तारीखे इस्लाम 2

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तारीखे इस्लाम 2 लेखक:
कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

तारीखे इस्लाम 2

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: जनाब फरोग़ काज़मी साहब
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तारीखे इस्लाम 2

तारीखे इस्लाम 2

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हिंदी

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ख़ाना आबादी

पच्चीस ( 25) साल की उम्र में जब आन हज़रत (स.अ.व.व.) के हुस्ने सीरत , दयानतदारी , रास्तबाज़ी और सिदक़ व सफ़ा की शोहरत आम हो गयी नीज़ आपको सादिक़ व अमीन का ख़िताब दिया जा चुका तो जनाबे खदीजा बिन्ते खुलीद ने जो इन्तेहाई पाकीज़ा नफस व पाक सीरत , खुश अतवार व खुश इख़लाक़ और अरब में सबसे ज़्यादा दौलत मन्द खातून थीं , आपके पास अफनी शादी का पैगा़म पहुँचाया जो मंजूर हुआ और हज़रत अबुतालिब ने आपका निकाह पढ़ा। मुवर्रेख़ीन का बयान है कि हज़रत ख़दीजा का मेहर बारह औन्स सोना और 25 ऊँट मुक़र्रर हुआ जिसे हज़रत अबुतालिब ने उसी वक़्त अदा कर दिया। जनाबे खदीजा की तरफ से अक़द पढ़ने वाले उनके चचा अम्र बिन असद थे। इस शादी की तफसीले हालात जनाबे अबुतालिब में मरकूम हो चुकी है।

इन्हेदाम व तामीरे काबा

जब हज़रत रसूले खुदा (स.अ.व.व.) की उम्र पैंतीस ( 35) साल की हुई तो कुरैश मक्का ने ख़ान-ए-काबा को मुन्हदिम करके अज़ सर नो तामीर का मनसूबा तैयार किया। इसका सब यह ब्यान किया जाता है कि पहाड़ों की दरमियानी वादी का बहाव काबे की सिमत था और उस वक़्त ख़ान-ए-काबा के गिर्द सिर्फ एक क़द्दे आदम ऊँची चारदीवारी थी छत वग़ैरा न थी इस लिये जब सेलाब आता था तो उसका पानी दीवारों के ऊपर से इमारत के अन्दर दाख़िल हो जाता था और उसमें शिगाफ़ पैदा कर देथा था जिस से उसके इन्हेदाम का ख़तरा लाहक़ होगया था। दूसरा सबब यह बताया जाता है कि उस वक़्त ख़ान-ए-काबा के दरमियान एक कुँए के अन्दर ख़ज़ाना था जो चोरी हो गया। इब्ने साद का कहना है कि यह ख़ज़ाना तलाई व नुकरई ज़ेवरात और एक सोने के बने हुए हिरन पर मुश्तमिल था जो चोरी हुआ लेहाज़ा कुरैश ने यह तय किया कि ख़ान-ए-काबा की मौजूदा इमारत को मुन्हदिम करके अज़सरे न इसकी तामीर अमल में लायी जाये और उसे मुसक़्क़फ़ कर दिया जाये। ताकि किसी ख़तरे का अन्देशा न रहे।

तारीख़ बताती है कि आग़ाज़े इन्हेदाम व तामीर से कबल कुरैश की एक बुजुर्ग व मुम्ताज़ शख़्सियत अबुवहब बिन अम्र बिन आएज़ बिन इम्रान बिन फखजूम ने खड़े होकर यह ऐलान किया कि ऐ गिरोहे कुरैश , इस बात का ध्यान रहे कि बैतुल्लाह की तामीर में हलाल की कामयाबी के अलावा तुम्हारी हराम की कमायी मसलन जिनाकारी का मुआवज़ा , सूद का रुपया और ग़ासेबाना का कोई रूपया पैसा न लगने पाये।

इस ऐलान से अन्दाज़ा होता है कि कुरैश मे शरियते इब्राहीमी के हराम व हालाल का तसव्वुर मौजूद था यह और बात है कि बेशतर अफराद अमली तौर पर इस के पाबन्द न रहें हों।

