तारीखे इस्लाम 2

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तारीखे इस्लाम 2 लेखक:
कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

तारीखे इस्लाम 2

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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तारीखे इस्लाम 2

तारीखे इस्लाम 2

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हिंदी

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अबुल क़ासिम , हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स अ व व .)

(विलादत)

हज़रत आदम (स.अ.व.व.) की ख़िलक़त से नौ लाख साल क़लब और वाज़ रवायतों के मुताबिक चार पाँच लाख साल कबल , परवरदिगारे आलम ने आपके नूर को अपने नूर से ख़लक़ फरमाया। तख़लीक़े आदम (स.अ.व.व.) के बाद यह नूर मुख़तलिफ़ असलाबे ताहेरा में होता हुआ जब सुलबे जनाबे अबदुल्लाह इब्ने अब्दुल मुत्तालिब तक पहुँचा तो बशरियत के पैकर में ढ़ल कर बतने जनाबे आमना बिन्ते वहब से सरज़मीने मक्का पर शोअबे बनी हाशिम (जो बाद में शोअबे अबुतालिब कहलाया) मैं आशकार हुआ।

आपकी विलादत बा सआदत के मौक़े पर जो वाक़ियात व हालात रूरुमा हुए वह इन्तेहाई हैरत अंगेज़ व ताज्जुब ख़ेज़ हैं। मसलन-आपकी वालिदा को बारे हमल महसूस नहीं हुआ , वह तौलीद की कसाफतों से पाक व साफ थीं , आप मख़तून व नाफ बरीदां पैदा हुए , दुनिया में वारिद होते ही आपकी पेशानी से ऐसा नूर ज़ाहिर हुआ जिसकी रोशनी से कायनात जगमगा उठी पैदा होते ही आपने सजदये ख़ालिक अदा किया फिर दोनों हाथों को ज़मीन पर टेक कर अपना सर जानिबे आसमान बुलन्द किया और फरमाया , अल्लाहो अकबर , उसके बाद आपने (ला इलाहा इल्ल लाह अना रसूल अल्लाह) के कलेमात ज़बाने मुबारक पर जारी किये जुन्हें सुन कर दुनियाए कुफ्र के ज़मीन व आसमान लरज़ उठे और ऐसा जलज़ला आया कि ऐवाने किसरा के चौदह कंगूरे टूट कर फर्श पर ढ़ेर हो गये , काशान में सावा की वह झील जिसकी परस्तिश होती थी खुशक हो गयी , दजला में तुग़यानी इस क़दर बढ़ी कि उसका पानी सेलाब बन कर महले किसरा में दाख़िल हुआ और फिर तमाम इलाक़ों में दूर दूर तक फैल गया , ब रिवायत इब्ने वाज़ेहुल मतूफी 262 हिजरी शैतान को रजम किया गया और उसका आसमान पर जाना क़तई बन्द हो गया। आतिश कदये फ़ारस की वह आग जो एक हज़ार साल से मुसलसल रौशन थी दफतन बुझ गयी और दुनिया के तमाम बुत झुक गये।

मूबज़ान मूबज़ का ख़्वाब

फारस के एक जय्यद आलिम मूबजा़न मूबज़ ने इसी रात ख़्वाब में देखा कि कुछ तुन्द व सरकश ऊँट कुछ अरबी घोड़ों को दरयाए दजला से गुज़ार कर बला व फारस में मुताफ़र्रिक़ कर रहे हैं। यह अजीब व ग़रीब ख़्वाब इस की इल्मी दस्तरस से बाहर था लेहाजा उसने उसे बादशाहे वक़्त (नौ शेरवां) से ब्यान किया। उसने अपने हीरा के गवर्नर नोमान बिन मनज़िर के पास एक क़ासिद भेज कर यह पै़ग़ाम कहलवाया कि हमारे आलिम दीन ने एक ख़्वाब देखा है लेहाज़ा तुम वहाँ से किसी ऐसे दाना व अक़लमन्द शख़्स को हमारे पास रवाना करो जो ख़्वाबों की ताबीरों का इल्म रखता हो , ताकि वह हमें इस ख्वाब की ताबीर से मुतमईन करा सके। नेमान बिन मुनज़िर ने अब्दुल मसीह इब्ने अम्रल ग़सानी नामी एक शख्स को बादशाह की ख़िदमत में भेज दिया। जब वह वहाँ पहुँचा तो बादशाह ने उससे मुबज़ान का ख़्वाब ब्यान किया और ताबीर का ख़्वाहिश मन्द हुआ। उसने कहा ,मेरा मामू सतीह काहिन जो शाम के एक मुक़ाम जारबिया में रहता है , इस फन का बहुत बड़ा माहिर है लेहाज़ा वही इस ख़्वाब की ताबीर बता सकता है। ग़र्ज़ कि बादशाह ने उसी वक़्त अब्दुल मसीह को शाम रवाना कर दिया।

