तारीखे इस्लाम 2

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तारीखे इस्लाम 2 लेखक:
कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

तारीखे इस्लाम 2

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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तारीखे इस्लाम 2

तारीखे इस्लाम 2

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हिंदी

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इमामते नमाज़

दौराने अलालत जब तक पैगम़्बरे अकरम (स.अ.व.व.) की कूवत व तवानाई साथ देती रही आप मस्जिद में बराबर आते जाते और नमाज़ पढ़ाते रहे लेकिन जब मुर्ज़ ने इन्तेहाई शिद्दत इख़तेयार कर ली तो यह सिलसिला बन्द करना प़ड़ा। चुनानचे दोशन्बे के दिन जब सुबह की अज़ान हके बाद हज़रत बिलाल ने हाज़िर होकर नमाज़ के लिये पैगम़्बर (स.अ.व.व.) को मुतावज्जे किया तो आपने फरमाया कि मैं अपने अन्दर इतनी सक्त नहीं पाता कि मस्जिद तक चल कर नमाज़ पढा सकूँ लेहाज़ा किसी शख़्स से कहो कि वह नमाज़ पढ़ा दे। चुनानचे आप मर्ज़ की सख़्ती की परवा न करते हुए फ़ौरन उठ खड़े हुए कि कहीं ऐसा न हो कि उनमें से कोई नमाज़ पढ़ा दे। और यह इमामत ख़िलाफ़त का पेश ख़ेमा बन जाये। फ़ज़ल इब्ने अब्बास और हज़रत अली (अ.स.) के शानों पर हाथ रखा और सहारा लिये हुए मस्जिद में तशरीफ़ लाये। देखा कि हज़रत अबुबकर मेहराब की तरफ़ बढ़ रहे हैं आपने उन्हें हाथ के इशारे से पीछे हटने को कहा और ख़ुद आगे बढ़कर नमाज़ पढ़ाई।

वाक़िया सिर्फ़ इतना ही है मगर इसे बुनियाद करार दे कर वह क़िस्सा गढ़ लिया गया कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने हज़रत अबुबकर को नमाज़ पढ़ाने पर मामूर फ़रमाया था और ख़ुद उनके अक़ब या पहलू में बैठ कर नमाज़ पढ़ी और इसी बिना पर उन्हें मनसबे ख़िलाफ़त के लिये मुनतख़ब किया गया क्योंकि पैगम़्बर (स.अ.व.व.) जिसे नमाज़ के मसले में आपना नायाब क़रार दें वही एहकामे शरीया के निफ़ाज़ व इजरा में उनका ख़लीफ़ा जानशीन हो सकता है।

अब देखना यह है कि हज़रत अबुबकर ख़ुद रसूल (स.अ.व.व.) के मुक़ाबले पर खड़े हो गये थे या रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ने उन्हें हुक्म दिया था ? और अगर यह फ़र्ज़ कर लिया जाये कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उन्हें दिया तो क्या नमाज़ की इमामत दलीले ख़िलाफ़त बन सकती हैं ?

इस ज़ैल में जो रवायात तारीख़ व अहादीस की किताबों में मरकूम हैं उनमें इतना तज़ाद है कि उनकी सेहत पर यक़ीन व एतमाद नहीं किया जा सकता क्योंकि एक रवायत का मुद्दआ कुछ है और दूसरी रवायत इसके ख़िलाफ़ कुछ और कहती है चुनानचे किसे सही माना जाये और किसे ग़लत कहा जाये। हैरत यह है कि इन मुतज़ाद रवायात में अकसर हज़रत आयशा से मरवी है। इन रवायात का तज़ाद ही इसल दावे को कमज़ोर साबित करने के लिये बहुत काफ़ी था चे जाए कि वह नमाज़ के मसले उसूल व ज़वाबात के भी मुनाफी है। इस मुक़ाम पर चन्द रवायतें दर्ज की जाती हैं ताकि अरबाबे फिक्र व नज़र खुद ही फ़ैसला कर लें कि उन मुतजाद रवायात से कहां तक असबाते मुद्दुआ में मदद ली जा सकती है ?

इब्ने हब्शाम का ब्यान है किः-

(बिलाल ने आन हजरत (स.अ.व.व.) से नमाज़ के लिये अर्ज़ किया तो अब्दुल्लाह बिन जेमा से आपने फ़रमाया कि किसी से कहो कि वह नमाज़ पढ़ा दे। अब्दुल्लाह कहते हैं कि मैं बाहर निकला तो देखा कि लोगों में हज़रत उमर मौजूद हैं मैंने उमर से कहा कि आप नमाज़ पढ़ा दीजिये जब उन्होंने तकबीर कही और उनकी आवाज़ बुलन्द हुई तो पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने पूछा कि अबुबकर कहां हैं ? अल्लाह यह नहीं चाहता कि मुसलमानों को उमर नमाज़ पढ़ायें। फिर आपने अबुबकर को बुलवाया मगर वह उस वक़्त आये जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) ख़ुद नमाज़ पढ़ा चुके थे फिर अबुबकर ने लोगों को नमाज़ पढ़ाई।)

इस रवायत से मालूम होता है कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने इब्तेदा में किसी ख़ास शख्स को नमाज़ के लिये मोअय्यन नहीं किया ब्लकि अब्दुल्लाह पर छोड़ दिया कि वह जिसे चाहे नमाज़ के लिे कह दें और इस उमूमी इजाज़त की बिना पर अब्दुल्लाह ने हज़रत उमर से कह दिया और जब वह नमाज़ शुरू कर चुके तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने अबुबकर को नमाज़ पढ़वाने के लिये बुलवा भेजा क्योंकि अल्लाह नहीं चाहता था कि उमर नमाज़ पढ़ायें मगर अबुबकर के आने तक उमर नमाज़ पढ़ा चुके थे और हज़रत अबुबकर ने फिर से नमाज़ पढ़ाई। इस रवायात पर हैरत होती है कि जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने अब्दुल्लाह से कह दिया था कि वह किसी से नमाज़ के लिये कह दें और उन्होंने हजरत उमर से कह दिया तो हज़रत अबुबकर के पीछे आदमी दौड़ने की क्या ज़रुरत थी ? और अगर अल्लाह को हज़रत उमर का नमाज़ पढ़ाना गवारा नहीं था तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) अब्दुल्लाह को पहले सी यह ताक़ीद फ़रमा देते कि देखो उमर से न कहना क्योंकि अल्लाह की मर्ज़ी उनके ख़िलाफ़ है ऐसी सूरत में न हज़रत उमर को ख़जालत का सामना होता और आदाये नमाज़ की ज़रुरत होती।

इब्ने साद तराज़ हैं-

(जब हज़रत उमर ने तकबीर कही तो रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ने कहा , नहीं , नहीं फरजन्दे अबुक़हाफ़ा कहां है ? यह सुन कर सफ़ें दरहम बरहम हो गयीं और हज़रत उमर नमाज़ छोड़कर अलग हो गये। रावी कहता है कि अभी हम अपनी अपनी जगह पर थे कि मोहल्लये सक़ से अबुबकर आ गये और उन्होंने आगे बढ़कर नमाज़ पढ़ा दी।)

इर रवायात से यह मालूम होता है कि हज़रत रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) ने हज़रत अबुबकर को पैग़ाम भेजा था कि वह नमाज़ पढ़ायें और जब वह नमाज़ के लिये खडे हुए तो आन हज़रत ख़ुद भी दो आदमियों का सहारा लेकर दाख़िले मस्जिद हुए और हज़रत अबुबकर के पहले में बैठकर नमाज़ पढ़ी। आन हज़रत (स.अ.व.व.) का अबुबकर को इमामत पर मामूर करना और फिर ख़ुद भी बिला तवक़्कुफ मस्जिद में चले आना जबकि ख़ुद से चलने फिरने की सकत न थी ज़ेहन में ये शुबहा पैदा किये बग़ैर नहीं रहता कि क्या पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने उन्हें कहलवाया था या वह अज़खुद आ गये थे ? अगर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने कहलवाया था तो फिर मर्ज़ की शिद्दत के बावजूद खुद मस्जिद में आने की ज़हमत क्यों गवारा की ? और अगर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने कहलवाया नहीं था तो अबुबकर मेहराबे मस्जिद तक कैसे पहुँच गये ? रवायात तो यह नहीं बताती बराहे रास्त पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने ख़ुद उनसे कहा था। कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस तरह अब्दुल्लाह इब्ने ज़ोमा ने हज़रत उमर से कह दिया था उसी तरह किसी शख़्स ने उनसे भी कह दिया हो और वह मुसल्ले पर खड़े हो गये हों और जब पैग़म्बर (स.अ.व.व.) को इत्तेला हुई हो तो वह दो आदमियों का सहारा लेकर मस्जिद में हो ताकि ख़ुद इमामत के फ़राएज़ अन्जाम दें वरना उसके अलावा बीमारी की हालत में मस्जिद में आने की वजह और क्या हो सकती है। इस रवायात का यह जुज़ कि अबुबकर रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) के मुक़तदी थे और दसूरे लोग अबुबकर की इक़तेदा कर रहे थे , किस क़दर मज़हका खेज़ और बेमानी है। इस लिये कि अगर हज़रत अबुबकर इमाम थे तो फिर वह मामून नहीं हो सकते और अगर रसूले अकरम (स.अ.व.व.) इमाम थे तो फिर अबुबकर सिर्फ़ मुक़तदी व मामूम ही हो सकते हैं क्योंकि एक ही नमाज़ में एक ही शख़्स इमाम भी हो और मामूम भी यह बात समझ में आने वाली हरगिज़ नहीं है वरना हर पिछली सफ़ वालों को अगली सफ़ वालों की इक़तेदा जायज़ होनी चाहिये।

तबरी एक रवायत यह भी लिखते हैं किः-

(आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया कि किसी को भेज कर अली (अ.स.) को बुला दो। हज़रत आयशा ने कहा , काश आप अबुबकर को बुलाते , हफ़सा नेकहा कि काश आप हज़रत उमर को बुलाते। इतने में वह सब आन हज़रत (स.अ.व.व.) के पास जमां हो गे तो आपने फ़रमाया , तुम लोग चले जाओ अगर मुझे ज़रुरत होगी तो मैं तुम्हें बुलवा लूँगा , चुनानचे वह उठ कर चले गये। फिर रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ने पूछा क्या नमाज़ का वक़्त हो गया है फ़रमाया कि अबुबकर को कहो कि वह नमाज़ पढ़़ायें। हज़रत आयशा ने कहा वह नर्म दिल हैं आप हज़रत उमर को हुक्म दें। फ़रमाया कि अच्छा तो फिर उमर को दो , हज़रत उमर ने कहा मैं अबुबकर के होते हुए सबक़त नहीं कर सकता। उस पर हज़रत अबुबकर आगे बढ़े इतने में रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ने कुछ इफ़क़ा महसूस किया तो हुजूरे से बाहर आये अबुबकर ने आपकी आहट महसूस की तो पीछे हटना चाहा आपने उनके दामन को ख़ीचा और जहां खड़े थे वहीं खड़े रहने दिया और ख़ुद बैठ गये जहां से अबुबकर ने केरअत छोड़ी थी वहीं से आपने केरअत शुरू कर दी।) 1

