दर्से अख़लाक़

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दर्से अख़लाक़

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना सैय्यद एजाज़ हुसैन मूसावी
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दर्से अख़लाक़

दर्से अख़लाक़

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

शियों के सिफ़ात(1)

मुक़द्दमा

बिहारुल अनवार की 65वी जिल्द का एक हिस्सा “शियों की सिफ़ात ” के बारे में है। कितना अच्छा हो कि हम सब इस हिस्से को पढ़ें और जानें कि इस मुक़द्दस नाम यानी “शियाए अहले बैत ” के तहत कितनी ज़िम्मेदारियाँ हैं। सिर्फ़ दावा करने से शिया नही हो सकते। सिर्फ़ इस बात से के मेरे माँ ,बाप शिया थे मैं शिया हूँ ,शिया नही हो सकते। शिया होना एक ऐसा मफ़हूम है जिसके तहत बहुत सी ज़िम्मेदारियाँ आती हैं जिनको मासूमीन अलैहिमुस्सलाम ने “सिफ़ाते शिया ” उनवान के तहत बयान फ़रमाया है।

मुयस्सर इब्ने अब्दुल अज़ीज़ हज़रत इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम के मशहूर असहाब में से थे। जिनका ज़िक्र इल्मे रिजाल में भी हुआ है। इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ने मुयस्सर के बारे में एक जुम्ला इरशाद फ़रमाया जो यह है कि “ऐ मुयस्सर कई मर्तबा तेरी मौत आई लेकिन अल्लाह ने उसको टाल दिया इस लिए कि तूने सिलहे रहम अंजाम दिया और उनकी मुश्किलात को हल किया। ”

मतने हदीस

हज़रत इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ने एक हदीस में मुयस्सर से फ़रमाया कि “या मुयस्सरु अला अखबरका बिशियतिना क़ुल्तु बला जअलतु फ़िदाक क़ालः इन्नहुम हसूनः हसीनतन व सदूरुन अमीनतन व अहलामुन वज़ीनतन लैसू बिलमज़ीउल बज़र वला बिल ज़िफ़ातिल मराईन रहबानुन बिल्लैलि उसदुन बिन्नहारि। ”

तर्जमा

क्या मैं अपने शियों की तुझे मोर्रफ़ी कराऊँ उसने कहा कि मेरी जान आप पर क़ुर्बान फ़रमाये। आपने फ़रमाया वह मज़बूत क़ले और अमनतदार सीने हैं। वह साहिबाने अक़्ले वज़ीन व मतीन हैं। वह न अफ़वाहे उड़ाते हैं और न ही राज़ों को फ़ाश करते हैं। वह खुश्क ,रूखे ,सख़्त और रियाकार नही हैं। वह रात में रहबाने और दिन में शेर हैं।