सतीह काहिन के बारे में कहा जाता था कि वह अजीबुल ख़िलक़त इन्सान था , उसके जिस्म में जोड़ व बन्द थे , वह उठने बैठने से माज़ूर था मगर जब उसे गुस्सा आता तो उठ कर बैठ जाता था , बदन भर में खोपड़ी की हड्डी के अलावा और कोई दूसरी हड्डी न थी उसका मुँह उसके सीने में था। जब घर या बाहर के लोग उसे कहीं ले जाना चाहते तो उसके जिस्म को चटायी की तरह लपेट कर गठरी बना लेते और फिर बीठ या कँधे पर रख कर ले जाते थे और जब उससे कुछ पूछना होता तो उसे खूब झिझोड़ते थे तब कहीं वह आधा होकर ग़ैब का हाल बताता था।

अब्दुल मसीह जिस वक़्त उसके पास पहुँचा , उस वक्त उशकी उम्र व रवायते आमा छः सौ साल और ब रवायते हयातुल कुलूब नौ सौ साल की थी और वह आलमें एहतज़ार में था ताहम उसने अब्दुल मसीह के कुछ कहे बगै़र अज़ खुद वाकिया ब्यान कर दिया और कहा कि जब नौशेरवा की नस्ल से चौदाह अफराद हुक्मरानी कर चुकेंगे तो हुकूमत इसके खानदान से निकल जायेगी , नीज़ एक अज़ीम हस्ती जो आलमे वजूद में आ चुकी है उसका दीन मशरिक़ से मग़रिब तक फैल जायेगा। इतना कह कर उसने दम तोड़ दिया।

मजमा-उल बहरैन में काहिन के मानी साहिर (जादूगर) के हैं। बाज़ का ख्याल है कि काहिन के कब्ज़े में जिन होते थे , बाज़ का ख्याल है कि कहानत एक इल्म है जो हिसाब से ताल्लुक रखता है , बाज़ का ख़्याल है कि शैतान जब आसमान पर जाता था तो वहाँ से ख़बरें लाता था और शैतानी अफ़राद को बताता था दुनिया में दो बड़े काहिन गुज़रे हैं एक सतीह और दूसरे का नाम शक था। रसूले अकरम (स.अ.व.व.) की विलादत के बाद फने कहानत ख़त्म हो गया।

तारीख़ , दिन और सने विलादत

रसूले अकरम (स.अ.व.व.) की तारीख़े विलादत में इख़तेलाफ़ है चुनानचे इस ज़ैल में औलमाये अहले सुन्नत की एक जमाअत ने जिन मुख़तलिफ़ तारीख़ों का ताईन किया है उनके बारे में अल्लामा अब्दुल बाक़ी ज़रक़ानी ने शरहे मवाहिब में निस्फ दरजन अक़वाल नक़ल किये हैं , और उन अक़वाल में आपके विलादत की तारीख़ दूरसी , आठवीं , दसवीं , बारहवीं , सत्तरहवीं , और अठारवीं रबीउल अव्वल बतायी गयी है। शिब्ली नोमानी ने सीरतुन नबी में नवीं रबीउल अव्वल को फौक़ीयत दी है जो उनकी अपनी खुद साख़ता तहक़ीक़ है। तारीख़ की मोतबर व मुस्तनद किताबों में कहीं इसका वजूद नहीं है।

