दर्से अख़लाक़

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दर्से अख़लाक़ लेखक:
कैटिगिरी: अख़लाक़ी किताबें

दर्से अख़लाक़

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना सैय्यद एजाज़ हुसैन मूसावी
कैटिगिरी: विज़िट्स: 18892
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दर्से अख़लाक़
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दर्से अख़लाक़

दर्से अख़लाक़

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

मुश्किलें इंसान को सँवारती हैं

आज ,जिस इंसान ने अपने लिए ऐशो आराम के तमाम साज़ो सामान मुहिय्या कर लिए हैं ,वह उसी इंसान की नस्ल से है जो शुरु में गुफ़ाओ और जंगलों में ज़िन्दगी बसर करता था और जिसको चारों तरफ़ मुशकिलें ही मुशकिलें थीं। उन्हीं दुशवारियों व मुश्किलों ने उसकी सलाहियतों को निखारा और उसको सोचने समझने पर मजबूर किया जिससे यह तमाम उलूम और टेक्नालाजी को वुजूद में आईं। इससे यह साबित होता है कि सख़्तियाँ और दुशवारियाँ इंसानों को सवाँरती हैं।

अल्लाह के पैगम्बर जो मुक़द्दस व बल्न्द मक़सद लेकर आये थे ,उन्हें उस हदफ़ तक पहुँचने के लिये तमाम इंसानों से ज़्यादा मुशकिलों का सामना करना पड़ा और इन्ही मुशकिलों ने उन्हे रूही व अख़लाक़ी एतेबार से बहुत मज़बूत बना दिया था लिहाज़ा वह सख़्तियों में मायूसी व नाउम्मीदी का शिकार नही हुए और सब्र व इस्तेक़ामत के साथ तमाम दुशवारियों में कामयाब हुए।

मौजूदा ज़माने में हम सब ने अपनी आँख़ों से देखा कि अमेरिकी ज़ालिमों ने वेतनाम के लोगों पर किस क़दर ज़ुल्म व सितम ढाये ,औरतों और बच्चों को कितनी बेरहमी व बेदर्दी से मौत के घाट उतारा ,असहले और हर तरह के जंगी साज़ व सामान से लैस होने के बावजूद अमेरिकियों को एक मसले की वजह से हार का मुँह देखना पड़ा और वह था उस मज़लूम क़ौम का सब्र व इस्तेक़ामत।

नहजुल बलाग़ा में नक़्ल हुआ है कि हज़रत अली (अ) ने ख़ुद को उन दरख़्तों की मानिंद कहा है जो बयाबान में रुश्द पाते हैं और बाग़बानों की देख भाल से महरूम रहते हैं लेकिन बहुत मज़बूत होते हैं ,वह सख्त आँधियों और तूफ़ानों का सामना करते हैं लिहाज़ा जड़ से नही उखड़ते ,जबकि शहर व देहात के नाज़ परवरदा दरख़्त हल्की सी हवा में जड़ से उखड़ जाते हैं और उनकी ज़िन्दगी का ख़ात्मा हो जाता है।

الا و ان الشجرة البرية اصلب عودا و الروائع الخضرة ارق جلودا

जान लो कि जंगली दरख़्तों को चूँकि सख़्ती व पानी की क़िल्लत की आदत कर लेते है इस लिये उनकी लकड़ियाँ बहुत सख़्त और उनकी आग के शोले ज़्यादा भड़कने वाले और जलाने वाले होते हैं।

इस नुक्ते पर भी तवज्जो देनी चाहिये कि कामयाबी माद्दी चीज़ों और असलहे के बल बूते पर नही मिलती बल्कि वह क़ौम जंग जीतती है जिसमें सब्र व इस्तेक़ामत का जज़्बा होता है।

रोसो कहता है: अगर बच्चे को कामयाबी व कामरानी तक पहुँचाना हो तो उसे छोटी मोटी मुश्किलों में उलझाना चाहिये ताकि इससे उसकी तरबियत हो और वह ताक़तवर बन जायें।

हम सब जानते है कि जब तक लोहा भट्टी में नही डाला जाता उसकी कोई क़द्र व क़ीमत नही होती। इसी तरह जब तक इंसान मुशकिलों और दुशवारीयों में नही पड़ता किसी लायक़ नही बन पाता।

हज़रत अली(अ) फ़रमाते हैं:

بالتعب الشديد تدرك الدراجات الرفيعة و الراحة الدائمة दुशवारियों और मुशकिलों को बर्दाश्त करने के बाद इंसान दाइमी सुकून और बुलंद मंज़िलों को पा लेता है।

एक दूसरी जगह पर हज़रत(अ) इस तरह फ़रमाते:

المومن نفسه اصلب من الصلد मर्दे मोमिन का नफ़्स ख़ारदार पत्थर से ज़्यादा सख़्त होता है।

हज़रत अली(अ) फ़रमाते है:

اذا فارغ الصبر الامور فسدت الامور जब भी कामों से सब्र व इस्तेक़ामत ख़त्म हो जायेगें ,ज़िन्दगी के सारे काम तबाही व बर्रबादी की तरफ़ चले जायेगें।