इस ख़्याल से कि यह शरफ किसी एक खानदान से मख़सूस न रहे कुरैश ने काबे की इस जदीद तामीर को मुख़तलिफ़ हिस्सों में तक़सीम कर दिया था। चुनानचे बैरूनी दरवाज़े का हिस्सा औलादे अबदे मनाफ व ज़हरा से मुताल्लिक़ हुआ , रूकने असूद और रूकने यमानी की दरमियानी दीवार बनि मख़जूम और दीगर कुरैशी खानदानों के हिस्से में आयीं , पुश्त की तरफ बनि अब्दुल दार व बनि असद के हिस्से में आया। इस तक़सीम के नतीजे में इन्हेदाम व तामीर का काम तो मुकम्मल हो गया मगर जब इस हिस्से की तामीर का वक़्त आया जहाँ हजरे असवद नस्ब होना था तो तमा क़बिलों में इख़तेलाफ़ पैदा हो गया और हर क़बीला इस कोशिश में मसरूफ हो गया कि यह शरफ उसी को हासिल हो जिसका अन्जाम यह हुआ कि .तलवारें बुलन्द होने लगीं और कश्त व खून का अन्देशा पैदा हो गया। इब्ने इसहाक़ का ब्यान है कि यह क़बायल आपस ही में जंग पर आमादा हो गये यहाँ तक कि बिनि अब्दुल दार ने एक प्याले में खून भर कर अपने सामने रखा और बनि अदी के साध मिलकर जान देने का अहद किया और अपने हाथ उस खून में डुबो दिये। इसकी वजह से तामीरी काम एक हफ्ते तक मुअत्तिल रहा। बिल आख़िर इस झगड़े को ख़त्म करने के लिये कुरैश के एक मोअम्मर शख़्स अबु उमय्या बिन मुग़ीरा की तजवीज़ पर यह हुआ कि कल जो शख़्स सबसे पहले ख़ान-ए-काबा में दाख़िल हो उसे सालिम मुक़र्रर किया जाये और वह जो फैसला करे उसे सब मान लें। चुनानचे दूसरे दिन वक़्त सहर ख़ान-ए-काबा में जो चेहरा नज़र आया वह हज़रत मुहम्मद मुस्तफा (स.अ.व.व.) का था जिसे देखते ही सब खुश हो गये और कहने लगे कि यह तो हमारे अमीन हैं। हम सब उनके फैसले पर राज़ी हैं।

इसके बाद सारा मुआमला आन हज़रत (स.अ.व.व.) के रूबरू पेश हुआ। आपने फरमाया , एक कपड़ा लाओ चुनानचे वह लाया गया। आपने दोशे मुबारक से अपनी अबा उतार कर ज़मीन पर बिछायी और हजरे असवद को उठा कर उसमें रख दिया , फिर फरमाया कि तुममें से हर क़बीले का एक आदमी इसको गोशा पकड़े , इस तरह हर क़बीले के नुमाइन्दा अफराद ने उसको उठाया और उस मुक़ाम तक ले आये जहाँ उसको रखा जाना था आपने बढ़कर अपने दस्ते मुबारक से हजरे असवद को उठाकर उसकी जगह पर नसब कर दिया और हुजूर (स.अ.व.व.) की इस हिकमते अमली से एक फितनये अज़ीम का अद्दे बाब हो गया।

बेअसत और नुजुले कुरान की इब्तेदा

हज़रत रसूले खुदा (स.अ.व.व.) ने बेअसत से दो साल क़बल (अज़तीस साल की उम्र में) कोहेहिरा के एक ग़ार को जिसकी लम्बाई चार हाथ और चौड़ाई डेढ़ हाथ थी अपनी इबादत गुज़ारी के लिये मुनतख़ब फ़रमा लिया था और उसी ग़ार में बैठ कर आप इबादत व रियाज़त के साथ साथ कमाले मारफत के आईने में जमाल व जलाले इलाही का मुशाहिदा फरमाते और ख़ान-ए-काबा को देख कर दिली सुकून व क़लबी इत्मिनान महसूस करते। कभी कभी खाने की अशया और पीने का पानी भी अपने हमराह ले जाते और चार चार छः छः दिन क़याम फरमाते नीज़ रमज़ानुल मुबारक का पूरा महीना वहीं गुज़ारते थे।

मुवर्रेख़ीन का ब्यान है कि जब आपकी उम्र चालीस साल एक यौम की हुई तो एक दिन आप इसी आलमे तन्हाई मे मसरूफ इबादत थे कि कानों में आवाज़ आई (या मुहम्मद (स.अ.व.व.) ) आपने इधर उधर देखा मगर कोई दिखायी नहीं दिया। फिर आवाज़ आयी और फिर आपने देखा मगर कोई दिखायी न दिया। फिर आवाज़ आयी और फिर आपने देखा तो आपकी नज़र एक नूरानी मख़लूक़ पर पड़ी। वह हज़रत जिबरील (अ.स.) थे , उन्होंने काह या मुहम्मद (स.अ.व.व.) ! पढ़ो (इक़रा) आपने फरमाया (मा अकरओ) क्या पढ़ुँ ? जिबरील ने कहा , इक़रा बइसमे रब्बेकल लज़ी ख़ल्क़ा। फिर आपने सब कुछ बढ़ दिया क्योंकि इल्में , कुरान आपको पहले ही से था।

जिबरील (अ.स.) की तहरीके इक़रा का मक़सद सिर्फ यह था कि नुजूले कुरान की इब्तेदा हो जाये। इसके बाद आपने जिबरील के साथ वजू किया और ज़ोहर की नमाज़ अदा करके अपने घर तशरीफ लाये। हज़रत ख़दीजतुल कुबरा और हज़रत अली (अ.स.) से सारा वाक़िया ब्यान किया , दोनों ने इज़हारे ईमान किया और नमाज़े असर बाजमात पढ़ी गयी। यह इस्लाम की पहली नमाज़ थी जिसमें बानिये इस्लाम इमाम और ख़दीजा व अली (अ.स.) मामूम थे। यह वाक़िया 27 रजबुल मुरज्जब सन् 41 आलमुल फील मुताबिक़ 610 का है।

