इस्लाम में क़ुरआन

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इस्लाम में क़ुरआन लेखक:
: मौलाना सैय्यद एजाज़ हुसैन मूसावी
कैटिगिरी: मफ़ाहीमे क़ुरआन

इस्लाम में क़ुरआन

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: अल्लामा सैय्यद मुहम्मद हुसैन तबातबाई
: मौलाना सैय्यद एजाज़ हुसैन मूसावी
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इस्लाम में क़ुरआन
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इस्लाम में क़ुरआन

इस्लाम में क़ुरआन

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

क़ुरआने मजीद की तालीम के मुतअल्लिक़

1.क़ुरआने मजीद एक आलमी किताब है।

2.क़ुरआने मजीद एक कामिल और मुकम्मल किताब है।

3.क़ुरआने मजीद ता अबद और हमेशा बाक़ी रहने वाली किताब है।

4.क़ुरआने मजीद अपना आप सुबूत है।

5.क़ुरआने मजीद दो पहलू रखता है ,यानी ज़ाहिरी और बातिनी।

6.क़ुरआने मजीद क्यों ज़ाहिरी और बातिनी दो तरीक़ों से बयान हुआ है ?

7.क़ुरआने मजीद के अहकाम मोहकम और मुतशाबेह हैं।

8.इस्लामी मुफ़स्सेरीन और उलामा की नज़र में मोहकम व मुतशाबेह के क्या मअना हैं। ?

9.क़ुरआने के मोहकम व मुतशाबेह में अहले बैत के तरीक़े।

10.क़ुरआने मजीद में तावील व तंज़ील मौजूद हैं।

11.मुफ़स्सेरीन और उलामा की नज़र में तावील के मअना।

12.क़ुरआने मजीद की रू से तावील के हक़ीक़ी मअना क्या हैं ?

13.क़ुरआने मजीद में नासिख़ व मंसूख़ मौजूद हैं।

14.क़ुरआने मजीद में जरय व इंतेबाक़।

15.क़ुरआने मजीद की तफ़सीर ,उस की पैदाईश और तरक़्क़ी।

16.इल्में तफ़सीर और मुफ़स्सेरीन के तबक़ात।

17.शिया मुफ़स्सेरीन के तरीक़े और उन के तबक़े।

18.ख़ुद क़ुरआने मजीद किस क़िस्म की तफ़सीर को कबूल करता है।

19.नतीजा ए बहस

20.तफ़सीर का नमूना ख़ुद क़ुरआने मजीद की रू से ।

21.पैग़म्बर (स) के बयान और आईम्मा (अ) की नज़र में हुज्जीयत के मअना।

1.क़ुरआने मजीद एक आलमी किताब है।

क़ुरआने मजीद अपने मतालिब में उम्मतों में से एक ख़ास उम्मत जैसे उम्मते अरब या क़बीलों में एक ख़ास क़बीले या गिरोह यानी मुसलमानों से ही मुख़्तस नही है बल्कि क़ुरआने ग़ैर मुसलिम गिरोहों से भी इसी तरह बहस करता है जैसा कि मुसलमानों के हुक्म देता है। क़ुरआने मजीद अपने बहुत ज़्यादा ख़ुतबों में कुफ़्फ़ार ,मुशरेकीन ,अहले किताब ,यहूदियों ,ईसाईयों और बनी इसराईल के बारे में बहस करता है और इन गिरोहों में से हर के साथ ऐहतेजाज करते हुए उनको शिनाख़्ते हक़ीक़ी की तरफ़ दावत देता है। इस तरह क़ुरआने मजीद उन गिरोंहों में से हर गिरोह के साथ ऐहतेजाज करता है और उनको दावत देता है और अपने ख़िताब को उनके अरब होने पर मुख़्तस और महदूद नही करता। चुँनाचे मुश्रिकों और बुत परस्तो के बारे में फ़रमाता है:

पस अगर उन्होने तौबा कर ली और नमाज़ क़ायम की और ज़कात दी तो वह दीन में तुम्हारे भाई हैं।

(सूरह तौबा आयत 11)