समाजी ज़िन्दगी में सब्र

इल्मी ,इज्तेमाई व रूहानी कामयाबियों को हासिल करने के लिये सब को सब्र व तहम्मुल की ज़रूरत होती है। तमाम कामयाबियाँ एक दिन में ही हासिल नही की जा सकती ,बल्कि बरसों तक खूने दिल बहाते हुए सब्र व तहम्मुल के साथ मुशिकिलों से निपटते हुए आगे बढ़ना पड़ता है। जो लोग दुनिया परस्त थे वह मुद्दतों खूने दिल बहा कर मुताद्दिद दरों पर सलामी देकर ख़ुद को कही पहुचाँ सके हैं।

इल्मी कामलात के मैदान में भी पहले उम्र का एक बड़ा हिस्सा इल्म हासिल करने में सर्फ़ करना पड़ता है ,तब इंसान इल्म की बलन्द मंज़िलों तक पहुँच पाता है। इसी तरह मअनवी मंज़िलों के लिये भी बिला शुब्हा एक मुद्दत तक अपने नफ़्स को मारने और तहम्मुल व बुर्दबारी की ज़रूरत होती है ,तब कहीं जाकर अल्लाह की तौफ़ीक़ के नतीजे में मअनवी मक़ामात हासिल हो पाते हैं।

घरवालों की अहम ज़िम्मेदारी

वालेदैन को कोशिश करनी चाहिये कि शुरु से ही अपने बच्चों को अमली तौर पर मुश्किलों से आशना करायें ,अलबत्ता इस बात का ख़्याल रखें कि यह काम तदरीजन व धीरे धीरे होना चाहिये। माँ बाप को इस बात पर भी तवज्जो देनी चाहिये कि यह रविश बच्चों से प्यार मुहब्बत के मुतनाफ़ी नही है। सर्वे से यह बात सामने आयी है कि जो वालेदैन अपने बच्चों को बहुत ज़्यादा लाड प्यार की वजह से मेहनत नही करने देते ,वह अपने बच्चों की तरबियत में बहुत बड़ी ख़्यानत करते है। क्योंकि लाड प्यार में पलने वाले बच्चे जब अपने घरवालो की मुहब्बत भरी आग़ोश से जुदा हो कर समाजी ज़िन्दगी में क़दम रखते हैं तो उस वक़्त उन्हे मालूम होता है कि उनकी तरबीयत में क्या कमी रह गयी है और वह उस वक़्त समझते हैं कि –

शुक्रिये व क़द्रदानी का जज़्बा

لئن شكرتم لأزيدنكم अगर तुम ने शुक्र अदा किया तो मैं यक़ीनन नेमतों को ज़्यादा कर दूँगा।

सूरः ए इब्राहीम आयत न. 127

इंसान को समाजी एतेबार से एक दूसरे की मदद की ज़रूरत होती है। अगर कुल की सूरत में समाज मौजूद है तो उसके जुज़ की शक्ल में फ़र्द का वुजूद भी ज़रूरी है लिहाज़ा जुज़ (फ़र्द) अपने वुजूद व ज़िन्दगी बसर करने में कुल (समाज) का मोहताज है। समाजी ऐतबार से भी समाज का हर फ़र्द दिगर तमाम अफ़राद का मोहताज होता है। इस बिना पर तमाम मेयारों को नज़र अंदाज़ करते हुए यह कहा जासकता है कि एक इंसान ज़िन्दगी बसर करने के लिए समाज के दूसरे तमाम अफ़राद का मोहताज होता है और चूँकि वह उनका मोहताज है इस लिए उसे उनके वुजूद और ख़िदमात का शुक्रिया अदा करना चाहिए। मिसाल के तौर पर तमाम लोगों को उस्तादों की ज़रूरत होती है ,सबको ड्राईवरों की ज़रूरत होती है और इसी तरह तमाम लोगों को समाज के मुख़तलिफ़ गिरोहों की ज़रूरतें पड़ती हैं ,इस हिसाब से समाज के तमाम अफ़राद को काम करने वाले तमाम ही गिरोहों का शुक्रिया अदा करना चाहिए।

हर घराने को उस्ताद का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि उसने उनके बच्चों को तालीम दी और उनकी तरबीयत की। सफ़ाई करने वाले का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि अगर वह न होता तो सब जगह गंदगी के ढेर नज़र आते और इसी तरह हिफ़ाज़त करने और पहरा देने वालों का भी शुक्रिया अदा करना चाहिए कि अगर वह न होते तो अम्नियत न होती और कोई आराम की नींद सोने की हिम्मत न करता और सारे लोग ख़ुद ही पहरा देते। मामूली से ग़ौर व फ़िक्र के बाद यह बात सामने आती है कि हर फ़र्द की ज़िन्दगी समाज के दूसरे अफ़राद की बेदरेग़ मेहनतों का नतीजा है। मुमकिन है यहाँ पर कोई एतेराज़ करे कि हर फ़र्द को चाहिए कि वह अपनी ज़िम्मेदारी को निभाये ,ताकि उसकी ज़िम्मेदारी की वजह से दूसरे अफ़राद भी अपनी ज़िम्मेदारी निभायें। इस तरह एक दूसरे का शुक्रिया अदा करने और एहसान मंद होने की कोई ज़रूरत नही है। उनके जवाब में कहा जा सकता है कि हाँ आपकी बात सही है कि

