तारीखे इस्लाम 2

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तारीखे इस्लाम 2 लेखक:
कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

तारीखे इस्लाम 2

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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तारीखे इस्लाम 2

तारीखे इस्लाम 2

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हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

अरब और उसके क़बीले

मोअर्रेख़ीन की इस्तेलाह में अरबों का शुमार (सामी अक़वाम) यानी साम बिन नूह की औलादों में किया जाता है जो बाबीलोन अशवरियों इबरानियों आरमियों और हबशियों पर मुशतमिल हैं।

दरअसल यह तमाम क़ौमे एक ही दरख़्त की शाखें हैं , इसकी जड़ें कहीं थी इस बारे में इख़तेलाफ हैं , बाज़ लोग बताते हैं , बाज़ जज़ीरए अरब को तरजीह देते हैं और बाज़ हबशा क़रार देते हैं। इस इख़तेलाफ़ की नौयियत कुछ भी हो मगर यह अमर तसलीम शुद्धा है कि ज़मानये क़दीम में यह तमाम क़ौमे मुनतशिर हो गयी थी , बाबिलों ने अशवरियों के साथ मिल कर इराक़ में सुकूनत एख़तियार की , फ़ीनक़ियों ने शाम का साहिली इलाक़ा आबाद किया , इबरानियों ने फिलिस्तीन और हबशियों ने हब्शा को अपना वतन करार दिया।

अरब जुग़राफियाई हैसियत से एक जज़ीरा नुमा है जो बर्रे आज़म एशिया के जूनूब व मग़रिब में वाक़े है। शुमाल में इस की सरहदें शाम की जुनूब में भी बहरे हिन्द ने उसे घेर रखा है , मग़रिब में बहरे अहमर है और शाम तक फैला हुआ है , दो हिस्सों में तक़सीम करता है यानि मग़रिबी और मशरिक़ी हिस्सा। मग़रिबी हिस्सा नशेबी इलाक़ा है और इसी लिए यह इलाका ग़ौर (नशेब) या गर्मी ज़ायदा होने की वजह से (तहामा) कहलाता है। मशिरीक़ी हिस्सा कुछ उभरता हुआ इराक़ और समावा तक फैल गया है , मुरतफा होने की वजह से इस इलाके को नजद कहा जाता है और उन दोनों हिस्सों के दरमियान जो इलाका है वह हिजाज कहलाता है इसलिए कि यह दोनों हिस्सो के माबैन हदे फ़ासिल है। वह हिस्सा जो नजद को लेता हुआ यमामा , बहरैन और अमान को भी असने साथ शामिल करता है (अरुज़) कहालाता है इसलिए कि यह यमन और नजद के दरमियान अरज़न फैला हुआ है। हिजाज़ से जुनूबी सिमत में जो मैदानी इलाक़ा है वह यमन कहलाता है इसलिए कि यह खान-ए-काबा से दाहिनी जानिब सर सबज़ो शादाब और बाबरकत है।

इन माज़कूरा इलाक़ों में अदनान , क़हतान का ख़ानदान आबाद है। क़हतानियों ने यमन में रहना शुरू किया जहाँ उनकी शानदार आबादी के साथ उनका रौशन मुस्तक़बिल और तमद्दुन ज़हूर पज़ीर हुआ लेकिन जब आबो हवा रास न आयी तो वह दूसरे इलाकों की तरफ़ मुन्तक़िल हो गये चुनाचे सालेबा बिन अम्र हिजाज़ के इलाक़ों में निकल गये जहाँ उनकी वजह से यहूदियों ने यसरिब पर ग़लबा पाया। (ऊस) और (ख़ज़रिज) यह दोनों क़बीले उसी सालेबा बिन अम्र की नस्ल से हैं। हारिस बिन अम्र जिसकी नस्ल (बनु ख़ज़ाआ) कहलायी हरम की सरज़मीन पर आबाद हुआ , इमरान बिन अम्र ने अमान की राह ली जहाँ उनकी औलाद (अज़अमान) के नाम से मशहूर हुई। नसर बिन अजद ने तहामा को अपना वतन क़रार दिया और उसका क़बीला (इशनूता) कहलाया। जफना बिन अम्र का पेशे दस्ता शाम में ख़ेमा ज़न हुआ उससे ग़सासना पैदा हुए। बनुहम हैरा में रहने लगे उन्हीं में नसर बिन रबिया थे जो हैरा के बादशाहों के जद्दे आला थे। अदनानियों ने हिजाज़ और उससे मुत्तासिल बायें जानिब के सबज़ाज़ार में बूदो बाश इख़तियार की जबकि कुरैश ने मक्का और उसके कुर्ब व जवार को अपने मसकन बनाया। कनाना के क़बायल ने तहामा को , बनुज़ियान ने हीमा व हरान के दरमियानी इलाक़े को और बनी सक़ीफ ने ताएफ़ को पसन्द किया। हवाज़म मशरिकी मक्का में , बनु असद कूफे में और बनु तमीम बसरा में बस गये। बकरस बिन वायल का क़बीता यमामा के साहिली इलाक़ों , बसरा और कूफा के दरमियान आबाद हो गया। मोअर्रेख़ीन ने अक़वामे अरसब को वायिदा , आरबा और मुसतरबा , तीन हिस्सों पर तक़सीम किया है।

पाइदाः- यह वह क़ौमे हैं जिनके हालात नामालूम और आसारे गुमशुदा हैं , तारीख उनके बारे में ऐसे इबहाम से काम लेती है जिससे न तो हक़ीक़त पर रौशनी पड़ती है और न मिजाज़ की तरदीद ही होती है , उसने मशहूर क़बीले आद , समूद , तिसम और जदीस थे जिनके बारे में कुरान का कहना है कि क़ौमे समूद एक सख़्त ग़ैबी आवाज़ के ज़रिये हलाक कर दी गयी और क़ौमे आद पर (बादे सर सर) का अजाब नाज़िल हुआ जिसके नतीजे में वह तबाह व बरबाद हो गयी। तिसम और जदीस के मुतालिक यह ख़्याल किया जाता है कि यह दोनो क़ौमे किसी औरत के चक्कर में आपस में कट मर गयी।

आरबाः- यह वह यमनी बाशिन्दे हैं जिनका नेसब चारब बिन क़हतान से मिलता है और जिन्हें तौरात मे यारह बिन यख़तान कहा गया है , इरबों का ख़्याल है कि यही बुजुर्ग उनकी ज़बान के बानी हैं चुनान्चे उन्हीं पर फ़ख्र करते हुए हसान बिन साबित न कहा था-

