सृष्टि का मोती

सृष्टि का मोती 20%

सृष्टि का मोती : मौलाना सैय्यद क़मर ग़ाज़ी जैदी
कैटिगिरी: इमाम मेहदी (अ)

सृष्टि का मोती
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सृष्टि का मोती

सृष्टि का मोती

हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

सृष्टि का मोती

अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

इमामे ज़माना (अलैहिस्सलाम) के जीवन पर एक तहक़ीक

संकलनकर्ता :

मुहम्मद अमीन बाला दस्तियान

मुहम्मद महदी हाईरी पुर

महदी यूसुफ़ियान

अनुवादक : सैयद क़मर ग़ाज़ी

प्रकाशक : बुनियादे फरहन्गी महदी ए मऊद (अ.)

विषय सूची

सृष्टि का मोती 1

प्रस्तावना 11

इमामे ज़माना पर बहस की ज़रुरत 11

पहला अध्याय 15

इमामत 15

इमाम की ज़रुरत 18

इमाम की विशेषताएं 20

इमाम का इल्म 21

इमाम की इस्मत 22

इमाम , समाज को व्यवस्थित करने वाला होता है 25

इमाम का अख़लाक बहुत अच्छा होता है 26

इमाम ख़ुदा की तरफ़ से मंसूब (नियुक्त) होता है 27

सबसे अच्छी बात 28

दूसरा अध्याय 30

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की शनाख़्त 31

पहला हिस्सा 31

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की ज़िन्दगी पर एक नज़र 31

इमामे ज़माना का नाम कुन्नियत और अलक़ाब 33

जन्म की स्थिति 34

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की विशेषताएं 39

दूसरा हिस्सा 42

जन्म के समय से हज़रत इमाम अस्करी (अ.स.) की शहादत तक 42

इमाम महदी (अ.स.) से शिओं का परिचय 42

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) के मोजज़ें और करामतें 45

सवालों के जवाब 47

तोहफ़ें क़बूल करना 50

अपने पिता की नमाज़े मैय्यत पढ़ाना 52

तीसरा हिस्सा 56

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) कुरआन व हदीस की रौशनी में 56

कुरआने क़रीम की रौशनी में 56

रिवायत की रौशनी में 59

चौथा हिस्सा 63

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) ग़ैरों की नज़र में 63

तीसरा अध्याय 67

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) का इन्तेज़ार 67

पहला हिस्सा 67

ग़ैबत 67

ग़ैबत का अर्थ 67

ग़ैबत का इतिहास 69

ग़ैबत की वजह 71

जनता को अदब सिखाना 72

लोगों से अनुबंध किये बग़ैर काम करना 73

लोगों का इम्तेहान 74

इमाम की हिफ़ाज़त 75

दूसरा हिस्सा 76

ग़ैबत की क़िस्में 77

ग़ैबते सुग़रा (अल्पकालीन ग़ैबत) 78

ग़ैबते कुबरा 83

तीसरा हिस्सा 86

ग़ायब इमाम के फ़ायदे 87

इमाम संसार का केन्द्र होता है 87

उम्मीद की किरण 92

विचार धारा की मज़बूती 93

तरबियत 97

इल्मी और फ़िक्री पनाह गाह 98

आन्तरिक हिदायत 102

मुसीबतों से सुरक्षा 103

रहमत की बारिश 105

चौथा हिस्सा 107

इमाम की ज़ियारत 107

पाँचवां हिस्सा 117

लंबी उम्र 117

छटा हिस्सा 122

इन्तेज़ार 123

इन्तेज़ार की हक़ीक़त और उसका महत्ता 124

इमामे ज़माना (अ.स.) के इन्तेज़ार की विशेषताएं 126

इन्तेज़ार के पहलू 128

इन्तेज़ार करने वालों की ज़िम्मेदारियाँ 132

इमाम की पहचान 133

इमाम (अ.) को नमून ए अमल व आदर्श बनाना 136

इमाम (अ.स.) को याद रखना 138

हार्दिक एकता 142

इन्तेज़ार के प्रभाव 146

इन्तेज़ार करने वालों का सवाब 148

चौथा अध्याय 154

ज़हूर का ज़माना 154

पहला हिस्सा 154

ज़हूर से पहले दुनिया की हालत 154

दूसरा हिस्सा 158

ज़हूर का रास्ता हमवार होना और ज़हूर की निशानियां 159

ज़हूर की शर्तें और रास्ते का हमवार होना 159

योजना व प्लान 162

रहबरी व नेतृत्व 164

मददगार 165

क- इमामत की शनाख़्त व आज्ञापालन 167

ख- इबादत और दृढ़ता 168

ग- शहादत की तमन्ना 169

घ- बहादुरी और दिलेरी 169

ङ- सब्र और बुर्दबारी 170

च- एकता 171

छ- ज़ोह्द व तक़वा 171

आम तैयारियाँ 173

ज़हूर की निशानियाँ 176

सुफ़यानी का ख़रुज (आक्रमण) 178

खस्फ़े बैदा 179

यमनी का क़ियाम (आन्दोलन) 180

आसमान से आवाज़ का आना 180

नफ़्से ज़किया का क़त्ल 181

तीसरा हिस्सा 183

ज़हूर 183

ज़हूर का ज़माना 183

ज़हूर के वक़्त को छुपाने का राज़ 185

उम्मीद का बाक़ी रखना 185

ज़हूर के रास्तों को हमवार करना 186

इन्केलाब का आरम्भ 187

क़ियाम की स्थिति 188

पाँचवां अध्याय 194

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की हुकूमत 194

पहला हिस्सा 195

उद्देश्य 195

आध्यात्मिक तरक़्क़ी 196

न्याय का विस्तार 198

दूसरा हिस्सा 201

हुकूमत की योजनाएं 201

अ- सांस्कृतिक योजना 203

किताब व सुन्नत को ज़िन्दा करना 203

अखलाक का विस्तार 205

इल्म व ज्ञान की तरक़्क़ी 207

बिदअतों से मुकाबला 208

आ- आर्थिक योजना 210

प्राकृतिक संपदा का दोहन 211

धन का न्यायपूर्वक वितरण 212

वीरानों को आबाद करना 214

इ- सामाजिक योजना 215

अम्र बिल मारुफ़ और नही अनिल मुनकर 215

बुराइयों से मुक़ाबला 216

अल्लाह की हदों को जारी करना 217

न्याय पर आधारित फ़ैसले 218

तीसरा हिस्सा 220

हुकूमत के नतीजे 220

न्याय का विस्तार 221

ईमान , अख़लाक़ और फिक्र का विकास 223

एकता और मुहब्बत 225

जिस्म और रूह की सलामती 226

बहुत ज़्यादा खैर व बरकत 228

ग़रीबी व फ़क़ीरी का अंत 229

इस्लाम की हुकूमत और कुफ्र का ख़ात्मा 232

शाँती व सुरक्षा 235

इल्म की तरक्की 237

चौथा हिस्सा 240

हुकूमत की विशेषताएं 240

हुकूमत की सीमाएं और उसका केन्द्र 240

हुकूमत की मुद्दत 244

इमाम (अ.स.) की प्रशासनिक की शैली 247

जिहाद की कार्य शैली 249

इमाम (अ.स.) के फ़ैसले 251

इमाम (अ.स.) का हुकूमत का अंदाज़ 252

इमाम (अ.स.) की आर्थिक शैली 253

इमाम (अ.स.) की ख़ुद की सीरत 256

आम मक़बूलियत 258

छठा अध्याय 261

महदवियत के लिए नुक्सानदेह चीज़ों की पहचान 261

ग़लत नतीजा निकालना 262

ज़हूर में जल्द बाज़ी 265

ज़हूर के लिए वक़्त निश्चित करना 267

ज़हूर की निशानियों की ग़लत व्याख्या 268

बेकार बहसें 269

झूठा दावा करने वाले 271

सहायक किताबों की सूची 274

प्रस्तावना

بِسْمِ اللّٰہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِیْمِ الحمد لله رب العالمین و بہ نستعین و صلی الله علٰی محمد و آلہ الطیبین الطاھرین۔

