। अब हज़रत अली (अ.स.) और हमज़ा अतबा की तरफ बढ़े जो जनाबे अबीदा से निबर्द आज़म था। देखा कि अबीदा बुरी तरह घायल हो कर मुक़ाबले की सकत खो चुके हैं। क़रीब था कि अतबा जनाबे अबीदा काकाम तमाम कर दें कि हज़रत अली (अ.स.) और हमज़ा की तलवारें चमकीं और अतबा की लाश ख़ाक पर तड़पती हुई नज़र आने लगी। अभीदा सख़्त ज़ख़्मी हो चुके थे अली (अ.स.) और हमज़ा ने मिल कर उन्हें उठाया और हुजूरे अकरम (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में लाये) आपने अबीदा का सर अपने ज़ानू पर रखा आँखों में आँसू आ गये जो अबीद के चेहरे पर गिरे उन्होंने आँखें खोल कर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की तरफ देखा और कहा या रसूल उल्लाह! क्या मैं भी शहीदों में महसूब हूँगा ? फरमाया , हाँ आप भी शहीदों मे शुमार होंगे। अबीदा ने कहा , काश आज अबुतालिब ज़िन्दा होते तो देखते कि हमने उनकी बात को झूठा नहीं होने दिया।

हज़रत अबीदा का पैर कट चुका था और पिन्डली की हड़्ड़ी से गूदा बह रहा था इसलिये वह जॉबर न हो सके और मैदाने बद्र की वापसी के दौरान वादीये सफ़रा में इन्तेक़ाल फरमां गये और वहीं दफ़्न हुए।

अतबा व शीबा वग़ैरा कुरैश के माने हुए सूरमां थे लेहाज़ा उनके क़त्ल के बाद मुश्रेकीन पर ख़ौफ व हेरास छा गया। जब अबुजहल ने उनका हौसला टूटते देखा तो उसने चीख़ चीख़ कर उन्हें उभारा और उनकी हिम्मत बन्धाई। तईमा इब्ने अदी को जोश आया और वह मस्त हाथी की तरह झूमता हुआ निकला और हज़रत अली (अ.स.) के नैज़े का शिकार हो गया। उसके बाद अब्दुल्लाह इब्ने मंज़िर और हुरमुल इब्ने उमर गरजते , दनदनाते हुए निकले , अली (अ.स.) ने उन्हें भी तलवार की बाढ़ पर रख कर लुक़मये अजल बना दिया इसी तरह हज़ला पेचो-ताब खाता हुआ अली के सामने आया और एक वार मे ठण्डा हो गया यह अबु सुफियान का बेटा और मुआविया का भाई था।

अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) की तलवार ने जब आठ दस मुश्रेकीन का खून पिया तो दुश्मनों की सफों में खलबली मच गयी और दूबदू लड़ने के बजाये जंगे मग़लूबा के लिये बढ़ने लगे। हुजूर (स.अ.व.व.) ने जब यह देखा कि दुश्मन इजतेमाई हमले के लिये आगे बढ़ रहे हैं तो आपने भी इस्लाम के जॉनिबदारों को मुश्रेकीन पर इजतेमायी हमले का हुक्म दिया। चुनानचे एक साथ तलवारें बेन्याम हुई , कमानें कड़कीं और ऐसा घमासान का रन पड़ा कि तलवारों की झन्कार और तीरों की बौछार से मैदाने कारज़ार गूँज उठा। मुसलमान सफों को चीरते और मुश्रेकीन को तहे तेग़ करते हुए आगे बढ़ने लगें। बिल आख़िर हज़रत अली (अ.स.) 9 और हज़रत हमज़ा के पुरज़ोर हमलों ने दुश्मनों के क़दम उख़ाड़ दिये और वह इस तरह तितर बितर हुए कि जिस तरह शेर के हमलाआवर होने पर भेड़ें तितर बितर हो जाती हैं।

सीद से रवायत है कि मैंने बद्र के दिन अली (अ.स.) को लड़ते देखा है उनक सीने से घोड़े की हिनहिनाने की सी आवाज़े निकल रही थीं वह बराबर रजज़ पढ़ रहे थे और जब मैदान से पलटे तो उनकी तलवार खून से रंगीन थी। 1

जंग आख़री मरहले में दाख़िल हो चुकी थी , मुश्रेकीन का ज़ोर टूट चुका था। अबुजहल , उसका भाई आस नीज़ दिगर सरदाराने कुरैश कत्ल हो चुके थे चुनानचे मुख़ालेफ़ीने इस्लाम शिकस्त की आख़री मंज़िल पर पहुँच गये और उन्होंने जवाले आफ़ताब के बाद हथियार डाल दिये।

यह इस्लाम का पहला ग़ज़वा था जिसमें कुफ़्फ़ार के सत्तर आदमी क़त्ल हुए और सत्तर ही गिरफ़्तार हुए। बाक़ी अफराद ने भाग भाग कर अपनी जानें बचायी। मुसलमानों में सिर्फ चौदह आदमी शहीद हुए जिनमें छः मुहाजिर और आठ अन्सार थे। हज़रत अली (अ.स.) इब्ने अबुतालिब (अ.स.) की तलवार से हलाक होने वालों की तादाद पैंतीस बतायी जाती है।