(तुमने हमारे बुजुर्ग या अरब से बात करना सीखी तब तुम्हारी ज़बान दुरुस्त हुई और तुम्हारे अन्दर तमददुनी निज़ाम पैदा हुआ वरना इससे पहले तुम्हरी ज़बान गूँगी थी और तुम जानवरों की तरह ब्याबानों में रहा करते थे।)

उन्हीं यमनियों में , हमीर के घराने से ज़ैदुल जमूर , क़सआ और सकासक वगैरा क़ाबिले जिक्र हैं। क़बायल कहलाते में मज़हिज , कुन्दा , हमदान , तह और लहम वग़ैरा मशहूर हैं। लहम की औलाद में मन्ज़र और उसके बेटे हैरा हैं। अज़द से ऊस व ख़ज़रिज मदीने में और ग़सासना शाम में सुकूनत पज़ीर हुए। यमन में हमीर की हुक्मरानी थी और उन्हीं की औलादों में अरसा दराज़ तक मुनहसिर रही।

मुस्तारिबाः- यह हज़रत इस्माईल (अ.स.) की औलादें हैं जो उन्नीसवीं सदी क़बल मसीह , हिजाज़ में आबाद हुयीं और शाहाने जरहम से दामादी के रिश्ते जोड़कर वहां मुस्तक़लन अक़ामत पज़ीर हो गयीं यहां उनकी नस्ल बकसरत फैली जिसे ज़माने के तारीक़ गोशों ने अपने दामन से ऊपर कोई सही नसब नामा नहीं बताती चुनानचे अरबी नस्ल का सही सिलसिलएक नसब अदनान पर ही ख़त्म हो जाता है , शायद इसीलिए रसूले अरबी (स.अ.व.व.) ने भी यह इरशाद फ़रमाया है कि मेरे सिलसिले नसब को अदनान तक पहुँचा कर ख़मोश हो जाया करो।

उन्हीं अदनान की नस्ल में क़सी इब्ने कलाम मुतवल्लिद हुए जो कुरैश कहलाये) क़सी की औलादों में अब्दे मनाफ़ हैं जिनेक सुल्ब से हाशिम मुतवल्लिद हुए। और हाशिम के नूरे नज़र अब्दुल मुत्तिलब हैं , उन्हीं की औलादों में हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) के पदरे बुजुर्गवार हज़रत अब्दुल्लाह , अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली (अ.स.) के वालिदे मोहतरम हज़रत अबुतालिब , और अब्बास वग़ैरा हैं। अलवी ख़ानदान हज़रत अली (अ.स.) से मनसूब हुआ जबकि अब्बासी सिलसिला अब्बास से वाबस्ता है। बनुउमैया , बनुतीम और बनीअदी वग़ैरा यह सब ग़ैर हाशिमी है उन लोगों का ख़ानदान बनु हाशिम से कोई इरतेबात नहीं है। इसके अलावा सिर्फ बनि हाशिम ही का घराना ऐसा है जिसके सर अरबी ज़बान व अदब और दीने इस्लाम का सेहरा है।

अहदे जाहेलियत में अरबों की हालत

किसी मुल्क की आबो हवा का उस मुल्क के बाशिन्दों की ज़िन्दगी , इख़लाक़ी और मुआशी व इजतेमायी निज़ाम पर बहुत पड़ता है और उनकी तबीअतें व आदतें इशी आबो हवा के मुताबिक नशो नुमा पाती है जज़ीरानुमा होने की वजह से अरब की ज़मीन ख़ुश्क , बन्जर और रेगिस्तानी थी। बारिश की क़िल्लत और पानी की अदम फ़राहमी की वजह से न तो वह ज़राअत के काबिल थी और न ही शहरी आबादी के लिए मौजूद थी। ग़ालेबन इसी बिना पर मोअर्रिख़ ने अरब क़ौमों को दो हिस्सों में तक़सीम किया है। एक गिरोह वह था जो भेड़ें और बकरियाँ वग़ैरा पालता था , खाना बदोशी की ज़िन्दगी गुज़ारता थआ और पानी व चारागाहों की जुस्तजुअ में एक मुक़ाम से दूसरे मुक़ाम की तरफ मुन्तक़िल होता रहता था , उसकी हैसियत और मुआशिरत चरवाहों से ज़्यादा नहीं थी। दूसरा गिरोह क़दरे तमद्दुन पसन्द था जो ज़राअत व तिजारत की तरफ़ मायल था और उसका रहन सहन सादगी का मजहर था। लेकिन उन दोनों गिरोह का क़ौमी और समाजी अन्दाज़ तौर तरीक़ा यक़सां था। अंग्रेज़ मोअर्रिख़ हीरो डूटिस लिखता है कि अरब क़ौल के सच्चे और इरादे के पुख़ता होते थे अपने रिश्तेदारों का बड़ा लिहाज़ करते थे. तेज़फहमी , तबियत की ग़वासी , लतिफा गोई और बज़ला सनजी में भी मशहूर थे। हथियारों के इस्तेमाल और शहसवारी में भी क़माल रखते थे , हवास के ऐसे तेज़ थे कि एक मुट्ठी रेत सूँघकर रेगिस्तान के तूल व अर्ज़ का अन्दाज़ा कर लेते थे।

मोअर्रिख़ अबुल फ़िदा लिखता है कि अरबों में जिहालत कूट कूट करस भरी थी. खूँरेजी , ग़ारत गिरी , बेरहमी और रहज़नी वग़ैरा से उन्हें कुदरती मैलान था , कुन्बा परवर ऐसे थे कि उमरें गुज़र जाती मगर कुन्बा बरक़रार रहता था। जिसके बारे में हुक्मा का क़ौल है कि ऊँट का गोश्त खाने की वजह से ऐसा था क्योंकि ऊँट इंतेहाई कीना परवर जानवर होता है , खु़र्द साल बच्चे देवता पर भेंट चढ़ाये जाते थे और लड़कियाँ ज़िन्दा दफ़्न कर दी जाती थीं। मुर्दा जानवरों का गोश्त , उनके लिए उमदा और लजीज़ तरीन ग़िज़ा थी) अलग़र्ज़ इस क़िस्म की क़बीह रसमें और आदतें इश नीम वहशी और आज़ाद मनिश क़ौम में बुरी तरह रिवाज पज़ीर हो गयी थी।)

