इस्लाम में क़ुरआन

इस्लाम में क़ुरआन25%

इस्लाम में क़ुरआन लेखक:
: मौलाना सैय्यद एजाज़ हुसैन मूसावी
कैटिगिरी: मफ़ाहीमे क़ुरआन

इस्लाम में क़ुरआन
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इस्लाम में क़ुरआन

इस्लाम में क़ुरआन

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


1

मुसलमानो के दरमियान क़ुरआने मजीद की क्या अहमियत है ?

अ. क़ुरआने मजीद ज़िन्दगी के मजमूई प्रोग्राम की ज़मानत देता है।

आ. क़ुरआने मजीद नबुव्वत की सनद है।

अ. क़ुरआने मजीद इंसानी ज़िन्दगी के मजमूई प्रोग्राम की ज़मानत देता है।

चुँकि दीने इस्लाम जो हर दूसरे दीन व मज़हब से बढ़ कर इंसानी ज़िन्दगी की सआदत और ख़ुशहाली की ज़मानत देता है ,क़ुरआने मजीद के ज़रिये ही मुसलमानों तक पहुचा है। इसी तरह इस्लाम के दीनी उसूल जो ईमानी ,ऐतेक़ादी ,अख़लाक़ी और अमली क़वानीन की कड़ियाँ है ,उन सब की बुनियाद क़ुरआने मजीद है। अल्लाह तआला फ़रमाता है: इसमें शक नही कि यह किताब क़ुरआने मजीद उस राह की हिदायत करता है जो सबसे ज़्यादा सीधी है। (सूरह बनी इसराईल आयत 9)और फिर फ़रमाता है: और हमने तुम पर किताब (क़ुरआने मजीद) नाज़िल की हर चीज़ को वाजे़ह तौर पर बयान करती है और उस पर रौशनी डालती है।

(सूरह नहल आयत 89)

पस वाज़ेह है कि क़ुरआने मजीद में दीनी अक़ाइद के उसूल ,अख़लाक़ी फ़ज़ाइल और अमली क़वानीन का मजमूआ बहुत ज़्यादा आयात में बयान किया गया है कि उन आयतों को यहाँ दर्ज करने की ज़रुरत नही है।

दूसरा मुफ़स्सल बयान

मुनदरजा बाला चंद तफ़सीलात में ग़ौर करने के बाद इंसानी ज़िन्दगी के प्रोग्रामों पर मबनी जो क़ुरआने मजीद में लिखे हुए है ,उनके हक़ीक़ी मअना को अच्छी तरह समझा जा सकता है।

1.इंसान अपनी ज़िन्दगी में कामयाबी ,ख़ुशहाली और सआदत के अलावा और कोई मक़सद नही रखता। (ख़ुशहाली और सआदत ज़िन्दगी की एक ऐसी सूरत है कि इंसान हमेशा उस की ख़्वाहिश और आरज़ू रखता है जैसे आज़ादी ,फ़लाह व बहबूद और ज़रिया ए मआश में ज़ियादती वग़ैरह)

और कभी कभी ऐसे अशख़ास नज़र आते हैं जो अपनी सआदत और ख़ुशहाली को नज़र अंदाज़ कर देते हैं जैसे बाज़ औक़ात एक शख़्स ख़ुदकुशी करके अपनी ज़िन्दगी को ख़त्म कर लेता है या ज़िन्दगी की दूसरी लज़्ज़तों को चश्मपोशी कर लेता है ,अगर ऐसे लोगों की रूही हालत पर ग़ौर करें तो देखेगें कि यह लोग अपनी फिक्र और नज़रिये के मुताबिक़ ख़ास वुजूहात में ज़िन्दगी की सआदत को परखते और जाँचते हैं और उनही वुजूहात और अनासिर में सआदत समझते हैं। जैसे जो शख़्स ख़ुदकुशी करता है वह ज़िन्दगी की सख़्तियों और मुसीबतों की वजह से अपने आप को मौत के मुँह में तसव्वुर करते हैं और जो कोई ज़ोहद व रियाज़त में मशग़ूल हो कर ज़िन्दगी की लज़्ज़तों को अपने लिये हराम कर लेता है वह अपने नज़िरये और तरीक़े में ही ज़िन्दगी की सआदत को महसूस करता है।

पस हर इंसान अपनी ज़िन्दगी में सआदत और कामयाबी को हासिल करने के लिये जिद्दो जहद करता है ख़्वाह वह अपनी हक़ीक़ी सआदत की तशख़ीस में ठीक हो या ग़लत।

2.इंसानी ज़िन्दगी की जिद्दो जहद हरगिज़ प्रोग्राम के बग़ैर अमल में नही आती ,यह बिल्कुल वाज़ेह और साफ़ मसला है और अगर किसी वक़्त यह मसला इंसान की नज़रों से छिपा रहता है तो वह बार बार की तकरार की वजह से है ,क्योकि एक तरफ़ तो इंसान अपनी ख़्वाहिश और अपने इरादे के मुताबिक़ काम करता है और जब तक मौजूदा वुजूहात के मुताबिक़ किसी काम को ज़रुरी नही समझते उसको अंजाम नही देता यानी किसी काम को अपने अक़्ल व शुऊर के हुक्म से ही करता है और जब तक उसकी अक़्ल और उसका ज़मीर इस काम की इजाज़त नही देते ,उस काम को शुरु नही करता ,लेकिन दूसरी तरफ़ जिन कामों को अपने लिये अंजाम देता है उनसे मक़सद अपनी ज़रुरियात को पूरा करना होता है लिहाज़ा उसके किरदार व अफ़आल में ब राहे रास्त एक ताअल्लुक़ होता है।

खाना ,पीना ,सोना ,जागना ,उठना ,बैठना ,जाना ,आना वग़ैरह सब काम एक ख़ास अंदाज़े और मौक़ा महल के मुताबिक़ अंजाम पाते हैं। कहीं यह काम ज़रुरी होते हैं और कहीं ग़ैर ज़रुरी। एक वक़्त में मुफ़ीद और दूसरे वक़्त में ज़रर रसाँ या ग़ैर मुफ़ीद। लिहाज़ा हर काम उस अक़्ल व फिक्र और इंसानी शुऊर के ज़रिये अंजाम पाते हैं जो आदमी में मौजूद है। इसी तरह हर छोटा और बड़ा काम उसी कुल्ली प्रोग्राम के मुताबिक़ करता है।

हर इंसान अपने इनफ़ेरादी कामों में एक मुल्क की मानिन्द है जिसके बाशिन्दे मख़्सूस क़वानीन ,रस्मो रिवाज में ज़िन्दगी गुज़ारते हैं और उस मुल्क की मुख़्तार और हाकिम ताक़तों का फ़र्ज़ है कि सबसे पहले अपने किरदार को उस मुल्क के बाशिन्दों के मुताबिक़ बनायें और फिर उनको नाफ़िज़ करें।

एक मुआशरे की समाजी सर गरमियाँ भी इनफ़ेरादी सर गरमियों की तरह होती हैं लिहाज़ा हमेशा की तरह एक तरह के क़वानीन ,आदाब व रुसूम और उसूल जो अकसरियत के लिये क़ाबिले क़बूल हों ,उस समाज में हाकिम होने चाहिये। वर्ना समाज के अजज़ा अफ़रा तफ़री और हरज व मरज के ज़रिये बहुत थोड़ी मुद्दत में दरहम बरहम हो जायेगें।

