सृष्टि का मोती

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सृष्टि का मोती : मौलाना सैय्यद क़मर ग़ाज़ी जैदी
कैटिगिरी: इमाम मेहदी (अ)

सृष्टि का मोती

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

: मौलाना सैय्यद क़मर ग़ाज़ी जैदी
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सृष्टि का मोती

सृष्टि का मोती

हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

तीसरा अध्याय

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) का इन्तेज़ार

पहला हिस्सा

ग़ैबत

प्रियः पाठकों ! अब जबकि आप इंसानों को निजात व मुक्ति देने वाले और हज़रत आदम (अ.स.) से लेकर पैग़म्बरे इस्लाम (स.) तक सभी नबियों (स.) के मक़सद को पूरा करने वाले , अल्लाह के आख़िरी वली हज़रत इमाम महदी (अ.स.) से परिचित हो गये हैं तो हम चाहते हैं कि उनकी ग़ैबत के बारे में कुछ बातें करें क्योंकि ग़ैबत उनकी ज़िन्दगी का एक महत्वपूर्म हिस्सा है।

ग़ैबत का अर्थ

सबसे पहली , उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण बात यह है कि ग़ैबत का अर्थ “ किसी चीज़ का आँखों से छुपा रहना ” है , उसका अनुपस्थित होना नही है। अतः इस हिस्से में उस ज़माने की बातें है जब इमाम महदी (अ.स.) लोगों की नज़रों से छिपे थे। यानी लोग आप को नहीं देख पाते थे जब कि आप लोगों के बीच में ही रहते थे , और उन्हीं के बीच ज़िन्दगी बसर किया करते थे। इस वास्तविक्ता का वर्णन मासूम इमामों (अ.स.) की हदीसों व रिवायतों में विभिन्न तरीकों से हुआ है।

हज़रत इमाम अली (अ.स.) फरमाते हैं :

अल्लाह की क़सम ! अल्लाह की हुज्जत लोगों के बीच रहती है , रास्तों गलियों व बाज़ारों में मौजूद होती है , लोगों के घरों में आती जाती है , पूरब से लेकर पश्चिम तक पूरी ज़मीन का भ्रमण करती है , लोगों की बातों का सुनती है और उन पर सलाम भेजती है , वह सबको देखती है लेकिन लोगों की आँखें उसे उस वक़्त तक नहीं देख सकतीं जब तक ख़ुदा की मर्ज़ी और उस का वादा पूरा न हो जाये...

इमाम महदी (अ.स.) के लिए ग़ैबत की एक दूसरी किस्म भी बयान हुई है। हज़रत इमाम महदी (अ.स.) के दूसरे ख़ास नायब बयान फरमाते है :

इमाम महदी (अ.स.) हज के दिनों में हर साल हाज़िर होते हैं , वह लोगों को देखते हैं और उनको पहचानते हैं। लोग उनको देखते हैं लेकिन नही पहचानते ...।.

इस आधार पर हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की ग़ैबत दो प्रकार की हैः वह कुछ जगहों पर लोगों की नज़रों से छिपे रहते हैं और कुछ जगहों पर लोगों को दिखाई देते हैं , लेकिन उनकी पहचान नहीं हो पाती है , जो भी हो यह तय है कि हज़रत इमाम महदी (अ.स.) लोगों के बीच मौजूद रहते हैं।

ग़ैबत का इतिहास

ग़ैबत में और छुपकर ज़िन्दगी व्यतीत करना कोई ऐसी बात नहीं है जो सिर्फ़ हज़रत इमाम महदी (अ.स.) से ही संबंधित हो , बल्कि कुछ रिवायतों से ये नतीजा निकलता है कि बहुत से नबियों (अ.स.) की ज़िन्दगी का एक हिस्सा ग़ैबत में गुज़रा है और उन्होंने एक समय तक छुपकर जीवन व्यतीत किया है और यह चीज़ ख़ुदा वन्दे आलम की मर्ज़ी के अनुसार थी किसी ज़ाती और खानदानी हित के लिए नही।