और अहले किताब के बारे में यानी यहूदी ,ईसाई और मजूसी जो अहले किताब में शुमार होते हैं। ऐ नबी कह दो कि अहले किताब ख़ुदा के कलाम की तरफ़ लौट आएँ कि हमारे और तुम्हारे दरमियान मसावी तौर पर क़बूल हो जाये। (मसावी तौर पर ख़ुदा के कलाम को क़बूल कर लें) और यह वह है कि ख़ुदा वंदे तआला के सिवा किसी और की परस्तिश न करें और न ही उसका शरीक़ क़रार दें और हम में से बाज़ लोग दूसरी चीज़ों को अपना ख़ुदा न बताएँ।

(सूरह आले इमरान आयत 64)

हम देखते हैं कि हरगिज़ यह नही फ़रमाया कि मुशरेकीने अरब तौबा कर लें और न ही फ़रमाया कि जो अहले किताब अरबी नस्ल से ताअल्लुक़ रखते हों।

हाँ तुलूए इस्लाम के आग़ाज़ में जब कि यह दावत ज़ज़ीरतुल अरब से बाहर नही फ़ैली थी तो फ़ितरी तौर पर क़ुरआनी ख़ुतबात उम्मते अरब ही से मंसूब किये जाते थे लेकिन हिजरत के छ: साल बाद जब यह दावत बर्रे अज़ीम अरब में फैल गई तो उस वक़्त यह ख़्याल बातिल हो गया।

उन आयात के अलावा दूसरी आयात भी हैं जो अवाम को दावते इस्लाम देती हैं जैसे आयते करीमा:

मुझ पर वही नाज़िल हुई है इसलिये कि तुम को नसीहत करुँ और डराऊँ उन लोगों को इस नसीहत और क़ुरआन पर ईमान रखते हैं।

(सूरह अनआम आयत 19)

यह क़ुरआन दुनिया वालों के लिये नसीहत और याद दहानी के अलावा और कोई चीज़ नही है।

(सूरह क़लम आयत 52) (सूरह साद आयत 87)

और आयते करीमा:

बेशक यह आयत बुज़ुर्ग तरीन आयात में से एक है जब कि इंसान को ख़ुदा से डराती है।

(सूरह मुदस्सिर आयत 35, 36)

तारीख़ी लिहाज़ से भी इस्लाम मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब मसलन बुत परस्तों ,यहूदियों ,ईसाईयों और ऐसे ही बाज़ दूसरी उम्मतों के अफ़राद मसलन सलमाने फ़ारसी ,सुहैबे रूमी और बेलाले हबशी जैसी शख़्सीयतों के ज़रिये भी साबित हो चुका है।

2.क़ुरआने मजीद एक कामिल व मुकम्मल किताब है

क़ुरआने मजीद मुकम्मल और कामिल किताब है जो इंसानी मक़ासिद पर मुश्तमिल है और इस मक़सद को कामिल तरीन सूरत में बयान करता है क्योकि इंसानी मक़ासिद जो हक़ीक़त पसंदी से लबरेज़ हैं। मुकम्मल जहान बीनी और अख़लाक़ी उसूल और अमली क़वानीन को ब रुए कार लाने पर मुश्तमिल है जो जहान बीनी के लिये ज़रुरी और लाज़िमी है। अल्लाह तबारक व तआला इस की तारीफ़ में फ़रमाता है:

ऐतेक़ाद और ईमान की हक़ की तरफ़ रहनुमाई करता है और अमल में सिराते मुसतक़ीम की तरफ़।

(सूरह अहक़ाफ़ आयत 30)

फिर एक जगह तौरात और इंजील के ज़िक्र में फ़रमाता है:

हमने तुम पर बरहक़ किताब नाज़िल की कि जो (इससे पहले) इसके वक़्त में मौजूद है उसकी तसद़ीक़ करती है और उसकी निगहबान भी है और फिर क़ुरआने मजीद ने गुज़िश्ता पैग़म्बरों और अंबिया की शरीयतों से मुक़ाबला करते हुए फ़रमाया:

उस (मुहम्मद) ने तुम्हारे लिये दीन का वही तरीक़ा और रास्ता मुक़र्रर किया है जिस (पर चलने) का नूह को हुक्म दिया गया था और (ऐ रसूल) उसकी हमने तुम्हारे पास वही भेजी है और उसी का इब्राहीम और मूसा और ईसा को भी हुक्म दिया गया।

(सूरह शूरा आयत 13)