तरक़्क़ी याफ़्ता समाज में शुक्रिया अदा करने और एहसानमंद होने की कोई ज़रूरत नही है और हर शख़्स के लिए ज़रूरी है कि वह अपनी ज़िम्मेदारियों को बेहतरीन तरीक़े से निभाये और किसी से कोई तवक़्क़ो न रखे। लेकिन वह समाज जिसके अफ़राद में यह शायस्तगी न पाई जाती हो और जिन्हें जन्नत में जाने और जहन्नम से बचने के लिए ,शौक़ ,ख़ौफ़ और धमकियों की ज़रूरत पेश आती हो ,उनसे यह तवक़्क़ो कैसे की जा सकती है कि वह दुनियवी ज़िन्दगी में अपनी ज़िम्मेदारियों को बेहतरीन तरह से अँजाम दे सकते हैं। इस बुनियाद पर यह कहा जा सकता है कि ऐसे समाज में लोगों के अमल पर उनका शुक्रिया अदा करना ही इस बात का सबब बनेगा कि काम करने वाले अपने कामों को ज़्यादा मेहनत व लगन से अंजाम दें और अपने कामों से फ़रार न करें। मिसाल के तौर पर एक ड्राईवर जिसकी ज़िम्मेदारी हमें एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाना है अगर हम अपनी मंज़िल पर उतरते वक़्त उसका शुक्रिया अदा कर दें तो हमारा यह शुक्रिये का एक जुमला ,उसकी पूरे दिन की थकन को दूर करने का सबब बनेगा और वह अपने इस फ़रीज़े को और ज़्यादा खुशी के साथ अंजाम देगा।

तरक़्क़ी याफ़्ता व मोहज़्ज़ब समाजों में छोटी छोटी और मामूली मामूली बातों पर शुक्रिया अदा करने का रिवाज है ,लेकिन पिछड़े समाज़ों में मन्ज़र इसके बिल्कुल उलटा है ,वहाँ शुक्रिया अदा करने के बजाए हमेशा एतेराज़ किये जाते हैं। उनकी मंतिक़ यही होती है कि उसकी ज़िम्मेदारी है लिहाज़ा उसे अदा करना चाहिए। अगर ड्राईवर है तो ड्राईवरी करनी चाहिए ,मुहाफ़िज़ है तो उसे पहरा देना चाहिए और अगर सफ़ाई करने वाला है तो उसे सफ़ाई करना चाहिए।

ज़ाहिर है कि जो लोग समाज़ी एतेबार से बहुत ऊँची सतह पर नही है अगर उन्हें उनके कामों पर शौक़ न दिलाया जाये या उनकी हौसला अफ़ज़ाई न की जाये तो इससे उनके ऊपर बुरा असर पड़ेगा।

मिसाल : अगर घरेलू ज़िन्दगी में मर्द ,अपनी बीवी की बेदरेग़ ज़हमतों के बदले में एक बार भी उसका शुक्रिया अदा न करे ,या इसके बरअक्स अगर बीवी ,शौहर की बेशुमार ज़हमतों के बदले एक बार भी ज़बान पर शुक्रिये के अलफ़ाज़ न लाये तो ऐसे घर में कुछ मुद्दत के बाद अगर लडाई झगड़ा न भी हुआ तो मुहब्बत व ख़ुलूस यक़ीनी तौर रुख़सत हो जायेगा ,हर तरफ़ बेरौनक़ी नज़र आयेगी और ऐसी फ़ज़ा में सिर्फ़ घुटन की ज़िन्दगी ही बाक़ी रह जायेगी।

हमें यह बात कभी नही भूलनी चाहिए कि हर अज़ीम व तख़लीकी काम का आमिल ,शौक़ व रग़बत पैदा करना होता है। जबकि रोज़ाना की ज़िम्मेदारों को निभाने में यह ख़ल्लाक़ियत नज़र नही आती ।

राग़िब ने अपनी किताब मुफ़रेदात में शुक्र के मअना इस तरह बयान किये है: .

الشكر تصور النعمة و اظهارها शुक्र का मतलब यह है कि इंसान पहले मरहले में नेमत को समझ कर उसकी तारीफ़ करे फिर दूसरे मरहले में उसका इज़हार करे।

इसके बाद राग़िब लिखते हैं कि शुक्र की तीन क़िस्में हैं:

الشكر علي ثلثة اضرب شكر القلب و هو تصور النعمة و شكر باللسان و هو ثناء علي النعم وشكر لساير الجوارح و هو مكافات النعمة بقدر استحقاقها .

