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मुसतहेब्बात वा मकरुहात

मुसतहेब्बात वा मकरुहात

हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

मुसतहेब्बात वा मकरुहात मुसतहेब्बात

अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

(1) मुसतहेब्बात

मुस्तहब ग़ुस्ल

इस्लाम की मुक़द्दस शरीअत में बहुत से ग़ुस्ल मुस्तहब हैं जिन में से कुछ यह हैं:

जुमे के दिन का ग़ुस्ल

1- इस का वक़्त सुब्ह का अज़ान के बाद से सूरज के ग़ुरूब होने तक है और बेहतर यह है कि ग़ुस्ल ज़ोहर के क़रीब किया जाये (और अगर कोई शख़स उसे ज़ोहर तक अंजाम न दे तो बेहतर यह है कि अदा और क़ज़ा की नियत किये बग़ैर ग़रूबे आफ़ताब तक बजालाये) और अगर जुमे के दिन ग़ुस्ल न करे तो मुस्तब है कि हफ़ते के दिन सुबह से ग़ुरूबे आफ़ताब तक उस का क़ज़ा बजा लाये। और जो शख़स जानता हो कि उसे जुमे के दिन पानी मयस्सर न होगा तो वह रजाअन जुमेरात के दिन ग़ुस्ल अंजाम दे सकता है और मुस्तहब है कि ग़ुस्ले जुमा करते वक़त यह दुआ पढें:

अशहदु अन ला इलाहा इल्लल्लाहु वहदहु ला शरीकलहु व अशहदु अन्ना मुहम्मदन अब्दुहु व रसूलुहू अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्मदिन व आलि मुहम्मद व इजअलनी मिनत तव्वाबीना व इजअलनी मिनल मुत्ताहिरीन।

(2-7) माहे रमाज़ान की पहली और सतरहवीं रात और उन्नीस्वी , इक्कीससवीं , और तेईसवीं रातों के पहले हिस्से का ग़ुस्ल और चौबीसवीं रात का ग़ुस्ल।

(8-9) ईदुलफ़ित्र और ईदे क़ुरबान के दिन का ग़ुस्ल , उस का वक़्त सुब्ह की अज़ान से सूरज ग़ुरूब होने तक है और बेहतर यह है कि ईद की नमाज़ से पहले कर लिया जाये।

(10-11) माहे ज़िल हिज्जा के आठवें और नवें दिन का ग़ुस्ल और बेहतर यह है कि नवें दिन का ग़ुस्ल ज़ोहर के नज़दीक किया जाये।

(12) उस शख़्स का ग़ुस्ल जिसने अपने बदन का कोई हिस्सा ऐसी मय्यित के बदन से मस किया हो जिसे ग़ुस्ल दिया जा चुका हो हो।

(13) अहराम का ग़ुस्ल।

(41) हरमे मक्का में दाख़िल होने का ग़ुस्ल।

(15) मक्काए मुकर्रमा में दाखिल होने का ग़ुस्ल।

(16) ख़ान-ए-काबा की ज़ियारत का ग़ुस्ल।

(17) काबे में दिखिल होने का गुस्ल।

(18) ज़िब्ह और नहर के लिये ग़ुस्ल।

(19) बाल मूनडने के लिए गुस्ल।

(20) हरमे मदीना में दिख़िल होने का ग़ुस्ल।

(21) मदीन-ए- मुनव्वरा में दाख़िल होने का ग़ुस्ल।

(22) मस्जिदुन नबी में दाख़िल होने का ग़ुस्ल।

(23) नबी-ए-अकरम सल्लल्लाहु अलैहे व आलिही वसल्लम की क़ब्रे मुतह्हर से विदा होने का ग़ुस्ल।

(24) दुश्मन के साथ मुबाहिला करने का ग़ुस्ल।

(25) बच्चे के पैदा होने के बाद उसे ग़ुस्ल देना।

(26) इस्तिख़ारा करने का ग़ुस्ल।

(27) तलबे बारान का ग़ुस्ल।

652 फ़ोक़हा ने मुस्तहब ग़ुस्लों के बाब में बहुत से ग़ुस्लों का ज़िक्र फ़रमाया जिन में से चंद यह हैं:

(1) माहे रमाज़ानुल मुबारक की तमाम ताक़ [1] रातों का ग़ुस्ल और उस का आख़री दहाई की तमाम रातों का ग़ुस्ल और उस का तीसवीं रात के आख़री हिस्से में दूसरा ग़ुस्ल।

(2) माहे ज़िल हिज्जा के चौबीसवें दिन का ग़ुस्ल।

(3) ईदे नोरोज़ के दिन और पंद्रहवीं शाबान और नवीं और सतरहवीं रबी उल अव्वल और ज़ीक़ादा के पच्चीसवें दिन का ग़ुस्ल।

(4) उस औरत का ग़ुस्ल जिस ने अपने शौहर के अलावा किसी और के लिये ख़ुशबू इस्तेमाल की हो।

(5) उस शख़्स का ग़ुस्ल जो मसती की हालत में सो गया हो।

(6) उस शख़्स का ग़ुस्ल जो किसी सूली चढ़े हुए इंसान को देखने गया हो और उसे देखा भी हो लेकिन अगर इत्तेफ़ाक़न या मज़बूरी की हालत में नज़र गई हो या अगर शहादत (गवाही) देने गया हो तो ग़ुस्ल मुस्तहब नही है।

(7) दूर या नज़दीक से मासूमीन अलैहिमुस्सलाम की ज़ियारत करने के लिए ग़ुस्ल , लेकिन अहवत यह है कि यह तमाम ग़ुस्ल रजा का नियत से बजा लाये जायें।

(653) उन मुस्तहब ग़ुस्लों के साथ जिन का ज़िक्र मस्ला 651 में किया गया है इंसान ऐसे काम कर सकता जिनके लिए वुज़ू लाज़िम है जैसे नमाज़ (यानी वुज़ू करना ज़रूरी नहीं है) लेकिन जो ग़ुस्ल रजा की नियत से किये जायें उनके बाद वुज़ू करना ज़रूरी है।

(654) अगर इंसान के ज़िम्मे कई मुस्तहब ग़ुस्ल हों और वह शख़्स सब की निय्यत कर के एक ग़ुस्ल कर ले तो काफ़ी है।

[1] ताक़ राते उन रातों को कहा जाता है जिनकी गिनती में जोड़े नही होते जैसे पहली , तीसरी , पाँचवीं , सातवीं....।

मुस्तहब नमाज़ें

(772) मुस्तहब नमाज़ें बहुत सी हैं जिन्हें नाफ़िलह भी कहते हैं , और मुस्तहब नमाज़ों में से रोज़ाना के नाफ़िलह की बहुत ज़्यादा ताकीद की गई है। यह नमाज़ें रोज़े जुमा के अलावा चौतीस रकत हैं। जिनमें से आठ रकत ज़ोहर की , आठ रकत अस्र की , चार रकत मग़रिब की , एक रकत इशा की , ग़यारह रकत नमाज़े शब (यानी तहज्जुद) की और दो रकत सुबह की होती हैं। चूँकि एहतियाते वाजिब की बिना पर इशा की दो रकत नफ़ल बैठकर पढ़नी ज़रूरी है इसलिए वह एक रकत शुमार होती है। लेकिन जुमे के दिन ज़ोहर और अस्र की सोलह रकत नफ़ल पर चार रकत का इज़ाफ़ा हो जाता है। और बेहतर है कि यह पूरी बीस रकतें ज़वाल से पहले पढ़ी जायें।

(773) नमाज़े शब की गयारह रकतों में से आठ रकतें नाफ़िलह-ए-शब की नियत से और दो रकत नमाज़े शफ़ा की नियत से और एक रकत नमाज़े वत्र की नियत से पढ़नी ज़रूरी हैं। नाफ़िल-ए-शब का मुकम्मल तरीक़ा दुआ़ की किताबों में बयान किया गया है।