इस रवायत में चन्द बातें ऐसी भी आ गयी हैं जिन से असल वाक़िये को समझने में मदद ली जा सकती है। एक बात तो बिल्कुल वाज़े और अया है कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने हज़रत अली (अ.स.) को बुलाने की ख़्वाहिश का इज़हार किया। मगर किस लिये ? इस सिलसिले मे रवायत ख़ामोश है। लेकिन रवायत का आख़िरी हिस्सा कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने पूछा कि क्या नमाज़ का वक़्त हो गया है जिस का जवाब हां में दिया गया इससे इतना तो मालूम हो गया कि हज़रत अली (अ.स.) को इस वक़्त बुलाया गया था जब नमाज़ का वक़्त हो चुका था और नमाज़ के वक़्त तलब करने का मक़सद इसके सिवा और क्या हो सकता है कि उनसे नमाज़ के लिये कहा जाये। ये इतनी साफ़ बात थी कि हज़रत आयशा और हफ़ज़ा भी समझ गयीं कि उन्हें नमाज़ पढ़ाने के लिये कहा जाये। ये इतनी साफ़ बात थी कि हज़रत आयशा और हफ़ज़ा भी समझ गयी कि उन्हें नमाज़ पढ़ाने के लिये बुलाया जा रहा है। इसी बिना पर उन्होंने हज़रत अबुबकर और हज़रत उमर का नाम लिया कि काश उन्हें बुलाया जाता। अगर हुज़ूरे अकरम (स.अ.व.व.) ने हज़रत अली (अ.स.) को सिर्फ़ मुलाक़ात या किसी ज़ती काम के बुलाया होता तो कोई वजह न थी कि दरमियान में अबुबकर और उमर को हायल किया जाता उन लोगों का नाम सिर्फ़ इस सूरत में लिया जा सकता था जब बुलवाने का मक़सद और काम की नौवियत वाज़ेह और और वह चाहती हो कि इस काम की अन्जाम देही का सेहरा उनके बाप के सर बन्धे। ये चीज़ भी नज़र अन्दाज़ नहीं की जा सकती कि इधर उन लोगों का नाम लिया जाता है और उधर वह पहुँच जाते है। इस बरवक़्त आमद से अगर ये नतीजा अखज़ किया जाये तो ग़लत न होगा कि वह आन हज़रत (स.अ.व.व.) के मर्ज़ की शिद्दत देखर यह समझ रहे थे कि आप खु़द तो नमाज़ के लिये मस्जिद में पहुँचे न सकेंगे यह ख़िदमत किीस और ही के सुपुर्द करेंगे लेहाजा़ नमाज़ के व्क़त आस पास ही रहना चाहते ताकि आयशा या हफ़सा की तरफ़ से इशरा मिलते ही फ़ौरन हजूर (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में हाज़िर हो जायें और आप हमें नमाज़ पढ़ने की इजाज़त दे दें ताकि इस बुनियाद अमरत पर ख़िलाफ़त का महल आसानी से तामीर किया जा सके। मगर हुज़ूर (स.अ.व.व.) उन्हें ह कहकर रूख़सत कर देते हैं कि तुम्हारी ज़रूरत नहीं है लेहाज़ा तुम लोग चले जाओ , जब ज़रुरत होगी तो तुम्हें बुला लेंगे। इन लफ़ज़ों से साफ़ जाहिर है कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) उस वक़्त तख़लिया चाहते थे ताकि जिस मक़सद के लिये अली (अ.स.) को बुलवा भेजा है उसमें दख़ल अन्दाज़ी न होने पाये। अगर आन हज़रत (स.अ.व.व.) यह चाहते कि हज़रत अबुबकर नमाज़ पढ़ायें तो उसी वक़्त उनसे कह देते कि तुम नमाज़ पढ़ा देना जबिक नमाज़ का वक़्त भी हो चुका था और वह मौजूद थे मगर उनसे आप इशारतन व कनायतन भी कुछ नहीं कहते और उधर वह हुजरे से बाहर निकलते हैं और उन्हें पैग़ाम मौसूल होता है कि वह नमाज़ पढ़ायेंगे। इस मुक़ाम पर यह सवाल पैदा होता है कि रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ने उनसे ख़ुद क्यों न कह दिया , दूसरों से कहलवाने में क्या मसहलत थी ? और जिससे कहलवाया गया वह कौन था ? तो इसका जवाब अलावा उसके और क्या हो सकता है कि उन्होंने कहा गया और न कहलवाया गया बल्कि जिसने उनका नाम पेश किया था उसी ने उनसे कहलवा भी दिया होगा।

इस मौक़े पर हज़रत आयशा ने हज़रत अबुबकर की नर्म दिली का अज़्र करके हज़रत उमर का नाम लिया और रसूल उल्लाहग (स.अ.व.व.) से यह भी कहा कि उन्हें कह दीजिये कि वह नमाज़ पढ़ाये। अगर हक़ीक़तन वह यही चाहती थी कि हज़रत अबुबकर के बजाये हज़रत उमर नमाज़ पढ़ायें तो जब आन हजरत (स.अ.व.व.) ने हज़रत अली (अ.स.) को बुलाने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी उस वक़्त हज़रत अबुबकर का नाम ही न लिया होता मगर उस वक़्त तो यह कहना कि काश अबुबकर को बुलवाया होता और अब उनकी नर्म दिली का उज़्र करके हज़रत उमर का नाम पेश कर दिया जाता है। इससे ज़्यादा हैरत में डाल देने वाली बात यह है कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) भी आयशा की हाँ में हाँ मिलाकर कह देते हैं कि अच्छा उमर ही से कह दो कि वह नमाज़ पढ़ायें हाँलाँकि अब्दुल्लाह इब्ने ज़ोमा की रवायत में गुज़रत चुका है कि जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उमर की सदाये तकबीर सुनी तो बर अफ़रोख़ता हो गये और फ़रमाया कि उनकी इमामत न अल्लाह को पसन्द और न मुसलमानों को गवार है लेकिन इस रवायत की रू से बड़ी खुशी के साथ इजाज़त दी जा रही है। अब किसको सही समझा जाये और किसकोग़लत। यह तो हो नहीं सकता कि जिसकी इमामत से अल्लाह बेज़ार हो उसको आयशा की सिफ़ारिश पर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) इजाज़त दे दें। और जब हज़रत उमर से कहा जाता है कि आप नमाज़ पढ़ा दें तो वह कहते हैं कि हज़रत अबुबकर के होते हुए मैं कैसे नमाज़ पढ़ा दूँ। यह इस अमर का अमली एतराफ़ है कि फ़ाज़िल पर मफ़़ज़ूल को फ़ौकियत नहीं दी जा सकती तो इमामते नमाज़ में ऐसे तस्लीम कर लेने के बाद ख़िलाफ़त में नज़र अन्दाज़ करने का क्या जवाज़ हो सकता है ? इस मौक़े पर यह बात किसी मसहलत पर मुबनी होगी वरना पहली रवायत की बिना पर जब अब्दुल्लाह ने उनसे नमाज़ पढ़ाने को कहा था तो उन्होने यह कहा कि अबुबकर आते ही होंग दो मिनट उनका इन्तेज़ार कर लो , बल्कि वह फ़ौरन तैयार हो गये यह दूसरी बात है कि पढ़ी पढ़ाई नमाज़ न पढ़ने के बराबर होगी या बीच में अधूरी छोड़ना पड़ी। और रवायत की रू से उन्होंने हज़रत अबुबकर पर सबक़त मुनासिब नहीं समझी और उन्होंने आगे खड़ा कर दिया मगर वह नमाज़ के लिये खड़े ही हुए थे कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) भी पहुँच गये। चन्द लम्हों पहले तो आपने अपनी मजबूरी का इज़हार फ़रमाया था फिर क्यों चले आये ?

क़रीने क्यास यह बात नज़र आती है कि हज़रत अली (अ.स.) की तबली पर कुछ लोगों को यह ख़दशा हुआ कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) कीहं उनसे नमाज़ के लिये न कह दें। उन्होंने पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की तरफ़ से आज़ ख़ुद अबुबकर से कह दिया कि आप नमाज़ पढ़ाये और जब वह दूसरों के कहने से ख़ड़े हो गये तो पैग़म्बर (स.अ.व.व.) उन्हें रोकने के लिये जिस तरह भी बन पड़ा मस्जिद में तशरीफ़ लाये और उन्हें हटा कर ख़ुद नमाज़ पढ़ाई।

इस रवायत में बड़ी चाबुकदस्ती से यह जुमला भी दर्ज कर दिया गया है कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने वहां से कराअत शुरू की जहां से अबुबकर ने छोड़ी थी ताकि उनकी नमाज़ रसूल (स.अ.व.व.) की नमाज़ से जु़डी रहे और यह नमाज़ भी हज़रत उमर की नमाज़ की तरह कलअदम न समझी जाये मगर यह बात समझ में न आई कि क़राअत को बीच से शुरू करने से क़राअत न तमाम रहेग और कराअत के नाक़िस व नातमाम होने की सूरत में नमाज़ ही सही नहीं होती।

मज़कूरा रवायतों से मिलती जुलती एक रवायत सही बुख़ारी 1 में भी मरक़ूम है लेकिन इस इज़ाफ़े के साथ कि रसूले अकरम (स.अ.व.व.) ने हज़रत अयशा को युसूफ़ वलियां करार दिया है और जिस के बारे में साहबे सीरत हलबिया का कहना है कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने आयशा को (युसुफ़ वालिया) इसलिये कहा कि जिस तरह ज़ुलैखां ने ज़नाने मिस्र को अपने यहां ज़ियाफ़त के लिये जमा किया था हालाँकि इस इजतेमा का मक़सद जियाफ़त न था बल्कि वह ये चाहती थीं कि मिस्र की औरतें हजरत युसुफ को दखकर उन्हं मोहब्बत के मामले में मजबूर समझें इसी तरह हज़रत आयशा दिल दिल से तो यह चाहती थी कि हज़रत अबुबकर नमाज़ पढ़ायें और ज़ाहिर यह करती थी कि वह उनकी इमामत की ज़रा भी ख़्वाहिश मन्द नहीं है। जिस तरह ज़ुलैख़ा के मामे में जाहिर कुछ था बातिन कुछ इसी तरह यहां भी ज़ाहिर में बेनियाज़ी थी और बातिन में ख़्वाहिश व तलबगारी। जैसा कि शुम्सुल ओलमा ड़िप्टी नज़ीर अहदम साबह ने तहरीर फ़रमाया है कि आय़शा दिल से बाप की इमामत और ख़िलाफ़त सभी कुछ चाहती थी।

बहर हाल , इन रवायात और उनके बाहमी तज़ाद को देख कर क़तअन इस पर एतमाद नहीं किया जा सकता कि आन हजरत (स.अ.व.व.) हज़रत ने अबुबकर को नमाज़ पढ़ाने पर मामूर किया था और न उनके मामूर किये जाने का सवाल पैदा होता था क्योंकि उन्हीं दिनों में आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने हज़रत अबुबकर और हज़रत उमर को दीगर सहाबा के साथ उसामा की मतहती में मदीने से बाहर निकाल कर लश्कर कशी का हुक्म दिया था और ज़िन्दगी के आख़िरी लम्हों तक ताक़ीद पर ताकीद फ़रमाते रहे थे। फिर यह क्यों कर तसव्वुर किया जा सकता है कि एक तरफ़ तो सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) ने उन्हें मदीने छोड़ने का हुक्म दें और दूसरी तरफ़ उन्हें मदीने ही मं नमाज़ पढ़ाने पर मामूर फ़रमायें। यह इमामत का शाख़साना इसलिये ख़ड़ा किया गया है कि हज़रत अबुबकर की ख़िलाफ़त की सेहत पर दलील क़ायम की जा सके। इब्ने हजर मक्की ने तो इस इमामत को अबुबकर की ख़िलाफ़त पर नस का दर्जा दे दिया है चुनानचे वह फरमाते हैं कि इस इमामत की बिना पर तमाम ओलमा इस के क़ायल हैं कि हज़रत अबुबकर की ख़िलाफ़त नस्सी थी। 2

अगर वाक़ियन आन हज़रत (स.अ.व.व.) इससे अबुबकर की ख़िलाफ़त पर नस करना चाहते तो ज़ोफ़ व नक़ाहत के आलम में मस्जिद में आने और अबुबकर को हटा कर नमाज़ पढ़ाने या उनके पहलू में बैठ कर नमाज़ पढ़ने की क्या ज़रूरत थी ? क्या यह ख़िलाफ़त की अहलियत व सलाहियत पर नस की जा रही थी ? या उसके ख़िलाफ़ सबूत बहम पहुँचाया जा रहा था। अगर यह फ़र्ज़ कर लिया जाये कि नमाज़ की इमामत दलीले ख़िलाफ़त हैं तो जब पैगम़्बर (स.अ.व.व.) ने हज़रत उमर को उनकी आवाज़े तकबीर सुन कर रोक दिया था तो फिर अपने बाद हज़रत अबुबकर ने उन्हें किस दलील की बिना पर नामजद किया था। इमामते नमाज़ को नस क़रार देने से पहेल ज़रूरी है कि इममते नमाज़ और ख़िलाफ़त में तलाजुम साबित किया जाये। अगर तलाजुम नहीं है तो फिर यह ख़िलाफ़त ही दलील क्यों ? और अगर तलाजुम हो तो फिर उन लोगों को ख़िलाफ़त से महरूम रखने को क्या जवाज़ है जिन्हें अपनी ज़िन्दगी में पैग़म्बर (स.अ.व.व.) खुद वक़्तन फ़वक़तन नमाज़ पढ़ाने का हुक्म देते रहे। चुनानचे आन हज़रत (स.अ.व.व.) जब ग़ज़वात में तशरीफ़ ले जाते तो नमाज़ की इमामत किसी न किसी से मुतालिक़ कर जाते थे , खुसूसन इब्ने मकतूब को जो नाबीना थे छोड़ जाते थे जैसा कि इब्ने क़तीबा तहरीर फ़रमाते हैं कि (रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) आम ग़ज़वात के मौक़े पर इब्ने उम्मे मकतूम को मदीने में छोड़ जाते थे ताकि वह लोगों को नमाज़ पढायें) 3

