दर्से अख़लाक़

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कैटिगिरी: अख़लाक़ी किताबें

दर्से अख़लाक़

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना सैय्यद एजाज़ हुसैन मूसावी
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दर्से अख़लाक़

दर्से अख़लाक़

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

शियों के सिफ़ात(4)

हदीस-

*…..समितु अबा अब्दिल्लाह (अ.) यक़ूल : इन्ना अहक़्क़ा अन्नासु बिल वरए आलि मुहम्मद (स.) व शियतिहिम कै तक़तदा अर् रअय्याति बिहिम।[2]

तर्जमा-

इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि वरअ व तक़वे में सबसे बेहतर आले मुहम्मद व उनके शिया हैं ताकि दूसरे तमाम अफ़राद उनकी इक़तदा करें।

तशरीहे हदीस-

शिया होना इमाम का जुज़ होना है ,मासूम इमाम व पैगम्बरान तमाम लोगों के लिए इमाम हैं। शियों को भी चाहिए कि लोगों के एक गिरोह के इमाम हों। वाक़िअत यह है कि इसलामी समाज में शियों को पेश रू होना चाहिए ताकि दूसरे उनकी इक़तदा करें। जिस तरह जनूबी लबनान में शिया मुजाहिदों की सफ़ों में सबसे आगे हैं और सब लोग उनको मज़बूत ,फ़िदाकार और ईसार करने वालों की शक्ल में पहचानते हैं। शियों को चाहिए कि सिर्फ़ जिहाद में ही नही बल्कि ज़िन्दगी के हर मैदान में पूरी दुनिया के लिए पेशवा व नमूना होना चाहिए। “वरअ ” तक़वे से भी उपर की चीज़ है। कुछ बुज़ुर्गों ने वरअ को चार मरहलों में तक़सीम किया है।

1-तौबा करने वालों के वरअ (तक़वे) का मरहला

वरअ का यह मरहला इंसान को फ़िस्क़ से बचाता है। यह वरअ का सबसे नीचे का मर्तबा है और अदालत के बराबर है। यानी इंसान गुनाह से तौबा करके आदिलों की सफ़ में आ जाता है।

2-सालेहीन के वरअ का मरहला

वरअ के इस मरहले में इंसान शुबहात से भी परहेज़ करता है। यानी वह चीज़े जो ज़ाहेरन हलाल हैं लेकिन उनमें शुबाह पाया जाता उनसे भी से बचता है।

3-मुत्तक़ीन के वरअ का मरहला

वरअ के इस मरहले में इंसान गुनहा और शुबहात से तो परहेज़ करता ही है मगर इनके अलावा उन हलाल चीज़ों से भी बचता है जिनके सबब किसी हराम में मुबतला होने का ख़तरा हो। जैसे- कम बोलता है क्योंकि वह डरता है कि अगर ज़्यादा बोला तो कहीँ किसी की ग़ीबत न हो जाये। जो वाक़ियन इस उनवान में दाख़िल है उतरुक मा ला बासा बिहि हज़रन मिम्मा बासा बिहि।

4-सिद्दीक़ीन के वरअ का मरहला

इस मरहले में उम्र के एक लम्हे के बर्बाद होने के डर से ग़ैरे ख़ुदा से बचा जाता है। यानी ग़ैरे ख़ुदा से बचना और अल्लाह से लौ लगाना इस लिए कि कहीँ ऐसा न हो कि उम्र का एक हिस्सा बर्बाद हो जाये। हमारा सबसे क़ीमती सरमाया हमारी उम्र है जिसको हम तदरीजन अपने हाथों से गवाँते रहते हैं और इस बात से ग़ाफिल हैं कि यह हमारा सबसे क़ीमती सरमाया है।

इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि वरअ में सबसे बेहतर आले मुहम्मद और उनके शिया हैं। हम कहते हैं कि वरअ के मरातिब में से कम से कम पहला मरहला तो हमको इख़्तियार कर ही लेना चाहिए। यानी शिया को चाहिए कि वह आदिल और अवाम का पेशवा हो। वह फ़क़त ख़ुद ही को न बचाये बल्कि दूसरों को भी निजात दे। सूरए फ़ुरक़ान के आख़िर में अल्लाह के बन्दों की बारह ख़सूसियात बयान की गयी हैं। और उनमें से एक ख़सूसियत यह है कि “वल लज़ीना यक़ूलूना रब्बना हबलना मिन अज़वाजुना व ज़ुर्रियातिना क़ुर्रता ऐनिन व जअलना लिल मुत्तक़ीना इमामन ” यह वह लोग हैं जो अल्लाह से दुआ करते हैं कि उनकी औलाद मामूली न हो बल्कितमाम मुसलमानों के लिए क़ुर्रता ऐन व नमूना हो और वह अल्लाह से दुआ करते हैं कि हमको मुत्तक़ीन का इमाम बनादे। क्या यह चाहना कि हम में से हर कोई इमाम हो तलबे बरतरी है ?नही यह हिम्मत की बलन्दी है। बस इस से यह मालूम होता है कि अपने आपको शिया कहना और शियों की सफ़ मे खड़ा होना आसान है लेकिन वाक़ई शिया होना बड़ा मुशकिल है।इमामे ज़माना और दिगर आइम्मा हुदा को अहले इल्म हज़रात और इस मकतब के शागिर्दों से बहुत ज़्यादा तवक़्क़ौ है। इनको चाहिए कि लोगों के लिए नमूना बनें ताकि लोग उनकी इक़तदा करें। और तबलीग़ का सबसे बेहतर तरीक़ा भी यही है कि इंसान के पास इतना वरअ व तक़वा हो कि लोग उस के ज़रिये से अल्लाह को पहचाने। और जान लो कि हक़ीक़ी शिया वह अफ़राद है जो शुजा ,सबूर ( बहुत ज़्यादा सब्र करने वाले) मुहब्बत से लबरेज़ ,परहेजगार व हराम से बचने वाले हैं और जिन्हें मक़ामों मंज़ेलत से लगाव नही है।