इमामे ज़माना पर बहस की ज़रुरत

शायद कुछ लोग यह सोचें कि बहुत सी कल्चरल और आधारभूत ज़रुरतों के होते हुए हज़रत इमाम महदी (अज्जल अल्लाहु तआला फ़रजहू शरीफ़) के बारे में बहस करने की क्या ज़रुरत है ? क्या इस बारे में काफ़ी हद तक बहस नही हो चुकी है ? क्या इस बारे में किताबें और लेख नहीं लिखे गए हैं ?

तो इसके जवाब में हम यह कहते हैं कि महदवियत एक ऐसा विषय है जो इंसान की ज़िन्दगी में एक महत्व पूर्ण स्थान रखता है और इसका इंसानी ज़िन्दगी के विभिन्न पहलुओं से सीधा सम्बन्ध है। अतः इस बारे में जो लिखा जा चुका है उसके बावजूद भी इस विषय पर लिखने व कहने के लिए बहुत कुछ बाक़ी है। इस लिए हमारे उलमा ए कराम व बुद्धिजीवी लोगों को चाहिए कि वह इस बारे में और ज़्यादा लिखें।

हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम के बारे में बहस करने की ज़रुरत को अत्यधिक स्पष्ट करने के लिए यहाँ कुछ चीज़ों की तरफ़ इशारा किया जा रहा है।

1. हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम का विषय , इमामत के उस आधार भूत मसले की तरफ़ पलटता है जो शिओं के एतेक़ादी (आस्था संबंधी) उसूल में से है। इस पर बहुत अधिक ज़ोर दिया गया है और इसे कुरआने करीम और इस्लामी रिवायतों में बहुत अधिक महत्व प्राप्त है। शिया और सुन्नी दोनों सम्प्रदायों ने पैग़म्बरे इस्लाम (स.) से यह रिवायत नक्ल की है।

”مَنْ مَاتَ وَ لَمْ یَعْرِفْ اِمَامَ زَمَانِہِ مَاتَ مِیْتَةً جَاہِلِیَةً۔ “

जो इंसान इस हालत में मर जाये कि अपने ज़माने के इमाम को न पहचानता हो तो उसकी मौत जाहिलियत (कुफ़्र) की मौत होगी। (अर्थात उसने इस्लाम से कोई फायदा नहीं उठाया है।).

वास्तव में यह एक ऐसा विषय है जो इंसान के आध्यात्मिक जीवन से संबंधित है अतः इस मसले पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यक्ता है।

2. हज़रत इमाम महदी (अ.स.) , इमामत की उस पवित्र श्रंखला की बारहवीं कड़ी हैं , जो पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की दो निशानियों में से एक है। शिया और सुन्नी दोनों ही सम्प्रदायों ने पैग़म्बरे इस्लाम (स.) से यह रिवायत नक्ल की हैः

” اِنِّی تَارِکٌ فِیْکُمُ الثَّقَلَیْنِ کَتَابَ اللهِ وَ عِتْرَتِی؛ مَا اِنْ تَمَسَّکْتُمْ بِہِمَا لَنْ تَضِلُّوْا بَعْدِی اَبَداً

बेशक़ मैं तुम्हारे बीच दो महत्वपूर्ण चीज़ें छोड़े जा रहा हूँ , एक अल्लाह की किताब और दूसरे मेरी इतरत (वंश) , जब तक तुम इन दोनों के संपर्क में रहोगे मेरे बाद कदापि गुमराह नहीं हो सकते।

इस आधार पर कुरआने क़रीम के बाद जो कि अल्लाह का कलाम है , कौनसा रास्ता इमाम (अ.स.) के रास्ते से ज़्यादा रौशन और हिदायत करने वाला है। क्या बुनियादी तौर पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के सच्चे जानशीन के अलावा अन्य कोई कुरआने करीम की जो कि अल्लाह का कलाम है , तफ़सीर कर सकता है।

3. हज़रत इमाम महदी (अ.स.) ज़िन्दा व मौजूद हैं और उनके बारे में नौजवानों और जवानों के ज़हनों में बहुत से सवाल पैदा होते रहते हैं। यद्यपि पिछले ज़माने के आलिमों ने अपनी अपनी किताबों में बहुत से सवालों के जवाब दिये हैं , लेकिन फिर भी बहुत से शक व शुब्हे बाकी हैं और कुछ पुराने जवाब आज कल के ज़माने के अनुरूप नही हैं।

4. इमामत के महत्व और उसकी केन्द्रीय हैसियत की वजह से दुश्मनों ने हमेशा ही शिओं को फिक़्री और इल्मी लिहाज़ से निशाना बनाया है ताकि इमाम महदी (अ.स.) के बारे में विभिन्न प्रकार के शुब्हे व एतेराज़ उत्पन्न कर के उनके मानने वालों को शक में डाल दिया जाये। जैसे उनकी लम्बी उम्र को एक असंभव और बुद्धि में न आने वाली बात घोषित करना , या उनकी ग़ैबत को एक तर्क विहीन चीज़ बताना या इसी तरह के अन्य बहुत से एतेराज़। इसके अलावा अहलेबैत (अ.स.) की तालीमात को न जानने वाले कुछ लोग महदवियत के बारे में कुछ ग़लत और बेबुनियाद बातें बयान कर देते हैं और उनसे कुछ लोग गुमराह हो जाते हैं या उन को गुमराह कर दिया जाता है। मिसाल को तौर पर हज़रत इमाम महदी (अ.स.) का इन्तेज़ार , उनका ख़ूनी क़ियाम , उनकी ग़ैबत के ज़माने में उनसे मुलाक़ात की संभावना आदि के बारे में बहुत से गलत और रिवायतों के मुखालिफ़ मतलब बयान कर देते हैं। अतः महदवियत के बारे में इस तरह की ग़लत बातों की सही तहक़ीक़ की जाये और उन एतेराज़ों का बुद्धि पर आधारित तर्क पूर्ण जवाब दिया जाये।

इन्हीँ बातों को आधार बना कर यह कोशिश की गई है कि इस किताब में हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की नूरानी ज़िन्दगी के विभिन्न पहलुओं को बयान किया जाये और उन के बारे में जवानों के ज़ेहनों में जो सवाल मौजूद उनका जवाब दिया जाये और इसी तरह इमाम के ज़माने से संबंधित सवालों का भी जवाब दिया जाये। इसके अलावा इस किताब में महदवियत के अक़ीदे के लिए नुक्सान देह चीज़ों और कुछ ग़लत फिक्रों के जवाब भी दिये गए हैं , ताकि तमाम इंसान अल्लाह की आख़िरी हुज्जत हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की मारेफ़त के रास्ते में सही एक क़दम उठा सकें।