बहरहाल , तफसीर , हदीस और तारीख़ के मोहक्क़े क़ीन अहले मुन्नत हज़रात की अकसरियत इस अमर पर मुतफ्फ़िक व मुत्ताहिद है कि आपकी तारीख़े विलादत बाहर रबीउल अव्वब बरोज़ दो शम्बा सन् एक आमुल फ़ील मुताबिक 26 अगस्त सन् 570 है जबकि शिया ओलमा बिल इत्तेफाक़ सत्तरह रबीउल अव्वल को तसलीम करते हैं। यौमे विलादत के बारे में फ़रीक़ैन का इत्तेफाक़ है कि आपकी विलादत दो शन्बा के दिन बादे तुलूये आफताब वाक़े हुई , मुस्लिम इब्ने क़तावा अन्सारी से मरवी एक तूलानी हदीस इसके मुताअलिक मौजूद है जिसकी सनद के बारे मे इमाम कस्तलानी ने मवाहिब लदुनिया में यह तहरीर फरमाया है कि यह हदीस इस बात पर दलालत करती है कि आपकी विलादत दिन के वक़्त बादे तुलुए आफताब वाके हुई और इसी हदीस में दो शन्बे के दिन का तय्युन भी है।

मुक़ामे विलादत के बारे मे ज़रक़ानी फ़रमाते हैं कि शोअबे हाशिम मेंवह मकान जहाँ आपकी विलादत हुयी थी (ज़क़ाके मुकिक) के नाम से मौसूम था और बक़ौल इब्ने असीर वही मकान था जिसे आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने जनाबे अक़ील इब्ने अबुतालिब (अ.स.) को हिबा फरमाया था बाद में उनकी औलादों ने उसे मुहम्मद बुन यूसुफ सक़फ़ी (जो हुजाज बिन यूसुफ सक़फ़ी का भाई था) के हाथ बय कर दिया था। इसके बाद अपने ज़माने में जब हारून रशीद हज की ग़र्ज़ से मक्का आया तो उसने मुहम्मद बिन यूसुफ के वुरसा से यह मकान खरीद कर इस जगह एक मस्जिद बनवायी जो अब तक (मौलुदुन नबी) के नाम से तमाम मुसलमानों की ज़्यारत गाह है।

सैय्यद अमीर अली इस्परिट ऑफ इस्लाम में तहरीर किया है कि जिस साल आन हज़रत (स.अ.व.व.) पैदा हुए वह साल कसराये नौशेवां का चालिसवां साले जुलूस था।

दुआ-ए-सलामती

इब्ने साद का बयान है कि जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) पैदा हुए तो जनाबे आमना ने एक शख़्स के ज़रिये विलादत की इत्तेला हज़रत अब्दुल मुत्तालिब को दी इस वक्त आप खान-ए-काबा के मक़ाम हजर में अपने फरज़न्दों और क़ौम के कुछ मख़सूस अफराद के साथ तशरीफ फरमां थे। पोते की विलादत की ख़बर सुन कर बेहद मसरूर हुए और उसी वक्त उठ कर खड़े हो गये , आपके हमराही भी साथ हो लिये। जब आप जनाबे आमना के पास तशरीफ लाये तो उन्होंने तमाम हालात व रूदाद से आपको मुत्तेला फरमाया। उसके बाद आपने मौलूद को आग़ोश में लिया और सीने से लगये हुए सीधे खान-ए-काबा में आये। ख़ुदा वन्दे आलम का शक्रिया अदा किया और मंजूम अल्फाज में आन हजरत (स.अ.व.व.) की सलामती के लिये दुआ और मंजूम अल्फाज में आन हजरत (स.अ.व.व.) की सलामती के लिये दुआ फरमायी। आपने फरमाया , परवर दिगार! इस नेयमत के एवज़ में किस जबान से तेरी हमद व सना करूँ , पालने वाले! तूने हमें वह फरज़न्द अता किया है जो मेरे लख़्ते दिल अब्दुल्लाह की याद गार और तमाम ख़लाएक़ में पाक व पाकीज़ा है। ऐ रूकन व मक़ाम के मालिक! तू इस मौलूद को अपने हिफ्ज़ों अमान में रख यहाँ तक कि मैं उसे अपनी आँखो से जवान देखूँ , परवरदिगार! इसे हासिदों की नज़रे बद से महफूज़ रख और उन्हें रूसवा कर जो इसका बुरा चाहें।