तारीख़ बताती है अरब का पूरा मुआशरा एक ही रंग में रंगा हुआ था यह लोग ग़ैरुल्लाह की परस्तिश पर ईमान रखते थे। गोह , कच्छुए , मेंढ़क और साँप बिच्छू वग़ैरा तक खा जाते थे , क़हत व खु़शक साली के ज़माने में ऊँटों को ज़ख़्मी करके उनका ख़ून पिया करते थे। केमार बाज़ी बदकारी और शराब नोशी उनका महबूब मशग़ला था। एजाजुल तज़ील में है कि उनकी हराम कारी , बेहयाई और बेशर्मी की यह हालत थी कि कुँवारी लड़कियां और ब्याही औरतें दोनों ही जिना को फख़्र समझ़ती थी और जिस तरह मर्द किसी हसीन तरीन या मशहूर व मारूफ ख़ानदान की औरत से ज़िना करने के बाद अपने इस शैतानी फेल पर फख़्र व मुबाहात करता था और दूसरों से ब्यान करता था उसी तरह औरतें भी किसी नामी या मशहूर खानदान के मर्द से जिना का इरतेकाब करने के बाद अपने इस कारनामे पर फ़ख़्र करती और दूसरी औरतें और मर्द बरहैना हालत में खान-ए-काबा का तवाफ किया करते थे। पाब के मरने के बाद बेटा अपनी सौतेली माओं पर ज़बरदस्ती क़ाबिज़ व मुतसर्रिफ़ हो जाता था। यतीमों और बेवाओं का माल खाने में उन्हें ज़रा भी ताअम्मुल न होता , हक़ हमसायगी कोई चीज़ न था कि जिसका पास व लिहाज़ किया जाता। तालीम व तरबियत की परछाईयाँ भी उन पर न पड़ीं थीं।

(गिबन का कहना है कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) के ज़हूर से पहले इन अरबों में सत्तर सौ लड़ाइयाँ हो चुकी और यह लड़ाइयाँ उस किस्म की होती थी कि अगर एक क़बीले का आदमी दूसरे क़बीले के किसी आदमी को क़त्ल कर देता था तो उसका कसास लेने के लिए पचास पचास बरस तक जंग होती रहता थी।)

अबुल फ़िदा ने लिखा है कि- (तमाम क़ौमें आज़दाना गुज़ारा करती थी मगर उनमें ज़रा ज़री सी बात पर खूंरेज़ियां हो जाया करती थी चुनानचे एक दफा बनि तग़लिब की एक औरत बिसवस नामी मेहमान की ऊँटनी एक शख़्स की चरागाह में चली गयी तो उस शख़्स ने ऊँटनी के थन काट दिये उस औरत ने अपने भाँजे से जहाँ वह मुक़ीम थी फ़रयाद की उसने चारगाह वाले को क़त्ल कर दिया। उस पर बनि बकर और बनि तग़लिब में और फिर रफ़्ता रफ़्ता एक दूसरे की हिमायत पर तमाम क़बीलों मे चालीस बरस (सन् 364 से 434 तक) लड़ाई होती रही जो हरब बसूस के नाम से मशहूर है और जिसमें अव्वल से आख़िर तक सत्तर हज़ार आदमी मारे गये। उसी तरह सन् 568 में वाहिस नाम की एक घोड़ी को घुड़ दौड़ में निकलते देख करस किसी शख़्स ने भड़का दिया उस पर चालीस बरस यानी सन् 608 तक जंग जारी रही और क़बीले के क़बीले कट मरे यहाँ तक कि 631 में जब बाज़ क़बीले मुशर्रफ ब-इस्लाम हुए उस वक़्त उस जंग का पूरा पूरा ख़ात्मा हुआ।

अरबी ज़बान

अरबी ज़बान दुनिया की क़दीम तरीन ज़बानों में से है। इस ज़बान की कई क़िस्में थी जिनमें से कुरैश और बनि हमीर की ज़बान सबसे आला और फ़सीह तर मानी जाती थी ख़ासकर कुरैस की ज़बान ख़ालिस अरबी ज़बान तसलीम की जाती थी कुरान का नजूल इसी ज़बान में हुआ है।

अहले अरब लिखना नहीं जानते थे अगर चे हज़रत अय्यूब और बनि हमीर को लिखना आता था। बनि हमीर एक अजीब पेचिदा तर्जे तहरीर रखते थे लेकिन बग़ैर हुकूमत की इजाज़त हासिल किये वह दूसरों को यह तर्ज़े तहरीर सिखाने से क़ासिर थे।

मुरामुर बिन मुर्राह अन्बारी जो पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) से क़बल करीस तर ज़माने में था , अरबी रस्मुल खत का मोजिद है। सैय्यद अमीर अली अपनी तारीख़े इस्लाम में लिखते हैं किः- (अरबी तहरीर का फन शियूअ इस्लाम से जरा ही पहले कुरैशः में राजेय हुआ था। अव्वलन उसे मुरामुर बिन मुर्राह ने ईजाद किया जो हीरा के करीब शहर अम्बार का बाशिन्दा था। अंबार से यह फ़ने तहरीरे हीरा में गया और अबुसुफ़ियान का बाप हीरा जब हैराह गया तो वहाँ उसने अस्लम बिन सदरा नामी एक शख़्स से इस फन को सीखा। फिर वापस आकर उसने अहले मक्का को सिखाया और आनन फानन यह फन कुरैश में फैल गया। हमीरियों का तरज़े तहरीर उससे मुख़तलिफ़ था जिसे ब़कूल इब्ने ख़लक़ान अलमुस्नद कहते थे उसके सब हुरुफ एक दूसरे से जुदा होते थे वह अवामुन-नास को इस फन के सीखने से रोकते थे और बग़ैर उनकी इजाज़त के कोई भी शख़्स उसका इस्तेमाल नहीं कर सकता था। जब इस्लाम शाया हुआ तो यमन में एक शख़स भी ऐसा न था जो लिखना पढ़ना जानता हो। ज़वाले ख़ानदान बनी उमय्या के वक़्त मतरुक कूफ़ी तरज़े तहरीर ने कोई सूरते अख़तियार कर ली थीं जिनमें सबसे आम सूरत का नाम नसख़ था। चौथी सदी के आख़िर और पाँचवी सदी के शुरू में नसख्र के दो बड़े खुश नवीसों अबुल हसन इब्ने बव्वाब और अबुतालिबुल मबारक ने उसे और भी तरक़्क़ी दी। सलाहुद्दीन अय्यूबी के दौरे हुकूमत में हम एक बड़े गोल ख़त का जिक्र सुनते हैं , यही नसख़ की तरक्की याफता सूरत थी और उसे सलस कहते हैं जो ईरानी खत नस्तालीक से मिलता हुआ था।