शुक्र तीन तरह का होता है 1- शुक्रे क़ल्बी ,यानी नेमत को जानना और उसे पहचानना है। 2- शुक्रे जबानी ,यानी नेमत अता करने वाले की तारीफ़ करना है। 3- शुक्र जवारेही ,यानी इंसान का अपनी क़ुदरत के मुताबिक़ उसका शुक्र अदा करना है। दूसरे लफ़्ज़ों में शुक्र का तीसरा मरहला यह है कि हमारे आज़ा व जवारेह उस नेमत से जो फ़ायदा उठाते हैं ,उसके बदले में जिस क़दर हो सके उसका शुक्र अदा करें। जैसे किसी फल का शुक्र यह है कि उसे खालिया जाये न यह कि उसे ज़ाये कर दिया जाये ,क्योकि यह नेमत इंसान के लिए पैदा की गई है।

हमने सुना है कि कुछ मुहज़्ज़ब मुल्कों में जब लोग आपस में मिलते हैं तो हमेशा एक दूसरे का शुक्रिया अदा करते हैं। हम यह दावा नही करना चाहते कि ऐसे मुल्कों में हर तरह की तहज़ीब पाई जाती है ,मुमकिन है उन्ही मुल्कों में दूसरी तरह की बुराईयाँ भी पायी जाती हों लेकिन उनका यह अमल यानी शुक्रिया अदा करना ,जो वहाँ के समाज में आम है ,एक अच्छा अमल है। इससे समाज में रहने वाले अफ़राद के अदब ,अख़लाक़ ,ख़ुलूस और मुहब्बत में इज़ाफ़ा होता है।

इस्लाम की तालीमात में एक बाब शुक्रिये का भी पाया जाता है ,जिसमें यह बताया जाता है कि तमाम बन्दों की ज़िम्मेदारी है कि वह अल्लाह से मिलने वाली नेमतों के बदले उसका शुक्र अदा करें।

ज़ाहिर है कि जैसे जैसे लोगों में शुक्रिये का जज़्बा बढ़ता जायेगा वैसे वैसे उनके पास अल्लाह की नेमतों में इज़ाफ़ा होता जायेगा।

शुक्रिये के बाब में जो एक अहम व दिलचस्प नुक्ता बयान किया गया है वह यह है कि वली ए नेअमत ख़ुदा है और तमाम नेमतें उसी से हासिल होती हैं ,लेकिन चूँकि दुनिया के निज़ाम की बुनियाद इल्लत व असबाब पर मुनहसिर है ,इस लिए हर नेमत किसी इंसान के ज़रीये ही दूसरे इंसान तक पहुँचेगी।

हम इंसानों का फ़रीज़ा यह है कि नेमतों को अल्लाह की इनायत समझे और उसका शुक्र अदा करे ,लेकिन चूँकि अल्लाह की इस नेअमत व रहमत के पहुँचने में इंसान वसीला बना है ,लिहाज़ा उसका भी शुक्रिया अदा करना चाहिए लेकिन सिर्फ़ इसी हद तक कि वह अल्लाह की नेअमत पहुँचाने में वसीला बना है।

हमें इस नुक्ते पर भी तवज्जो देनी चाहिए कि उस इंसान का शुक्रिया इस तरह न किया जाये कि अल्लाह के बजाए वही वली ए नेमत समझा जाये। हमें इस बात पर भी तवज्जो देनी चाहिए कि इस तरह के मसाइल में गफ़लत के तहत यह दावा नही करना चाहिए कि यह तो अल्लाह का रहमों करम था कि यह नेमत हमें नसीब हुई। बल्कि हमें उस इंसान का शुक्रिया इन अलफ़ाज़ में अदा करना चाहिए कि अल्लाह की यह नेमत आपके हाथो से हम तक पहुँची है लिहाज़ा अल्लाह के फ़ैज़ का वसीला बनने की वजह से हम आपका शुक्रिया अदा करते हैं।

इस्लामी रिवायातों में मिलता है कि जिसने मख़लूक़ का शुक्र अदा नही किया ,उसने ख़ालिक़ का भी शुक्र अदा नही किया।

من لم يشكرالمخلوق لم يشكر الخالق

एक हदीस में पैग़म्बरे अकरम (स) से इस तरह नक़्ल हुआ है: क़ियामत के दिन एक शख़्स को अल्लाह के सामने पेश किया जायेगा ,कुछ देर बाद अल्लाह का हुक्म होगा कि इसे जहन्नम में डाल दिया जाये। वह शख़्स इस हुक्म के पर कहेगा: ख़ुदाया मैं तो तेरे क़ुरआन की तिलावत कर के उस पर अमल करता था ,उसके जवाब में कहा जायेगा: सही है कि तू क़ुरआन पढ़ा करता था मगर तूने उन नेअमतों का शुक्र अदा नही किया जो मैने तुझ पर नाज़िल की थीं। वह जवाब में वह कहेगा: ख़ुदाया मैने तो तेरी तमाम नेमतों का शुक्र अदा किया है ,तब ख़िताब होगा:

الا انك لم تشكر من اجريت لك نعمتي علي يديه و قد اليت علي نفسي ان لا اقبل شكر عبد بنعمة انعمتها عليه حتي يشكر من ساقها من خلقي اليه