और फिर जामे तौर पर फ़रमाता है:

हमने यह किताब आहिस्ता आहिस्ता और ब तदरीज तुम पर नाज़िल की और यह किताब हर चीज़ को बयान करती है।

(सूरह नहल आयत 89)

मुनदरजा बाला आयात की नतीजा यह है कि क़ुरआने मजीद दर अस्ल तमाम इलहामी और आसमानी किताबों के मक़ासिद पर मुश्तमल है बल्कि उन से ज़्यादा (मौज़ूआत इसमें आयें हैं।) और हक़ीक़त में हर वह चीज़ कि इंसान अपनी सआदत और ख़ुश क़िस्मती की राह तय करने में इस पर ईमान ,ऐतेक़ाद और अमल करता है और इस चीज़ का मोहताज है। इस किताब में मुकम्मल और कामिल तौर पर बयान किया गया है।

3.क़ुरआने मजीद ता अबद और हमेशा बाक़ी रहने वाली किताब है।

गुज़िश्ता बाब में इस मौज़ू पर जो हमने बहस की है वह इस दावे को साबित करने के लिये काफ़ी है क्योकि वह बयान जो एक मक़सद और मतलब के बारे में मुकम्मल और मुतलक़ है। ऐतेबार और दुरुस्ती के लिहाज़ से एक ख़ास ज़माने में महदूद नही हो सकता और क़ुरआने मजीद अपने बयान को मुकम्मल और मुतलक़ जानता है और कमाल से बढ़ कर कोई और चीज़ नही हो सकती। अल्लाह तआला फ़रमाता है:

क़ुरआन एक क़ाते बयान है जो हक़ और बातिल को आपस में जुदा करता है और इसमें बेहूदा बात और यावा गोई हरगिज़ नही है।

(सूरह तारिक़ आयत 13, 14)

इसी तरह ईमानी और ऐतेक़ादी उलूम भी पाक हक़ीक़त और मुकम्मल वाक़ेईयत होते हैं और अख़लाक़ी उसूल और अमली क़वानीन जो ऊपर बयान किये गये हैं ,उन ही मुस्तक़ित हक़ायक़ के नतीजे की पैदावार हैं और ऐसी चीज़ ज़माने गुज़रने के साथ साथ ना तो मिट सकती है और न ही मंसूख़ की जा सकती है।

अल्लाह तआला फ़रमाता हैं:

हमने क़ुरआने मजीद को हक़ (ठीक) नाज़िल किया और यह भी बिल्कुल हक़ (ठीक) नाज़िल हुआ है (अपने हुदूस व बक़ा में हक़ से अलग नही हुआ है।)

(सूरह बनी इसराईल आयत 105)

और फिर फ़रमाता है:

आया हक़ के अलावा (बग़ैर गुमराही और ज़लालत के सिवा कोई और चीज़ मौजूद है ?(यानी हक़ को छोड़ने के बाद सिवाए गुमराही के और कुछ नही रहता।

(सूरह युनुस आयत 32)

एक और जगह अपने कलामे पाक में तफ़सील से फ़रमाता है:

हक़ीक़त में क़ुरआन बहुत ही अज़ीज़ किताब है जो तमाम अतराफ़ से महफ़ूज़ रखने वाली किताब है यानी हर ज़ुल्म और हमले को अपनी ताक़त से देफ़ा करती है बातिल न ही सामने और न ही पीछे से इस पर हमला कर सकता है यानी न इस वक़्त और न ही आईन्दा मंसूख़ होने वाली किताब नही है।

(सूरह सजदा आयत 42)

अलबत्ता अहकामे क़ुरआनी की हिदायत के बारे में बहुत सी बहसे की जा चुकी हैं और हो सकती हैं लेकिन इस मौज़ू से ख़ारिज हैं क्योकि यहाँ हमारा मक़सद सिर्फ़ मुसलमानों के सामने क़ुरआने मजीद की अहमियत और वक़अत को पहचनवाना है जैसा कि ख़ुद क़ुरआन (अपने बारे में) बयान फ़रमाता है।