क्या इस इमामत से जो हज़रत अबुबकर की इमामत से बलिहाज़ मुद्दते तवील पर होती थी किसी को यह गुमान भी हुआ ता कि आन ह़रत (स.अ.व.व.) इब्ने उम्मे मकतूम को अपना ख़लीफ़ा व जॉनशीन मुक़र्रर करना चाहते हैं। इसके अलावा अपनी मौजूदगी में भी मुख़तलिफ़ मवाक़े पर मुक़तलिफ़ अशख़ास को इमामत की ख़िदमत सुपुर्द कर देते थे जिन में अबुलबाबा , सबा इब्ने अरफ़जा , अत्ताब इब्ने असीद , साद इब्ने अबादा , अबुज़रे ग़फ़्फ़ारी , जैद़ इब्ने हारसा , अबुसलमा मख़रूमी और अब्दुल्लाह इब्ने रवाहा शामिल थे। क्या उन लोगों में से जो बाहुक्मे पैग़म्बर (स.अ.व.व.) नमाज़ पढ़ाते रहे थे किसी एक ने भी इस नमाज़ से इस्तेहक़ाक़े ख़िलाफ़त को साबित करना चाहा था ? अगर ऐसा नहीं है तो फिर उसी नमाज़ को दलील ख़िलाफत क़रार देने के क्या मानी ? जबकि उसे दलील ख़िलाफ़त समझने वालों के नज़दीक यह दलीले अदालत भी नहीं बन सकती क्योंकि उनके मसलक में हर फ़ासिक व फ़ाजिर के पीछ नमाज़ जाएज़ है चुनानचे अबुहुरैरा का ब्यान है कि नमाज़ हर अच्छेऔर बुरे मुसलमान के पीछे पढ़ी जा सकती है ख़्वाह वह गुनाहाने कबीरा का मुरतकिब क्यों न होता हो। 1

क़लम व क़िरतास का अलमिया

इस्लाम रसूले अकरम (स.अ.व.व.) की ज़िन्दगी का सरमाया था जिसे ख़ून पसीना एक करके आपने मंज़िले तकमील तक पुहँचाया था। हर इन्सान का फ़ितरी ख़्वाहिश यह होती है कि उसकी मेहनतों और रियाज़तों का समर इम्तेदादे ज़माने से महफूज़ और तख़रीब कारों से बचा रहे। वह जि़न्दगी में भी उसकी निगेहदश्त करता है और वक़्ते आख़िर में भी उसकी तरफ़ से मुतमइन होकर दुनिया से रुख़सत होना चाहता है और जहां तक मुम्किन होता है ज़बानी या तहरीर वसीयत की शक्ल में उसका मुतक़बिल महफूज़ कर जाता है। ऐसी सूरत में क्या यह तसव्वुर किया जा सकता है कि पैगम़्बरे अकरम (स.अ.व.व.) इस्लाम के तहाफुज़ की फ़िक्र और उसकी बक़ा की तदबीर से ग़ाफ़िल रहे होंगे। जब कि आपकी फ़र्ज़ शनसी व मुबज़ी ज़िम्मेदारी का तकाज़ा यह था कि आप हर इस तदबीर क बरुवेकार लाये जिसेस इसालम का मुसतक़बिल महफूज़ रहे और उसके ख़िलाफ़ हर तख़रीबी कार्रवाई का सद्देबाब हो जाये। इस अहम ज़रुरत के पेशे नज़र आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने अपने सफ़रे आख़रत से तीनदिन पेशतर कागज़ व कलम तलब किया ताकि एक नविश्ता लिख कर छोड़ जायें जो रहती दुनिया तक हिदायत का काम दें और उम्मते मुस्लिमा ज़लालत व गुमराही से महफूज़ रहे मगर कुछ लोग इस तहरीर में आड़े आये और हज़रत उमर ने कहा कि पैगम्बर (स.अ.व.व.) पर मर्ज़ का ग़लबा है हमारे पास अल्लाह की किताब मौजूद है र हमारे लिये वह काफ़ी है। 2

ये बुखारी की रवायत है और बुख़ारी में यह वाक़िया इन अल्फाज़ में दर्ज हैः आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया कि तुम एक कागज़ लाओ मैं तुम्हारे लिए एक नविश्ता लिख दूँ जिसके बाद तुम कभी गुमराह नहीं होंगे इस पर लोग आपस में झगड़ने लगे हालाँकि नबी के पास झगड़ा मुनासिब न था लोगों ने कहा कि रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) पर हिज़यानी कैफ़ियत तारी है। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो मैं जिस हाल मैं हूं वह बेहतर है इस से कि जिसकी तरफ़ तुम मुझे बुलाते हो। 1

जब झगड़े ने तूल खींचा और शोर व गुल की आवाज़ें बुलन्द हुई तो पर्दे के पीछे से अजवाज़ें पैगम्बर (स.अ.व.व.) ने कहा , कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) जो मांगते है दो दो हज़रत उमर ने कहा कि तुम चुप रहा , तुम वही युस वालिया हो , जब पैगम़बर (स.अ.व.व.) बीमार पडते हैं तो आंसू बहाती हो और जब तन्दरूस्त हो जाते हैं तो उनकी गर्दन पर सवार हो जाती है। इस पर आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया कि यह तुम से तो बेहतर ही हैं। 2

पर्दे के अक़ब से यह आवाज़ आती रही मगर किसी ने उसकी तरफ़ तवज्जो नहीं दी और क़लम व काग़ज़ पेश करने से माने रहे हुज़ुरे अकरम (स.अ.व.व.) को दुनिया वालों की बेवफाई का ग़म , हुक्म की ख़िलाफ़ वर्ज़ी का मलाल , हिज़ान की तोहमत का सदमा और उस पर चीख़ व पुकार की दर्दे सरी , चुनानचे आपने कबीदा ख़ातिर होकर कहा (कुमू अन्नी यानी मेरे पास से दूर हो जाओ।)

तारीख़े इस्लाम का यह कितना अज़ीम अलमिया है कि सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) अपनी उम्मत की बहबूदी और उसे गुमराही से बचाने के लिये बसीयत लिखना चाहते हैं मगर उनकी आवाज़ शोर व गुल में दब कर रह जाती है और हसरत व अन्दोह के आलम में वह दुनिया से रुख़सत हो जाते हैं। इब्ने अब्बास इस वाक़िये को याद करक इतना रोते थे कि संगरेज़ें आँसूओं से तर हो जाते थे और गुलूगीर आवाज़ में कहते थे कि यह कितनी बड़ी मुसीबत है कि सहाबा के इख़तेलाफ़ और उनके शोर व हंगामे की वजह से रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) वसीयत न लिख सके। 3

इस वाक़िये में ताविलात का सहारा लिया गाय और अल्फाज़ के माने व मफ़हूम बदलने की कोशिश की गयी और पूरे मजमे को इस जुर्म का मुरतकब क़रार देकर असल मुजरिम की शख़्सियत पर पर्दा डाला गया मगर यह सब कोशिशें ब सूद साबित हुई और हक़ीकत छुपाये छिप न सकी। बुख़ारी की दोनों मुन्दर्जा रवायतों की यही सूरत है चुनानचे पहली रवायत में जहा पैग़म्बर (स.अ.व.व.) पर मर्ज़ के ग़लबे का ज़िक्र है कहने वाले नाम (हज़रत उमर) दर्ज किया गया है और दूसरी रवायत में जहां क़ौले पैग़म्बर (स.अ.व.व.) को हिज़यान से ताबीर किया गया है ताबीर करने वाले के नाम को छिपाने की कोशिश की गई है यानि जिस रवायत के अल्फाज़ हल्के और सुबक हैं वहा कहने वाला का नाम ज़ाहेर कर दिया जाता है और जिस रवायत के अल्फाज़ दुरुस्त , मज़मूम और नाज़ेबा हैं वहां कहने वाले का नाम नहीं लिया जाता मगर इस पर्दा पोसी से कोई नतीजा नहीं निकलता इस लिये कि जब सबी कह रहे थे तो जिसका किरदार उन सबमें नुमाया रहा हो वह उनसे अलहैदा क्यों कर तसव्वुर किा जा सकता है अगर ऐसा होता तो तारीख़ में बड़ी जली सुर्ख़ियों से उसका नाम आता और उस पर मदह व सताइश के फूल बरसाये जाते अलबत्ता बाज़ रवायत में कुल के बजाये बाज़ की तरफ़ निसबत है जैसा कि इब्ने साद तहरीर करते हैं कि कुछ लोगों ने जो वहां मौजूद थे यह कहा कि रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) शिद्दते मर्ज़ में बहकी बहकी बातें कर रहे हैं।) 1

इस रवायत में कहने वालों के दायरा पहले से महदूद हो गया है फिर भी लफ्ज़े बाज से कहने वाले की सही निशानदेही नहीं होती अलबत्ता शेख़ शहाबुद्दीन ख़फ़ाजी ने बाज़ दूसरे ओलमा की तरह इस (बाज़ पर से पर्दा उठाया है और साफ़ साफ़ लिख दिया है कि हजरत उमर ने कहा कि रसूले उल्लाह (स.अ.व.व.) बहकीबहकी बातेंकर रहे हैं।) 2

पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) पर हिज़यान की तोहमत ख़्वाह किसी तरफ़ से हो इन्तेहाई का मुज़ाहिरा है। नबूवत का अदना इरफ़ान रखने वाला थी इन लफ़्ज़ों को सुन कर लरज़ उठता है कि वही की तरजुमानी करने वाली ज़बान हिजयान आशना कैसे हो गई. हैरत है कि एक तरफ़ तो आपके लबों की हर जुंबिश को वही इलाही के ज़ेरे असर और हर हुक्म को हुक्मे रब्बानी का तरजुमान जाना जाता है और दूसरी तरफ़ हिज़यान की तोहमत आयद करके हुज़ूर (स.अ.व.व.) के इरशादात को बेएतमाद बनाने की कोशिश भी की जाती है। क़लम व कागज़ के तलब करने और वसीयत लिखने में बदहवासी की बात ही कौन सी थी बल्कि आपका इरशाद तो यह था कि (मैं एक नविश्ता लिख दूँ ताकि तुम कभी गुमराह न हों) आपके कमाले अक़ल और सेहते हवास का वाज़े तरीन सुबूत है फिर हिज़यान की तोहमत का क्या जवाज रह जाता है।

हुक्मे रसूल (स.अ.व.व.) से सरताबी के जवाज़ में यह तावील भी पेश की जाती है की दीन की तकमील हो चुकी थी वहीं का सिलसिला मुनक़ता हो चुका था लेहाज़ा अब किसी तहरीर की ज़रुरत ही क्या थी। बेशक दीन की तकमील हो चुकी थी मगर तकमील के माने यह तो नहीं है कि उम्मत भी तकमील हो चुकी थी अगर ऐसा होता तो न मुसलमानों के अक़ाएद में तसादुम होता न नज़रियात में तज़ाद पाया जाता और न ही मुसलमान मुख़तलिफ़ फ़िर्कों में तक़सीम होते यह बाहमी तफ़रिक़ा और गिरोह बन्दी सिर्फ़ गुमराही का नतीजा है जिसे दीन की तकमील रोक़ न सकी। उन्हीं फि़क्री व एतक़ादी गुमराहियों का सद्देबाब करने के लिये पैग़म्बर (स.अ.व.व.) नविशता तहरीर करना चाहते थे और यह कहना कि इस की ज़रुरत ही क्या थी तो हमें इश की ज़रुरत व अदम ज़रूरत पर फ़ैसला और राय ज़नी करने के बजाये रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) पर इस का फ़ैसला छोड़ देना चाहिये अगर वह इसकी ज़रूरत व अहमियत न समझते तो क़लम व काग़ज़ क्यों तलब करते। जब उन्होंने इस अमर को ज़रुरी समझा तो हमें ग़ैर ज़रुरी कहने का हक़ कहां से पहुँचता है और यह बात तो बिल्कुल ग़लत और बेबुनियाद है कि वही मुनकेता हो चुकी थी इसिलिये यह हुक्मे वही के मुताबिक़ न था। इन नज़रियात के हामिल अफ़राद को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिये किि वही का सिलसिला पै़गम्बर अकरम (स.अ.व.व.) की आख़िरी सांस तक क़ायम रहा। चुनानचे अनस बिन मालिक से रवायत है कि अल्लाह ने पैगम़्बर (स.अ.व.व.) पर वही का सिलसिला उनके मरते दम तक जारी रखा और सबसे ज़्यादा वही उस दिन नाज़िल हुई जिस दिन आपने रेहलत फ़रमायी। 3

इससे साफ़ ज़ाहिर है कि पैगम़्बर (स.अ.व.व.) जो कुछ कह रहे थे या जो कुछ करना चाहते थे वह वही इलाही के मातहत था मगर सियासी मसलहतों के पेशे नज़र न सिर्फ़ इसके आगे दीवार खड़ी कर दी बल्कि हिज़यान से ताबीर कर दिया गया ताकि रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) अगर लिख भी जायें तो उसे यह कह कर मुस्तरद किया जा सके कि यह हिज़यानी हालत में लिखी हुई तहरीर है जो क़ाबिले अमल नहीं है।

यह भी देखना ज़रूरी है कि आख़िर रसूले अकरम (स.अ.व.व.) क्या लिखना चाहते थे और उसकी ज़रुरत क्यों पेश आई ? तारीख़ व हदीस की किताबें गवाह हैं कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) बिस्तरे मर्ग पर भी और उससे पहले भी बारबार फ़रमाते ते किः-