पहला अध्याय

इमामत

पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की शहादत के बाद इस्लामी समाज में पैग़म्बर (स.) के जानशीन (उत्तराधिकारी) और खिलाफ़त का मसला सब से ज़्यादा महत्वपूर्ण था। एक गिरोह ने पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के कुछ असहाब के कहने पर हज़रत अबू बकर को पैग़म्बर (स.) का ख़लीफ़ा (उत्तराधिकारी) चुन लिया , लेकिन दूसरा गिरोह पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के हुक्म के अनुसार हज़रत अली (अ.स.) की खिलाफ़त के ईमान पर अटल रहा। एक लम्बा समय बीतने के बाद पहला गिरोह अहले सुन्नत व अल- जमाअत के नाम से और दूसरा गिरोह शिया के नाम से मशहूर हुआ।

यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि शिया व सुन्नी के बीच जो अन्तर पाया जाता है वह सिर्फ पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के जानशीन के आधार पर नहीं है , बल्कि इमाम के मअना व मफ़हूम के बारे में भी दोनों मज़हबो (सम्प्रदायों) के दृष्टिकोणों में बहुत ज़्यादा फर्क पाया जाता है। अतः इसी आधार पर दोनों मज़हब एक दूसरे से अलग हो गये हैं।

हम यहाँ पर इस बात की वज़ाहत (व्याख़्या) के लिए (इमाम और इमामत) के मअना की तहक़ीक़ करते हैं ताकि दोनों के नज़रिये स्पष्ट हो जायें।

शाब्दिक आधार पर इमामत का अर्थ व मअना नेतृत्व व रहबरी हैं और एक निश्चित मार्ग में किसी गिरोह की सर परस्ती करने वाले ज़िम्मेदार को इमाम कहा जाता है। मगर दीन की इस्तलाह (धार्मिक व्याख़यानो व लेखों में प्रयोग होने वाले विशेष शब्दों को इस्तलाह कहा जाता है) में इमामत के विभिन्न अर्थ व मअना उल्लेख हुए हैं।

सुन्नी मुसलमानों के नज़रिये के अनुसार इमामत दुनिया की बादशाही का नाम है और इस के द्वारा इस्लामी समाज का नेतृत्व किया जाता है। अतः जिस तरह हर समाज को एक रहबर व उच्च नेतृत्व की ज़रुरत होती है और उसमें रहने वाले लोग अपने लिए एक रहबर को चुनते हैं , इसी तरह इस्लामी समाज के लिए भी ज़रुरी है कि वह पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के बाद अपने लिए एक रहबर का चुनाव करे , और चूँकि इस्लाम धर्म में इस चुनाव के लिए कोई खास तरीका निश्चित नहीं किया गया है इस लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के जानशीन (उत्तराधिकारी) के चुनाव के लिए विभिन्न तरीकों को अपनाया जा सकता है। जैसे- जिसे पब्लिक या बुज़ुर्गों का अधिक समर्थन मिल जाये या जिसके लिए पहला जानशीन वसीयत करदे या जो बगावत कर के या फौजी ताक़त का प्रयोग कर के हुकूमत पर क़ब्ज़ा कर ले।

लेकिन शिया मुसलमानों का मत है कि हज़रत मुहम्मद (स.) अल्लाह के आख़िरी पैग़म्बर थे और उनके बाद पैग़म्बरी ख़त्म हो गई। उनके बाद पैग़म्बरी की जगह इमामत ने लेली अर्थात अल्लाह ने इंसानों की हिदायत के लिए पैग़म्बर के स्थान पर इमाम भेजने शुरू कर दिये। इमाम मखलूक के बीच अल्लाह की हुज्जत और उसके फ़ैज़ का वास्ता होता है। अतः शिया इस बात पर यक़ीन व ईमान रखते हैं कि इमाम को सिर्फ अल्लाह निश्चित व नियुक्त करता है और उसे पैग़म्बर , वही का पैग़ाम लाने वाले के द्वारा पहचनवाता है। यह नज़रिया इमामत की अज़मत और बलन्दी (महानता) के साथ शिया फ़िक्र में पाया जाता है। इस नज़रिये के अनुसार इमाम का कार्य क्षेत्र बहुत व्यापक है वह इस्लामी समाज का सरपरस्त होता है और अल्लाह के अहकाम को बयान करता है , क़ुरआन का मुफ़स्सिर होता है और इंसानों को राहे सआदत (कल्याण व निजात) की हिदायत करता हैं। बल्कि इससे भी अधिक स्पष्ट शब्दों में यह कहा जा सकता है कि शिया संस्कृति में “इमाम ” पब्लिक की दीन और दुनिया की मुश्किलों को हल करने वाले व्यक्तित्व का नाम है। इसके विपरीत अहले सुन्नत का मानना यह है कि खलीफ़ा या इमाम की ज़िम्मेदारी सिर्फ दुनिया से संबंधित कामों में हुकूमत करना है।

इमाम की ज़रुरत

इन नज़रीयों के उल्लेख के बाद अब इस सवाल का जवाब देना उचित है कि कुरआने करीम और सुन्नते पैग़म्बर (स.) के बावजूद इमाम की क्या ज़रुरत है ? इमाम की ज़रुरत के लिए बहुत से दलीलें पेश की गई हैं लेकिन हम यहाँ पर उन में से सिर्फ़ एक को अपने सादे शब्दों में पेश कर रहे हैं।

जिस दलील के द्वारा नबियों (अ.स.) की ज़रुरत साबित होती है , वही दलील इमाम की ज़रुरत को भी साबित करती है। एक बात तो यह कि क्यों कि इस्लाम आखरी दीन है और हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.) अल्लाह की तरफ़ से आने वाले आखरी पैग़म्बर हैं , अतः ज़रूरी है कि इस्लाम में इतनी व्यापकता हो कि वह क़ियामत तक की इंसानों की सारी ज़रुरतों को पूरा कर सके। दूसरी बात यह कि कुरआने करीम में इस्लाम के उसूल (आधारभूत सिद्धान्त) , अहकाम (आदेश) और इलाही तालीमों (शिक्षाओं) को आम व आंशिक रूप में उल्लेख किया गया हैं और उनकी तफ़्सीर व व्याख़्या पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़िम्मे है। यह बात स्पष्ट है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने मुसलमानों के हादी और रहबर के रूप में ज़माने की ज़रुरतों के अनुसार और अपने ज़माने के इस्लामी समाज की योग्यता के अनुरूप अल्लाह की आयतों को बयान किया अतः पैग़म्बर इस्लाम (स.) के लिए आवश्यक है कि अपने बाद वाले ज़माने के लिए कुछ ऐसे लायक जानशीनों को छोड़ें जो ख़ुदा वन्दे आलम के ला महदूद (अपार व असीमित) इल्म के दरिया से संबंधित हो ताकि जिन चीज़ों को पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने बयान नहीं किया , वह उनको बयान करें और हर ज़माने में इस्लामी समाज की ज़रूरतों को पूरा करते रहें ।

इसी लिए इमाम (अ.स.) पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की छोड़ी हुई मिरास के मुहाफिज़ (रक्षा करने वाले) , कुरआने करीम के सच्चे मुफ़स्सिर और उस के सही मअना बयान करने वाले हैं , ताकि अल्लाह का दीन स्वार्थी दुशमनों के द्वारा तहरीफ (परिवर्तन) का शिकार न हो और यह पाक व पाक़ीज़ा दीन क़ियामत तक बाकी रहे।

