दर्से अख़लाक़

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दर्से अख़लाक़ लेखक:
कैटिगिरी: अख़लाक़ी किताबें

दर्से अख़लाक़

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना सैय्यद एजाज़ हुसैन मूसावी
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दर्से अख़लाक़
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दर्से अख़लाक़

दर्से अख़लाक़

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

अक़्ल और अख़लाक

पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमायाः

احسنكم عقلا احسنكم خلقا तुम में सबसे ज़्यादा अक़्लमंद वह है जो तुम में सबसे ज़्यादा खुश अख़लाक़ है।

अक़्ल व खुश अखलाक़ी और इन दोनों की फ़ज़ीलत के बारे में बहुत सी हदीसें व रिवायतें मुख़्तलिफ़ ताबीरों के साथ मौजूद हैं। इनमें से हर हदीस या रिवायत पर तवज्जो देने से यह बात सामने आती है कि अक़्ल या खुश अख़लाक़ी आलीतरीन कमालात हैं और इनकी बहुत ज़्यादा अहमयत है। यहाँ पर यह सवाल पैदा होता है कि अक़्लमंदी और ख़ुश अख़लाक़ी के दरमियान क्या राब्ता है ?क्या यह दावा किया जा सकता है कि इनमें से एक इल्लतऔरदूसरा मालूल है ?अगर ऐसा है तो क्या इनमें से एक के बढ़ने के बाद दूसरे को बढ़ाया जा सकता है ?इससे भी अहम यह कि अक़्ल इंसान को बद अख़लाक़ी से किस तरह रोकती है ?

जो रिवायतें अक़्ल की अहमियत के बारे पाई जाती हैं वह हस्वे ज़ैल हैं।

रावी ने हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की ख़िदमत में अर्ज़ किया :

फ़लाँ इंसान इबादत व दीनदारी के एतेबार से बहुत बलंद मर्तबा है। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने सवाल किया कि वह अक़ल के एतेबार से कैसा है ?रावी ने जवाब दिया कि मैं नही जानता कि वह अक़्ली लिहाज़ किस मर्तबे पर है। यह सुनकर इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया :

ان الثواب على قدر العقل बेशक हर इंसान का सवाब उसकी अक़्ल से मरबूत है। यानी अगर कोई अक़्ली के एतेबार से क़वी होगा तो उसका सवाब ज़्यादा होगा और अगर कोई अक़्ली एतेबार से कमज़ोर होगा तो उसका सवाब कम होगा। इसके बाद इमाम अलैहिस्सलाम ने बनी इस्राईल के उस इंसान की दास्तान बयान फ़रमाई जो एक जज़ीरे में अल्लाह की इबादत में मशग़ूल था। उसने फ़ुरसत के लमहात में एक आह भर कर कहा कि काश मेरे रब के पास जानवर होते तो वह इस जज़ीरे की घास से फ़ायदा उठाता।

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने एक दिगर रिवायत में फ़रमाया कि :

من كان عاقلا ختم له بالجنة जो अक़्लमंद होगा वह आख़िरकार जन्नत में जायेगा।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमाया:

ما قسم الله للعباد شيئاافضل من العقل فنوم العاقل افضل من سهر الجاهل و افطار العاقل افضل من صوم الجاهل

अल्लाह ने अक़ल से ज़्यादा अहम कोई भी चीज़ बंदों में तक़्सीम नही की है ,अक़्लमंद का सोना जाहिल के जागने (जाग कर इबादत करने) से बेहतर है और इसी तरह अक़लमंद का खाना पीना जाहिल के रोज़े रखने से बेहतर है।

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम से सवाल किया गया कि अक़्ल क्या है ?

قال قلت له ما العقل قال ما عبد به الرحمان واكتب به الجنان

इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि अक़्ल वह है जिसके ज़रिये इंसान अल्लाह की इबादत करके ख़ुद को जन्नत में पहुँचायेगा।

इमाम अलैहिस्सलाम ने हुस्ने अख़लाक़ व नर्मी के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) से नक़्ल करते हुए फ़रमाया कि :

ما اصطحب اثنان الا كان اعظمهما اجرا و احبهما الى الله تعالى ارفقهما بصاحبه

जब दो इंसान एक दूसरे के मुसाहिब बनते हैं तो उन दोनों में से अल्लाह का ज़्यादा महबूब और सवाब का ज़्यादा हक़दार वह क़रार पाता है जिसके अन्दर नर्मी ज़्यादा पाई जाती है।

एक दूसरे मक़ाम पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमाया :

لو كان الرفق خلقا يرى ما كان فيما خلق الله شئ اخسن منه

अगर रिफ़्क़ व मदारा एक जिस्म की सूरत में ज़ाहिर होता तो मख़लूक़ात के दरमियान कोई भी हुस्ने अख़लाक़ से ज़्यादा ख़ूबसूरत न होता।

जो रिवायतें अक़्ल की फ़ज़ीलत के बारे में पाई जाती हैं उनका मुतालेआ करने के बाद और हुस्ने अख़लाक़ की अहमियत पर तवज्जो देने के बाद यह सवाल पैदा होता है कि इन दोनों में से किस की अहमियत ज़्यादा है ,अक़ल की या हुस्ने अख़लाक़ की ?

इस सवाल का जवाब तलाश करने के लिए हमें इस नुक्ते पर तवज्जो देनी चाहिए कि मुशकिलों और परेशानियों में घिरे हर इंसान का रुझान यह होता है कि नर्मी और बुर्दुबारी के साथ मसाइल को हल किया जाये। इसमें कोई शक नही है कि इस काम में एक गिरोह कामयाब है और वह दूसरों के साथ हुस्ने अख़लाक़ से मिलते हैं। लेकिन दूसरा गिरोह उन लोगों का भी है जो इस तरह का बरताव नही कर पाते हैं।

दक़ीक़ मुताले और तहक़ीक़ से यह बात सामने आती हैं कि नर्मी ,अक़्ली रुश्द का नतीजा है। जिन लोगों में अक़्ल ज़्यादा पाई जाती है या जिन्होंने अपनी अक़्ल को मुकम्मल तौर पर परवान चढाया है ,उनमें खुद को कन्ट्रोल करने की सलाहियत दूसरों से ज़्यादा होती है। इसके बरअक्स जिन लोगों के पास यह ख़ुदा दाद नेमत कम होती है ,उनमी नर्मी भी कम पाई जाती है। इस क़ूवत का राज़ यह है कि आक़्लमंद इंसान मसाइल व मुशकिल को तजज़िये व तहलील के ज़रिये हल करने और टकराव से बचते हुए बारूद के ढेर से गुज़रने की कोशिश करते हैं। हक़ीक़त में इंसान की अक़्ल किसी गाड़ी के फ़नर की तरह होती है। जब गाड़ी ऊँची नीची ज़मीन में दाख़िल होती है तो वह फ़नर नर्मी और लचक के साथ अपनी जगह पर हरकत करते हैं और गाड़ी को टूट फ़ूट से महफ़ूज़ रखते हैं। वह तन्हा आमिल जो इंसान को टकराव व हिजान से बचाते हुए उसके तआदुल को बाक़ी रखता है ,उसकी अक़्ल है।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमाया :

احسنكم عقلا احسنكم خلقا यानी जिसमें अक़्ल ज़्यादा होती है ,वह अख़लाक़ी एतेबार से दूसरों से ज़्यादा ख़ुश अख़लाक़ होता है।

इस मज़कूरा हदीस पर तवज्जो देने से मालूम होता है कि तबियत की नर्मी बहुत अहम होती है और इसके ज़ेरे साया इंसान दुनिया और आख़ेरत के तमाम कमाल हासिल करता है।