साबेक़ीने इस्लाम

तारीख़े बताती हैं कि सिद्दीक़ए ताहिरा हज़रत ख़दीजतुल कुबरा के बाद वह पहली शख़्सियत जिसने तसदीक़े रिसालत करके अपने साबेक़ा ईमान का इज़हार किया , सिद्दीक़े अकबर व फ़ारूक़े आज़म हज़रत अली इब्ने अबुतालिब (अ.स.) की थी। इब्ने इसहाक़ कहते हैं कि मुर्दों में सबसे पहले जो शख़्स आन हज़रत (स.अ.व.व.) पर ईमान लाया और तसदीक़े रिसालत की वह अली (अ.स.) थे। तबरी ने ज़ैद बिन अरक़म , जाबिर इब्ने अब्दुल्लाह और अफीफे कुन्दी वग़ैरा से इब्ने इसहाक़ के इस क़ौल की तसदीक़ की है। ग़र्ज़ कि हज़रत अली (अ.स.) के साबिकुल इस्लाम व साबिकुल ईमान होने के बारे में इस कसरत से तारीख़ी शवाहिद और रवायात मौजूद हैं कि अगर उन्हें जमा किया जाये तो एक मुस्तक़िल किताब तैयार हो सकती है। हज़रत रसूल खुदा (स.अ.व.व.) ने खुद भी इसकी तसदीक़ फरमायी है चुनानचे दार क़तनी ने अबु सईद ख़दरी से इमामे अहमद ने हज़रत उमर से , हाकिम ने मआज़ से और अक़ीली ने हज़रत आयशा से रवायत की है कि हज़रत (स.अ.व.व.) ने फरमाया कि मुझ पर ईमान लाने वालों में सबसे पहले शख़्स अली अब हैं और हज़रत अली (अ.स.) का क़ौल है कि मैने सबसे पहले इस्लाम ज़ाहिर किया। अल्लामा अब्दुर्रहमान बिन ख़लदून फरमाते हैं कि हजरत ख़दीजा के बाद फ़ौरन हज़रत अली ईमान लाए। मुवर्रिख़ अबुल फिदा का कहना है कि जनाब ख़दीजा रज़ी अल्लाहताला अन्हा के अव्वल ईमान लाने और मुसलमान होने में किसी को कोई इख़्तेलाफ़ नहीं है मगर उनके बाद यह इख़्तेलाफ़ है कि अव्वलन कौन इमान लाया जबिक साहेबान सीरत और बहुत से अहले इल्म का बयान है कि मरदों में हज़रत अली बिन अबीतालिब नौ , दस या ग्यारह साल की उम्र में सबसे पहले मुशर्रफ़ ब इसलाम हुए।

अफीफे कुन्दी की इस रवायत से भी इसकी तसदीक होती है जिसमें उन्होंने चश्मदीद गवाह की हैसियत से यह वज़ाहत की है (कि मैंने बेइस्त के बाद आन हज़रत (स.अ.व.व.) को नमाज़ पढ़ते इस हालत में देखा है कि उनके पीछे जनाबे ख़दीजा और हज़रत अली (अ.स.) खड़े थे। उस वक़्त तक कोई इस्लाम न लाया था।

इस रवायत को अल्लामा अब्दुल बर ने इस्तेआब जीम 2 सफा 225 मतबूआ हैदराबाद दकन में , इब्ने असीर जज़री ने असदुलग़ाबा जीम 2 सफा 494 तारीख़े कामिल जीम 2 सफा 20 और तबरी ने तारीख़ कबीर जीम 2 सफा 212 मतबूआ मिस्र में नकल किया है। उनके अलावा शायरे मशरिक़ अल्लामा अक़बाल फरमाते हैं कि)।

मुस्लिमे अव्वल शाहे मर्दां अली (अ.स.) इश्क़ रा सरमायए ईमाँ अली (अ.स.)

यह अमर भी वाज़ेह रहे कि हज़रत अली (अ.स.) का रोज़े अज़ल ही से मुस्लिम और मोमिन होना साबित है लेहाज़ा उनके बारे में (इस्लाम लाने) उनके मुतालिक़ इस्लाम या ईमान लाने का जुमला इस्तेमाल हुआ है उससे इज़हारे इस्लाम व ईमान ही मुराद लेना चाहिये।

अल्लामा तबरिसी की एक रवायत से पता चलता है कि उसी दौर में हज़रत अली इब्ने अबुतालिब (अ.स.) के एक दूसरे के भाई जनाबे जाफरे तय्यार भी इस फेहरिस्त में शामिल हो चुके थे चुनानचे इब्तेदा में जो नमाजे़ं हुयी थीं और उनमें रसूल (स.अ.व.व.) के पीछे जो सफ क़ायम होती थी वह हज़रत अली (अ.स.) जाफर (अ.स.) , ज़ैद (अ.स.) और जनाबे ख़दीजा (स.अ.व.व.) पर मुशतमिल थी।

जनाबे ज़ैद के इस्लाम के बारे में इब्ने हश्षाम का कहना है कि-

(इब्ने इसहाक़ कहते हैं कि ज़ैद बिन हारसा बिन शरजील बिन काअब बिन अब्दुल अज्ज़ा बिन अमराउल क़ैस गुलाम रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) हज़रत अली (अ.स.) के बाद इस्लाम लाये और नमाज़ पढ़ी)