इसके अलावा , इमाम इंसाने कामिल (पूर्ण रूप से विकसित इन्सान) के रूप में इन्सानियत के तमाम पहलुओं में नमूनए अमल (आदर्श) है। क्यों कि इन्सानियत को एक ऐसे नमूने की सख्त ज़रुरत है जिसकी मदद और हिदायत के द्वारा इंसानी सामर्थ्य के अनुसार तरबियत (प्रशिक्षण) पा सके और इन आसमानी प्रशिक्षकों के आधीन रह कर भटकाव व अपने नफ्स की इच्छाओं के जाल और बाहरी शैतानों से सुरक्षित रह सके।

उपरोक्त विवरण से ये बात स्पष्ट हो जाती है कि जनता को इमाम की बहुत ज़रुरत है और इमाम की ज़िम्मेदारियाँ निमन लिखित हैं।

o समाज का नेतृत्व व समाजी मुश्किलों का समाधान करना अर्थात हुकूमत की की स्थापना।

o पैग़म्बरे इस्लाम के दीन को तहरीफ़ (परिवर्तन) से बचाना और कुरआन के सही मअनी बयान करना।

o लोगों के दिलों का तज़किया करना अर्थात उन्हें पवित्र बनाना और उन की हिदायत करना।

इमाम की विशेषताएं

पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का जानशीन अर्थात इमाम , दीन को ज़िन्दा रखता और इंसानी समाज की ज़रुरतों को पूरा करता है। इमाम के व्यक्तित्व में इमामत के महान पद के कारण कुछ विशेषताएं पाई जाती हैं जिन में से कुछ मुख़्य विशेषताएं निम्न लिखित हैं।

 इमाम , मुत्तक़ी , परहेज़गार और मासूम होता है , जिसकी वजह से उससे एक छोटा गुनाह भी नहीं हो सकता।

 इमाम के इल्म का आधार पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का इल्म होता है और वह अल्लाह के इल्म से संपर्क में रहता है , अतः वह भौतिक व आध्यात्मिक , दीन और दुनिया की तमाम मुश्किलों के हल का ज़िम्मेदार होता है।

 इमाम में तमाम फ़ज़ायल (सदगुण) मौजूद होते हैं और वह उच्च अख़लाक़ का मालिक होता है।

 दीन के आधार पर इंसानी समाज को सही रास्ते पर चलाने की योग्यता रखता है।

उरोक्त वर्णित विशेषताओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि इमाम का चुनाव जनता के बस से बाहर है। अतः सिर्फ़ ख़ुदा वन्दे आलम ही अपने असीम इल्म के आधार पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के जानशीन (इमाम) का चुनाव कर सकता है। अतः इमाम की विशेषताओं में सब से बड़ी व मुख्य विशेषता उसका ख़ुदा वन्दे आलम की तरफ़ से मन्सूब नियुक्त) होना है।

प्रियः पाठको इमाम की इन विशेषताओं के महत्व को ध्यान में रखते हुए हम यहाँ पर इन में से हर विशेषता के बारे में संक्षेप में लिख रहे

हैं।

इमाम का इल्म

इमाम , जिस पर लोगों की हिदायत और रहबरी की ज़िम्मेदारी होती है , उसके लिए ज़रुरी है कि दीन के तमाम पहलुओं को पहचानता हो और उसके क़ानूनों से पूर्ण रूप से परिचित हो। कुरआने करीम की तफ़्सीर को जानता हो और पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की सुन्नत को भी पूरी तरह से जानता हो ताकि अल्लाह को पहचनवाने वाली चीज़ों और दीन की शिक्षाओं को भली भाँती स्पष्ट रूप से बयान करे और जनता के विभिन्न सवालों के जवाब दे तथा उनका बेहतरीन तरीके से मार्गदर्शन करे। स्पष्ट है कि ऐसी ही इल्म रखने वाले इंसान पर लोगों को विश्वास हो सकता है , और ऐसा इल्म सिर्फ़ ख़ुदा वन्दे आलम के असीम इल्म से संमपर्क रहने की सूरत में ही मुम्किन है। इसी वजह से शिया इस बात पर यक़ीन रखते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के जानशीन (इमाम) का इल्म ख़ुदा के असीम इल्म से संबंधित होता है।

हज़रत इमाम अली (अ.स.) सच्चे इमाम की निशानियों के बारे में फरमाते हैं।

“ इमाम , अल्लाह के द्वारा हलाल व हराम किये गये कामों , विभिन्न आदेशों , अल्लाह के अम्र व नही और लोगों की ज़रुरतों का सब से ज़्यादा जानने वाला होता है। ”

इमाम की इस्मत

इमाम की महत्वपूर्ण विशेषताओं और इमामत की आधारभूत शर्तों में से एक शर्त इस्मत है। (इस्मत यानी इमाम का मासूम होना) इस्मत एक ऐसा मल्का है जो हक़ीक़त के इल्म और मज़बूत इरादे से वजूद में आता है। चूँकि इमाम में ये दोनों चीज़ें पाई जाती हैं इस लिए वह हर गुनाह और खता से दूर रहता है। इमाम भी दीन की शिक्षाओं को जानने , उन्हें बयान करने , उन पर अमल करने और इस्लामी समाज की अच्छाईयों और बुराईयों की पहचान के बारे में ख़ता व ग़लती से महफूज़ रहता है।

इमाम की इस्मत के लिए कुरआन , सुन्नत और अक्ल से बहुत सी दलीलें पेश की गई हैं। उन में से कुछ महत्वपूर्ण दलीलें निम्न लिखित हैं हैं।

1. दीन और दीनदारी की हिफाज़त इमाम की इस्मत पर आधारित है। क्यों कि इमाम पर लोगों को दीन की तरफ़ हिदायत करने और दीन को तहरीफ़ (परिवर्तन) से बचाये रखने की ज़िम्मेदारी होती है। इमाम का कलाम (प्रवचन) , उनका व्यवहार और उनके द्वारा अन्य लोगों के कामों का समर्थन या खंडन करना समाज के लिए प्रभावी होता हैं। अतः इमाम दीन को समझने और उस पर अमल करने (क्रियान्वित होने) में हर ख़ता व ग़लती से सुरक्षित होना चाहिए ताकि अपने मानने वालों को सही तरीके से हिदायत कर सके।

2. समाज को इमाम की ज़रुरत की एक दलील यह भी है कि जनता दीन , दीन के अहकाम और शरियत के क़ानूनों को समझने में खता व गलती से ख़ाली नहीं हैं। अतः अगर उनका रहबर , इमाम या हादी भी उन्हीँ की तरह हो तो फिर उस इमाम पर किस तरह से भरोसा किया जा सकता है ? दूसरे शब्दों में इस तरह कहा जा सकता है कि अगर इमाम मासूम न हो तो जनता उसका अनुसरन करने और उसके हुक्म पर चलने में शक व संकोच करेगी।