इससे ज़्यादा वज़ाहत यह कि नर्म तबियत के इंसान के सामने जब कोई मुशकिल आती है तो वह अक़्ल के ज़रिये उस पर ग़ौर व फ़िक्र करता है और आपे से बाहर हुए बग़ैर ,मसाइल का तजज़िया व हलील करते हुए ,ज़ोर ज़बर्दस्ती व तुन्दी के बिना एक के बाद एक मुश्किल को हल करता है ,चाहे यह मुशकिलात उसकी घरेलू ज़िन्दगी से मरबूत हों या समाजी व इजतेमाई ज़िन्दगी से।

इस बिना पर अक़्ल हुस्ने अख़लाक़ की बुनियाद है ,लिहाज़ा जिसके पास अक़्ल ज़्यादा होगी उसके अन्दर ख़ुश अख़लाक़ी भी कामिल तौर पर पाई जायेगी। इस दावे का सच्चा गवाह पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का वजूद मुबारक है ,वह अक़्ले कुल थे और अखलाक़ी एतेबार से भी से सबसे आला थे।

वह अखलाक़ी एतेबार से बहुत नर्म तबियत और तमाम अफ़राद के दरमियान सबसे ज़्यादा ख़लीक़ थे। लिहाज़ा खुश अख़लाक़ बनने के लिए सबसे पहले अक़्ल की परवरिश करनी चाहिए ताकि उसके साये में ख़ुश अख़लाक़ बन सके।

दिक़्क़त

يا ويلتى ليتنى لم اتخذ فلانا خليلا

वाय हो मुझ पर ,काश फ़लाँ शख़्स को मैंने अपना दोस्त न बनाया होता।

(सूरा ए फ़ुरक़ान आयत न. 28)

इंसान की कुछ परेशानियाँ ,उसके अपने इख़्तियार से बाहर होती हैं जैसे सैलाब व तूफ़ान का आना ,वबा जैसी बीमारियों का फैलना वग़ैरा । यह ऐसी मुसीबतें हैं कि इंसान ख़ुद को उसूले इजतेमाई से बहुत ज़्यादा आरास्ता करने के बाद भी इनसे नही बच सकता।

लेकिन इंसानी समाज की कुछ परेशानियाँ ऐसी हैं कि जो ख़ुद इंसान के वुजूद से जन्म लेती हैं। मिसाल के तौर पर इंसान कभी - कभी दिक़्क़त किये बग़ैर कुछ ऐसे फ़ैसले लेता है या अमल अंजाम देता है कि उसकी ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ जाती है।

ऐसे इत्तेफ़ाक़ बहुत ज़्यादा पेश आते हैं कि इंसान बग़ैर सोचे समझे कोई मुआहेदा कर लेता है ,शादी कर लेता है ,किसी प्रोग्राम में शरीक हो जाता है ,किसा काम को करने पर राज़ी हो जाता है ,या किसी ओहदे को क़बूल कर लेता है ,इसके नतीजे में जो परेशानियाँ इंसान के सामने आती हैं ,उन्हें इंसान खुद ही अपने लिए जन्म देता है।

बतौरे मुसल्लम कहा जा सकता है कि अगर इंसान उनको आसान समझने के बजाये उनमें ग़ौर व ख़ोज़ से काम ले तो परेशानियों में मुबतला न हो।

आल्लाह ने क़ुरआने करीम के सूराए फ़ुरक़ान की आयत न. 28

يا ويلتى ليتنى لم اتخذ فلانا خليلا में दर हक़ीक़त दोस्त के इन्तेख़ाब के बारे में बरती जाने वाली सहल अन्गेज़ी यानी ग़ौर व ख़ोज़ न करने को बयान फ़रमाया है। इसके बारे में इंसान क़ियामत के दिन समझेगा कि उसने अपने ईमान की दौलत को अपने दोस्त की वजह से किस तरह बर्बाद किया है। उस वक़्त वह आरज़ू करेगा कि काश मैंने उसे अपना दोस्त न बनाया होता।

सहल अंगारी और उसके नुक़्सान

हम में से जब भी कोई अपनी ज़िन्दगी के वरक़ पलटता है तो देखता है कि हमने किसी मौक़े पर जल्दबाज़ी में ग़ौर व ख़ोज़ किये बग़ैर कोई ऐसा काम किया है जिसके बारे में आज तक अफ़सोस है कि काश हमने उसे करने से पहले ग़ौर व ख़ोज़ किया होता ! हमने बाल की खाल निकाली होती और उसके हर पहलु को समझने के बाद उसे अंजाम न दिया होता। ज़िमनन इस बात पर भी तवज्जो देनी चाहिए कि बड़े काम छोटे कामों से वुजूद में आते हैं। समुन्द्र छोटी छोटी नदियों से मिलकर बनता है। अपनी जगह से न हिलने वाले पहाड़ सहरा के छोटे छोटे संगरेज़ों से मिलकर वुजूद में आते हैं।

दुनिया के बड़े बड़े ज़हीन व बेनज़ीर इंसान इन्हीँ छोटे छोटे बच्चों के दरमियान से निकलते हैं। यह इतना बड़ा व बाअज़मत जहान बहुत छोटे छोटे अटमों (ज़र्रों) से मिलकर बना है।

हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि छोटी चीज़ ,छोटी तो होती है लेकिन उनका अमल बड़ा और बहुत मोहकम होता है।

सिगरेट का एक टोटक या आग की एक चिंगारी एक बहुत बड़े गोदाम या शहर को जलाकर खाक कर सकती है। एक छोटा सा वैरस (जरसूमा) कुछ इंसानों या किसी शहर के तमाम साकिनान की सेहतव सलामती को ख़तरे में डाल सकता है।

मुमकिन है कि किसी बाँध में पैदा होने वाली एक छोटी सी दरार ,उस बाँध के किनारे बसे शहर को वीरान करके उसके साकिनान को मौत के घाट उतार सकती है।

एक छोटा सा जुमला या इबारत दो बस्तियों के लोगों को एकदूसरे का जानी दुश्मन बना सकती है। इसी तरह हवस से भरी एक निगाह या मुस्कुराहट इंसान के ईमान की दौलत को बर्बादकर सकती है।

यतीम की आँख से गिरने वाला एक आँसू या दर्दमंद की एक आह या दुआ किसी इंसान या इंसानों को हलाकत से बचा सकती है।

एक लम्हे का तकब्बुर इंसान के मुस्तक़बिल को बर्बाद कर सकता है इसी तरह एक हिक़ारत भरी निगाह या तौहीन आमेज़ इबारत या ज़िल्लत का बर्ताव किसी इंसान ,जवान या बच्चे के मुस्तक़बिल को तारीक बना सकता है।

इन मसालों के बयान करने का मक़सद यह है कि हमें इस बात पर तवज्जो देनी चाहिए कि इस आलम का निज़ाम अज़ीम होते हुए भी छोटो पर मुशतमिल है। छोटे आमाल ही बड़े अमल की बुनियाद बनते हैं। लिहाज़ा जिस तरह हमारी अक़्ल की आँखे इस अज़ीम जहान व इसके नक़्शे को देखती हैं ,इसी तरह उनमें ज़रीफ़ व दक़ीक़ मसाइल को देखने की भी ताक़त होनी चाहिए।

इस बिना पर इजतेमाई ज़िन्दगी में हमारा जिस चीज़ से मुजहज़ होना ज़रूरी है और जिससे हर इंसान को मुसलेह होना चाहिए वह ग़ौर व ख़ोज़ की आदत है। क्योंकि कि सहलअंगारी या सुस्ती की वजह से इंसान की ज़िन्दगी के बर्बाद होने के इमकान पाये जाते हैं। मशहूर है कि तसादुफ़ात एक लम्हे में रूनुमा होते हैं। मुमकिन है एक लम्हे की अदमे तवज्जो ,एक लम्हे की लापरवाही ,एक लम्हे का मज़ाक़ ,एक लम्हे की नीँद ,एक लम्हे का ग़ुस्सा ,एक लम्हे का ग़रूर इंसान को जेल की सलाख़ों के पीछे पहुँचा दे या उसे मौत की नीँद सुला दे। जो अफ़राद जेल की चार दीवारी में ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं उनमें से अक़्सर लोग एक लम्हे के सताये हुए हैं ,एक लम्हे की सहलअंगारी ,एक लम्हे की ग़फ़लत या एक लम्हे की लापरवाही।