हमारे ज़माने की कुछ खास शर्तें हैं हम अपने मुल्क के अन्दर और दुनिया के अक्सर मुल्कों में तीन मुश्किलात से रू बरू हैं।

1-सियासी बोहरान

यह कभी न सुलझने वाला उलझाव जो आज कल और ज़्यादा उलझ गया है और जिसके अंजाम के बारे में कोई अच्छी पोशीन गोई नही हो रही है।

2-इक़तेसादी बोहरान

मकान की मुश्किल ,शादी बयाह के खर्च की मुश्किल ,बे रोज़गारी वग़ैरह की मुश्किलें।

3-अख़लाक़ी बोहरान

मेरा खयाल है कि यह उन दोनों बोहरानों से ज़्यादा ख़तरनाक है ख़ास तौर पर वह बोहरान जिसने जवान लड़कों और लड़कियों का दामन पकड़ लिया है और उनको बुरीयों की तरफ़ खैंच रहा है। इस अख़लाक़ी बोहरान की भी तीन वजह हैं।

क - मुख़तलिफ़ वसाइल का फैलाव

जैसे –बहुतसी क़िस्मों की सी. डी. ,फ़ोटू ,फ़िल्में ,डिश व इन्टरनेट वग़ैरह जिन्सी मसाइल को आसानी के साथ हर इंसान तक पहुँचाने का सबब बने

ख- किसी शर्त के बग़ैर पूरी आज़ादी

दूसरे अलफ़ाज़ में आज़ादी के नाम पर क़ैद यानी आज़ादी के नाम पर शहवत के पंजों में क़ैद ,इस तरह कि अम्रे बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर करना बहुत से लोगों की शर्मन्दगी का सबब हो जाता है। आज़ादी जो कि इंसान के तकामुल का ज़रिया है उसकी इस तरह तफ़सीर की गयी कि वह इंसान की पस्ती और गिरावट का वसीला बन गई।

ग- कुछ छुपे हुए हाथ

जिनका मानना है कि अगर जवान ख़राब हो जायें तो फिर उन पर क़ाबू पाना आसान है। उन्होंने इस राह में दीन व अख़लाक़ को मानेअ माना है। उन्होनें सही सोचा है क्योंकि जो मिल्लत गुनाहों ,बुराईयों और मंशियात के जाल में फस जायेगी वह कभी भी दुश्मन का मुक़ाबला नही कर सकती।

क्या हम इन मसाइल के मुक़ाबले में ख़ामौश हो कर बैठ जायें और दुआ करें कि मुस्लेह (इस्लाह करने वाला) आ जाये। यह डरपोक और सुस्त इंसानों की बाते हैं। कर्बला में चन्द ही तो नफ़र थे जिन्होंने क़ियाम किया या पैगम्बरे इस्लाम (स.) को ले लिजिये जिन्होंने तने तन्हा लोगो को हक़ की दावत दी या जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम जो तन्हा ही खड़े हो गये। हक़्क़ो अदालत के रास्ते में तादाद की कमी से नही घबराना चाहिए। ला तस्तवहशु फ़ी तरीक़ि अलहुदा लिलक़िल्लति अहलिहि।

अल हम्दु लिल्लाहि कि अब अफ़राद की कमी नही है ,पन्दरह शाबान को मस्जिदे जमकरान के चारों तरफ़ मैदाने अराफ़ात से ज़्यादा लोग जमा थे और इनमें जवानों को अकसरियत हासिल थी। या एतेकाफ़ के ही ले लिजिये उसमें जवान इतना बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं कि जगह कम रह जाती है ,यह सब आपकी फ़ौज है। हमें चाहिए कि हमारी ज़ात ,हमारी ज़बान और हमारा क़लमदूसरों के लिए नमूना हो ताकि इस अख़लाक़ी बोहरान के मुक़ाबले में खड़े हो सकें। इस राह में अल्लाह के वादे हमरे होंसले बढ़ाते है।अवाम अब भी रूहानियत के अपना महरे असरार मानते हैं। जिस इलाक़े में भी तबलीग़ के लिये जाओ वहाँ के लोगो की मिश्किलों को नज़र में रख़ो और मसूलीन को उनसे आगाह कराओ। लोगों के दो गिरोह हैं एक अवामी हिरोह जो कहता है कि माहे रमज़ान में पाक हो जायेंगे और दूसरा गिरोह खवास का है जो कहता है कि माहे शाबान में पाक हो कर रमज़ान में वारिद होंगे ,क्योंकि माहे रमज़ान अल्लाह की मेहमानी का महीना है इस लिए मेहमान को चाहिए कि पहले ही पाक हो जाये लिहाज़ा हमें अपनी ज़बान व आँख़ों को माहे शाबान में ही पाक कर लेना चाहिए ताकि रमज़ान की बरकतों से फ़ायदा उठा सकें और इस बारे में हमें लोगों को भी आगाह करना चाहिए कि माहे शाबान अपने आपको सवाँरने और अल्लाह की ज़ियाफ़त के लिए तैयार होने का महीना है।