यह फ़तेह तो दरअसल हक व सदाक़त , अदल व इन्साफ और अज़मे अमल की फ़तेह , हज़रत अली (अ.स.) के बाजुओं की रहींने मिन्नत है और आप ही के सर इस जंग की कामयाबी व कामरानी का सेहरा है। यह जंग 17 रमजान बरोज़ जुमा सन् 2 हिजरी में वाक़े हुई।

सन् 2 हिजरी के दीगर ग़ज़वात व मुख़्तलिफ़ वाक़ियात

• माहे शाबान में रमज़ानुल मुबारक के रोज़े फ़र्ज़ किये गये और फितरे का हुक्म आया।

• माहे शव्वाल में ग़ज़वा कुरक़तुल कदर वाक़े हुआ। बनि सलीम व बनि गतफ़ान पर आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने चढ़ाई की जिसके नतीजे में वह लोग फरार हुए और उनके पाँच सौ ऊँटों पर मुसलमानों का क़ब्ज़ा हुआ।

• माहे ज़ीक़दा में ग़ज़वा बनि क़ीनक़ा वाक़े हुआ और सात सौ यहूदी मदीने से शाम की तरफ़ जिला वतन किये गये।

• माहे ज़िलहिज में ग़ज़वा सवीक़ रूनुमा हुआ। उसका वाक़िया यह है कि जंगे बद्र के बाद अबुसुफियान ने क़सम खायी थी कि जब तक मक़तूलीन का बदला नहीं लूँगा उस वक़्त तक न सर में तेल डालूंगा और न औरत के पास जाऊँगा चुनानचे वह दो सौ सवारों को लेकर रसूले अकरम (स.अ.व.व.) की तलाश में निकला और मदीने से तीन मील की दूरी पर वाक़े एक गाँव में घुस कर वहाँ के लोगों के घरों में उसने आग लगा दी और दो आदमियों को क़त्ल कर दिया। आन हज़रत (स.अ.व.व.) को मालूम हुआ तो आपने उसका ताअक्कुब किया मगर वह भाग निकला और भागते वक़्त सत्तू क कुछ बोरियाँ छोड़ गया इसलिये यह ग़ज़वा सवीक़ के नाम से मशहूर हुआ।

• माहे रजब में क़िबला तबदील हुआ।

• इसी साल रोमियों ने ईरानियों को शिकस्त दी। इसी साल बकर बिन वायल और कसरी के दरमियान जंग हुई जिसमें ईरानियों का क़त्ले आम हुआ।

• मुहाजिरे अव्वल उसमान बिन मज़ऊन का इन्तेकाल हुआ और वह आन हज़रत (स.अ.व.व.) के हुक्म से बक़ी में दफ़्न हुए इसी साल मुश्रेकीन का सरदार अब्दुल्लाह बिन रबिया भी फ़ौत हुआ।

सन् 3 हिजरी

जंगे ओहद

मारका-ए- बद्र की शिकस्ते फाश ने मुश्रेकीन मक्का को निढ़ाल व बेहाल करके उन पर एक सकूत का आलम तारी कर दिया था। मगर उनकी यह आरज़ी ख़ामोशी उस समुन्द्र के मानिन्द थी जिसकी गहराईयों में तूफानी लहरें मचल रही हो। और उस जवाला मुखी की तरफ थीं जिसके सीने में लावा सुलग रहा हो। उनके दिलों में ग़म व गुस्सा और इन्तेक़ाम के शोले भड़क रहे थे चुनानचे इस ख़्याल के तहत कि कहीं जज़बये इन्तेका़म सर्द न पड़ जाये अबुसुफियान ने मक़तूलीन के वरसा पर रोने की पाबन्दी आयद कर दी थी। तबरी का ब्यान है कि एक शख़्स , जिसके तीन बेटे बदर में मारे गये लोगों की नज़रों से छिप कर मदीने से बाहर रोया करता था। और औरतें भी अरब के दस्तूर के मुताबिक़ अपने वरसा पर उस वक़्त तक नहीं रोती थीं जब तक उनका बदला न चुका लिया जाये।