तक़रीबे अक़ीक़ा और रस्मे नामगुजारी

(बहीक़ी ने दलाएलुल नबुवता में तहरीर फरमाया है कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) की विलादत के सातवें दिन अब्दुल मुत्तालिब ने तक़रीबे अक़ीक़ा मुनअकिद करके कुरैश को मदऊ किया। जब लोग खाने से फारिग़ हुए तो उन्होंने अब्दुल मुत्तालिब से पूछा कि इस मौलूद का नाम क्या रखा है ? जिस की विलादत की खुशी में हमको मदऊ किया। अब्दुल मुत्तालिब ने फरमाया मुहम्मद (स.अ.व.व.) ! लोगों ने कहा वैसे नाम क्यों नहीं रखे जैसे कि अब तक इस घराने में होते हैं अब्दुल मुत्तालिब ने कहा मैंने इस नियत से यह नाम रखा है कि अल्लाह ताला इस बच्चे को मम्दूह फरमाये समावात में और मख़लूके ख़ुदा ज़मीन पर इसकी मदह हो।)

अल्लामा दयार बाकरी तारीख़े ख़ुमीस में रक़म तराज़ है कि रसूले अकरम (स.अ.व.व.) की विलादत के मौक़े पर अब्दुल मुत्तलिब ने ऊँट ज़बहा कराये और क़बील-ए-कुरैश के लोगों की दावत की। जब खाने से फराग़त हुयी तो लोगों ने पूछा कि जिस मौलूद की खुशी में आपने हमें मदऊ किया है उसका नाम क्या रखा है ? आपने फरमाया , मुहम्मद (स.अ.व.व.)। इस पर लोगों ने कहा कि क्या आपको अपने बुजुर्गों के नामों से रग़बत नहीं है ? आपने फरमाया कि मैंने यह नाम इसलिये रखा है ताकि यह बच्चा ज़मीन व आसमान पर महमूद हो। यह क़ौल भी तारीख़ों में मिलता है कि आप की मादरे गिरामी ने बशारत की बिना पर आपका यह नाम रखा था।

अलक़ाब और कुन्नियत

इस्लामी कुतुबे तफासीर , अहादीस और तारीख़ में आपके कसीरूल तादाद अलक़ाब महरूम हैं। इमाम समहूदी ने (अख़बारूल वफ़ा) में आपके निन्नानवे अल्क़ाब मय तौज़ीहात के बड़ी तफसील से क़लम बन्द फरमाते हैं उनमें एक मशहूर तरीन लक़ब ख़ातुमुल नबीईन भी जो नसे कुरानी मनसूस व मख़सूस है।

तिरमज़ी ने जबीर इब्ने मुतइम से आन हज़रत (स.अ.व.व.) का यह क़ौल नक़ल किय है कि मेरे अलक़ाब में हाशिर , जिसके जेरे क़दम लोग महशूर होंगे , माही यानि जिसके सबब से अल्लाह ताला कुफ्र को मिटा देगा और आक़िब (बाद में आने वाला) भी है। काज़ी अयाज़ ने किताब (शिफा) में लिखा है कि ख़ुदा के नामों में से एक नाम सादिक़ है और हदीस में रसूले करीम (स.अ.व.व.) का नाम भी सादिक़ व मसदूक़ आया है नीज़ ख़ुदा के नाम मौला और वली भी हैं जिनके मानी हाकिम और ऊला बित्तसर्रुफ़ के हैं और उन्हीं माने में अल्लाह ताला फरमाता है इन्नमा वलीकुमुल्लाहो व रसूलोह और रसूल (स.अ.व.व.) ने फरमाया (अना वली उन कुल्ले मोमेनिन) नीज़ हक़ ताला इरशाद फरमाता है कि (अल नबी ऊला बिल मोमेनीन मिनअन फुसेहिम) और जनाबे पैग़म्बरे ख़ुदा (स.अ.व.व.) ने फरमाया है मन कुन्तों मौलाहो फाअली उन मौला हो। आपकी कुन्नियत के बारे में फ़रीक़ैन का मुताफ़ेक़ा फैसला है कि (अबुल क़ासिम) थी।