इब्ने हश्शाम के इस क़ौल को तबरी ने भी अपनी तारीख़ में लफज़ व लफज़ नक़ल किया है। इसके बाद तबरी फिर कहते हैं कि ज़ैद के बाद हजरत अबुबकर बिन अबुक़हाफ़ा इस्लाम लाये। इब्ने हश्शाम सफा 76 में भी यही इबारत मरक़ूम है और अल्लामा शिबली ने भी यही तरतीब नक़ल की है लेकिन तबरी ने आपको इस्लाम से मुतालिक़ तमाम रवायतों को जमा करने के बाद यह भी लिखा है किः-

(मुहम्मद इब्ने साद नाक़िल हैं कि मैंने अपने बाप से पूछा कि आप लोगों मे हज़रत अबुबकर क्या सबसे पहले इस्लाम लाये ? तो उन्होंने कहा कि नहीं , उनसे पहले पचास से ज़्यादा लोग इस्लाम ला चुके थे)

अगर तबरी की इस रिवायत को नज़र अन्दा़ज़ करके हम तरतीबे मशहूरा के मुताबिक बिल फ़र्ज़ मुहाल हज़रत अबुबकर को चौथे नम्बर पर मान भी लें तो पाँचवे अबुज़रे गफ़्फ़ारी , छटे ख़ालिद इब्ने सईद अबुल आस और सातवें उमर इब्ने अबसतुल सलमा साबेक़ीन इस्लाम साबित होते हैं। लेकिन तारीख़ व हदीस की किताबों में उन बुजुर्गों के बारे में इस क़दर इख़तेलाफ़ है कि कोई मवर्रिख़ व मोहक़्क़ि यह फैसला न कर सकेगा कि आख़ेरूल ज़िकर तीनों हजरात में कौन पहले इस्लाम लाया ? तबरी फरमाते हैं किः-

(वाक़ेदी का क़ौल है कि उन बुजुर्गों के साथ ख़ालिद इब्ने सईद बिन आस इस्लाम लाये वह शुमार में पाँचवे मुसलमान थे फिर अबुज़र इस्लाम लाये। वह चौथे थे या पाँचवे , हमारे नज़दीक इस इख़तेलाफ़ कसीर है कि उन तीनों बुजुर्गों ख़ालिद , अबुज़र और उमर बिन अबिस्ता में कौन पहले इस्लाम लाया)

यह है इस्लामी तारीख़ों का ब्यान और इस्लामी हदीसों की शान की आज तक यही न तय हो पाया कि उन तीनों बुजुर्गों में कौन साहब पहले इस्लाम लाये एक हज़रत अबुबकर को साबिकुल इस्लाम या सबक़त फिल इस्लाम सािबित करने की कोशिश मे हुकुमत के ज़ेरे असर ओलमा , मुहद्देसीन , मुफ़स्सेरीन और मुहक़्क़ेक़ीन ने तारीख़ों और हदीसों का दफतर इस तरह तहस नहस कर दिया कि हक़ीक़त का पता ही न चल सके। हालाँकि उमर इब्ने अबसतुल सलमा के बार में इमाम अब्दुल बर ने इस्तेआब में यह तहरीर किया है कि उन्हीं अहले किताब में से एक शख़्स ने यह बशारत दी थी कि मक्के में एक ऐसा शख़्स जाहिर होगा जिसका दीन अफज़ल तरीन होगा जब उसके ज़हूर की ख़बर सुनना तो तुम उसकी पैरवी करना। चुनानचे उमर इब्ने अबसता मक्के में आया करता था और पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के बारे में लोगों से पूछा करते थे यहाँ तक कि एक मर्तबा उमर बिन अबसता को मालूम हुआ कि एक शख़्स मक्के में पैदा हुआ है जो साबे़का दीन से मुनहरिफ है नीज़ उन्हे यह भी पता चला कि आन हज़रत (स.अ.व.व.) मग़फी हैं और तमाम कुरैश आपकी मुख़ालफ़त पर उतर आये हैं।

इस वाक़िये से ज़ाहिर है कि बुजुर्ग हज़रत के इस्लाम लाने की दास्तान बहुत बाद की है। फिर सबक़त का दावा कैसा ? सच तो यह है कि इमाम अब्दुल बाद की इस तहरीर ने इब्ने हश्षाम और तबरी राबेअन और ख़ामेसन पर पानी फेर दिया।

तबरी और इब्ने हश्षाम की तहरीर से पता चलता है कि हजरत अबुबकर जब मुसलमान हो चुके तो उन्ही की तहरीक पर कुछ दिनों के बाद हजरत उसमान , ज़ुबैर बिन अवाम , अब्दुल रहमान बिन औफ , सईद साद बिन अबीवकास और तलहा इब्ने अब्दुल्लाह ने इस्लाम इख़तेयार किया। हालाँकि असल वाक़िया यह है कि हज़रत अबुबकर की तहरीक पर मुसलमान नहीं हुए थे , बल्कि उनका इस्लाम हजरत अली इब्ने अबुतालिब (अ.स.) की कोशिशों का नतीजा था। तक़दीम व ताख़ीर के लेहाज़ से भी यह गिरोह मुवख़िर है क्योंकि तारीख़ों से इस अमर की निशानदेही होती है कि उन लोगों से पहले हज़रत अबुज़र गफ़्फ़ारी के हमराह अम्मार बिन यासीर , तुफ़ैल इब्ने उमर दूसी , ज़माद बिन सालबा , सहीब रूमी , उसमान बिन मज़ऊन और अबु फकीह वग़ैरा इस्लाम की नेमत से सरफराज़ हो चुके थे।