(774) नाफ़िलह नमाज़ें बैठ कर भी पढ़ी जा सकती हैं लेकिन बाज़ फ़ुक़ाहा कहते है कि इस सूरत में बेहतर यह है कि बैठ कर पढ़ी जाने वाली नाफ़िलह नमाज़ों की दो रकतों को एक रकत शुमार किया जाये मसलन जो इंसान ज़ोहर की नाफ़िलह जो कि आठ रकत हैं , बैठकर पढ़ना चाहे तो उसके लिए बेहतर यह है कि सोलह रकतें पढ़े और अगर चाहे कि नमाज़े वत्र बैठ कर पढ़े तो एक एक रकत की दो नमाज़ें पढ़े। ता हम इस काम का बेहतर होना मालूम नहीं है लेकिन रजा की नियत से अंजाम दे तो कोई इशकाल नहीं है।

(775) ज़ोहर और अस्र की नाफ़िलह नमाज़ें सफ़र में नहीं पढ़नी चाहिए और अगर इशा की नाफ़िलह रजा की नियत से पढ़ी जाये तो कोई हरज नहीं है।

मुस्तहब रोज़े

हराम और मकरूह रोज़ों के अलावा जिन का ज़िक्र किया जा चुका है साल के तमाम दिनों के रोज़े मुस्तहब है और बाज़ दिनों के रोज़े रखने की बहुत ताकीद की गई है जिन में से चंद यह हैः

(1) हर महीने की पहली और आख़री जुमेरात और पहला बुध जो महीने की दसवीं तारीख़ के बाद आये। और अगर कोई शख्स यह रोज़े न रखे तो मुस्तहब है कि उन की कज़ा करे और रोज़ा बिल्कुल न रख सकता हो तो मुस्तहब है कि हर दिन के बदले एक मुद तआम या 12/6 नुख़ुद सिक्केदार चाँदी फ़क़ीर को दे।

(2) हर महीने की तेरहवीं , चौदहवीं और पंद्रहवीं तारीख़।

(3) रजब और शाबान के पूरे महीने के रोज़े। या उन दो महीनों में जितने रोज़े रख सकें चाहे वह एक दिन ही क्यों न हो।

(4) ईदे नौ रोज़ के दिन।

(5) शव्वाल की चौथी से नवीं तारीख तक।

(6) ज़ीक़ादा की पच्चीसवीं और इक्कीसवीं तारीख़।

(7) ज़ीक़ादा की पहली तारीख से नवीं तारीख़ (यौमे अरफ़ा) तक लेकिन अगर इंसान रोज़े की वजह से बेदार होने वाली कमज़ोरी की बिना पर यौमे अरफ़ा की दुआयें न पढ़ सके तो उस दिन का रोज़ा मकरूह है।

(8) ईदे सईदे ग़दीर के दिन (18 ज़िलहिज्जा)

(9) रोज़े मुबाहिला (24 ज़िलहिज्जा)

(10) मुहर्रामुल हराम की पहली , तीसरी और सातवीं तारीख़।

(11) रसूसले अकरम (स0) की विलादत का दिन (17 रबी-उल-अव्वल)

(12) जमादीयुल अव्वल की पंद्रहवी तारीख़।

और ईदे बेसत यानी रसूले अकरम (स0) के ऐलाने रिसालत के दिन (27 रजब) को भी रोज़ा रखना मुस्तहब है। और जो शख्स मुस्तहब रोज़ा रखे उस के लिए वाजिब नहीं है कि उसे इख़्तिताम तक ही पहुँचाये बल्कि अगर उस का काई मोमिन भाई उसे खाने की दावत दे तो मुस्तहब है कि उस की दावत क़बूल कर ले और दिन में ही रोज़ा खोल ले चाहे ज़ोहर के बाद ही क्यों न हो।

