इस हफ़्ते की अख़लाक़ी बहस में पैग़म्बर अकरम(स.) की एक हदीस बयान की जो आपने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से बयान फरमाई थी। इस हदीस में मोमिन की 103 सिफ़तें बयान की गईं हैं जिनमें से छब्बीस सिफ़ते बयान हो चुकी हैं और इस जलसे में पाँच सिफते और बयान करनी है।
“ .....लतीफ़ुल हरकात ,हलवुल मुशाहिदति ,कसीरुल इबादति ,हुस्नुल वक़ारि ,लय्यिनुल जानिबि.....। ” [1]
मोमिन की हरकतें लतीफ़ ,उसका दीदार शीरीन और उसकी इबादत ज़्यादा होती हैं ,उससे सुबुक हरकतें सरज़द नहीं होती और उसमें मोहब्बत व आतिफ़त पायी जाती है।
मोमिन की सत्ताइसवी सिफ़त- “लतीफ़ुल हरकात ” होना है। यानी मोमिन के हरकातो सकनात बहुत लतीफ़ होते हैं और वह अल्लाह की मख़लूक़ के साथ मुहब्बत आमेज़ सलूक करता है।
मोमिन की अठ्ठाइसवी सिफ़त- “हुलुवुल मुशाहिदह ”होना है। यानी मोमिन हमेशा शाद होता है वह कभी भी तुर्श रू नही होता।
मोमिन की उनत्तीसवी सिफ़त- “कसीरुल इबादत ”है। यानी मोमिन बहुत ज़्यादा इबादत करता है। यहाँ पर एक सवाल पैदा होता है और वह यह कि इबादत से रोज़ा नमाज़ मुराद है या इसके कोई और माअना हैं ?
इबादत अपने खास माअना में-
यह वह इबादत है कि अगर इसमें क़स्द क़ुरबत न किया जाये तो बातिल हो जाती है।
हर वह काम कि अगर उसको क़स्द क़ुरबत के साथ किया जाये तो सवाब रखता हो मगर क़स्दे क़ुरबत उसके सही होने के लिए शर्त न हो। इस सूरत में तमाम कामों को इबादत का लिबास पहनाया जा सकता है। इबादत रिवायत में इसी माअना में हो सकती है।
मोमिन की तीसवीं सिफ़त- “हुस्नुल वक़ार ” है। यानी मोमिन छोटी और नीची हरकतें अंजाम नही देता। विक़ार या वक़ार का माद्दा वक़र है जिसके माअना संगीनी के हैं।
मोमिन की इकत्तीसवीं सिफ़त- “लय्यिनुल जानिब ”है। यानी मोमिन में मुहब्बत व आतेफ़त पायी जाती है।
ऊपर ज़िक्र की गईं पाँच सिफ़तों में से चार सिफ़तें लोगों के साथ मिलने जुलने से मरबूत हैं।लोगों से अच्छी तरह मिलना और उनसे नेक सलूक करना बहुत ज़्यादा अहमियत का हामिल है। इससे मुख़ातेबीन मुतास्सिर होते हैं चाहे दीनी अफ़राद हों या दुनियावी।
दुश्मन हमारे माथे पर तुन्द ख़ुई का कलंक लगाने के लिए कोशा है लिहाज़ा हमें यह साबित करना चाहिए कि हम जहाँ “अशद्दाउ अलल कुफ़्फ़ार है ”वहीँ “रहमाउ बैनाहुम ” भी हैं। आइम्मा-ए- मासूमान अलैहिमुस्सलाम की सीरत में मिलता है कि वह उन ग़ैर मुस्लिम अफ़राद से भी मुहब्बत के साथ मिलते थे जो दर पैये क़िताल नही थे। नमूने के तौर पर ,तारीख़ में मिलता है कि एक मर्तबा हज़रत अली अलैहिस्सलाम एक यहूदी के हम सफ़र थे। और आपने उससे फ़रमा दिया था कि दो राहे पर पहुँच कर तुझ से जुदा हो जाऊँगा। लेकिन दो राहे पर पहुँच कर भी जब हज़रत