दर्से अख़लाक़

दर्से अख़लाक़0%

दर्से अख़लाक़ लेखक:
कैटिगिरी: अख़लाक़ी किताबें

दर्से अख़लाक़

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना सैय्यद एजाज़ हुसैन मूसावी
कैटिगिरी: विज़िट्स: 18878
डाउनलोड: 3560

कमेन्टस:

दर्से अख़लाक़
खोज पुस्तको में
  • प्रारंभ
  • पिछला
  • 13 /
  • अगला
  • अंत
  •  
  • डाउनलोड HTML
  • डाउनलोड Word
  • डाउनलोड PDF
  • विज़िट्स: 18878 / डाउनलोड: 3560
आकार आकार आकार
दर्से अख़लाक़

दर्से अख़लाक़

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

सिफ़ाते मोमिन (4)

मुक़द्दमा-

पिछले जलसों में हमने पैग़म्बरे अकरम (स.) की एक हदीस जो आपने हज़रत अली (अ.) से खिताब फ़रमाई बयान की ,यह हदीस मोमिने कामिल के(103) सिफ़ात के बारे में थी। इस हदीस से 16 सिफ़ात बयान हो चुकी हैं और अब छः सिफात की तरफ़ और इशारा करना है।

हदीस-

“ ........बरीअन मिन मुहर्रिमात ,वाक़िफन इन्दा अश्शुबहात ,कसीरुल अता ,क़लीलुल अज़ा ,औनन लिल ग़रीब ,व अबन लिल यतीम.......। ” [1]

तर्जमा-

मोमिन हराम चीज़ों से बेज़ार रहता है ,शुबहात की मंज़िल पर तवक़्क़ुफ़ करता है और उनका मुरतकिब नही होता ,उसकी अता बहुत ज़्यादा होती है ,वह लोगों को बहुत कम अज़ीयत देता है ,मुसाफ़िरों की मदद करता है और यतीमों का बाप होता है।

हदीस की शरह-

मोमिन की सतरहवी सिफ़त- “बरीअन मिन अलमुहर्रिमात ” है ,यानी मोमिन वह है जो हराम से बरी और गुनाहसे बेज़ार है। गुनाह अंजाम न देना और गुनाह से बेज़ार रहना इन दोनों बातों में फ़र्क़ पाया जाता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो गुनाह में लज़्ज़त तो महसूस करते हैं मगर अल्लाह की वजह से गुनाह को अंजाम नही देते। यह हुआ गुनाह अंजाम न देना ,मगर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो तहज़ीबे नफ़्स के ज़रिये इस मक़ाम पर पहुँच जाते हैं कि उनको गुनाह से नफ़रत हो जाती है और वह गुनाह से हरगिज़ लज़्ज़त नही लेते बस यही गुनाह से बेज़ारी है। और इंसान को उस मक़ाम पर पहुँचने के लिए जहाँ पर अल्लाह की इताअत से लज़्ज़त और गुनाह से तनफ़्फ़ुर पैदा हो बहुत ज़्यादा जहमतों का सामना करना पड़ता है।

मोमिन की अठ्ठारहवी सिफ़त- “वाक़िफ़न इन्दा अश्शुबहात ” है। यानी मोमिन वह है जो शुबहात के सामने तवक़्क़ुफ़ करता है। शुबहात मुहर्रेमात का दालान है और जो भी शुबहात का मुर्तकिब हो जाता है वह मुहर्रेमात में फ़स जाता है। शुबहात बचना चाहिए क्योंकि शुबहात उस ठलान मानिन्द है जो किसी दर्रे के किनारे वाक़ेअ हो। दर वाक़ेअ शुबहात मुहर्रेमात का हरीम (किसी इमारत के अतराफ़ का हिस्सा) हैं लिहाज़ा उनसे इसी तरह बचना चाहिए जिस तरह ज़्यादा वोल्टेज़ वाली बिजली से क्योंकि अगर इंसान मुऐय्यन फ़ासले की हद से आगे बढ़ जाये तो वह अपनी तरफ़ खैंच कर जला डालती है इसी लिए उसके लिए हरीम(अतराफ़ के फासले) के क़ाइल हैं। कुछ रिवायतों में बहुत अच्छी ताबीर मिलती है जो बताती हैं कि लोगों के हरीम में दाखिल न हो ताकि उनके ग़ज़ब का शिकार न बन सको। बहुत से लोग ऐसे हैं जो मंशियात का शिकार हो गये हैं शुरू में उन्होंने तफ़रीह में नशा किया लेकिन बाद में बात यहाँ तक पहुँची कि वह उसके बहुत ज़्यादा आदि हो गये।