इमाम की इस्मत पर कुरआने करीम की आयतें भी दलालत करती हैं जिन में सूरह ए बकरा की 124 वीं आयत है , इस आयते शरीफ़ा में बयान हुआ है कि जब ख़ुदा वन्दे आलम ने जनाबे इब्राहीम (अ.स.) को नबूवत के बाद इमामत का बलन्द (उच्च) दर्जा दिया तो उस मौक़े पर हज़रत इब्राहीम (अ.स.) ने ख़ुदा वन्दे आलम की बारगाह में दुआ की कि इस ओहदे को मेरी नस्ल में भी बाक़ी रखना , जनाबे इब्राहीम (अ.स.) की इस दुआ पर ख़ुदा वन्दे आलम ने फरमायाः

यह मेरा ओहदा (इमामत) ज़ालिमों और सितमगरों तक नहीं पहुच सकता , यानी इमामत का यह ओहदा हज़रत इब्राहीम (अ.स.) की नस्ल में उन लोगों तक पहुंचेगा जो ज़ालिम नही होंगे।

हालांकि कुरआने करीम ने ख़ुदा वन्दे आलम के साथ शिर्क को अज़ीम ज़ुल्म क़रार दिया है और अल्लाह के हुक्म के विपरीत काम करने को अपने नफ़्स (आत्मा) पर ज़ुल्म माना है और यह गुनाह है। यानी जिस इंसान ने अपनी ज़िन्दगी के किसी भी हिस्से में कोई गुनाह किया है , वह ज़ालिम है अतः वह किसी भी हालत में इमामत के ओहदे के योग्य नहीं हो सकता है।

दूसरे शब्दो में यह कह सकते हैं कि इस बात में कोई शक नहीं है कि जनाबे इब्राहीम (अ.स.) ने इमामत को अपनी नस्ल में से उन लोगों के लिए नहीं मांगा था , जिन की पूरी उम्र गुनाहों में गुज़रे या जो पहले नेक हों और बाद में बदकार हो जायें। अगर इस बात को आधार मान कर चलें तो सिर्फ दो किस्म के लोग बाक़ी रह जाते हैं।

1. वह लोग जो शुरु में गुनहगार थे , लेकिन बाद में तौबा कर के नेक हो गए।

2. वह लोग जिन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में कोई गुनाह न किया हो।

3. ख़ुदा वन्दे आलम ने अपने कलाम में पहली किस्म को अलग कर दिया , यानी पहले गिरोह को (वह लोग जो शुरु में गुनहगार थे , लेकिन बाद में तौबा कर के नेक हो गए।) इमामत नहीं मिलेगी इस का नतीजा यह निकलता है कि इमामत का ओहदा सिर्फ़ दूसरे गिरोह से मख्सूस हैं , यानी उन लोगों से जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी में कोई गुनाह न किया हो।

इमाम , समाज को व्यवस्थित करने वाला होता है

चूँकि इंसान एक समाजिक प्राणी है और समाज इसके दिल व जान और व्यवहार को बहुत ज़्यादा प्रभावित करता है , अतः इंसान की सही तरबियत और अल्लाह की तरफ़ बढ़ने के लिए समाजिक रास्ता हमवार होना चाहिए और यह चीज़ इलाही और दीनी हुकूमत के द्वारा ही मुम्किन हो सकती है। अतः ज़रूरी है कि लोगों का इमाम व हादी ऐसा होना चाहिए जिसमें समाज को चलाने व उसे दिशा देने की योग्यता पाई जाती हो और वह कुरआन की शिक्षाओं और नबी की सुन्नत (कार्य शैली) का सहारा लेते हुए बेहतरीन तरीके से इस्लामी हुकूमत की बुनियाद डाल सके।

इमाम का अख़लाक बहुत अच्छा होता है

इमाम चूँकि पूरे इंसानी समाज का हादी (मार्गदर्शक) होता है अतः उसके लिए ज़रूरी है कि वह तमाम बुराईयों से पाक हो और उसके अन्दर बेहतरीन अख़लाक पाया जाता हो , क्यों कि वह अपने मानने वालों के लिए इंसाने कामिल का बेहतरीन नमूना माना जाता है।

हज़रत इमामे रिज़ा (अ.स.) फरमाते हैं कि :

इमाम की कुछ निशानियां होती हैं , जैसे , वह सब से बड़ा आलिम , सब से ज़्यादा नेक , सब से ज़्यादा हलीम (बर्दाश्त करने वाला) , सब से ज़्यादा बहादुर , सब से ज़्यादा सखी (दानी) और सब से ज़्यादा इबादत करने वाला होता है।

इसके अलावा चूँकि इमाम , पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का जानशीन (उत्तराधिकारी) होता है , और वह हर वक़्त इंसानों की तालीम व तरबियत की कोशिश करता रहता है अतः उसके लिए ज़रूरी है कि वह अख़लाक़ के मैदान में दूसरों से ज़्यादा से सुसज्जित हो।

हज़रत इमाम अली (अ.स.) फरमाते हैं कि :

जो इंसान (अल्लाह के हुक्मे) ख़ुद को लोगों का इमाम बना ले उसके लिए ज़रुरी है कि दूसरों को तालीम देने से पहले ख़ुद अपनी तालीम के लिए कोशिश करे , और ज़बान के द्वारा लोगों की तरबियत करने से पहले , अपने व्यवहार व किरदार से दूसरों की तरबियत करे।

इमाम ख़ुदा की तरफ़ से मंसूब (नियुक्त) होता है

शिया मतानुसार पैग़म्बर (स.) का जानशीन (इमाम) सिर्फ अल्लाह के हुक्म से चुना जाता है और वही इमाम को मंसूब (नियुक्त) करता है। जब अल्लाह किसी को इमाम बना देता है तो पैग़म्बर (स.) उसे इमाम के रूप में पहचनवाते हैं। अतः इस मसले में किसी भी इंसान या गिरोह को हस्तक्षेप का हक़ नहीं है।

इमाम के अल्लाह की तरफ़ से मंसूब होने पर बहुत सी दलीलें है , उनमें से कुछ निमन लिखित हैं।

1. कुरआने करीम के अनुसार ख़ुदा वन्दे आलम तमाम चीज़ों पर हाकिमे मुतलक़ (जो समस्त चीज़ों को हुक्म देता है या जिसका हुक्म हर चीज़ पर लागू होता है , उसे हाकिमे मुतलक़ कहते हैं।) है और उसकी इताअत (अज्ञा पालन) सब के लिए ज़रुरी है। ज़ाहिर है कि यह हाकमियत ख़ुदा वन्दे आलम की तरफ़ से (इसकी योग्यता रखने वाले) किसी भी इंसान को दी जा सकती है। अतः जिस तरह नबी और पैग़म्बर (अ.स.) ख़ुदा की तरफ़ से नियुक्त होते हैं , उसी तरह इमाम को भी ख़ुदा नियुक्त करता है और इमाम लोगों पर विलायत रखता है यानी उसे समस्त लोगों पर पूर्ण अधिकार होता है।

2. इस से पहले (ऊपर) इमाम के लिए कुछ खास विशेषताएं लिखी गई हैं जैसे इस्मत , इल्म आदि.... , और यह बात स्पष्ट है कि इन ऐसी विशेषताएं रखने वाले इंसान की पहचान सिर्फ़ ख़ुदा वन्दे आलम ही करा सकता है , क्यों कि वही इंसान के ज़ाहिर व बातिन (प्रत्यक्ष व परोक्ष) से आगाह है , जैसा कि ख़ुदा वन्दे आलम कुरआने मजीद में जनाबे इब्राहीम (अ.स.) को संबोधित करते हुए फरमाता हैः