उसके साथ चलते रहे तो उस यहूदी ने कहा कि आप ग़लत रास्ते पर चल रहे हैं ,हज़रत ने उसके जवाब में फ़रमाया कि अपने दीन के हुक्म के मुताबिक हमसफ़र के हक़ को अदा करने के लिए थोड़ी दूर तेरे साथ चल रहा हूँ। आपका यह अमल देख कर उसने ताज्जुब किया और मुस्लमान हो गया। इस्लाम के एक सादे से हुक्म पर अमल करना बहुत से लोगों के मुसलमान बनने इस बात का सबब बनता है। (यदख़ुलु फ़ी दीनि अल्लाहि अफ़वाजन) लेकिन अफ़सोस है कि कुछ मुक़द्दस लोग बहुत ख़ुश्क इंसान हैं और वह अपने इस अमल से दुश्मन को बोलने का मौक़ा देते हैं जबकि हमारे दीन की बुनियाद तुन्दखुई पर नही है। क़ुरआने करीम में 114 सूरेह हैं जिनमें से 113 सूरेह अर्रहमान अर्रहीम से शुरू होते हैं। यानी 1/114 तुन्दी और 113में रहमत है।
दुनिया में दो तरीक़े के अच्छे अखलाक़ पाये जाते हैं।
1.रियाकाराना अखलाक़ (दुनियावी फ़ायदे हासिल करने के लिए)
2.मुख़लेसाना अखलाक़ (जो दिल की गहराईयों से होता है)
पहली क़िस्म का अख़लाक यूरोप में पाया जाता है जैसे वह लोग हवाई जहाज़ में अपने गाहकों को खुश करने के लिए उनसे बहुत मुहब्बत के साथ पेश आते हैं ,क्योंकि यह काम आमदनी का ज़रिया है। वह जानते हैं कि अच्छा सलूक गाहकों को मुतास्सिर करता है।
दूसरी क़िस्म का अख़लाक़ मोमिन की सिफ़त है। जब हम कहते हैं कि मोमिन का अखलाक बहुत अच्छा है तो इसका मतलब यह है कि मोमिन दुनयावी फ़ायदे हासिल करने के लिए नही बल्कि आपस में मेल मुहब्बत बढ़ाने के लिए अख़लाक़ के साथ पेश आता है। क़ुरआने करीम में हकीम लुक़मान के क़िस्से में उनकी नसीहतों के तहत ज़िक्र हुआ है “व ला तुसाअइर ख़द्दका लिन्नासि व ला तमशि फ़िल अरज़े मरहन... ”[2] “तुसाअइर ” का माद्दा “सअर ” है और यह एक बीमारी है जो ऊँटों में पाई जाती है । इस बीमारी की वजह से ऊँटो की गर्दन दाहिनी या बाईँ तरफ़ मुड़ जाती है। आयत फ़रमा रही है कि गर्दन मुड़े बीमार ऊँट की तरह न रहो और लोगों की तरफ़ से अपने चेहरे को न मोड़ो । इस ताबीर से मालूम होता है कि बद अख़लाक़ अफ़राद एक क़िस्म की बीमारी में मुबतला हैं। आयत के आख़िर में बयान हुआ है कि तकब्बुर के साथ राह न चलो।
[1]बिहारुल अनवार जिल्द 64 पेज न. 310
[2]सूरए लुक़मान आयत न. 18
कुछ अहादीस के मुताबिक़ 25 ज़ीक़ादह रोज़े “दहुल अर्ज़ ”और इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम के मदीने से तूस की तरफ़ सफ़र की तारीख़ है। “दह्व ” के माअना फैलाने के हैं। कुरआन की आयत “व अलअर्ज़ा बअदा ज़ालिका दहाहा ”[1] इसी क़बील से है।
ज़मीन के फैलाव से क्या मुराद हैं ?और इल्मे रोज़ से किस तरह साज़गार है जिसमें यह अक़ीदह पाया जाता है कि ज़मीन निज़ामे शम्सी का जुज़ है और सूरज से जुदा हुई है ?