(मैं तुमसे दो गरांक़द्र चीज़ें छोड़े जाता हूँ एक अललाह की किताब है जो एक मज़बूत रस्सी के मानिन्द और जिसकी एक सिरा आसमान और एक ज़मीन पर है और दूसरी मेरी इतरत (अहलेबैत (अ.स.) ) है और यह दोनों एक दूसरे से जुदा न हों यहा तक कि मेरे पास हौज़े कौसर पर वारिद हो। अगर तुम उन से वाबस्ता रहे तो मेरे बाद कभी गुमराह न होंगे और उनमें एक दूसरे से बढ़ कर हैं। 1

और जब रेहलत का ज़माना क़रीब आया तो अली (अ.स.) को हाथें पर बुलन्द करके फ़रमाया-

(यह अली (अ.स.) कुरान के साथ हैं और कुरान इनके साथ है यह एक दूसरे से जुदा न होंगे यचहां तक कि हौज़े कौसर पर पहुँचे , मैं इन दोनों से पूछूँगा कि तुम उनके हक में कैसे सिबात हुए। 2

पहली हदीस में हुजूरे अकरम (स.अ.व.व.) ने कुरान और अहलेबैत के इत्तेबा को ज़लालत व गुमराही से तहाफुज़ की सिपर क़रार दिया है जिसे इन लफ़्ज़ों में ब्यान किया है कि (मेरे बाद तुम कभी गुमराह न होंगे) इसेसे हर जी शऊर और बाहमी इन्सान यह नतीजा अखज़ कर सकता है कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने गुमराही से बचने के लिये जिस चीज़ का क़ौलन ऐलान किया था उसी को अमलन तहरी में लाना चाहते थे ताकि हर लेहाज़ से हुज्जत तमाम हो जाये और आपके बाद रहनुमाई के लिये उन्हीं पर इनहेसार किया जाये गोया एक तरह से यह आपकी नियाबत व जॉनशीनी का दस्तावेज़ थी जिसका आप पहले से इज़ाहर करते चले आ रहे थे और ग़दीरे ख़ुम में भई इसका ऐलान कर चुके थे। इस ऐलान से अगर चे फ़रीज़ये तबलीग़ अदा हो गया था मगर जैश उसामा में बाज़ लोगों के मुख़तलिफ़ तबलीग़ अदा हो गया ता मगर जैश उसामा में बाज़ लोगों के मुख़तलिफ़ और दूसरे क़राईन से ज़ाहिर हो रहरा था कि कुछ लोग इस की अमली तबलीग़ में माने होंगे इसलिये आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने ज़बानी ऐलान को तक़वीयत देने के लिये इसे तहरीरी शक्ल में पेश करना ज़रुरी समझा ताकि इस तहरीरी दस्तावेज़ के होते हुए इसके ख़िलाफ़ कोई तख़रीबी इक़दाम मुम्किन न हो सके। हज़रत उमर भी इस बात से बेख़बर न थे कि रसूले अकरम (स.अ.व.व.) कुरान के साथ अहलेबैत के इत्तेबा को ज़रुरी समझते हैं और हज़रत अली (अ.स.) के बारे मे वसीयत लिखना चाहते हैं और यह चीज़ उनके मुस्तक़बिल की राह में हायल हो सकती इसलिये उन्होंने हसबोना किताबुल्लाह का नारा बुलन्द करके इसकी ज़रुरत ही से इन्कार कर दिया। यह फि़करा अगर चे एक हंगामी ज़रुरत व मसलहत की बिना पर अपने अक़ाएद की बुनियाद क़ायम कर ली और कुरान के अलावा हदीस तक की ज़रुरत से इन्कार कर दिया। हालाँकि कुरान को काफ़ी कहने के बावजूद हज़रत उमर ख़ुद इस के नाकाफ़ी होने का एतराप़ करते हुए हदीसों के मोहताज नज़र आते हैं। चुनानचे ख़िलाफ़त के मसले में जब मुहाजेरीन व अनसार के दरमियान झगड़े की सूरत पैदा हुई तो आपने कुरान को झगड़े के ख़त्म करने का ज़रिया क़रार देने के बजाये (अलआइम्मतो मिन कुरैश) (इमाम कुरैश में से होंगे) अपने नाजाएज़ हक़ की फ़ौक़ियत का इस्तेदलाल किया और विरासते रसूल (स.अ.व.व.) के बारे में कुरान से दलील ढूँढने के बजाये एक वज़ई हदीस (हम गिरोहे अन्बिया किसी को अपना वारिस नहीं छोड़ते) पर एतबार व एतमाद किया। और जिन मौक़ों पर उन्होंने (लौला अलीउल हलाक उमर) (अगर अली न होते तो उमर हलाक हो जाते) कहा वहां कुरान को बालाये ताक़ रख कर हजरत अली (अ.स.) से मदद व रहनुमाई के तलबगार रहे। इससे यह बात वाज़ेह हो जाती है कि वह कुरान को काफ़ी कहते हुए भी नाकाफ़ी समझते थे और सिर्फ़ कुरान ही पर इनहेसार नहीं करते थे बल्कि हदीसों को भी क़ाबिले अम्ल समझते थे और यह हक़ीक़त भी है कि कुरान अपनी जामीयत के बावजूद अपने हक़ीक़ी तरजुमान के बग़ैर काफ़ी नहीं हो सकता वरना फिर तो रसूल (स.अ.व.व.) की ज़रुरत से भी इन्कार करना पड़ेगा।

रसूले अकरम (स.अ.व.व.) का सफ़रे आख़रत

अपनी रेहलत से एक दिन क़बल आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने हज़रत अली (अ.स.) को तलब करके फ़रमाया कि ऐ अली (अ.स.) ! मुझे महसूस होता है कि मौत मुझसे क़रीब तर होती जा रही है लेहाज़ा मैं इस दुनिया से रूख़सत हो जाऊँ तो तुम ही मुझे गुस्ल देना , क़फन पहनाना और क़ब्र में उतारना। मैंने लोगो से जो वादे कर लिये हैं उन्हें पूरा करना और जैश उसामा की तैयारी के सिलसिले में मुझ पर जो क़र्ज़ा है उसे अदा कर देना।

दूसरे दिन काशनाये नबूवत पर मौत के बाद मण्डराने लगे और आन हज़रत (स.अ.व.व.) पर निज़ा की कैफियत तारी हो गई वक़्त करीब था कि आपकी रूह अपने मरकज़ की तरफ़ परवाज़ कर जाये कि ग़शी से आँखें खोलीं और फ़रमाया , मेरे हबीब को बुलाओ। हज़रत आयशा का ब्यान है किः-

(जब पैगम़्बर (स.अ.व.व.) का वक़्त करीबआया तो आपने फ़रमाया कि मेरे हबीब को बुलाओ तो मैंने अपने वालिद अबुबकर को बुलाया , उन्हें देखकर रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ने मुँह फेर लिया। फिर फ़रमाया , कि मेरे हबीब को बुलाओ , कोई हज़रत उमर को बुला लाया आपने उनकी तरफ़ से भी मुँह फेर लिया , तीसरे मर्तबा फिर फ़रमाया कि मेरे हबीब को बुलाओ तो अली (अ.स.) को बुलाया गया। जब वह आये तो आपने उन्हें चदर में ले लिया और कुछ राज़ व नियाज़ करने लगे , यहां तक कि आप इन्तेक़ाल फ़रमाय गये उस वक़्त आपका हाथ अली (अ.स.) के ऊपर रखा था।) 1

सही बुख़ारी , सिर्रूउलआलीमीन , अलवाफ़ी और मिशकात की रवायातों से इस बात का सुबुत फ़राहम होता है कि हुज़ूर सरवरे कायनात (स.अ.व.व.) को मदीने में बिस्तरे अलालत पर ज़हर दे कर शहीद कर दिया गया। 2

यह आलमे इस्लाम का अज़ीम तरीन हादसा था जो 28 सफ़र सन् 11 हिजरी बरोज़ पंचशन्बा रूनुमा हुआ। इस सानिहे से यूं तो हर शख़्स मुतासिर था मगर आन हज़रत (स.अ.व.व.) के अफ़रादे ख़ानदान और बनि हाशिम पर ग़म अन्दोह का पहाड़ टूट पड़ा। दुख़तरे रसूल (स.अ.व.व.) का यह हाल था कि गोया उनसे ज़िन्दगी छिन गई हो उनके बच्चे नाना के ग़म में तड़प रहे थ और हज़रत अली (अ.स.) की दुनिया बदल चुकी थी रगो में खून मुनहमिद होकर रह गया था और इन्तेहाई सब्रो ज़ब्त के बावजूद आपकी आँखों से आँसूओं का सेलाब उमण्ड रहा था आप ने रोते हुए अपना हाथ आन हज़रत (स.अ.व.व.) के चेहरये अक़दस से मस किया और अपने मुँह पर फेरा , मय्यत की आँखें बन्द की और लाशे अतहर को चादर से ढ़क दिया और हस्बे वसीयत गुस्ल व कफ़न की तरफ़ मुतावज्जे हो गये। इब्ने साद कहते हैः-

(जब रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ने इन्तेक़ाल फ़रमाया तो आप कासरे अक़दस हज़रत अली (अ.स.) की गोद में था और अली (अ.स.) ही ने आप को गुस्ल दिया। फ़जडल अब्ने अब्बास आन हज़रत (स.अ.व.व.) को संभाले हुए थे और असामा पानी देते जाते थे। 2

जब अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) गुस्ल से फ़ारिग़ हो गये तो क़फ़न पहनाया और तन्हा नमाज़ पढ़ी। मस्जिद में जो लोग मौजूद थे वह बाहम मशविरा कर रहे थे कि किसे नमाज़े जनाज़ा की इमामत पर मुक़र्रर करें और कौन सी जगह दफ़्न के लिये तजवीज़ करं। कुछ लोगों की राय थी कि सहने मस्जिद में दफ़्न किये जायें और कुछ कह रहे थे कि जन्नतुल बक़ी में दफ़्न हों। हज़रत अली (अ.स.) को मालूम हुआ तो बाहर तशरीफ़ लाये और फ़रमाया कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ज़िन्दगी में भी हमारा इमाम व पेशवा थे और रेहलत के बाद भी हमारे इमाम व पेशवा हैं वह उसी मुक़ाम पर दफ़्न किये जायेंगे जहां उन्होंने रेहलत फ़रमायी है। चुनानचे बनि हाशिम फिर मुहाजेरीन और फिर अन्सार ने बारी बानी नमाज़ अदा की अलबत्ता एक गिरोह जो तशकीले हुकूमत की फिक्र में था तजहीज़ व तकफ़ीन में शिरकत और नमाज़े जनाज़े की सआदत से महरूम रहा। नमाज़े जनाज़े के बाद उसी हुजरे में जहां आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने इन्तेका़ल फ़रमाया था ज़ैद इब्ने सुहैल से कब्र ख़ुदवाई गई। हज़रत अली (अ.स.) ने अपने हाथों से कब्र में उतारा और आफ़ताबे रिसालत लोगों की नज़रों से पोशीदा हो गया।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) की वफ़ात से मदीने की फ़िज़ां सोगवार थी , माहौल पर कर्बनाक सुकूत छाया हुआ था , दरोदिवार पर वहशत बरस रही थी , हर शख़्स अशकबार था , हर घर मातम कदा बना हुआ था , मुसलमान मस्जिदे नबूवी और उसके गिर्द व पेश जमा थे कि अचानक इस गम अंगेज़ माहौल में एक आवाज़ बुलन्द हुईः-

(कुछ मुनाफ़िकों का यह ख़्याल है कि रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) वफ़ात पा गये हालाँकि ख़ुदा की क़सम वह मरे नहीं हैं बल्कि अपने परवरदिगार के पास गये हैं , जिस तरह मूसा इब्ने इमरान गये थे और चालिस रातें अपनी क़ौम से पोशीदा रहने के बाद पलट आये थे इसी तरह रसूले ख़ुदा (स.अ.व.व.) भी पलट कर आयेंगे और उनके हाथों और पैरों को काटेंगे जो यह कहते हैं कि पैग़म्बर वफ़ात पा गये हैं। 1

फिर तहदीदी लहज़े में यही आवाज़ गूँजीः-

(जो शख़्स यचह कहेगाकि रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) मर गये हैं मैं उसकी गर्दन उडा दँगा। पैगम़्बर (स.अ.व.व.) तो आसमान पर उठ गये हैं। 1

ये आवाज़े हज़रत उमर के दहन से निकल रही थी जो इस बात पर अड़े हुए थे कि रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ज़िन्दा हैं और उनकी मौत की ख़बर मुनाफ़ेकीन ने उड़ाई है। उन्होंने अपनी बरहैना तलवार से लोगों को डरा धमका कर उनकी ज़बानों पर जबरन व क़रहन पहरा बिठा दिया ताकि इसके खिलाफ़ कोई आवाज़ बुलन्द न हो इब्ने कसीर का ब्यान है किः-