बहरहाल अगर समाज मज़हबी हो तो हुकूमत भी अहकामे मज़हब के मुताबिक़ होगी और अगर समाज ग़ैर मज़हबी और मुतमद्दिन होगा तो उस समाज की सारी सर गरमियाँ क़ानून के तहत होगीं। अगर समाज ग़ैर मज़हबी और ग़ैर मुतमद्दिन होगा तो उसके लिये मुतलक़ुल एनानऔर आमेराना हुकूमत ने जो क़ानून बना कर उस पर ठूँसा होगा या समाज में पैदा होने वाली रस्म व रिवाज और क़िस्म क़िस्म के अक़ाइद के मुताबिक़ ज़िन्दगी बसर करेगा।

पस हर हाल में इंसान अपनी इनफ़ेरादी और समाजी सर गरमियों में एक ख़ास मक़सद रखने के लिये नागुज़ीर है लिहाज़ा अपने मक़सद को पाने के लिये मुनासिब तरीक़ा ए कार इख़्तियार करने और प्रोग्राम के मुताबिक़ काम करने से हरगिज़ बेनियाज़ नही हो सकता।

क़ुरआने मजीद भी इस नज़रिये की ताईद व तसदीक़ फ़रमाता है: तुम में से हर शख़्स के लिये एक ख़ास मक़सद है जिसके पेशे नज़र काम करते हो पस हमेशा अच्छे कामों में एक दूसरे से बढ़ चढ़ कर कोशिश करो ता कि अपने आला मक़सद को हासिल कर सको।

(सूरह बक़रा आयत 148)

बुनियादी तौर पर क़ुरआने मजीद में दीन का मतलब तरीक़ा ए ज़िन्दगी है और मोमिन व काफ़िर हत्ता कि वह लोग जो ख़ालिक़ (ख़ुदावंद) के मुकम्मल तौर पर मुन्किर हैं वह भी दीन के बग़ैर नही रह सकते हैं क्योकि इंसानी ज़िन्दगी एक ख़ास तरीक़े के बग़ैर नही रह सकती ख़्वाह वह तरीक़ा नबुव्वत और वही की तरफ़ से हो या बनावटी और मसनुई क़ानून के मुताबिक़ ,अल्लाह तआला उन सितमगारों के बारे में जो ख़ुदाई दीन से दुश्मनी रखते हैं और किसी भी तबक़े से ताअल्लुक़ रखते हों फ़रमाता हैं:

जो ख़ुदा की राह से लोगों को हटाते और रोकते हैं और उसमें जो फ़ितरी ज़िन्दगी की राह है (ख़्वाह मख़ाह) उसको तोड़ मोड़ कर अपने लिये अपनाते हैं। (सूरह आराफ़ आयत 45)

3.ज़िन्दगी का बेहतरीन और हमेशगी तरीक़ वह है जिसकी तरफ़ इंसानी फ़ितरत रहनुमाई करे ,न वह कि जो एक फ़र्द या समाज के अहसासात से पैदा हुआ हो। अगर फ़ितरत के हर एक ज़ुज़ का गहरा और बग़ौर मुतालआ करें तो मालूम होगा कि हर ज़ुज़ ज़िन्दगी का एक मक़सद और ग़रज़ व ग़ायत लिये हुए है जो अपनी पैदाईश से लेकर उस ख़ास मक़सद की तरफ़ मुतवज्जे है और अपने मक़सद को पाने के लिये नज़दीक तरीन और मुनासिब तरीन राह की तलाश में है ,यह ज़ुज़ अपने अंदरुनी और बेरुनी ढाँचें में एक ख़ास साज़ व सामान से आरास्ता है जो उसके हक़ीक़ी मक़सूद और गुनागूँ सर गरमियों का सर चश्मा शुमार होता है। हर जानदार और बेजान चीज़ फ़ितरत की यही रवय्या और तरीक़ा कार फ़रमा है।

जैसे गेंहू का पौधा अपनी पैदाईश के पहले दिन से ही जब वह मिट्टी से अपनी सर सब्ज़ और हरी भरी पत्ती के साथ दाने से बाहर निकलता है तो वह (शुरु से ही) अपनी फ़ितरत की तरफ़ मुतवज्जे होता है यानी यह कि वह एक ऐसे पौधा है जिसके कई ख़ोशे हैं और अपनी फ़ितरी ताक़त के साथ उनसुरी अजज़ा को ज़मीन और हवा से ख़ास निस्बत से हासिल करता है और अपने वुजूद की हिस्सा बनाते हुए दिन ब दिन बढ़ता और फैलता रहता है और हर रोज़ अपनी हालत को बदलता रहता है। यहाँ तक कि एक कामिल पौधा बन जाता है जिसकी बहुत सी शाख़ें और ख़ोशे होते हैं फिर उस हालत को पहुच कर अपनी रफ़तार और तरक़्क़ी को रोक लेता है।

एक अख़रोट के पेड़ का भी ब ग़ौर मुतालआ करें तो मालूम होगा कि वह भी अपनी पैदाईश के दिन से लेकर एक ख़ास मक़सद और हदफ़ की तरफ़ मुतवज्जे है यानी यह कि वह एक अखरोट का पेड़ है जो तनू मंद और बड़ा है लिहाज़ा अपने मक़सद तक पहुचने के लिये अपने ख़ास और मुनासिब तरीक़े से ज़िन्दगी की राह को तय करता है और उसी तरह अपनी ज़रुरियाते ज़िन्दगी को पूरा करता हुआ अपने इंतेहाई मक़सद की तरफ़ बढ़ता रहता है। यह पेड़ गेंहू के पौधे का रास्ता इख़्तियार नही करता जैसा कि गेंहू का पौधा भी अपने मक़सद को हासिल करने में अख़रोट के पेड़ का रास्ता इख़्तियार नही करता।

तमाम कायनात और मख़लूक़ात जो इस ज़ाहिरी दुनिया को बनाती है। उसी क़ानून के तहत अमल करती हैं और कोई वजह नही है कि इँसान इस क़ानून और क़ायदे से मुसतसना हो। (इंसान अपनी ज़िन्दगी में जो मक़सद और ग़रज़ व ग़ायत रखता हो उसकी सआदत उसी मक़सद को पाने के लिये है और वह अपने मुनासिब साज़ व सामान के साथ अपने हदफ़ तक पहुचने की तगो दौ में मसरुफ़ है।) बल्कि इंसानी ज़िन्दगी के साज़ व सामान की बेहतरीन दलील यह है कि वह भी दूसरी सारी कायनात की तरह एक ख़ास मक़सद रखता है जो उसकी ख़ुश बख़्ती और सआजत की ज़ामिन है और अपने पूरे वसायल और कोशिश के साथ इस राहे सआदत तक पहुचने की जिद्दो जहद करता है।

लिहाज़ा जो कुछ ऊपर अर्ज़ किया गया है वह ख़ास इंसानी फ़ितरत और आफ़रिनिशे जहान के बारे में है कि इंसान भी सी कायनात का एक अटूट अंग है। यही चीज़ इँसान को उसकी हक़ीक़ी सआदत की तरफ़ रहनुमाई करती है। इसी तरह सबसे अहम पायदार और मज़बूत क़वानीन जिन पर चलना ही इंसानी सआदत की ज़मानत है ,इँसान की रहनुमाई करते हैं।

गुज़श्ता बहस की तसदीक़ में अल्लाह तआला फ़रमाता है:

हमारा परवरदिगार वह है जिसने हर चीज़ और हर मख़्लूक़ को एक ख़ास सूरत (फ़ितरत) अता फ़रमाई ,फिर हर चीज़ को सआदत और ख़ास मक़सद की तरफ़ रहनुमाई की।