जब ज़मीन सूरज से जुदा हुई थी तो आग का एक दहकता हुआ गोला थी ,बाद में इसकी भाप से इसके चारों तरफ़ पानी वजूद में आया जिससे सैलाबी बारिशों का सिलसिला शुरू हुआ और नतीजे में ज़मीन की पूरी सतह पानी में पौशीदा हो गई। फिर आहिस्ता आहिस्ता यह पानी ज़मीन में समा ने लगा और ज़मीन पर जगह जगह खुशकी नज़र आने लगी। बस “दहुल अर्ज़ ”पानी के नीचे से ज़मीन के ज़ाहिर होने का दिन है। कुछ रिवायतों की बिना पर सबसे पहले खाना-ए- काबा का हिस्सा जाहिर हुआ। आज का जदीद इल्म भी इसके ख़िलाफ़ कोई बात साबित नही हुई है। यह दिन हक़ीक़त में अल्लाह की एक बड़ी नेअमत हासिल होने का दिन है कि इस दिन अल्लाह ने ज़मीन को पानी के नीचे से ज़ाहिर कर के इंसान की ज़िंदगी के लिए आमादह किया।
कुछ तवारीख़ के मुताबिक़ इस दिन इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम ने मदीने से तूस की तरफ़ सफर शुरू किया और यह भी हम ईरानियों के लिए अल्लाह एक बड़ी नेअमत है। क्योंकि आपके क़दमों की बरकत से यह मुल्क आबादी ,मानवियत ,रूहानियत और अल्लाह की बरकतों के सर चशमे में तबदील हो गया। अगर हमारे मुल्क में इमाम की बारगाह न होती तो शियों के लिए कोई पनाहगाह न थी। हर साल तक़रीबन 1,5000000 अफ़राद अहले बैत अलैहिमुस्सलाम से तजदीदे बैअत के लिए आपके रोज़े पर जाकर ज़ियारत से शरफयाब होते हैं। आप की मानवियत हमारे पूरे मुल्क पर साया फ़िगन है और हम से बलाओं को दूर करती है। बहर हाल आज का दिन कई वजहों से एक मुबारक दिन है। मैं अल्लाह से दुआ करता हूँ कि वह हमको इस दिन की बरकतों से फ़ायदा उठाने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाये।
इस हफ़्ते की अख़लाक़ी बहस में रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम की एक हदीस नक़्ल की जो आपने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से खिताब फ़रमाई। इस हदीस में मोमिने कामिल की 103 सिफ़तें बयान की गयीं हैं ,हम पिछले जलसे तक इनमें से 31 सिफ़तें बयान कर चुके हैं और आज के इस जलसें में चार सिफ़ात और बयान करेंगे।
“ ......हलीमन इज़ा जहला इलैह ,सबूरन अला मन असा इलैह ,युबज्जिलुल कबीरा व युराह्हिमु अस्सग़ीरा......। ” [2]
मोमिने कामिलुल ईमान जाहिलों के जहल के मुक़ाबिल बुरदुबार और बुराईयों के मुक़ाबिल बहुत ज़्यादा सब्र करने वाला होता है ,वह बुज़ुर्गों का एहतराम करता है और छोटों के साथ मुहब्बत से पेश आता है।
मोमिन की बत्तीसवीं सिफ़त- “हलीमन इज़ा जहला इलैह ” है। यानी वह जाहिलों के जहल के सामने बुरदुबारी से काम लेता है अगर कोई उसके साथ बुराई करता है तो वह उसकी बुराई का जवाब बुराई से नही देता।
मोमिन की तैंतीससवीं सिफ़त- “सबूरन अला मन असा इलैह ”है। यानी अगर कोई मोमिन के साथ अमदन बुरा सलूक करता है तो वह उस पर सब्र करता है। पहली सिफ़त में और इस सिफ़त में यह फ़र्क़ पाया जाता है कि पहली सिफ़त में ज़बान की बुराई मुराद है और इस सिफ़त में अमली बुराई मुराद है।
इस्लाम में एक क़ानून पाया जाता है और एक अखलाक़ ,क़ानून यह है कि अगर कोई आपके साथ बुराई करे तो आप उसके साथ उसी अन्दाज़े में बुराई करो। क़ुरआन में इरशाद होता है कि “फ़मन एतदा अलैकुम फ़आतदू अलैहि बिमिसलि मा आतदा अलैकुम..। ” [3] यानी जो तुम पर ज़्यादती करे तुम उस पर उतनी ही ज़्यादती करो जितनी उसने तुम पर की है। यह क़ानून इस लिए है ताकि बुरे लोग बुरे काम अंजाम न दें। लेकिन अख़लाक़ यह है कि न सिर्फ़ यह कि बुराई के बदले में बुराई न करो बल्कि बुराई का बदला भलाई से दो। क़ुरआन फ़रमाता है कि “इज़ा मर्रु बिल लग़वि मर्रु किरामन ” [4] या “इदफ़अ बिल्लति हिया अहसनु सय्यिअता ” [5] यानी आप बुराई को अच्छाई के ज़रिये ख़त्म कीजिये। या “व इज़ा ख़ातबा हुम अल जाहिलूना क़ालू सलामन ” [6] जब जाहल उन से ख़िताब करते हैं तो वह उन्हें सलामती की दुआ देते हैं।