हज़रत उमर खड़े होकर खुतबा देने लगे और सरकार दो आलम (स.अ.व.व.) की वफ़ात के बारे में लब कुशाई करने वालों को क़त्ल की धमकियों देने लगे और कहने लगे कि रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) अभी बेहोश प़ड़े हैं अगर उन्हें होश आय गया तो तुम्हारी जानों की ख़ैर नहीं है वह तुम्हे क़त्ल कर देंगेऔर तुम्हारे हाथ पैर काट डालेंगे।

हज़रत उमर की इस क़हरी आवाज़ का असर यह होना ही था कि लोगों के ख़्यालात मुन्तशिर और परागन्दा हो जायें , ज़ेहनों के रूख मुंड़ जायें और मौज़ूए सुखन बदल जाये चुनानचे अफ़सुरदा व सोगवार मज़मा हैरत से एक दूसरे का मुँह तकने लगा और ग़मज़दा माहौल में यह चेमिनगोइयां शुरू हो गई कि क्या वाक़ई पैग़म्बर इस्लाम (स.अ.व.व.) ज़िन्दा हैं या रेहलत फ़रमां गये ? अगर चे सुनने वालों का ज़ेहन इस बात को तस्लीम करने पर तैयार न था और तस्लीम करने की कोई वजह थी मगरदबी दबी ज़बान में इज़हार , ख़्याल के अलावा किसी मे यह हिम्मत व जुराएत न हुई कि वह यह कहता कि अन्दर चलकर आन हज़रत (स.अ.व.व.) की मय्यत देख कर यह इत्मिनान कर लिये जाये। क्योंकि जि़न्दगी को अपना वजूद साबित करने में किसी मुश्किल का सामना नीहं पड़़ता और न मौत को अपना सुबूत मोहय्या करने मे कोई दुश्वारी पेश आती है लेकिन सब ख़ामोश हैं और हज़रत उमर को तलवार घुमाते देखकर न उनके ख़िलाफ़ कुछ कहते बन पड़ती है और न हां में हां मिलाने के लिये कोई तैयार है इसलिये कि हज़रत उमर कभी यह कहते हैं कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) बेहोशी की हालत में हैं , कभी यह कहते हैं कि आसमान पर उठ गये और कभी यह कहते हैं कि वह मूसा (अ.स.) की तरह ग़ैबत इख़तेयार कर चुके हैं। कि बातको सही कहा जाये और किसको ग़लत।

अगर इसे बेहोशी कहा जाये तो बेहोशी और मौत में वाज़ेह फ़र्क़ है। बेहोशी में सांस की आमद व शुद का सिलसिला बरक़रार रहता है और मौत में यह सिलसिला क़ेा हो जाता है। लेहाज़ा वह इस अलामत से दूसरों को भी क़ायल कर सकते थे तलवार के बल बूत पर डराने धमकाने की ज़रूरी ही क्या थी ? और अगर आसमान पर उठ जाने वाली बात को सही समझा जाये तो यह समझ में आने वाली बात ही नहीं है। इसलिये कि ये इरतेफ़ा सिर्फ़ रूह का था या जिस्म भी शरीख था अगर सिर्फ रूह ने आसमान की तरफ़ परवाज़ की थी तो ज़ाहिर है कि इसी का नाम मौत है और अगर जिस्म भी साथ था तो यह मुशाहिदे के ख़िलाफ़ था क्योंकि जिस्म अपने मुक़ाम पर मौजूद था। और अगर यह ग़ैबत थी तो कैसी थी और क्यों थी ? क्या आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने अपनी ज़िन्दगी मे इसके बारे में कोई ज़िक्र या इशारा किया था ? और फिर इसमें और हज़रत मूसा (अ.स.) की ग़ैबत मं क्या मुमासिलत ? हज़रत मूसा (अ.स.) तो जिस्म व रूह के साथ चालिस रातों के लिये तूर पर गये थे और तौरेत लेकर पलट आये थे और यहां आन हज़रत (स.अ.व.व.) का जनाजा़ बेहिस वहरकत आँखों के सामने मौजूद था न कहीं नक़ल मकानी हुई न उनका जसदे अतहर नज़रों से ओझल हुआ। फिर वह कौन सी चीज़ ग़ायबप हुई थी जिसके मुतालिक यह कहा गया कि वह पलट आयेंगे। इसी ग़ैबत को हजरत मूसा (अ.स.) की ग़ैबत से तशबीह देने का तक़ाजा़ तो यह था कि जिस तरह हज़रत (अ.स.) गै़बत के दिनों मे अपने भाई हारून को नायब व जॉनशीन बना कर छोड गये थे उसी तरह पैग़म्बर (स.अ.व.व.) भी किसी को अपना जॉनशीन बना कर उम्मत में छोड़ जाते और फिर उनके मुक़र्रर करदा नायाब की निशानदेही की जाती मगर उधर ज़ेहन का रूख नहीं मुड़ता या मसलहतन इस का ज़िक्र ज़बान पर नहीं आता।

इसके अलावा यह बात भी दरियाफ़्त तलब है कि वह मुनाफ़ेक़ीन कौन थे जिन्होंने आन हज़रत (स.अ.व.व.) की मौत की ख़बर उड़ाई थी जबकि यह ख़बर ख़ुद हुज़ूर के घर के अन्दर से आई थी जहाँ अज़वाजे पै़ग़म्बर (स.अ.व.व.) , जनाबे फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) , हज़रत अली , हज़रत हसन (अ.स.) , हज़रत हुसैन (अ.स.) , अब्बास , अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास , फ़जल इब्ने अब्बास , अब्दुल्लाह इब्ने जाफ़र और दूसरे बनि हाशिम मौजूद थे। क्या ये अफ़राद भी मुनाफ़ेक़ीन में शामिल थे ?

ग़र्ज़ कि सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) की मौत के सिलसिले में हज़रत उमर ने उलझाव तो पैदा ही कर दिया था और ख़ुदा जाने वह कब तक इस उलझाओ को बरकरार ऱखते अगर हज़रत अबुबकर आन हज़रत (स.अ.व.व.) की रेहलत की ख़बर सुन कर मुहल्ले सख़ से न आ जाते और लोगों को मुख़ातिब करके यह ऐलान न करते किः-

(जो शख़्स मुहम्मद (स.अ.व.व.) की परस्तिश करता है उसे मालूम होना चाहिये कि मुहम्मद (स.अ.व.व.) वफ़ात पा गये। फिर यह आयत पढ़ी कि (मुहम्मद (स.अ.व.व.) अल्लाह के रसूल ही तो हैं और उनसे पहले भी रसूल गुज़र चुके हैं अगर वह अपनी मौत मर जायें या क़त्ल कर दिये जायें तो तुम उलटे पैरों कुफ्र की तरफ पलट जाओगे और जो उलटे पैरों कुफ़्र की तरफ़ पलटेगा वह अल्लाह का कुछ नहीं बिगाड़ सकता और ख़ुदा जल्द ही शुक्रगुज़ार को बदला देगा। 1

हज़रत उमर ने हज़रत अबुबकर की ज़बान से जब यह तक़रीर सुनी तो वह हैरत व इस्तेज़ाब का इज़हार करते हुए कहने लगे कि। क्या यह आयते कुरान में हैं ? मुझे तो यह मालूम ही न था कि यह कुरान की आय़त हैः- फिर कहा ऐ लोगों यह अबुबकर हैं जिन्हें मुसलमानों में सबक़त हासिल है , उनकी बैयत करो।

हज़रत उमर के इस इन्कारे , पुर ज़ोर और फ़ोरी एतराफञ को देख कर हर ग़ैर जानिबदार शख़्स यह नतीजा अख़िज़ कर सकता है कि यह इन्कार किसी मसलहत की बिना पर रहा होगा वरना जिस पर ख़बरे मार्ग इस हद तक असर अन्दाज़ हो िक वह अपने होश व हवास खो बैठे वह इस क़ाबिल कब रह सकता है कि मय्यत रखी हो और वह गुस्ल व क़फ़न और दूसरे अमूर से बे नियाज़ हो कर हुकूमत की तदबीर व फिक़्र करने लगे और सफे मातम से उठकर सक़ीफ़ा बनि साएदा में अन्सार स बहस व मुबाहिसा और धींगामुश्ती करके अपने हक़ को साबित करें और यह भूल जाये कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की मय्यत अभई गुस्ल व क़फ़न के मरहले से नहीं गुज़री। हुकूमत व इक़तेदार के सामने जिस शख़्स को पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की तजहीज़ व तकफ़ीन का फ़िक्र व परवा न हो उसके लिये यह क्यों कर सोचा जा सकता है कि वह इन्तेक़ाल की ख़बर सुनकर अपने होश व हवास खो बैठा होगा और इसी जुनूनी हालत में उसने वफ़ाते पैग़म्बर (स.अ.व.व.) से इन्कार कर दिया होगा। हक़ीक़त यह है कि हज़रत उमर इतने बेख़बर न थे कि उन्हें पैगम़्बर (स.अ.व.व.) की मौत का यक़ीन न होता या उनके हवास इस क़दर मुतासिर होते कि वह तलवार घुमा गुमा कर आयें , बायें , शायें बकने लगते जो क़तअन ख़िलाफ़े मुशाहिदा था लेहाज़ा यह तस्लीम करना पड़ता है कि यह वक़्ती और हंगामी इन्कार बाज़ अहम सियासी मसालेह की बिना पर था।

इस सियासी मसलहत को समझने के लिये वाक़ियात और उनके पस मन्ज़र पर एक सरसरी नज़र डालने की ज़रूरत है। तारीख़ गवाह है कि हज़रत अली (अ.स.) दावते इस्लाम के दौरे आगाज़ से ज़मानये एहतेशाम तक इस्लाम की ख़िदमत व नुसरत पर कमर बसता रहे और पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) उन्हीं के ज़रिये इस्लाम और इस्लामी तालीमात को तहाफुज़ फ़राहम करना चाहते थे जिसका ऐलान दावते जुलअशीरा से लेकर हुज्जतुल विदा तक और हुज्जतुल विदा से लेकर ज़ि्न्दगी की आख़िरी सांस तक मुख़तलिफ़ तरीख़ों से करते रहे इसी बिनी पर सहाबये कराम , मुहाजेरीन और अन्सार को इस अमर में ज़रा भी शुबा न था कि अली (अ.स.) ही मसनदे ख़िलाफ़त पर मुतमकिन होंगे। इब्ने अबिल हदीद का कहना है कि (मुहाजेरीन व अन्सार की अक़सिरयत को इसमें शक नहीं था कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के बाद अली(अ.स.) ही वलीये होंगे। 2

(यही वजह थी कि रसूल (स.अ.व.व.) की ज़िन्दगी के आख़िरी दौर यानि सन् 8 हिजरी के अवाएल में ही कुछ शरपसन्दों और मुनाफ़ेक़ीनों ने आपके ख़िलाफ़ साज़िशों का आगाज़ कर दिया था जिसकी सबसे बड़ी दलील सूरहे मुनाफ़ेकून का नुजूल है। यह तमाम साज़िशों रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) के इर्द गिर्द रहने वाले अफ़राद और मुनाफ़िक़े सहाबा की आग़ोशे मुनाफ़ेक़त में पल और बढ़ रही थी। उनका ख़ास सबब पैगम़्बर (स.अ.व.व.) की जॉनशीनी , इस्लामी क़यादत और इक़तदार का मसला था।)

(इन साजिशों में शिद्दत व सरअत उस वक़्त पैदा हुई जब सन 6 हिजरी में पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) तीस हज़ार ( 30000) का लश्कर लेकर शहनशाहे रोम (हरक़ुल) के मुक़ाबिले को निकले और तबूक नामी बस्ती में उन्नीस दिन तक क़याम फ़रमां रहे मगर चूंकि जंग की नौबत नहीं आई इस लिये बीसवें दिन आपने मराजेअत फ़रमायी।)

(वाज़ेह रहे कि इस मारके में रसूल ऊकर् (स.अ.व.व.) तमाम जंगों के फ़ातेह हज़रत अली (अ.स.) को अपने साथ नहीं ले गय जिस पर अमीरूल मोमनीन अली इब्ने अबुतालिब (अ.स.) कबीदा ख़ातिर हुए और आपने शिकवा भी किया हूजुर (स.अ.व.व.) ने फ़रमाया ऐ अली (अ.स.) तुम मेरे जॉनशीन और ख़लीफ़ा हो इसलिये तुम्हारा यहां रहना और मेरा वहां जाना मुनासिब था। 1 और मदीने की हालत सिर्फ मेरे या तुम्हारे रहने ही से दुरूस्त रह सकती है। 2

दहने नबूवत से निकले हुए जुमलों से साज़शी यक़ीनन यह समझ गये होंगे कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने हज़रत अली (अ.स.) को अपना ख़लीफ़ा और जॉनशीन मुक़र्रर करना तय कर लिया है चुनानचे साज़शी गिरोह ने तबूक की वापसी पर रसूले अकरम (स.अ.व.व.) की शम्मे हयात गुल कर देने की नाकाम व नापाक कोशिश भी की जो तारीक़ में (वाक़ए अक़बा) के नाम से मशहूर है। इसमें कोई शक नहीं कि यह इक़दाम इस्लाम में पहला शैतानी इक़दाम था।