कानून तक़य्ये पर अमलदरामद

आग़ाज़े रिसालत से दीन बरस की मुद्दत तक कानूने तक़य्ये पर अमल होता रहा और मग़फी तौर पर इस्लाम की तबलीग़ होती रही जैसा कि इब्ने साद का बयान है-

(वही निजात होने के बाद इब्तेदा में तीन साल तक आन हज़रत (स.अ.व.व.) ख़ुफिया तौर पर तबलीग़ करते रहे यहाँ तक कि इज़हारे नबूवत का हुक्म आया)

मशियते खुदा वन्दी के सात मसहलत का तक़ाज़ा भी यही था कि सरकारे दो आलम (स.अ.व.व.) दावते इस्लाम को फिल्हाल मग़फी रखें। क्योंकि उस वक़्त सरकश और खूँखार कुफ्फार व मुशरेकीन के दरमियान आपकी ज़ात ऐसी थी जैसे कि बत्तीस दाँतों के दरमियान ज़बान होती है। यह सिर्फ आन हज़रत (स.अ.व.व.) ही का सब् व सबात और अज़में इस्तेक़लाल था कि अहदे जाहेलियत के खून आशाम माहौल में अपनी अज़ीम ज़िम्मेदारियों को इन्तेहायी राज़दारी , खबरदारी और खुश असलूबी के साथ आपने अन्जाम दिया यहाँ तक कि खुदा परस्तों की एक जमाअत तैयार हो गयी।

इन अय्यामे अख़फा में जब नमाज़ का वक़्त आता तो सरकारे ख़तमी मुरतबत (स.अ.व.व.) किसी पहाड़ की खायी में चले जाते और वहाँ अपनी नमाज़ अदा करते इब्ने असीर का ब्यान है कि चाश्त की नमाज़ आप हरम ही में अदा करते थे क्यों कि यह नमाज़ कुरैश के मज़हब में भी जारी थी।

तारीखे इस्लाम का यह एक अहम मसअला है कि इस्लाम क्यों कर फैला ? मुख़ालफ़ीन इस्लाम ने इसका ज़रिया तलवार बताया है , जबकि यह एक वाज़ेह हक़ीक़त है कि इब्तेदाई दौर में इस्लाम के हाथ में न तलवार थी न उसकी अपनी कोई फौज थी और न ही कोई रिसाल तैयार हुआ था कि उसके ज़रिये मुख़ालेफ़ीन के मज़ालिम और तशद्दुद का दिफाअ मुम्किन होता। अहले इस्लाम के लिये क़दम क़दम पर ख़तरात थे , जान व माल का अन्देशा था , मौत का साया था और अपने तहाफुज़ की ज़िम्मेदारियां। लेहाज़ा इश ख़ास पहलू को नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता कि इस्लाम से वाबस्ता होने वाले कौन और किस क़िस्म के लोग थे ?

यह अमर सबमें मुशतरक था कि यह लोग कुरैश के मनासिबे आज़म में से कोई मनसब नहीं रखते थे बल्कि ज़्यादा तर ऐसे अफराद थे जिन्हें जाह व दौलत के दरबार में जगह भी नहीं मिल सकती थी मसलन सहीब और अबुफकीह वग़ैरा। चुनानचे आन हज़रत (स.अ.व.व.) जब उन लोगों को लेकर हरम जाते थे तो रऊसाए कुरैश हँस कर कहते थे कि यही वह लोग हैं जिन पर ख़ुदा ने एहसान किया है। कुफ्फार के नज़दीक उनाक इफलास उनकी तहक़ीर का बाअस था लेकिन अगर हक़ बीं नज़रों से देखा जाये तो यही चीज़ थी जो उन्हें ईमान की दौलत से माला माल कर सकती थी। न उन्हें सरमायादारी से कोई सरोकार था और न इस बात का ख़ौफ था कि अगर बुत परस्ती छोड़ देंगे तो काबे का कोई मनसब हाथ से जाता रहेगा। ग़र्ज़ कि उनके दिल इस कसाफत से पाक व साफ़ थे जो कुरैश के दिलों में समाई हुई थी। शायद यही वजह है कि अन्बिया के इब्तेदायी पैरो हमेशा नादार व मुफलिस लोग हुवा करते थे। ईसाइयत के अरकान अव्वलीन माही गीर थे। हज़रत नूह (अ.स.) के मुक़्ररेबीन ख़ास के बारे मे कुफ्फार को कहना पड़ा किः- हम तो बज़ाहिर यह देखते हैं कि तेरी पैरवी उन्हीं लोगों ने कही जो रज़ील हैं।

