शियों के सिफ़ात

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शियों के सिफ़ात कैटिगिरी: विभिन्न

शियों के सिफ़ात

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

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शियों के सिफ़ात

शियों के सिफ़ात

हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

मुक़द्दमा---

आज हम अहलेबैत (अ) के शियों के बारे में दो हदीसें बयान करते हैं पहली हदीस शियों के फ़ज़ाइल से मुताल्लिक़ है और दूसरी हदीस शिय़ों की सिफ़त से मरबूत है।

हदीस

1-दख़ल्तु अला अबि बक्रिल हज़रमी व हुवः यजूदु बिनफ़्सिहि फ़नज़रः इलय्यः व क़ालः लैयतः सअतल किज़्बः अशहदु अला जअफ़र बिन मुहम्मद इन्नी समितहु यक़ूल “ला तमुस्सन्नारु मन मातः व हुवः यक़ूलु बिहाज़ल अम्र। ”

2-सुलिमान बिन मिहरान क़ालः दख़ल्तु अस्सादिक़ (अ) व इन्दःहु नफ़ःरुन मिन शियति व हुवः यक़ूलु मआशरः अश्शियति कूनू लना ज़ैनन वला तकूनु अलैना शैनन क़ूलू लिन्नासि हसनन इहफ़ज़ू अलसिनतःकुम व कफ़्फ़ुहा अनिल फ़जूलि व क़बिहुल क़ौलि[ 1]

तर्जमा

1-रावी कहता है कि मैं इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम के एक मख़सूस साथी अबु बक्र हज़रमी के पास उस वक़्त गया जब वह अपनी ज़िन्दगी के आखिरी लम्हात में थे। उन्होंने मेरे ऊपर एक निगाह डाली और कहा कि देखो यह झूट बोलने का वक़्त नही है। मैं इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम के बारे में शहादत देता हूँ। और मैनें उन से सुना है कि वह कहते हैं कि जो शख़्स इस हालत में मरे कि अहलेबैत की विलायत का क़ाइल हो उसको जहन्नम की आग छू भी नही सकती।

2-सुलेमान बिन मेहरान ने कह है कि मैं एक बार इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम के पास गया उनके पास कुछ शिया बैठे हुए थे और वह उनसे यह बात कह रहे थे कि ऐ शियों हमारे लिए ज़ीनत बनना और हमारे लिए रुसवाई का सबब न बनना। लोगों से अच्छी बाते करों ,अपनी ज़बान पर काबू रखो ,फालतू और बुरी बात कहने से परहेज़ करो।

हदीस की तशरीह

इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम इस हदीस में दो मतालिब बयान फ़रमा रहे हैं। इनमें से एक क़ाइदाए कुल्ली है और दूसरा एक रौशन मिस्दाक़ है। क़ाइदाए कुल्ली तो यह है कि अपने आमाल के ज़रीये हमारी रुसवाई का सबब न बनना। यानी तुम इस तरह बनो के जब लोग तुमको देखें तो तम्हारे साहिबे मकतब पर दरूद पढ़ें और कहों के मरहबा उस इंसान के लिए जिसने इन लोगों की तरबीयत की। और हमारी रुसवाई का सबब न बनना ,क्योंकि हम पैगमेबर (स.) की औलाद हैं। इसके बाद खास मिस्दाक़ की तरफ़ इशारा करते हैं जो कि ज़बान है ,उलमा ए अख़लाक़ कहते हैं कि सैरे सलूक इला अल्लाह में वह पहली चीज़ जिसकी इसलाह होनी चाहिए वह ज़बान है। और जब तक ज़बान की इसलाह नही होगी दिल पाक नही हो सकता। ज़बान इंसान के पूरे वजूद की कलीद है। इस तरह के इंसान को उसकी ज़बान के ज़रिये पहचाना जा सकता है। “ इख़तबरू हुम बि सिदक़िलहदीस ” जब लोगों का इम्तेहान करना चाहो तो यह दोखो कि वह सच बोलते हैं या झूट। अगर ज़बान पर क़ाबू होता है तो सही गुफ़्तुगु होती है और जो कुछ कहा जाता है वह सोच समझ कर कहा जाता है।

और ज़बान को क़ाबू में रखने के लिए एक तरीक़ा वह है जो रिवायत के आख़ीर में बयान किया गया है “कफ़्फ़ुहा अनिल फ़ज़ूल ”यानी ज़्यादा न बोलो ,कम बोलना सैरो सलूक की पहली राह है जिसका नाम “सुम्त ” है। एक दानिश मन्द कहता है कि पाँच चीज़े ऐसी हैं जो हर नाक़िस चीज़ को पूरा करती हैं।

सुम्तो सौम ,सहरो अज़लत व ज़िकरीबेही दवाम नातमामाने जहान रा कुनद ईन पन्ज तमाम।

वाक़ियन अगर कोई इनको अन्जाम दे तो वह अल्लाह के क़ुर्ब को हासिल कर सकता है ,और इनमें पहली चीज़ सुम्त यानी ख़ामौश रहना है। सुम्त के माअना यह नही है कि इंसान बिल्कुल बात चीत न करे ,बल्कि सुम्त के माअना यह है कि इंसान फ़ालतू और बुरी बातें ज़बान पर न लाये।