इस्लाम ,मुसलमानों को तमाम कामों में ग़ौर व ख़ोज़ करने की नसीहत करता है। पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमाया कि : "वाय हो उस इंसान पर जो बग़ैर सोचे समझे कोई जुमला अपनी ज़बान पर लाये।" इससे यह साबित होता है कि हर मुसलमान की ज़िम्मेदारी है कि वह जो बात भी कहना चाहे ,कहने से पहले उस पर ग़ौर करे। दूसरे लफ़्जों में यह कहा जा सकता है कि जिस तरह हम खाने को इतना चबाते हैं कि वह दहन की राल में मिलकर नर्म हो जाता ,इसी तरह हमें हर बात कहने से पहले अपने लफ़्ज़ों व जुमलों पर भी ग़ौर करना चाहिए और ऐब व इश्काल से खाली होने की सूरत में उसे कहना चाहिए।

لسان العاقل وراء قلبه و قلب الاسحمق وراء لسانه

अक़्लमंद की ज़बान उसके दिल के पीछे होती है और अहमक़ का दिल उसकी ज़बान के पीछे होता है। इस रिवायत से यह नुक्ता निकलता है कि अक़लमंद इंसान को चाहिए कि कोई बात कहने से पहले उसके बारे में पूरी तरह तहक़ीक़ करनी चाहिए ,अगर दिल उस बात को कहने की ताईद करे तो उसे कहना चाहिए। जब पैग़म्बरे इस्लाम (स.) सअद को दफ़्न कर रहे थे तो मुसलमानों का एक गिरोह इस काम में पैग़म्बर (स.) की मदद कर रहा था। पैग़म्बर (स.) ने एक मुसलमान को अपने काम में सहल अन्गारी करते देखा तो उसे घूरते हुए फ़रमाया मोमिन हर काम को दिक़्क़त व यक़ीन के साथ अंजाम देता है।

ग़ौर व फ़िक्र

و يتفكرون فى خلق السموات والارض ربنا ما خلقت هذا باطلا

और वह आसमान व ज़मीन की ख़िलक़त के बारे में ग़ौर व फ़िक्र करते हैं ,परवर दिगार तूने इन्हें बेहूदा ख़ल्क़ नही किया है।

(सूरा ए निसा आयत न. 189)

घर के माहौल में ज़िन्दगी बसर करना बहुत आसान है ,क्योंकि घर में गिने चुने अफ़राद ही होते हैं। इसके अलावा माँ बाप ,भाई बहन के साथ रहने में कोई परेशानी भी नही होती है ,क्योंकि भाई बहन के दिल ख़ूनी रिश्ते की वजह से एक दूसरे के लिए मुहब्बत की कान होते हैं। इसी तरह माँ बाप के साथ रहना भी आसान है क्योंकि वह भी अपनी पूरी क़ूवत व ताक़त के साथ अपनी औलाद की देख रेख करते हैं।

लेकिन समाजी ज़िन्दगी एक ला महदूद दरिया है। समाज में मुख़तलिफ़ क़िस्म के अफ़राद व गिरोह पाये जाते हैं ,जैसे आलिम व जाहिल ,मोमिन व काफ़िर ,अक़्लमंद व अहमक़ ,इन तमाम अफ़राद के साथ रहना आसान काम नही है ,इसी लिए समाज में रहने के लिए इंसान को अक़्ल की ज़रूरत होती है। इंसान में लोगों के मिज़ाज को समझने और ग़ौर व फ़िक्र करने की सलाहियत होनी चाहिए ताकि वह मुख़तलिफ़ तबक़ात के दरमियान ज़िन्दगी बसर कर सके। ज़ाहिर है कि दरिया में हर तैराक तैराकी नही कर सकता ,बल्कि कुछ गिने चुने जियाले ही होते हैं जो दरिया में तैराकी करते हैं।

समाजी ज़िन्दगी के लिए कूवत व ताक़त की ज़रूरत होती है लेकिन इसके लिए सिर्फ़ ज़िस्मानी ताक़त ही काफ़ी नही है बल्कि ग़ौर व फ़िक्र की ताक़त की भी ज़रूरत है।

जो आमिल इंसान को समाजी ़इन्दगी में कामयाब बना सकता है वह उसकी अक़्ल व फ़िक्र है। पढ़े लिखे आदमी भी अगर अक़्ल व फ़िक्र को छोड़ कर समाज में ज़िन्दगी बसर करना चाहेंगे तो इसमें कोई शक नही है कि वह नाकाम हो जायेंगे। क्योंकि जज़बाती ज़िन्दगी इंसान की सआदत की ज़ामिन नही बन सकती है इस लिए समाजी ज़िन्दगी के लिए इंसान को ग़ौर व फ़िक्र की ज़रूरत होती है ,ताकि उसके ज़रिये इंसान अपने नफ़े नुक़्सान और अंजामे कार को समझ कर किसी काम को करने या न करने का फ़ैसला कर सके। हर काम की ऊँच नीच को समझना और उसके तारीक पहलुओं को रोशन करना ग़ौर व फ़िक्र के ज़रिये ही मुमकिन है।

मिसाल के तौर पर इस्लाम हुक्म देता है कि जब इंसान अपना घर बसाना चाहे तो बीवी के इन्तेख़ाब में जज़्बात से काम न ले बल्कि पहले ग़ौर व फ़िक्र करे कि किस तरह की लड़की से शादी करनी चाहिए ,वह किस लड़की को अपनी शरीके हयात बनाना चाहता है ,किस लड़की को अपना राज़दार बना रहा है और किस लड़की को अपने बच्चों की तरबियत के लिए मुरब्बी मुऐयन कर रहा है।

हज़रत इमाम ज़ाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि:

المراة قلادة فانطر ما تتقلده बीवी गले के हार की मिस्ल है ,लिहाज़ा अच्छी तरह देखों व ग़ौर करो कि तुम अपने गले में किस तरह का हार डाल रहे हो।

थोड़ा ग़ौर करने पर यह बात ज़ाहिर हो जाती है कि इंसान जिस दिन से इजतेमाई ज़िन्दगी शुरू करना चाहता है इस्लाम उसी दिन से उसे अक़्ल से काम लेने और ग़ैर व फ़िक्र करने की नसीहत करता है।

इस्लाम का एक हुक्म यह है कि किसी काम को करने के लिए पहले मशवरा करो और उसे शुरू करने से पहले अच्छी तरह ग़ौर व फ़िक्र करो।

شاور قبل ان تعزم و فكر قبل ان تقدم

यानी अज़्म से पहले मशवरा करो और उसके बारे में इक़दाम करने से पहले ग़ौर व फ़िक्र।

ज़ाहिर है कि इल्म के हर पहलु से ग़ौर व फ़िक्र करने से अच्छाई ,बुराई ,तारीकी ,रौशनी सब आशकार हो जायेंगी और इंसान बसीरत हासिल करने के बाद उस काम को करने या न करने का फ़ैसला करेगा।

जज़बात ,अक़्ल के साथ तो मुफ़ीद होते हैं लेकिन अक़्ल के बग़ैर इंसान को गुमराह कर देते हैं। क्योंकि जज़बात किसी अमल के फ़कत एक पहलु पर नज़र करते हैं और उस अमल की बुराईयों व तारीक गौशों को छुपाये रखते हैं जिसकी वजह से उस काम को करने के बाद उसकी बुराईयाँ ज़ाहिर होती हैं।

माँ बाप की ज़िम्मेदारी है कि अपनी औलाद की अक़्ली तौर पर बचपन से ही परवरिश करें और उनके ग़ौर व फ़िक्र को बेदार रखें ताकि वह तदरीजन अक़्लमंद बन जाये।