मोमिन की उन्नीसवी सिफ़त- “कसीरुल अता ”है। यानी मोमिन वह है जो कसरत से अता करता है यहाँ पर कसरत निस्बी है(यानी अपने माल के मुताबिक़ देना) मसलन अगर एक बड़ा अस्पताल बनवाने के लिए कोई बहुत मालदार आदमी एक लाख रुपिये दे तो यह रक़म उसके माल की निस्बत कम है लेकिन अगर एक मामूली सा मुंशी एक हज़ार रूपिये दे तो सब उसकी तारीफ़ करते हैं क्योकि यह रक़म उसके माल की निस्बत ज़्यादा है। जंगे तबूक के मौक़े पर पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने इस्लामी फ़ौज की तैय्यारी के लिए लोगों से मदद चाही लोगों ने बहुत मदद की इसी दौरान एक कारीगर ने इस्लामी फ़ौज की मदद करने के लिए रात में इज़ाफ़ी काम किया और उससे जो पैसा मिला वह पैग़म्बर (स.) की खिदमत में पेश किया उस कम रक़म को देख कर मुनाफ़ेक़ीन ने मज़ाक़ करना शुरू कर दिया फौरन आयत नाज़िल हुई

“ अल्लज़ीना यलमिज़ूना अलमुत्तव्विईना मिनल मुमिनीना फ़ी अस्सदक़ाति व अल्लज़ीना ला यजिदूना इल्ला जुह्दा हुम फ़यसख़रूना मिन हुम सख़िरा अल्लाहु मिन हुम व लहुम अज़ाबुन अलीमुन। ” [2] जो लोग उन पाक दिल मोमेनीन का मज़ाक़ उड़ाते है जो अपनी हैसियत के मुताबिक़ कुमक करते हैं ,तो अल्लाह उन का मज़ाक़ उड़ाने वालों का मज़ाक़ उड़ाता है। पैग़म्बर (स.) ने फरमाया अबु अक़ील अपनी खजूर इन खजूरों पर डाल दो ताकि तुम्हारी खजूरों की वजह से इन खजूकरों में बरकत हो जाये।

मोमिन की बीसवी सिफ़त- “क़लीलुल अज़ा ”है यानी मोमिन कामिलुल ईमान की तरफ़ से अज़ीयत कम होती है इस मस्अले को वाज़ेह करने के लिए एक मिसाल अर्ज़ करता हूँ । हमारी समाजी ज़िन्दगीं ऐसी है अज़यतों से भरी हुई है। नमूने के तौर पर घर की तामीर जिसकी सबको ज़रूरत पड़ती है ,मकान की तामीर के वक़्त लोग तामीर के सामान ( जैसे ईंट ,पत्थर ,रेत ,सरिया...) को रास्तों में फैला कर रास्तों को घेर लेते हैं जिससे आने जाने वालों को अज़ियत होती है। और यह सभी के साथ पेश आता है लेकिन अहम बात यह है कि समाजी ज़िन्दगी में जो यह अज़ियतें पायी जाती हैं इन को जहाँ तक मुमकिन हो कम करना चाहिए। बस मोमिन की तरफ़ से नोगों को बहुत कम अज़ियत होती है।

मोमिन की इक्कीसवी सिफ़त- “औनन लिल ग़रीब ” है। यानी मोमिन मुसाफ़िरों की मदद करता है। अपने पड़ौसियों और रिश्तेदारों की मदद करना बहुत अच्छा है लेकिन दर वाक़ेअ यह एक बदला है यानी आज मैं अपने पड़ौसी की मदद करता हूँ कल वह पड़ौसी मेरी मेरी मदद करेगा। अहम बात यह है कि उसकी मदद की जाये जिससे बदले की उम्मीद न हो लिहाज़ा मुसाफ़िर की मदद करना सबसे अच्छा है।