[1]बिहारुल अनवार 65/161

मुक़द्दमा

आज की अख़लाक़ की बहस “फ़जाइल व सिफ़ाते शिया ” की बहस काइदामा है। मरहूम अल्लामा मजलिसी ने शियों के फ़ज़ाइल और सिफ़ात के बारे में बहुत कुछ लिखा है और रिवायतें की हैं। बेहतर है कि आज हम ख़ुद इन बहसों को पढ़ें व समझें और दूसरो को इनके बारे में बताऐं ताकि वह अफ़राद जो फ़क़त अपने आपको शिया कहकर अपने दिल को ख़ुश कर लेते हैं वह जान लें कि अहले बैत का शिया और पैरोकार होना कोई आसान काम नही है।

आज की बहस में हम एक ऐसी हदीस बयान करेंगे जो शियों की फ़ज़ीलत के साथ साथ शियों की ज़िम्मेदारीयों को भी बयान करती है। यह इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की हदीस है जो आपने अबू बसीर से ख़िताब किया आज इस हदीस के फ़क़त चन्द जुमले अर्ज़ करने है।

हदीस

अन मुहम्मद बिन इस्माईल अन अबीहि क़ालः “कुन्तु इन्दा अबि अब्दिल्लाह (अ.) इज़ा दख़लः अलैहि अबु बसीर फ़क़ालः या अबा मुहम्मद लक़द ज़कर कुमुल्लाह फ़ी किताबिहि फ़क़ालः “इन्ना इबादी लैसः लकः अलैहिम लिसुलतान। ” [1]वल्लाहु मा अरादः इल्लल आइम्मह (अ.) व शियतिहिम फ़हल सररतुक या अबा मुहम्मद ?क़ालः क़ुल्तु जअलतु फ़िदाक ज़दनी....।[ 2] ”

तर्जमा

अबु बसीर इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की मजलिस में हाज़िर हुए बैठ कर तेज़ तेज़ साँस लेने लगे ,इमाम ने उनकी तरफ़ देखा और फ़रमाया क्या कुछ परेशानी है ?अबु बसीर ने अर्ज़ किया मैं बूढ़ा और कमज़ोर हो गया हूँ ,अब मेरे लिए साँस लेना मुश्किल हो गया है ,मौत के दर्वाज़े पर खड़ा हूँ ,लेकिन इन सब से बढ़ कर यह है कि मैं अपनी मौत के बाद के हालात से परेशान हूँ नही जानता कि मेरी तक़दीर में क्या है ?इमाम ने फ़रमाया कि तुम ऐसी बातें क्यों कर रहे हो तुम तो शियों का इफ़्तेख़ार हो ?इसके बाद इमाम ने शियों के फ़ज़ाइल बयान फ़रमाये और इमाम हर फ़सल बयान फ़रमाने के बाद पूछते थे कि क्या तुम इस मतलब से खुश हुए और अबु बसीर कहते थे कि जी मैं आप पर फ़िदा मेरे लिए और बयान फ़रमाये....।

आख़िर में इमाम ने फ़रमाया ऐ अबु बसीर अल्लाह ने क़ुरआन में तुम शियों की तरफ़ इशारा किया है और फ़रमाया है कि शैतान मेरे बन्दों पर तसल्लुत क़ाइम नही कर सकता। और अल्लाह की क़सम यहाँ पर बन्दों से अल्लाह की मुराद आइम्मा और उनके शिया है उनके अलावा और कोई नही है।

हदीस की शरह

शैतान के बारे में चन्द सवालात हैं ,जो अक्सर जवानों की तरफ से किये जाते हैं ज़रूरी है कि हम इनके बारे में छान बीन करें।

1-सवाल- अल्लाह ने अग़वा करने वाले ख़बीस वजूद शैतान को क्यों पैदा किया जो हमारे अन्दर वसवसे पैदा करता है और हमको नेकी के रास्ते से रोकता है ?जबकि हम नेकी के रास्ते तय करने के लिए पैदा किये गये है ?

जवाब-अल्लाह ने शैतान को शैतान पैदा नही किया बल्कि उसको पाक पैदा किया था और वह फ़रिश्तो की सफ़ों में था। वह बुरा नही बल्कि एक नेक वजूद था जो आबिदों और ज़ाहिदों का एक जुज़ और अल्लाह की बारगाह का मुक़र्रब था। मगर बाद में अपने इख़्तियार से मुनहरिफ़ हो गया। तकब्बुर ,खुद पसंदी ,हसद ,नफ़्स परस्ती और जाहो जलाल का लालच उसकी तनज़्ज़ुली का सबब बने। हवाए नफ़्स असली आमिल है अगर यह न हो तो शैतान का नफ़ूज़ भी नहो। अबा व अस्तकबरा व काना मिनल काफ़िरीन[ 3]अल्लाह ने उसको इन तमाम मुक़ामात से नीचे उतारा। बस शैतान शुरू से ही शैतान नही था।

इशकाल- अगर शैतान फ़रिशतों में से था तो फ़रिश्ते तो अपने ऊपर कोई इख़्तियार नही रखते और सबके सब अल्लाह के ज़ेरे फ़रमान हैं बस उसने किस तरह अल्लाह की नाफ़रमानी की ?