सैल अपने मुक़द्दमे तरजुमा कुरान ((स.अ.व.व.) 21) में लिखता है कि (मुरामुर के हुरूफ़ खते कूफी से बहुत मुशाबेह थे और हमीरी से बिल्कुल मुखतलिफ। अव्वलन कुरान भी उसी खत में लिखा गया था। यह ख़ूबसूरत हुरूफ जो अब देखे जाते हैं उन्हें इब्ने मक़ला वज़ीर मुक़तदर अब्बासी ने रसूले अकरम (स.अ.व.व.) की वफात के तीन बरस बाद कूफ़ी से ईजाद किये हैं इसी खत को चौथी सदी में अली बिन बव्वाब ने और संवारा मगर जिनसे मौजूदा सूरत में उसे पाया तो तकमील तक पहुँचाया वह ख़लीफा मोतसिम का कातिब दीवान याक़ीत मोतासमी था। इसी वजह से वह खत्तात के नाम से मशहूर है।)

इब्ने ख़लकान (जिल्द अव्वल (स.अ.व.व.) 125 में) लिखता हैः- (लोग हजरत उसमान के मुस्हिफ में कुछ ऊपर चालीस बरस अब्दुल मलिक बिन मरवान के अहद तक पढ़ते रहे लेकिन नुक़्ते न होने की वजह से इराक में तसहीफऴ बहुत होने लगी (यानी मतशाबा हुरूफ कुछ के कुछ पढ़े जाने लगे) उश पर हज्जाज बिन यूसुफ़ के हुक्स से उसके कातिब नसर बिन आसिम या यहिया बिन यामिर ने नुक्ते इजाद किये मगर ज़ेर ज़बर पेश की ग़ल्तियां बाक़ी रही इस लिए बाद में आराब या हरकात को वाज़ेह किया गया)

मुफताउल सआदा जिल्द अव्वल सफ़हा 73 में है कि खते अरबी बनि तय के कबीले बुलान से तीन शख़्सों ने इजाद किया है जो शहर अम्बार गये थे अव्वल उनमें मरामर हैं जसिने हरफों की शक़्लें वजडेह की और नुक्ते लगाये दूसरा अस्लम जिसने वसब व फसल करार दिया , तीसरा आमिर जिसने ज़ेर ज़बर पेश ईजाद किये। उसी किताब के (स.अ.व.व.) 80 में है के नुक़्ते और एराब हज़रत (अ.स.) की तलक़ीन से अबुल असूद वायली ने वाज़ेह किये हैं (और यही बात दुरूस्त मालूम होती है)

ज़मानए कदीम में तरीकए तहरीर यह था कि लोहे या पीतल की तलायी से लकड़ी या मोम की तख़तियों पर लफ़ज़ों को कन्दा किया जाता था। सबसे पहले मिस्रे वालों ने पेपर्स नामी दरख़्त के पत्तों को उन तखतियों के बजाये इस्तेमाल करना शुरू किया और उसी (पेपर्स) से अंग्रेज़ी लफज़ (पेपर) कागज़ के मानों में मुस्तामिल है।

आठवीं सदी ई 0 में पहले पहल रुई और रेशम से कागज़ तैयार हुआ। कागज़ की इजाद के बारे में अंग्रेज़ मोवर्रिख़ (गास्टियू लीबान) अपनी किताब तमद्दुम में लिखता है कि अहले यूरोप एक मुद्दत तक सिर्फ चमड़े पर लिखते रहे और यह इस कदर गिरां था कि किताबों की अशाअत बखुबी न हो सकती थी , चन्द रोज में यह इस कदर नायाब हो गया कि यूनान व रोम के राहेबान बड़ी बड़ी कदीम तसनीफानत के हुरूफ छील कर उनक सफ़हों पर अपने मज़हबी रसायल लिखने लगे और अगर अरबों ने कागज़ न ईजाद किया होता तो यह राहेबान कुल तसनीफात को जिन के वह मुहाफिज़ थे तलफ कर देते। स्कोरियल (स्पेन) के कुतुब खाने में जो सूती कागज पर लिखी हुयी सन् 1006 की किताब है वह युरोप के कुतुब खानों में सबसे क़दीम नुसखा है उसके देखने से मालूम होता है कि अरबों ही ने पहले पहल चमड़े के बदले कागज़ का इस्तेमाल किया है। यूरोप की जो सबसे पुरानी तहरीर कागज पर पायी जाती है वह सेण्ट लूई के नाम जानवील के खत है जो सन् 1270 में लिखा गया है।

मुख़तसर यह कि अरबों ने फसाहत व बलाग़त में अबरी ज़बान को दर्जा-ए-कमाल पर पहुँचा दिया था। इसको वह बहुत बड़ी फज़ीलत समझते थे और उस पर उन्हें बहुत बड़ा फख़्र और नाज़ था। शायरी में भी उन्हें अबूर हासिल था। जो नज़में मेयारी और आला दर्जा की होती थी वह शाही खज़ानों में ऱखी जाती थी। उनमें से वह सात नज़में जो सब-ए-मुअल्लेक़ात के नाम से मशहूर हैं खान-ए-काबा में लटकायीं गयी थीं , यह चूंकि मिस्री रोशनी कपड़े पर सोने के हुरूफ से लिखी हुई थी उस सबब से मज़हब्बात-भी कहलाती थी। मगर कलाम-उल-लाह ने उनका सारा गुरुर तोज़ दिया और वह एक छोटी सी आयत बनाने से भी क़ासिर रहे और बड़े बड़े फ़सीहाने अरब बोल उठे कि यह बशर कलाम नहीं है। इस वजह से कलामुल्लाह आन हज़रत (स.अ.व.व.) का सबसे बड़ा मोजिज़ा करार पाया जो रहती दुनिया तक क़ायम रहेगा।