मैं आप सब हज़रात से इस बात का उम्मीदवार हूँ कि अपने प्रोग्रामों और मसाइल को कामयाबी के साथ अंजाम दो और सियासी झमेलों में न फस कर सब लोगों को इत्तेहाद की दावत दो। हमारे सामने कोई मुश्किल नही है बल्कि हम खुद मुश्किलों को जन्म देते हैं। हम सब को चाहिए कि आपस में मुत्तहिद हो जायें क्योंकि दुश्मन अपनी तैयारी पूरी कर चुका हैं ,वह जब आजायेगा तो किसी को भी नही छोड़ेगा।

हवालेः-

[1]बिहारुल अनवार 65/161

[2]बिहारूल अनवार जिल्द65/166 हदीस न.21

शियों के सिफ़ात(5)

हदीस-

अन अनस इब्ने मालिक क़ाला क़ालू या रसूलल्लाहि मन औवलियाउ अल्लाहि अल्लज़ीना ला खौफ़ुन अलैहिम वला हुम यहज़नून ?फ़क़ाला अल्लज़ीना नज़रू इला बातिनि अद्दुनिया हीना नज़रा अन्नासु इला ज़ाहिरिहा ,फ़ाइहतम्मु बिआजलिहा हीना इहतम्मा अन्नासु बिअजिलिहा ,फ़अमातु मिनहा मा ख़शव अन युमीताहुम ,व तरकु मिनहा मा अलिमु अन सयतरुका हुम फ़मा अरज़ा लहुम मिनहा आरिज़ुन इल्ला रफ़ज़ूहु ,वला ख़ादअहुम मिन रफ़अतिहा ख़ादिऊन इल्ला वज़ऊहु ,ख़ुलिक़त अद्दुनिया इन्दाहुम फ़मा युजद्दिदुनहा ,व ख़राबत बैनाहुम फ़मा यअमुरूनहा ,व मातत फ़ी सुदूरि हिम फ़मा युहिब्बुनहा बल यहदिमुनहा ,फ़यबनूना बिहा आख़िरताहुम ,व यबयाऊनहा फ़यशतरूना बिहा मा यबक़ा लहुम ,नज़रु इला अहलिहा सर्आ क़द हल्लत बिहिम अलमुसलातु ,फ़मा यरौवना अमानन दूना मा यरजूना ,वला फ़ौफ़न दूना मा यहज़रूना।[1]

तर्जमा-

अनस इब्ने मालिक ने रिवायत की है कि पैगम्बर (स) से कहा गया कि ऐ अल्लाह के रसूल अल्लाह के दोस्त -जिनको न कोई ग़म है और न ही कोई ख़ौफ- वह कौन लोग हैं ?आप ने फरमाया यह वह लोग हैं जब दुनिया के ज़ाहिर को देखते हैं तो उसके बातिन को भी देख लेते हैं ,इस तरह जब लोग इस दो रोज़ा दुनिया के लिए मेहनत करते हैं उस वक़्त वह आख़िरत के लिए कोशिश करते हैं ,बस वह दुनिया की मुहब्बत को मौत के घाट उतार देते हैं इस लिए कि वह डरते हैं कि दुनिया उनकी मलाकूती और क़ुदसी जान को तबाह कर देगी ,और इससे पहले कि दुनिया उनको तोड़े वह दुनिया को तोड़ देते हैं ,वह दुनिया को तर्क कर देते हैं क्योंकि वह जानते हैं दुनिया उन्हें जल्दी ही तर्क कर देगी ,वह दुनिया की तमाम चमक दमक को रद्द कर देते हैं और उसके जाल में नही फसते ,दुनिया के नशेबो फ़राज़ उनको धोका नही देते बल्कि वह लोग तो ऐसे हैं जो बलन्दियों को नीचे खैंच लाते हैं। उनकी नज़र में दुनिया पुरानी और वीरान है लिहाज़ा वह इसको दुबारा आबाद नही करते ,उनके दिलो से दुनिया की मुहब्बत निकल चुकी है लिहाज़ा वह दुनिया को पसंद नही करते बल्कि वह तो दुनिया को वीरान करते हैं ,और उस वक़्त इस वीराने में अबदी(हमेशा बाक़ी रहने वाला) मकान बनाते हैं ,इस ख़त्म होने वाला दुनिया को बेंच कर हमेशा बाक़ी रहने वाले जहान को ख़रीदते हैं ,जब वह दुनिया परस्तों को देखते हैं तो वह यह समझते हैं कि वह ख़ाक पर पड़े हैं और अज़ाबे इलाही में गिरफ़्तार हैं ,वह इस दुनिया में किसी भी तरह का अमनो अमान नही देखते वह तो फ़क़त अल्लाह और आख़िरत से लौ लगाये हैं और सिर्फ अल्लाह की नाराज़गी व उसके अज़ाब से डरते हैं।