जवाब- शैतान फ़रिश्ता ही नही था कि इख़्तियार न रखता हो वह तो एक जिन्न था।

सवाल- हम नेकी व सआदत के लिए पैदा किये गये हैं मा ख़लक़तुल जिन्ना वल इन्सा इल्ला लियअबुदून बस यह ज़हमत देने वाला शैतान का वजूद किस लिए है वह भी ऐसी चीज़ जो न दिखाई देती हो ,न ही उससे अपना दिफ़ाअ किया जा सकता है और न ही उस पर क़ाबू पाया जा सकता है। यह तो ख़िलक़त के मक़सद से साज़गार नही है ?

जवाब- क़ुरआन का बयान है कि शैतान तुम्हारे इख़्तियार के बग़ैर तुम्हारे अन्दर नफ़ूज़ पैदा नही करता। तुम्हारे दिलों के दरवाज़े उसके लिए बन्द हैं। तुम ख़ुद दरवाज़ों को खोलते हो। वाक़ियत यह है कि कोई भी ख़बीस वजूद इंसान के तनो रूह में दाख़िल नही हो सकता। इन्नमा सुलतानुहु अलल लज़ीना यतवल्लूनहु वल लज़ीना हुम.....[ 4]

वह लोग जो उसको अल्लाह का शरीक क़रार देते हैं और उसकी इताअत करते हैं क़ियामत के दिन शैतान उनसे कहेगा कि “ व मा काना लि अलैकुम मिन सुलतानिन इल्ला अन दावताकुम फ़सतजिबतुम फ़ला तुलुमूननी वलूमू अनफ़ुसाकुम ” यानी मैं तुम्हारे ऊपर मुसल्लत नही हूँ मैंने फ़क़त तुम्हे दावत दी और तुमने मेरी दावत को क़बूल किया बस मुझे मलामत न करो बल्कि खुद अपने नफ़्सों को मलामत करो।

यह बात भी क़ाबिले ज़िक्र है कि जो लोग तकामुल की मंज़िल में हैं उनके लिए ख़ुद शैतान तकामुल का सबब है। क्योंकि उससे टकराना और उससे मुक़ाबला करना ईमान के पुख़ता होने का सबब बनता है। मशहूर मग़रबी तारीख़दाँ टी. एन. बी. अपनी किताब “फ़लसफ़ा ए तरीख़ ” में लिखता है कि “मैने इस दुनिया में वजूद में आने वाले तमाम तमद्दुनों पर ग़ौर किया तो पाया कि हर तमद्दुन ताक़तवर दुश्मन के हमले का निशाना बना और फिर उसने अपनी पूरी ताक़त से दिफ़ा करके अपने फूलने फलाने की राह हमवार की। ” बस तरह शैतान के वजूद में भी हिकमत है जैसे अगर हवाए नफ़्स न होती तो आरिफ़ान क़वी न बनते।

क़ुरआन कहता है कि “इन्ना इबादी लैसा लका अलैहिम सुलतान ”

इस आयत का मतलब यह नही है कि शैतान शियों से नही टकराता बल्कि अल्लाह यह फ़रमा रहा है कि मैं उनका हामी और मददगार हूँ वह मेरी तरफ़ आये और मेरे बन्दे हो गये तो मैं भी उनका हामी हूँ। बस यह बलन्द मर्तबा है और शैतान के नफ़ूज़ से बाहर होना शियों का इफ़्तख़ार है। लेकिन इस का मफ़हूम यह है कि जिन पर शैतान अपना तसल्लुत जमा लेता है वह वाक़ई शिया नही है। बस यह जुम्ला हमारी ज़िम्मेदारियों का बढ़ाता है। शिया मासूम नही हैं और यह भी मुमकिन है कि शैतान उनको बहकाने के लिए आये। लेकिन क़ुरआन कहता है कि

“ इन्नल लज़ीनाइत्तक़व इज़ा मस्साहुम ताइफ़ुन मिन अश्शैतानि तज़क्करू फ़इज़ा हुम मुबसिरून। ” [5]पुरेहज़गार लोगों को जब कोई शैतानी वसवसा छू जाता है तो वह अल्लाह को याद करते हैं (उसके इनाम और सज़ा को याद करते हैं) और उसकी याद के परतव मे हक़ाइक़ को देखने लगते हैं। यह भी मुमकिन है कि शैतान आये मगर तसल्लुत न जमा सके। लिहाज़ा जिम्मेदारी बहुत ज़्यादा है लिहाज़ा यह चाहिए कि इस्लामी समाज में किसी फर्द ,समाज ,मतबूआत ,बाज़ार और माद्दी व मानवी जिन्दगी पर शैतान का तसल्लुत न हो। और अगर शैतान का तसल्लुत हो गया तो वह अफ़राद वाक़ई शिया नही हैं। उम्मीदवार हूँ कि अल्लाह हमको तौफ़ीक़ दे ताकि शियत का इफ़्तख़ार हमारे भी शामिले हाल हो जाये।