इस वाक़िये के बाद इसी सन् 6 हिजरी में एक वाक़िया और रूनुमा हुआ जिसने मुनाफ़ेक़ीन की साज़शी मसरूफ़ियात में मज़ीद तेज़ी पैदा कर दी और वह यह कि माहे ज़िलहिज में आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने हज़रत अबुबकर को सूरये बरात की तबलीग़ पर मामूर फ़रमाया फिर यह कहकर माज़ूल कर दिया कि इस काम के बारे में परवरदिगार का हुक्म है कि इसे मैं करूं या जो मेरी जुर्रियत में शामिल हो कोई दूसरा इसे अन्जाम देने का मजाज़ नहीं है। चुनानचे रास्ते मं हज़रत अली (अ.स.) ने जब सूरये बराअत की आयतें उनसे लेकर उन्हें मदीने वापस किया तो ये रसूल (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में आकर रो पडे। 3 जाहिर है कि हज़रत आयशा अबुबकर की बेटी थी लेहाज़ा बाप की तौहीन व तज़लील पर उन्हें फ़ितरतन सदमां ज़रुर होगा। एक रवायत से यह भी पता चलता है कि हज़रत अबुबकर के साथ हज़रत उमर भी थे और वह भी माज़ूल किये गये।

सन् 10 हिजरी में पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने आख़िरी फ़रीज़ये हज अदा किया। अल्लामा तरीही का कहना है कि इस मौक़े पर अबुबकर , उमर , अबुअबीदा , अब्दुल रहमान और हुज़ैफ़ा के गुलाम सालिम ने ख़ान-ए-काबा में यह अहद किया कि वह ख़िलाफ़त को बनि हाशिम में नहीं जाने देंगे ख़्वाह इस सिलसिले में कुछ भी करना पड़े। लुत्फ की बात तो यह है कि एक तरफ़ साज़िशी हज़रत अली (अ.स.) की ख़िलाफ़त से महरूम रखने के लिये खान-ए-काबा में अहद व पैमान बाँध रहे थे और दूसरी तरफ़ परवर दिगारे आलम अपन रसूल (स.अ.व.व.) को हुक्म दे रहा था कि ऐ रसूल! तुम पर जो कुछ नाज़िल किया गया है उसे फ़ौरन पहुँचा दो और अगर तुमने ऐसा न किया तो गोया कारे रिसालत अन्जाम ही नहीं दिया।

रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) जब हज से फ़ारिग़ हुए और उनके साथ एक अज़ीम काफ़िला पलटा तो आप (स.अ.व.व.) ने जुलअशीरा मे किये गये वादे और हुक्मे इलाही के मुताबिक़ (मन कुन्तों मौला का हाज़ा अली उन मौला) कह कर मुसलमानों पर अपने जैसा हाकिम बना दिया। और इस सन् 10 हिजरी में अबनाअना , निसाअना व अनफ़ुसना की अमली तफ़सीर के ज़रिये अहलेबैत (अ.स.) में शामिल हज़रत का तार्रूफ़ भी करा दिया।

साशियों-और-साज़िशों से पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) बेख़बर हरगिज़ न थे अगर बेख़बर होते तो अपनी ज़िन्दगी के आख़िरी अय्याम में ऐेसे अहकाम सादिर न फ़रमाते जिनसे अकाबरीने साहाब ने न सिर्फ़ इख़तेलाफ़ किया बल्कि ऐसी नाफ़रमानियों और गुस्ताख़ियों पर उतर आये कि सरवरे क़ायनात (स.अ.व.व.) को लानत जैसा अबदी हरबा इस्तेमाल करना पड़ा। जैश उसामा के वाक़ियात से यह तमाम बातें आशकार हैं।इस वाक़िये के बाद तमाम साज़िशी ख़ुल कर सामने आ गये वहां तक कि वक़्ते आख़िर सब सरवरे कायनात (स.अ.व.व.) ने उम्मते मुस्लिना को गुमराही से बचाने और ख़िलाफ़त सरवरे कायनात (स.अ.व.व.) ने उम्मते मुस्लिमा को गुमराही से बचाने और ख़िलाफ़त के इशकाल को दूर करने के लिये क़लम व कागज़ का मुतालिब किया तो आपके इस मुतालिबे को हिज़यान से ताबीर कर दिया गया।

इन तमाम उमूर से साफ़ ज़ाहिर है कि सहाबा में एक गिरोह ऐसा भी था जो नबूवत व ख़िलाफ़त को एक ही घर में देखना पसन्द न करता था। इस न नापसन्दीदगी की वजह यह थी कि वह लोग खु़द अपनी हुकूमत क़ायम करना चाहते थे। चुनानचे उन्होंने पैगम़्बर (स.अ.व.व.) की ज़िन्दगी ही में इक़तेदार का रास्ता हमवार करना शुरू कर दिया और हर इस कार्रवाई के आगे दीवार खड़ी करने की कोशिश करने लगे जो उनके मुक़ासिद की राह में हायल हो सकती थी रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) बिस्तरे मर्ग पर क़लम काग़ाज़ तलब करते हैम मगर हंगामा खड़ा करके उन्हेी वसीयत नामा लिखने से रोक दिया जाता है ताकि अली (अ.स.) की नियाबत के मुताअल्लिक तहरीरी दस्तावेज़ न छोड़ जायें। फिर उन्हीं अय्याम मे एक को हुक्म देते हैं कि वह लश्करे उसामा में हों मगर उसे अमलन मुस्तरद कर दिया जाता है कि उन की अदम मौजूदगी की वजह से ख़िलाफ़त किसी दूसरी तरफ़ मुनतक़िल न हो जाये और जब पैगम्बर (स.अ.व.व.) दुनिया से रेहलत फ़रमाते हैं तो इस ख़तरे का इन्सेदाद भी ज़रूरी समझा जाता है कि कहीं अन्दर ही अन्दर अली (अ.स.) के हाथ बर बैयत न हो जाये और ऐसा हो भी जाता अगर अमीरूल मोमेनीन (अ.स.) ये गवारा कर लेते कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के गुस्ल व कफ़न से पहले बैयत हो जाये मगर उन्होंने इसे गवारा न किया। चुनानचे बिलज़री का कहना है किः- जब रसूले खुदा (स.अ.व.व.) रेहलत फ़रमा गये तो अब्बास ने कहा ऐ अली (अ.स.) ! बाहर निकलये ताकि मैं लोगों के रूबरू आपकी बैयत करूं मगर अली (अ.स.) ने इन्कार किया और कहा कि कौन हमारे हक़ से इन्कार कर सकता है और कौन हम पर मुसल्लत हो सकता है। अब्बास ने कहा फिर देख लीजियेगा कि ऐसा हो कर रहेगा।) 1

हज़रत उमर भी इसी साज़िशी गिरोह की एक फ़र्द थे जो नबूवत और ख़िलाफ़त को एक ही घर में देखना न चाहता था , उन्हें यह अन्देशा लाहक़ हुआ कि अली (अ.स.) के हक़ में अब्बास की तरफ़ से बैयत की तहरीक कहीं अमली शक्ल न इख़तियार कर जाये इसलिये वह इस तहरीक को उभरने से पहले दबा देना चाहते थे चुनानचे उस वक़्त कोई तदबीर न सूझी तो पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के ज़िन्दा होने का शाख़साना खड़ा कर दिया ताकि अली (अ.स.) के हाथ पर फ़ौरी बैयत का सवाल ही पैदा न हो।

यह तदबीर एक हद तक कामयाब हुई और लोगो ने हज़रत (स.अ.व.व.) की मौत व हयात का मसला छिड़ गया और वह हज़रत अबुबकर के आने तक इसी मसले में उलझे रहे यहां तक कि उनके आते ही वह तमाम शोर व हंगामे जो आन हज़रत (स.अ.व.व.) को ज़िन्दा साबित करने के लिये था एक दम ख़त्म हो गया और उन्होंने ऐसा जादू चलाया कि हज़रत उमर ने फ़ौरन अपना मौक़फ़ बदल दिया और आन हज़रत (स.अ.व.व.) की रेहलत के एतराफ़ के साथ हज़रत अबुबकर की बैयत का मुतालिबा भी शुरू कर दिया। यह मुतालिबा उन्हें तसव्वुरात व ख़्यालात का रद्दे अमल था जो ख़िलाफ़त के सिलसिले में उनके ज़ेहन मे नशोंनुमा पा रहे थे और जसिके बारे में आख़िरी हज के दौरान खान-ए-काबा में अहद व पैमान हो चुका था। वरना जब दावा ये है कि ख़िलाफ़त जमहूर की राय पर मुनहसिर है तो बैयत के मुतालेबात का जवाज़ ही क्या था जबकि न अभी इन्तेख़ाब अमल में आया था न राय आमा मालूम की जा सकती थी। ग़र्ज़ इस मुतालबए बैयत के बाद ये हक़ीकत छिप नहीं सकती कि वफ़ाते रसूल (स.अ.व.व.) से हज़रत उमर का इन्कार न हवास की परागन्दगी की बिना पर था और आयते कुरनी से बे ख़बरी व नावाक़फ़ियत की वजह से बल्कि सियासी ज़रूरत के पेशे नज़र था ताकि ख़िलाफ़ते रसूल (स.अ.व.व.) के सिलसिले में कोई आवाज़ अली (अ.स.) के हक़ में बुलन्द हो तो उसे दबाया जा सके और फिर जमहूर की आड़ लेकर अपनी मर्ज़ी की हुकूमत क़ायम की जा सके। चुनानचे सक़ीफ़ा के वाक़ियात इस अमर के गवाह है कि इस साज़शी गिरोह के अराकीन ने पैगम़्बर (स.अ.व.व.) की तजहीज़ व तक़फ़ीन पर हुकूमत की तशकील को मुक़द्दम समझा और अन्सार को सियासी शिकस्त दे कर हुकूमत क़ायम कर ली। यह कामयाबी जमहूर की मरहूने मिन्नत न थी बल्कि हज़रत उमर की सियासी बसीरत और मौक़े शनासी की एहसान मन्द थी।)

अज़वाजे पैग़म्बर (स.अ.व.व.)

तारीख़ गवाह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) की पहली शादी हज़रत ख़दीजतुल कुबरा बिन्ते खुलीद से हुई थी और उनकी ज़िन्दगी मे आपने कोई दूसरा अक़द नहीं फ़रमाया। पच्चीस ( 25) बरस तक उम्मुल मोमेनीन ख़दीजा आप की रफ़ीक़ये हयात , दुख सुख की साथी और मोईन व मददगार है पच्चीस साल के बाद जब आप की उम्र पचास साल की थी तो मौत के हाथों ने उस पुर अज़मत व बाविक़ार और फ़रमाबरदार व ग़मगुसार बीवी को आपसे जुदा कर दिया। उन मोअज़्ज़मा के इन्तेक़ाल के बाद आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने ख़ुद उनकी इताअत गुज़ारी का ज़िक्र करते हुए एक मौक़े पर फ़रमाया है कि (खु़दा ने मुझे ख़दीजा से बेहतर बीवी अता नहीं की वह उस वक़्त मुझ पर ईमान लायीं जब तमाम लोग मेरे मुन्किर थे , उस वक़्त उन्होंने मेरी रिसालत की तसदीक़ की जब सब मुझे झुटला रहे थे और उस वक़्त उन्होंने मुझे मालो ज़र से सहारा दिया जब सबने मुझे महरूम कर रखा था। 1

वफ़ाते ख़दीजा के बाद सिर्फ़ तेराह साल आन हज़रत (स.अ.व.व.) इस दुनिया में और ज़िन्दा रहे और इस तेरह बरस के अर्से में एक के बाद दीगर मुताअदि्द औरतों को अज़वाज की हैसियत से अपने ऐवाने ज़िन्दगी मे दाख़िल किया , उनमें कुछ कनीज़ें कुछ मुतलेक़ा और बक़ीया औरतें बेवा थीं।