मोमिन की चौंतीसवीं सिफ़त- “युबज्जिलुल कबीरा ” है। यानी मोमिन बुज़ुर्गों की ताज़ीम करता है। बुज़ुर्गों के एहतराम के मस्अले को बहुतसी रिवायात में बयान किया गया है। मरहूम शेख़ अब्बासे क़ुम्मी ने अपनी किताब “सफ़ीनतुल बिहार ” में एक रिवायत नक़्ल की है कि “मन वक़्क़रा शैबतिन लि शैबतिहि आमनुहु अल्लाहु तआला मन फ़ज़ाअ यौमिल क़ियामति ”[7] जो किसी बुज़ुर्ग का एहतराम उसकी बुज़ुर्गी की वजह से करे तो अल्लाह उसे रोज़े क़ियामत के अज़ाब से महफ़ूज़ करेगा। एक दूसरी रिवायत में मिलता है कि “इन्ना मिन इजलालि अल्लाहि तआला इकरामु ज़ी शीबतिल मुस्लिम ”[8] यानी अल्लाह तआला की ताअज़ीम में से एक यह है कि बुज़ुर्गों का एहतराम करो।
मोमिन की पैंतीसवीं सिफ़त- “युराह्हिमु अस्सग़ीरा ”है। यानी मोमिन छोटों पर रहम करता है। यानी मुहब्बत के साथ पेश आता है।
मशहूर है कि जब बुज़ुर्गों के पास जाओ तो उनकी बुज़ुर्गी की वजह से उनका एहतराम करो और जब बच्चो के पास जाओ तो उनका एहतराम इस वजह से करो कि उन्होंने कम गुनाह अंजाम दिये हैं।
[1]सूर-ए- नाज़िआत ऐयत न. 30
[2]बिहारुल अनवारजिल्द64 पेज न. 311
[3]सूरए बकरह आयत न. 194
[4]सूरए फ़ुरक़ान आयत न. 72
[5]सूरए मोमिनून आयत न. 96
[6]सूरए फ़ुरक़ान आयत न.63
[7]सफ़ीनतुल बिहार ,माद्दाए (शीब)
[8] -सफ़ीनतुल बिहार माद्दाए (शीब)
इमामत व ख़िलाफ़त क्या है ?
ईशदूत सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के उत्तराधिकारी या जानशीन की अनिवार्यता या आवश्यकता ?
इस शीर्षक का आरम्भ हम इस प्रश्न से करेगें कि क्या अल्लाह के नबी सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के बाद उनके लिये किसी उत्तराधिकारी या नायब का होना आवश्यक या ज़रुरी है या नही ?
इसका उत्तर हम इस प्रकार देगें:
पूरी इस्लामी उम्मत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के बाद उनके उत्तराधिकारी के आवश्यक व ज़रूरी होने पर एकमत है। यह चीज़ शिया व सुन्नी के बहुत से उलमा व बुद्धिजीवियों के कथन से ज़ाहिर होती है बल्कि यह कहना चाहिये कि स्पष्ट होती है। उदाहरण के तौर पर हाफ़िज़ बिन हज़्म अंदुलुसी अपनी किताब अल फ़ेसल फ़िल अहवाए वल मेलले वन नहल में लिखते हैं:
اتفق جمیع فرق اھل السنۃ و جمیع فرق الشیعۃ و جمیع المرجئۃ و جمیع الخوارج علی وجوب الامامۃ۔
अहले सुन्नत के तमाम समुदाय , शियों के तमाम फ़िरक़े , सारे मुरजेया और ख़वारिज के सारे फ़िरक़े उत्तराधिकारी के आवश्यक व ज़रूरी होने के बारे में एकमत रखते हैं।
अत इस बारे में कोई भिन्नता नही है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के बाद उनका उत्तराधिकारी होना चाहिये।
शिया व सुन्नी उलमा व बुद्धिजीवियों ने इमामत व ख़िलाफ़त की तारीफ़ इस तरह से की है:
الامامۃ ھی الرئاسۃ العامۃ فی جمیع امور الدین والدنیا نیابۃ عن رسول اللہ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم ۔
इमामत , अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के उत्तराधिकारी के लिये
दीन और दुनिया के तमाम कामों में एक जन प्रभुत्व या जन सत्ता का नाम है।
शिया व सुन्नी उलमा ने इमामत व ख़िलाफ़त को इस तरह से बयान किया है। इस लिहाज़ से इमाम व ख़लीफ़ा ख़ुदा के रसूल (स) का नायब व जानशीन है और तमाम कामों में लोगों के ऊपर उसके आदेश का पालन करना अनिवार्य है।