मोमिन की बाइसवी सिफ़त- “अबन लिल यतीम ” है। यानी मोमिन यतीम के लिए बाप की तरह होता है। पैग़म्बर ने यहाँ पर यह नही फरमाया कि मोमिन यतीमों को खाना खिलाता है ,उनसे मुहब्बत करता है बल्कि परमाया मोमिन यतीम के लिए बाप होता है। यानी वह तमाम काम जो एक बाप अपने बच्चे के लिए अंजाम देता है ,मोमिन यतीम के लिए अंजाम देता है।

यह तमाम अख़लाक़ी दस्तूर सख़्त मैहौल में बयान हुए और इन्होंने अपना असर दिखाया। हम उम्मीदवार हैं कि अल्लाह हम सबको अमल करने की तौफ़ाक़ दे और हम इन सिफ़ात पर तवज्जुह देते हुए कामिलुल ईमान बन जायें।

सिफ़ाते मोमिन (5)

मुक़द्दमा-

गुज़िश्ता जलसों में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की एक हदीस बयान की जो आपने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से खिताब फ़रमायी थी इसमें मोमिन के 103 सिफ़ात बयान फ़रमाये गये हैं जिनमें से बाईस सिफ़ात बयान हो चुके हैं और आज हम इस जलसे में चार सिफ़ात और बयान करेगें।

हदीस-

“ .....अहला मिन अश्शहदि व असलद मिन अस्सलद ,ला यकशफ़ु सर्रन व ला यहतकु सितरन...... ” [3]

तर्जमा-

मोमिन शहद से ज़्यादा मीठा औक पत्थर से ज़यादा सख़्त होता है ,जो लोग उसको अपने राज़ बता देते हैं वह उन राज़ो को आशकार नही करता और अगर ख़ुद से किसी के राज़ को जान लेता है तो उसे भी ज़ाहिर नही करता है।

हदीस की शरह-

मोमिन की तेइसवी सिफ़त- “अहला मिन अश्शहद ” है। मोमिन शहद से ज़्यादा मीठा होता है यानी दूसरों के साथ उसका सलूक बहुत अच्छा होता है। आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिमुस्सलाम और ख़ास तौर पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम के बारे में मशहूर है कि आपकी नशिस्त और मुलाक़ातें बहुत शीरीन हुआ करती थीं ,आप अहले मीज़ाह और लतीफ़ बातें करने वाले थे। कुछ लोग यह ख़्याल हैं कि इंसान जितना ज़्यादा मुक़द्दस हो उसे उतना ही ज़्यादा तुर्शरू होना चाहिए। जबकि वाक़ियत यह है कि इंसान के समाजी ,सियासी ,तहज़ीबी व दिगर पहलुओं में तरक़्क़ी के लिए जो चीज़ सबसे ज़्यादा असर अंदाज़ है वह नेक सलूक ही है। कभी-कभी सख्त से सख्त मुश्किल को भी नेक सलूक ,मुहब्बत भरी बातों और ख़न्दा पेशानी के ज़रिये हल किया जासकता है। नेक सलूक के ज़रिये जहाँ उक़्दों को हल और कदूरत को पाक किया जासकता है ,वहीँ ग़ुस्से की आग को ठंडा कर आपसी तनाज़ों को भी ख़त्म किया जासकता है।

पैग़म्बर (स.) फ़रमाते हैं कि “अक्सरु मा तलिजु बिहि उम्मती अलजन्नति तक़वा अल्लाहि व हुसनुल ख़ुल्क़ि। ” [4] मेरी उम्मत के बहुत से लोग जिसके ज़रिये जन्नत में जायेंगे वह तक़वा और अच्छा अखलाक़ है।