हाँ मगर तूने उनका शुक्र अदा नही किया जिनके ज़रिये से मेरी नेमतें तुझ तक पहुचती थीं।

और मैने अपने लिए लाज़िम कर लिया है कि उस इंसान के शुक्र को क़बूल नही करूगा जो मेरी नेअमत पहुँचाने वाले इंसान का शुक्र अदा न करे।

माँ बाप को चाहिए कि घर में अपने बच्चो के अन्दर तदरीजन शुक्रिये का जज़्बा पैदा करें और उन्हे यह समझायें कि अगर कोई तुम्हारे लिए किसी काम को अंजाम दो तो अगरचे नेमत देने वाला ख़ुदा है ,लेकिन चूँकि वह ज़रिया बना है ,इसलिए उसका भी शुक्र अदा करना चाहिए। अगर बच्चों में बचपन से ही यह जज़्बा पैदा हो जाये और बड़े उसकी ताईद करें और दूसरी तरफ़ वह ख़ुद अपने घर में बुज़ुर्गों को एक दूसरे का शुक्रिया अदा करते देखें तो वह मुस्तक़िबल में समाजी ज़िन्दगी में शुक्रिया अदा करने वाले अफ़राद बनेगे।

नज़र अंदाज़ करना

عظموا اقداركم بالتغافل عن الدني من الامور

बेअहमीयत चीज़ों से लापरवाही बरतते हुए उन्हे नज़र अंदाज़ करके अपनी शख़्सियत की हिफ़ाज़त करें।

क्यों नज़र अंदाज़ करना चाहिये ?

समाजी ज़िन्दगी और घरेलू ज़िन्दगी में वाज़ेह फ़र्क़ होता है। घर के माहौल में घर के अफ़राद दो ,तीन या कभी इससे ज़्यादा होते हैं। वाज़ेह है कि चार या पाँच लोगों का एक साथ ज़िन्दगी बसर करना बिला शुब्हा सहल और आसान है ,लेकिन समाज में ज़िन्दगी बसर करना सख़्त है। क्योंकि समाज में मुख़तलिफ़ तबियतों ,मुख़तलिफ़ सलीक़ों ,मुख़तलिफ़ और मुख़तलिफ़ फ़िक्र व नज़र के लोग मौजूद होते हैं और यह बात वाज़ेह है कि फ़र्दी ज़िन्दगी मुख़तलिफ़ गिरोह व मुखतलिफ़ फ़िक्र व नज़र वाले अफ़राद के साथ बहुत सख़्त और दुशवार है। मिसाल के तौर पर जिस समाज में आलिम ,जाहिल ,उसूली ,मंतिक़ी ,लापरवाह ,जज़बाती ,बूढ़े ,जवान व बच्चे सभी मौजूद हो उसमें फ़र्दी ज़िन्दगी बसर करना आसान काम नही है। बल्कि वहाँ पर ऐसी क़ुदरत व ताक़त की ज़रूरत है जिससे इंसान सबको राज़ी रख सके और किसी भी गिरोह से टकराव न हो।

समाज में ज़िन्दगी बसर करना एक मुअल्लिम के पढ़ाने की तरह है जो एक ऐसी बड़ी क्लास को पढ़ा रहा हो जिसमें बच्चे ,नौजवान और बुज़ुर्ग मुख़तलिफ़ सलाहियतों के लोग हों ,ऐसी क्लास में पढ़ाना निहायत सख़्त व दुशवार काम है।

समाजी ज़िन्दगी की कामयाबी के लिये हमें अपना दिल बड़ा करने ,सबका ऐहतेराम करने ,के साथ कुछ जगहों पर चश्मपोशी व ग़फ़लत से काम लेना पड़ेगा ताकि मुख़तलिफ़ लोगों के साथ ज़िन्दगी बसर की जा सके। दूसरे लफ़्जों में हमारे पास इतना होंसला होना चाहिए कि हमसे बूढ़े मर्द व औरत नाराज़ न हों ,हम बच्चों की ग़लतियों पर सब्र व ज़ब्त कर सकें ताकि वह भी राज़ी व ख़ुश रहें। अगर समाज मे सिर्फ़ ऐसे लोगों से मिलें जो सिर्फ़ एक गिरोह के साथ रह सकते हों तो यक़ीनन ऐसे लोग समाज के मुख़तलिफ़ तबक़ों के अफ़राद के साथ ज़िन्दगी बसर नही कर सकते हैं।

मोमिन की एक ख़ूबी यह है कि वह जाहिल व नादान लोगों के साथ नेक बर्ताव करता है और उनके ग़ैर उसूली और नाज़ेबा सुलूक पर नाराज़ व ग़ुस्सा नही होता हैं बल्कि बुज़ुर्गवारी का सुबूत देता है।

अल्लाह तअला क़ुरआने मजीद में इरशाद फ़रमाता है:

وَعِبَادُ الرَّحْمَنِ الَّذِينَ يَمْشُونَ عَلَى الْأَرْضِ هَوْنًا وَإِذَا خَاطَبَهُمُ الْجَاهِلُونَ قَالُوا سَلَامًا