शरह

यह एक छोटीसी हदीस है जिसमें शियों के सात सिफ़ात और एक दुनिया मतलब व ज़िम्मेदारी छुपी हुई है। शायद “हसून हसीनतन ” के यह मअना हैं कि शिया वह हैं जिन पर दुशमन की तबलीग़ का कोई असर नही होता। आज जब कि दुनिया की तहज़ीब ख़तरनाक सूरत में हमारे जवानों को तहदीद कर रही है ,क्या हम ने कोई ऐसा रास्ता ढूँढ लिया है जिससे हम अपनी जवान नस्ल को मज़बूत बना सकें ?अगर हम इन बुराईयों के कीड़ों को ख़त्म नही कर सकते तो कम से कम अपने आपको तो मज़बूत बना सकते हैं। इस नुक्ते पर भी तवज्जोह देनी चाहिए कि आइम्मा ए मासूमीन अलैहिमुस्सलाम के ज़माने में आइम्मा (अ.) को एक गिला यह भी था कि हमारे कुछ शिया हमारे राज़ों को फ़ाश कर देते हैं । और राज़ों के फ़ाश करने से यह मुराद थी कि आइम्मा ए मासूमीन अलैहिस्सलाम के मक़ामो अज़मत को हर किसी के सामने बयान कर देते थे। जैसे इमाम का इल्में ग़ैब ,इमाम का रोज़े क़ियामत शफ़ीई होना ,इमाम का रसूल (स.) के इल्म का अमानतदार होना ,इमाम का शियों के आमाल पर शाहिद और नाज़िर होना व मोअजज़ात वग़ैरह ,यह सब वह राज़ थे जिनको दुश्मन व आम लोग बर्दाश्त नही कर पाते थे। कुछ सादा लोह शिया ऐसे थे जहाँ भी बैठते थे सब बातों को बयान कर देते थे। और इन बातों से इख़तेलाफ़ ,अदावत व दुश्मनी के अलावा कुछ भी हासिल नही होता था। इमाम ने फ़रमाया कि हमारे शिया वह हैं जिनके सीने अमानत दार हैं ,किसी सबब के बग़ैर राज़ को फ़ाश नही करते। शियों और ग़ैरों के दरमियान इख़्तिलाफ़ पैदा नही करते । इससे भी ज़्यादा बदतर ग़ल्लाती हैं जो ताज़ा पैदा हुए हैं जो विलायत के बहाने से कुफ़्र या बहुत सी ऐसी नामुनासिब बाते आइम्मा के बारे में कहते हैं जिनसे आइम्मा हरगिज़ राज़ी नही हैं। हमको चाहिए कि इन जदीद ग़ल्लात से चोकस रहें। इनमें दो ऐब पाये जाते हैं एक तो यह कि ख़ुद को हलाक करते हैं क्योंकि इन लोगों का ख़्याल यह है कि अगर हम अल्लाह के सिफ़ात आइम्मा ए मासूमीन (अ.) या हज़रत ज़ैनब (स.) या शोहदा ए कर्बला (अ.) की तरफ़ मनसूब करें तो यह ऐने विलायत है। और सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि हमारा ज़माना मिडिया का ज़माना अगर आज सुबह एक ख़बर सादिर हो तो एक घंटे के बाद यह ख़बर दुनिया के हर कोने में पहुँच जायेगी। लिहाज़ा यह ग़लुआमेज़ व नामुनासिब बातें फ़ौरन यहाँ से वहाँ नश्र करते हैं और शियत के दामन पर एक धब्बा लगा देते हैं। और बाद में मुख़्तलिफ़ मुमालिक में दिवारों पर लिख देते है कि शिया काफ़िर हैं। और फ़िर शियों का कत्ले आम शुरू हो जाता है। इन अहमक़ो नादान लोगों को यह मालूम नही कि इन की यह बातें ,दुनियाँ के दूसरे मक़ामात पर शियों के क़त्ले आम का सबब बनती हैं। वाय हो ऐसे नादान और जाहिल साथियों पर ,वाय इस ज़माने पर कि इसमें हमारी मजलिसों की नब्ज़ जाहिलो नादान अफ़राद के हाथों में चली गई। इन बातों की तरफ़ से लापरवाह नही होना चाहिए ,मजालिस की बाग डोर इस तरह के अफ़राद के हाथों में न हो कर उलमा के हाथों में होनी चाहिए।

बहर हाल वह सिफ़ात जो यहाँ पर शिय़ों के लिए बयान की गई हैं उनमें से एक यह है कि वह स़ख़्त मिज़ाज नही होते ,शिया मुहब्बत से लबरेज़ होते हैं ,इनके मिज़ाज मे लताफ़त पाई जाती है। इनमें अली इब्ने अबितालिब ,इमाम सादिक़ व उन आइम्मा ए हुदा अलैहिमुस्सलाम की ख़ू बू पाई जाती है जो दुश्मनों से भी मुहब्बत करते थे।

शियों की एक सिफ़त यह है कि यह रियाकार नही हैं हमारे शियों ने दो मुख़्तलिफ़ हालतों को अपने अन्दर जमा किया है। अगर कोई इनकी रातों की इबादत को देखे तो कहेगा कि यह ज़ाहिदे रोज़गार व दुनिया के सबसे अच्छे आदमी हैं लेकिन इनके हाथ पैर नही है। लेकिन दिन में देखेगा कि शेर की तरह समाज में मौजूद हो जाते हैं।

हम शियों व मुसलमानों को पाँच क़िस्मों में तक़सीम कर सकते हैं :

ज़ोग़राफ़ियाई शिया-- यानी वह शिया जो इरान में पैदा हुआ ,ईरान जोग़राफ़िया की नज़र से एक शिया मुल्क है। बस चूँकि मैं यहाँ पैदा हुआ लिहाज़ा जब शियों की तादाद को गिना जायेगा तो मेरा नाम भी लिया जायेगा चाहे शियत पर मेरा अक़ीदा हो या न हो। मैं शियत के बारे में इल्म रखता हूँ या न रखता हूँ चाहे आइम्मा के नाम को गिन पाऊँ या न गिन पाऊ ,यह है शिया ए जोग़राफ़ियाई।