मोमिन की चौबीसवी सिफ़त- “अस्लदा मिन अस्सलदि ”है यानी मोमिन पत्थर से ज़्यादा सख़्त होता है। कुछ लोग “अहला मिन अश्शहद ” मंज़िल में हद से बढ़ गये हैं और ख़्याल करते हैं कि खुश अखलाक़ होने का मतलब यह है कि इंसान दुश्मन के मुक़ाबले में भी सख़्ती न बरते। लेकिन पैग़म्बर (स.) फ़रमाते हैं कि मोमिन शदह से ज़्यादा शीरीन तो होता है लेकिन सुस्त नही होता ,वह दुश्मन के मुक़ाबले में पहाड़ से ज़्यादा सख़्त होता है। रिवायत में मिलता है कि मोमिन दोस्तों में रहमाउ बैनाहुम और दुश्मन के सामने अशद्दाउ अलल कुफ़्फ़ार का मिसदाक़ होता है। मोमिन लोहे से भी ज़्यादा सख़्त होता है (अशद्दु मिन ज़बरिल हदीद व अशद्दु मिनल जबलि) चूँकि लोहे और पहाड़ को तराशा जा सकता है लेकिन मोमिन को तराशा नही जा सकता। जिस तरह हज़रत अली (अ.) थे ,लेकिन एक गिरोह ने यह बहाना बनाया कि क्योंकि वह शौख़ मिज़ाज है इस लिए ख़लीफ़ा नही बन सकते जबकि वह मज़बूत और सख़्त थे। लेकिन जहाँ पर हालात इजाज़त दें इंसान को ख़ुश्क और सख़्त नही होना चाहिए ,क्यों कि जो दुनिया में सख़्ती करेगा अल्लाह उस पर आख़िरत में सख़्ती करेगा।

मोमिन की पच्चीसवी सिफ़त- “ला यकशिफ़ु सिर्रन ”है। यानी मोमिन राज़ों को फ़ाश नही करता ,राज़ों को फ़ाश करने के क्या माअना हैं ?

हर इंसान की ख़सूसी ज़िन्दगी में कुछ राज़ पाये जाते हैं जिनके बारे में वह यह चाहता है कि वह खुलने न पाये होते हैं । क्योंकि अगर वह राज़ खुल जायेगें तो उसको ज़िन्दगी में बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। अगर कोई इंसान अपने राज़ को किसी दूसरे से बयान करदे तो और कहे कि “अल मजालिसु अमानात ” यानी यह बाते जो यहाँ पर हुई हैं अपके पास अमानत हैं ,तो यह राज़ है और इसको किसी दूसरे के सामने बयान नही करना चाहिए। रिवायात में तो यहाँ तक आया है कि अगर कोई आप से बात करते हुए इधर उधर इस वजह से देखता रहे कि कोई दूसरा न सुन ले ,तो यह राज़ की मिस्ल है चाहे वह न कहे कि यह राज़ है। मोमिन का राज़ मोमिन के खून की तरह मोहतरम है लिहाज़ा किसी मोमिन के राज़ को ज़ाहिर नही करना चाहिए।

मोमिन की छब्बीसवी सिफ़त- “ला युहतकु सितरन ”है। यानी मोमिन राज़ों को फ़ाश नही करता। हतके सित्र (राज़ो का फ़ाश करना) कहाँ पर इस्तेमाल होता है इसकी वज़ाहत इस तरह की जासकती है कि अगर कोई इंसान अपना राज़ मुझ से न कहे बल्कि मैं खुद किसी तरह उसके राज़ के बारे में पता लगालूँ तो यह हतके सित्र है। लिहाज़ा ऐसे राज़ को फ़ाश नही करना चाहिए ,क्यों कि हतके सित्र और उसका ज़ाहिर करना ग़ीबत की एक क़िस्म है। और आज कल ऐसे राज़ों को फ़ाश करना एक मामूलसा बन गया है। लेकिन हमको इस से होशियार रहना चाहिए अगर वह राज़ दूसरों के लिए नुक़्सान देह न हो और ख़ुद उसकी ज़ात से वाबस्ता हो तो उसको ज़ाहिर नही करना चाहिए। लेकिन अगर किसी ने निज़ाम ,समाज ,नामूस ,जवानो ,लोगों के ईमान... के लिए ख़तरा पैदा कर दिया है तो उस राज़ को ज़ाहिर करने में कोई इशकाल नही है। जिस तरह अगर ग़ीबत मोमिन के राज़ की हिफ़ाज़ से अहम है तो विला मानेअ है इसी तरह हतके सित्र में भी अहम और मुहिम का लिहाज़ ज़रूरी है।