रज़ाअत व परवरिश

अहले इस्लाम का कहना यह है कि जनाबे आमना के बाद सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) को सूबिया और हलीमा सादिया ने दूध पिलाया। कुछ मुवर्रेख़ीन ने यह लिखा है कि इस सआदत की तक़दीम का शरफ सूबिया की खुश क़िसमती का हिस्सा था जिसे अबुलहब ने अपनी कनीज़ी से आज़ाद कर दिया था , उनके बाद आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ख़िदमाते रज़ाअत से हलीमा सादिया मुशर्रफ हुयी) चुनानचे इब्ने साद का कहना है कि आमना लके बाद , सबसे पहले रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) को सूबिया ने अपने बेटे मसरूह का दूध पिलाया क्योंकि हलीमा उस वक़्त नहीं आयीं थी। आन हज़रत (स.अ.व.व.) के क़बल सूबिया ही ने हज़रत हमज़ा इब्ने अब्दुल मुत्तालिब और अबु सलमा बिन अब्दुल असद मख़जूमी को भी अपना दूध पिलाया था)

अल्लामा ज़रकानी हज़रत आमना की मुद्दते रज़ाअत के बारे मे रक़म तराज़ है कि आपने हुजूर अकरम (स.अ.व.व.) को कुल नौ दिन दूध पिलाया , बाज़ कहते हैं कि तीन दिन पिलाया और बाज को ख़्याल है कि सात दिन तक पिलाया। इन अक़वाल को साहबाने सीरत से साहबे तारीख़ खमीस ने लिखा है।

सूबिया के अय्यामे रज़ाअत की कोई खास मुद्दत किसी तारीख़ में नहीं मिलती। अलबत्ता ज़रक़ानी की तहरीर से यह वाज़ेह है कि हलीमा के आने से पहले सूबिया ने चन्द रोज़ तक आन हज़रत (स.अ.व.व.) को दूध पिलाया इसके बाद यह ख़िदमत हलीमा से मुतालिक़ हो गयी। ब्यान किया जाता है कि सूबिया की रज़ाअत के दौरान अरब के क़दीम दस्तूर के मुताबिक़ औरतों की मुख़तलिफ़ जमाअतें दूध पिलाने का काम तलाश करती हुयीं मक्का आयीं थी उसी क़ाफिले में हलीमा सादिया भी थी। चुनानचे हलीमा की हमराही औरतों को तो शरफ़ा और रउसा के बच्चे रज़ाअत के लिये मिल गये मगर हलीमा को इत्तेफ़ाक़ से कोई बच्चा नहीं मिला , वह इसी फिक्र व तलाश में हज़रत अब्दुल मुत्तालिब के दौलत सरां तक पुहँची , जनाबे आमना ने उन्हें अपने यतीम बच्चे की रज़ाअत के लिये मुक़र्रर करना चाहा मगर यह जान कर कि बच्चा यतीम है उन्होंने कुछ पस व पेश किया , इसलिए कि रज़ाअत के एवज़ माली मुनाअफत की उम्मीद बच्चे के बाप ही से हुआ करती है। फिर अपने मुतालिक़ यह सोच कर कि मैं मोअत्तिल रह जाऊँगी , उन्होंने इस ख़िदमत को कुबूल कर लिया और आन हज़रत (स.अ.व.व.) को अपने हमराह ले कर मक्के मोअज़्ज़मा से अपने मसकन की तरफ पलट आयीं।

इब्ने अस्हाक़ ने अपनी (सीरत) में तहरीर फरमाया है कि रसूले अक़रम (स.अ.व.व.) छः बरस तक हलीमा सादिया के पास उनके क़बीले मे परवरिश पाते रहे। जिलसमा ने इस छः साला मुद्दत में यह उसूल क़ायम रखा है कि हर छः माह बाद आपको अपने हमराह लेकर मक्का में आती थी और हफ्ता दस दिन जनाबे आमना के घर रह कर फिर वापल ले जातीं थी।