अत: इमामत की वह तारीफ़ जिसे सब मानते हैं और जिस में किसी को इख़्तिलाफ़ नही है वह यह है कि इमाम व ख़लीफ़ा को ईशदूत का उत्तराधिकारी होना चाहिये और इमामत का पद पैग़म्बर (स) के उत्तराधिकारी का पद है जिसके ज़रिये से उस रिक्त स्थान की पूर्ति की जा सके और इमाम व ख़लीफ़ा नबी (स) के कामों के जनता के लिये अंजाम दे सके , बस फ़र्क़ यह है कि वह उत्तराधिकारी व नायब , नबी नही है।
उस तारीफ़ को ध्यान में रखते हुए जो (इमाम) व (इमामत) के लिये की गई है। शिया इसना अशरी इस तारीफ़ की सारी बातों पर अमल करते हुए उन्हे अपने अक़ीदे का हिस्सा शुमार करते हैं जबकि सक़ीफ़ा विचारधारा के मानने वाले और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम के स्वर्गवास के बाद पेश आने वाली घटनाओं को बहाना बनाने वाले इस तारीफ़ को स्वीकार करने के बावजूद मानने से इंकार करते हैं।
शिया कहते हैं: उस तारीफ़ की बुनियाद पर जो इमामत के लिये की गई है। उसके अनुसार जो कुछ ईशदूत के लिये साबित है , निसंदेह इमाम व ख़लीफ़ा के लिये भी वह साबित होना चाहिये सिवाय नबी के पद के। इस का नतीजा यह होगा कि इमाम व ख़लीफ़ा में भी नबी सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम की तरह विलायते तकवीनी व तशरीई होनी चाहिये।
इमाम में विलायते तकवीनी होती है इस मअना में कि वह अल्लाह तआला की आज्ञा व अता से इस संसार में होने वाले कामों को अपने हाथ में ले सकता है , उसे अपने ऐतेबार से चला सकता है। यह शक्ति व अधिकार उसे ईश्वर को ओर से प्राप्त होता है जिसके बाद वह जो चाहे कर सकता है।
इमाम में विलायते तशरीई होती है इस का मतलब यह है कि दीन व दुनिया के तमाम मामले में जैसा कि इमाम की तारीफ़ में बयान हो चुका है , वह सारे लोगों को अम्र (आदेश) व नही (मनाही) का हक़ रखता है और किसी को यह हक़ नही है कि वह उसके आदेश का पालन न करे।
निसंदेह अहले सुन्नत उलमा के दरमियान ऐसे लोग जो इल्मे इरफ़ान की ओर झुकाव या दिलचस्बी रखते हैं और तसव्वुफ़ की तरफ़ मायल हैं , वह हमारे इमामों (अलैहिमुस सलाम) के लिये विलायते तकवीनी के मरतबे को मानते हैं , क्यों कि वह लोग इस मरतबे को अल्लाह के तमाम वलीयों के लिये साबित मानते हैं और हमारे इमामों को बावजूद इसके कि इमाम नही मानते हैं फिर भी उन्हे अल्लाह के बड़े वलीयों में शुमार करते हैं।
तीसरा मरतबा जो शिया अपने इमामो (अलैहिमुस सलाम) के लिये मानते हैं , वह शासन व हुकूमत व अल्लाह के क़ानूनों और उसके आदेशों को जारी करना है। शासन व हुकूमत , इमामत के विभागों में से एक विभाग है , ऐसा नही है कि इमामत व हुकूमत किसी एक वास्तविकता का नाम है और इन दोनो को एक समान समझना कोरी ग़लती है।
हुकूमत , इमामत के कामों में से एक काम है जो संभव है कभी उसके हाथ में हो या उसे मिल जाये। जैसे अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम और इमाम हसन अलैहिस सलाम की हुकूमत। कभी हो सकता है कि ऐसा न हो जैसे दूसरे तमाम इमामों अलैहिमुस सलाम का ज़माना , जो अपने समय के अत्याचारी और ज़ालिम शासनों की जेलों में रहे या उनके शिकंजे का शिकार रहे और या जैसे हमारा ज़माना जिस में इमाम अलैहिस सलाम परद ए ग़ैबत में हैं और ज़ाहिरी तौर पर इमाम अलैहिस सलाम के हाथ में हुकूमत व अधिकार नही है हालांकि इसके बावजूद उनकी इमामत व ख़िलाफ़त सुरक्षित है।
इस से पहले इशारा किया जा गया कि शिया इमामत के मसले में अहले सुन्नत से बहुत ज़्यादा इख़्तिलाफ़ रखते हैं , उनमें से एक इख़्तिलाफ़ यह है कि क्या इमामत उसूले दीन में से है या फ़ुरू ए दीन में से ?