ग़ैबत , अल्लाह की एक सुन्नत है.. जो बहुत से नबियों (अ.स.) की ज़िन्दगी में देखी गई है , जैसे जनाबे इदरीस , जनाबे नूह , जनाबे सालेह , जनाबे इब्राहीम , जनाबे यूसुफ़ जनाबे मूसा , जनाबे शुऐब , जनाबे इल्यास , जनाबे सुलेमान , जनाबे दानियाल और जनाबे ईसा (अ.स.) और विभिन्न हालतों के कारण इन सब नबियों (अ.स.) का जीवन कई सालों तक ग़ैबत में लोगों की नज़रों से छुपकर व्यतीत हुआ है..।

इसी वजह से हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की ग़ैबत की रिवायतों में (ग़ैबत) को नबियों (अ.स.) की सुन्नत के रूप में याद किया गया है और हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की ज़िन्दगी में नबियों (अ.स.) की सुन्नत का जारी होना ग़ैबत की दलीलों में माना गया है।

हज़रत इमाम सादिक़ (अ.स.) ने फरमाया :

बेशक हमारे क़ाइम (इमाम महदी (अ.स.) के लिए ग़ैबत होगी और उसकी मुद्दत बहुत लंबी होगी। जब रावी ने पूछा कि ऐ रसूल के बेटे ग़ैबत की वजह क्या है तो हज़रत इमाम सादिक़ (अ.स.) ने फरमाया : ख़ुदा वन्दे आलम का इरादा यह है कि ग़ैबत की जो सुन्नत उसने नबियों (अ.स.) के लिए रखी है वह सुन्नत उनके बारे में भी जारी रहे..।

प्रियः पाठकों ! उपरोक्त विवरण से ये बात भी स्पष्ट हो जाती है कि हज़रत इमाम महदी (अ.स.) के पैदा होने से वर्षों पहले से उनकी ग़ैबत का मसला बयान होता रहा है और पैग़म्बरे इस्लाम (स.) से लेकर हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) तक सब इमामों ने उनकी ग़ैबत , उनके ज़माने में घटित होने वाली घटनाओ और उनकी विशेषताओं का भी वर्णन किया है। यह ही नही बल्कि ग़ैबत के ज़माने में मोमिनों की ज़िम्मेदारियों का भी वर्णन किया हैं..।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फरमाया :

महदी (अ.स.) मेरी ही नस्ल से होगा... और वह ग़ैबत में रहेगा , लोगों की हैरानी व परेशानी इस हद तक बढ़ जायेगी कि लोग दीन से गुमराह हो जायेंगे और फिर जब अल्लाह का हुक्म होगा तो वह चमकते हुए सितारे की तरह ज़हूर करेगा और ज़मीन को अदल व इन्साफ़ से भर देगा जिस तरह वह ज़ुल्म व जौर (अत्याचार) से भरी होगी...

ग़ैबत की वजह

हमारे बारहवें इमाम और अल्लाह की आख़िरी हुज्जत हज़रत इमाम महदी (अ.स.) क्यों ग़ैबत का जीवन व्यतीत कर रहे हैं और क्या वजह है कि हम इमाम के ज़हूर की बरकतों से महरुम (वंचित) हैं ?

प्रियः पाठकों ! इस बारे में बहुत ज़्यादा बात चीत होती है और इस से संबंधित बहुत सी रिवायतें भी मौजूद हैं , लेकिन हम यहाँ इस सवाल का जवाब देने से पहले एक बात की तरफ़ इशारा कर रहे हैं।

हम इस बात पर ईमान रखते हैं कि ख़ुदा वन्दे आलम का झोटे से छोटा और बड़े से बड़ा काम हिकमत व मसलेहत (अक़्लमंदी और भलाई व हित) से खाली नहीं होता है , चाहे हम उन हितों को जानते हों या न जानते हों और इस संसार की हर छोटी बड़ी घटना ख़ुदा वन्दे आलम की युक्ति और उसी के इरादे से घटित होती है। उन्हीं में से एक महत्वपूर्ण घटना हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की ग़ैबत भी है। अतः उनकी ग़ैबत भी हिकमत व मसलेहत के अनुसार है अगरचे हम उसके मूल कारण को न जानते हों।