(सूरह ताहा आयत 50)

फिर फ़रमाता है:

वह ख़ुदा जिसने मख़्लूक़ के अजज़ा के जमा करके (दुनिया को) बनाया और वह ख़ुदा जिसने हर चीज़ का ख़ास अंदाज़ मुक़र्रर किया ,फिर उसको हिदायत फ़रमाई। (सूरह आला आयत 2,3)

फिर फ़रमाता है:

क़सम अपने नफ़्स की और जिसने उसको पैदा किया और फिर उसने नफ़्स को बदकारी और परहेज़गारी का रास्ता बताया। जिस शख़्स ने अपने नफ़्स की अच्छी तरह परवरिश की ,उसने निजात हासिल की और जिस शख़्स ने अपने नफ़्स को आलूदा किया वह तबाह व बर्बाद हो गया।

(सूरह शम्स आयत 7,10)

फ़िर ख़ुदा ए तआला फ़रमाता है: अपने (रुख़) आपको दीन पर उसतुवार कर ,पूरी तवज्जो और तहे दिल से दीन को क़बूल कर ,लेकिन ऐतेदाल पसंदी को अपनी पेशा बना और इफ़रात व तफ़रीत से परहेज़ कर ,यही ख़ुदा की फ़ितरत है और ख़ुदा की फ़ितरत में तब्दीली पैदा नही होती। यही वह दीन है जो इंसानी ज़िन्दगी का इंतेज़ाम करने की ताक़त रखता है। (मज़बूत और बिल्कुल सीधा दीन है।) (सूरह रुम आयत 30)

फिर फ़रमाता है:

दीन और ज़िन्दगी का तरीक़ा ख़ुदा के सामने झुकने में ही है। उसके इरादे के सामने सरे तसलीम को ख़म करने है यानी उसकी कुदरत और फ़ितरत के सामने जो इंसान को एक ख़ास क़ानून की तरफ़ दावत देता है।

(सूरह आले इमरान आयत 19)

और दूसरी जगह फ़रमाता है:

जो कोई दीने इस्लाम के बग़ैर यानी ख़ुदा के इरादे के बग़ैर किसी और दीन की तरफ़ रुजू करे तो उसका वह दीन या तरीक़ा हरगिज़ क़ाबिले क़बूल नही होगा। (सूरह आले इमरान आयत 85)

मुनदरेजा बाला आयत और ऐसी ही दूसरी आयात जो इस मज़मून की मुनासेबत में नाज़िल हुई है उनका नतीजा यह है कि ख़ुदा ए तआला अपनी हर मख़लूक़ और मिन जुमला इंसान को एक ख़ास सआदत और फ़ितरी मक़सद की तरफ़ यानी अपनी फ़ितरत की तरफ़ रहनुमाई करता है और इंसानी ज़िन्दगी के लिये हक़ीक़ी और वाक़ई रास्ता वही है जिसकी तरफ़ उस (इंसान) की ख़ास फ़ितरत दावत करती है लिहाज़ा इंसान अपनी फ़रदी और समाजी ज़िन्दगी में क़वानीन पर कारबंद है क्यो कि एक हक़ीक़ी और फ़ितरी इंसान की तबीयत उसी की तरफ़ रहनुमाई करती है न कि ऐसे इंसानो को जो हवा व हवस और नफ़्से अम्मारा से आलूदा हों और अहसासात के सामने दस्त बस्ता असीर हों।

फ़ितरी दीन का तक़ाज़ा यह है कि इंसानी वुजूद का निज़ाम दरहम बरहम न होने पाए और हर एक (जुज़) को हक़ बखूबी अदा हो लिहाज़ा इंसानी वुज़ूद में जो मुख़्तलिफ़ और मुताज़ाद निज़ाम जैसे मुख़्तलिफ़ अहसासाती ताक़तें अल्लाह तआला ने बख़्शी हैं वह मुनज़्ज़म सूरत में मौजूद हैं ,यह सब क़ुव्वतें एक हद तक दूसरे के लिये मुज़ाहिमत पैदा न करें ,उनको अमल का इख़्तियार दिया गया है।

और आख़िर कार इंसान के अंदर अक़्ल की हुकूमत होनी चाहिये न कि ख़्वाहिशाते नफ़्सानी और अहसासात व जज़्बात का ग़लबा और समाज में इंसानों के हक़ व सलाग पर मबनी हुकूमत क़ायम हो न कि एक आमिर और ताक़तवर इंसान की ख़्वाहिशात और हवा व हवस के मुताबिक़ और नही अकसरियत अफ़राद की ख़्वाहिशात के मुताबिक़ ,अगरचे वह हुकूमत एक जमाअत या गिरोह की सलाह और हक़ीक़ी मसलहत के ख़िलाफ़ ही क्यो न हो।

मुनजरेजा बाला बहस से एक और नतीजा अख़्ज़ किया जा सकता है और वह यह है कि तशरीई (शरअन व क़ानूनन) लिहाज़ से हुकूमत सिर्फ़ अल्लाह की है और उसके बग़ैर हुकूमत किसी और की हक़ नही है।

सरवरी ज़ेबा फ़क़त उस ज़ाते बे हमता को है

हुक्म राँ है एक वही बाक़ी बुताने आज़री (इक़बाल)

कि फ़रायज़ ,क़वानीन ,शरई क़वानीन बनाए या तअय्युन करे ,क्योकि जैसा कि पहले बयान किया जा चुका है सिर्फ़ नही क़वानीन और क़वाइद इंसानी ज़िन्दगी के लिये मुफ़ीद हैं जो उसके लिये फ़ितरी तौर पर मुअय्यन किये गये हों यानी अंदरुनी या बेरुनी अनासिर व अवामिल और इलल इंसान को उन फ़रायज़ की अंजाम दही की दावत करें और उसको मजबूर करें जैसे उनके अंजाम देने में ख़ुदा का हुक्म शामिल हो क्यो कि जब हम कहते हैं कि ख़ुदा वंदे आलम इस काम को चाहता है तो इसका मतलब यह है कि अल्लाह तआला ने इस काम को अंजाम देने का तमाम शरायत और वुजूहात को पहले से पैदा किया हुआ है लेकिन कभी कभी यह वुजूहात और शरायत ऐसी होती हैं कि किसी चीज़ की जबरी पैदाईश की मुजिब और सबब बन जाती है जैसे रोज़ाना क़ुदरती हवादिस का वुजूद में आना और इस सूरत में ख़ुदाई इरादे को तकवीनी इरादा कहते हैं और कभी यह वुजुहात व शरायत इस क़िस्म की हैं कि इंसान अपने अमल को इख़्तियार और आज़ादी के साथ अंजाम देता है जैसे खाना ,पीना वग़ैरह और इस सूरत में उस अमल को तशरीई इरादा कहते हैं। अल्लाह तआला अपने कलाम में कई जगह पर इरशाद फ़रमाता है:

ख़ुदा के सिवा कोई और हाकिम नही है और हुकूमत सिर्फ़ अल्लाह के वास्ते हैं।

(सूरह युसुफ़ आयत 40, 67)

इस तमहीद के वाज़ेह हो जाने के बाद जान लेना चाहिये कि क़ुरआने मजीद इन तीन तमहीदों के पेशे नज़र कि इंसान अपनी ज़िन्दगी में एक ख़ास मक़सद और ग़रज़ व ग़ायत रखता है। (यानी ज़िन्दगी की सआदत) जिसको अपनी पूरी ज़िन्दगी में हासिल करने के लिये जिद्दो जेहद और कोशिश करता है और यह कोशिश बग़ैर किसी प्रोग्राम के नतीजे में नही होगी। लिहाज़ा उस प्रोग्राम को भी ख़ुदा की किताबे फ़ितरत और आफ़रिनिश में ही पढ़ना चाहिये। दूसरे लफ़्ज़ों में उसको ख़ुदाई तालीम के ज़रिये ही सीखा जा सकता है।