मज़कुरा हालात की बिना पर मुख़ालेफ़ीन इस्लाम का यह दावा किस क़दर लगो , मुहमत और मज़हका खेज़ है कि इस्लाम तलवार के ज़ोर से फैला। यह बात और है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) के बाद खुलफा के दौर में जो फतूहाते इस्लाम के नाम पर हुयीं उनमें मुल्क गीरी की हवस कारफरमां थी।

मुख़लिफ़ीन इस्लाम अगर थोड़ी देर के लिए ताअस्सुब का चश्मा उतार दें तो यह हक़ीक़त उन पर वाज़ेह हो जायेगी कि इस्लाम न कोई नयही शरियत लाया न उसने अपने निसाब व एहकामाते शरयीं के बारे में कोई दावा किया बल्कि वह तमाम अन्बिया व मुरसलीन की गुज़िश्ता शरियतों को कामिल और मुकम्मल करने के लिये नाज़िल किया गया है। यही सबब है कि इस्लाम ने अपनी हक़ानियत की बिना पर जिस रफ़्तार से तरक़्की की मंज़िलें तय की हैं इसकी मिसाल किसी दूसरे मज़हब में नहीं मिलती।

दावते ज़ुलअशीरा

मखफी तबलीग़ के जब तीन बरस गुजर गये और बेइस्त का चौथा साल शुरू हुआ तो एलानिया तबलीग़ व दावत का हुक्म आया कि (वन्ज़ुर अशीरतकल अक़रीबन) अपने क़रीबी रिश्तेदारों को तबलीग़ करो।

इस आयत के नाज़िल होने के बाद आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने जनाबे अबुतालिब के घकर को मरकज़े तबलीग़ क़रार दिया और हज़रत अली (अ.स.) , से फरमाया कि वह औलादे अब्दुल मुत्तालिब के खाने का इन्तेज़ाम करें और उन्हें पैगाम दें कि वह शरीके दावत हों। हज़रत अली (अ.स.) ने कुछ गोश्त , एक प्याला दूध और सवा तीन सेर आटे की रोटियाँ का इन्तेज़ाम किया और औलादे अब्दुल मुत्तालिब को खाने पर तलब किया। मुक़र्रर वक़्त पर तक़रीबन चालीस अफराद इकट्ठा हुए उनमें आन हज़रत (स.अ.व.व.) के चचा अबुतालिब , हमज़ा इब्ने अब्बास और अबुलहब भी शामिल थे। अगर चे खाने वालों की तादाद को देखते हुए खाना कम था मगर खुदा ने उस थोड़े से खाने में इतनी बरकत दी कि सबने शिकम सेर होकर खाया फिर भी बचा रहा। जब यह लोग खाने से फारिग़ हुये तो आन हज़रत (स.अ.व.व.) ने खड़े होकर चाहा कि अपनी रिसालत का ऐलान करके उन्हें खुदा परस्ती की दावत दें कि अबुलहब ने लोगों को मुख़ातिब करते हुये कहा कि मुहम्मद (स.अ.व.व.) तुम्हें तुम्हारे आबाओ अजदाद के दीन से बहकाना और गुमराह करना चाहते हैं , उनकी बातों पर तवज्जो न करना वरना अन्देशा है कि तुम बहक जाओगे। अबुलहब की इस शर अंगेज़ी का नतीजा यह हुआ कि मजमें में इन्तेशार पैदा हो गया और सब लोग उठ खड़े हुये और पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) जो कुछ कहना चाहते थे वह न कह सके। दसूरे दिन हज़रत अली (अ.स.) के ज़रिये उन्हें दावत दी गयी और वह लोग फिर जमा हुये और जब खाने से फराग़त हुई तो पैग़म्बरे अकरम (स.अ.व.व.) फिर फरिज़ये तबलीग़ अद करने खड़े हुये , अबुलहब ने फिर रख़ना अन्दाज़ी करना चाही मगर जनाबे अबुतालिब ने मुआन्दाना रविश को देख कर उसे डाँटा और कहा कि (ऐ बदबख़्त! तुझे इन बातों से क्या वास्ता। (यह सुन कर अबुलहब को फिर बोलने की हिम्मत न हुई और वह घुटनों में सर देकर ख़ामोश बैठ गया। फिर हज़रत अबुतालिब ने मजमें से मुख़ातिब होकर फरमाया कि तुम लोग अपनी अपनी जगह पर सुकून व इत्मिनान से बैठे रहो और पैग़म्बर (स.अ.व.व.) से कहा कि आप जो कहना चाहते हैं कहिये हम उसे सुनेंगे और उस पर अमल करेंगे आन हज़रत (स.अ.व.व.) की ढारस बन्धी और आपने मजमे से ख़िताब करते हुये फ़रमाया-

(ऐ फरज़न्दाने अबुल मुत्तालिब! ख़ुदा की क़सम मैं नहीं जानता कि अरब मों कोई शख़्स इस चीज़ से बेहतर चीज़ लाया हो जो मैं तुम्हारे लिये लेकर आया हूँ। मैं तुम्हारे लिये दुनिया व आख़रत की भलाई ले कर आया हूँ और ख़ुदा ने मुझे हुक्म दिया है कि मैं इस भलाई की तरफ तुम्हें दावत दूँ। तुम में कौन शख़्स है जो इस सिलसिले में मेरा मददगार बनने के लिये तैयार है ? मैं वादा करता हूँ कि वही मेरा भाई , मेरा वसी और मेरा जॉनशीन क़रार पायेगा।)