हज़रत इमाम सादिक़ (अ.स.) ने फरमाया :

बेशक साहिबुल अस्र (हज़रत इमाम महदी (अ.स.)) के लिए ऐसी ग़ैबत होगी जिस में बातिल का का हर पुजारी शक व शुब्हे का शिकार हो जायेगा।

जब रावी ने इमाम की ग़ैबत की वजह मालूम की तो इमाम (अ.स.) ने फरमाया :

ग़ैबत की वजह एक ऐसी चीज़ है जिस को हम तुम्हारे सामने बयान नहीं कर सकते , ग़ैबत अल्लाह के राज़ों में से एक राज़ है। लेकिन चूँकि हम जानते हैं कि ख़ुदा वन्दे आलम हिकमत वाला है और उसके सब काम हिकमत के आधार होते हैं , चाहे हम उनकी वजह न जानते हो..

इंसान अधिकाँश अवसरों पर ख़ुदा वन्दे आलम के कामों को हिकमत के अनुसार मानते हुए उनके सामने अपना सर झुका देता है , लेकिन फिर भी कुछ चीज़ों के राज़ों को जानने की कोशिश करता है ताकि उनकी हक़ीक़त को जान कर उसे और अधिक इत्मिनान हो जाये। अतः इसी इत्मिनान के लिए हम इमाम महदी (अ.स.) की ग़ैबत की हिकमत और उसके असर की तहक़ीक शुरु करते हैं और इस बारे में बयान होने वाली रिवायतों की तरफ़ इशारा करते हैं।

जनता को अदब सिखाना

जब उम्मत अपने नबी या इमाम की क़दर न करे और अपनी ज़िम्मेदारियों को न निभाये , बल्कि इसके विपरीत उसकी अवज्ञा करे तो ख़ुदा वन्दे आलम के लिए यह बात उचित है कि उनके रहबर , हादी या इमाम को उन से अलग कर दे , ताकि वह उस से अलग रह कर अपने गरेबान में झाँके और उस के वजूद की कद्र व क़ीमत और बरकत को पहचान लें। अतः इस सूरत में इमाम की ग़ैबत उम्मत की भलाई में है चाहे उम्मत को यह बात मालूम न हो और वह इस बात को न समझ सकती हो।

हज़रत इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.स.) से रिवायत है :

जब ख़ुदा वन्दे आलम किसी क़ौम में हमारे वजूद से खुश नही होता तो हमें उन से अलग कर लेता है...।

लोगों से अनुबंध किये बग़ैर काम करना

जो लोग किसी जगह इंकेलाब (परिवर्तन) लाना चाहते हैं , वह अपने इंकेलाब के शुरू में अपने मुखालिफ़ों से कुछ समझौते करते हैं ताकि अपने मक़सद में कामयाब हो जायें , लेकिन हज़रत इमाम महदी (अ.स.) वह महान सुधारक व उद्धारक हैं जो अपने इंकेलाब और न्याय व समानता पर आधारित विश्वव्यापी हुकूमत स्थापित करने के लिए किसी भी ज़ालिम व अत्याचारी से किसी भी तरह का कोई समझौता नहीं करेंगे। क्यों कि बहुत सी रिवायतों में मिलता है कि उनको सभी ज़ालिमों से खुले आम मुक़ाबेला करने का हुक्म है। इसी वजह से जब तक इस इंक़ेलाब का रास्ता हमवार नहीं हो जाता उस वक़्त तक वह ग़ैबत में रहेंगे ताकि उन्हें अल्लाह के दुश्मनों से को ई समझौता न करना पड़े।

ग़ैबत की वजह के बारे में हज़रत इमाम रज़ा (अ.स.) से मन्कूल हैः

उस वक़्त जब कि इमाम महदी (अ.स.) तलवार के ज़रिये क़ियाम फरमायेगे तो आप का किसी के साथ अहदो पैमान न होगा...