क़ुरआने मजीद ने उन तमहीदों के पेशे नज़र इंसानी ज़िन्दगी के प्रोग्राम की बुनियाद इस तरह रखी है:

क़ुरआने मजीद ने अपने प्रोग्राम की बुनियाद ख़ुदा शिनासी पर रखी है और इसी तरह मा सिवलल्लाह से बेगानगी को शिनाख़्ते दीन की अव्वलीन बुनियाद क़रार दिया है।

इस तरह ख़ुदा को पहचनवाने के बाद मआद शिनासी (रोज़े क़यामत पर ऐतेक़ाद जिस दिन इंसान के अच्छे बुरे कामों का बदला और एवज़ दिया जायेगा।) का नतीजा हासिल होता है और उसको एक दूसरा उसूल बनाया। उसके बाद मआद शिनासी से पैयम्बर शिनासी का नतीजा हासिल किया ,क्योकि अच्छे और बुरे कामों का बदला ,वही और नबूवत के ज़रिये इताअत ,गुनाह ,नेक व बद कामों के बारे में पहले से बयान शुदा इत्तेला के बग़ैर नही दिया जा सकता ,जिसके बारे में आईन्दा सफ़हात में रौशनी डालेगें।

इस मसले को भी एक अलग उसूल के ज़रिये बयान फ़रमाया ,मुनजरजा बाला तीन उसूलों यानी मा सिवलल्लाहा की नफ़ी पर ईमान ,नबूवत पर ऐतेक़ाद और मआद पर ईमान को दीने इस्लाम के उसूल में कहा है।

उसेक बाद दूसरे दर्जे पर अख़लाक़े पसंदीदा और नेक सिफ़ात जो पहले तीन उसूलों के मुनासिब हों और एक हक़ीक़त पसंद और बा ईमान इंसान को उन सिफ़ाते हमीदा से मुत्तसिफ़ और आरास्ता होना चाहिये ,बयान फ़रमाया। फिर अमली क़वानीन जो दर अस्ल हक़ीक़ी सआदत के ज़ामिन और अख़लाक़े पसंदीदा को जन्म दे कर परवरिश देते हैं बल्कि उस से बढ़ कर हक़ व हक़ीक़त पर मबनी ऐतेकादात और बुनियादी उसूलों को तरक़्क़ी व नश व नुमा देते हैं ,उनकी बुनियाद डाली और उसके बारे में वज़ाहत फ़रमाई।

क्योकि शख़्स जिन्सी मसायल या चोरी ,ख़यानत ,ख़ुर्द बुर्द और धोखे बाज़ी में हर चीज़ को जायज़ समझता है उससे किसी क़िस्म की पाकीज़गी ए नफ़्स जैसी सिफ़ात की हरगिज़ तवक़्क़ो नही रखी जा सकती या जो शख़्स माल व दौलत जमा करने का शायक़ और शेफ़ता है और लोगों के माली हुक़ूक़ और क़र्ज़ों की अदायगी की तरफ़ हरगिज़ तवज्जो नही करता। वह कभी सख़ावत की सिफ़त से मुत्तसिफ़ नही हो सकता या जो शख्स ख़ुदा तआला की इबादत नही करता और हफ़्तो बल्कि महीनों तक ख़ुदा की याद से ग़ाफ़िल रहता है वह कभी ख़ुदा और रोज़े क़यामत पर ईमान और ऐसे ही एक आबिद की सिफ़ात रखने से क़ासिर है।

पस पसंदीदा अख़लाक़ ,मुनासिब आमाल व अफ़आल के सिलसिले से ही ज़िन्दा रहते हैं। चुनाँचे पसंदीदा अख़लाक़ ,बुनियादी ऐतेक़ादात की निस्बत यही हालत रखते हैं जैसे जो शक़्स किब्र व गुरुर ,ख़ुद ग़रज़ी और ख़ुद पसंदी के सिवा कुछ नही जानता तो उससे ख़ुदा पर ऐतेक़ाद और मक़ामे रुबूबियत के सामने ख़ुज़ू व ख़ुशू की तवक़्क़ो नही रखी जा सकती। जो शख़्स तमाम उम्र इंसाफ़ व मुरव्वत और रहम व शफ़क़त व मेहरबानी के मअना से बेखबर रहा है वह हरगिज़ रोज़े क़यामत सवाल व जवाब पर ईमान नही रख सकता।

ख़ुदा वंदे आलम ,हक़्क़ानी ऐतेक़ादात और पसंदीदा अख़लाक़ के सिलसिले में ख़ुद ईमान और ऐतेक़ाद से वाबस्ता है ,इस तरह फ़रमाता है:

ख़ुदा वंदे तआला पर पुख़्ता और पाक ईमान बढ़ता ही रहता है और अच्छे कामों को वह ख़ुद बुलंद फ़रमाता है यानी ऐतेकादात को ज़्यादा करने में मदद करता है।

(सूरह फ़ातिर आयत 10)

और ख़ुसूसन अमल पर ऐतेक़ाद के सिलसिले में अल्लाह तआला यूँ फ़रमाता है:

उसके बाद आख़िर कार जो लोग बुरे काम करते थे उनका काम यहाँ तक आ पहुचा कि ख़ुदा की आयतों को झुटलाते थे और उनके साथ मसख़रा पन करते थे।

(सूरह रुम आयत 10)

क़ुरआने मजीद हक़ीक़ी इस्लाम की बुनियादों को तीन हिस्सों में तक़सीम करता है

मुख़तसर यह कि क़ुरआने मजीद हक़ीक़ी इस्लाम की बुनियादों को कुल्ली तौर पर मुनजरता ज़ैल तीन हिस्सों में तक़सीम करता है:

1.इस्लामी उसूल व अक़ायद जिन में दीन के तीन उसूल शामिल हैं: यानी तौहीद ,नबूवत और क़यामत और इस क़िस्म के दूसरे फ़रई अक़ायद जैसे लौह ,कज़ा ,क़दर ,मलायका ,अर्श ,कुर्सी ,आसमान व ज़मीन की पैदाईश वग़ैरह।

2.पसंदीदा अख़लाक़

3.शरई अहकाम और अमली क़वानीन जिनके मुतअल्लिक़ क़ुरआने मजीद ने कुल्ली तौर पर बयान फ़रमाया है और उनकी तफ़सीलात और ज़ुज़ईयात को पैग़म्बरे अकरम (स) ने बयानात या तौज़ीहात पर छोड़ दिया है और पैग़म्बरे अकरम (स) ने भी हदीसे सक़लैन के मुताबिक़ जिस पर तमाम इस्लामी फ़िरक़े मुत्तफ़िक़ हैं और मुसलसल उन अदाहीस को नक़्ल करते रहे हैं ,अहले बैत (अ) को अपना जानशीन बनाया है।[ 1]

ब. क़ुरआने मजीद नबूवत की सनद है।

क़ुरआने मजीद चंद जगह वज़ाहत से बयान फ़रमाता है कि यह (क़ुरआन) ख़दा का कलाम है यानी यह किताब उनही मौजूदा अल्फ़ाज़ के साथ अल्लाह तआला की तरफ़ से नाज़िल हुई है और पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने भी इनही अल्फ़ाज़ में इसको बयान फ़रमाया है।