हदीस की शरह

फ़र्क़े खौफ़ व ग़म- मामूलन कहा जाता है कि खौफ़ मुस्तक़बिल से और ग़म माज़ी से वाबस्ता है।इस हदीस में एक बहुत मुहिम सवाल किया गया है जिसके बारे में ग़ौरो फ़िक्र होना चाहिए।

पूछा गया कि औलिया ए इलाही जो न मुस्तक़बिल से डरते हैं और न ही माज़ी से ग़मगीन हैं कौन लोग हैं ?

हज़रत ने उनको पहचनवाया और फरमाया औलिया अल्लाह की बहुत सी निशानियाँ हैं जिनमें से एक यह है कि वह दुनिया परस्तों के मुकाबले में बातिन को देखते हैं।क़ुरआन कहता है कि दुनिया परस्त अफ़राद आख़िरत से ग़ाफ़िल हैं। “यअलामूना ज़ाहिरन मिनल हयातिद्दुनिया व हुम अनिल आख़िरति हुम ग़ाफिलून। ” [2]

अगर वह किसी को कोई चीज़ देते हैं तो हिसाब लगा कर यह समझते हैं कि हमों नुक़्सान हो गया है ,हमरा सरमाया कम हो गया है।[3] लेकिन बातिन को देखने वाले एक दूसरे अंदाज़ में सोचते हैं। क़ुरआन कहता है कि “मसालुल लज़ीना युनफ़ीक़ूना अमवालाहुम फ़ी सबीलिल्लाहि कमसले हब्बतिन अन बतत सबआ सनाबिला फ़ी कुल्ले सुम्बुलतिन मिअतु हब्बतिन वल्लाहु युज़ाईफ़ु ले मन यशाउ वल्लाहु वासिउन अलीम।[4] ”जो अपने माल को अल्लाह की राह में ख़र्च करते हैं वह उस बीज की मानिन्द है जिस से सात बालियां निकलती हैं और बाली में सौ दाने होते हैं और अल्लाह जिसके लिए भी चाहता है इसको दुगना या कई गुना ज़्यादा करता है अल्लाह (रहमत और क़ुदरत के ऐतबार से वसीअ) और हर चीज़ से दानातर है।

जो दुनिया के ज़ाहिर को देखते हैं वह कहते हैं कि अगर सूद लेगें तो हमारा सरमाया ज़्यादा हो जायेगा लेकिन जो बातिन के देखने वाले हैं वह कहते हैं कि यही नही कि ज़यादा नही होगा बल्कि कम भी हो जायेगा। क़ुरआन ने इस बारे में दिलचस्प ताबीर पेश की है “यमहक़ु अल्लाहि अर्रिबा व युरबिस्सदक़ाति वल्लाहु ला युहिब्बु कुल्ला कफ़्फ़ारिन असीम ”[5] अल्लाह सूद को नाबूद करता है और सदक़ात को बढ़ाता और अल्लाह किसी भी नाशुक्रे और गुनाहगार इंसान को दोस्त नही रखता।

जब इंसान दिक़्क़त के साथ देखता है तो पाता है कि जिस समाज में सूदरा इज होता है वहआख़िर कार फ़क़रो फ़ाक़ा और ना अमनी में गिरफ़्तार हो जाता है। लेकिन इसी के मुक़ाबले में जिस समाज में आपसी मदद और इनफ़ाक़ पाया जाता है वह कामयाब और सरबलन्द है।

इंक़लाब से पहले हज के ज़माने में अख़बार इस ख़बर से भरे पड़े थे कि हज अंजाम देने के लिए ममलेकत का पैसा बाहर क्यों ले जाते हो ?क्यों यह अर्बों को देते हो ?क्योंकि वह फ़क़त ज़ाहिर को देख रहे थे लिहाज़ा इस बात को दर्क नही कर रहे थे कि यह चन्द हज़ार डौलर जो ख़र्च किये जाते हैं इसके बदले में हाजी लोग अपने साथ कितना ज़्यादा मानवी सरमाया मुल्क में लाते हैं। यह हज इस्लाम की अज़मत है और मुसलमानों की वहदत व इज़्ज़त को अपने दामन में छुपाये है। कितने अच्छे हैं वह जिल जो वहाँ जाकर पाको पाकीज़ा हो जाते हैं।