[1]सूरए फ़ज्र आयत न. 42

[2]बिहारुल अनवार जिल्द 65/51

[3]सूरए बक़रः आयत न. 34

[4]सूरए नहल आयत न. 100

[5]सूरए आराफ़ आयत न. 201

हदीस -

*…..समितु अबा अब्दिल्लाह (अ.) यक़ूल : इन्ना अहक़्क़ा अन्नासु बिल वरए आलि मुहम्मद (स.) व शियतिहिम कै तक़तदा अर् रअय्याति बिहिम।[ 1]

तर्जमा-

इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि वरअ व तक़वे में सबसे बेहतर आले मुहम्मद व उनके शिया हैं ताकि दूसरे तमाम अफ़राद उनकी इक़तदा करें।

तशरीहे हदीस-

शिया होना इमाम का जुज़ होना है ,मासूम इमाम व पैगम्बरान तमाम लोगों के लिए इमाम हैं। शियों को भी चाहिए कि लोगों के एक गिरोह के इमाम हों। वाक़िअत यह है कि इसलामी समाज में शियों को पेश रू होना चाहिए ताकि दूसरे उनकी इक़तदा करें। जिस तरह जनूबी लबनान में शिया मुजाहिदों की सफ़ों में सबसे आगे हैं और सब लोग उनको मज़बूत ,फ़िदाकार और ईसार करने वालों की शक्ल में पहचानते हैं। शियों को चाहिए कि सिर्फ़ जिहाद में ही नही बल्कि ज़िन्दगी के हर मैदान में पूरी दुनिया के लिए पेशवा व नमूना होना चाहिए। “वरअ ” तक़वे से भी उपर की चीज़ है। कुछ बुज़ुर्गों ने वरअ को चार मरहलों में तक़सीम किया है।

1-तौबा करने वालों के वरअ (पाकदामनी) का मरहला

वरअ का यह मरहला इंसान को फ़िस्क़ से बचाता है। यह वरअ का सबसे नीचे का मर्तबा है और अदालत के बराबर है। यानी इंसान गुनाह से तौबा करके आदिलों की सफ़ में आ जाता है।

2-सालेहीन के वरअ का मरहला

वरअ के इस मरहले में इंसान शुबहात से भी परहेज़ करता है। यानी वह चीज़े जो ज़ाहेरन हलाल हैं लेकिन उनमें शुबाह पाया जाता उनसे भी से बचता है।

3-मुत्तक़ीन के वरअ का मरहला

वरअ के इस मरहले में इंसान गुनहा और शुबहात से तो परहेज़ करता ही है मगर इनके अलावा उन हलाल चीज़ों से भी बचता है जिनके सबब किसी हराम में मुबतला होने का ख़तरा हो। जैसे- कम बोलता है क्योंकि वह डरता है कि अगर ज़्यादा बोला तो कहीँ किसी की ग़ीबत न हो जाये। जो वाक़ियन इस उनवान में दाख़िल है उतरुक मा ला बासा बिहि हज़रन मिम्मा बासा बिहि।

4-सिद्दीक़ीन के वरअ का मरहला

इस मरहले में उम्र के एक लम्हे के बर्बाद होने के डर से ग़ैरे ख़ुदा से बचा जाता है। यानी ग़ैरे ख़ुदा से बचना और अल्लाह से लौ लगाना इस लिए कि कहीँ ऐसा न हो कि उम्र का एक हिस्सा बर्बाद हो जाये। हमारा सबसे क़ीमती सरमाया हमारी उम्र है जिसको हम तदरीजन अपने हाथों से गवाँते रहते हैं और इस बात से ग़ाफिल हैं कि यह हमारा सबसे क़ीमती सरमाया है।

इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि वरअ में सबसे बेहतर आले मुहम्मद और उनके शिया हैं। हम कहते हैं कि वरअ के मरातिब में से कम से कम पहला मरहला तो हमको इख़्तियार कर ही लेना चाहिए। यानी शिया को चाहिए कि वह आदिल और अवाम का पेशवा हो। वह फ़क़त ख़ुद ही को न बचाये बल्कि दूसरों को भी निजात दे। सूरए फ़ुरक़ान के आख़िर में अल्लाह के बन्दों की बारह ख़सूसियात बयान की गयी हैं। और उनमें से एक ख़सूसियत यह है कि “वल लज़ीना यक़ूलूना रब्बना हबलना मिन अज़वाजुना व ज़ुर्रियातिना क़ुर्रता ऐनिन व जअलना लिल मुत्तक़ीना इमामन ” यह वह लोग हैं जो अल्लाह से दुआ करते हैं कि उनकी औलाद मामूली न हो बल्कितमाम मुसलमानों के लिए क़ुर्रता ऐन व नमूना हो और वह अल्लाह से दुआ करते हैं कि हमको मुत्तक़ीन का इमाम बनादे। क्या यह चाहना कि हम में से हर कोई इमाम हो तलबे बरतरी है ?नही यह हिम्मत की बलन्दी है। बस इस से यह मालूम होता है कि अपने आपको शिया कहना और शियों की सफ़ मे खड़ा होना आसान है लेकिन वाक़ई शिया होना बड़ा मुशकिल है।इमामे ज़माना और दिगर आइम्मा हुदा को अहले इल्म हज़रात और इस मकतब के शागिर्दों से बहुत ज़्यादा तवक़्क़ौ है। इनको चाहिए कि लोगों के लिए नमूना बनें ताकि लोग उनकी इक़तदा करें। और तबलीग़ का सबसे बेहतर तरीक़ा भी यही है कि इंसान के पास इतना वरअ व तक़वा हो कि लोग उस के ज़रिये से अल्लाह को पहचाने। और जान लो कि हक़ीक़ी शिया वह अफ़राद है जो शुजा ,सबूर ( बहुत ज़्यादा सब्र करने वाले) मुहब्बत से लबरेज़ ,परहेजगार व हराम से बचने वाले हैं और जिन्हें मक़ामों मंज़ेलत से लगाव नही है।

हमारे ज़माने की कुछ खास शर्तें हैं हम अपने मुल्क के अन्दर और दुनिया के अक्सर मुल्कों में तीन मुश्किलात से रू बरू हैं।

1-सियासी बोहरान

यह कभी न सुलझने वाला उलझाव जो आज कल और ज़्यादा उलझ गया है और जिसके अंजाम के बारे में कोई अच्छी पोशीन गोई नही हो रही है।

2-इक़तेसादी बोहरान

मकान की मुश्किल ,शादी बयाह के खर्च की मुश्किल ,बे रोज़गारी वग़ैरह की मुश्किलें।

3-अख़लाक़ी बोहरान

मेरा खयाल है कि यह उन दोनों बोहरानों से ज़्यादा ख़तरनाक है ख़ास तौर पर वह बोहरान जिसने जवान लड़कों और लड़कियों का दामन पकड़ लिया है और उनको बुरीयों की तरफ़ खैंच रहा है। इस अख़लाक़ी बोहरान की भी तीन वजह हैं।

क - मुख़तलिफ़ वसाइल का फैलाव

जैसे –बहुतसी क़िस्मों की सी. डी. ,फ़ोटू ,फ़िल्में ,डिश व इन्टरनेट वग़ैरह जिन्सी मसाइल को आसानी के साथ हर इंसान तक पहुँचाने का सबब बने

ख- किसी शर्त के बग़ैर पूरी आज़ादी

दूसरे अलफ़ाज़ में आज़ादी के नाम पर क़ैद यानी आज़ादी के नाम पर शहवत के पंजों में क़ैद ,इस तरह कि अम्रे बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर करना बहुत से लोगों की शर्मन्दगी का सबब हो जाता है। आज़ादी जो कि इंसान के तकामुल का ज़रिया है उसकी इस तरह तफ़सीर की गयी कि वह इंसान की पस्ती और गिरावट का वसीला बन गई।

ग- कुछ छुपे हुए हाथ

जिनका मानना है कि अगर जवान ख़राब हो जायें तो फिर उन पर क़ाबू पाना आसान है। उन्होंने इस राह में दीन व अख़लाक़ को मानेअ माना है। उन्होनें सही सोचा है क्योंकि जो मिल्लत गुनाहों ,बुराईयों और मंशियात के जाल में फस जायेगी वह कभी भी दुश्मन का मुक़ाबला नही कर सकती।

क्या हम इन मसाइल के मुक़ाबले में ख़ामौश हो कर बैठ जायें और दुआ करें कि मुस्लेह (इस्लाह करने वाला) आ जाये। यह डरपोक और सुस्त इंसानों की बाते हैं। कर्बला में चन्द ही तो नफ़र थे जिन्होंने क़ियाम किया या पैगम्बरे इस्लाम (स.) को ले लिजिये जिन्होंने तने तन्हा लोगो को हक़ की दावत दी या जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम जो तन्हा ही खड़े हो गये। हक़्क़ो अदालत के रास्ते में तादाद की कमी से नही घबराना चाहिए। ला तस्तवहशु फ़ी तरीक़ि अलहुदा लिलक़िल्लति अहलिहि।