इर्सी शिया-- वह अफ़राद जो शिया माँ बाप के यहाँ पैदा हुए।

लफ़्ज़ी शिया — वह अफ़राद जो फ़क़त ज़बान से कहते हैं कि हम अली इब्ने अबितालिब के शिया हैं मगर अमल के मैदान में ग़ायब नज़र आते हैं।

सतही शिया वह शिया जो अमल तो करते हैं मगर शियत की गहराई में नही पहुँचे हैं वह सतही हैं। यह वह अफ़राद हैं जो फ़क़त अज़ादारी ,तवस्सुल और इन्हीं जैसी दूसरी चीज़ों के बारे में जानते हैं। यह कैसे कहा जा सकता है कि वह शिया हैं ?इस लिए कि मोहर्रम के ज़माने में मजलिसों और मातमी दस्तों में शिरकत करते हैं और मस्जिदे जमकरान जाते हैं। मैं यह नही कहना चाहता कि यह कम अहमियत हैं नही इनकी अहमियत बहुत है। मगर इन्होने शियत से बस यही समझा है। लेकिन इनमें रोहबानुन बिल लैल ,असदुन बिन्नहार ,अहलामुन वज़ीनह व सदरुन अमीनह जैसी सिफ़ते नही पाई जाती।

हक़ीक़ी शिया यह वह अफ़राद हैं जो इलाही मआरिफ़ और अहल्बैत अलैहिमुस्सलाम की रिवायतों से आगाह हैं। और इनके किरदार में वह सिफ़ते पाई जाती हैं जो इस रिवायत में आई हैं।

शियों के सिफ़ात(2)

मुक़द्दमा

बिहारुल अनवार की 65वी जिल्द में दो हिस्से बहुत अहम हैं 1- फ़ज़ाइल् शिया 2- सिफ़ाते शिया

फ़ज़ाइले शिया ,मक़ामाते शिया व सिफ़ाते शिया शराइत व और उनके ओसाफ़ को बयान करता है इस मअना में कि जहाँ अहादीस में शियों के मक़ामात बयान हुए हैं वहीं इन मक़ामत के साथ साथ शियों के वज़ाइअफ़ भी मुऐय्यन किये गये हैं।

मतने हदीस

क़ालः अस्सादिक़ (अ.) “इम्तहिनू शियातना अन्दः मवाक़ीति अस्सलात कैफ़ः मुहाफ़िज़तुहुम अलैहा व इला असरारिना कैफ़ः हफ़ज़ुहुम लहा इन्दः उदुव्विना व इला अमवालिहिम कैफ़ः मवासातुहुम लिइख़वानिहिम फ़ीहा। ”

तर्जमा

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि हमारे शियों का नमाज़ के वक़्त इम्तेहान करो कि नमाज़ को किस तरह अहमियत देते हैं। और यह कि दुश्मन के सामने हमारे मक़ामात और राज़ों को बयान नही करते । और इसी तरह उनका माल में इम्तेहान करो किअपने दूसरे भईयों की किस तरह मदद करते हैं।

हदीस की तशरीह

इम्तहिनू शियतना इन्दः मवाक़ीतिस्सलात यानी नमाज़ के वक़्त को अहमियत देते हैं या नही ?काम के वक़्त नमाज़ को टालते हैं या काम को ?कुछ लोग मानते हैं कि नमाज़ ख़ाली वक़्त के लिए है और कहते हैं कि अव्वले वक़्त रिज़वानुल्लाह व आख़िरि वक़्त ग़ुफ़रानुल्लाह। कुछ अहले सुन्नत कहते हैं कि हक़ीक़ी मुसलमान तो हम हैं इसलिए कि नमाज़ को जो अहमियत हम देते हैं वह तुम नही देते हो।

नमाज़ की अहमियत के बारे में हज़रत अली अलैहिस्सलाम मालिके अश्तर को ख़िताब करते हुए फ़रमाते हैं कि “इजअल अफ़ज़ला अवक़ातिक लिस्सलाति। ” यीनी अपना बेहतरीन वक़्त नमाज़ के लिए क़रार दो।