इस मअना को साबित करने के लिये कि क़ुरआने मजीद ख़ुदा का कलाम है और किसी इंसान का कलाम नही ,बार बार बहुत ज़्यादा आयाते शरीफ़ा में इस मौज़ू पर ज़ोर दिया गया है और क़ुरआने मजीद को हर लिहाज़ से एक मोजिज़ा कहा गया है जो इंसानी ताक़त और तवानाई से बहुत बरतर है।

जैसा कि ख़ुदा ए तआला इरशाद फ़रमाता है:

या कहते हैं कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने ख़ुद क़ुरआन को बना (घड़) कर उसे ख़ुदा से मंसूब कर दिया है ,यही वजह है कि वह उस पर ईमान नही लाते। पस अगर वह ठीक कहते हैं तो उस (क़ुरआन) की तरह इबादत का नमूना लायें (बनायें)।

(सूरह तूर आयत 33, 34)

और फिर फ़रमाता है:

ऐ रसूल कह दो कि अगर (सारे जहान के) आदमी और जिन इस बात पर इकठ्ठे और मुत्तफ़िक़ हों कि क़ुरआन की मिस्ल ले आयें तो (नामुम्किन) उसके बराबर नही ला सकते अगरचे (उस कोशिश में) वह एक दूसरे की मदद भी करें।

(सूरह बनी इसराईल आयत 88)

और फिर फ़रमाता है:

क्या यह लोग कहते हैं कि उस शख़्स (तुम) ने उस (क़ुरआन) को अपनी तरफ़ से घड़ लिया है तो तुम उन से साफ़ साफ़ कह दो कि अगर तुम (अपने दावे में) सच्चे हो तो (ज़्यादा नही) ऐसी ही दस सूरतें अपनी तरफ़ से घड़ के ले आओ।

(सूरह हूद आयत 13)

और फिर फ़रमाता है:

आया यह लोग कहते हैं कि इस क़ुरआन को रसूल ने झूट मूठ बना कर ख़ुदा से मंसूब कर दिया है ,पस ऐ रसूल उन से कह दो कि उसकी मानिन्द सिर्फ़ एक ही सूरह लिख कर ले आएँ।

(सूरह युनुस आयत 38)

और फिर (उन लोगों का) पैग़म्बरे अकरम (स) से मुक़ाबला करते हुए फ़रमाता है:

और जो चीज़ (क़ुरआन) हम ने अपने बंदे पर नाज़िल की है अगर तुम्हे उसमें शक व शुब्हा है तो ऐसे इंसान की तरह जो लिखा पढ़ा नही और जाहिलियत के माहौल में उस की नश व नुमा हुई है ,इस तरह का एक क़ुरआनी सूरह लिख कर ले आओ।

(सूरह बक़रा आयत 23)

और फिर इख़्तिलाफ़ और तज़ाद न रखने के मुतअल्लिक़ बराबरी और मुक़ाबला करते हुए फ़रमाया है:

आया यह लोग कुरआन पर ग़ौर नही करते और अगर यह क़ुरआन ख़ुदा के अलावा किसी और की तरफ़ से नाज़िल हुआ होता तो उसमे बहुत ज़्यादा इख़्तिलाफ़ पाये जाते क्योकि इस दुनिया में हर चीज़ में तग़य्युर और तरक़्क़ी पज़ीरी के क़ानून में शामिल है और वह इख़्तिलाफ़ अजज़ा और अहवाल से मुबर्रा नही होती और अगर क़ुरआन इंसान का बनाया हुआ होता तो जैसा कि तेईस साल के अरसे में थोड़ा थोड़ा नाज़िल होता रहा तो यह क़ुरआन) इख़्तिलाफ़ात और तज़ादात से मुबर्रा नही हो सकता था और इस तरह हरगिज़ यकसाँ न होता।

(सूरह निसा आयत 82)

क़ुरआने मजीद जो इन फ़ैसला कुन और पुख़्ता अंदाज़ से ख़ुदा का कलाम होने का ऐलान और उसका सबूत फ़राहम करता है। अव्वल से लेकर आख़िर तक साफ़ तौर पर हज़रत मुहम्मद (स) का अपने रसूल और पैग़म्बर के तौर पर तआरुफ़ कराता है और इस तरह आँ हज़रत (स) के नबूवत की सनद लिखता है। इसी बेना पर कई बार ख़ुदा के कलाम में पैग़म्बरे अकरम को हुक्म दिया जाता है कि अपनी नबूवत व पैग़म्बरी के सबूत में ख़ुदा की शहादत यानी क़ुरआने मजीद की रौ से अपनी नबूवत का ऐलान करें:

ऐ नबी कह दें कि मेरे और तुम्हारे दरमियान ,मेरी नबूवत और पैग़म्बरी के मुतअल्लिक़ ख़ुद ख़ुदा की शहादत काफ़ी है।

(सूरह रअद आयत 43)

एक और जगह (क़ुरआने मजीद) में ख़ुदा वंदे करीम की शहादत के अलावा फ़रिश्तों की शहादत भी है:

लेकिन ख़ुदा वंदे तआला ने जो चीज़ तुझ पर नाज़िल की है उसके मुतअल्लिक़ ख़ुद भी शहादत देता है और फ़रिश्ते भी शहादत देते हैं और सिर्फ़ ख़ुदा वंदे तआला की शहादत काफ़ी है।

(सूरह निसा आयत 166)

क़ुरआने मजीद की तालीम के मुतअल्लिक़

1.क़ुरआने मजीद एक आलमी किताब है।

2.क़ुरआने मजीद एक कामिल और मुकम्मल किताब है।

3.क़ुरआने मजीद ता अबद और हमेशा बाक़ी रहने वाली किताब है।

4.क़ुरआने मजीद अपना आप सुबूत है।

5.क़ुरआने मजीद दो पहलू रखता है ,यानी ज़ाहिरी और बातिनी।

6.क़ुरआने मजीद क्यों ज़ाहिरी और बातिनी दो तरीक़ों से बयान हुआ है ?

7.क़ुरआने मजीद के अहकाम मोहकम और मुतशाबेह हैं।

8.इस्लामी मुफ़स्सेरीन और उलामा की नज़र में मोहकम व मुतशाबेह के क्या मअना हैं। ?

9.क़ुरआने के मोहकम व मुतशाबेह में अहले बैत के तरीक़े।

10.क़ुरआने मजीद में तावील व तंज़ील मौजूद हैं।

11.मुफ़स्सेरीन और उलामा की नज़र में तावील के मअना।

12.क़ुरआने मजीद की रू से तावील के हक़ीक़ी मअना क्या हैं ?