तारीख़ से पता चलता है कि शिकस्त की निदामत , जानी व मानी नुक़सानात के एहसास , ज़ब्त गिरये की घुटन और जज़बये इन्तेकाम की शिद्दत ने उन मुश्रेकीन को एक फैसला कुन जंग के लिये फिर उभारा और यह तैयारियों में मसरूफ हो गये और अक़रेमा इब्ने अबुजहल , सफ़वान बिन उमय्या अब्दुल्लाह इब्ने रबिया और दूसरे सरकरदा लोगों ने गुज़िशता साल की तिजारत का मुशतरका मुनाफा जो पचास हज़ार मिसक़ाल सोना और एक हज़ार ऊँटों की सूरत में था जंगी मसारिफ के लिये मख़सूस कर दिया ताकि माली एतबार से मज़बूत होकर मुसलमानों से जंग लड़ी जा सके। लेहाज़़ा कुरैश मख़ारिजे जंग की तरफ से मुतमइन हो गये थे मगर उन्हें जंगजू अपराद की कमी का एसास था इस का तदारूक उन्होंने यूँ किया कि चन्द आतिश बयान शायरों और ख़तीबों को अपना नुमाइन्दा बना कर मुख़तलिफ़ क़बायल की तरफ भेज दिया कि वह लोग मुसलमानों के खिलाफ लोगों के जज़बात को उभार कर उन्हें कुरैश के तआवुन पर आमादा करें चुनानचे एक शायर अबुअज़्ज़ा अम्र इब्ने अब्दुल्लाह तहामा में आया और तहामा व बनी केनाना को अपने कलाम से मुतासिर करके कुरैश का हमनवा बना लिया और उनके सात आदमी कुरैश के लश्कर में शामिल हो गये और इसी तरह बढ़ते बढ़ते लश्कर की तादाद तीन हज़ार तक पहुँच गयी।

अबुसुफियान की ज़ौजा हिन्दा , जिसका बाप अतबा , भाई वलीद और बच्चा शीबा बदर में मारे गये थे उसने भी सुलगती हुई चिन्गारी को भड़कता हुआ शोला बनाने मं कोई कसर उठा न रखी और चौदह औरतों की सरकर्दा बन कर फौज में शामिल हो गयी। उन औरतों में ख़ालिद बिन वलीद की बहन फात्मा , अम्र इब्ने आस की बीवी रीता , अकरम इब्ने अबु जहल की ज़ौजा उम्मे हकीम बिन्ते हारिस , तलहा इब्ने उस्मान की बीवी सलागा बिन्ते सईद , हारिस इब्ने अबुसुफियान की बीवी रमला बिन तारिक़ और सफवान इब्ने उमय्या की बीवी बिर्रा इब्ने मसऊद भी शरीक थी। उन औरतों के शामिल होने का मक़सद यह था कि वह मैदाने कारज़ार में जंग आज़माओं के जज़बात को भड़कायें और पसपायी की सूरत में उन्हें गै़रत दिला कर मैदान में वापस लायें।

अबुसूफियान की क़्यादत में जब यह लश्कर मक्के से रवाना हुआ तो अब्बास इब्ने अब्दुल मुत्तलिब ने बनि ग़फ़्फार के एक शख़्स के ज़रिये आन हज़रत (स.अ.व.व.) को पैग़ाम भेजा कि कुरैश का लश्कर मदीने पर हमला आवर होने के लिये मक्के से निकल चुका है आप इस यलगा़र को रोकने का बन्दोबस्त कर लें ऐसा न हो कि वह आचानक हमला कर दे। इस बरवक़्त इत्तेला के मिलते ही आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने दो आदमियों को मदीने के बाहर भेजा कि वह देखें भाले कि यह ख़बर कहाँ तक दुरुस्त है। उन्होंने पलट कर बताया कि अब्बास की भेजी हुई इत्तेला सही है और कुरैश का लश्कर मारधाड़ करता हुआ इतराफे मदीना में पहुँच चुका है और किसी वक़्त भी वह हमला आवर हो सकता है।

मोअर्रिखी़न ने आम तौर पर यह लिख दिया है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) मदीने मे महसूर रह कर यह जंग लड़ना चाहते थे मगर राय आम्मा से मुतासिर हो कर आप मदीने से बाहर निकल पड़े। अगर यह तसलीम कर लिया जाये कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की यही राय थी तो इस पर अमलदरामद करने में क्या क़बाहत थी ? जबकि तारीख़ यह बताती है कि जो लोग बाहर निकलने पर इसरार कर रहे थे उन्होंने पैग़म्बर (स.अ.व.व.) को हथियारों से आरास्ता होकर बाहर निकलते देखा तो कहने लगे या रसूल उल्लाह! अगर आप मदीने में रह कर दुश्मनों का मुक़ाबला करना चाहते हैं तो हमें इसेस इन्कार नहीं है। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फरमायाः-

(नबी के लिये यह मुनासिब नहीं कि जब वह जंग का लिबास पहन ले तो वह जंग किये बग़ैर उसे उतारे) 1

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के यह अल्फाज़े इत्मेनाने क़लब , इस्तेक़लाले है। जिससे यह साफ ज़ाहिर है कि आप किसी ख़ारजी दबाओ के ज़रे असर शहर से निकलने पर मजबूर नहीं हुए बल्कि जोशे शुजाअत और वलवलए जेहाद का तक़ाज़ा ही यही थी का लश्करे ग़नीम से खुले मैदान में मुक़ाबला किया जाये। पैग़म्बर (स.अ.व.व.) का यह इरशाद न सिर्फ उनके नाक़ाबिले तसख़ीर अजडाएम और हौसलों की बुलन्दी का तरजुमान है बल्कि तमाम मुसलमानों के लिये भी अज़म व अमल का एक ज़री दर्स है।