दौरे जाहिलियत में अरबों की हुकूमत

ज़मान-ए-जाहेलियत में तमाम अहले बादिया (सहरायी अरबों) के यहाँ हुकूमत का अन्दाज़ यकसां था। जो ज़रुरतें आज की मुतदमद्दिन दुनियां में बीसों अफ़राद से पीरी हो सकती हैं वह सब तन्हा एक ही सरदार की जात में जमां हो जाती थीं। वही अमीर या बादशाह भी होता था , वही काज़ी , वही साहबे ख़ज़ाना और वही फौज का सरदार वग़ैरा। ग़र्ज़ कि तमाम कारोबार इसी शख़्से वाहिद की जात से वाबस्ता होते थे। अहले अरब के यहां जो होता था , उसी को अमीर बनाते थे अगर उनमें कई शख़्स उन औसाफ में का इन्तेख़ाब अमल में आता था और जब मुख़तलिफ़ क़बायल मुताफ़िक़ होकर किसी जंग पर आमादा होता और उन्हें एक ऐसा सरदार दरकार होता जो उन सब पर अफसरी करते तो वह तमाम सरदारों के नाम कुरा डालते थे और जिसका नाम निकल आता उसी की बिला उज़्र अपना अफसर मान लेते थे। यह हालत सहरायी और ख़ाना बदोश अरबों की थी जो जंग व जदल और लूट मार के आदी थे उसके बरअक्स जो शहरी और अहले मक्का थे उनके यहाँ खान-ए-काबा का ख़ादिम सरदारी का मुस्तहक़ होता था। लेकिन जब से ख़िदमते बैतुल्लाह कुरैश के घराने में आयी उस वक़्त से लोग हर मुआमले पर अफसर और सरदार शुमार होने लगे।

अरबों में बुत परस्ती का रिवाज़

जमानए जाहेलियत में अहले अरब किसी इलहामी मज़हब को नीहं मानते थे , उन्हे ख़ुदा के वजूद ही से इन्कार था। चूँकि वह गुनाहों के क़ायल भी न थे इसिलए उक़बा में सज़ा व जज़ा का तसव्वुर भी उनके ज़हनों से कोंसो दूर था। उनका अक़ीदा था कि इन्सान का वजूद दुनिया में एक दरख़्त या जानवर के मानिन्द है , वह पैदा होता है और मर जाता है। अक़सर उमें एतदाल पसन्द लोग भी थे जो रूह को ग़ैर फानी शै समझते थे और नेक व बद आमाल पर सज़ा व जज़ा के बारे में यक़ीन रखते थे इसलिए ज़रुरी था कि वह ऐसा तरीक़ा अपनाये जो उनके लिये रुहानी तसकीन का सबब बने लेकिन उनके पास कोई ऐसी तरीक़ा या उसूल न था कि जिस पर कारबन्द हो करस वह अपने लिए तसकीन का सामान फ़राहम करते। इसीलिए उन्होंने इन उसूलो की तरफ तरवज्जो दी जिन पर उनकी हमसाया क़ौमें गामज़न थीं। यही वह असबाब थे जिनकी बिना पर अरबों ने शाम के बुत परस्तों से बुत परस्ती का तौर तरीका सीखा। चुनानचे उमर बिन लाकर खान-ए-काबा में नसब किया और बुत परस्ती का बानी करार पाया।

उन लोगों ने बहुत से मोतक़िदार अपने ही वतन के इलहामी मज़हबों से और बहुत से ग़ैर मुल्की ख़यालात में अख़ज़ कर लिये थे और फिर उनको अपने तवहुम्मात से ख़ल्त-मल्त करके अपने माअबूदों को दीन व दुनिया के अख़तियारात दे रखे थे। बस फ़र्क सिर्फ़ यह था कि उनके अक़ीदे के मुताबिक दीनवी अख़ितयारात उनके माअबूदों के हाथों में थे और उक़बा के बारे में उनका ख़्याल यह था कि उनके बुत उनके गुनाहों की माफी के लिए ख़ुदा से शिफाअत का जरिया होंगे। चुनाचे ज़हूरे इस्लाम से पहले अरबों में बुत परस्ती की यही कैफीयत थी। जिन बुतों की वह परस्तिश करते थे उनकी तफ़सील मुवर्रेख़ीन की ज़बानी हसबे जैल है।

(1) हुबल- यह बहुत बड़ा बुत था जो खान-ए-काबा के अन्दर दाहिनी तरफ खड़ा किया गया था और ओहद की जंग में अबु सुफियान ने उसी से मदद मांगी थी मगर वह बुरी तरह शिकस्त से दो चार हुआ। फ़तेह मक्का के मौक़े पर हजरत अली 0 ने उस बुत को रेज़ा रेज़ा कर दिया।

(2) वुद-यह क़बीलए बनि काअब का बुत था। अम्र बिन अबदउद का माम उसी बुत के नाम से मुश्तक़ है।

(3) सवाये- यह कबीला मजहिज का बुत था।

(4) यागूस- कबीले बनि मुराद का बुत था।

(5) यऊख़- बनि हमदान का बुत था।

(6) नसर- यह भी कबीलए बनि हमदान का बुत था।

(7) उज़्ज़ा- कबीलए बनि ग़तफ़ान का बुत था।

(8) लात- यह एक ग़ैर तराशीदा बुत था जिसके बारसे मे लोगों का ख़्याल था कि इसमें उलूहियत की करिश्मा साज़ियाँ मुजतमा हैं। अरबों की जाहिलाना सरिश्त लात को देवी समझती थीं।

(9) मनात- यह एक बुलन्द क़ामत बुत था। उमर बिन हय्या ने समुन्द्र के किनारे से उसे निस्ब किया था। लात व मनात पर किसी ख़ास क़बीले का हक़ नहीं था बल्कि अरब के तमाम क़बीले उनकी परस्तिश करते थे।

(10) दवार- नौजवान औरतें इसकी परस्तिश और तवाफ करती थीं.