(सूरह फ़ुरक़ान आयत 64)

और अल्लाह के नेक बंदें वह हैं जो ज़मीन पर नर्म रफ़तारी से चलते हैं और जब कोई जाहिल उनके साथ ग़ैर मुनासिब सुलूक करता है तो वह करामत व बुज़ुर्गवारी से नज़र अंदाज़ करते हुए गुज़र जाते हैं।

और जो लोग तग़ाफ़ुल नही करते और हस्सास तबीयत के मालिक हैं वह समाजी ज़िन्दगी में अक्सर मुश्किलों से दोचार होते रहते हैं और अपनी शख़सियत व एहतेराम से हाथ धो बैठते है।

नज़र अंदाज़ करने का यह मतलब नही है कि इंसान अपने अतराफ़ से ग़ाफ़िल हो जाये और उसे यही मालूम न हो कि उसके चारों तरफ़ क्या हो रहा है ,बल्कि मोमिन अपनी फ़िरासत व होशियारी से तमाम हालात से बख़ूबी ख़बरदार होता है और अपनी शख़्सियत व वक़ार की ख़ातिर ऐसा बरताव करता है कि लोग यह समझते है कि उसे कुछ ख़बर नही है। ऐसे काम को तग़ाफ़ुल व नज़र अंदाज़ करना कहते हैं।

अक़्लमंद शौहर व बीवी को यह कोशिश करनी चाहिये कि अपनी मुशतरक ज़िन्दगी में एक दूसरे की कमियों और ख़ामियों को नज़र अंदाज़ करते हुए आपस में इज़्ज़त व एहतेराम को बानाये रखें। वाज़ेह है कि अगर ऐसा नही करेगें तो उनके दरमियान तू तू मैं मैं शुरू हो जायेगी जिससे दोनों का एहतेराम जाता रहेगा।

हर इंसान को चाहिए कि वह अपनी समाजी ज़िन्दगी में भी इस तरह की रफ़तार की रिआयत करे ताकि वह अपनी ईज़्ज़त को भी बचा सके और समाजी ज़िन्दगी को अपना सके।

ज़िमनन इस बात पर भी तवज्जो देनी चाहिये कि यह लापरवाई बरतना व नज़र अंदाज करना ग़ैरे मुस्तक़ीम तरबियत की एक क़िस्म है। मिसाल के तौर पर ्गर कोई शागिर्द अपने उस्ताद से झूट बोलता है तो असली उस्ताद वही है जो अपने शागिर्द के झूट को ज़ाहिर न करे बल्कि उसे इस तरह से समझाये कि जैसे उसने झूट न बोला हो। उस्ताद ऐसा करके अपने शागिर्द को बेईज़्ज़ती से बचा सकता है और उसकी शख़्सियत के एहतेराम को हिफ़्ज़ करके उसे यह समझा सकता है कि एक शख़्सियत रखने वाला इंसान झूटा नही हो सकता।

वेक्टर होगो ने अपनी सबसे बेहतरीन कहानी यानी "बेसहारा लोग" में इस तरबियती तरीक़े की तरफ़ इशारा करता है और उसने ईसाई पादरी के नज़र अंदाज करने के तरीक़े को बहुत अच्छे पैराये में बयान किया है।

वह इस काम को अंजाम देकर जान वान जान के दिल पर तरबियती की इतनी गहरी छाप छोड़ता है कि वह बदबख़्त व बदक़िस्मत इँसान जो बीस साल जेल में पड़ा था एक दम बदल जाता है। यह इंसान की ग़लतियों को नज़र अंदाज़ करने का नतीजा है।

हदीसों और रिवायतों का दिक़्क़त से मुतालआ करने से यह बात समझ में आती है कि ख़ुदा वंदे आलम ने भी अपने बंदों की ग़लतियों और गुनाहों के सिलसिले में यही तरीक़ा अपनाया है। वह उनके गुनाहों को नज़र अंदाज़ करते हुए माफ़ कर देता है। और यह चश्म पोशी इस हद तक है कि इंसान यह गुमान करते है कि गोया उन्होने कोई गुनाह ही अंजाम नही दिया है।

ज़ाहिर है कि अफ़ व ग़लतियों को नज़र अन्दाज़ करने के इस जज़्बे को घर के तरबीयती माहौल में भी जगह देनी चाहिए। माँ बाप को अमली तौर पर अपने बच्चों के साथ ऐसा सुलूक करना चाहिये कि बच्चे ुनसे यह आदत सीखें यानी वह यह महसूस करें कि बुज़र्ग उनकी ग़लतियों को नज़र अंदाज़ करके अपनी बुज़ुर्गी का सुबूत देते हुए टाल जाते हैं। यह बात रोज़े रौशन की तरह आशकार है कि जब बच्चे घर के माहौल में इस तरह के रवय्ये को देखेगें तो वह मुस्तक़बिल में दूसरों के साथ ऐसा ही बर्ताव रवा रखने की कोशिश करेंगे।

यह बात भी वाज़ेह है कि माँ बाप अपने बच्चों के साथ जो सुलूक करते हैं उनके बच्चे उसे महसूस करते हैं और उसे क़बूल कर के अपनी अख़लाक़ी आदतों का हिस्सा बना लेते हैं।