खाली वक़्त में उन्हें ग़ौर व फ़िक्र करने की फ़ुर्सत दें और उनकी ्च्छी फ़िक्र की तारीफ़ करें ताकि आहिस्ता आहिस्ता उनमें ग़ौर व फ़िक्र का शौक़ पैदा हो जाये।

कुछ मौक़ों पर बच्चों से काम के नतीजे को बयान न करें बल्कि पूरा काम उन्हीँ पर छोड़ दें जिससे कि वह उसके बारे में ख़ुद ग़ौर करें ताकि वह ग़ौर व फ़िक्र करना सीखें और ्गर वह नुक़्सान उठायें तो ग़ैरे मुस्तक़ीम तौर पर उनकी राहनुमाई करें ताकि वह आइन्दा अपनी उसी नाक़िस फ़िक्र के बल बूते पर काम करते हुए उसके बुरे नतीजों में गिरफ़्तार न हो सकें।

ज़िमनन इस नुक्ते पर भी तवज्जो देनी चाहिए कि ्ल्लाह ने तमाम बन्दों को ग़ौर व फ़िक्र की नेमत से नवाज़ा है। अक़्ल मंद अफ़राद वही हैं जो शुरू से ही ग़ौर व फ़िक्र से काम लेते हुए अपनी ्क़्ल को पुख़्ता बना लेते हैं। जो लोग जज़बात के तहत बग़ैर सोचे समझे काम करते हैं वह आहिस्ता आहिस्ता ग़ौर व फ़िक्र की कूवत को खो देते हैं।

उस्तादों और मुरब्बियों की ज़िम्मेदारी

मदर्से के उस्तादों और मुरब्बियों की ज़िम्मेदारी यह है कि वह तालीम व तरबियत के दौरान बच्चों को रटाने के बजाय सही तरह से ग़ौर व फ़िक्र करना सिखायें। इस बिना पर मदर्से की सबसे अहम ज़िम्मेदारी शागिर्दों को फ़िक्री एतेबार से मज़बूत बनाना है। मगर हम अफ़सोस के साथ यह बात क़बूल करने पर मजबूर हैं कि तालीमी मैदान में फ़िक्री तरबियत की तरफ़ कम तवज्जो दी जाती है और शागिर्दों के इल्मी इरतक़ा का मेयार शिर्फ़ रटी हुई चीज़ों को क़रार दिया जाता है और वह उसी के बल बूते पर वह यूनिवर्सिटी तक पहुँचते हैं।

आगाही के तौर पर तमाम ही वालदैन को सलाह दी जाती है कि हमारे बच्चों के मुस्तक़बिल की सआदत ग़ौर व फ़िक्र पर मुनहसिर हैं ,असनाद पर नही।

बहुत ज़्यादा देखने में आया है कि कुछ लोग पढ़ लिखने के बाद भी इजतेमाई ज़िन्दगी में कामयाब नही हो सके हैं और कुछ लोग बग़ैर पढ़े लिखे होने के बावुजूद भी ग़ौर व फ़िक्र के नतीजे में इजतेमाई ज़िन्दगी में कामयाब रहे हैं। इससे यह बात ज़ाहिर होती है कि समाजी ज़िन्दगी के लिए ग़ैर व फ़िक्र की बहुत ज़रूरत है।

ग़ौर व फ़िक्र इस्लाम की नज़र में

क़ुरआने करीम की आयतों के मुताले से पता चलता है कि क़ुरान ने इंसानों को ग़ौर व फ़िक्र की बहुत ज़्यादा दावत दी है। उन्हें मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से आसमान ,ज़मीन और तरह तरह की मख़लूक़ की ख़िलक़त के बारे में ग़ौर करने को कहा है।

क़ुरआने करीम की आयतों से यह बात भी ज़ाहिर होती है कि वही अफ़राद कामयाब हैं जो ग़ौर व फ़िक्र से काम लेते हैं और जो लोग ग़ौर व फ़िक्र नही करते वह कामयाब नही हो सकते।

जो अफ़राद अपनी अक़्ल से काम लेते हैं उन्हें क़ुरआने करीम में

اولوالالباب कहा गया है ,यानी साहिबाने अक़्ल।

हज़रत इमाम ज़ाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम से नक़्ल हुआ है कि :

قال انا لنحب من كان عاقلا فهما

बेशक हम अक़लमंद व फ़हीम अफ़राद से मुहब्बत करते हैं।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि :

نبه بالتفكر قلبك यानी ग़ौर व फ़िक्र के ज़रिये अपने क़ल्ब को तन्बीह करो।

ज़ाहिर है कि इस हदीस से यही महफ़ूम निकलता है कि जो लोग ग़ौर व फ़िक्र नही करते उनके क़ल्ब ख़ाबे ग़फ़लत में हैं।

हज़रत इमाम अली रिज़ा अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि :

ليس العبادة كقرة الصلاة و الصوم انما العبادة التفكر فى امر الله عزو جل

ज़्यादा नमाज़ रोज़े का नाम इबादत नही है ,बल्कि अल्लाह के अम्र में ग़ौर व फ़िक्र करना है। इससे मालूम होता है कि ग़ौर व फ़िक्र की अहमियत नमाज़ रोज़े से ज़्यादा है।

हज़रत इमाम जाफ़र अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि :

افضل العبادة ادمان التفكر فى الله و فى قدرته

सबसे अच्छी इबादत हमेशा अल्लाह और उसकी क़ुदरत के बारे में ग़ौर व फ़िक्र करना है।

बाज़ रिवायतों का मज़मून इस बात पर दलालत करता है कि एक लहज़े का ग़ौर व फ़िक्र एक साल की इबादत से अफ़ज़ल है।

ग़ौर व फ़िक्र की इस फज़ीलत के बारे में दो दलीलें पेश की जासकती है :

पहली यह कि इबादत की अहमियत का रब्त मुस्तक़ीमन इबादत करने वाले इंसान से है। यानी इबादत करने वाले की अक़्ल की जितनी अहमियत होगी उसके ज़रिये की गयी इबादत की अहमियत भी उतनी ही होगी। लिहाज़ा इबादत की ्हमियत का मेयार पहले दर्जे में इबादत करने वाले की अक़्ल से मुरतबित है। इससे मालूम होता है कि अक़्ल व ख़िरद यानी ग़ौर व फ़िक्र का मक़ाम बहुत ऊँचा है।

दूसरी यह कि इंसान ने अपनी एक मुस्तक़िल नो बनाई है और ख़ुद को हैवानात के ज़ुमरे से बाहर निकाला है। ज़ाहिर है कि इस इस्तक़लाल की इल्लत व वजह इंसान की फ़िक्र करने की कूवत है। यानी इंसान में अक़्ल व ख़िरद की ताक़त इतनी है कि इसी ताक़त के बल बूते पर उसने अपने लिए हैवाने नातिक़ नामी एक मुस्तक़िल नो बनाली है। यह बात भी ज़ाहिर है कि नातिक़ होने से मुराद ग़ौर व फ़िक्र करना है। लिहाज़ा जो अफ़राद ग़ौर व फ़िक्र के मैदान से दूर रहते हैं वह रस्मी तौर पर तो इंसान गिने जाते है मगर उन्हें अपनी इंसानियत से कोई फ़ायदा नही होता।

दूसरी तरफ़ आदमी ग़ौर व फ़िक्र की ताक़त में जितना ज़्यादा सरशार होगा उसका इंसान कहलाना उतना ही ज़्यादा सही होगा। इसी लिए जिन लोगों ने अपनी ख़ुदा दाद अक़्ल से काम नही लिया है क़ुराने करीम में उन्हें हैवानात के ज़ुमरे में शुमार किया है बल्कि हैवानात से भी पस्ततर व बे अहमियत।