(11) असाफ- यह सिफा पर नसब था।

(12) नायला-मरवा पर था। असाफ व नायला को कुर्बानियां दी जाती थीं।

(13) नहीक-

(14) मतअम- यह दोनों बुत भी सिफ़ा व मरवा पर थे।

(15) जुल्कफीन- यह भी एक बुत था जिसे पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) जलवा दिया था।

(16) ज़ातुल अनवात- यह एक दरख़्त था जिसकी परस्तिश होती थी।

(17) अबाअब- यह एक बड़ा पत्थर ता जिस पर ऊँटों की कुर्बानी होती थी।

इन तमाम बुतों के अलावा खान-ए-काबा में हज़रत इब्राहीम का मुजस्समा था और उइसके हाथ में कुरान के तीर थे जो इज़लाम कहलाते थे। जनाबे मरयम का भी एक मुजस्मा था जिसमें हज़रत ईसा को आग़ोशे मादर में दिखाया गया था।

अरबों की रवायात से पता चलता है कि वुद , यागूस , सऊक , और नसर मशहूर लोगों के नाम थे जो अय्यामे जाहेलियत में गुज़रे हैं उनकी तस्वीरें पत्थरों पर मुनतकिल करके ख़ान-ए-काबा में रख दी गयीं थीं , एक मुद्दत के बाद उन्हें माअबूदियत का दर्जा दे कर लोग उन्हें पूजने लगते थे।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) का ख़ानदानी पस मन्ज़र

हज़रत इस्माईल (अ.स.) के हालात में हम तहरीरस करस चुके हैं कि हुक्में ख़ुदा वन्दी के तहत आप और आपकी वालिदा जनाबे हाजिरा को आपके पदरसे बुजुर्गवार हज़रत इब्राहीम (अ.स.) मक्क-ए-मोअज़्जमा की सर ज़मीन पर छोड़कर अपने वतन शाम वापस चले गये थे। फिर एजाज़े इलाही से वहाँ चश्में ज़मज़म का ज़हूर हुआ और पानी की वजह से क़बीलए जुरहूम वहाँ आकर आबाद हुआ और उसी कबीले की एक पाकीज़ा जुरहमीया ख़ातून से आपकी शादी हुई। उसके बाद आप और आपके वालिद ने मिलकर खान-ए-काबा की तामीर की।

जुरहमिया ख़ातून के बतन से आपकी बारह औलादें हुयीं जो आपके बाद खान-ए-काबा की देख भाल और इन्तेज़ामी उमूर की ज़िम्मेदार क़रार पाई। ग़र्ज़ कि रफ़्ता रफ़्ता आपकी नस्ब मक्का में बढ़ती रही यहाँ तक कि आप ही की नस्ल से फहर नामी एक बुजुर्ग पैदा हुए जिनके बारे में लोगों का ख़्याल है कि यही फहरे कुरैश कहलाये और उन्हीं की औलादें क़बीलए कुरैश के नाम से मौसूम हुयी। नीज़ हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) भी उन्हीं फहर की नस्ल से थे।

कुरैश कौन था। यह एक संजीदा मसअला है उसकी अहमियत पर हम अपनी किताब (अलसख़ुल्फा) हिस्सा अव्वल में ख़ातिर ख़्वाह बहस कर चुके आज़म के ओलमा का यह दावा है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने फरमाया था कि मेरे बाद मेरी ख़िलाफत सिर्फ खानदाने कुरैश ही में रहेगी। वग़ैरा वग़ैरा।

कुरैश के बारे मे इल्मे अन्साब के माहेरीन और इ्ल्मे तारीख के मोहक़्क़े क़ीन के दरमियान इख़तेलाफ़ है उनमें एक गिरोह का कहना है कि फहर और उनकी पूरी नस्ल कुरैश है जिसमें हज़रते शैख़ीन भी शामिल हैं जबकि दूसरा गिरोह कहता है कि सिर्फ़ कुसई इब्ने कलाब और उनकी नस्ल कुरैश है जिसमें अबदे मनाफ , अब्दुल मुत्तालिब , जनाबे अब्दुल्लाह , जनाबे अबूतालिब , हज़रत रसूले खुदा (स.अ.व.व.) और हज़रत अली (अ.स.) वग़ैरा है।

मुझे तो ऐसा लगता है कि शैख़ानी की ख़िलाफ़त के जवाज़ में पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) की मज़कूरा हदीसों और जनाबे फहर के कुरैश होने का शाख़ाना खड़ा किया गया है वरना तारीख़ी शवाहिद से यह बात आशकार है कि कुरैश का सिलसिला कुसई इब्ने कलाब से शुरू हुआ और वही कुरैश कहलाये जैसा कि अव्वलीन दौर के मुहक़्क़े क़ीन में अल्लामा अबदरबा का कहना है कि क़ुसई इब्ने कलाब ने चूंकि अरबों को एक मरकज़ पर जमां किया था इसलिए वह कुरैश कहलाये। कुरैश का अस्ल तक़र्रिश है और तक़र्रिश के मानी जमा करने वाले के हैं और क़सई को जमां करने वाला कहते हैं।

इब्ने असीर का कौल है कि जब अरबों को क़सई ने जमा कि तो उन्हें लोग कुरैश कहने लगे। और दूसरे लोगों का ख़्याल है कि जब कुसई इब्ने कलाम रहम के सरदार हुई तो उन्होंने बहुत बेहतर नुमाया काम अन्जाम दिये इसलिए लोग उन्हें कुरैशी कहने लगे और पहली मरतबा क़ुसई का यह नाम रखा गया यह लफ़्ज़ इज़्तेमा से निकला है यानि क़ुसई में अच्छा सिफतें जमा थीं इसलिए उन्हें कुरैश कहा जाता है।

तबरी का कहना है कि क़ुसई जब रहम (मक्का मोअज्ज़मा) में आकर मुक़ीम हुए तो वहाँ उन्होंने बहुत अच्छे काम किये इसलिए उन्हें लोग कुरैश कहने लगे और वही पहले शख़्स हैं जिन्हें यह नाम दिया गया।

अल्लामा शिबली फ़रमाते हैं कि क़ुसई ने इस क़दर शोहरत और एतबार हासिल किया कि बाज़ लोगों का ब्यान है कि कुरैश का लक़ब अदल उन्हीं को मिला चुनानचे अल्लामा अबदरबा ने अक़दुल फरीद में भी लिखा है और यह भी तसरीह की है कि क़ुसई ने चूँकि ख़ानदान को जमा करके काबे के आस पास बसाया इसलिए उनको कुरैश कहते हैं। क़ुरैश की वजह तसमिय में इख़्तेलाफ़ है बाज़ कहते हैं कि कुरैश के मानी जमा करने के हैं और क़ुसई ने लोगों को जमा करके एक रिश्ते मे मुन्सलिक किया इसिलए कुरैश कहलाये , बाज़ कहते हैं कि एक मछली का नाम है तो तमाम मछलियों को खा जाती , चूँकि क़ुसई बहुत बहुत बड़े सरदार थे इसलिए उन्हें मछली से तशबीह दी गयी।