अल्लामा अब्दुल बाक़ी ज़रक़ानी का ब्यान है कि रज़ाअत के दो बरस तमाम हुये तो हलीमा हस्बे दस्तूर आप को जनाबे आमना के पास मुस्तक़िल तौर पर छोड़ने के लिये आयी मगर चूँकि उन दिनों मक्का में वबायी इमराज़ की कसरत थी , आबो हवा मुवाफिक़ न थी इसलिए हज़रत आमना की ख्वाहिश पर वह फिर अपने साथ वापस ले गयी और मज़ीद दो साल तक अपने पास रखा उसके बाद लाकर पहुँचा गयी।

उसके बाद ज़रक़ानी ने तमाम इख़तेलाफ़ी अक़वाल को जमा करके अपनी राय से यह फैसला किया कि (क़ौल रायज यही है कि आप चार बरस के सिन में अपनी वालिदा के पास वापस चले आये।

इसमें कोई कलाम नहीं कि तमाम मोअर्रेख़ीन , मोहद्दीस और मुफ़स्सेरीन ने सूबिया और हलीमा सादिया के मुतालिक़ यह तहरीर किया है कि उन औरतों ने सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) को दूध पिलाया था , मगर अक़ले सलीम रज़ाअत की इन रिवायत को कुबूल करने से क़ासिर है क्योंकि दुनिया की कोई तारीख़ नहीं बताती कि किसी नबी को उसकी माँ के अलावा किसी ग़ैर औरत ने अपना दूध पिलाया हो और न ही हज़रत आदम (अ.स.) से ईसा (अ.स.) तक किसी मिसाल के ज़रिये इसकी ताईद होती है। हज़रत इब्राहीम (अ.स.) और हज़रत मूसा (अ.स.) के वाक़ियात गवाह हैं कि किन नासाज़गार हालात में कुदरत ने उनकी माँओं को उन तक पहुँचाया है और जब माँ के पहुँचने में किसी मजबूरी की वजह से ताख़ीर हुई तो ख़ुद उसी बच्चे के अँगूठे से दूध का धारा जारी कर दिया , जैसा कि हज़रत इब्राहीम (अ.स.) के लिये हुआ। मतलब यह था कि अगर बच्चे को माँ का दूध दस्तियाब न हो सके तो भी वह शिकम सेर होता है। समझ में नहीं आता कि अन्बिया-ए-मासबक़ के उसूलों और तरीक़ों से हट कर रसूल अकरम (स.अ.व.व.) को माँ के अलावा किसी दूसरी औरत के दूध पिलाने को क्यों कर तसलीम किया जाये , खुसुसन ऐसी सूरत में जबकि यह अमर तस्लीम शुदा हो कि दूध से जो गोश्त पोस्त और खून बनता है वह नसब के गोश्त व पोस्त के मानिन्द होता है और दूध पीने से वह रिश्ता नाजाएज़ हो जाता है जो नसब से होता है। फिर ऐसी सूरत में जबकि आपकी माँ मौजूद थीं और अहदे रज़ाअत के बाद तक जि़न्दा रहीं हैं। लेहाज़ा फितरी तौर पर यह ख़्याल पैदा होता है कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) को जनाबे आमना ने दूध पिलाया था और सूबिया व हलीमा ने आपकी परवरिश व परदाख़्त के फरायज़ अन्जाम दिये थे। इस नज़रिये को कुरान मजीद की इस आयत से भी तक़वियत पहुँचती है जिसमें ख़ुदा वन्दे आलम हज़रत मूसा (स.अ.व.व.) के लिये इरशाद फरमाता है किः- (हमने दूध पिलाये जाने के नसवाल से पहले ही मूसा (अ.स.) पर तमाम दाईयों के दूध को हराम कर दिया था)

(कुरान मजीद पारा 22, रुकू 4)

भला यह क्यों कर मुम्किन है कि खु़दा वन्दे आलम हज़रत मूसा (अ.स.) को तो माँ के दूध के अलावा दीगर औरतों के दूध से बचाने का इतना एहतमाम करे और फख़रे मूसा हज़रत मुहम्मद मुसतफा (स.अ.व.व.) को इस तरह नज़र अन्दाज़ कर दें कि ऐसी औरतें उन्हें दूध पिलाये जिन का इस्लाम भी वाजे नहीं है।