आख़िर में इस अहम नुक्ते की तरफ़ इशारा करते हैं कि औलाद की तरबियत में ख़ास तौर पर जवान लड़को लड़कियों की तरबियत में माँ बाप का किरदार बहुत अहम है। क्योंकि सभी लड़के और लड़कियाँ जब बालिग़ होने के क़रीब पहुँचते हैं या ताज़े बालिग़ हुए होते हैं तो वह जज़बात और एहसासात से सरशार होते हैं। ऐसे वक़्त में समाजी मसाइल में उनकी रहनुमाई करना और उन्हें ग़ैर व फ़िक्र के मैदान में दाख़िल करना एक सख़्त काम होता है।

हमें याद रखना चाहिए कि माँ बाप को अपने बच्चों से यह उम्मीद नही रखनी चाहिए कि वह अपने रोज़ मर्रा के कामों को बुज़ुर्गों की तरह अक़्ल व फ़िक्र के मीज़ान पर परखने के बाद अंजाम दें। क्योंकि जवानों के जज़बात को बिल्कुल नज़र अन्दाज़ नही किया जा सकता है बल्कि उनके अन्दर तदरीजन ग़ौर व फ़िक्र करने का शौक़ पैदा किया जाये और थोड़ा वक़्त गुज़रने का भी इन्तेज़ार किया जाये ताकि हमारे बच्चे अपने जज़बात को मोतदिल करके अपनी अक़्ल को पुख़्ता बनालें।

हमें यह बात नही भूलनी चाहिए कि जब हम अपनी औलाद की उम्र में थे तो हम भी जज़बात से खाली नही थे। हमें भी समाजी ज़िन्दगी के तजरबों ने ही जीने का अंदाज़ सिखाया। दूसरे लफ़ज़ों में यह कहा जा सकता है कि तमाम बातों को घर व मदरसे के अन्दर नही सीखा जा सकता है ,बल्कि कुछ बातें हम समाज में रह कर ही सीखते हैं।

इताअत

تلك حدود الله فلا تعتدوها و من يتعد حدود الله فاولئك هم الظالمون

यह अल्लाह की हुदूद हैं इनसे आगे न बढ़ो जो आल्लाह की हुदूद से आगे बढ़े वह सब ज़ालेमीन में से हैं।

सूरः ए बक़रः आयत न. 230

अगर हम यह मानलें कि यह पूरी ज़मीन एक इंसान के हाथ में है तो इसमें कोई शक नही है कि वह इंसान ज़िन्दगी के हर पहलु में बहुत ज़्यादा आज़ाद होगा। जहाँ उसका दिल चाहेगा मकान बनायेगा ,जिस हिस्से में चाहेगा खेती करेगा ,जिस जगह बाग़ लगाना चाहेगा लगा लेगा क्योंकि वह ज़मीन पर रहने वाला तन्हा इंसान होगा। लेकिन इसके बावजूद भी वह खाने पीने ,काम करने वग़ैरा में महदूद ही रहेगा। इस बिन पर अगर इंसान इस ज़मीन पर तन्हा रहेगा तब भी उसे मजबूरन कुछ हुदूद की रिआयत करनी होगी। क्योंकि वह उस हालत में किसी ख़ास जगह पर आराम करने और कुछ खास चीज़े खाने पर मजबूर होगा। इस मुक़द्दमे से यह बात ज़ाहिर होती है कि समाजी ज़िन्दगी में सबसे पहली ज़रूरत एक क़ानूनी ज़िन्दगी की है। दूसरे लफ़्ज़ों में इस तरह कहा जा सकता है कि जब इंसान की फ़रदी ज़िन्दगी इजतेमाई ज़िन्दगी में तबदील हो जाती है तो इंसानों के इख़्तियार महदूद हो जाते हैं क्योंकि समाज में एक निज़ाम व क़ानून का दौर दौरा हो जाता है।

इस अस्ले अव्वल के लिहाज़ से इजतेमाई ज़िन्दगी से जो चीज़ वुजूद में आती है ,वह क़ानूनी ज़िन्दगी व हद व हुदूद की रिआयत है ,चाहे यह इजतेमा दो इंसानों पर ही मुशतमिल हो। मिसाल के तौर पर अगर पूरी ज़मीन पर फ़क़त दो इंसान रहे तो उनकी ज़िम्मेदारी है कि वह क़ानून के मुताबिक़ ज़िन्दगी बसर करें ,यानी उनमें से हर एक की ज़िम्मेदारी है कि अपनी हद व हुदूद की रिआयत करें और अपनी हद से आगे न बढ़ें।

लिहाज़ा इजतेमाई ज़िन्दगी का बुनियादी मसला क़ानून की ज़रूरत और उनकी रिआयत है।

ख़ुदा वन्दे आलम ने इस बारे में फ़रमाया है कि जो हुदूद से आगे बढ़े उसने खुद अपने ऊपर ज़ुल्म किया है। जाहिर है कि एक बेक़ानूनी समाज़ को मफ़लूज बना देती है और जब समाज मफ़लूज हो जायेगा तो उसका नुक़्सान समाज के हर फ़र्द होगा। लिहाज़ा जो लोग क़ानून तोड़ते हैं ,वह हक़ीक़त में अपने ऊपर ज़ुल्म करते हैं। इस लिए आराम व सुकून पाने के लिए समाज के हर फ़र्द को क़ानून का एहतेराम करते हुए उसकी पैरवी करनी चाहिए।

अफ़सोस है कि बाज़ समाज में समाजी ज़िन्दगी तो पाई जाती हैं लेकिन उनके अफ़राद को क़ानून की रिआयत की मालूमात नही है। इससे मालूम होता है कि उनका समाज तरकीब के लिहाज़ से तो इजतेमाई हो गया है लेकिन उसके अफ़राद में अभी तक इजतेमाई ज़िन्दगी की क़ाबिलियत पैदा नही हुई है। दूसरे लफ़ज़ों में इस तरह कहा जा सकता है कि ऐसा समाज उस इंसान की तरह है जिसने जिस्मानी एतेबार से तो रुश्द कर लिया हो लेकिन अक़्ली व फ़िक्री एतेबार से रुश्द के मरहले तक न पहुँचा हो।

इस तरह के समाज़ में क़ानून तोड़ने की आदत पाई जाती है। ज़ाहिर है कि इंसानों के ज़ाती फ़ायदे इस बात का सबब बनते हैं कि ज़वाबित को नज़र अंदाज़ करके रवाबित को नज़र में रखा जाता है। इसे उसे देख कर क़ानून की रिआयत किये बिना अपना काम करने की कोशिश की जाती है। इस तरह के अफ़राद अपने फ़ायदे के लिए समाजी निज़ाम व ज़वाबित को पामाल करके रवाबित से काम निकालते है।

आज एक ऐसी मुश्किल को हल करने की सआदत हासिल की है जो न ताग़ूत के ज़माने में हल हुई थी और न अब तक जमहूरी इस्लामी के दौर में और वह है ट्रैफिक की मुश्किल। आज तेहरान शहर में कुछ गिने चुने हज़रात के अलावा बाक़ी लोग ड्राइविंग के क़ानूनों की रिआयत नही करते। बल्कि हालत यह है कि ड्राइवर हर तरह की ख़िलाफ़ वरज़ी करते हुए आपना रास्ता साफ़ करके आगे बढ़ने की कोशिश करता है। जबकि ट्रैफ़िक पुलिस के अफ़सर क़ानूनों की ख़िलाफ़ वरज़ी करने वाले ड्राइवरों पर जुर्माना जहाँ तहाँ नक़द जुर्माना करते रहते हैं ,लेकिन इसके बावजूद भी ड्राइवर ख़िलाफ़ वरज़ी करते रहते हैं। याद रखना चाहिए कि जुर्माने या जेल की सज़ा के ज़रिये किसी को क़ानून का ताबे नही बनाया जा सकता ,बल्कि इसके लिए ज़रूरी है कि उसकी समाजी फ़िक्र को इतना वसी बना देना चाहिए कि उसके अन्दर क़ानून की पैरवी करने का जज़बा पैदा हो जाये। कोई ऐसा काम करना चाहिए कि ड्राइवर मुकम्मल तौर पर क़ानूनों की रिआयत करने पर ईमान ले आयें ताकि बाद में पुलिस के मौजूद रहने और जुर्माना करने की ज़रूरत न रहे। ड्राइवर अपने दिल के उस ईमान की वजह से ख़िलाफ़ वरज़ी की तरफ़ मायल न हों।