हम ने , तुम को लोगों का इमाम बनाया।

सबसे अच्छी बात

अपनी बात के इस आखरी हिस्से में हम उचित समझते हैं कि आठवें इमाम हज़रत अली रिज़ा (अ.स.) की वह हदीस बयान करें जिसमें इमाम (अ.स.) इमाम की विशेषताओं का वर्णन किया है।

इमाम (अ.स.) ने कहा कि : जिन्होंने इमामत के बारे में मत भेद किया और यह समझ बैठे कि इमामत एक चुनाव पर आधारित मसला है , उन्होंने अपनी अज्ञानता का सबूत दिया।....... क्या जनता जानती है कि उम्मत के बीच इमामत की क्या गरीमा है , जो वह मिल बैठ कर इमाम का चुनाव कर ले।

इसमें कोई शक नही है कि इमामत का ओहदा बहुत बुलन्द , उच्च व महत्वपूर्ण है और उस की गहराई इतनी ज़्यादा है कि लोगों की अक्ल उस तक नहीं पहुँच पाती है या वह अपनी राय के द्वारा उस तक नहीं पहुँच सकते हैं।

बेशक इमामत वह ओहदा है कि ख़ुदा वन्दे आलम ने जनाबे इब्राहीम (अ.स.) को नबूवत व खिल्लत देने के बाद तीसरे दर्जे पर इमामत दी है। इमामत अल्लाह व रसूल (स.) की ख़िलाफ़त और हज़रत अमीरुल मोमेनीन अली (अ.स.) व हज़रत इमाम हसन व हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) की मीरास है।

सच्चाई तो यह है कि इमामत , दीन की बाग ड़ोर , मुसलमानों के कामों की व्यवस्था की बुनियाद , मोमिनीन की इज़्ज़त , दुनिया की खैरो भलाई का ज़रिया है और नमाज़ , रोज़ा , हज , जिहाद , के कामिल होने का साधन है। , इमाम के ज़रिये ही (उस की विलायत को क़बूल करने की हालत में) सरहदों की हिफ़ाज़त होती है।

इमाम अल्लाह की तरफ़ से हलाल कामों को हलाल और उसकी तरफ़ से हराम किये गये कामों को हराम करता है। वह ख़ुदा वन्दे आलम के हक़ीक़ी हुक्म के अनुसार हुक्म करता है) हुदूदे उलाही को क़ायम करता है , ख़ुदा के दीन की हिमायत करता है , और हिकमत व अच्छे वाज़ व नसीहत के ज़रिये , बेहतरीन दलीलों के साथ लोगों को ख़ुदा की तरफ़ बुलाता है।

इमाम सूरज की तरह उदय होता है और उस की रौशनी पूरी दुनिया को प्रकाशित कर देती है , और वह ख़ुद उफ़क़ (अक्षय) में इस तरह से रहता है कि उस तक हाथ और आँखें नहीं पहुँच पाते। इमाम चमकता हुआ चाँद , रौशन चिराग , चमकने वाला नूर , अंधेरों , शहरो व जंगलों और दरियाओं के रास्तों में रहनुमाई (मार्गदर्शन) करने वाला सितारा है , और लड़ाई झगड़ों व जिहालत से छुटकारा दिलाने वाला है।

इमाम हमदर्द दोस्त , मेहरबान बाप , सच्चा भाई , अपने छोटे बच्चों से प्यार करने वाली माँ जैसा और बड़ी - बड़ी मुसीबतों में लोगों के लिए पनाह गाह होता है। इमाम गुनाहों और बुराईयों से पाक करने वाला होता है। वह मख़सूस बुर्दबारी और हिल्म (धैर्य) की निशानी रखता है। इमाम अपने ज़माने का तन्हा इंसान होता है और ऐसा इंसान होता है , जिसकी अज़मत व उच्चता के न कोई क़रीब जा सकता है और न कोई आलिम उस की बराबरी कर सकता है , न कोई उस की जगह ले सकता है और न ही कोई उस जैसा दूसरा मिल सकता है।

अतः इमाम की पहचान कौन कर सकता है ? या कौन इमाम का चुनाव कर सकता ? यहाँ पर अक़्ल हैरान रह जाती है , आँखें बे नूर , बड़े छोटे और बुद्दीजीवी दाँतों तले ऊँगलियाँ दबाते हैं , खुतबा (वक्ता) लाचार हो जाते हैं और उन में इमाम का क्षेष्ठ कामों की तारीफ़ करने की ताक़त नहीं रहती और वह सभी अपनी लाचारी का इक़रार करते हैं।

दूसरा अध्याय

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की शनाख़्त

पहला हिस्सा

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की ज़िन्दगी पर एक नज़र

शियों के आखरी इमाम और रसूले इस्लाम (स.) के बारहवें जानशीन 15 शाबान सन् 255 हिजरी क़मरी व सन् 868 ई. में जुमे के दिन सुबह के वक़्त इराक के शहर (सामर्रा) में पैदा हुए।

उन के पिता शियों के ग्यारहवें इमाम हज़रत हसन अस्करी (अ.स.) और उन की माता जनाबे नर्जिस ख़ातून थीं। उनकी माता की क़ौम के बारे में रिवायतों में मत भेद पाया जाता हैं। एक रिवायत के अनुसार जनाबे नर्जिस खातून , रोम के बादशाह यशूअ की बेटी थीं और उन की माँ , हज़रत ईसा (अ.स.) के वसी जनाबे शमऊन की नस्ल से थीं। एक रिवायत के अनुसार जनाबे नर्जिस खातून एक ख्वाब के नतीजे में मुसलमान हुईं और इमाम हसन अस्करी (अ.स.) की हिदायत (मार्गदर्शन) की वजह से मुसलमानों से जंग करने वाली रोम की फ़ौज के साथ रहीं और जब उस जंग में मुसलमानों को सफलता मिली तो वह भी अन्य बहुत से लोगों के साथ इस्लामी फ़ौज के द्वारा क़ैदी बना ली गईं। हज़रत इमाम अली नकी (अ.स.) ने एक इंसान को वहाँ भेजा ताकि वह उन्हें खरीद कर सामर्रा ले आये।

इस बारे में अन्य रिवायतें भी मिलती हैं लेकिन महत्वपूर्ण और ध्यान देने योग्य बात यह है कि हज़रत नर्जिस खातून एक मुद्दत तक हक़ीमा खातून (इमाम अली नक़ी (अ.स.) की बहन) के घर में रहीं और उन्होंने ही जनाबे नर्जिस ख़ातून की तरबियत की , जिस की वजह से जनाबे हकीमा खातून उन का बहुत ज़्यादा एहतिराम किया करती थीं।

जनाबे नर्जिस खातून (अ.स.) वह बीबी हैं जिनकी पैग़म्बरे इस्लाम (स.) हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ.स.) और हज़रत इमाम सादिक़ (अ.स.) ने बहुत ज़्यादा तारीफ़ की है और उन को क़नीज़ों में बेहतरीन क़नीज़ और क़नीज़ों की सरदार कहा है।

यह बात बताना भी ज़रूरी है कि हज़रत इमामे ज़माना (अज्जल अल्लाहु तआला फरजहु शरीफ़) की आदरनीय माता को दूसरे नामों से भी पुकारा जाता था , जैसे- सोसन , रिहाना , मलीका , और सैक़ल व सक़ील।