अल हम्दु लिल्लाहि कि अब अफ़राद की कमी नही है ,पन्दरह शाबान को मस्जिदे जमकरान के चारों तरफ़ मैदाने अराफ़ात से ज़्यादा लोग जमा थे और इनमें जवानों को अकसरियत हासिल थी। या एतेकाफ़ के ही ले लिजिये उसमें जवान इतना बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं कि जगह कम रह जाती है ,यह सब आपकी फ़ौज है। हमें चाहिए कि हमारी ज़ात ,हमारी ज़बान और हमारा क़लमदूसरों के लिए नमूना हो ताकि इस अख़लाक़ी बोहरान के मुक़ाबले में खड़े हो सकें। इस राह में अल्लाह के वादे हमरे होंसले बढ़ाते है।अवाम अब भी रूहानियत के अपना महरे असरार मानते हैं। जिस इलाक़े में भी तबलीग़ के लिये जाओ वहाँ के लोगो की मिश्किलों को नज़र में रख़ो और मसूलीन को उनसे आगाह कराओ। लोगों के दो गिरोह हैं एक अवामी हिरोह जो कहता है कि माहे रमज़ान में पाक हो जायेंगे और दूसरा गिरोह खवास का है जो कहता है कि माहे शाबान में पाक हो कर रमज़ान में वारिद होंगे ,क्योंकि माहे रमज़ान अल्लाह की मेहमानी का महीना है इस लिए मेहमान को चाहिए कि पहले ही पाक हो जाये लिहाज़ा हमें अपनी ज़बान व आँख़ों को माहे शाबान में ही पाक कर लेना चाहिए ताकि रमज़ान की बरकतों से फ़ायदा उठा सकें और इस बारे में हमें लोगों को भी आगाह करना चाहिए कि माहे शाबान अपने आपको सवाँरने और अल्लाह की ज़ियाफ़त के लिए तैयार होने का महीना है।

मैं आप सब हज़रात से इस बात का उम्मीदवार हूँ कि अपने प्रोग्रामों और मसाइल को कामयाबी के साथ अंजाम दो और सियासी झमेलों में न फस कर सब लोगों को इत्तेहाद की दावत दो। हमारे सामने कोई मुश्किल नही है बल्कि हम खुद मुश्किलों को जन्म देते हैं। हम सब को चाहिए कि आपस में मुत्तहिद हो जायें क्योंकि दुश्मन अपनी तैयारी पूरी कर चुका हैं ,वह जब आजायेगा तो किसी को भी नही छोड़ेगा।

[1]बिहारूल अनवार जिल्द 65/166हदीस न. 21

हदीस-

अन अनस इब्ने मालिक क़ाला क़ालू या रसूलल्लाहि मन औवलियाउ अल्लाहि अल्लज़ीना ला खौफ़ुन अलैहिम वला हुम यहज़नून ?फ़क़ाला अल्लज़ीना नज़रू इला बातिनि अद्दुनिया हीना नज़रा अन्नासु इला ज़ाहिरिहा ,फ़ाइहतम्मु बिआजलिहा हीना इहतम्मा अन्नासु बिअजिलिहा ,फ़अमातु मिनहा मा ख़शव अन युमीताहुम ,व तरकु मिनहा मा अलिमु अन सयतरुका हुम फ़मा अरज़ा लहुम मिनहा आरिज़ुन इल्ला रफ़ज़ूहु ,वला ख़ादअहुम मिन रफ़अतिहा ख़ादिऊन इल्ला वज़ऊहु ,ख़ुलिक़त अद्दुनिया इन्दाहुम फ़मा युजद्दिदुनहा ,व ख़राबत बैनाहुम फ़मा यअमुरूनहा ,व मातत फ़ी सुदूरि हिम फ़मा युहिब्बुनहा बल यहदिमुनहा ,फ़यबनूना बिहा आख़िरताहुम ,व यबयाऊनहा फ़यशतरूना बिहा मा यबक़ा लहुम ,नज़रु इला अहलिहा सर्आ क़द हल्लत बिहिम अलमुसलातु ,फ़मा यरौवना अमानन दूना मा यरजूना ,वला फ़ौफ़न दूना मा यहज़रूना।[ 1]