लोगों का इम्तेहान

ख़ुदा वन्दे आलम की एक सुन्नत लोगों का इम्तेहान करना भी है। वह अपने बन्दों को विभिन्न तरीक़ों से आज़माता है ताक़ि हक़ के रास्ते में उनका अडिग व अटल रहना स्पष्ट हो सके। जबकि वास्तविक्ता यह है कि उस इम्तेहान का नतीजा ख़ुदा वन्दे आलम को पहले से मालूम होता है लेकिन इम्तेहान की इस भट्टी में तपने के बाद बन्दों की हक़ीक़त स्पष्ट हो जाती है और वह अपने वजूद (अस्तित्व) के जौहर को पहचान लेते हैं।

हज़रत इमाम मूसा क़ाज़िम (अ.स.) ने फरमाया :

जब मेरा पाँचवां बेटा गायब हो जाये तो तुम लोग अपने दीन की हिफ़ाज़त करना ताकि कोई तुम्हें तुम्हारे दीन से विचलित न कर सके , क्यों कि साहिबे अम्र (हज़रत इमाम महदी (अ.स.)) के लिए ग़ैबत होगी जिस में उनके मानने वाले अपने अक़ीदे से फिर जायेगे और उस ग़ैबत के ज़रिये ख़ुदा वन्दे आलम अपने बन्दों का इम्तेहान करेगा..

इमाम की हिफ़ाज़त

नबियों (अ.स.) के अपनी क़ौम से अलग होने की एक वजह अपनी जान की हिफ़ाज़त भी है। नबी (अ.स.) अपनी जान बचाने के लिए कुछ खतरनाक मौक़ों पर लोगों की नज़रों से छुप जाते थे ताकि किसी उचित मौक़े पर अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा करें और अल्लाह के पैग़ाम को पहुँचायें। जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) मक्क ए मोज़्ज़मा से निकल कर एक गार में छुप गये थे। लेकिन हमेशा याद रखना चाहिए कि यह सब ख़ुदा वन्दे आलम के हुक्म और इरादे से होता था।

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) और उनकी ग़ैबत के बारे में भी कुछ रिवायतों में यही बात बयान हुई है। हम यहाँ पर उनमें से कुछ रिवायतों को नमूने के तौर पर लिख रहे हैं। जैसे ----

हज़रत इमाम सादिक़ (अ.स.) ने फरमाया :

इमामे मुन्तज़र (जिसका इन्तेज़ार किया जाता है उसे मुन्तज़र कहते हैं) अपने क़ियाम (आन्दोलन) से पहले एक लंबे समय तक लोगों की नज़रों से गयायब रहेंगे।

जब इमाम (अ.स.) से ग़ैबत की वजह मालूम की गई तो उन्होंने फरमाया :

उन्हें अपनी जान का खतरा होगा..।

शहादत की तमन्ना अल्लाह के सभी नेक बन्दों के दिलों में होती है , लेकिन ऐसी शहादत जो दीन , समाज सुधार और अपनी ज़िम्मेदारियों निभाते हुए हो। इसके विपरीत अगर किसी का क़त्ल होना उसके मक्सद के ख़त्म हो जाने का कारण बने तो ऐसे मौक़े पर क़त्ल होने से डरना और बचना अक़्लमन्दी का काम है। अल्लाह के आख़िरी ज़ख़ीरे यानी बारहवें इमाम हज़रत महदी के क़त्ल होने का मतलब यह हैं कि खाना ए काबा गिर जाये सारे नबियों और वलियों (अ.स.) की तमन्नाओं पर पानी फिर जाये और न्याय व समानता पर आधारित विश्वव्यापी हुकूमत की स्थापना के बारे में ख़ुदा का वादा पूरा न हो।