चुनानचे आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने इब्ने मकतूम को मदीने में मुन्तज़िम व निगरां मुक़र्रर किया और 14 शव्वाल सन् 3 हिजरी को नमाज़े जुमा के बाद एक हज़ार की जमीयत के साथ मदीने से निकल खड़े हुए और एक क़रीबी रास्ते से कोहे ओहद की जानिब रवाना हो गये जहाँ कुरैश का लश्कर 12 शव्वाल से पड़ाव डाले हुए था। अभी पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने आदा रास्ता तय किया होगा कि अब्दुल्लाह इब्ने अबी अपने तीन सौ साथियों समेत लश्कर से कट कर मदीने वापस आ गया। अब मुसलमानों की तादाद सिर्फ सात सौ रह गयी जिन्हें तीन हज़ार जंगजूओं से मुक़ाबला करना था। पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने उन्ही सात सौ लश्करियों के साथ पहाड़ के दामन में पड़ाओ डाल दिया। और दूसरे दिन 15 शव्वाल को दोनों तरफ़ की फौजों ने अपने अपने मोर्चे संभाल लिये। मुश्रेकीन की तादाद बहुत ज़्यादा थी और जंगी असलहे भी इफ़रात मिक़दार में मोहय्या थे। इस लश्कर में सात सौ ज़िरा पोश थे। तीन हज़ार ऊँट और दो सौ घोड़े थे। जबकि मुसलमानों के पास सिर्फ एक सौ ज़िरेह और दो अदद घोड़े थे। फौज की क़िल्लत और सामाने जंग की कमी की वजह से ज़रुरत थी कि लश्कर को इस तरह तरतीब दिया जाये कि दुश्मन को हर सिम्त से हमला करने का मौक़ा न मिल सके चुनानचे तहाफुज़ी तदाबीर के पेशे नज़र आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने कोहे ओहद को पसे पुश्त रख और मदीने पर पचस कमानदारों का एक दस्ता अब्दुल्लाह इब्ने जबीर के ज़ेरे निगरानी ख़ड़ा कर दिया और उसे ताकीद कर दी कि ख़्वाह फतह हो या शिकस्त , जब तक उसे हुक्म न दिया जाये किसी हालत में वह अपना मोर्चा न छोड़े। जंगी हिकमते अमली के एतबार से ये कार्रवाई निहायत ज़रुरी थी , अगर यह इन्तेज़ाम न किया जाता तो कुफ़्फार उधर से हमला आवर हो कर लश्करे इस्लाम को पने मुहासिरे में ले लेते और मुसलमानों को अपनी जाने बचाना मुश्किल हो जाता।

इस नज़म व इन्सेराम के बाद आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने बक़िया लश्कर की सफ़ बन्दी की। मैमना पर साद बिन एबादा और मैसरा पर असीद इब्ने हफ़ीर को मुकर्रर करके रायते जंग हज़रत अली (अ.स.) इब्ने अबुतालिब और लवाये मसअब इब्ने उमैर को दिया।

कुफ़्फ़ार ने भी अपने लश्कर को तरतीब दिया। मैमना का सरदार ख़ालिद इब्ने वलीद और मैसरा का अकरमा इब्ने अबुजहल को बनाया। सवारों का अफ़सर अम्र इब्ने आस और तीर अन्दाज़ों का सरदार अब्दुल्लाह इब्ने रबिया को मुक़र्रर किया। क़लबे लश्कर में जहाँ कुरैश ने अपना मशहूर बुत हुबल , एक ऊँट पर लाद रखा था , अबुसुफियान जाकर खड़ा हो गया और लश्कर का परचम बनि अब्दुलदार की एक फर्द तलहा इब्ने उसमान के सुपुर्द किया गया। जब सब कील काटा दुरुस्त हो चुका तो मुश्रेकीन ने (ऐले हुबल) (हुबल का बोल बाला रहे) का नारा लगाया और हिन्द के साथ दूसरी औरतें सफों से आगे निकल कर लश्करियों में जोश पैदा करने के लिये दफ के साज़ पर ठुमक ठुमक कर गाने लगीं। तीन शेरों का तरजुमा मुलाहेज़ा फरमायें।

1. हम सितारों की बेटियाँ हैं , क़ालीनों पर नाज़ों अदा से इस तरह चलते हैं जिस तरह सुबुकरू परिन्दा चलता है।

2. हमारी मांग में मुश्क भरी है और गर्दनों में मोती जगमगा रहे हैं अगर तुम आगे बढ़ोगे तो हम तुम्हें गले से लगा लेंगे।

3. हम तुम्हारे लिये मसन्द बिछा कर तुम्हें जामे सुरूर व निशात पिलायेंगे और तुम ने अगर पीठ मोड़ी तो हम तुम्हें छोड़़ देंगे गोया तुम से कभी चाहत ही न रही हो।