इमामे ज़माना का नाम कुन्नियत और अलक़ाब

हज़रत इमामे ज़माना (अज्जल अल्लाहु तआला फरजहु शरीफ़) का नाम और क़ुन्नियत पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का नाम और कुन्नियत है। कुछ रिवायतों में उनके ज़हूर तक उनका नाम लेने से मना किया गया है।

उन के मशहूर अल्काब इस तरह हैं , महदी , क़ाइम , मुन्तज़िर , बक़ीयतुल्लाह , हुज्जत , ख़लफे सालेह , मंसूर , साहिबुल अम्र , साहिबुज़्ज़मान , और वली अस्र , इन में महदी लक़ब सब से ज़्यादा मशहूर है।

इमाम (अ.स.) का हर लक़ब उनके बारे में एक मख़सूस पैग़ाम रखता है।

खूबियों के इमाम को (महदी) कहा गया है , क्यों कि वह ऐसे हिदायत याफ्ता हैं जो लोगों को हक़ की तरफ़ बुलायें गे और उन को क़ाइम इस लिए कहा गया है क्यों कि वह हक़ के लिए क़ियाम करेंगे और उन को मुन्तज़िर इस लिए कहा गया है क्यों कि सभी उन के आने का इन्तेज़ार कर रहे हैं। उन्हें ब़कीयतुल्लाह लक़ब इस वजह से दिया गया है क्यों कि वह ख़ुदा की हुज्जतों में से बाक़ी हुज्जत हैं और वही अल्लाह का आख़िरी ज़ख़ीर हैं।

(हुज्जत) का अर्थ मखलूक पर ख़ुदा के गवाह , और ख़लफ़े सालेह का अर्थ अल्लाह के नेक जानशीन है। उनको मंसूर इस वजह से कहा गया है कि ख़ुदा की तरफ़ से उनकी मदद होगी। वह साहबे अम्र इस वजह से कहलाये जाते हैं कि अदले इलाही की हुकूमत क़ायम करना उन्हीं की ज़िम्मेदारी है। साहिबुज़्ज़मान और वली अस्र भी इसी अर्थ में हैं कि वह अपने ज़माने के तन्हा हाकिम होंगे।

जन्म की स्थिति

बहुत सी रिवायतों में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) से नक्ल हुआ है कि मेरी नस्ल से महदी नाम का इंसान क़याम करेगा , जो ज़ुल्मो सितम की बुनियादों को खोखला कर देगा।

बनी अब्बास के ज़ालिम व सितमगर बादशाहों ने इन रिवायत को सुन कर यह तय कर लिया था कि इमाम महदी (अ.स.) को जन्म के समय ही क़त्ल कर दिया जाये। इसी वजह से इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) के ज़माने से ही अइम्मा ए मासूमीन (अ.स.) पर बहुत ज़्यादा सख्तियाँ की गईं और इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के ज़माने में यह सख्तियां अपनी आख़िरी हद तक पहुँच गईं। हालत यह थी कि अगर कोई हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के घर पर जाता था तो उसका आना जाना उस वक़्त की हुकूमत की नज़रों से छुपा नहीं था। ज़ाहिर है कि ऐसे माहौल में अल्लाह की आखरी हुज्जत का जन्म गोपनीय तरीके से होना चाहिए था। इसी दलील की वजह से इमाम के जन्म को इतना छुपा कर रखा गया कि हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के नज़दीकी साथी भी हज़रत इमाम महदी (अ.स.) के जन्म से बे खबर थे। हज़रत इमाम महदी (अ.स.) के जन्म से कुछ घण्टे पहले तक भी उनकी माँ जनाबे नर्जिस खातून के जिस्म में किसी बच्चे को जन्म देने की निशानियाँ नही पाई जाती थीं।

जनाबे हकीमा खातून जो कि हज़रत इमाम मुहम्मद तकी (अ.स.) की बेटी हैं , हज़रत इमाम महदी (अ.स.) के जन्म के बारे में इस तरह विवरण देती हैं।

हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) ने मुझे बुलाया और कहा : ऐ फुफी जान आज आप हमारे यहाँ इफ़्तार करना , क्यों कि आज पन्द्रहवीं शाबान की रात है और ख़ुदा वन्दे आलम इस रात में अपनी आख़री हुज्जत को ज़मीन पर ज़ाहिर करने वाला है। मैं ने सवाल किया उसकी माँ कौन है ? इमाम (अ.स.) ने जवाब दिया कि नर्जिस खातून। मैं ने कहा कि मैं आप पर कुर्बान , उन में तो हम्ल (गर्भ) की कोई भी निशानी नही दिखाई दे रही हैं। इमाम (अ.स.) ने फरमाया : बात वही है जो मैं ने कही है। इस के बाद मैं नर्जिस ख़ातून के पास गई और सलाम कर के उन के पास बैठ गई। वह मेरी जूतियाँ उतारने के लिए मेरे पास आईं और मुझ से कहा कि ऐ मेरी मलका , आपका क्या हाल है ? मैं ने कहा कि नहीं आप ही मेरी और मेरे खानदान की मलीका हैं। उन्हों ने मेरी बात को नही माना और कहा फुफी जान आप क्या फरमाती हैं ? मैं ने कहा , आज की रात ख़ुदा वन्दे आलम तुम को एक बेटा ऐसा बेटा देगा जो दुनिया और आखिरत का सरदार होगा। वह यह सुन कर शर्मा गईं।

हक़ीमा खातून कहती हैं कि मैं ने इशा की नमाज़ के बाद इफ़्तार किया और उस के बाद आराम के लिए अपने बिस्तर पर लेट गई। आधी रात बीतने के बाद मैं नमाज़े शब पढ़ने के लिए उठी और नमाज़ पढ़ कर नर्जिस की तरफ़ देखा तो वह उस वक़्त तक आराम से ऐसे सोई हुई थीं , जैसे उनके सामने कोई मुश्किल न हो। मैं नमाज़ की ताक़िबात (नमाज़ के बाद पढ़ी जाने वाली दुआओं को ताक़ीबात कहते हैं) के बाद फिर पलटी और नर्जिस खातून की तरफ़ देखा तो वह उसी तरह सोई हुई थीं। थोड़ी देर के बाद वह नींद से जागी और नमाज़े शब पढ़ कर दो बारा सो गईं।

हकीमा खातून का कहना है कि मैं सहन में आई ताकि देखूं कि सुब्हे सादिक (सुब्ह की नमाज़ के वक़्त को सुब्हे सादिक़ कहते हैं) हुई या नहीं , मैं ने देखा कि अभी सुब्हे काज़िब (रात का वह आख़िरी हिस्सा जिस में ऐसा लगता है कि सुब्ह हो गई है , लेकिन वास्तव में रात ही होती है उसे सुब्हे काज़िब कहते हैं) है। मैं जब यह देखने के बाद अन्दर आयी तो उस वक़्त तक भी नर्जिस खातून सोई हुई थीं। मुझे शक होने लगा ! अचानक हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) ने अपने बिस्तर से आवाज़ दी : ऐ फुफी जान जल्दी न करें बच्चे के जन्म का समय नज़दीक है। मैं ने सूरः ए सजदा और सूरः ए यासीन की तिलावत शुरु कर दी। तभी जनाबे नर्जिस परेशानी की हालत में नींद से जागीं , मैं जल्दी से उन के पास गई और कहा , ”اسم اللہ علیک “ (तुम से बला दूर हो) क्या तुम्हें किसी चीज़ का एहसास हो रहा है ? उन्होंने कहा कि हाँ फुफी जान , मैं ने कहा कि अपने ऊपर कन्ट्रोल रखो , और अपने दिल को मज़बूत कर लो , यह वही वक़्त है जिस के बारे में मैं आपको पहले बता चुकी हूँ। इस मौके पर मुझे और नर्जिस खातून को कमज़ोरी का एहसास हुआ। इस के बाद मेरे सैय्यद व सरदार बच्चे की आवाज़ सुनाई दी। मैं ने उनके ऊपर से चादर हटाई तो उन को सजदे की हालत में देखा , मैं आगे बढ़ी और बच्चे को गोद में ले लिया। मैंने देखा कि बच्चा पूरी तरह से पाक व पाक़ीज़ा है।