समाजी ज़िन्दगी यानी शख़्सी उम्मीदों की नफ़ी

हमारे समाज में कुछ अफ़राद को छोड़ कर सभी में तवक़्क़ो पाई जाती है। लोग ,ख़ुद को समाज के दूसरे लोगों से बड़ा मानते हुए यह चाहते हैं कि सब काम ताल्लुक़ात की बिना पर हल हो जायें। इस तरह के लोग अपने आपको सबसे अलग समझते हैं और किसी भी समाजी पहलु में क़ानून की रिआयत नही करते और क़ानून तोड़कर अपनी चाहत को पूरा करते हैं। लोगों का यह रवैया इस बात की हिकायत करता है कि क़ानून कमज़ोर लोगों के लिए है ,उन्हें हुकूमत के तमाम ख़र्चों को पूरा करना चाहिए और बदले में क़ानून की रिआयत भी। हक़ीक़त यह है कि क़ानून तोड़ने वाले अफ़राद ख़ुद को समाज के आम लोगों से बड़ा समझते हैं और अपने लिए एक ख़ास वज़अ के क़ायल होते हैं। उनका यह रवैया राजा ,प्रजा और ग़ुलाम व मालिक के निज़ाम से पनपा है। आज इस्लाम तमाम लोगों को क़ानून के सामने बराबर समझता है और किसी को भी यह हक़ नही देता कि वह ख़ुद को किसी तरह भी दूसरों से बड़ा समझे। इस्लाम ने तबईज़ के तमाम अवामिल को इंसानों के दरमियान से ख़त्म करके तमाम मख़लूक़ को बराबर कर दिया है। जिस तरह इबादत में समाज का एक आली इंसान (ज़िम्मेदारी के एतेबार से) नमाज़े जमाअत की पहली सफ़ में खड़ा हो सकता है इसी तरह समाजके एक सादे इंसान को भी उसकी बराबर में खड़े होकर नमाज़ पढ़ने का पूरा पूरा हक़ है। दूसरी जंगे जहानी के दौरान मग़रिबी मुमालिक के एक अख़बार में एक तस्वीर छपी जिसमें यह दिखाया गया कि ब्रितानी वज़ीरे आज़म लाइन में खड़ा अपनी बारी का इंतेज़ार कर रहा है ताकि अपने हिस्से का खाना ले सके। किसी भी समाज का तकामुल व तरक़्क़ी क़ानून व मुक़र्रेरात की रिआयत में नहुफ़्ता हैं। जिस मुआशरे की समाजी सतह और नज़रियात ऊँचे होते हैं उसमें वसी पैमाने पर क़ानून की पैरवी का जज़्बा पाया जाता है। आख़िर में हम कह सकते हैं कि क़ानून तोड़ना जहाँ एक ग़ैरे इंसानी अमल है ,वहीँ इस्लाम की नज़र में दूसरों के हुक़ूक़ की पामाली है। इस्लामी अहकाम में मिलता है कि अगर कोई इंसान नमाज़ की सफ़ में अपनी जानमाज़ बिछादे तो फिर दूसरों को वहाँ नमाज़ पढ़ने और अल्लाह की इबादत करने का हक़ नही है।

सलाह व मशवरा

و شاورهم في الا مر कामों में दूसरों से मशवरा करो।

समाजी तरक़्क़ी का एक पहलू मशवरा करना है। मशवरा यानी मिलकर फ़िक्र करना। इसमें कोई शक नही है कि जो लोग मशवरा करते हैं ,उनमें अक़्ल व फ़िक्र ज़्यादा पाई जाती है। जो लोग राय मशवरा नही करते ,वह अपनी फ़िक्र पर तकिया करते हैं। यह रवैया इस बात की हिकायत करता है कि उनकी फ़िक्र नाक़िस है। इसकी खुली हुई दलील यह है कि चार लोगों की फ़िक्र से जो बात हासिल होती है ,वह एक इंसान की फ़िक्र के मुक़ाबले बेहतर और कामिल होती है। क्योंकि हर इंसान किसी भी मसले पर अपनी ख़ास रविश से ग़ौर व फ़िक्र करता है। लिहाज़ा जो इंसान दूसरों से मशवरा करता है हक़ीक़त में वह दूसरों की फ़िक्र को अपनी फ़िक्र में मिला लेता है। या दूसरे अलफ़ाज़ में इस तरह कहा जा सकता है कि उस मसले पर मुख़तलिफ़ पहलुओं से ग़ौर होता है और इस तरह उसके पोशीदा पहलुओं पर भी मुकम्मल तरह से बहस हो जाती है।

अक़्ले सलीम इस बात पर दलालत करती है कि जिस बात पर कुछ अहले नज़र मिलकर ग़ौर करते हैं ,वह एक इंसान की फ़िक्र के मुक़ाबले ,ग़लतियों से ज़्यादा महफ़ूज़ होती है। क्योंकि इस्लाम अक़्ल पर मबनी दीन है ,इस लिए इसने इंसानों को राय मशवरे की तरफ़ तवज्जो दिलाई है।

अल्लाह ने पैग़म्बरे इस्लाम (स.) को ,जो कि अक़्ले कुल थे ,मशवरा करने का हुक्म देते हुए फ़रमाया :

و اشاورهم قي الامر यानी किसी बात को तय करने के लिए (मुसलमानों से) मशवरा करो।

क़ुराने करीम की कुछ दूसरी आयतों में मशवरा करने को िस्लाम व मुसलमानों की ख़ुसूसियत माना गया है।

जैसे कि इरशाद होता है : و امرهم شوري بينهم

यानी मुसलमानो को इस तरह तरबियत हुई है कि वह सब कामों में एक दूसरे से मशवरा करते हैं।

लिहाज़ा मुसलमानों को सलाह मशवरे और सही फ़िक्र हासिल करते वक़्त हसबे ज़ैल नुकात की रिआयत करनी चाहिए।

1.इस राब्ते की वजह से मुसलमानों के आपसी ताल्लुक़ात बढ़ने चाहिए। यानी मुसलमानों तमाम रिश्तों को छोड़ते हुए भी सलाह मशवरे की बुनियाद पर एक दूसरे से राब्ता रखने और अपने ताल्लुक़ात बढ़ाने पर मजबूर हैं।

2.नफ़्सियाती तौर पर भी जब इंसान किसी से मशवरा करता है तो उसे एक बड़ा मक़ाम देता है। यानी मशवरा करने वाला अपने मशवरे के अमल के ज़रिये जिस इंसान से मशवरा लेता है ,उसे एहतेराम देता है और अपने लिए मोरिदे एतेमाद व इत्मिनान मानता है।

ज़ाहिर है कि इस तरह के रवैये से आपसी ताल्लुक़ात में मज़बूती और शीरनी पैदा होती है।

3.मशवरा करने से ,इंसान का ख़ुद महवरी का जज़बा जो फ़ितरी तौर से हर इंसान में पाया जाता है ,कमज़ोर होता है। इस तरह इंसान ख़ुद महवरी के दायरे से निकल कर समाज से जुड़ जाता है और उसमें गिरौही जज़बा पैदा होता है।

4.इस्लाम ने इंसान को तन्हाई से बाहर निकाल कर ,उसकी समाजी ज़िन्दगी को मज़बूत बनाया है।