13.क़ुरआने मजीद में नासिख़ व मंसूख़ मौजूद हैं।

14.क़ुरआने मजीद में जरय व इंतेबाक़।

15.क़ुरआने मजीद की तफ़सीर ,उस की पैदाईश और तरक़्क़ी।

16.इल्में तफ़सीर और मुफ़स्सेरीन के तबक़ात।

17.शिया मुफ़स्सेरीन के तरीक़े और उन के तबक़े।

18.ख़ुद क़ुरआने मजीद किस क़िस्म की तफ़सीर को कबूल करता है।

19.नतीजा ए बहस

20.तफ़सीर का नमूना ख़ुद क़ुरआने मजीद की रू से ।

21.पैग़म्बर (स) के बयान और आईम्मा (अ) की नज़र में हुज्जीयत के मअना।

1.क़ुरआने मजीद एक आलमी किताब है।

क़ुरआने मजीद अपने मतालिब में उम्मतों में से एक ख़ास उम्मत जैसे उम्मते अरब या क़बीलों में एक ख़ास क़बीले या गिरोह यानी मुसलमानों से ही मुख़्तस नही है बल्कि क़ुरआने ग़ैर मुसलिम गिरोहों से भी इसी तरह बहस करता है जैसा कि मुसलमानों के हुक्म देता है। क़ुरआने मजीद अपने बहुत ज़्यादा ख़ुतबों में कुफ़्फ़ार ,मुशरेकीन ,अहले किताब ,यहूदियों ,ईसाईयों और बनी इसराईल के बारे में बहस करता है और इन गिरोहों में से हर के साथ ऐहतेजाज करते हुए उनको शिनाख़्ते हक़ीक़ी की तरफ़ दावत देता है। इस तरह क़ुरआने मजीद उन गिरोंहों में से हर गिरोह के साथ ऐहतेजाज करता है और उनको दावत देता है और अपने ख़िताब को उनके अरब होने पर मुख़्तस और महदूद नही करता। चुँनाचे मुश्रिकों और बुत परस्तो के बारे में फ़रमाता है:

पस अगर उन्होने तौबा कर ली और नमाज़ क़ायम की और ज़कात दी तो वह दीन में तुम्हारे भाई हैं।

(सूरह तौबा आयत 11)

और अहले किताब के बारे में यानी यहूदी ,ईसाई और मजूसी जो अहले किताब में शुमार होते हैं। ऐ नबी कह दो कि अहले किताब ख़ुदा के कलाम की तरफ़ लौट आएँ कि हमारे और तुम्हारे दरमियान मसावी तौर पर क़बूल हो जाये। (मसावी तौर पर ख़ुदा के कलाम को क़बूल कर लें) और यह वह है कि ख़ुदा वंदे तआला के सिवा किसी और की परस्तिश न करें और न ही उसका शरीक़ क़रार दें और हम में से बाज़ लोग दूसरी चीज़ों को अपना ख़ुदा न बताएँ।

(सूरह आले इमरान आयत 64)

हम देखते हैं कि हरगिज़ यह नही फ़रमाया कि मुशरेकीने अरब तौबा कर लें और न ही फ़रमाया कि जो अहले किताब अरबी नस्ल से ताअल्लुक़ रखते हों।

हाँ तुलूए इस्लाम के आग़ाज़ में जब कि यह दावत ज़ज़ीरतुल अरब से बाहर नही फ़ैली थी तो फ़ितरी तौर पर क़ुरआनी ख़ुतबात उम्मते अरब ही से मंसूब किये जाते थे लेकिन हिजरत के छ: साल बाद जब यह दावत बर्रे अज़ीम अरब में फैल गई तो उस वक़्त यह ख़्याल बातिल हो गया।

उन आयात के अलावा दूसरी आयात भी हैं जो अवाम को दावते इस्लाम देती हैं जैसे आयते करीमा:

मुझ पर वही नाज़िल हुई है इसलिये कि तुम को नसीहत करुँ और डराऊँ उन लोगों को इस नसीहत और क़ुरआन पर ईमान रखते हैं।

(सूरह अनआम आयत 19)

यह क़ुरआन दुनिया वालों के लिये नसीहत और याद दहानी के अलावा और कोई चीज़ नही है।

(सूरह क़लम आयत 52) (सूरह साद आयत 87)

और आयते करीमा:

बेशक यह आयत बुज़ुर्ग तरीन आयात में से एक है जब कि इंसान को ख़ुदा से डराती है।

(सूरह मुदस्सिर आयत 35, 36)

तारीख़ी लिहाज़ से भी इस्लाम मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब मसलन बुत परस्तों ,यहूदियों ,ईसाईयों और ऐसे ही बाज़ दूसरी उम्मतों के अफ़राद मसलन सलमाने फ़ारसी ,सुहैबे रूमी और बेलाले हबशी जैसी शख़्सीयतों के ज़रिये भी साबित हो चुका है।

2.क़ुरआने मजीद एक कामिल व मुकम्मल किताब है

क़ुरआने मजीद मुकम्मल और कामिल किताब है जो इंसानी मक़ासिद पर मुश्तमिल है और इस मक़सद को कामिल तरीन सूरत में बयान करता है क्योकि इंसानी मक़ासिद जो हक़ीक़त पसंदी से लबरेज़ हैं। मुकम्मल जहान बीनी और अख़लाक़ी उसूल और अमली क़वानीन को ब रुए कार लाने पर मुश्तमिल है जो जहान बीनी के लिये ज़रुरी और लाज़िमी है। अल्लाह तबारक व तआला इस की तारीफ़ में फ़रमाता है:

ऐतेक़ाद और ईमान की हक़ की तरफ़ रहनुमाई करता है और अमल में सिराते मुसतक़ीम की तरफ़।

(सूरह अहक़ाफ़ आयत 30)

फिर एक जगह तौरात और इंजील के ज़िक्र में फ़रमाता है:

हमने तुम पर बरहक़ किताब नाज़िल की कि जो (इससे पहले) इसके वक़्त में मौजूद है उसकी तसद़ीक़ करती है और उसकी निगहबान भी है और फिर क़ुरआने मजीद ने गुज़िश्ता पैग़म्बरों और अंबिया की शरीयतों से मुक़ाबला करते हुए फ़रमाया:

उस (मुहम्मद) ने तुम्हारे लिये दीन का वही तरीक़ा और रास्ता मुक़र्रर किया है जिस (पर चलने) का नूह को हुक्म दिया गया था और (ऐ रसूल) उसकी हमने तुम्हारे पास वही भेजी है और उसी का इब्राहीम और मूसा और ईसा को भी हुक्म दिया गया।

(सूरह शूरा आयत 13)

और फिर जामे तौर पर फ़रमाता है:

हमने यह किताब आहिस्ता आहिस्ता और ब तदरीज तुम पर नाज़िल की और यह किताब हर चीज़ को बयान करती है।

(सूरह नहल आयत 89)

मुनदरजा बाला आयात की नतीजा यह है कि क़ुरआने मजीद दर अस्ल तमाम इलहामी और आसमानी किताबों के मक़ासिद पर मुश्तमल है बल्कि उन से ज़्यादा (मौज़ूआत इसमें आयें हैं।) और हक़ीक़त में हर वह चीज़ कि इंसान अपनी सआदत और ख़ुश क़िस्मती की राह तय करने में इस पर ईमान ,ऐतेक़ाद और अमल करता है और इस चीज़ का मोहताज है। इस किताब में मुकम्मल और कामिल तौर पर बयान किया गया है।

3.क़ुरआने मजीद ता अबद और हमेशा बाक़ी रहने वाली किताब है।

गुज़िश्ता बाब में इस मौज़ू पर जो हमने बहस की है वह इस दावे को साबित करने के लिये काफ़ी है क्योकि वह बयान जो एक मक़सद और मतलब के बारे में मुकम्मल और मुतलक़ है। ऐतेबार और दुरुस्ती के लिहाज़ से एक ख़ास ज़माने में महदूद नही हो सकता और क़ुरआने मजीद अपने बयान को मुकम्मल और मुतलक़ जानता है और कमाल से बढ़ कर कोई और चीज़ नही हो सकती। अल्लाह तआला फ़रमाता है:

क़ुरआन एक क़ाते बयान है जो हक़ और बातिल को आपस में जुदा करता है और इसमें बेहूदा बात और यावा गोई हरगिज़ नही है।

(सूरह तारिक़ आयत 13, 14)