कैफ़ः मुहाफ़िज़तु हुम अलैहा यहाँ पर कलमा ए “मुहाफ़िज़तुन ” इस मअना में है कि नमाज़ को लिए बहुतसी आफ़ते हैं जिनसे नमाज़ की हिफ़ाज़त करनी चाहिए। और आप रूहानी हज़रात को चाहिए कि अवाम के लिए नमूना बनो। मैं उस ज़माने को नही भूल सकता जब इमाम ख़ुमैनी (रह) होज़े इल्मियह में मदर्रिस थे और हम भी होज़े में तालिबे इल्म थे ,मरहूम आयतुल्लह सईदी ने हमारी दावत की थी और वहाँ पर इमाम भी तशरीफ़ फ़रमा थे हम लोग इल्मी बहसो मुबाहिसे में मशग़ूल थे। जैसे ही अज़ान की सदा बलन्द हुई इमाम बग़ैर किसी ताखीर के बिला फ़ासले नमाज़ के लिए खड़े हो गये। क़ानून यही है कि हम कहीं पर भी हों और किसी के भी साथ हों नमाज़ को अहमियत दें ,खास तौर पर सुबह की नमाज़ को कुछ लोग नमाज़े सुबह को देर से पढ़ते हैं यह तलबा की नमाज़ नही है।

व इला असरारिना कैफ़ः हफ़ज़हुम लहा इन्दः उदुव्विना यहाँ पर राज़ों की हिफ़ाज़त से मक़ामे अहलेबैत की हिफ़ाज़त मुराद है यानी उनके मक़ामों मंज़िलत को यक़ीन न करने वाले दुश्मन के सामने बयान न करें। (जैसे- विलायते तकवीनी ,मोअजज़ात ,इल्मे ग़ैब वगैरह) क्योंकि यब मक़ामों मंज़िलत असरार का जुज़ है। हमारे ज़माने में एक गिरोह न सिर्फ़ यह कि असरार को बयान करता है बल्कि ग़लू भी करता है। जैसे कुछ नादान मद्दाह ज़ैनबुल्लाही हो गये हैं। मद्दाह का मक़ाम बहुत बलन्द है और आइम्मा अलैहिमुस्सलाम ने उनको अहमियत दी जैसे देबल ख़ुज़ाई बलन्द मक़ाम पर फ़ाइज़ थे। लेकिन कोशिश करो कि मजालिस की बाग डोर नादान लोगों के हाथो में न दो। मद्दाहों को चाहिए कि अपने अशआर की उलमा से तसही कराऐं और ग़ुलू आमेज़ अशआर से परहेज़ करें। खास तौर पर उस वक़्त जब अवाम की नज़र में मक़ाम बनाने के लिए मद्दाह हज़रात में बाज़ी लग जाये। इस हालत में एक गुलू कतरता है तो दूसरा उससे ज़्यादा ग़ुलू करता है और यह काम बहुत ख़तरनाक है।

व इला अमवालिहिम कैफ़ः मवासातुहुम लिइख़वानिहिम फ़ीहा मवासात के लुग़त के एतबार से दो रीशे हो सकते हैं। या तो यह वासी को मद्दे से है या फिर आसी के मद्दे से है। कि दोनों से मवासात होता है। और यह मदद करने के मअना में है। शिया का उसके माल से इम्तिहान करना चाहिए कि उसके माल में दूसरे अफ़राद कितना हिस्सा रखते हैं। हमारे ज़माने में मुश्किलात बहुतज़्यादा हैं।

1-मुश्किले बेकारी जिसकी वजह से बहुत से फ़साद फैले हैं जैसे चोरी ,मंशियात व खुद फ़रोशी वग़ैरह

2-जवानों की शादी की मुश्किल

3-घर की मुश्किल

4-तालीम के खर्च की मुश्किल ,बहुत से घर बच्चों की तालीम का ख़र्च फ़राहम करने में मुश्किलात से दो चार हैं। हमारा समाज़ शिया समाज है बेहूदा मसाइल में अनगिनत पैसा खर्च हो रहा है। जबकि कुछ लोगों को जिन्दगी की बुनियादी ज़रूरयात भी फ़राहम नही है। इस लिए हमें चाहिए कि सिफ़ाते शिया की तरफ़ भी तवज्जैह दी जाये ,न सिर्फ़ यह कि शियों के मक़ाम और उनके अजरो सवाब को बयान किया जाये। उम्मीद है कि हम अपनी रोज मर्रा की जिन्दगी में आइम्मा (अ.) के फ़रमान पर तवज्जौह देंगे और उन पर अमल करेंगे।

शियों के सिफ़ात(3)

मुक़द्दमा---

आज हम अहलेबैत (अ) के शियों के बारे में दो हदीसें बयान करते हैं पहली हदीस शियों के फ़ज़ाइल से मुताल्लिक़ है और दूसरी हदीस शिय़ों की सिफ़त से मरबूत है।