यह तराना ख़त्म हुआ , तबले जंग की आवज़ गूँजी और दस्त ब दस्त जंग का आग़ाज़ हुआ। मुश्रकेीन का अलमब्रदार तलहा इब्ने उसमान मैदान में आया और उसने तन्ज़ आमेज़ लहजे में पुकार कर कहा। मुसलमनों! तुम्हारा अक़ीदा है कि तुम में से कोई मारा जाये तो वह जन्नत में जाता और हममें से कोई क़त्ल हो तो उसका ठिकाना जहन्नुम है। लेहाज़ा तुम में से जो जन्नत चाहता हो वह मुझ से लड़े। हज़रत अली 0 (अ.स.) उसके मुक़ाबले को निकले। तलहा ने झपट कर आप पर तलवार का वार किया। आपने उसका वार ख़ाली देकर वह तलवार मारी की एक साथ उसकी दोनों टाँगे कट गयी और लड़खड़ा कर ज़मीन पर ढ़ेर हो गया। मुसलमानों ने नाराये तकबीर बुलन्द की। अमीरूल मोमेनीन ने उसका सर काटना चाहा तो देखा कि वह बरहना है , इस हालत में आपने उस पर दूसरा वार करना मुनासिब न समझा और तड़पता सिसकता यूँ ही छोड़ दिया। आख़िर उसने थोड़ी देर ज़मीन पर सर पटकने के बाद दम तोड़ दिया। तलहा के मारे जाने से मुश्रेकीन के हौसले परस्त हो गये और आम बेदिल सी पैदा हो गयी। एक एक करके लड़ने के बजाये उन्होंने इजतेमायी हमला कर दिया। मुसलमानों ने भी क़दम आगे बढ़ाये , कमाने कड़कीं , तलवारों से तलवारें टकरायीं और घमासान की लड़ाई शुरू हो गयी। हज़रत अली (अ.स.) और हमज़ा के हमलों से दुश्मनों की सफें उलटने लगी और एक तहलका मच गया।

अबु दजाना अन्सारी अपन सर में सुर्ख़ पट्टी बाँदे हुए जिस तलवार से दुश्मनों पर हमला कर रहे थे वह रसूल ख़ुदा (स.अ.व.व.) ने मरहमत फरमायी थी। आप सफों को तहोबाला करते हुए वहाँ तक पुहँच गये जहाँ कुफ्फ़ार की औरतें दफ़ बजा जबा कर अपने नग़मों से लश्करियों में जोश पैदा कर रहीं थी आपने तलवार उठायी और चाहा कि हिन्द बिन्ते अतबा को ठिकाने लगा दें मगर इस ख़्याल से हाथ रोक लिया कि रसूल (स.अ.व.व.) दी हुई तलवार को एक नजिस व नापाक औरत के खून से रंगना मुनासिब नहीं है।

तलहा बिन उसमान के बाद उसमान बिन अबी तलहा ने लश्कर का अलम बुलन्द किया था। हज़रत अली (अ.स.) फौज़े रोंदते कुचलते उसके करीब पहुँचे और तलवार का वह हाथ मारा कि उसका सर तन से जुदा हो गया। ग़र्ज़ कुरैश का जो शख़्स भी परचम अपने हाथ में लेता अली 0 (अ.स.) के हाथों मौत के मुँह में चला जाता यहाँ तक कि आपने आठ अलमब्रदारों को मौत के घाट उतार दिया। इब्ने असीर का ब्यान है कि जिसने कुरैश के तमाम परचम ब्रदारों का ख़ातमा किया वह अली (अ.स.) थे) 1

परचम ब्रदारों के क़त्ल से मुसलमानों के हौसले बढ़ गये थे लेहाज़ा वह निहायत बे जिगरी से सीनों को छेदते , सरों का उड़ाते और सफों को उलटते आगे बढ़ते रहे यहाँ तक कि मुश्रेकीन के पाओं मैदान से उखड़ गये। हुबल को ख़ाक आलूद छो़ड़ कर अबु सूफियान भाग खड़ा हुआ और उसके साथ कुरैश की औरतें भी लहंगे और पाईन्चे समेट समेट कर इधर उधर फगने लगीं , लश्करी भी एक तरफ को भागे। मुसलमानों ने जब मैदान ख़ाली होते और फोजों को भागते हुए देखा तो उन पर हिर्स व तमा की कमज़ोरी ग़ालिब आ गयी और वह दुश्मन की तरफ से ग़ाफिल होकर माले ग़नीमत पर टूट पड़े। पहाड़ी दर्रे पर तैयनात अब्दुल्लाह बिन जबीर के दस्ते ने जब माले ग़नीमत लुटते देखा तो वह भी दौड़ पड़ा। तबरी का कहना है किः- वह लोग ग़नीमत ग़नीमत की सदा बुलन्द करने लगे , अब्दुल्लाह ने कहा ठहरो। कया तुम्हें रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) का फ़रमान याद नहीं है , मगर उन्होंने ठहरने से इन्कार कर दिया और माले ग़नीमत लूटने के लिये अपनी जगह छोड़ कर चल दिये। 2