दो चार आदमियों के अलावा कोई भी इस ऐलान पर खुश न था चे जाएकि कि उनमें से कोई दस्ते ताअव्वुन बढ़ाता या नुसरत व हिमायत का वादा करता। सब सर झुकाये हुए चुप बैठे रहे कि दफतन उस ख़माश फिज़ां में अली (अ.स.) की आवाज़ सुकूत और सन्नाटे को तोड़ती हुई गूँजी , या रसूल उल्लाह! मैं आपका मुआविन व मददगार और सीना सिपर हूँगा , अगर किसी ने आपको टेढ़ी नज़रों से देखा तो मैं उसकी आँखे फोड़ दूँगा और किसी ने शरअंगेज़ी की तो उसका पेट फाड़ दूँगा। आन हज़रता (स.अ.व.व.) ने फरमाया , ऐ अली (अ.स.) ! तुम ज़रा तवक़्कुफ़ करो शायद इन बड़ों में से कोई शख़्स मेरी आवाज़ पर लब्बैक कहे। जब तीन मर्तबा कहने के बाद भी हाज़रीन की तरफ से कोई जवाब न मिला तो आपने अली (अ.स.) को अपने करीब बुलाया उनके सर पर हाथ रखा और फरमायाः-

(यक़ीनन यह मेरा भाई वसी मेरा जॉनशीन है और तुम सब को लाज़िम है कि इसकी इताअत करो।)

क़ुरैश ने यह ऐलान सुना तो उनके होंटो पर एक तहक़ीक आमेज़ मुस्कुराहट नमूदार हुई। कनखियों से एक दुसरे को देखा और उशे एक मजहक़ा खेज़ बात समझ कर उसका मज़ाक उड़ाया , कुछ मनचलों ने हज़रत अबुतालिब से यह तक कहा कि तुम भी अपने बेटे की बात मानो और उसकी इताअत करो।

अगर चे उस वक़्त हज़रत अली (अ.स.) की बातों पर कुरैश ने कोई तवज्जो नहीं दी और एक सरसरी व ब सरोपा बात समझ कर उसका तमसखुर उड़ाया मगर दुनिया ने डरा धमका कर देखा लियाकि इस कमसिन और नौखेज़ बच्चे ने भरी महफ़िल मे जो वादा किया था उसे पूरी तरह निभाया। दुश्मनों के नरग़े में तलवारों के साये में यह साबित कर दिया कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) के ऐलान के मुताबिक़ आन हज़रत (स.अ.व.व.) की जॉनशीन और क़ायम मुक़ामी का इससे बढ़कर कोई हक़दार नहीं है।

अमीरूल मोमनीन (अ.स.) के ईफ़ाये अहद के नतीजे में पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व.) पर भी यह फर्ज़ आयद होता था कि वह अली (अ.स.) की खिलाफ़त व नियाबत का उमूमी ऐलान करके दुनिया को यह बता दे कि अगर अली (अ.स.) ने अपनी जान खतरे में डाल कर अपने वादे की तकमील की है तो मैं भी अपने वादे को पूरा करके दुनिया से रुखसत होना चाहता हूँ। चुनानचे इसी एहसासे फर्ज़ के तहत और हुक्मे इलाही के मुताबिक अलविदा की वापसी पर ग़दीरे खुम के मुक़ाम पर (मन कुनतो मौला फाअली उन मौला) कह कर आपने अली (अ.स.) की खिलाफ़त और हाकमीयत का ऐलान किया। यह ऐलान उसी दावते अशीरा की सदाये बाज़गश्त और अली के ईफ़ाये अहद व हुस्न ख़िदमात का अमली एतराफ़ था।

इस दावते अशीरा के ऐलान से हज़रत अली (अ.स.) की खिलाफ़त की बुन्यादी हैसियत पर भी रौशनी पड़ती है , इस तरह कि पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने इस उमूमी दावते इस्लाम के मौक़े पर सिर्फ तीन चीज़ों का ऐलान किया। एक तौहीद , दूसरे रिसालत और तीसरे हज़रत अली (अ.स.) की वसायत व ख़िलाफ़त। तौहीद व रिसालत के ऐलान के साथ साथ इस नियाबत व ख़िलाफ़त का ऐलान उसकी असासी व बुनयादी हैसियत को वाज़े करने के लिये काफ़ी है। लेहाज़ा तौहीद व रिसालत अगर उसूले इस्लाम में दाख़िल है तो हज़रत अली (अ.स.) की इमामत भी इस्लाम का एक अहम रूकन शुमार होगी और जिस तरह इस्लाम के लिये तौहीद व रिसालत का इक़रार ज़रुरी है उसी तरह अली 0 की वसायत व नियाबत का इक़रा भी लाज़मी होगा।