इस्तेक़ा और नमू

जौहरे क़ुदसिया ने आपकी कुवते नमू में इस क़दर इरतेक़ा पैदा कर दिया था जो नबूवत की खुसूसियत को फ़ितरते इन्सानी की अमूमियत से बिल्कुल अलाहिदा करार देता है। इस हक़ीक़त को ज़रक़ानी अपनी शरह में यूँ ब्यान फरमाते हैं कि जनाबे रिसालते माब (स.अ.व.व.) जब दो माह के हुए तो घुटनियों चलने लगे , तीन माह के हुए तो खड़े होने लगे , चार माह में दीवार का सहारा लेकर चलने लगे। पाँच माह में आपके अन्दर कुवते रफ़तार पैदा हो गयी और छः माह में सुरअत की ताक़त आ गयी। आठवें मीने आपने बोलना शुरू किया और दस माह में फ़साहत व बलाग़त से कलाम करने लगे।

जनाबे आमना की रेहलत

जब आप छः बरस के हुए तो आपकी मादरे गिरामी आपको अपने साथ लेकर जनाबे अब्दुल्लाह की कब्र की ज़्यारत को मक्का से मदीना तशरीफ़ लायी और वहाँ एक माह तक मुक़ीम रहीं। इसी असना में बीमार पड़ी और वापसी में अबुवा के मुक़ाम जो मदीने से तक़रीबन 33 या 34 किलो मीटर की दूरी पर वाक़े हैं , आपने इन्तेक़ाल फरमाया और वहीं मदफून हुयीं। आपकी ख़ादमा उम्मे एमन वहाँ से आपको अपने हमराह ले कर मक्का वापस आयीं। जब आप आठ बरस के हुए तो आपके मुशफिक़ व मेहरबान दादा हज़रत अब्दुल मु्त्तालिब भी दुनिया से रुख़सत हो गये। हज़रत अब्दुल मुत्तालिब के बाद आपके चाचा हज़रत अबुतालिब और चची फ़ात्मा बिन्ते असद ने तरबियत के फरायड़ अपने ऊपर आयद किये। जैसा कि तबरी का बयान है किः- (वाक़ए फील से आठ बरस बाद हज़रत अब्दुल मुत्तालिब इन्तेका़ल फरमा गये और आन हज़रत (स.अ.व.व.) के बारे में हज़रत अबुतालिब को वसियत फरमा गये क्योंकि हज़रत अबुतालिब और हज़रत अब्दुल्लाह का मनसब हज़रत अबुतालिब को तफ़वीज़ हुआ फिर आन हज़रत हमेश अबुतालिब के हमराह रहे।) वाक़ियात की मुकम्मल तफसील जनाबे अबुतालिब बिन अब्दुल मुत्तालिब के हालात में मरकूम हो चुकी है।

सीरत व किरदार की बुलन्दी

जब आप छः बरस के हुए तो आपकी मादरे गिरामी आपको अपने साथ लेकर जनाबे अब्दुल्लाह की कब्र की ज़्यारत को मक्का से मदीना तशरीफ लायी और वहाँ एक माह तक मुक़ीम रही। इसी असना में बीमार पड़ीं और वापसी में अबुवा के मुक़ाम जो मदीने से तक़रीबन 33 या 34 किलो मीटर की दूरी पर वाक़े है , आपने इन्तेक़ाल फरमाया और वहीं मदफून हुयीं। आपकी ख़ादमा उम्मे ऐमन वहाँ से आपको अपने हमराह लेकर वापस आयीं। जब आप आठ बरस के हुए तो आपके मुशफिक़ व मेंहरबान दादा हज़रत अब्दुल मुत्तालिब भी दुनिया से रूख़सत हो गये। हज़रत अब्दुल मुत्तालिब के बाद आपके चचा हज़रत अबुतालिब और चची फात्मा बिन्ते असद ने तरबियत के फरायज़ अपने ऊपर आयद किये। जैसा कि तबरी का बयान है कि- (वाक़ए फील से आठ बरस बाद हज़रत अब्दुल मुत्तालिब इन्तेकाल फरमा गये और आन हज़रत (स.अ.व.व.) के बारे में हज़रत अबुतालिब को वसियत फरमा गये क्योंकि हज़रत अबुतालिब और हज़रत अब्दुल्लाह मांजाये भाई थे इस ख़ुसुसियत की वजह से आन हज़रत (स.अ.व.व.) की विलायत का मनसब हज़रत अबुतालिब को तफवीज़ हुआ फिर आन हज़रत हमेशा अबुतालिब के हमराह रहे।) वाक़ियात की मुकम्मल तफसील जनाबे अबुतालिब बिन अब्दुल मुत्तालिब के हालात में मरकूम हो चुकी हैं।