इन मुसलसल व मुतावातिर शादियों का मक़सद वह हर गिज़ नहीं था जो आम तौर पर किसी औरत के लिये किसी मर्द के दिल में होता है बल्कि हक़ीक़त यह है कि ये तमाम शादियां मसलहतें इलाही और बसीरते नबूवी का नतीजा थी क्योंकि आन हज़रत (स.अ.व.व.) दीनी पेशवा और मज़हबी रहनुमा होने के साथ साथ एक उभरती हुई इस्लामी ममलेकत के ताजदार व सरबराह बी ते इस लिये इस्लाम के तबलीग़ी उमूर में सहूलतों और आसानियों के पेशे नज़र आपने अरब के मुक़तलिफ़ और बा-असर क़बीलों में अज़वाजी रिश्ते क़ायम करके उनकी मुश्रेकाना और काफ़िराना सरगर्मियों पर मोहरे हिदायत सब्त की। दूसरी यह कि आप चूँकि इन्सानियत के अलमबदार और हकूक़े बशरी के मुहाफिज़ भी थे इसलिये मर्दों के हुकूक़ में इरतेक़ाई जद्दो जेहद के साथ अपने ईसार व अमल के ज़रीये औरतों के हुकूक और नसवानी विकार को भी आप इतना सरबुलन्द , मोहकम और पायेदार कर देना चाहते थे कि बाद में आने वाला ज़माना औरत को पस्त , जलील और कमतर न समझे या उसके हुकूक को पामाल करने की जसारत न करे। ये अमल यक़ीनी है कि अगर आपको मसलहत ईज़दी के साथ साथ मोहताज कनीज़ों , लावारिस बेवाओं और ग़रीब नादार औरतो का ख़्याल या उनके हुकूकका पास व लेहाज़ न होता तो हज़रत खदीज़ा की वफ़ाते के बाद आप हरगिज़ हरगिज़ दूसरा अक़द न फ़रमाते। अपनी पुरआलाम और मशगूल तरीन ज़िन्दगी के आख़िरी तेरह साला दौर में आपने मुसलसल व पै दर पै शादियां करके औरत के लिये शरयी व कानूनी हदबन्दी की , अज़वाजी रिश्ते के तक़द्दुस का ऐलान किया और अदल व मसावात का एक ऐसा निज़ाम दुनिया के सामने पेस किया कि जिसके बाद क़यामत तक किसी कानून या निज़ाम की ज़रुरत महसूस न हो। हुजूरे अक़रम (स.अ.व.व.) के फ़र्ज़े मनसबी का तकाज़ा यही था चुनानचे उम्मुल मोमेनीन हज़रत ख़दीजा की वफ़ात के बाद जिन औरतों को आपने अपनी जौज़ियात का शरफ़ बख़शा उनका मुक़तसर तारुफ़ दर्ज ज़ैल है।

(1) उम्मुल मोमेनीन सूदा बिन्ते ज़मआ

आपका नस्बी सिलसिला आमिर बिन लवी पर मुंतही होता है। कुन्नियत उम्मुल असूद थी। आपकी पहली शादी सकरान इब्ने अम्र बिन अब्दुल शम्स से हुई थी जिसेस एक लड़का अब्दुल रहमान पैदा हुआ था जो किसी इस्लामी गज़वा में शहीद हो गया। आप अवाएले बइस्त में मुसलमान हुई और आपने शोहर सकरान के हमराह हिजरते हब्शा से सरफ़राज़ हुई। जब सकरान का इन्तेक़ाल हो गा तो हज़रत ख़दीजा की वफ़ात के बाद आन हज़रत (स.अ.व.व.) का इन्तेक़ाल हो गया तो हज़रत ख़दीज़ा की वफ़ात के बाद आन हज़रत (स.अ.व.व.) के अक़द मे आई। कुछ ख़ास वजूहात की बिना पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) ने सन् 8 हिजरी में आपको तलाक़ देना चाहा मगर आपने खुशामद दरामद की और यह कहा कि आप मुझसे कोई सरोकार न रखें लेकिन अपनी ज़ौजियत में रहने दें ताकि बरोज़े ताकि बरोज़े क़यामत में आपकी आवाज़ में महशूर हो सकूं। इस मिन्नत व समाजात और आजिज़ी के नतीजे में पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) ने आपको तलाक़ देने का इऱादा तर्क कर दिया। बकौ़ल साहबे रौज़तुल एहबाब आपसे पांच हदीसें मरवी हैं।

(2) उम्मुल मोमेनीन आयशा बिन्ते अबुबकर

हदीस और रवायात और तारीख़ के मजाज़ी पर्दों में लिपटी हुई उम्मुल मोमेनीन आयशा की पुरइसरार शख़्सियत आलमे इस्लाम में मोहताजे तारूफ़ नहीं है। हर शख़्स जानता है कि आप ख़लिफ़ये अव्वल हज़रत अबुबकर बिन क़हाफ़ा बिन उस्मान बिन आमिर की तुलौवुन मिजाज़ बेटी है।

आपकी वालिदा उम्मे रूमान बिन्ते आमिर बिन औयमर बिन अब्दुल शम्स हज़रत अबुबकर के अख़द में आने से पहले अब्दुल्लाह बिन हारिस बिन संजरा की बीवी थी और उनका ताअल्लुक बनि कनआन से था मगर अंग्रेज़ मोअर्रिख़ कोर्ट फ़िरेशलर आलमानी का कहना है कि असकंदरिया की रहने वाली यूनानी नज़ाद थी।)

हज़रत आयशा की विलादत के बारे में मिस्री मोअर्रिख़ अब्बास महमूद अक़ाद का कहना है कि 8 यह अमर मोहक़िक़ नहीं हो सकता कि हज़रत आयशा किस सन् में पैदा हुई ताहम अग़लब ख़्याल यह है कि उनकी विलादत हिजरते नबूवी से ग़्यारह या बारह साल क़बल हुई (अंग्रेज़ मोअर्रिख़ आलमानी ने अपनी किताब (आयशा बाद अज़ पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ) में साबित बिन अरतात का जो क़ौल नक़ल किया है उससे पता चलता है कि आप का साले विलादत सन् 1 बेइस्त है।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) की ज़ौजियत का शरफ़ हासिल करने से पहले आप जबीर इब्ने मोतिम की बीवी थी जो हनूज़ हालते कुफ़्र पर क़ायम था।) हज़रत अबुबकर ने जबीर ते तलाक़ ले कर आपका अक़दे सानी किया।) इस तरह तक़रीबन बीस बरस की उमर में आप पैग़म्बर इस्लाम (स.अ.व.व.) की जौज़ियात से मुशर्रफ़ हुई। आपको कुंवारी साबित करने के लिये छः साल की उम्र में पैग़म्बर (स.अ.व.व.) से शादी की जो दास्तान ब्यान की जाती है वह मेरी तहक़ीक़ के मुताबिक फ़र्जी है।

रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) की ज़ौजियत और खुलक़े अज़ीम की सोहबत से सरफ़राज़ होने के बावजूद आप दिली इरफ़ाने नबूवत से आरी व नाआशना थी आपकी निगाहों में नबी (स.अ.व.व.) और नबूवत की यह क़द्र मंज़िलत थी कि जब आप आन ह़रत से किसी बात पर नाराज़ हो जातीं तो नबी (स.अ.व.व.) कहना छोड़ देती थी और इब्राहीम का बाप कह कर मुख़ातिब करती थीं।)

क़दम क़दम पर पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के लिये क़र्ब के लिये क़्रब अज़ीयत और कशमकश की दीवार खड़ी करना आपका मशग़ला और मामूल था जिसमें हज़रत उमर की साहबज़ादी हफ़सा आपकी मुईन व मददगार और सहीम व शरीक रहती थी चुनानचे एक बार उन दोनों फ़रमाबारदार बीवियों ने बाहमी साज़बाज़ करके पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) के ख़िलाफ़ ऐसा मनसूबा तैयार किया कि जिससे तन्ग व परेशान होकर सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) ने अल्लाह की तरफ़ से हलाल शै को अपने ऊपर हराम कर लिया था और ये करबनाक सिलसिला एक माह तक जारी रहा जैसा कि बुख़ारी ने तहरीर किया है कि (रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ने एक माह तक अज़वाज से कोई राबता नहीं रखा और अलहैदा चटाई पर सोते रहे।)

हज़रत आयशा की निसवानी सरिश्त में रश्क , हसद , जबहन , नफ़रत , अदाव , ग़बित , ऐबजूई खुद परस्ती हट धर्मी और क़ीना परवरी का माद्दा बदर्जा अतम कार फ़रमां था जिसकी वजह से आप आले रसूल (स.अ.व.व.) खुसूसन हज़रत अली (अ.स.) और हज़रत फात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) की बदतरीन दु्श्मन थीं यहाँ तक कि मासूमा (स.अ.व.व.) ने हज़रत उम्मे सलमा से इस अमर की वसीयत कर दी थी कि आयशा मेरे जनाज़े पर न आये। आपकी अदावत व दुश्मनी का पता इससे भी चलता है कि आपने हज़रत इमाम हसन (अ.स.) के जनाज़े पर तीरों की बारिश कराई और हज़रत अली (अ.स.) से जमल के मैदान में महाज़ आराई की।

इस अमर से इन्कार नहीं किया जा सकता कि आप एक आज़ीम सियासत दा , मुदब्बिर और आलेमा व फ़ाज़ेल थीं चुनानचे अहदे शैख़ीन में आपको हुकूमत की बेटी होने का शराफ़ हासिल था। इक़तेदार परस्तों का मुकम्मल इल्तेफ़ात आपकी ज़ात से वाबसता था और आपको वह खुसूसी हकूक हासिल थे जिनसे आन हज़रत (स.अ.व.व.) की दूसरी बीवियां महरूम थीं। वज़ाएफ व अताया में भा दीगर अज़वाज पर मुक़द्दम थीं चुनानचे हज़रत उमर ने अपने दौरे हुकूमत में रसूल (स.अ.व.व.) की बीवियों में हर एक का दस हज़ार और आपका बारह हज़ार वज़ीफ़ा मुक़र्रर किया था लेकिन हज़रत उस्मान ने अपने दौर में आपको दो हज़ुपर कम करके दीगर अज़वाज़ के मसावी कर दिया।

सन् 56 हिजरी में जब मुआविया अपने फ़ासिख़ व फ़ाजिर बेटे यजीद की बैयत का रास्ता हमवार करने की ग़र्ज़ से मदीने आया तो आप हुजूर इब्ने अदी के क़त्ल के मामले में उससे उलझ गयीं। नतीजा यह हुआ कि माविया जहाँ मुक़ीम था उस घर में उसने एक कुंवा ख़ुदवाया और उसके बहाने को ख़सी ख़ाशाक़ से ढककर उस पर आबनूस की एक कुर्सी रखवाई। दूसरे दिन उसने आपको दावत पर बुलाया। जब आप तशरीफ़ लायीं और उस कुर्सी पर जलवा अफ़रोज़ हुई तो बगै़र कुछ कहे सुने सीधे कुवें के अन्दर चलीं गयीं। उसके बाद माविया ने उस कुएं में चूना भरवा कर उसका मुंह बन्द करा दिया और मक्के की तरफ़ रवाना हो गया। उस वक़्त आपकी उम्र तकरीबन 65 या 70 साल की थी। आपसे दो हज़ार दो सौ दस हदीसें मरवी हैं।

(3) उम्मुल मोमेनीन हफ़सा बिन्ते उमर

हज़रत हफ़सा , ज़ैनब बिन्ते मज़ऊन के बतन से हरत उमर की साहबज़ादी थीं , आपकी शादी पहले ख़नीस बिन हुज़ैफ़ा से हुई थी जो मुहाजरीन हबश और मुजाहेदीन बदर से थे। गज़वये ओहद के बाद उनका इन्तेक़ाल हो गया और आप बेवा हो गई तो हज़रत उमर ने हज़रत अबुबकर और हज़रत उस्मान से आपका अक़द करना चाहा मगर उन दोनों ने साफ़ इन्कार कर दिया तो उन्होंने हज़रत (स.अ.व.व.) से आपका अक़द कर दिया लेकिन कुछ दिनों के बाद एक राज़ को तशत अज़बाम करने केी बिना पर आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने आपको तलाक़ दे दी। इस तलाक़ के बाद हज़रत उमर तमाम उम्र रोतें और फ़रमाते थे किः- अगर आले ख़त्ताब में कोई ख़ैरो ख़ूबी होती तो रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) मेर बेटी हफ़सा को तलाक़ न देते। हज़रत हफ़सी का इन्तेक़ाल साठ बरस की उम्र में हुआ और उनसे साठ हदीसें मरवी हैं।

(4) उम्मुल मोमेनीन ज़ैनब बिन्ते हज़ीमा

ज़ैनब बिन्ते हज़ीमा बिन हारिस , पहले आपका अक़द तुफ़ैल बिन हारिस बिन अब्दुल मुत्तालिब से हुआ था लेकिन तुफ़ैल ने तलाक़ दे दी तो आपने उसके भाई अबीदा बिन हारिस से अक़द कर लिया। अबीदा ग़ज़वा में शहीद हो गये तो आप अब्दुल्लाह इब्ने हजश के अक़्द में आई जब वह भी जंगे ओहद मे शहीद हुए तो माहे रमज़ान सन् 3 हिजरी में आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने आपसे निकाह किया। कुल आठ माह सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) के घर में रह कर आपने माहे रबीउस्सानी सन् 4 हिजरी में वफ़ात पाई आपका लक़ब उम्मुल मसाकीन था।