इस्लाम ने ग़ौर व फ़िक्र के मैदान में भी इजतमाई फ़िक्र को फ़रदी फ़िक्र पर तरजीह दी है और इंसान को जमूदे फ़िक्री से बाहर निकाला है।

क्योंकि मशवरा करना ,हक़ीक़त में कुछ फ़िक्रों को आपस में मिलाकर उनसे सही व बेहतरीन नतीजा निकालना है।

इस्लाम में मशवरे का मक़ाम

इस्लाम ने जिस तरह इबादत को इनफ़ेरादियत से निकाल कर ुसे इजतमाई क़ालिब ढाला है ,उसी तरह मुसलमानों को मिलकर ग़ौर व फ़िक्र करने की भी दावत दी है।

ज़ाहिर है कि एक मुसलमान को उसी इंसान से मशवरा करना चाहिए जिसमें वह सलाहियत पाई जाती हो ,हर मामले में हर इंसान से मशवरा करना सही है।

हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया है कि

استشر العاقل من الرجال الورع فانه لا يامر الا بخير و اياك والخلاف فان خلاف الورع العقل مفسدة فى الدين و الدنيا

यानी अक़्लमंद व परहेज़गार इंसान से मशवरा करो क्योंकि ऐसा इंसान नेकी के अलावा किसी दूसरी चीज़ की सलाह नही देता और नेक व अक़्लमंद इंसान के मशवरे के ख़िलाफ़ काम न करना वरना तुम्हारा दीन व दुनिया बर्बाद हो जायेगी।

अहम बात यह है कि हम अपनी औलाद से कैसा बरताव करे कि वह सलाह मशवरे के आदि बन सकें।

इसमें कोई शक नही है कि घर के माहौल में शौहर व बीवी के दरमियान ऐसे मौक़े आते हैं जिनमें आपसी सलाह व मशवरे की ज़रूरत पेश आती है। माँ बाप को चाहिए कि ऐसे मौक़ो पर अपनी औलाद को भी मशवरों में शरीक करें और उनसे राय लें और इस तरह उनकी फ़िक्र को मज़बूत बनाये ताकि उनमें ज़ोक़ व शौक़ पैदा हो और वह अपनी शख़्सियत का एहसास करें।

माँ बाप एक दूसरी तरह से भी अपनी औलाद में मशवरे को अमली जामा पहना सकते हैं और वह यह है कि जो काम बच्चों से मख़सूस होते हैं ,बुज़ुर्ग ुनको बच्चों के हवाले करें और वह आपसी सलाह मशवरे से जिस नतीजे पर पहुँचे उसे अमल में लायें। इससे यह फ़ायदा होगा कि बच्चे आपस में सलाह मशवरा करना सीख जायेंगे।

ज़ाहिर है कि जैसे जैसे बच्चों की उम्र व अक़्ल बढ़ती जाती है वैसे वैसे बुज़ुर्गों को उन्हें अपने सलाह मशवरों के जलसों में शरीक करने की ज़रूरत पड़ती है।

सबसे ज़रीफ़ नुक्ता यह है कि जब बच्चे महसूस करेंगे कि घर में तमाम काम सलाह मशवरे से होते है और इनफ़ेरादी राय व इस्तबदाद से काम नही लिया जाता है तो वह अमली तौर पर बुज़ुर्गों से सलाह मशवरे का सबक़ लेगें और ख़ुद अहले मशवरा बन जायेंगे।

नज़्म व ज़ब्त

اوصيكم بتقوى الله و نظم امركم हज़रत अली (अ.) नो फ़रमायाः

मैं तुम्हे तक़वे और नज़्म की वसीयत करता हूँ। हम जिस जहान में ज़िन्दगी बसर करते हैं यह नज़्म और क़ानून पर मोक़ूफ़ है। इसमें हर तरफ़ नज़्म व निज़ाम की हुकूमत क़ायम है। सूरज के तुलूअ व ग़ुरूब और मौसमे बहार व ख़िज़ा की तबदीली में दक़ीक़ नज़्म व निज़ाम पाया जाता है। कलियों के चटकने और फूलों के खिलने में भी बेनज़मी नही दिखाई देती। कुर्रा ए ज़मीन ,क़ुर्से ख़ुरशीद और दिगर तमाम सय्यारों की गर्दिश भी इल्लत व मालूल और दक़ीक़ हिसाब पर मबनी है। इस बात में कोई शक नही है कि अगर ज़िन्दगी के इस वसीअ निज़ाम के किसी भी हिस्से में कोई छोटी सी भी ख़िलाफ़ वर्ज़ी हो जाये तो तमाम क़ुर्रात का निज़ाम दरहम बरहम हो जायेगा और कुर्रात पर ज़िन्दगी ख़त्म हो जायेगी। पस ज़िन्दगी एक निज़ाम पर मोक़ूफ़ है। इन सब बातों को छोड़ते हुए हम अपने वुजूद पर ध्यान देते हैं ,अगर ख़ुद हमारा वुजूद कज रवी का शिकार हो जाये तो हमारी ज़िन्दगी ख़तरे में पड़ जायेगी। हर वह मौजूद जो मौत को गले लगाता है मौत से पहले उसके वुजूद में एक ख़लल पैदा होता है जिसकी बिना पर वह मौत का लुक़मा बनता है। इस अस्ल की बुनियाद पर इंसान ,जो कि ख़ुद एक ऐसा मौजूद है जिसके वुजूद में नज़्म पाया जाता है और एक ऐसे वसीअ निज़ामे हयात में ज़िन्दगी बसर करता है जो नज़्म से सरशार है ,इजतेमाई ज़िन्दगी में नज़्म व ज़ब्त से फ़रार नही कर सकता।

आज की इजतेमाई ज़िन्दगी और माज़ी की इजतेमाई ज़िन्दगी में फ़र्क़ पाया जाता है। कल की इजतेमाई ज़िन्दगी बहुत सादा थी मगर आज टैक्निक ,कम्पयूटर ,हवाई जहाज़ और ट्रेन के दौर में ज़िन्दगी बहुत दक़ीक़ व मुनज़बित हो गई है। आज इंंसान को ज़रा सी देर की वजह से बहुत बड़ा नुक़्सान हो जाता है। मिसाल को तौर पर अगर कोई स्टूडैन्ट खुद को मुनज़्ज़म न करे तो मुमकिन है कि किसी कम्पटीशन में तीन मिनट देर से पहुँचे ,ज़ाहिर है कि यह बेनज़मी उसकी तक़दीर को बदल कर रख देगी। इस मशीनी दौर में ज़िन्दगी की ज़रूरतें हर इंसान को नज़्म की पाबन्दी की तरफ़ मायल कर रही हैं। इन सबको छोड़ते हुए जब इंसान किसी मुनज़्ज़म इजतेमा में क़रार पाता है तो बदूने तरदीद उसका नज़्म व निज़ाम उसे मुतास्सिर करता है और उसे इनज़ेबात की तरफ़ खींच लेता है।

एक ऐसा ज़रीफ़ नुक्ता जिस पर तवज्जो देने में ग़फ़लत नही बरतनी चाहिए यह है कि नज़्म व पाबन्दी का ताल्लुक़ रूह से होता है और इंसान इस रूही आदत के तहत हमेशा खुद को बाहरी इमकान के मुताबिक़ ढालता रहता है। मिसाल के तौर पर अगर किसी मुनज़्ज़म आदमी के पास कोई सवारी न हो और उसके काम करने की जगह उसके घर से दूर हो तो उसका नज़्म उसे मजबूर करेगा कि वह अपने सोने व जागने के अमल को इस तरह नज़्म दे कि वक़्त पर अपने काम पर पहुँच सके।

इस बिना पर जिन लोगों में नज़्म व इनज़ेबात का जज़्बा नही पाया जाता अगर उनका घर काम करने की जगह से नज़दीक हो और उनके पास सवारी भी मौजूद वह तब भी काम पर देर से ही पहुँचेगा।