उमवी हुक्मरान अब्दुल मलिक बिन मरवान ने मुहम्मद बिन जिबरील से पूछा , कुरैश का यह नाम कब से हुआ ? उसने कहा जब से लोग अलग अलग रहने के बाद हरम में इकट्ठा हुए क्योंकि तकर्रुश के मानी तजम्मा के हैं। इस जवाब पर अब्दुल मलिक ने कहा मैंने तो आज तक यह नहीं सुना बल्कि यह सुनता आ रहा हूँ कि क़ुरैश क़ुसई ही को कहते हैं और उनसे पहले यह नाम किसी का नहीं हुआ।

मज़कूरा तारीख़ी हवालों से यह बात साबित है कि कुरैश का सिलसिला सिर्फ़ कुसई इब्ने कलाम से शुरू हुआ फहर या उनकी नस्ल से इस कुरैशी सिलसिले का कोई ताल्लुक नहीं है। अब अगर पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) का यह क़ौल दुरूस्त है कि (ख़लीफ़ा कुरैश ही से होगा) तो ऐसी सूरत में हज़रात शैख़ीन की ख़िलाफ़त का महल ख़ुद बख़ुद ढेर हो जाता है।

क़ुसी इब्ने कलाब

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) का नसब , अदनान तक मोतबर तारीख़ों और अनसाब की किताबों से साबित है जो हज़रत इसमाईल (अ.स.) के फ़र्ज़न्द क़ीदार की नस्ल से थे। तीसरी सदी ई 0 में अदनान के बेटे मोइद की उन्नीसवीं पुश्त में एक बुजुर्ग पैदा हुए जिनका नाम फ़हर इब्ने मलिक था , उन्हीं फहर की नस्ल से पाँचवी सदी ई 0 में क़ुसई हुए।

क़ुसई का अमल नाम ज़ैद और कुन्नियत अबुल मुग़ीरा थी , वालिदा का नाम फ़ात्मा बिन्ते सईद था। आपकी दो बीवियाँ थी एक का नाम आतिका बिन्ते ख़ालिख़ इब्ने लैक था और दूसरी का नाम हब्बा बिन्ते ख़लील ख़ज़ायी था। यह ख़लील कबीलये बनु ख़ज़ाआ के सरदार और उस दौर में खान-ए-काबा के मुतावल्ली थे। उन्होंने अपनी वफ़ात के वक़्त यह तौलियत अपनी बेटी हब्बा के सुपुर्द करना चाही मगर उन्होंने माकूल उर्ज़ के साथ उसे कुबूल करने से इन्कार कर दिया तो ख़लील ने यह ख़िदमत अपने एक क़रीबी अज़ीज़ व रिश्तेदार अबु ग़बशान ख़ज़ायके सुपुर्द कर दी , उसने इस अज़ीम शरफ को क़ुसइ इब्ने कलाब के हाथों फरोख़्त कर दिया , इस तरह आप खान-ए-काबा के मुन्तज़िम व मुतावल्ली क़रार पाये।

आप एक बुलन्द हौसला , जवां मर्द , नेक चलन , सख़ी और अज़ीमुल मरतबत इन्सान थे। आपके ज़माने में मक्का मुअज़्ज़मा आबादी के लिहाज़ से एबहुत ही मामूली गाँव था , बिखरी हुई और मुन्तशिर हालत में कहीं कहीं झोंपडियाँ और जाबजां डेरे पड़े हुए थे , आपने उन सबको तरतीब के बसाया और जो कबीले पहाड़ों और घाटियों में फैले हुए थे उन्हें समेट कर उस मैदान में जिसे बतहा कहते हैं जमां किया।

मुसलसल जद्दो जहद और जॉफिशानी के बाद आपको मक्के पर इक़तेदार हासिल हो गया और आप की ताजदारी तस्लीम कर ली गयी तो आपने खान-ए-काबा की दोबारा मरम्मत औरस ज़रुरी तामीर करायी , उसके चारों तरफ़ पत्थरों के मकामात बनवाये और मुख़तलिफ़ क़बायल के लोगों को वहाँ आबाद किया , उन पर सालाना टैक्स अदा किये जिसकी रक़म हज के ज़माने में हाजियों की मेज़बानी पर ख़र्च होती थी।

आपने अपने लिए एक मलह भी तामीर कराया दारूल नदवा बनवाया जो बड़े हाल की शक्ल में था और उसमें अमूरे आम्मा की अन्जाम देही , बाहमी इख़तेलाफ़ात को मदूर करने और ख़ान-ए-काबा के इन्तेज़ामी मुआमलात पर तबादलए ख़्यालात के लिए वक़तन फ़वक़तन अजनलास हुआ करते थे ।

हजाबत यानि ख़ान-ए-काबा की देख भाल और हिफाज़त का ओहदा , सक़ायत व रफ़ादत यानि हाजियों की मेज़बानी और उनके खाने पानी के इन्तेज़ाम का मनसब , क़यादत यानि बवक़्त जदाले फौज की सिपेह सालारी , सिदारत , यानि दारूल नदवा के इजलास में सदर होने का इस्तेहाक़ और लवाए यानि अलमबदारी का मनसब वग़ैरा तमाम अहम तरीन मनासिब आपकी ज़ात से वाबस्ता थे। इस तरह आप जुमला मज़हबी , इसलाही और मुल्की उमूर अपनी ज़ात में जमा करके ताजदारे हज और मज़हबी पेशवा बन गये।

सीरत इब्ने हश्शाम में है किः- (काअब बिन मालिक की औलाद में क़ुसई पहले शख्स हैं जिन्होंने ऐसी हुकूमत पायी जिससे उनकी क़ौम सब उनके ज़ेरे इताअत आ गयी चुनानचे हिजाबत , सक़ायत , रिफादत , दारूल नदवा और लवाए तमाम मनसब उन्हीं से मख़सूस हो गया। उनका फ़रमान क़ौम में एक मज़हबी कानून की तरह वाजिबुल अमल समझा जाता था।)

तबरी लिखता है कि क़ुसई आला मज़हबी उमूर और दीनवी मुआमलात को अपने हाथ में करके दीनवी हाकिम और मज़हबी पेशवा बन गये। वह जो भी करते उसमें किसी की मजाल नहीं थी कि मुख़ालफ़त या एतराज़ करे। मुज़महिल को अज़सरे नो मज़बूत और दुरुस्त किया है। अल्लामा दयार बकरसी फरमाते हैं कि क़ुसई की शान उनकी ज़िन्दगी में भी और उनके मरने पर मक़बूले ख़ास व आम थी , कोई उनके खिलाफ कुछ करता ही नहीं था। क़ुसई ने मक्का में एक कुआँ भी ख़ुदवाया था जिसका नाम अजूल था , यह पहला कुँआ था जो मक्के में खोदा गया।