उस मौक़े पर हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) ने मुझ से फरमाया : ऐ फुफी जान मेरे बेटे को मेरे पास ले आइये। मैं उस को उनके पास ले गई , उन्होंने अपनी गोद में ले कर फरमायाः ऐ मेरे बेटे कुछ बोलो ! यह सुन कर वह बच्चा बोलने लगा और कहा कि اشھد ان لا الہ الا الله وحدہ لا شریک لہ و اشھد انّ محمداً رسول الله “ , इस के बाद अमीरुल मोमिनीन और अन्य मासूम इमामों (अ.स.) पर दुरुद भेजा और अपने पिता का नाम लेने पर रुक गये। इमामे हसन अस्करी (अ.स.) ने फरमायाः फुफी जान! इस बच्चे को इस की माँ के पास ले जाओ , ताकि यह उन्हें सलाम करे।

हकीमा खातून कहती हैं , कि दूसरे दिन जब में इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के यहाँ गई तो मैं ने इमाम (अ.स.) को सलाम किया , मैं ने अपने मौला व आक़ा (इमाम महदी) को देखने के लिए पर्दा उठाया , लेकिन वह दिखाई न दिये , अतः मैं ने उन के हज़रत इमाम हसन अस्करी से सवाल किया : मैं आप पर कुर्बान , क्या मेरे मौला व आक़ा के लिए कोई इत्तिफाक़ पेश आ गया है ? इमाम (अ.स.) ने फरमायाः ऐ फुफी जान मैं ने उस को उस ख़ुदा के सुपुर्द कर दिया है जिस को जनाबे मूसा की माँ ने जनाबे मूसा को सिपुर्द किया था।

हकीमा खातून कहती हैं , जब सातवां दिन आया मैं फिर इमाम (अ.स.) के यहाँ गई और सलाम करके बैठ गई। इमाम (अ.स.) ने फरमायाः मेरे बेटे को मेरे पास लाओ , मैं अपने मौला व आक़ा को उन के पास ले गई , इमाम (अ.स.) ने फरमाया : ऐ मेरे बेटे कुछ बात करो , बच्चे ने ज़बान खोली और ख़ुदा वन्दे आलम की वहदानियत (एकेश्वरवाद) की गवाही देने और पैग़म्बरे इस्लाम (स.) व अपने बाप दादाओं पर दुरुद व सलाम भेजने के बाद इन आयतों की तिलावत फरमाई।

और हम ये जानते हैं कि जिन लोगों को ज़मीन में कमज़ोर कर दिया गया है उन पर एहसान करें और उन्हें लोगों का इमाम और ज़मीन का वारीस बनायें और उन्हीं को ज़मीन पर हुकूमत दें और फिरौन व हामान और उनकी फ़ौजों को उन्हीँ कमज़ोरों के हाथों वह मंज़र दिखलायें जिस से ये डर रहे हैं।

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की विशेषताएं

पैग़म्बरे इस्लाम (स.) और अहलेबैत (अ.स.) की रिवायतों में इमाम महदी (अ.स.) की शक्ल व सूरत और विशेषताओं का जो उल्लेख मिलता है , यहाँ पर उन में से कुछ की तरफ़ इशारा किया जा रहा है।

इमाम के चेहरे का रंग गेहूँआ , ऊँचा व चमकता हुआ माथ , भंवैं गोल और आँखें बड़ी बड़ी , नाक लम्बी और खूबसूरत , दाँत चौड़े और चमकदार , दाहिने गाल पर एक काले तिल का निशान , काँधे पर नबूवत जैसी एक निशानी , जिस्म मज़बूत और दिलरुबा है।

आपकी जो निशानियाँ व विशेषताएं मासूम इमामों (अ.स.) की हदीसों में बयान हुई हैं उन में से कुछ इस तरह हैं।

(हज़रत महदी अ. स.) बहुत इबादत करने वाले हैं और वह रात भर जाग कर इबादत करते हैं। वह ज़ाहिद और सादी ज़िन्दगी बसर करने वाले हैं। वह सब्र और बर्दाश्त करने वाले हैं। वह न्याय से काम करने वाले और नेक किरदार के मालिक हैं। वह इल्म के लिहाज़ से सब लोगों से उत्तम हैं और उनका मुबारक वजूद बरकत और पाकिज़गी का समुन्द्र है। वह जुल्म के ख़िलाफ़ उठ खड़े होंगे और जंग करेंगे। वह पूरी दुनिया के लोगों का नेतृत्व करेंगे और दुनिया में बहुत बड़ा इन्केलाब (परिवर्तन) लायेंगे। वह लोगों को निजात (मुक्ति) दिलाने वाले आख़िरी हादी होंगे और इंसानियत का सुधार करने वाले होंगे। वह पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की नस्ल से , हज़रत फ़ातिमा (स.अ.) की औलाद हैं और हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) के नवें बेटे हैं। वह अपने ज़हूर के वक़्त खान- ए- काबा की दीवार के सहारे खड़े होंगे और पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का परचम अपने हाथ में लिए होंगे। वह अपने क़ियाम से अल्लाह के दीन को ज़िन्दा करेंगे और अल्लाह के अहकाम (आदेशों) को पूरी दुनिया में लागू करेंगे। वह अपने ज़हूर के बाद दुनिया को अदल व इंसाफ (न्याय) और मुहब्बत से भर देंगे , जैसा कि वह उनके आने से पहले ज़ुल्म व अत्याचार से भरी होगी।

इमाम महदी (अज्जल अल्लाहु तआला फरजहु शरीफ़) की ज़िन्दगी तीन हिस्सों में बटी हुई है-

1. मख़फ़ी ज़माना — जन्म के वक़्त से हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) की शहादत तक आपकी ज़िन्दगी लोगों से मख़फ़ी (गुप्त) रही।

2. ग़ैबत का ज़माना- हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) की शहादत के बाद से इमाम (अ.स.) की ग़ैबत का सिलसिला शुरु हुआ और जब तक ख़ुदा वन्दे आलम चाहेगा ये सिलसिला जारी रहेगा।

3. ज़हूर का ज़माना- ग़ैबत का वक़्त पूरा होने के बाद इमामे ज़माना (अ.स.) अल्लाह के हुक्म से ज़हूर फरमायेंगे और दुनिया को अदल व इन्साफ़ और नेकियों से भर देंगे। उनके ज़हूर का वक़्त कोई भी नहीं जानता और इमामे ज़माना (अ.स.) से रिवायत है कि जो लोग हमारे ज़हूर के लिए कोई ख़ास वक़्त निश्चित करें वह झूठे हैं।


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