पेशाब पख़ाना करने के मुसतहब्बात

हर शख़्स के लिए मुस्तहब है कि जब भी पेशाब पख़ाना करने के लिए जाये तो ऐसी जगह पर बैठे जहाँ उसे कोई देख न सके। और पख़ाने मे दाख़िल होते वक़्त पहले अपना बायाँ पैर अन्दर रखे और वहाँ से निकलते वक़्त पहले दाहिना पैर बाहर रखे और यह भी मुस्तहब है पेशाब पख़ाना करते वक़्त अपने सर को (टोपी , दुपट्टे वग़ैरह) से ढक कर रखे और बदन का बोझ अपने बायेँ पैर पर रखे।

नमाज़ से पहले , सोने से पहले , जिमाअ (संभोग) से पहले और मनी (वीर्य) के निकल जाने के बाद पेशाब करना मुस्तहब है।

नमाज़े ग़ुफ़ैला

मुस्तहब्बी नमाज़ों में से एक नमाज़े ग़ुफ़ैला है , जो मग़रिब व इशा की नमाज़ के बीच पढ़ी जाती है। इसका वक़्त नमाज़े मग़रिब के बाद पश्चिम की तरफ़ की सुर्ख़ी ख़त्म होने तक है।

यह नमाज़ दो रकअत है और पहली रकअत में हम्द के बाद सूरः की जगह यह आयत पढ़ी जाती है “व ज़न्नूनि इज़ ज़हाबा मुग़ाज़िबन फ़ज़न्ना अन लन नक़दिरा अलैहि फ़नादा फ़िज़्ज़ुलिमाति

अन ला इलाहा इल्ला अन्ता सुबहानका इन्नी कुन्तु मिन अज़्ज़ालीमीन फ़स्तजबना लहु व नज्जैनाहु मिन अलग़म्मि व कज़ालिका नुनजिल मोमिनीना ”

और दूसरी रकअत में हम्द के बाद यह

आयत पढ़ी जाती है

“व इन्दा मफ़ातिहुल ग़ैबि ला यअलमुहा इल्ला हुवा व यअलमु मा फ़िल बर्रे वल बहरे व मा तसक़ुतु मिन वरक़तिन इल्ला यअलमुहा

व ला हब्बतिन फ़ी ज़ुलुमातिल अर्ज़ि व ला रतबिंव व ला याबिसिंव इल्ला फ़ी किताबिम मुबीन। ”

और क़ुनूत में यह दुआ पढ़ी जाती है “

अल्लाहुम्मा इन्नी असअलुका बिमफ़ातिहिल ग़ैबि अल्लती ला यअलमुहा इल्ला अन्ता अन तुसल्लिया अला मुहम्मदिवं व आलि मुहम्मद व अन तफ़अला बी

इसके बाद अपनी दुआ माँगे

और फिर यह दुआ पढ़े

अल्लाहुम्मा अन्ता वलियु नेअमति वल क़ादिरु अला तलिबति तअलमु हा-जति फ़असअलुका बिहक़्क़ि मुहम्मदिंवं व आलि मुहम्मदिन अलैहि व अलैहिमुस्सलाम लम्मा क़जैतहा ली।

मकरुहात

वह कार्य जो मुजनिब के लिए मकरूह हैं

362 मुजनिब इंसान के लिए नौ कार्य मकरूह हैं।

· खाना , पीना लेकिन अगर हाथ मुँह धो लिये जायें और कुल्ली कर ली जाये तो मकरूह नही है। और अगर सिर्फ़ हाथ धो लिये जायें तो तब भी कराहत कम हो जायेगी।

· कुरआने करीम की सात से ज़्यादा उन आयतों को पढ़ना जिनमें वाजिब सजदा न हो।

· कुरआने मजीद की ज़िल्द , हाशिये या अलफ़ाज़ के बीच की ख़ाली जगह को छूना।

· कुरआने करीम को अपने साथ रखना।

· सोना- लेकिन अगर वुज़ू कर ले या पानी न होने की वजह से ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम कर ले इसके बाद सोना मकरूह नही है।