शिया अक़ीदे के अनुसार इमामत उसूले दीन में से है। इस बात को साबित करने के लिये जो चंद दलीलें पेश की जा सकती हैं उनमें से सबसे आसान यह हैं:
1. इसमें कोई शक नही है कि इमामत की बहस , नबी (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के उत्तराधिकारी की बहस है और इमामत के लिये जो तारीफ़ बयान की गई है उससे स्पष्ट तौर पर बिना किसी संदेह के इस मअना को समझा जा सकता है , क्यों कि तारीफ़ में आया है कि इमामत , अल्लाह के रसूल (स) के उत्तराधिकारी का मसला है और इस वाक्या का मतलब भी है जैसा कि बयान किया गया।
अत इमामत के बारे में बहस नबूवत के सिलसिले की कड़ी है। जैसे कि मासूम होने की बहस और हर वह बहस जो नबूवत के सिलसिले की कड़ी हो और उस पर अक़ीदा रखना अनिवार्य हो , उसका शुमार उसूले दीन में होगा।
2. दूसरी दलील यह है कि इमामत धार्मिक सिद्धातों के आधार में से एक है , प्रसिद्ध हदीस है जिस में पैग़म्बरे इस्लाम (स) से ज़िक्र हुआ है। आप (स) ने फ़रमाया:
من مات و لم یعرف امام زمانہ مات میتۃ جاھلیۃ۔
जो भी मर जाये और अपने ज़माने के इमाम का न पहचानता हो तो उसकी मौत जाहिलियत की मौत है।
शिया व अहले सुन्नत उलमा ने इस हदीस को अपनी किताबों में रसूले ख़ुदा (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) से नक़्ल किया है।
स्पष्ट है कि जाहिलियत की मौत का मतलब , क़ुफ़्र व नेफ़ाक़ की मौत है और हर वह चीज़ की जिहालत इंसान को कुफ़्र व नेफ़ाक़ तक ले जाये। निसंदेह उसका संबंध धर्म के मूल सिद्धातों से होना चाहिये , इस लिये कि फ़ुरू ए दीन के मसाइल का ना जानना कभी भी इंसान को कभी भी कुफ़्र व नेफ़ाक़ की हद नही पहुचाता।
निसंदेह अहले सुन्नत के बड़े और पढ़े लिखे उलमा में ऐसे अफ़राद भी हैं जिनकी तरफ़ यह निस्बत दी गई है कि वह इमामत को मूल सिद्धात (उसूले दीन) का हिस्सा मानते हैं। उदाहरण के तौर पर क़ाज़ी नासिरुद्दीन बैज़ावी का नाम लिया जा सकता है जिनका शुमार तफ़सीर व इल्मे कलाम में अहले सुन्नत के महान और प्रसिद्ध उलमा में होता है , वह इमामत को उसूले दीन में से मानते हैं।
लेकिन उनके अलावा अहले सुन्नत की अकसरियत शियों के मुक़ाबले में इस बात की क़ायल है कि इमामत फुरु ए दीन में से है। हालांकि कुछ लोग स्पष्ट तौर पर इस मसले पर अपना रुख़ ज़ाहिर नही करते हैं बल्कि कहते हैं: इमामत का फ़ुरु ए दीन में से होना अनसब है लेकिन इसके वाबजूद वह इस बात की कि इमामत मूल सिद्धात (उसूले दीन) में से होना चाहिये , साफ़ बयान नही करते हैं।
बहरहाल , चाहे इमामत उसूले दीन या मूल सिद्धातों के आधार में से एक हो। जैसा कि शिया कहते हैं , या फ़ुरू ए दीन में से हो जैसा कि अहले सुन्नत का अक़ीदा है , इस बात पर बहस होनी चाहिये कि इमाम या ख़लीफ़ा कौन है ता कि हम उसे पहचान सकें और उसकी पैरवी कर सकें , उसके आदेशों का पालन कर सकें और उसके ज़रिये मना की गई बातों को अंजाम न दें और उसकी बात और उसके अमल को महत्व दें , क्यों कि हम उसे अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) का नायब और ख़लीफ़ा मानते है।
क़ाबिले ज़िक्र बात है जैसा कि कभी सुनन में आता है कि कुछ लोग कहते हैं: इमामत पर चर्चा केवल एक इतिहासिक बहस है और आज के दौर में मुसलमानों को इस बात से मतलब नही रखना चाहिये , उन के पास इस से ज़्यादा आवश्यक व महत्वपूर्ण काम हैं जिनका किया जाना ज़्यादा ज़रूरी है न कि इंसान अपनी उम्र के क़ीमती दिनों को इस बहस में ख़र्च करे।
यह कैसी बकवास व बेबुनियाद बात है ?। यह भटके हुई विचाराधारा की बात है जिसे मंद बुद्धि और धार्मिक सिद्धातों से बे खबर लोग कह सकते हैं। कैसे यह संभव है कि एक तरफ़ तो इमामत का अक़ीदा रखना , उसकी इताअत व पैरवी करना , उसके हर छोड़े बड़े आदेश या बात पर सर झुकाना , इस्लामी जनता के तमाम लोगों पर वाजिब व अनिवार्य है और उसके आदेश का पालन न करना , उससे मुंह मोड़ना कुफ़्र व फ़िस्क़ (धर्म से निष्कासित हो जाना) शुमार होता है। जबकि उसकी पैरवी कारण बनती है कि इंसान संसार की पैदाइश के मक़सद और उसके लक्ष्य तक पहुच जाये और दूसरी तरफ़ इस बहस के बारे मे कहा जाये कि यह केवल एक इतिहासिक बहस है और इसका कोई फ़ायदा नही है ?।
इंसान के लिये सबसे महत्वपूर्ण चीज़ उसके धार्मिक सिद्धात और उसका अक़ीदा होता है। इमाम और इमामत की बहस बहुत से अमली आसार रखती है , इंसान चाहता है कि उसे पहचाने , क्यों कि उसका न पहचानना उसके ईमान पर सवाल खड़ा कर देता है। इस लिये वह चाहता है कि उसे पहचाने ता कि उससे मुहब्बत कर सके , क्योंकि एक हदीस में इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस सलाम ने फ़रमाया:
ھل الدین الا الحب والبغض۔
क्या धर्म दोस्ती व दुश्मनी के सिवा किसी और चीज़ का नाम है ?