मुदब्बिरे कुदरत ने फितरते सालेहा के आला जौहरों से पैकरे रिसालत को मुरत्तब किया था। बचपन ही से पाकीज़गी , तहारत , तहज़ीब , शाइस्तगी , एहतियात , सब्रो रज़ा और हया व इफ्फत के बे मिसाल मुहासिन आपके आदात व अतवार और सीरत व किरदार से मुनसलिक थे जिसका एहसास हर मुशाहिद को होता था। ज़मानए जाहेलियत के ग़लत और फरसूदा मरासिम से हमेशा दामवन कश रहते थे। मुहब्बत , मुरव्वत , इन्साफ , दयानतदारी , अमानतदारी , रास्त गुफ्तारी , हकूक़ हमसायगी , मुआशरत , हिलम , और बरदाशत में आप खुसूसी इम्तेयाज़ात के मालिक थे। इसी लिये कुरैश के लोग आपको अमूमी तौर पर (अमीन) के लक़ब से याद किया करते थे।

हल्फुल फुजूल

हज़रत रसूले खुदा (स.अ.व.व.) की उम्र 20 बरस हुयी तो कुरैश के माबैन एक बाहमी मुआहिदा हुआ जिसे हल्फुल फुजूल कहते हैं। इस मुआहिदे के लिये बनी हाशिम , बनी ज़हरा और बनी तमीम के मुन्तख़ब मुमाइन्दे अब्दुल्लाह बिन जदआन तमीमी के मकान पर जमा हुये और हलफ की बुनियाद पर यह अहद किया कि हम हमेशा मज़लूमों की मदद व हिमायत करेंगे ख़्वाह वह कहीं के बाशिन्दे हों। हम ज़ालिमों से इस वक़्त मुक़ाबला करेंगे जब तक मज़दूर को उसका हक़ न मिल जाये। इस मुआहिदे के मोहर्रिक रसूले अकरम (स.अ.व.व.) के एक चचा जुबैर इब्ने अब्दुल मु्त्तालिब थे। इब्ने साद का कहना है कि यह मुआहिदा माहे ज़ीक़ाद में हुआ और यह तमाम साबिक़ा मुआहिदों में सबसे अफज़ल व अशरफ था।

इम मुआहिदे में बनि हाशिम की हैसियत से आन हज़रत (स.अ.व.व.) बनफसे नफीस खुद शरीक हुए और मबऊस बा रिसालत होने के बाद भी उसके अलमबरदार रहे। चुनानचे आप फरमाया करते थे कि निफाज़े दीने इस्लाम के बाद भी कोई शख़्स इस मुआहिदे की बिना पर मुझे आवाज़ दें तो मैं हाज़िर हूँ।

वाज़ेह रहे कि इस मुआहिदे में सिर्फ बनि हाशिम , बनि ज़हरा और बनि तीम के मुमाइन्दे ही शरीक थे। बनि उमय्या की किसी फर्द का नाम तारीख़ की किसी किताब में नहीं मिलता। मेरे ख़्याल में इसकी वजह सिर्फ यही हो सकती है कि यह क़बीला फितरतन ज़ालिम और तशद्दुद का खूगर था और इसके अफ़राद जिहालत के अँधेरों में रह कर सफ़्फ़ाकी , मक्कारी , खूँरेजी और मज़ालिम को अपनी मयोशत का मुस्तक़ील ज़रीया समझते थे।