कमान्दारों की इस नाआक़बत अन्देशी और बेसबरी का नतीजा यह हुआ कि दर्रे को ख़ाली पाकर मुश्रेकीन के दो सौ आदमियों की एक जमीअत ने खालिद बिन वलीद और अकरमां बिन अबुजहल की क़्यादत में अक़ब से मुसलमानों पर अचानक हमला कर दिया और इस हमले को देख कर भागते हुए कुफ़्फ़ार फिर पलट आये और वह सामने से हमला आवर हो गये।

इस दो तरफ़ा यलग़ार से मुसलमान ऐसे हवास बाख़्ता हुए कि गर्द व गुबार की वजह से वह अपने आदमियों को भी न पहचान सके और बगै़र देखे भाले एक दूसरे पर तलवारें चलाने लगे और जंग का सारा नक़शा पलट गया , जीती हुई जंग शिकस्त में तबदील हो गयी। कुछ मुसलमान शहीद हुए कुछ ज़ख़्मी हो गये और कुछ भाग खड़े हुए। तबरी का कहना है किः-

(आन हज़रत (स.अ.व.व.) के असहाब आपको छोड़कर भाग निकले उनमें से कुछ मदीने पहुँच गये , हालाँकि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) उन्हें पुकारते रहे कि ऐ बन्दगाने ख़ुदा! ऐ अल्लाह के बन्दों मेरे पास आओ , मेरे पास आओ।) 1

और कुरान मजीद कहता है-

(अज़ तजसअदून तलून) जब तुम पहाड़ पर चढ़े जा रहे थे

अला ओहद वल रसूल यदउकुम और रसूल पीछे से तुम्हें पुकार

यदउकुम फ़ी अख़राकम रहा था मगर तुम मुड़कर भी न देखते ते)

इस अफ़रा तफ़री और नफ़सा नफ़सी के आलम मे अनस इब्ने नज़र का गुज़र उस पहाड़ की चोटी की तरफ हुआ उन्होंने देखा कि कुछ सर छुपाये हुए बैठे हैं तो उन्होंने हैरत व इस्तेजाब से उन्हें देखा और कहा तुम लोग यहाँ क्या कर रहे हो ? उन लोगों ने कहा , रसूल उल्लाह तो क़त्ल कर दिये गये।

कहा कि तुम ज़िन्दा रह कर क्या करोगे ?

अल्लामा तबरी ने पहाड़ की चोटी पर बैठने वालों में हज़रत उमर और तलहा बिन अब्दुल्लाह का खुसूसियत से नाम लिया है और उनकी बाहमी गुफ़्तगू भी तहरीर की है जिसेस उनके ख़्यालात की तरजुमानी होती है वह लिखते हैः-

(चट्टान पर बैठने वालों में से कुछ लोगों ने कहा कि काश हमें कोई क़ासिद मिल जाता जिसके ज़रिय हम अबुसुफ़ियान के पास अमान की दरख़्वास्त करते। मुहम्मद (स.अ.व.व.) तो क़त्ल हो चुके , मुनासिब है कि हम अपनी क़ौम (मुश्रकेीन) की तरफ़ पलट जायें क़बल उसके कि वह आकर हमें भी क़त्ल कर दें) 2

सही बुख़ारी में है कि हज़रत उमर और तलहा के साथ हज़रत अबुबकर और हज़रत उसमान भी भागे और दुरेमन्शूर और कनजुल आमाल में है कि यह हज़रात भी पहाड़ की चोटी पर चढ़ गये थे और तफ़सीरे दुरे मंशूर सफ़हा 288, ज़िल्द 2 और तफ़सीरे इब्ने जरिर में है कि हज़रत उमर ने कहा कि जब जंगे ओहद में काफ़िरों ने मुसलमानों को शिकस्त दी तो मैं भाग कर पहाड़ पर चढ़ गया और उस वक़्त मेरी यह हालत थी कि पहाड़ी बकरी की तरह कूदता फिरता था। और इमामे राज़ी ने तफ़सीरे कबरी जिल्द 3, (स.अ.व.व.) 74 में लिखा है कि भागने वालों में हज़रत उमर भी हैं मगर वह इब्तेदा में नहीं भागे और दूर नहीं गये बल्कि भाग कर पहाड़ पर रूके हैं नीज़ गुरेज़ करने वालों में उसमान भी थे जो साद और अक़बा के साथ दूर तक भाग गये थे और तीन दिन के बाद वापस तशरीफ़ लाये।

इब्ने असीर ने असदुल ग़ाबा में हज़रत अली 0 से रिवायत की है कि आपने फरमायाः- जब आम भगदड़ मची तो पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) मेरी नज़रों से ओझल हो गये मैंने मक़तूलीन की लाशों में देखा भाला मगर कहीं नज़र न आये चुनानचे मेरे लिये यही बेहतर था कि मैं लड़ते लड़ते क़त्ल हो जाऊँ मैंने तलवार निकाली और दुश्मन की सफों पर टूट पड़ा जब कुफ्फार का रेला तितर बितर हुआ तो मैने देखा कि पैगम़्बरे अकरम (स.अ.व.व.) मैदान में साबित क़दम खड़े हैं।