हमें यह नही भूलना चाहिये कि हमारे बच्चों के लिए ज़रूरी है कि वह तरबियत के उसूल व क़वानीन को घर व मदरसे के माहौल में ही देखें और सीख़ें। ज़ाहिर है कि वह यह सब देखने और समझने के बाद उसे क़बूल करके अपनी आदतों का हिस्सा बना लेगें। हज़रत अली (अ) नहजुल बलाग़ा में एक दूसरी जगह पर इस तरह फ़रमाते हैं:

العقل نصفه احتمال و نصفه تغافل

यानी अक़्लमंद इंसान वह है जो अपने आधे वुजूद से लोगों की बुराीयों व मुशकिलों को बर्दाश्त करे और दूसरे आधे वुजूद से अतराफ़ में होने वाले कामों को नज़र अंदाज़ कर दे।

ख़ुलास ए कलाम यह है कि समाजी ज़िन्दगी तग़ाफ़ुल व चश्मपोशी चाहती है। लिहाज़ा हमें यह कोशिश करनी चाहिये कि हम जज़बाती होने व लड़ाई झगड़े करने के बजाए सुल्ह व सफ़ाई और मेल जोल वाली आदत अपनायें।

ख़न्दा पेशानी

जिस दुनिया में हम ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं वह जज़्ब व कशिश की दुनिया है। ताजिर ,अपने सामान को इस तरह शक्ल व सूरत देने की कोशिश करते हैं कि वह दूसरों की नज़र को जज़्ब कर सके। सनअती मुल्कों में गाड़ियों के माडल में जो हर रोज़ तबदीलियाँ आती रहती हैं ,उसकी वजह सिर्फ़ उनकी जज़्ज़ाबियत में इज़ाफ़ा करना है ताकि वह दूसरों के मुक़ाबेले ख़रीदारों की नजरों को अपनी तरफ़ ज़्यादा जज़्ब कर सके। बहर हाल तिजारत की सनअत में नफ़्सियाती मसाइल ने अपनी जगह अच्छी तरह बनाली है।

समाजी ज़िन्दगी में जो चीज़ तमाम इंसानों के पास होनी चाहिए और जिससे हर इंसान को फ़ायदा उठाना चाहिए वह खुश मिज़ाजी है। यानी इंसान का चेहरा खिला हो और उसके होंटों पर मुस्कुराहट हो। अख़लाक़ ,दीन और नफ़सियात की नज़र से यह एक ऐसी हक़ीक़त है जिससे इन्कार नही किया जा सकता।

आइने ज़िन्दगी नामी किताब के मुसन्निफ़ ने इंसानों की कामयाबी के जिन अवामिल को बयान करने की कोशिश की है उनमें से एक आमिल इंसान का खुश मिज़ाज होना भी है। मुखतलिफ़ मिज़ाजों के मुताले से यह बात मालूम होती है कि ख़ुश मिज़ाजी हर इंसान को पसंद है और यह सामने वाले इंसान पर असर अन्दाज़ होती है।

जो अफ़राद खुश मज़ाज होते हैं ,वह समाजी ज़िन्दगी में दूसरों को मुक़ाबिल ज़्यादा कामयाब है।

ख़ुश मज़ाज अफ़राद के मुक़ाबेले में ऐसे लोग भी हैं जो हमेशा नाक भौं चढ़ाये रहते हैं और दूसरों से बहुत ही लापरवाई के साथ मिलते हैं। ऐसे मिज़ाज के अफ़राद अगर अपने काम में सच्चे हों तब भी लोग उनसे मिलना जुलना पसन्द नही करते और इसकी सबसे अहम वजह उनका बद मिज़ाज होना है।

इस्लाम की नज़र में खुश मिज़ाजी का मक़ाम

इस्लाम एक दीने अख़लाक़ व ज़िन्दगी है। इस्लाम वह दीन है जिसके पैगम्बर ने फ़रमाया कि मुझे इस लिए मबऊस किया गया ताकि मकारिमे अखलाक़ को पूरा करूँ। इस्लाम गोशा नशीनी का दीन नही है ,बल्कि इंसानों को समाजी ज़िन्दगी की तालीम देने वाला दीन है। लिहाज़ा इस्लामी समाज का एक अख़लाक़ी क़ानून यह है कि समाजी ज़िन्दगी में हर इंसान की ज़िम्मेदारी है कि वह दूसरे के साथ खुश मिज़ाजी के साथ पेश आये और मुस्कुराते हुए दूसरों का इस्तक़बाल करे।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम ,मुत्तक़ीन के सिफ़ात बयान करते हुए फ़रमाते हैं कि मुत्तक़ी का रंज व ग़म उसके अन्दर छुपा होता है ,लेकिन उसकी खुशी के आसार उसके चेहरे पर होते हैं। بشره في وجهه و حزنه في قلبه यानी उसकी ख़ुशियाँ उसके चेहरे पर और उसका ग़म उसके सीने में होता है।