तर्जमा-

अनस इब्ने मालिक ने रिवायत की है कि पैगम्बर (स) से कहा गया कि ऐ अल्लाह के रसूल अल्लाह के दोस्त -जिनको न कोई ग़म है और न ही कोई ख़ौफ- वह कौन लोग हैं ?आप ने फरमाया यह वह लोग हैं जब दुनिया के ज़ाहिर को देखते हैं तो उसके बातिन को भी देख लेते हैं ,इस तरह जब लोग इस दो रोज़ा दुनिया के लिए मेहनत करते हैं उस वक़्त वह आख़िरत के लिए कोशिश करते हैं ,बस वह दुनिया की मुहब्बत को मौत के घाट उतार देते हैं इस लिए कि वह डरते हैं कि दुनिया उनकी मलाकूती और क़ुदसी जान को तबाह कर देगी ,और इससे पहले कि दुनिया उनको तोड़े वह दुनिया को तोड़ देते हैं ,वह दुनिया को तर्क कर देते हैं क्योंकि वह जानते हैं दुनिया उन्हें जल्दी ही तर्क कर देगी ,वह दुनिया की तमाम चमक दमक को रद्द कर देते हैं और उसके जाल में नही फसते ,दुनिया के नशेबो फ़राज़ उनको धोका नही देते बल्कि वह लोग तो ऐसे हैं जो बलन्दियों को नीचे खैंच लाते हैं। उनकी नज़र में दुनिया पुरानी और वीरान है लिहाज़ा वह इसको दुबारा आबाद नही करते ,उनके दिलो से दुनिया की मुहब्बत निकल चुकी है लिहाज़ा वह दुनिया को पसंद नही करते बल्कि वह तो दुनिया को वीरान करते हैं ,और उस वक़्त इस वीराने में अबदी(हमेशा बाक़ी रहने वाला) मकान बनाते हैं ,इस ख़त्म होने वाला दुनिया को बेंच कर हमेशा बाक़ी रहने वाले जहान को ख़रीदते हैं ,जब वह दुनिया परस्तों को देखते हैं तो वह यह समझते हैं कि वह ख़ाक पर पड़े हैं और अज़ाबे इलाही में गिरफ़्तार हैं ,वह इस दुनिया में किसी भी तरह का अमनो अमान नही देखते वह तो फ़क़त अल्लाह और आख़िरत से लौ लगाये हैं और सिर्फ अल्लाह की नाराज़गी व उसके अज़ाब से डरते हैं।

हदीस की शरह

फ़र्क़े खौफ़ व ग़म- मामूलन कहा जाता है कि खौफ़ मुस्तक़बिल से और ग़म माज़ी से वाबस्ता है।इस हदीस में एक बहुत मुहिम सवाल किया गया है जिसके बारे में ग़ौरो फ़िक्र होना चाहिए।

पूछा गया कि औलिया ए इलाही जो न मुस्तक़बिल से डरते हैं और न ही माज़ी से ग़मगीन हैं कौन लोग हैं ?

हज़रत ने उनको पहचनवाया और फरमाया औलिया अल्लाह की बहुत सी निशानियाँ हैं जिनमें से एक यह है कि वह दुनिया परस्तों के मुकाबले में बातिन को देखते हैं।क़ुरआन कहता है कि दुनिया परस्त अफ़राद आख़िरत से ग़ाफ़िल हैं। “यअलामूना ज़ाहिरन मिनल हयातिद्दुनिया व हुम अनिल आख़िरति हुम ग़ाफिलून। ” [2]

अगर वह किसी को कोई चीज़ देते हैं तो हिसाब लगा कर यह समझते हैं कि हमों नुक़्सान हो गया है ,हमरा सरमाया कम हो गया है।[ 3]लेकिन बातिन को देखने वाले एक दूसरे अंदाज़ में सोचते हैं। क़ुरआन कहता है कि “मसालुल लज़ीना युनफ़ीक़ूना अमवालाहुम फ़ी सबीलिल्लाहि कमसले हब्बतिन अन बतत सबआ सनाबिला फ़ी कुल्ले सुम्बुलतिन मिअतु हब्बतिन वल्लाहु युज़ाईफ़ु ले मन यशाउ वल्लाहु वासिउन अलीम।[ 4] ”जो अपने माल को अल्लाह की राह में ख़र्च करते हैं वह उस बीज की मानिन्द है जिस से सात बालियां निकलती हैं और बाली में सौ दाने होते हैं और अल्लाह जिसके लिए भी चाहता है इसको दुगना या कई गुना ज़्यादा करता है अल्लाह (रहमत और क़ुदरत के ऐतबार से वसीअ) और हर चीज़ से दानातर है।

जो दुनिया के ज़ाहिर को देखते हैं वह कहते हैं कि अगर सूद लेगें तो हमारा सरमाया ज़्यादा हो जायेगा लेकिन जो बातिन के देखने वाले हैं वह कहते हैं कि यही नही कि ज़यादा नही होगा बल्कि कम भी हो जायेगा। क़ुरआन ने इस बारे में दिलचस्प ताबीर पेश की है “यमहक़ु अल्लाहि अर्रिबा व युरबिस्सदक़ाति वल्लाहु ला युहिब्बु कुल्ला कफ़्फ़ारिन असीम ”[5]अल्लाह सूद को नाबूद करता है और सदक़ात को बढ़ाता और अल्लाह किसी भी नाशुक्रे और गुनाहगार इंसान को दोस्त नही रखता।

जब इंसान दिक़्क़त के साथ देखता है तो पाता है कि जिस समाज में सूदरा इज होता है वहआख़िर कार फ़क़रो फ़ाक़ा और ना अमनी में गिरफ़्तार हो जाता है। लेकिन इसी के मुक़ाबले में जिस समाज में आपसी मदद और इनफ़ाक़ पाया जाता है वह कामयाब और सरबलन्द है।