आप देख रहे हैं कि लोग इस दुनिया की दो दिन ज़िन्दगी के लिए कितनी मेहनत करते हैं वह मेहनत जिसके बारे में यह भी नही जानते कि इसका सुख भी हासिल करेंगें या नही। मिसाल के तौर पर तेहरान में एक इंसान ने एक घर बनाया था जिसकी नक़्क़ाशी में ही सिर्फ़ डेढ़ साल लग गया था ,लेकिन वह बेचारा उस मकान से कोई फ़ायदा न उठा सका और बाद मे उसका चेहलुम इसी घर में मनाया गया। इस दुनिया के लिए जिसमें सिर्फ़ चार रोज़ ज़िन्दा रहना इतनी ज़्यादा भाग दौड़ की जाती है लेकिन उख़रवी ज़िंदगी के लिए कोई मेहनत नही की जाती ,उसकी कोई फ़िक्र ही नही है।

यह हदीस औलिया ए इलाही की सिफ़ात का मजमुआ है। अगर इन सिफ़ात की जमा करना चाहो तो इनका ख़ुलासा तीन हिस्सों में हो सकता है।

1-औलिया ए इलाही दुनिया को अच्छी तरह पहचानते हैं और जानते हैं कि यह चन्द रोज़ा और नाबूद होने वाली है।

2-वह कभी भी इस की रंगीनियों के जाल में नही फसते और न ही इसकी चमक दमक से धोका खाते क्योंकि वह इसको अच्छी तरह जानते हैं।

3-वह दुनिया से सिर्फ़ ज़रूरत के मुताबिक़ ही फ़यदा उठाते हैं ,वह इस फ़ना होने वाली दुनिया में रह कर हमेशा बाक़ी रहने वाली आख़ेरत के लिए काम करते हैं। वह दुनिया को बेचते हैं और आखेरत को ख़रीदते हैं।

हम देखते हैं कि अल्लाह ने कुछ लोगों को बलन्द मक़ाम पर पहुँचाया है सवाल यह है कि उन्होंने यह बलन्द मक़ाम कैसे हासिल किया ?जब हम ग़ौर करते हैं तो पाते हैं कि यह अफ़राद वह हैं जो अपनी उम्र से सही फैयदा उठाते हैं ,इस ख़ाक से आसमान की तरफ़ परवाज़ करते हैं ,पस्ती से बलन्दी पर पहुँचते हैं। हज़रत अमीरूल मोमेनीन अली इब्ने इबी तालिब (अ) ने जंगे ख़न्दक़ के दिन एक ऐसी ज़रबत लगाई जो क़ियामत तक जिन्नो इन्स की इबादत से बरतर है। “ज़रबतु अलीयिन फ़ी यौमिल ख़न्दक़ि अफ़ज़ला मिन इबादति अस्सक़लैन। ” क्योंकि उस दिन कुल्ले ईमान कुल्ले कुफ़्र के मुक़ाबले में था। बिहारुल अनवार में है कि “बरज़ल ईमानु कुल्लुहु इला कुफ़्रे कुल्लिहि। ” [6]अली (अ) की एक ज़रबत का जुन व इंस की इबादत से बरतर होना ताज्जुब की बात नही है।

अगर हम इन मसाइल पर अच्छी तरह ग़ौर करें तो देखेगें कि कर्बला के शहीदों की तरह कभी कभी आधे दिन में भी फ़तह हासिल की जा सकती है। इस वक़्त हमको अपनी उम्र के क़ीमती सरमाये की क़द्र करनी चाहिए और औलिया ए इलाही( कि जिनके बारे में क़ुरआन में भी बहस हुई है) की तरह हमको भी दुनिया को अपना हदफ़ नही बनाना चाहिए।

बेनियाज़ी

नबी ए अकरम (स) ने फ़रमाया:

خيرالغني غني النفس बेहतरीन बेनियाज़ी नफ़्स की बेनियाज़ी है।

तबीयत एक अच्छा मदरसा है जिसकी क्लासों में तरबीयत की बहुत सी बातें सीखी जा सकती हैं। तबीयत के इन्हीं मुफ़ीद व तरबीयती दर्सों में से एक दर्स यह है कि जानवरों की ज़िन्दगी के निज़ाम में अपने बच्चों से मेहर व मुहब्बत की एक हद मुऐयन होती है। दूसरे लफ़्ज़ों में यह कहा जा सकता है कि जानवर अपने बच्चे से उसी मिक़दार में मुहब्बत करता है ,जितनी मिक़दार की उस बच्चे को ज़रूरत होती है। इसलिये जानवर अपने बच्चे को सिर्फ़ उसी वक़्त तक दाना पानी देते हैं जब तक वह उसे ख़ुद से हासिल करने के काबिल न हो। लेकिन जैसे ही उसमें थोड़ी बहुत ताक़त आ जाती है और हरकत करने लगता है फौरन माँ की मुहब्बत से महरूम हो जाता है ,उसे तन्हा छोड़ दिया जाता है ताकि ख़ुद अपने पैरों पर खड़े होकर जिना सीख ले।

माँ बाप को चाहिये कि वह अपने घरों में तबीयत के इस क़ानून की पैरवी करते हुए अपने बच्चों को ख़ुद किफ़ाई का दर्स दें ,ताकि वह आहिस्ता आहिस्ता अपने पैरों पर खड़ा होना सीख जायें।