इस हस्सास नुक्ते पर तवज्जो देने से हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि नज़्म व पाबन्दी का ताल्लुक़ इंसान की रूह से है और इसे आहिस्ता आहिस्ता तरबियत के इलल व अवामिल के ज़रिये इंसान के वुजूद में उतरना चाहिए।

इसमें कोई शक नही है कि इंसान में इस जज्बे को पैदा करने के लिए सबसे पहली दर्सगाह घर का माहौल है। कुछ घरों में एक खास नज़्म व ज़ब्त पाया जाता है ,उनमें सोने जागने ,खाने पीने और दूसरे तमाम कामों का वक़्त मुऐयन है। जाहिर है कि घर का यह नज़्म व ज़ब्त ही बच्चे को नज़्म व निज़ाम सिखाता है। इस बिना पर माँ बाप नज़्म व निज़ाम के उसूल की रिआयत करके ग़ैरे मुस्तक़ीम तौर पर अपने बच्चों को नज़्म व इनज़ेबात का आदी बना सकते हैं।

सबसे हस्सास नुक्ता यह है कि बच्चों को दूसरों की मदद की ज़रूरत होती है। यानी माँ बाप उन्हें नींद से बेदार करें और दूसरे कामों में उनकी मदद करें। लेकिन यह बात बग़ैर कहे ज़ाहिर है कि उनकी मदद करने का यह अमल उनकी उम्र बढ़ने के साथ साथ ख़त्म हो जाना चाहिए। क्योंकि अगर उनकी मदद का यह सिलसिला चलता रहा तो वह बड़े होने पर भी दूसरों की मदद के मोहताज रहेंगे। इस लिए कुछ कामों में बच्चों की मदद करनी चाहिए और कुछ में नही ,ताकि वह अपने पैरों पर खड़ा होना सीखें और हर काम में दूसरों की तरफ़ न देखें।

माँ बाप को इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि बच्चों का बहुत ज़्यादा लाड प्यार भी उन्हे बिगाड़ने और खराब करने का एक आमिल बन सकता है। इससे आहिस्ता आहिस्ता बच्चों में अपने काम को दूसरों के सुपुर्द करने का जज़्बा पैदा हो जायेगा फिर वह हमेशा दूसरों के मोहताज रहेंगे। ज़िमनन इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि नज़्म व निज़ाम एक वाक़ियत हैं लेकिन इसका दायरा बहुत वसीअ है। एक मुनज़्ज़म इंसान इस निज़ाम को अपने पूरे वुजूद में उतार कर अपनी रूह ,फ़िक्र ,आरज़ू और आइडियल सबको निज़ाम दे सकता है। इस बिना पर एक मुनज़्ज़म इंसान इस हस्ती की तरह अपने पूरे वुजूद को निज़ाम में ढाल सकता है।

निज़ाम की कितनी ज़्यादा अहमियत है इसका अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपनी उम्र के सबसे ज़्यादा बोहरानी हिस्से यानी शहादत के वक़्त नज़्म की रिआयत का हुक्म देते हुए फ़रमाया है।

اوصيكم بتقوى الله و نظم امركم

तुम्हें तक़वे व नज़्म की दावत देता हूँ।

अरबी अदब के क़वाद की नज़र से कलमा ए अम्र की ज़मीर की तरफ़ इज़ाफ़त इस बात की हिकायत है कि नज़्म तमाम कामों में मनज़ूरे नज़र है ,न सिर्फ़ आमद व रफ़्त में। क्योंकि उलमा का यह मानना है कि जब कोई मस्दर ज़मीर की तरफ़ इज़ाफ़ा होता है तो उमूम का फ़ायदा देता है। इस सूरत में मतलब यह होगा कि तमाम कामों में नज़्म की रिआयत करो। यानी सोने ,जागने ,इबादत करने ,काम करने और ग़ौर व फ़िक्र करने वग़ैरा तमाम कामों में नज़्म होना चाहिए।

इस्लाम में नज़्म व निज़ाम की अहमियत

इस्लाम नज़्म व इन्ज़ेबात का दीन है। क्योंकि इस्लाम की बुनियाद इंसान की फ़ितरत पर है और इंसान का वुजूद नज़्म व इन्ज़ेबात से ममलू है इस लिए ज़रूरी है कि इंसान के लिए जो दीन व आईन लाया जाये उसमे नज़्म व इन्ज़ेबात पाया जाता हो। मिसाल के तौर पर मुसलमान की एक ज़िम्मेदारी वक़्त की पहचान है। यानी किस वक़्त नमाज़ शुरू करनी चाहिए ?किस वक़्त खाने को तर्क करना चाहिए ?किस वक़्त इफ़्तार करना चाहिए ?कहाँ नमाज़ पढ़नी चाहिए और कहाँ नमाज़ नही पढ़नी चाहिए ?कहाँ नमाज़ चार रकत पढ़नी चाहिए कहाँ दो रकत ?इसी तरह नमाज़ पढ़ते वक़्त कौनसे कपड़े पहनने चाहिए और कौन से नही पहनने चाहिए ?यह सब चीज़ें इंसान को नज़्म व इन्ज़ेबात से आशना कराती हैं।

इस्लाम में इस बात की ताकीद की गई है और रग़बत दिलाई गई है कि मुसलमानों को चाहिए कि अपनी इबादतों को नमाज़ के अव्वले वक़्त में अंजाम दें।

हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने अपने बेटे को अव्वले वक़्त नमाज़ पढ़ने की वसीयत की।

انه قال يا بنى اوصك با لصلوة عند وقتها

ऐ मेरे बेटे नमाज़ को नमाज़ के अव्वले वक़्त में पढ़ना।

ज़ाहिर है कि फ़राइज़े दीने (नमाज़े पनजगाना) को अंजाम देने का एहतेमाम इंसान में तदरीजी तौर पर इन्ज़ेबात का जज़्बा पैदा करेगा।

ऊपर बयान किये गये मतालिब से यह बात सामने आती है कि पहली मंज़िल में जज़्बा ए नज़्म व इन्ज़ेबात माँ बाप की तरफ़ से बच्चों में मुन्तक़िल होना चाहिए। ज़ाहिर है कि स्कूल का माहौल भी बच्चों में नज़्म व इन्ज़ेबात का जज़्बा पैदा करने में बहुत मोस्सिर है। स्कूल का प्रंसिपिल और मास्टर अपने अख़लाक़ व किरदार के ज़रिये शागिर्दों में नज़्म व इन्ज़ेबात को अमली तौर पर मुन्तक़िल कर सकते हैं। इसको भी छोड़िये ,स्कूल का माहौल अज़ नज़रे टाइम टेबिल ख़ुद नज़्म व ज़ब्त का एक दर्स है। शागिर्द को किस वक़्त स्कूल में आना चाहिए और किस वक़्त सकूल से जाना चाहिए ?स्कूल में रहते हुए किस वक़्त कौनसा दर्स पढ़ना चाहिए ?किस वक़्त खेलना चाहिए ?किस वक़्त इम्तेहान देना चाहिए ?किस वक़्त रजिस्ट्रेशन कराना चाहिए ?यह सब इन्ज़ेबात सिखाने के दर्स हैं।

ज़ाहिर है कि बच्चों और शागिर्दों नज़्म व इन्ज़ेबात का जज़्बा पैदा करने के बारे में माँ बाप और उस्तादों की सुस्ती व लापरवाही जहाँ एक ना बख़शा जाने वाला गुनाह हैं वहीँ बच्चों व जवानों की तालीम व तरबियत के मैदान में एक बड़ी ख़ियानत भी है। क्योंकि जो इंसान नज़्म व इन्ज़ेबात के बारे में नही जानता वह ख़ुद को इजतेमाई ज़िन्दगी के मुताबिक़ नही ढाल सकता। इस वजह से वह शर्मिन्दगी के साथ साथ मजबूरन बहुत से माद्दी व मानवी नुक़्सान भी उठायेगा।