· मेंहदी या इससे मिलती जुलती किसी चीज़ से ख़िज़ाब करना।

· बदन पर तेल की मालिश करना।

· एहतिलाम (स्वप्न दोष) हो जाने के बाद संभोग करना।

वह चीज़ें जो रोज़ेदार के लिए मकरूह हैं

(1666) रोज़े दार के लिए कुछ चीज़ें मकरूह हैं जिन में से बाज़ यह हैं-

(1) आँख में दवा डालना और सुरमा लागाना जब कि उस का मज़ा या बू हलक़ में पहुँचे।

(2) हर ऐसा काम करना जो कि कमज़ोरी का बाइस हो मसलन फ़स्द खुलवाना और हम्माम जाना।

(3) (नाक से) निसवार खींचना इस शर्त के साथ कि यह इल्म न हो कि हलक़ तक पहुँचेगी और अगर यह इल्म हो कि हलक तक पहुँचेगी तो उस का इस्तेमाल जायज़ नहीं है।

(4) ख़ुशबूदार जड़ी बूटियां सूंघना।

(5) औरत का पानी में बैठना।

(6) शियाफ़ इस्तेमाल करना यानी किसी ख़ुश्क चीज़ से इनेमा लेना।

(7) जो लिबास पहन रखा हो उसे तर करना।

(8) दाँत निकलवाना और हर वह काम करना जिस की वजह से मुँह से खून निकले।

(9) तर लकड़ी से मिसवाक करना।

(10) बिला वजह पानी या कोई और सय्याल (द्रव) चीज़ मुँह में डालना।

और यह भी मकरूह है कि मनी के क़स्द के बग़ैर इंसान अपनी बीवी का बोसा ले या कोई शहवत अंगेज़ काम करे और अगर ऐसा काम करना मनी निकालेने के क़स्द से हो और मनी न निकले तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर रोज़ा बातिल हो जाता है।

पेशाब पख़ाना करने के मकरूहात

सूरज चाँद की तरफ़ चेहरा कर के पेशाब पख़ाना करना मकरूह है। लेकिन अगर अपनी शर्म गाह को किसी चीज़ के ज़रिये ढक ले तो फिर मकरूह नही है। इसके अलावा हवा के रुख़ के मुक़ाबिल , गली कूचों में , घरों के दरवाज़ों के सामने और फलदार दरख़्तों के नीचे पेशाब पख़ाना करना मकरूह है। इसी तरह पेशाब पख़ाना करते वक़्त कोई चीज़ खाना , ज़्यादा देर तक बैठे रहना , दाहिने हाथ से पेशाब पख़ाने के मक़ाम को धोना और इस हालत में बाते करना भी मकरूह है लेकिन अगर कोई मजबूरी हो या ज़िक्रे ख़ुदा किया जाये तो कोई हरज नही है।

खड़े हो कर पेशाब करना मकरूह है। और इसी तरह सख़्त ज़मीन पर ,जानवरों के सुराख़ों पर और पानी में ख़ास तौर पर रुके हुए पानी में पेशाब करना भी मकरूह है। पेशाब और पख़ाने को रोकना मकरूह है और अगर बदन के लिए मुकम्मल तौर पर नुक़सान देह हो तो हराम है।

फेहरिस्त

मुसतहेब्बात वा मकरुहात मुसतहेब्बात 1

(1) मुसतहेब्बात 2

मुस्तहब ग़ुस्ल 2

मुस्तहब नमाज़ें 7

मुस्तहब रोज़े 9

पेशाब पख़ाना करने के मुसतहब्बात 11

नमाज़े ग़ुफ़ैला 12

मकरुहात 13

वह कार्य जो मुजनिब के लिए मकरूह हैं 13

वह चीज़ें जो रोज़ेदार के लिए मकरूह हैं 15

पेशाब पख़ाना करने के मकरूहात 17

फेहरिस्त 18