इंक़लाब से पहले हज के ज़माने में अख़बार इस ख़बर से भरे पड़े थे कि हज अंजाम देने के लिए ममलेकत का पैसा बाहर क्यों ले जाते हो ?क्यों यह अर्बों को देते हो ?क्योंकि वह फ़क़त ज़ाहिर को देख रहे थे लिहाज़ा इस बात को दर्क नही कर रहे थे कि यह चन्द हज़ार डौलर जो ख़र्च किये जाते हैं इसके बदले में हाजी लोग अपने साथ कितना ज़्यादा मानवी सरमाया मुल्क में लाते हैं। यह हज इस्लाम की अज़मत है और मुसलमानों की वहदत व इज़्ज़त को अपने दामन में छुपाये है। कितने अच्छे हैं वह जिल जो वहाँ जाकर पाको पाकीज़ा हो जाते हैं।

आप देख रहे हैं कि लोग इस दुनिया की दो दिन ज़िन्दगी के लिए कितनी मेहनत करते हैं वह मेहनत जिसके बारे में यह भी नही जानते कि इसका सुख भी हासिल करेंगें या नही। मिसाल के तौर पर तेहरान में एक इंसान ने एक घर बनाया था जिसकी नक़्क़ाशी में ही सिर्फ़ डेढ़ साल लग गया था ,लेकिन वह बेचारा उस मकान से कोई फ़ायदा न उठा सका और बाद मे उसका चेहलुम इसी घर में मनाया गया। इस दुनिया के लिए जिसमें सिर्फ़ चार रोज़ ज़िन्दा रहना इतनी ज़्यादा भाग दौड़ की जाती है लेकिन उख़रवी ज़िंदगी के लिए कोई मेहनत नही की जाती ,उसकी कोई फ़िक्र ही नही है।

यह हदीस औलिया ए इलाही की सिफ़ात का मजमुआ है। अगर इन सिफ़ात की जमा करना चाहो तो इनका ख़ुलासा तीन हिस्सों में हो सकता है।

1-औलिया ए इलाही दुनिया को अच्छी तरह पहचानते हैं और जानते हैं कि यह चन्द रोज़ा और नाबूद होने वाली है।

2-वह कभी भी इस की रंगीनियों के जाल में नही फसते और न ही इसकी चमक दमक से धोका खाते क्योंकि वह इसको अच्छी तरह जानते हैं।

3-वह दुनिया से सिर्फ़ ज़रूरत के मुताबिक़ ही फ़यदा उठाते हैं ,वह इस फ़ना होने वाली दुनिया में रह कर हमेशा बाक़ी रहने वाली आख़ेरत के लिए काम करते हैं। वह दुनिया को बेचते हैं और आखेरत को ख़रीदते हैं।

हम देखते हैं कि अल्लाह ने कुछ लोगों को बलन्द मक़ाम पर पहुँचाया है सवाल यह है कि उन्होंने यह बलन्द मक़ाम कैसे हासिल किया ?जब हम ग़ौर करते हैं तो पाते हैं कि यह अफ़राद वह हैं जो अपनी उम्र से सही फैयदा उठाते हैं ,इस ख़ाक से आसमान की तरफ़ परवाज़ करते हैं ,पस्ती से बलन्दी पर पहुँचते हैं। हज़रत अमीरूल मोमेनीन अली इब्ने इबी तालिब (अ) ने जंगे ख़न्दक़ के दिन एक ऐसी ज़रबत लगाई जो क़ियामत तक जिन्नो इन्स की इबादत से बरतर है। “ज़रबतु अलीयिन फ़ी यौमिल ख़न्दक़ि अफ़ज़ला मिन इबादति अस्सक़लैन। ” क्योंकि उस दिन कुल्ले ईमान कुल्ले कुफ़्र के मुक़ाबले में था। बिहारुल अनवार में है कि “बरज़ल ईमानु कुल्लुहु इला कुफ़्रे कुल्लिहि। ” [6]अली (अ) की एक ज़रबत का जुन व इंस की इबादत से बरतर होना ताज्जुब की बात नही है।

अगर हम इन मसाइल पर अच्छी तरह ग़ौर करें तो देखेगें कि कर्बला के शहीदों की तरह कभी कभी आधे दिन में भी फ़तह हासिल की जा सकती है। इस वक़्त हमको अपनी उम्र के क़ीमती सरमाये की क़द्र करनी चाहिए और औलिया ए इलाही( कि जिनके बारे में क़ुरआन में भी बहस हुई है) की तरह हमको भी दुनिया को अपना हदफ़ नही बनाना चाहिए।

[1]बिहारुल अनवार जिल्द 74/ 181

[2]सूरए रूम आयत 7

[3]पैग़म्बर (स) की एक हदीस में मिलता है कि “अग़फ़लु अन्नास मन लम यत्तईज़ यतग़य्यरु अद्दुनिया मिन हालि इला। ”सबसे ज़्यादा ग़ाफ़िल लोग वह हैं जो दुनिया के बदलाव ले ईबरत हासिल न करे और दिन रात के बदलाव के बारे में गौरो फ़िक्र न करे।(तफ़्सीरे नमूना जिल्द 13/13)

[4]सूरए बक़रा आयत 261

[5]सूरए बक़रा आयत 276

[6]बिहारूल अनवार जिल्द 17/215