इससे मालूम होता है कि हज़रत अली (अ.स.) पैग़म्बर (स.अ.व.व.) को तन्हा छोड़ कर एक लम्हे के लिये भी मैदान से इधर उधऱ नहीं हुए। अपनी जान से बेनयाज़ होकर दुश्मन की सफों पर हलमा आवर होते रहे , तीरों तलवारों के वार सहते रहे और पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के सीना सिपर होकर मुश्रेकीन की फौजों को दरहम बहरम करते रहे इब्ने साद का बयान है कि ओहद के दिन जब लोग भाग खड़े हुए तो अली (अ.स.) रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) के साथ साबित क़दम रहने वलों में थे और आपने मौत पर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की बैयत की) 2

इसी हंगामाये दारोगीर में सबा इब्ने अब्दुल उज़ा हज़रत हमज़ा के सामने से गुज़रा , आपने उसे ललकारा और कहा , ऐ ख़तना करने वाली के बेटे ठहर कहाँ जाता है ? यह कहकर आप उस पर झपट पड़े और तलवार का ऐसा हाथ मारा कि वह उसी जगह ठंडा हो गया। जबीर इब्ने मुताअम (जिसका चचा तईमा इब्ने अदी हज़रत अली (अ.स.) के हाथों जंगे बद्र में क़त्ल हुआ था) अपने ग़ुलामों वहशी से यह वादा किया था कि अगर वह मुहम्मद अली और महज़ा में से किसी एक को भी क़त्ल कर देगा तो वह उसे आज़ाद कर देगा और हिन्द ने भी अपने शबिस्ताने ख़लवत में नेहाल करने का ख़्वाब दिखाया था चुनानचे वहशी के लिए पैग़म्बर इस्लाम या हज़रत अली को क़त्ल करना तो मुश्किल था मगर वह हज़रत हमज़ा की ताक में लगा रहा और मौक़ा मिलते ही उसने अपी पूरी कुव्वत से अपना माल उनकी तरफ़ फेंका जो नाफ़ पर लगा और पेट को चीरता हुए दूसरी तरफ़ निकल गया इस मुहलिक़र्ब के बावजूद आप उसकी तरफ़ दौड़े मगर कूवत ने साथ न दिया और फ़र्शे ख़ाक पर गिर कर शहादते उज़मा पर फ़ाएज़ हुए।

जंग अमलन ख़त्म हो चुकी थी। कहा जाता है कि इस ग़ज़वा में सत्तर ( 70) मुसलमान शहीद हुए। मुशरेकीन ने अगर चे मक़तूलीने बद्र का बदला ले लिया था मगर उस पर उनका जोशे इन्तेक़ाम फ़रो न हुआ , उन्होंने इन्सानियत को बलाये तक़ रखकर लाशों से भी बदला लिया। चुनानचे माविया इब्ने मुग़ीरा बिन अबुलआस ने हज़रत हमज़ा की मय्यत की नाक काटी और हिन्द बिन्ते अतबा ने उनका शिकम चाक करके कलेजा चबाया और उँगलियां काट कर उनका हार बनाया। उसकी देखा देखी दूसरी औरतों ने भी शहीदों के नाक कान काटे और उन्हें रस्सियों में पिरो कर गले में पहना। अबुसुफियान ने भी हज़रत हमज़ा की लाश की बेहुरमती की और नैज़े की अनी से उनके चेहरे को मज़रूब किया। उस बदबख़्त का जज़बाए इन्तेक़ाम इस्लाम लाने के बाद भी बदस्तूर बरक़रार रहा चुनानचे हज़रत उस्मान के दौरे ख़िलाफ़त में उसने हज़रत हमज़ा की क़ब्र पर ठोकर मारी और कहा ऐ अबुअमारा (हमज़ा) वह हुकूमत जिस पर आपस में तलवारें चलाते थे आज हमारे लड़के के हाथ में है जिससे वह खेल रहे है) 1

इस ख़ूनी मारके में दो औरतों का किरदार जो मैदान जंग में ज़ख़्मों की मरहम पट्टी और पानी पिलाने के लिये थीं , फ़रामोश नहीं किया जा सकता। उनमें से एक उम्मे अमारा नसीबा बिन्ते काब हैं जिनका शौहर ज़ैद इब्ने आसिम और दो बेटे हबीब और अब्दुल्लाह उस जंग में शहीद हुए थे , उस ख़ातून ने जब देखा कि पैग़म्बर इस्लाम (स.अ.व.व.) तीरों की ज़द मे हैं तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) के आगे खड़ी हो गयी और तीरों को अपने सीने पर रोक रोक कर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) का बचाव करती रहीं और जब इब्ने क़मय्या तलवार लेकर आन हज़रत (स.अ.व.व.) पर हमला आवर हुआ तो तलवार लेकर उसके मुक़ाबले में खड़ी हो गयी यहाँ तक कि आपके बाज़ूओं पर तलवार पड़ी और हाथ कट गया।