इसी तरह ईमानी और ऐतेक़ादी उलूम भी पाक हक़ीक़त और मुकम्मल वाक़ेईयत होते हैं और अख़लाक़ी उसूल और अमली क़वानीन जो ऊपर बयान किये गये हैं ,उन ही मुस्तक़ित हक़ायक़ के नतीजे की पैदावार हैं और ऐसी चीज़ ज़माने गुज़रने के साथ साथ ना तो मिट सकती है और न ही मंसूख़ की जा सकती है।

अल्लाह तआला फ़रमाता हैं:

हमने क़ुरआने मजीद को हक़ (ठीक) नाज़िल किया और यह भी बिल्कुल हक़ (ठीक) नाज़िल हुआ है (अपने हुदूस व बक़ा में हक़ से अलग नही हुआ है।)

(सूरह बनी इसराईल आयत 105)

और फिर फ़रमाता है:

आया हक़ के अलावा (बग़ैर गुमराही और ज़लालत के सिवा कोई और चीज़ मौजूद है ?(यानी हक़ को छोड़ने के बाद सिवाए गुमराही के और कुछ नही रहता।

(सूरह युनुस आयत 32)

एक और जगह अपने कलामे पाक में तफ़सील से फ़रमाता है:

हक़ीक़त में क़ुरआन बहुत ही अज़ीज़ किताब है जो तमाम अतराफ़ से महफ़ूज़ रखने वाली किताब है यानी हर ज़ुल्म और हमले को अपनी ताक़त से देफ़ा करती है बातिल न ही सामने और न ही पीछे से इस पर हमला कर सकता है यानी न इस वक़्त और न ही आईन्दा मंसूख़ होने वाली किताब नही है।

(सूरह सजदा आयत 42)

अलबत्ता अहकामे क़ुरआनी की हिदायत के बारे में बहुत सी बहसे की जा चुकी हैं और हो सकती हैं लेकिन इस मौज़ू से ख़ारिज हैं क्योकि यहाँ हमारा मक़सद सिर्फ़ मुसलमानों के सामने क़ुरआने मजीद की अहमियत और वक़अत को पहचनवाना है जैसा कि ख़ुद क़ुरआन (अपने बारे में) बयान फ़रमाता है।

4.क़ुरआने मजीद ख़ुद ही अपना सुबूत है।

क़ुरआने मजीद जो कि पुख़्ता कलाम है तमाम मामूली बातों का तरह अपने मअना से मुराद दरयाफ़्त करता है और हरगिज़ अपने बयान और सुबूत में मुबहम नही है ज़ाहिरी दलील की रू से भी क़ुरआने मजीद के तहतुल लफ़्ज़ी मअना उसके अरबी अल्फ़ाज़ से मुताबेक़त रखते हैं और क़ाबिले फ़हमाईश हैं लेकिन यह दावा कि ख़ुद क़ुरआन अपने सुबूत और बयान में मुबहम नही है इसका सुबूत यह है कि जो शख़्स भी लुग़ात से वाक़ेफ़ीयत रखता हो वह आयते करीमा के मअना और फ़िक़रात को आसानी से समझ सकता है। इसी तरह जैसा कि अरबी ज़बान और कलाम के मअना समझ लेता है इस के अलावा क़ुरआन में बहुत सी आयात देखने में आती हैं कि उन में एक ख़ास गिरोह और जमाअत मसलन बनी ईसराईल मोमिनीन ,कुफ़्फ़ार और कभी आम इंसानों के ख़िताब करते हुए अपने बयानात और मक़ासिद को उनके सांमने रखता है (उन से मुख़ातिब होता है।[ 2])या उन से अहतिजाज करता है और फ़ैसला कुन अँदाज़ में उन से कहता है कि अगर उन्हे किसी क़िस्म का शक व शुबहा की क़ुरआने मजीद ख़ुदा का कलाम नही है तो उस की मानिन्द (आयात) बना कर या लिख कर लायें। ज़ाहिर है कि वह अल्फ़ाज़ या कलाम जो आम इंसानों के लिये क़ाबिले फ़हम न होगा वह बे मअना है। इसी तरह इंसान ऐसी चीज़ या कलाम लाएँ जिसके मअना क़ाबिले फ़हमाईश न हो तो वह हरगिज़ क़ाबिले क़बूल नही हो सकता। इस के अलावा ख़ुदा वंदे तआला फ़रमाता हैं:

आया क़ुरआन में गौर नही करते और उसकी आयतों पर ग़ौर व ख़ौज़ नही करते या उनके दिलों पर ताले पड़े हुए हैं।

(सूरह मुहम्मद आयत 24)

और फिर फ़रमाया है:

भला यह क़ुरआन में ग़ौर क्यों नही करते। अगर यह ख़ुदा के सिवा और का (कलाम) होता तो इसमें (बहुत सा) इख़्तिलाफ़ पाते।

इन आयात की रू से तदब्बुर को जो कि फ़हम की ख़ासियत रखता है ,कबूल करता है और इसी तरह यही तदब्बुर आयात में इख़्तिलाफ़ात जो इब्तेदाई और सतही तौर पर सामने आते हैं वज़ाहत से हल कर देता है और ज़ाहिर है कि उन आयात के मअना वाज़ेह न होते तो उनमें तदब्बुर और ग़ौर और इसी तरह ज़ाहिरी इख़्तिलाफ़ात ग़ौर व फिक्र के ज़रिये हल करने का सवाल ही पैदा न होता।

लेकिन क़ुरआन की ज़ाहिरी हुज्जत की नफ़ी के बारे में दलील बे मअना है क्योकि इस क़िस्म का कोई सुबूत फ़राहम नही होता। सिर्फ़ यह कि बाज़ लोगों ने कहा है कि क़ुरआने मजीद के मअना समझने के लिये फ़कत पैग़म्बरे अकरम (स) की अहादीस और बयानात या अहले बैत (अ) के बयानात की तरफ़ रुजू करना चाहे।

लेकिन यह बात भी क़ाबिल क़बूल नही क्योकि पैग़म्बर अकरम (स) और आईम्म ए अहले बैत (अ) के बयानात का सबूत तो क़ुरआन से हासिल करना चाहिये। बेना बर ईन कैसे ख़्याल किया जा सकता है कि क़ुरआने मजीद के सुबूत में उन अफ़राद के बयानात काफ़ी हों बल्कि रिसालत और इमामत को साबित करने के लिये क़ुरआने मजीद की तरफ़ रुजू करना चाहिये जो नबूवत की सनद है।

अलबत्ता जो कुछ और बयान किया गया है उसका मतलब यह नही पैग़म्बरे अकरम (स) और आईम्म ए अहले बैत (अ) अहकामे शरीयत की तफ़सीलात और इस्लामी क़वानीन की जुज़ईयात बयान करने के ओहदा दार नही जो ज़ाहिरी तौर पर क़ुरआने मजीद से साबित नही होते। (जिन उमूर की वज़ाहत की ज़रुरत है।)

और इसी तरह यही अफ़राद क़ुरआन की तालीम देने वाले मुअल्लिम हैं जैसा कि मुनदरजा ज़ैल आयात से साबित होता है:

और हम ने तुझ पर ज़िक्र (क़ुरआन) नाज़िल किया है ता कि यह चीज़ जो तुझ पर नाज़िल की है (अहकाम) उसको लोगों के सामने बयान और वज़ाहत करो।

(सूरह नहल आयत 44)