4.क़ुरआने मजीद ख़ुद ही अपना सुबूत है।

क़ुरआने मजीद जो कि पुख़्ता कलाम है तमाम मामूली बातों का तरह अपने मअना से मुराद दरयाफ़्त करता है और हरगिज़ अपने बयान और सुबूत में मुबहम नही है ज़ाहिरी दलील की रू से भी क़ुरआने मजीद के तहतुल लफ़्ज़ी मअना उसके अरबी अल्फ़ाज़ से मुताबेक़त रखते हैं और क़ाबिले फ़हमाईश हैं लेकिन यह दावा कि ख़ुद क़ुरआन अपने सुबूत और बयान में मुबहम नही है इसका सुबूत यह है कि जो शख़्स भी लुग़ात से वाक़ेफ़ीयत रखता हो वह आयते करीमा के मअना और फ़िक़रात को आसानी से समझ सकता है। इसी तरह जैसा कि अरबी ज़बान और कलाम के मअना समझ लेता है इस के अलावा क़ुरआन में बहुत सी आयात देखने में आती हैं कि उन में एक ख़ास गिरोह और जमाअत मसलन बनी ईसराईल मोमिनीन ,कुफ़्फ़ार और कभी आम इंसानों के ख़िताब करते हुए अपने बयानात और मक़ासिद को उनके सांमने रखता है (उन से मुख़ातिब होता है।[ 2])या उन से अहतिजाज करता है और फ़ैसला कुन अँदाज़ में उन से कहता है कि अगर उन्हे किसी क़िस्म का शक व शुबहा की क़ुरआने मजीद ख़ुदा का कलाम नही है तो उस की मानिन्द (आयात) बना कर या लिख कर लायें। ज़ाहिर है कि वह अल्फ़ाज़ या कलाम जो आम इंसानों के लिये क़ाबिले फ़हम न होगा वह बे मअना है। इसी तरह इंसान ऐसी चीज़ या कलाम लाएँ जिसके मअना क़ाबिले फ़हमाईश न हो तो वह हरगिज़ क़ाबिले क़बूल नही हो सकता। इस के अलावा ख़ुदा वंदे तआला फ़रमाता हैं:

आया क़ुरआन में गौर नही करते और उसकी आयतों पर ग़ौर व ख़ौज़ नही करते या उनके दिलों पर ताले पड़े हुए हैं।

(सूरह मुहम्मद आयत 24)

और फिर फ़रमाया है:

भला यह क़ुरआन में ग़ौर क्यों नही करते। अगर यह ख़ुदा के सिवा और का (कलाम) होता तो इसमें (बहुत सा) इख़्तिलाफ़ पाते।

इन आयात की रू से तदब्बुर को जो कि फ़हम की ख़ासियत रखता है ,कबूल करता है और इसी तरह यही तदब्बुर आयात में इख़्तिलाफ़ात जो इब्तेदाई और सतही तौर पर सामने आते हैं वज़ाहत से हल कर देता है और ज़ाहिर है कि उन आयात के मअना वाज़ेह न होते तो उनमें तदब्बुर और ग़ौर और इसी तरह ज़ाहिरी इख़्तिलाफ़ात ग़ौर व फिक्र के ज़रिये हल करने का सवाल ही पैदा न होता।

लेकिन क़ुरआन की ज़ाहिरी हुज्जत की नफ़ी के बारे में दलील बे मअना है क्योकि इस क़िस्म का कोई सुबूत फ़राहम नही होता। सिर्फ़ यह कि बाज़ लोगों ने कहा है कि क़ुरआने मजीद के मअना समझने के लिये फ़कत पैग़म्बरे अकरम (स) की अहादीस और बयानात या अहले बैत (अ) के बयानात की तरफ़ रुजू करना चाहे।

लेकिन यह बात भी क़ाबिल क़बूल नही क्योकि पैग़म्बर अकरम (स) और आईम्म ए अहले बैत (अ) के बयानात का सबूत तो क़ुरआन से हासिल करना चाहिये। बेना बर ईन कैसे ख़्याल किया जा सकता है कि क़ुरआने मजीद के सुबूत में उन अफ़राद के बयानात काफ़ी हों बल्कि रिसालत और इमामत को साबित करने के लिये क़ुरआने मजीद की तरफ़ रुजू करना चाहिये जो नबूवत की सनद है।