1-दख़ल्तु अला अबि बक्रिल हज़रमी व हुवः यजूदु बिनफ़्सिहि फ़नज़रः इलय्यः व क़ालः लैयतः सअतल किज़्बः अशहदु अला जअफ़र बिन मुहम्मद इन्नी समितहु यक़ूल “ला तमुस्सन्नारु मन मातः व हुवः यक़ूलु बिहाज़ल अम्र। ”

2-सुलिमान बिन मिहरान क़ालः दख़ल्तु अस्सादिक़ (अ) व इन्दःहु नफ़ःरुन मिन शियति व हुवः यक़ूलु मआशरः अश्शियति कूनू लना ज़ैनन वला तकूनु अलैना शैनन क़ूलू लिन्नासि हसनन इहफ़ज़ू अलसिनतःकुम व कफ़्फ़ुहा अनिल फ़जूलि व क़बिहुल क़ौलि[1]

तर्जमा 1- रावी कहता है कि मैं इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम के एक मख़सूस साथी अबु बक्र हज़रमी के पास उस वक़्त गया जब वह अपनी ज़िन्दगी के आखिरी लम्हात में थे। उन्होंने मेरे ऊपर एक निगाह डाली और कहा कि देखो यह झूट बोलने का वक़्त नही है। मैं इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम के बारे में शहादत देता हूँ। और मैनें उन से सुना है कि वह कहते हैं कि जो शख़्स इस हालत में मरे कि अहलेबैत की विलायत का क़ाइल हो उसको जहन्नम की आग छू भी नही सकती।

2-सुलेमान बिन मेहरान ने कह है कि मैं एक बार इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम के पास गया उनके पास कुछ शिया बैठे हुए थे और वह उनसे यह बात कह रहे थे कि ऐ शियों हमारे लिए ज़ीनत बनना और हमारे लिए रुसवाई का सबब न बनना। लोगों से अच्छी बाते करों ,अपनी ज़बान पर काबू रखो ,फालतू और बुरी बात कहने से परहेज़ करो।

हदीस की तशरीह

इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम इस हदीस में दो मतालिब बयान फ़रमा रहे हैं। इनमें से एक क़ाइदाए कुल्ली है और दूसरा एक रौशन मिस्दाक़ है। क़ाइदाए कुल्ली तो यह है कि अपने आमाल के ज़रीये हमारी रुसवाई का सबब न बनना। यानी तुम इस तरह बनो के जब लोग तुमको देखें तो तम्हारे साहिबे मकतब पर दरूद पढ़ें और कहों के मरहबा उस इंसान के लिए जिसने इन लोगों की तरबीयत की। और हमारी रुसवाई का सबब न बनना ,क्योंकि हम पैगमेबर (स.) की औलाद हैं। इसके बाद खास मिस्दाक़ की तरफ़ इशारा करते हैं जो कि ज़बान है ,उलमा ए अख़लाक़ कहते हैं कि सैरे सलूक इला अल्लाह में वह पहली चीज़ जिसकी इसलाह होनी चाहिए वह ज़बान है। और जब तक ज़बान की इसलाह नही होगी दिल पाक नही हो सकता। ज़बान इंसान के पूरे वजूद की कलीद है। इस तरह के इंसान को उसकी ज़बान के ज़रिये पहचाना जा सकता है। “ इख़तबरू हुम बि सिदक़िलहदीस ” जब लोगों का इम्तेहान करना चाहो तो यह दोखो कि वह सच बोलते हैं या झूट। अगर ज़बान पर क़ाबू होता है तो सही गुफ़्तुगु होती है और जो कुछ कहा जाता है वह सोच समझ कर कहा जाता है।

और ज़बान को क़ाबू में रखने के लिए एक तरीक़ा वह है जो रिवायत के आख़ीर में बयान किया गया है “कफ़्फ़ुहा अनिल फ़ज़ूल ”यानी ज़्यादा न बोलो ,कम बोलना सैरो सलूक की पहली राह है जिसका नाम “सुम्त ” है। एक दानिश मन्द कहता है कि पाँच चीज़े ऐसी हैं जो हर नाक़िस चीज़ को पूरा करती हैं।

सुम्तो सौम ,सहरो अज़लत व ज़िकरीबेही दवाम नातमामाने जहान रा कुनद ईन पन्ज तमाम।

वाक़ियन अगर कोई इनको अन्जाम दे तो वह अल्लाह के क़ुर्ब को हासिल कर सकता है ,और इनमें पहली चीज़ सुम्त यानी ख़ामौश रहना है। सुम्त के माअना यह नही है कि इंसान बिल्कुल बात चीत न करे ,बल्कि सुम्त के माअना यह है कि इंसान फ़ालतू और बुरी बातें ज़बान पर न लाये।