जो चीज़ पैग़म्बरे अकरम (स) तुम्हारे लिये लाये हैं यानी जिस चीज़ का उन्होने हुक्म दिया है उसको मानो और कबूल करो और जिस चीज़ से उन्होने मना किया है उस से बाज़ रहो।

(सूरह हश्र आयत 7)

हम ने किसी भी पैग़म्बर को नही भेजा मगर इस लिये कि ख़ुदा के हुक्म की इताअत करें।

(सूरह निसा आयत 64)

ख़ुदा वह है जिस ने अनपढ़ (उम्मी) जमाअत में से एक पैग़म्बर को पैदा किया जो ख़ुदा की आयतों को उन के लिये तिलावत करता है और उन को पाक करता है और उनको किताब (क़ुरआन) और हिकमत (इल्म व दानिश) की तालीम देता है।

(सूरह जुमा आयत 2)

इन आयात के ब मुजिब पैग़म्बरे अकरम (स) शरीयत की तफ़सीलात और जुज़ईयात की वज़ाहत करते हैं और क़ुरआने मजीद के ख़ुदाई मुअल्लिम हैं और हदीसे मुतावातिरे सक़लैन के मुताबिक़ प़ैग़म्बरे अकरम (स) और आईम्म ए अहले बैत (अ) को ख़ुदा वंदे आलम ने मुख़्तलिफ़ ओहदों पर अपना नायब और जानशीन बनाया है। इस का मतलब यह भी नही कि दूसरे अफ़राद जिन्होने हक़ीक़ी मुअल्लिमों और उस्तादों से क़ुरआने मजीद के मआनी को सिखा है। क़ुरआने मजीद की आयतों के ज़ाहिरी मआनी को नही समझ सकते।

5.क़ुरआन ज़ाहिरी और बातिनी पहलू रखता है।

अल्लाह तआला अपने कलाम में फ़रमाता है:

सिर्फ़ ख़ुदा की इबादत व परस्तिश करो और उसके अलावा किसी चीज़ को इबादत में उसका शरीक न क़रार दो।

(सूरह निसा आयत 36)

ज़ाहिरी तौर पर इस आयत का मतलब मामूली बुतों की परस्तिश से मना करना है। चुनाचे फ़रमाता है:

नापाकियों से परहेज़ करो ,जो बुत हैं। (बुत पलीद हैं और उनकी इबादत से परहेज़ करो।)

(सूरह हज आयत 30)

लेकिन ब ग़ौर मुतालआ और तजज़ीया व तहलील करने से मालूम होता है कि बुतों की पूजा इस लिये मना है कि उस का इंतेहाई मक़सद मा सिवलल्लाह के सामने अपनी सर झुकाना और ख़ुज़ू व ख़ुशू करना है और माबूद का बुत होना कोई ख़ुसुसियत नही रखता। जैसा कि अल्लाह तआला शैतान को उसकी इबादत कहते हुए फ़रमाता है:

आया मैने तुम्हे हुक्म नही दिया कि शैतान की परस्तिश न करो ऐ बनी आदम।

(सूरह यासीन आयत 60)

एक और तजज़ीया से मालूम होता है कि इताअत और फ़रमा बरदारी में ख़ुद इंसान और दूसरों (ग़ैरों) के दरमियान कोई फ़र्क़ नही है। जैसा कि मा सिवलल्लाह की इबादत और इताअत नही करनी चाहिये। ऐसे ही ख़ुदा ए तआला के मुक़ाबले में ख़्वाहिशाते नफ़्सानी की पैरवी भी नही करनी चाहिये जैसा कि खुदा वंदे आलम इरशाद फ़रमाता है:

आया तुम ने ऐसे शख़्स को देखा है कि (उसने) अपनी नफ़्सानी ख़्वाहिशात को अपना ख़ुदा बनाया हुआ है।

(सूरह जासिया आयत 23)

एक और ब ग़ौर तजज़ीए और मुतालए से मालूम होता है कि अल्लाह तआला के बग़ैर हरगिज़ किसी और चीज़ की तरफ़ तवज्जो ही नही करनी चाहिये ताकि ऐसा न हो कि ख़ुदा ए तआला से इंसान ग़ाफ़िल हो जाये क्योकि मा सिवलल्लाह की तरफ़ तवज्जो का मतलब उस चीज़ को मुस्तक़िल (ख़ुदा से अलग) जानना है और उसके सामने एक क़िस्म की नर्मी और ख़ुज़ू व ख़ुशू ज़ाहिर करना है और यही अम्र इबादत और परस्तिश की रुह या बुनियाद है। अल्लाह तबारक व तआला फ़रमाता है:

क़सम खाता हूँ हमने बहुत ज़्यादा जिनों और इंसानो को जहन्नम के लिये पैदा किया है। यहाँ तक फ़रमाता है। वह हमेशा ख़ुदा से ग़ाफ़िल है।

जैसा कि इस आयते करीमा से ज़ाहिर होता है व ला तुशरेकू बिहि शैय्या। सबसे पहले तो यह बात ज़हन में आती है कि बुतों की पूजा नही करना चाहिये लेकिन अगर ग़ौर करें तो मालूम होगा कि इसका मतलब यह है कि इंसान ख़ुदा के फ़रमान के बग़ैर किसी और की परस्तिश और इबादत न करे और फिर अगर ज़्यादा ग़ौर व ख़ौज़ करें तो इस का मतलब यह होगा कि इंसान हत्ता कि अपनी मर्ज़ी से भी किसी की इताअत और पैरवी न करे। इससे और आगे बढ़े तो यह हासिल होगा कि ख़ुदा वंदे तआला से ग़फ़लत और मा सिवलल्लाह की तरफ़ तवज्जो हरगिज़ नही करनी चाहिये।

इसी तरह अव्वल तो एक आयत के सादा और इब्तेदाई मअना ज़ाहिर होते हैं फिर (उन पर ग़ौर करने से) वसी मअना नज़र आते हैं और उन वसी मअनो के अंदर दूसरे वसी मअना पोशीदा होते हैं जो पूरे क़ुरआन में जारी है और उन्ही मअनों में गौर व फिक्र के बाद पैग़म्बरे अकरम (स) की मशहूर व मारुफ़ हदीस ,जो बहुत ज़्यादा अहादीस व तफ़सीर की किताबों में नक़्ल हुई है ,के मअना वाज़ेह हो जाते हैं। यानी बेशक क़ुरआन के लिये ज़ाहिर भी हैं और बातिन भी और उसके बातिन के भी बातिन हैं जिन की तादाद सात तक हैं।

(तफ़सीरे साफ़ी मुक़द्दमा 8और सफ़ीनतुल बिहार माद्दा ए ब त न)

लिहाज़ा जो कुछ ऊपर बयान किया गया है उससे मालूम होता है कि क़ुरआने मजीद का एक ज़ाहिरी पहलू है और एक बातिनी पहलू। यह दोनो पहलू कलाम (क़ुरआने मजीद) के मुताबिक़ और उससे मिलते हैं ,सिवा ए इसके कि यह दोनो मअना तूल के लिहाज़ से हम मअना और हम मुराद हैं न ग़रज़ के लिहाज़ ,न तो लफ़्ज़ का ज़ाहिरी इरादा (पहलू) बातिन की नफ़ी करता है और न ही बातिन इरादा (पहलू) ज़ाहिरी पहलू का मानेअ होता है।

[1]देखिये अबक़ात हदीसे सक़लैन ,इस किताब में मज़कूरा हदीस को सैकड़ों बार ख़ास व आम तरीक़ों से नक़्ल किया गया है।

[2]मिसाल के तौर पर बहुत सी आयते पेश की जा सकती हैं।


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