दूसरी ख़ातून उम्मे ऐमन हैं , जिन्होंने मुसलमानों को जंग से पीठ मोड़ कर भागते दखा तो उनकी ग़ैरत ईमानी जोश में आयी। और तो कोई बस चल न सका , मिट्टी और ख़ाक उठा कर उनके चेहरों पर फेंकती जाती थीं कि अपनी तलवार मुझे देता जा और यह तकला लेता जा और घर में बैठ कर सूत कात। 2

उन औरतों के मुक़ाबले में मर्दों के किरदार को देखा जाये तो मैदान छोड़ने वालों की फेहरिस्त में ऐसे ऐसे लोगों के नाम भी तारीख़ के सफ़हात पर बस्त हं जिनकी ज़ात से इस कठिन मरहले पर सिबाते क़दम की उम्मीद की जा सकती थी। मगर हज़रत अळी (अ.स.) , अबुदजाना , सुहैल इब्ने हनीफ , आसिम इब्ने साबित , मिक़दाद इब्ने अम्र , साद इब्ने माज़ , असीद इब्ने हफ़ीर और जुबैर इब्ने अवाम के अलावा और कोई साबित क़दम नज़र नहीं आता बल्कि उनमें से भी अकसर मैदान से रुगिरदा हो गये थे और फिर पलट कर आये थे। उन पलट कर वापस आने वालों में एक हज़रत अबुबकर भी थे। जैसा कि वह ख़ुद कहते है-

(औहद के दिन रसूल उल्लाह को छोड़कर जाने वालों में सबसे पहले पलट कर आया) 3

अगरचे इस क़ौल में यह सराहत नहीं कि यह वापसी कब और किस वक़्त हुई ? लेकिन वाक़ियात से यह ज़ाहिर है कि आपकी वापसी ख़ातमए जंग के बाद हुई इसलिए कि अगर जंग के दौरान उनकी वापसी होती तो किसी न किसी मौक़े पर तलवार चलाने या तलवार खाने वालों में उनका नाम ज़रुर आता जब कि लड़ने वालों में भी मजरूह हुआ या उसने किसी को मज़रू किया , उसका नाम तारीख़ में आये बगै़र नहीं रहा। यहाँ तक कि तलहा की एक उंगली पर ज़रा सी ख़राश आ गई थी तो उसे भी तारीख़ ने महफुज़ कर लिया। अलबत्ता उनका नाम आता है तो उस मौक़े पर जब जंग तमाम हो गई और पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) चन्द लोगों के साथ पहाड़ की घाटी में तशरीफ़ फरमां हुए।

हज़रत उमर के मुतालिक़ हम तहरीर कर चुकें है कि वह पहाड़ की चोटी पर थे और अबुसुफियान से अमान हासिल करके अपने साबक़े दीन की तरफ पलट जाने के बारे मे सोच रहे थे। चुनानचे वह ख़ुद भी एतराफ करते हैं किः-

(हम ओहद के दिन रसूल उल्लाह को छोड़कर पहाड़ की चोटी पर चढ़ गये थे)

हज़रत उस्मान बिन अफ़ान उस गिरोह में शामिल थे जो तीन दिन बाद पलट कर आया था। चुनानचे इब्ने असीर का कहना है किः-

(उन भागने वालों में उस्मान इब्ने अफ़ान और दूसरे लोगो शामिल थे जो औस में तीन दिन ठहरने के बाद नबीये अकरम (स.अ.व.व.) के पास आये। आपने देखा तो फ़रमाया कि तुम लोग तो बहुत दूर निकल गये थे) 2

हज़रत अली (अ.स.) उस ग़ज़वा में जिस साबित क़दमी और पामर्दी से लड़े वह इस्लामी जेहाद का एक अज़ीम नमूना और तारीख़ का एक मिसाली कारनामा है। हालांकि आप पै दर पलै हमलों से निढ़ाल और तीरों व तलवारों से घायल हो चुके थे। अल्लामा सीवती का ब्यान है कि ओहद के दिन आपके जिस्म पर तलवार की सोलह ज़रबें कारी लगीं थी। 3 तारीख़ों की सराहत से पता चलता है कि इस जंग में सराकरे दो आलम (स.अ.व.व.) की पेशानीये अक़दस पर कारी ज़ख़्म आया और आपके दो दाँत भी शहीद हुए।

इस ग़ज़वा में मुसलमानों को फ़तहा तो न हासिल हो सकी फिर भी हज़रत अली (अ.स.) , जनाबे हमज़ा और दूसरे चन्द जॉबाज़ों की साबित क़दमी ने इस्लाम को शिकस्त की बदतरीन सूरत से बचा लिया। शिकस्त किसी नागहानी हादसे की वजह से नहीं हुई बल्कि यह इख़तेलाफ़ राय और मुसलमानों की बेज़ाबतिगी का क़हरी नतीजा थी।