उन्हे बताया जाये कि अल्लाह ने सबसे बेहतरीन और क़ीमती जिस्मी व फ़िक्री ख़ज़ानों को तुम्हारे वुजूद में क़रार दिया है। अब यह तुम्हारी ख़ुद की ज़िम्मेदारी है कि उस ज़ख़ीरे को हासिल करके ख़ुद को ग़ैरे ख़ुदा से बेनियाज़ कर लो।

वालेदैन को चाहिए कि इस वाक़ेईयत को बयान करने के अलावा वह अपने बच्चों को अमली तौर पर अलग ज़िन्दगी बसर करने और अपने पैरों पर खड़ा होना सिखायें।

कुछ माँ बाप इस बात को भूल ही जाते हैं कि उनके बच्चे एक न एक दिन उनके बग़ैर ज़िन्दगी बसर करने पर मजबूर होंगें।

लिहाज़ा वह उनके तमाम छोटे बड़े कामों में दख़ालत करते हैं और उन्हे ख़ुद फ़ैसला करने का मौक़ा ही नही देते। वह बच्चों की जगह ख़ुद ही फ़ैसला करके सारे काम अँजाम दे लेते हैं।

इस तरह की तरबीयत का नतीजा यह होगा कि बच्चे चाहते या न चाहते हुए ख़ल्लाक़ियत ,ग़ौर व फ़िक्र में पीछे रह कर धीरे धीरे दूसरों पर मुनहसिर हो जायेंगे और समाजी ज़िन्दगी से हाथ धो बैठेगें। ऐसे बच्चे आला तालीम हासिल करने के बावजूद समाजी तरक्क़ी के एतेबार से कमज़ोर रह जाते हैं। वह समाजी ज़िन्दगी में कम कामयाब हो पाते हैं और दूसरों के मोहताज हो जाते हैं। क्योंकि उन्हे घर में मुस्तक़िल ज़िन्दगी बसर करने के उसूल नही सिखाये गये। जबकि माँ बाप घर के अन्दर ही अपने बच्चों की ग़ैरे मुस्तक़ीम तौर पर ऐसी तरबियत कर सकते हैं ,वह उन्हें धीरे धीरे ग़ौरो फ़िक्र करना सिखायें उनकी राये को अहमियत दें और आहिस्ता आहिस्ता उनके लिए फ़िक्री व माली इस्तक़लाल का ज़मीना फ़राहम करें।

इस्लाम के तरबियती परोग्राम इस तरह तरतीब दिये गये हैं कि वह बुनियादी तौर पर इंसान को अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाते हैं और दूसरों की बैसाखियों पर चलने से रोकते हैं। क्योंकि दूसरों के सहारे ज़िन्दगी बसर करने से इंसान की इज़्ज़त व शराफ़त खत्म हो जाती है और बुनियादी तौर पर इंसान का वुजूद गुम हो के रह जाता है ,उसके मानवी व फ़िक्री खज़ाने का सही इस्तेमाल नही हो पाता और यह इंसान कके लिए सबसे बड़ी तौहीन है। क्योंकि दूसरों के सहारे ज़िन्दगी बसर करने से ना इंसान का वुजूद पहचाना जाता है और न ही उसकी सलाहियतें सामने आ पातीं।

नबी ए अकरम(स) फ़रमाते हैं: ملعون من القي كله علي الناس

जो दूसरों पर मुनहसिर हो जाये और दूसरों की बैसाख़ियों पर चलने लगे वह अल्लाह की रहमत से दूर हो जायेगा।

ज़ाहिर है कि अल्लाह की रहमत से दूरी के लिये यही काफ़ी है कि वह ख़ुद अपने वुजूद की अहमियत को न जान सका और उसकी तमाम ताक़ते इस्तेमाल के बग़ैर ही बेकार हो कर रह गईं। इससे भी बढ़कर यह कि जब किसी की निगाहें दूसरों पर टिक जायेंगी तो वह अल्लाह के लुत्फ़ व करम को जानने व समझने से महरूम हो जायेगा और यह अल्लाह की रहमत से दूरी की एक क़िस्म है।

इस्लाम के तरबीयती प्रोग्रामों का ग़ैरे मुस्तक़ीम मक़सद यह हैं कि इंसान के सामने जो जिहालत के पर्दे पड़े हैं उन्हें हटा कर इस हक़ीक़त को ज़ाहिर करे कि तमाम ख़ूबियाँ और कमालात अल्लाह के इख़्तियार में है और अल्लाह फ़य्याज़ अलल इतलाक़ है लिहाज़ा अपनी ख़्वाहिशों के हुसूल के लिये उसकी बारगाह में हाथ फैलाने चाहिए।

इसी बुनियाद पर कुछ हदीसों का मज़मून यह हिकायत करता हैं कि इंसान को अल्लाह की ज़ात से उम्मीदवार रहना चाहिए और यह हक़ीक़त उसी वक़्त सामने आती है जब इंसान दूसरे तमाम इँसानों से मायूस हो जाता है। कुछ दूसरी हदीसों के मज़मून इस तरह दलालत करते हैं कि जब किसी इंसान को किसी चीज़ की ज़रूरत पेश आती है तो उसकी वह ज़रूरत उसी वक़्त पूरी होगी जब वह तमाम लोगों से मायूस होकर सिर्फ़ अल्लाह से उम्मीदवार हो ,ज़ाहिर है कि ऐसे में उसकी ज़रूरतें ज़रूर पूरी होगीं।