अल्लाह हम सबको अमल करने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाये।

सिफ़ाते मोमिन (6)

मुक़द्दमा- इस हफ़्ते की अख़लाक़ी बहस में पैग़म्बर अकरम(स.) की एक हदीस बयान की जो आपने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से बयान फरमाई थी। इस हदीस में मोमिन की 103 सिफ़तें बयान की गईं हैं जिनमें से छब्बीस सिफ़ते बयान हो चुकी हैं और इस जलसे में पाँच सिफते और बयान करनी है।

हदीस-

“ .....लतीफ़ुल हरकात ,हलवुल मुशाहिदति ,कसीरुल इबादति ,हुस्नुल वक़ारि ,लय्यिनुल जानिबि.....। ” [5]

तर्जमा-

मोमिन की हरकतें लतीफ़ ,उसका दीदार शीरीन और उसकी इबादत ज़्यादा होती हैं ,उससे सुबुक हरकतें सरज़द नहीं होती और उसमें मोहब्बत व आतिफ़त पायी जाती है।

हदीस की शरह-

मोमिन की सत्ताइसवी सिफ़त- “लतीफ़ुल हरकात ” होना है। यानी मोमिन के हरकातो सकनात बहुत लतीफ़ होते हैं और वह अल्लाह की मख़लूक़ के साथ मुहब्बत आमेज़ सलूक करता है।

मोमिन की अठ्ठाइसवी सिफ़त- “हुलुवुल मुशाहिदह ”होना है। यानी मोमिन हमेशा शाद होता है वह कभी भी तुर्श रू नही होता।

मोमिन की उनत्तीसवी सिफ़त- “कसीरुल इबादत ”है। यानी मोमिन बहुत ज़्यादा इबादत करता है। यहाँ पर एक सवाल पैदा होता है और वह यह कि इबादत से रोज़ा नमाज़ मुराद है या इसके कोई और माअना हैं ?

इबादत की दो क़िस्में हैं- इबादत अपने खास माअना में-

यह वह इबादत है कि अगर इसमें क़स्द क़ुरबत न किया जाये तो बातिल हो जाती है।

इबादत अपने आम माअना में-

हर वह काम कि अगर उसको क़स्द क़ुरबत के साथ किया जाये तो सवाब रखता हो मगर क़स्दे क़ुरबत उसके सही होने के लिए शर्त न हो। इस सूरत में तमाम कामों को इबादत का लिबास पहनाया जा सकता है। इबादत रिवायत में इसी माअना में हो सकती है।

मोमिन की तीसवीं सिफ़त- “हुस्नुल वक़ार ” है। यानी मोमिन छोटी और नीची हरकतें अंजाम नही देता। विक़ार या वक़ार का माद्दा वक़र है जिसके माअना संगीनी के हैं।

मोमिन की इकत्तीसवीं सिफ़त- “लय्यिनुल जानिब ”है। यानी मोमिन में मुहब्बत व आतेफ़त पायी जाती है।

ऊपर ज़िक्र की गईं पाँच सिफ़तों में से चार सिफ़तें लोगों के साथ मिलने जुलने से मरबूत हैं।लोगों से अच्छी तरह मिलना और उनसे नेक सलूक करना बहुत ज़्यादा अहमियत का हामिल है। इससे मुख़ातेबीन मुतास्सिर होते हैं चाहे दीनी अफ़राद हों या दुनियावी।