इंसान चाहता है कि इमाम को पहचाने ता कि अमल के मौक़े पर उसकी पैरवी कर सके , इस लिये कि वह इंसान है और इंसान को अल्लाह की तरफ़ से कुछ ज़िम्मेदारियां दी गई हैं उसे जानवरों की तरह स्वतंत्र नही छोड़ दिया गया है और चूंकि इमामत का पद , पैग़म्बरे इस्लाम (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के उत्तराधिकारी का पद है , लिहाज़ा इमाम ही वह है जो इंसान के लिये उसकी निजी , ज़ाती और समाजी ज़िन्दगी और अल्लाह की बंदगी के लिये उसके कंधे पर ज़िम्मेदारियां डाल सकता है।
इस लिये इंसान को चाहिये कि वह इमाम को पहचाने और इस पद का दावा करने वाले के बारे में रिसर्च करे ता कि उसकी पैरवी कर सके और मक़ामे बंदगी में जो ज़िम्मेदारी उसे सौंपी गई है वह इमाम उसे उस मंज़िल तक पहुचा सके।
क्या इन सब बातों के बाद भी यह गुंजाइश रह जाती है कि कोई इस महत्वपूर्ण बहस को केवल एक इतिहासिक और बेकार या फ़ुज़ूल बहस कह सके ?
हां , सृष्टि के लक्ष्य और उस तक पहुचाने वाले कारणों से ग़ाफ़िल और बेख़बर लोगों को हक़ पहुचता है कि वह इस बहस को बेकार और बेफ़ायदा बयान करें। लेकिन पवित्र क़ुरआन का पालन करने वाले , उससे शिक्षा प्राप्त करने वाले और ईशदूत (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के सृष्टि के लक्ष्य के बारे में पहुच हासिल करने वाले कथनों पर अमल करने वालों के लिये इमामत और उसके मुतअल्लिक़ बहसे और इमाम के महान पद के बारे में बहस से बढ़ कर कोई और बहस नही हो सकती है।
शायद यह कहा जाये कि इमामत के बारे में बहस से मुसलमानों की एकता व इत्तेहाद को नुक़सान पहुच सकता है इस लिये इस बहस में नही पड़ना चाहिये।
हमने इस बारे में विभिन्न अवसरों पर तफ़सील से चर्चा की है। उन सब उत्तरों के दृष्टिकोण का सारांश यहां पर पेश कर रहा हूं:
इमामत के बारे में बहस करने से न सिर्फ़ यह कि इस्लामी एकता और मुसलमानों के आपसी भाईचारे पर इसका कोई नकारात्मक प्रभाव नही पड़ेगा बल्कि इससे क़ुरआन व हदीस व अक़्ली दलीलों , बेहतरीन , बल्कि एकता जैसे अति महत्वपूर्ण व क़ीमती लक्ष्य की प्राप्ती के लिये भी इमामत व ख़िलाफ़त और अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) के उत्तराधिकारी के पद और उसकी गरिमा को स्पष्ट और वाज़ेह करना है।
बहस यह है कि एकता से हमारी मुराद क्या है ? और यह कैसे संभव हो सकती है ?
समकालीन उलमा में से कुछ एकता की स्थापना के लिये इस तरह से राय पेश करते हैं कि शिया व अहले सुन्नत को चाहिये कि वह तफ़सीर (क़ुरआन की व्याख्या) व हदीस व फ़िक़ह की सारी किताबों को एक दूसरे के साथ , एक दूसरे की मदद से फिर से लिखना जाये। इसलिये कि इख्तेलाफ़ व भिन्नता की जड़ शिया व अहले सुन्नत की किताबों में बातिल व असत्य की भरमार , झूठ के पुलिंदे व अफ़सानवी व गढ़ी हुई बातें हैं। उनकी ग़लत चीज़ों की पहचान और उनकी कांट छांट से वास्तविकता को अलग करके , धर्म का वास्तिवक चेहरा सामने आ सकता है जो ज़ाहिर है कि सबकी सहमति का का पात्र बन सकता है। इसलिये कि सत्य के साथ किसी का इख़्तेलाफ़ या झगड़ा नही हो सकता। नतीजा यह होगा कि सारे झगड़ समाप्त हो जायेंगे।
1. जो लोग शिया व अहले सुन्नत की किताबों की छानबीन करना चाहते हैं वह कौन लोग होंगे और उनका ताअल्लुक़ किस गिरोह से होगा ?