नुसरते रसूल का आग़ाज़

रसूले अकरम (स.अ.व.व.) ने जब एलानिया तबलीग़े इस्लाम का आगाज़ किया तो कुरैश को हज़रत अबुतालिब का थोड़ा बहुत पास व लेहाज़ था , उन्होंने बराहे रास्त लड़ने के बजाये अपने बच्चों को यह सिखाया कि वह आन हज़रत (स.अ.व.व.) को जहाँ पायें परेशान करें और उन पर पत्थर फेंके ताकि वह तंग आकर बुत परस्ती के खिलाफ कहना सुनना छोड़ दें और इस्लाम की तबलीग़ से किनारा कश होकर घर में बैठ जायें। चुनानचे जब पैग़म्बर घर से निकलते तो कुरैश के लड़के के पीछे लग जाते। कोई ख़स व ख़ाशाक़ फेंकता और कोई ईंट पत्थर मारता। आन हज़रत (स.अ.व.व.) आजुर्दा ख़ातिर होते , अज़ीयतें बर्दाश्त करते मगर ज़बान से कुछ न कहते , और न कुछ कहने का महल था , इसलिए कि बच्चों से उलझना और उनके मुँह लगना किसी भी मज़हब और संजीदा इन्सान को ज़ेब नहीं देता। एक मर्तबा हज़रत अली (अ.स.) ने आपके जिस्में मुबारक , पर चोटों के निशान देखे तो पूछा या रसूल उल्लाह (स.अ.व.व.) यह आपके जिस्म पर निशान कैसे हैं ? पैग़म्बर (स.अ.व.व.) ने भर्राई हुई आवाज़ में कहा कि ऐ अली कुरैश खुद तो सामने आते नहीं अपने बच्चों को सिखाते पढ़ाते हैं कि वह मुझे जहाँ पायें तंग करे। मैं जब भी घर से बाहर निकलता हूँ तो वह गलियों और बाज़ारों मे जमां हो जाते हैं और मुझ पर पत्थर बरसाते हैं यह उन्हीं चोटों के निशानात हैं। हज़रत अली (अ.स.) ने यह सुना तो वह बेचैन हो गये और कहा कि या रसूल उल्लाह आईन्दा आप तन्हा कहीं न जायें , जहाँ जाना हो मुझे साथ ले जायें। आप तो उन बच्चों से मुक़ाबला करने से रहे मगर मैं तो बच्चा हूँ , मैं उन्हें ईंट का जवाब पत्थर से दूँगा और आईन्दा उन्हें जुराअत न होगी कि वह आपको अज़ीयत दें या आपका रास्ता रोकें। चुनानचे दूसरे दिन जब पैग़म्बर (स.अ.व.व.) घर से निकले तो अली (अ.स.) को भी साथ ले लिया। हस्बे आदत कुरैश के लड़के हजूम करके आगे बढ़े। देखा कि पैगम़्बर (स.अ.व.व.) के आगे अली (अ.स.) खड़े हैं। वह लड़के भी अली 0 (अ.स.) के सिन व साल के होंगे उन्हें अपने हम सिन के मुक़ाबले में तो बड़ी जुराअत दिखाना चाहिये थी मगर अली (अ.स.) के बिगड़े हुए तेवर देख कर झिझके। फिर हिम्मत करके आगे बढ़े। उधर अली (अ.स.) ने अपनी आस्तीनें उल्टी और बिफरे हुए शेर की तरह उन पर टूट पड़े। किसी का हाथ तोड़ा , किसी का सर फोड़ा , किसी को ज़मीन पर पटख़ा और किसी को पैरों तले रोंदा। बच्चों का हुजूम अपने ही सिन व साल के एक बच्चे से पिट पिटा कर भाग खड़ा हुआ और घर जाकर अपने बड़ों से फरयाद की कि अली (अ.स.) ने हमें बुरी तरह मारा पीटा है। मगर बड़ों की यह हिम्मत न हो सकी कि फरज़न्दे अबुतालिब से कुछ कहें , क्योंकियह सब कुछ उन्हीं के ईमा पर होता था। उसके बाद से बच्चे जब पैग़म्बर के साथ अली (अ.स.) को देखते तो कहीं दुबक कर बैठ जाते थे या इधर उधर मुन्तशिर हो जाते।

इस वाक़िये के बाद हज़रत अली (अ.स.) को ख़ज़ीम के लक़ब से याद किया जाने लगा जिसके मानी हड़डी पसली का तोड़ने वाला है। चुनानचे जंगे ओहद में जब आप तलहा इब्ने अबितलहा के मुक़ाबले के लिये निकले तो उसने पूछा कि मेरे मुक़ाबले में आने वाला कौन है ? आपने फरमाया मैं अली इब्ने अबुतालिब (अ.स.) हूँ। तलहा ने देखा कि उसका मुक़ाबला अली (अ.स.) से है तो उसने कहा। (ऐ खज़ीम! मैं समझता था कि मेरा मुक़ाबले में आने की जुराअत तुम्हारे अलावा और किसी को न होगी।

इस मौक़े पर तलहा ने आपको बचपन के लक़ब से याद किया , ऐसा मालूम होता है कि कुरैश के बच्चों में यह भी शामिल था और हज़रत अली (अ.स.) से अपनी हड़़ड़ी पसील तुड़वा चुका था।