दुश्मन हमारे माथे पर तुन्द ख़ुई का कलंक लगाने के लिए कोशा है लिहाज़ा हमें यह साबित करना चाहिए कि हम जहाँ “अशद्दाउ अलल कुफ़्फ़ार है ”वहीँ “रहमाउ बैनाहुम ” भी हैं। आइम्मा-ए- मासूमान अलैहिमुस्सलाम की सीरत में मिलता है कि वह उन ग़ैर मुस्लिम अफ़राद से भी मुहब्बत के साथ मिलते थे जो दर पैये क़िताल नही थे। नमूने के तौर पर ,तारीख़ में मिलता है कि एक मर्तबा हज़रत अली अलैहिस्सलाम एक यहूदी के हम सफ़र थे। और आपने उससे फ़रमा दिया था कि दो राहे पर पहुँच कर तुझ से जुदा हो जाऊँगा। लेकिन दो राहे पर पहुँच कर भी जब हज़रत उसके साथ चलते रहे तो उस यहूदी ने कहा कि आप ग़लत रास्ते पर चल रहे हैं ,हज़रत ने उसके जवाब में फ़रमाया कि अपने दीन के हुक्म के मुताबिक हमसफ़र के हक़ को अदा करने के लिए थोड़ी दूर तेरे साथ चल रहा हूँ। आपका यह अमल देख कर उसने ताज्जुब किया और मुस्लमान हो गया। इस्लाम के एक सादे से हुक्म पर अमल करना बहुत से लोगों के मुसलमान बनने इस बात का सबब बनता है। (यदख़ुलु फ़ी दीनि अल्लाहि अफ़वाजन) लेकिन अफ़सोस है कि कुछ मुक़द्दस लोग बहुत ख़ुश्क इंसान हैं और वह अपने इस अमल से दुश्मन को बोलने का मौक़ा देते हैं जबकि हमारे दीन की बुनियाद तुन्दखुई पर नही है। क़ुरआने करीम में 114 सूरेह हैं जिनमें से 113 सूरेह अर्रहमान अर्रहीम से शुरू होते हैं। यानी 1/114 तुन्दी और 113में रहमत है।

दुनिया में दो ततरीक़े के अच्छे अखलाक़ पाये जाते हैं।

रियाकाराना अखलाक़ (दुनियावी फ़ायदे हासिल करने के लिए)

मुख़लेसाना अखलाक़ (जो दिल की गहराईयों से होता है)

पहली क़िस्म का अख़लाक यूरोप में पाया जाता है जैसे वह लोग हवाई जहाज़ में अपने गाहकों को खुश करने के लिए उनसे बहुत मुहब्बत के साथ पेश आते हैं ,क्योंकि यह काम आमदनी का ज़रिया है। वह जानते हैं कि अच्छा सलूक गाहकों को मुतास्सिर करता है।

दूसरी क़िस्म का अख़लाक़ मोमिन की सिफ़त है। जब हम कहते हैं कि मोमिन का अखलाक बहुत अच्छा है तो इसका मतलब यह है कि मोमिन दुनयावी फ़ायदे हासिल करने के लिए नही बल्कि आपस में मेल मुहब्बत बढ़ाने के लिए अख़लाक़ के साथ पेश आता है। क़ुरआने करीम में हकीम लुक़मान के क़िस्से में उनकी नसीहतों के तहत ज़िक्र हुआ है “व ला तुसाअइर ख़द्दका लिन्नासि व ला तमशि फ़िल अरज़े मरहन... ”[6] “तुसाअइर ” का माद्दा “सअर ” है और यह एक बीमारी है जो ऊँटों में पाई जाती है । इस बीमारी की वजह से ऊँटो की गर्दन दाहिनी या बाईँ तरफ़ मुड़ जाती है। आयत फ़रमा रही है कि गर्दन मुड़े बीमार ऊँट की तरह न रहो और लोगों की तरफ़ से अपने चेहरे को न मोड़ो । इस ताबीर से मालूम होता है कि बद अख़लाक़ अफ़राद एक क़िस्म की बीमारी में मुबतला हैं। आयत के आख़िर में बयान हुआ है कि तकब्बुर के साथ राह न चलो।

****************************************************

[1]बिहारूल अनवार जिल्द 64/310

[2]सूरए तौबा आयत न. 79

[3]बिहारूल अनवार जिल्द 64 पोज न. 310

[4]बिहारूल अनवार जिल्द 68 बाब हुस्नुल ख़ुल्क़ पोज न. 375

[5]बिहारुल अनवार जिल्द 64 पेज न. 310

[6]सूरए लुक़मान आयत न. 18