क़ुसई ने सन् 480 में इन्तेक़ाल किया और मुक़ामे हुजून में दफ़्न हुये इसके बाद आपकी कब्र की ज़ियारत को लोग जाते थे और उसकी बड़ी ताज़ीम करते थे।

जनाबे क़ुसई अगर नबी , रसूल या इमाम न थे लेकिन नूरे मुहम्मदी के हामिल थे इसलिए आसमाने फज़ीलत के आपताब बन गये।

अबदे मनाफ़

जनाबे क़ुसई की छः औलादें थी-( 1) अब्दुल दार ( 2) अबदे मनाफ़ ( 3) अब्दुल अज़ा ( 4) अब्दुल क़सा ( 5) अब्दुल अबद ( 6) अब्दुल बर्रा।

अबदे मनाफ , क़सी की ज़ौजा सानिया हब्बी बिन्ते खलील ख़ज़ायी के बतन से मुतवल्लिद हुए। आपके वालिद ने आपका नाम मग़ीरा रखा और कुन्नियत अबु शमश करार पायी लेकिन जिस वक्त आप पैदा हुए तो आप की वालिदा ने अपने अक़ीदे के मुताबिक मक्का मोअज़म्मा में एक बुत (मनाफ़) के सामने डाल दिया था इस वजह से अबदे मनाफ कहे जाने लगे।

इससे मालूम हुआ कि क़ुसई ने आपका नाम अबदे मनाफ नहीं रखा जिससे यचह इलज़ाम आयद किया जा सके कि वह भी दूसरे अरबों की तरह बुत परस्ती करते थे। इस लक़ब (अबदे मनाफ) की ज़िम्मेदार क़ुसई की बीवी हब्बा बिन्ते ख़लील ख़ज़ायी हैं इसकी जि़म्मेदारी क़ुसई पर आयद नं होत और न ही आपकी बीवी के इस फेल पर ताज्जुब करना चाहिए क्योंकि जबबाज़ अन्बिया की बिवियाँ ईमन व मारफ़त के आला मदारिज तक नहीं पहुँच सकी तो हब्बा का ज़िक्र ही क्या है। उइसके अलावा यह रवायत हज़रात अहले सुन्नत की है , शियों के ओलमा इसके हमनवा नहीं हैं।

अल्लामा शिबली नेमानी का कहना है कि क़ुसई ने मरते वक़्त हरम मोहतरम तमाम मनासिब अपने बड़े बेटे अब्दुल दार को सुपुर्द किये थे जो अपने तमाम भाईयों में ना अहल था। इक़तेदारे अबदे मनाफ ने हासिल किया और उन्हीं का खानदान रसूल अल्लाह (अ.स.) का ख़ास खानदान है। इस इजमाल की तफ़सील में शम्सुल ओलमा डिप्टी नज़ीर अहमद साहब रक़्स तराज़ हैं कि- कुसई के यूँ तो कई फरज़न्द थे मगर ब लिहाज़े उम्र सबसे बड़े अब्दुल दार और ब-हैसियत फज़्ल व शरफ सबमें मुम्ताज़ अबदे मनाफ थे। अबदे नमाफ अपने वालिद की ज़िन्दगी ही में अज़मत व बुजुर्गी के साथ मशहूर हो गये थे और उनके फज़लों कमालात की दिलचस्प हिकायतें क़बायले अरब की ज़बानों पर रफ़्ता रफ़्ता आने लगीं थी चुनानचे उसी ज़माने में लोगो ने उनके वफूरे करसम और सख़ावत की वजह से उन्हें फैय्याज़ का लक़ब दे दिया था और सख़ावत की वजह से उन्हें फ़ैय्याज़ का लक़ब दे दिया था और क़बाएल में वह इसी लक़ब से पुकारे जाते थे मगर औलादे अकबर होने की वजह से क़ुसई , अब्दुल दार से ज़्यादा मोहब्बत करते थे और इसी मोहब्बत का नतीजा था कि उन्होंने अपनी वफात से क़बल खान-ए-काबा के तमाम ओहदे अब्दुल दार के नमाज़द कर दिये थे बल्कि एक अज़ीम मजमे में इसका ऐलान भी कर दिया था। एहतेज़ार के वक़्त कु़सई ने अब्दुल दार से कहा , बेटा! अगर चे तेरे दूसरे भाई फज़ल व शरफ़ में तुझ पर फौक़ियत रखते हैं- मगर मैंने खान-ए-काबा के तमाम मनासिब तेरे सुपुर्द करके तुझे उनमें मिला दिया है। अब जब तक तू खान-ए-काबा का दरवाज़ा न खोलेगा उनमें का कोई शख़्स उसमें दाख़िल नही हो सकता , जब तक तू लड़ाई का झण्डा नहीं उठायेगा उस वक़्त तक कोई आदमी लड़ाई में नहीं जा सकता। अब तेरे अलावा हज्जाज किसी का पानी नहीं पियेंगे अलग़र्ज़ अब्दुल दार , कुसई के बाद सरदार हुआ मगर बाद में उसने उन तमाम ओहदों में अपने भाई अपने मनाफ को भी शरीक करस लिया।

अल्लामा दयार बकरी ने मूसा बिन अक़बा से रवायत की है कि उसने हजर में एक नविश्ता पाया , जिसमें तहरी था कि (मैं मग़ीरा फरज़न्द क़ुसई हूँ और लोगों को हुक्म देता हूँ कि अल्लाह से डरते रहा करें और सेलए रहम करते रहें!

इस नविश्ते से पता चलता है कि अबदे मनाफ खुद भी इस नाम को पसन्द नहीं करते थे और अपने को मुग़ीरा कहते थे , बुत परस्ती से अलाहिदा थे और ख़ुदाये बरहक़ को ही अपना माअबूद समझते थे अगरस वह ख़ुदा के अलावा किसी को अपना माअबूद समझते तो अल्लाह से डरने या तक़वा इख़तियार करने हिदायदत न करते।

मुल्के शाम के एक मुक़ाम ग़ज़्ज़ह में आपने इन्तेक़ाल फ़रमाया , जहाँ आप तिजारत की ग़र्ज़ से तशरीफ़ लसे गये थे। आपकी शादी आतिका बिन्ते मर्राह सलीम से हुई थी।