मरहूम शैख अब्बास क़ुम्मी ने अपनी किताब सफ़ीनतुल बिहार के सफ़ा 327 पर इस रिवायत को नक़्ल किया हैं कि इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया:

اذا ارد احدكم ان لا يسال الله شيئا الا اعطاه فليياس من الناس كلهم و لا يكون له رجاة الا من عند الله عز و جل فادا علم الله عز و جل دالك من قلبه لم يسال الله شيئا الا اعطاه

जब भी तुम में कोई शख़्स यह चाहे कि उसकी हाजत बिला फ़ासला पूरी हो जाये उसे चाहिये कि तमाम लोगों से उम्मीदे तोड़ कर सिर्फ़ अल्लाह से लौ लगाये जब अल्लाह उसके क़ल्ब में इस कैफ़ियत के देखेगा तो जो चीज़ उसने माँगी होगी उसे ज़रूर अता करेगा। कुछ दूसरी हदीसों में आया है कि मोमिन का फ़ख़्र व बरतरी इस बात में है कि वह तमाम लोगों से अपनी उम्मीदें तोड़ ले। यानी अगर कोई इंसान खुद साज़ी की मंज़िल में इस मर्तबे पर पहुँच जाये कि तमाम इंसानों से क़ते उम्मीद करके सिर्फ़ अल्लाह से लौ लगाये रहे तो वह इस कामयाबी को हासिल करने के बाद दूसरों पर फ़ख़्र करने का हक़दार है।

इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं: ثلثة هن فخر المومن زينته في الدنيا و الاخرة الصلوة في اخر الليل و ياسه مما في ايدي الناس و وولاية من ال محمد ( ص )

तीन चीज़े ऐसी हैं कि जो दुनिया व आख़िरत में मोंमिन के लिये ज़ीनत व फ़ख्र शुमार होती हैं। एक तो नमाज़े शब पढ़ना ,दूसरे लोगों के पास मौजूद चीज़ों से उम्मीद तोड़ लेना ,तीसरे पैग़म्बरे इस्लाम (स) की औलाद से जो इमाम है उनकी विलायत को मानना।

नायाब ख़ज़ाना कुछ हदीसें ऐसी हैं कि जो इंसानो को ज़्यादा की हवस से रोकते हुए उन्हे क़नाअत का दर्स देना चाहती हैं।

ज़ाहिर है कि जब इंसान ख़ुद को सँवार कर क़नाअत करना सीख जाता है तो हक़ीक़त में वह ऐसे ख़ज़ाने का मालिक बन जाता है जिसमें कभी कमी वाक़ेअ नही होती।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम फ़रमाते है: لا كنز اغني من القناعة ة क़नाअत से बढ़ कर कोई ख़ज़ाना नही है।

नबी ए अकरम(स) फ़रमाते हैं: خير الغني غني النفس सबसे बड़ा ख़ज़ाना नफ़्स की बेनियाज़ी है।

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं: من رزق ثلثا نال ثلثا و هو الغني الاكبر القناعة بما اعطي واليس مما في ايدي الناس و ترك الفضول

जिस किसी को यह तीन चीज़ें मिल गईं उसे बहुत बड़ा ख़ज़ाना मिल गया।

जो कुछ उसे मिला है उस पर क़नाअत करे और जो लोगों के पास है उससे उम्मीदों को तोड़ ले और फ़ुज़ूल कामों को छोड़ दे।

उसूले काफ़ी में हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम से इस तरह नक़्ल हुआ है:

رايت الخير كله قد اجتمع في قطع الطمع عما في ايدي الناس

तमाम नेकियाँ और ख़ूबियाँ एक चीज़ में जमा हो गयीं हैं और वह लोगों से उम्मीद न रखना है।

कुछ हदीसों में बेनियाज़ी को इंसान का हक़ीक़ी ख़ज़ाना क़रार दिया गया है। ज़ाहिर है कि माल जमा करने से इंसान बेनियाज़ नही होता बल्कि उसकी ज़रूरतें और बढ़ जाती है।

नबी ए अकरम(स) फ़रमाते हैं: ليس الغناء في كثرة العرض و انما الغناء غني النفس माल जमा करने में बेनियाज़ी नही है ,बल्कि बेशक नफ़्स को बेनियाज़ बनाना बेनियाज़ी है।

कुछ दहीसों में इस तरह बयान हुआ है कि बुनियादी तौर पर मोमिन के लिए बेहतर है कि अल्लाह के सिवा कोई और उसका वली ए नेअमत न हो। हर इंसान एक न एक दिन अपनी रोज़ी और क़िस्मत को ज़रूर हासिल कर लेगा ,इसको बुनियाद बनाकर मज़बूत अक़ीदे के साथ सिर्फ़ अल्लाह को ही वली नेअमत मानना चाहिए।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम को वसीयत करते हुए फ़रमाया कि:

و ان استطعت ان لا يكون بينك و بينت الله ذونعمة فافعل فانك مدرك قسمك و اخذ سهمك و ان اليسر من الله اكرم و اعظم من الكثير من خلقه

अगर ताक़त व क़ुदरत हो तो कोशिश करो कि तुम्हारे और तुम्हारे रब के दरमियान कोई दूसरा वली नेमत न होने पाये। यक़ीनन तुम्हारी क़िस्मत में जो कुछ है वह तुम्हे मिलकर रहेगा और अगर ख़ुदा की तरफ़ से मिलने वाली नेअमत ,लोगों की तरफ़ से मिलनी वाली नेअमतों से मिक़दार में कम हो तो भी वह कम मिक़दार अहम है ,क्योंकि अल्लाह की तरफ़ से मिलने वाली नेअमतों में में बरकत होती है।

तारीख़े इस्लाम में मिलता है कि एक ग़रीब ,बाल बच्चों वाले शख़्स ने अपनी बीवी से मशवरा कर के तय किया कि पैग़म्बर इस्लाम (स) की ख़िदमत में हाज़िर होकर उनसे मदद की दरख़्वास्त करेगा। जब वह मस्जिद में पहुँचा और अपनी बात कहनी चाही उसी वक़्त अल्लाह के नबी (स.अ.व.व) ने फ़रमाया:

من سئلنا اعطيناه و من استغني اعطاه الله

जो हमसे मदद माँगेगा हम उसकी मदद करेंगें और जो ख़ुद को बेनियाज़ कर लेगा अल्लाह तअला उसकी मदद करेगा और उसे बेनियाज़ बना देगा।

यह वाक़िया तीन बार तकरार हुआ। वह ग़रीब शख़्स पैग़म्बरे इस्लाम(स.) की रहनुमाई के असर से जंगलों में पहुँच कर मेहनत व मज़दूरी में लग गया और रोज़ाना ज़्यादा से ज़्यादा मेहनत करने लगा यहाँ तक कि धीरे धीरे उसकी ग़ुरबत दूर हो गई।

इस हदीस से तरबीयत का जो सबसे ज़रीफ़ व अहम नुक्ता सामने आता है वह यह है कि जो दूसरों से उम्मीदों को तोड़ कर ख़ुद अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करे और अपनी वुजूद की ताक़त व सलाहियत को काम में लाये वह यक़ीनी तौर पर दूसरों से बेनियाज़ हो जायेगा।

बच्चों की तालीम व तरबीयत में माँ बाप की सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी यह है कि वह बच्चों को तदरीजन यह समझाये कि उनके वुजूद में हर तरह की ताक़त व सलाहियत पायी जाती हैं। लिहाज़ा वह दूसरों पर तकिया करने और उनसे मदद माँगने के बजाए ख़ुद अपने पैरों पर खड़े हों और अपनी ज़ात में मौजूद ताक़त ,सलाहियत व फ़िक्र से फ़ायदा उठायें।

माँ बाप और उस्तादों की ज़िम्मदारी है कि वह बच्चों को धीरे धीरे से इस हक़ीक़त से आगाह करें। लिहाज़ा ज़रूरी है कि उन्हे मारने पीटने और धमकाने के बजाए उनके मुसबत पहलुओं की ताईद करते हुए उन्हों मज़बूत बनाया जाये ,उनका हौसला बढ़ाया जाये और उन्हे इतमिनान दिला जाये ताकि वह यक़ीन व इसबात की मंज़िल तक पहुँच जायें।

हमें यह कभी नही भूलना चाहिये कि बच्चे बड़ों के बरख़िलाफ़ कशमकश व तज़बज़ुब का शिकार होते हैं ,लिहाज़ा उन्हे दूसरों की ताईद की बहुत ज़्यादा ज़रूरत होती है।

हमें उनसे जुरअत के साथ कहना चाहिए कि तुम्हारे अन्दर ताक़त है तुम हर काम कर सकते हो।

इस तरह के जुमलों से उनकी हिम्मत बढ़ा कर धीरे धीरे उन्हे मुस्तक़िल ज़िन्दगी की राहें दिखाई जा सकती है। इस तरह वह अमली तौर पर ख़ुद पर भरोसा करते हुए अपनी ज़ाती सलाहियतों से पनाह लेंगे और धीरे धीरे उनकी ख़ुदा दाद सलाहियतें ज़ाहिर होने लगेंगीं।

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हवाले

[1]बिहारुल अनवार जिल्द 74/ 181

[2]सूरए रूम आयत 7

[3]पैग़म्बर (स) की एक हदीस में मिलता है कि “अग़फ़लु अन्नास मन लम यत्तईज़ यतग़य्यरु अद्दुनिया मिन हालि इला। ”सबसे ज़्यादा ग़ाफ़िल लोग वह हैं जो दुनिया के बदलाव ले ईबरत हासिल न करे और दिन रात के बदलाव के बारे में गौरो फ़िक्र न करे।(तफ़्सीरे नमूना जिल्द13/13)

[4]सूरए बक़रा आयत 261

[5]सूरए बक़रा आयत 276

[6]बिहारूल अनवार जिल्द 17/215