(5) उम्मुल मोमेनीन उम्मे सलमा बिन्ते सुहैल

हज़रत उम्मे सलमा का असल नाम हिन्द था। आप आतिका बिन्ते अब्दुल मुत्तलिब के बतन से सहल बिन मु़ग़ीरा बिन अब्दुल्लाह मख़जूमी की साहबज़ादी थी। आपकी पहली शादी अब्दुसलमा बिन अब्दुल्लाह से हुई थी। और अबुसलमा से आपके चार ब्चेच अम्र , दर्रा सलमा और ज़ैनब थे आपने मक्के से हबशा और मदीना दोनों हिजरते क। अबु सलमा की वफ़ात जंगे औहद में ज़ख़्म खाने के सबब से हुई। और जब उम्मे सलमा बेवा हो गयीं। उसके बाद माहे शव्वाल सन् 14 हिजरी में उम्मे सलमा को आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ज़ौजियत का शरफ़ हासिल हुआ। आपका शुमार आन हज़रत (स.अ.व.व.) की मुख़लिस व ग़मगुसार बीवियों में है और आप अहलेबैत (अ.स.) के लिये अपने दिल में हमदर्दी व जॉनिसारी का जज़बा रखती थीं। आपका इन्तेक़ाल सन् 61 हिजरी में वाक़ये कर्बला और हज़रत इमामे हुसैन (अ.स.) की शहादत के बाद हुआ उस वक़्त आप की उम्र 84 साल की थी जन्नतुल बक़ी में दफ़्न हुआ आप से 378 हदीसें मरवी हैं।

(6) उम्मुल मोमेनीन ज़ैनब बिन्ते हजश

अस्ल नाम बर्रा था। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने ज़ैनब नाम रखा। और कुन्नियत उम्मुल हक़ीम थी। नीज़ मां का नाम उम्मिया बिन्ते अब्दुल मुत्तलिब था। आपका पहला निकाह ज़ैद बिन हारिसा से हुआ मगर चूँकि दोनों के मिज़ाज़ में हम आहंगी नहीं थी इसलिये ज़ैद ने आपको तलाक़ दे दी और उसके बाद माहे ज़ीक़द सन् 5 हिजरी में आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने आपसे अक़द फरमाया। उशी मौक़े पर आयए हिजाब नाज़िल हुई। हज़रत आय़शा का ब्यान है कि उस वक़्त अज़वाजे पैग़म्बर (स.अ.व.व.) में कोई औरत ज़ैनब बिन्ते हजश से ज़्यादा मुत्तक़ी , परहेज़गार , मुख़ैयर , सदक़ा देने वाली और सेलए रहम करने वाली नहीं थी। सन् 20 हिजरी या 21 हिजरी में 52 साल की उम्र में आपने इन्तेक़ाल फ़रमाया और बकी में दफ़्न हुई। आप से ग्यारह हदीसें मरवी हैं।

(7) उम्मुल मोमेनीन जुवेरिया बिन्ते हारिस बिन अबु ज़रार

आप जुलशकर बिन मसाफ़े बिन सिफ़वान की बीवी थीं जब वह जंगे मरसीय में मारा गया तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने माहे रमज़ान सन् 6 हिजरी में आप से अक़द किया. सन् 55 हिजरी में 65 साल की उम्र में मदीने में फ़ौत हुई। आपसे सात हदीसें मरवी हैं।

(8) उम्मुल मोमेनीन उम्मे हबीबा बिन्ते अबुसुफ़ियान

असल नाम रमला या हिन्द था। आपक मां का नाम सफ़िया बिन्ते अबुल हास बिन उमय्या था जो हज़रत उस्मान बिन अफ़ान की थीं। आपका निकाह पहले अबीदा बिन हजश असदी से हुआ था और अवाएले इस्लाम में दोनों ने इस्लाम कुबुल करके हबशा की तरफ़ हिजरत की थी वहीं आपने बतन से एक लड़की हबीबा पैदा हुई और वहीं अबीदुल्लाह ने ईसाइ मज़हब इख़तेयार कर लिया। सन् 6 हिजरी में जब अबीदुल्लाह शारब पी कर मर गया तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने बादशाह हबश (नज़्जाशी) के ज़रिये उम्मे हबीबा को अक़द का पैग़ाम दिया। सन् हिजरी में हबीबा मैदीने आई और आन हज़रत (स.अ.व.व.) के शरफ़े ज़ौजियात से सरफ़राज़ हुई आपने सन् 44 हिजरी में मदीने में इन्तेक़ाल फ़रमाया। आपसे 65 हदीसें मरवीं हैं।

(9) उम्मुल मोमेनीन सफ़ीया बिन्ते हयी बिन अख़तब

आप यहूदी बनी नज़ीर से थीं आपका सिलसिलए नसब हज़रत हारून (अ.स.) पर मुन्तही होता है। आप सालम इब्ने मशकम को ब्याही थीं। जब दोनों में जुदाई वाक़ेय हुई तो कनान बिन रबी बिन अबिल हक़ीक़ ने आपको अपनी ज़ौजियत में ले लिया। कनान जंगे ख़ैबर में मारा गया और क़ैद होकर आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने उन्हें अपनी ज़ौजियात में लिया। मंजि़ले सहबा में ज़फ़ाफ़ वाक़ेय हुआ उस वक़्त उनकी उम्र 17 साल की थी हज़रत आयशा और हफ़्शा आपको बहुत सताती थीं जिस पर आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने मुत्तइद बार दोनों की सरज़निश की। सफ़ीया की वफ़ात सन् 52 हिजरी में वाक़ेया हुई और जन्नतुल बक़ी में दफ़्न हुईं। आपसे दस हदीसें मरवी हैं।

(10) उम्मुल मोमेनीन मैमूना बिन्ते हारिस बिन हज़न

आपका असल नाम बर्रा था आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने बदल कर मैमूना रखा। आपकी वालदा हिन्द बिन्ते औफ़ बिन ज़हीर बिन हरब , बनि हमीर या बनि कनान से थीं। उनके पहले शौहर उमैस ख़मसी से असमा बिन्ते उमैस थी जो अव्वलन ज़ाफ़र बिन अबुतालिब , सानियन हज़रत अबुबकर और सालिसन हज़रत अली (अ.स.) के अक़द में आई। दूसरे सलमा बिन्ते उमैस थीं जो हज़रत हमज़ा की ज़ौजियत में थी और तीसरे जै़नब बिन्ते उमैस थीं जो शद्दा बिन हाद की बीवी थीं। मैमूना उम्मुल फ़ज़ल और उम्मे ख़ालिद यह तीनों बहने अपनी मां के दूसरे शौहर हासिर बिन हज़न बिन बहीर बिन हज़त से थीं , मैमूना ज़मानये जाहेलियत मे मसऊद बिन उमर सक़फ़ी की बीवी थीं , दोनों में मुफ़ारेक़त हुई तो हवीतब बिन अब्दुल उज्जा की ज़ौजियत में आय़ीं और हवीतब के इन्तेक़ाल के बाद आन हज़़रत (स.अ.व.व.) की ज़ौजियत मुशर्रफ़ हुई। उम्मु फ़ज़ल अब्बास अम पैग़म्बर (स.अ.व.व.) की ज़ौजा थीं और उम्मे ख़ालिद वलीद बिन मुग़ीरा को मनसूब थीं। मैमूना का इन्तेक़ाल सन् 51 हिजरी में हुआ और मंज़िले शरफ़ मे मदफ़ून हुई। आपसे 76 हदीसें मरवी हैं।

मज़कूरा दस अज़वाज मे ज़ैनब बिन्ते ख़ज़ीमा ने आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ज़िन्दगी में इन्तेक़ाल किया बाक़ी 6 अज़वाज वफ़ाते पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के वक़्त जि़न्दा थीं उन बीवियों के अलावा असमा बिन्ते नेमान कुन्दिया से भी अक़द फ़रमा था मगर ज़फ़ाफ़ से पहले उसको उसके क़बीले में वापस भेज दिया। उसके तलाक़ का सबब हज़रत आयशा व हफ़सा का रशक व हसद था।

कनीज़ें

(1) मारिया क़िबतिया बिन्ते शमऊन और उनकी बहन सैरीन का रूकन्द्रिया के बादशाह मक़ूकश ने बतौर हदिया आन हज़रत (स.अ.व.व.) के पास भेजा था। आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने मारिया को अपने पास रखा और सैरीन को हिसान बिन साबित के हवाले कर दिया। मारिया से आन हज़रत (स.अ.व.व.) के फ़रज़्नद इब्राहीम पैदा हुए जो एक साल तीन माह ज़िन्दा रह कर दुनिया से रूख़सत हुए और सीरीन से एक लड़का अब्दुल रहमान बिन हिसान पैदा हुआ। सन् 16 हिजरी मारिया ने इन्तेक़ाल किया और बक़ी में दफ़्न हुई।

(2) एक कनीज़ ज़नैब बिन्ते हजिश ने आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमत में पेश की थी।

(3) जमीला नामी एक कनीज़ क़ैदियों में आयीं थी।

औलादें

उम्मुल मोमेनीन हज़रत ख़दीजा के बतन से ख़ुदा वन्दे आलम ने आन हज़रत (स.अ.व.व.) को फ़ात्मा ज़ेहरा (स.अ.व.व.) नाम की एक कुदसी सिफ़ात बेटी और क़ासिम व अब्दुल्लाह नाम के दो बेटे मरहमत किये। जनाबे क़ासिम बेइस्त से दो साल क़बल मक्के में पैदा हुए और दो ही साल ज़िन्दा रह कर इन्तेक़ाल फ़रमां गये उन्हीं के नाम से सरवरे दो आलम (स.अ.व.व.) की कुन्नियत अबुलक़ासिम क़रार पाई। और अब्दुल्लाह भी जो तैयब व ताहिर के नाम से मशहूर हैं क़बल बेइस्त मक्क़े ही मैं पैदा हुए थे और आलमे तफ़ूलियत में ही दुनिया से रूख़सत हो गये। आन हज़रत (स.अ.व.व.) के एक साहबज़ादे इब्राहीम मारिया क़िब्तिया के बतन से पैदा हुए ते जो सवा साल के होकर सन् 10 हिजरी में वफ़ात पा गये। उन औलादों के अलावा पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के और कोई औलाद नहीं थी। ख़ुदा ने आप की औलादों में सिर्फ़ निसाइल आलामीन ह़रत फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) को बकैदे हयात रखा और उन्हीं से आपकी नस्ल चली।

आपकी दुख़्तरन रबिया में ज़ैनब , रूक़य्या और उम्मे कुलसूम थीं जो हज़रत ख़दीजा की बहेन हाला की साहबज़ादियां थी और चूँकि यह लड़किया हज़रत ख़दीजा के पास रहतीं थी और आन हजरत (स.अ.व.व.) के ज़ेरे केफ़ालत थीं इसलिए हज़रत ख़दीजा की लड़कियां कहलायीं जैसा कि अबुलक़िसिमुल कूफीउल मतूफ़ीसन 352 हिजरी का ब्यान है किः-

(जब रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) ने हज़रत ख़दीजा से अक़द किया तो उसके थोड़े अरसे बाद उनकी बहन हाला का इन्तेक़ाल हुआ उसने तीनों लड़कियों रूक़य्या ज़ैनब और उम्मे कुलसूम छोड़ीं जो पैग़म्बर (स.अ.व.व.) और खदीजा की आग़ोशे तरबियत में पलीं और इस्लाम से क़बल ये दस्तूर था कि अगर कोई बच्चा किसी गोद में परवरिश पाता था तो वह उसी से मनसूब किया जाता था।)

अल्लामा सैय्यद ज़ीशान हैदर जवादी तराज़ है किः-

(आप (हज़रत फ़ात्मा ज़हरा (स.अ.व.व.) ) सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) की इक़लौती थीं और ज़ेनब व उम्मे कुलसूम और रूक़य्या सरकार (स.अ.व.व.) की रबीबी थीं जिन के बारे में इख़तेलाफ़ है कियह जनाबे ख़दीजा की बेटियां थीं या जनाबे ख़दीजा बा करा थीं और उनकी बहन हाला की बेटियां थीं और उसकी वाज़ेह तरीन दलील यह है कि रसूले अकरम (स.अ.व.व.) का अक़द पच्चीस साल की उम्र में बेइस्त से 15 साल पहले हुआ है पांच साल तक कोई औलाद नहीं हुई और उन तीनों बेटियों का अक़द बेइस्त से पहले अतबा व अतीबा फ़रज़न्दाने अबुलहब और अबुलआस बिन रबी से हो चुका था और अब यह बात तक़रीबन नामुम्किन और बईद अज़ क़्यास हैं कि दस साल के अन्दर तीनों बेटियां पैदा भी हुई और उनका अक़द भी हो जाये जबकि दरमियान में क़ासिम और अब्दुल्लाह की विलादत का वक़फ़ा भी रखना पड़ेगा।)

(फिर अगर किसी सूरत से उन्हें दुख़्तराने पैग़म्बर (स.अ.व.व.) तस्लीम भी कर लिया जाये ताकि यह वह दुख़्तरान में जिनका अक़द कुफ़्फ़ार से हो चुका है और क़ुफ़्फार से अक़द हो जाने के बाद मुसलमान से अक़द न उसे मुस्तहक़े मनसब बना सकता है और न जुलनूरीन। जुलनूरीन होने के लिए लड़की का नूर होना ज़रूरी है और यह शरफ़ सिद्दीक़ये ताहेर (स.अ.व.व.) क अलावा किसी को हासिल नहीं है।)