हज़रत इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम से रिवायत है कि एक शख़्स ने पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की ख़िदम में हाज़िर होकर अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह के नबी! मुझे कुछ नसीहत फ़रमाइये।

हज़रत ने जवाब दिया कि अपने भाईयों से खुश के साथ मुस्कुराते हुए मुलाक़ात करो।

عن ابي جعفر ( ع ) قال اتي رسول الله ( ص ) رجل فقال يا رسول الله اوصني فكان فيما اوصاه ان قال الق اخاك بوجه منبسط

नफ़्सियाती एतेबार से यह बात वाज़ेह है कि खुश मिज़ाजी दिलों को अपनी तरफ़ जज़्ब करती है। खुश मिज़ाज अफ़राद से इंसान मिलने का इश्तियाक़ रखते हैं। लिहाज़ा पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने उस इंसान को नसीहत में इसी हस्सास व दक़ीक़ नक्ते की तरफ़ इशारा किया और फ़रमाया कि हमेशा अपने भाईयों से खन्दा पेशानी के साथ मुलाक़ात करो।

हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम से एक रिवायत इस तरह नक़्ल हुई है

قال ثلاث من اتي الله بواحدة منهن اوجب الله له الجنة الانفاق من اقتار والبشر لجميع العلم و الانصاف من نفسه

“ तीन चीज़ें ऐसी हैं कि अगर कोई उनमें से किसी एक के साथ भी अल्लाह की बारगाह में पहुँचेगा तो अल्लाह उस पर जन्नत को वाजिब कर देगा।

पहली चीज़ यह है कि इंसान ग़ुरबत में भी अल्लाह की राह में ख़र्च करे। दूसरे यह कि तमाम इंसानों से खुश मिज़ाजी के साथ मिले और तीसरे यह कि वह इन्साफ़वर हो। ”

इस रिवायत से यह बात सामने आती है कि इंसान सिर्फ़ एक मख़सूस गिरोह से ही खुशी ख़ुशी न मिले ,बल्कि तमाम अफ़राद के साथ खुशी के साथ मुस्कुराते हुए मिले। यानी जो भी उससे मुलाक़ात करे उसका ख़ुश अख़लाक़ी के साथ मुस्कुरा कर इस्तक़बाल करे।

हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम से यह रिवायत नक़्ल हुई है कि

عن ابي عبد الله ( ع ) قال قلت له ما حد الخلق قال تلين جناحك و تطيب كلامك و تلقي اخاك ببشر حسن

इमाम अलैहिस्सलाम का एक सहाबी कहता है कि मैंने हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम से अर्ज़ किया कि ख़ुश अख़लाक़ी का क्या मेयार है ?

इमाम अलैहिस्सलाम ने जवाब दिया कि इनकेसारी से काम लो ,अपनी ज़बान को शीरीं बनाओ और अपने भाईयों से खुशी के साथ मिलो।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमाया कि

قال رسول الله ( ص ) يا بني عبد المطلب انكم لن تسعوا الناس باموالكم فالقوهم بطلاقة الوجه و حسن البشر

ऐ ! अब्दुल मुत्तलिब की औलाद तुम अपने माल के ज़रिये तमाम इंसानों को राहत नही पहुँचा सकते ,लिहाज़ा तुम सबके साथ खिले हुए चाहरे और मुस्कुराहट के मुलाक़ात करो।

खन्दा पेशानी के साथ मिलने में जो एक अहम नुक्ता पोशीदा है वह यह है कि इससे दुशमनी और कीनः ख़त्म होते है और उसकी जगह मुहब्बत पैदा हो जाती है।

इसी लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमाया कि حسن البشر يذهب بالسخيمة

यानी खुश मिज़ाजी कीने व दुशमनी को ख़त्म कर देती है।

इस बिना पर माँ बाप की एक अहम ज़िम्मेदारी यह है कि वह अपने बच्चों को खन्दा पेशानी के साथ मिलने जुलने का आदी बनायें।

ज़ाहिर है कि अगर बच्चे को बचपन से ही अहम व मुफ़ीद बातों की तालीम दी जायेगी तो धीरे धीरे उसे उन पर मलका हासिल हो जायेगा और वह उसकी शख़्सियत का जुज़ बन जायेंगी।

माँ बाप को चाहिए कि अपने बच्चों को इन अख़लाक़ी सिफ़ात की तालीम देकर उन्हें समाजी ज़िन्दगी के लिए तैयार करें।

हमें यह नही भूलना चाहिए कि इस सिलसिले में सबसे बेहतरीन तालीम ख़ुद माँ बाप का किरदार व रफ़्तार है ,जो बच्चों के लिए नमूना बनता है। यानी माँ बाप को इस बात की कोशिश करनी चाहिए कि वह अपने घर में अमली तौर पर बच्चों को ख़न्दा पेशानी के साथ मिलने की तालीम दें।

इसमें कोई शक व शुब्हा नही है कि जब तक इंसान किसी चीज़ को अमली तौर पर ख़ारिज में नही देखता उसे अपनी ज़िन्दगी का जुज़ नही बनाता।