अलबत्ता जो कुछ और बयान किया गया है उसका मतलब यह नही पैग़म्बरे अकरम (स) और आईम्म ए अहले बैत (अ) अहकामे शरीयत की तफ़सीलात और इस्लामी क़वानीन की जुज़ईयात बयान करने के ओहदा दार नही जो ज़ाहिरी तौर पर क़ुरआने मजीद से साबित नही होते। (जिन उमूर की वज़ाहत की ज़रुरत है।)

और इसी तरह यही अफ़राद क़ुरआन की तालीम देने वाले मुअल्लिम हैं जैसा कि मुनदरजा ज़ैल आयात से साबित होता है:

और हम ने तुझ पर ज़िक्र (क़ुरआन) नाज़िल किया है ता कि यह चीज़ जो तुझ पर नाज़िल की है (अहकाम) उसको लोगों के सामने बयान और वज़ाहत करो।

(सूरह नहल आयत 44)

जो चीज़ पैग़म्बरे अकरम (स) तुम्हारे लिये लाये हैं यानी जिस चीज़ का उन्होने हुक्म दिया है उसको मानो और कबूल करो और जिस चीज़ से उन्होने मना किया है उस से बाज़ रहो।

(सूरह हश्र आयत 7)

हम ने किसी भी पैग़म्बर को नही भेजा मगर इस लिये कि ख़ुदा के हुक्म की इताअत करें।

(सूरह निसा आयत 64)

ख़ुदा वह है जिस ने अनपढ़ (उम्मी) जमाअत में से एक पैग़म्बर को पैदा किया जो ख़ुदा की आयतों को उन के लिये तिलावत करता है और उन को पाक करता है और उनको किताब (क़ुरआन) और हिकमत (इल्म व दानिश) की तालीम देता है।

(सूरह जुमा आयत 2)

इन आयात के ब मुजिब पैग़म्बरे अकरम (स) शरीयत की तफ़सीलात और जुज़ईयात की वज़ाहत करते हैं और क़ुरआने मजीद के ख़ुदाई मुअल्लिम हैं और हदीसे मुतावातिरे सक़लैन के मुताबिक़ प़ैग़म्बरे अकरम (स) और आईम्म ए अहले बैत (अ) को ख़ुदा वंदे आलम ने मुख़्तलिफ़ ओहदों पर अपना नायब और जानशीन बनाया है। इस का मतलब यह भी नही कि दूसरे अफ़राद जिन्होने हक़ीक़ी मुअल्लिमों और उस्तादों से क़ुरआने मजीद के मआनी को सिखा है। क़ुरआने मजीद की आयतों के ज़ाहिरी मआनी को नही समझ सकते।

5.क़ुरआन ज़ाहिरी और बातिनी पहलू रखता है।

अल्लाह तआला अपने कलाम में फ़रमाता है:

सिर्फ़ ख़ुदा की इबादत व परस्तिश करो और उसके अलावा किसी चीज़ को इबादत में उसका शरीक न क़रार दो।

(सूरह निसा आयत 36)

ज़ाहिरी तौर पर इस आयत का मतलब मामूली बुतों की परस्तिश से मना करना है। चुनाचे फ़रमाता है:

नापाकियों से परहेज़ करो ,जो बुत हैं। (बुत पलीद हैं और उनकी इबादत से परहेज़ करो।)

(सूरह हज आयत 30)

लेकिन ब ग़ौर मुतालआ और तजज़ीया व तहलील करने से मालूम होता है कि बुतों की पूजा इस लिये मना है कि उस का इंतेहाई मक़सद मा सिवलल्लाह के सामने अपनी सर झुकाना और ख़ुज़ू व ख़ुशू करना है और माबूद का बुत होना कोई ख़ुसुसियत नही रखता। जैसा कि अल्लाह तआला शैतान को उसकी इबादत कहते हुए फ़रमाता है:

आया मैने तुम्हे हुक्म नही दिया कि शैतान की परस्तिश न करो ऐ बनी आदम।

(सूरह यासीन आयत 60)

एक और तजज़ीया से मालूम होता है कि इताअत और फ़रमा बरदारी में ख़ुद इंसान और दूसरों (ग़ैरों) के दरमियान कोई फ़र्क़ नही है। जैसा कि मा सिवलल्लाह की इबादत और इताअत नही करनी चाहिये। ऐसे ही ख़ुदा ए तआला के मुक़ाबले में ख़्वाहिशाते नफ़्सानी की पैरवी भी नही करनी चाहिये जैसा कि खुदा वंदे आलम इरशाद फ़रमाता है:

आया तुम ने ऐसे शख़्स को देखा है कि (उसने) अपनी नफ़्सानी ख़्वाहिशात को अपना ख़ुदा बनाया हुआ है।

(सूरह जासिया आयत 23)

एक और ब ग़ौर तजज़ीए और मुतालए से मालूम होता है कि अल्लाह तआला के बग़ैर हरगिज़ किसी और चीज़ की तरफ़ तवज्जो ही नही करनी चाहिये ताकि ऐसा न हो कि ख़ुदा ए तआला से इंसान ग़ाफ़िल हो जाये क्योकि मा सिवलल्लाह की तरफ़ तवज्जो का मतलब उस चीज़ को मुस्तक़िल (ख़ुदा से अलग) जानना है और उसके सामने एक क़िस्म की नर्मी और ख़ुज़ू व ख़ुशू ज़ाहिर करना है और यही अम्र इबादत और परस्तिश की रुह या बुनियाद है। अल्लाह तबारक व तआला फ़रमाता है:

क़सम खाता हूँ हमने बहुत ज़्यादा जिनों और इंसानो को जहन्नम के लिये पैदा किया है। यहाँ तक फ़रमाता है। वह हमेशा ख़ुदा से ग़ाफ़िल है।

जैसा कि इस आयते करीमा से ज़ाहिर होता है व ला तुशरेकू बिहि शैय्या। सबसे पहले तो यह बात ज़हन में आती है कि बुतों की पूजा नही करना चाहिये लेकिन अगर ग़ौर करें तो मालूम होगा कि इसका मतलब यह है कि इंसान ख़ुदा के फ़रमान के बग़ैर किसी और की परस्तिश और इबादत न करे और फिर अगर ज़्यादा ग़ौर व ख़ौज़ करें तो इस का मतलब यह होगा कि इंसान हत्ता कि अपनी मर्ज़ी से भी किसी की इताअत और पैरवी न करे। इससे और आगे बढ़े तो यह हासिल होगा कि ख़ुदा वंदे तआला से ग़फ़लत और मा सिवलल्लाह की तरफ़ तवज्जो हरगिज़ नही करनी चाहिये।

इसी तरह अव्वल तो एक आयत के सादा और इब्तेदाई मअना ज़ाहिर होते हैं फिर (उन पर ग़ौर करने से) वसी मअना नज़र आते हैं और उन वसी मअनो के अंदर दूसरे वसी मअना पोशीदा होते हैं जो पूरे क़ुरआन में जारी है और उन्ही मअनों में गौर व फिक्र के बाद पैग़म्बरे अकरम (स) की मशहूर व मारुफ़ हदीस ,जो बहुत ज़्यादा अहादीस व तफ़सीर की किताबों में नक़्ल हुई है ,के मअना वाज़ेह हो जाते हैं। यानी बेशक क़ुरआन के लिये ज़ाहिर भी हैं और बातिन भी और उसके बातिन के भी बातिन हैं जिन की तादाद सात तक हैं।

(तफ़सीरे साफ़ी मुक़द्दमा 8और सफ़ीनतुल बिहार माद्दा ए ब त न)

लिहाज़ा जो कुछ ऊपर बयान किया गया है उससे मालूम होता है कि क़ुरआने मजीद का एक ज़ाहिरी पहलू है और एक बातिनी पहलू। यह दोनो पहलू कलाम (क़ुरआने मजीद) के मुताबिक़ और उससे मिलते हैं ,सिवा ए इसके कि यह दोनो मअना तूल के लिहाज़ से हम मअना और हम मुराद हैं न ग़रज़ के लिहाज़ ,न तो लफ़्ज़ का ज़ाहिरी इरादा (पहलू) बातिन की नफ़ी करता है और न ही बातिन इरादा (पहलू) ज़ाहिरी पहलू का मानेअ होता है।

[1]देखिये अबक़ात हदीसे सक़लैन ,इस किताब में मज़कूरा हदीस को सैकड़ों बार ख़ास व आम तरीक़ों से नक़्ल किया गया है।

[2]मिसाल के तौर पर बहुत सी आयते पेश की जा सकती हैं।