2. सत्य का असत्य से और बातिल का हक़ से पहचान का मेयार क्या होगा ?
3. क्या अहले सुन्नत इस पर सहमत हैं कि वह अपनी उन किताबों से , जिन्हे वह शुरु से अंत तक सही मानते हैं और उन्हे वहयी की तरह मानते हैं , (जैसे उनकी छ: सही किताबें या कम से कम सही बुख़ारी व सही मुस्लिम) और उनकी सारी बुनियादी बातें और उनके अक़ायद उन्ही किताबों से लिये गये हैं , हाथ खींच लें और उन्हे फिर से लिखें ?
कुछ दूसरे लोग यह राय देते हैं कि दोनों समुदाय की संमिलित व मुश्तरक चीज़ों को लिया जाये।
इस के उत्तर में हम कहेंगे: वह समन्वित व मुशतरक बातें या चीज़ें क्या हैं ?
क्या इससे मुराद तौहीद का अक़ीदा रखना और ईश्वर को एक मानना है ?
इस जगह पर सबसे पहला झगड़ा अल्लाह तआला की विशेषताओं पर होता है कि क्या ईश्वर जिस्म रखता है ?
अहले सुन्नत अबू बक्र के लिये जिस मंज़िलत व मरतबे के क़ायल हैं वह किसी और के लिये क़ायल नही है , वह कहते हैं: अल्लाह उनके लिये विशेष तौर पर अपना जलवा प्रकट करेगा वह उसे उस तरह देखेंगे जैसा कि वह है।
हालांकि वह लोग ख़ुद इस हदीस की सनद के बारे में शक करते हैं , लेकिन इस बात को जानना चाहिये कि इस तरह की फ़ुज़ूल हदीस की गढ़ने वाले कौन लोग हैं ? इस तरह के लोगों को जानने और पहचानने का क्या मेयार है ?
उन समन्वित व मुशतरक चीज़ों में से एक यही इमामत का मसला है , इस लिये कम से कम अहले सुन्नत को यह मानना चाहिये कि इमामत व ईशदूत के वास्तविक उत्तराधिकारी के बारे में बहस व उस पर शोध करना भी उन मुशतरक व संमिलित बहसों में से एक है और यह इस्लामी एकता पर आधारित है तो क्यों हम उसे अनेकता व भेद का कारण समझते हैं ?
हां , कुछ लोग इमामत के बारे में बहस को अनावश्यक समझते हैं और इस विचार के साथ हमें इस्लामी एकता व भाई चारे की दावत देते हैं और यह ठीक उस समय की बात है जब उनका एक समूह शियों को मुसलमान भी नही समझता है।
हां , वह लोग ईश्वर के लिये जिस्म मानने वाले मुजस्समा समुदाय , मुरजेया समुदाय और ख़्वारिज समुदाय को मुसलमान मानते हैं लेकिन हमें , वह न सिर्फ़ यह कि हमारे इस्लाम में शक करते हो बल्कि वह सिरे से हमें मुसलमान ही नही मानते हैं।
अभी कुछ अरसा पहले सऊदी अरब में मसअलुत तक़रीब बैना अहलिस सुन्नते वश शिया नामी एक किताब लिखी गई है , इसके लेखक के इस किताब के लेखन की वजह से डिग्री भी दी गई है।
इस किताब के लेखक ने अस्ल बहस लिखने के बाद एक मतलब को इस तरह से लिखा है:
हमारे (अहले सुन्नत) और शियों के दरमियान एकता व इत्तेहाद का कोई रास्ता नही है मगर यह कि शिया मुसलमान हो जायें और जब तक वह मुसलमान नही होगें। एकता व इत्तेहाद का कोई मतलब नही बनता।
जबकि हम उनके बारे में ऐसा कुछ नही कहते बल्कि हमारा मानना है: आओ , अल्लाह की किताब और उसके नबी (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) की सही व क़तई सुन्नत , जिसका ख़ुद वह ऐतेराफ़ हैं , पर अमल करो। हमने हदीसे सक़लैन की सनद व दलालत की बहस में इस बात को तफ़सील से बयान किया है।