यह बात भी उल्लेखनीय है कि कुछ रिवायतों में ग़ैबत के कुछ अन्य कारणों का भी वर्णन हुआ हैं , परन्तु हम संक्षिप्तता को ध्यान में रख कर और विस्तार से बचने के लिए यहाँ उनका उल्लेख नहीं कर रहे हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि ग़ैबत अल्लाह के राज़ों में से एक राज़ है और इस की असली व आधारभूत वजह इमाम (अ.स.) के ज़हूर के बाद ही स्पष्ट होगी। हम ने हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की ग़ैबत के कारणों के बारे में जिन चीज़ों का वर्णन किया है , उन चीज़ों का इमाम (अ.स.) की ग़ैबत में असर रहा है।

दूसरा हिस्सा

ग़ैबत की क़िस्में

प्रियः पाठकों ! उपरोक्त विवरण के आधार पर हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की ग़ैबत ज़रुरी व अनिवार्य हो जाती है। लेकिन चूँकि हमारे हादियों के सब काम और कारनामे लोगों के ईमान व अक़ीदों को मज़बूत बनाने के लिए होते थे , अतः इस बात का डर था कि अल्लाह की इस आख़री हुज्जत की ग़ैबत की वजह से मुसलमानों की दीनदारी को नुक्सानात पहुंचेंगे , इसी लिए ग़ैबत का ज़माना बहुत ही हिसाब और किताब के साथ शुरू हुआ जो आज तक चल रहा है।

इमाम महदी (अ.स.) के जन्म से वर्षों पहले से उनकी ग़ैबत और उसकी ज़रुरत के बारे में बात चीत हो रही थी और मासूम इमामों (अ.स.) व उन के असहाब की महफिलों में इस पर चर्चा होती थी। इसी तरह हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) और हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) लोगों से एक नए अन्दाज़ और खास हालात में ही मिलते थे। अहले बैत अलैहिमु अस्सलाम के शिया भी आहिस्ता आहिस्ता यह जान गये थे कि वह दीन और दुनिया की बहुत सी ज़रुरतों में इमाम मासूम (अ.स.) से मुलाक़ात पर मजबूर नहीं हैं , बल्कि इमामों (अ.स.) की तरफ़ से नियुक्त वकीलों और भरोसेमंद लोगों के ज़रिये भी अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा किया जा सकता है। हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) की शहादत और हज़रत हुज्जत इब्नुल हसन (अ.स.) की ग़ैबते सुग़रा के शुरू होने से इमाम और उम्मत के बीच राब्ता (संबंध) ख़त्म नही हुआ था , बल्कि मोमेनीन अपने मौला व इमाम के नायबों के ज़रिये इमाम से राब्ता किया करते थे। यही ज़माना था जिस में शियों को दीनी आलिमों से बड़े पैमाने पर राब्ते की आदत हुई और इसी राब्ते की वजह से हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की ग़ैबत के ज़माने में भी दीनी फ़राइज़ की पहचान का रास्ता बन्द नहीं हुआ। इसी मौक़े पर उचित था कि बक़ीयतुल्लाह हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की ग़ैबते कुबरा शुरू हो और इमाम (अ.स.) व शियों के बीच पिछले ज़माने में प्रचलित आम राब्ते का सिलसिला बन्द हो जाये।

प्रियः पाठकों ! हम यहाँ ग़ैबते सुग़रा और ग़ैबते क़ुबरा की कुछ विशेषताओं का उल्लेख कर रहे हैं।

ग़ैबते सुग़रा (अल्पकालीन ग़ैबत)

सन् 260 हिजरी क़मरी में हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) की शहादत के फ़ौरन बाद हमारे बारहवें इमाम हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की इमामत शुरू हुई और उसी वक़्त से उनकी गैबते सुग़रा भी शुरू हो गई और यह ग़ैबत सन् 320 हिजरी क़मरी तक (लग भग 60 साल) रही।

ग़ैबते सुग़रा की सब से बड़ी विशेषता यह थी कि इस में मोमेनीन हज़रत इमाम महदी (अ.स.) के ख़ास नायबो के ज़रिये , इमाम से राब्ता किया करते थे और उनके ज़रिये ही अपने सवालात हज़रत इमाम महदी (अ.स.) के पास भेजते थे और इमाम (अ.स.) के जवाब व पैग़ाम प्रप्त करते थे

कभी कभी हज़रत इमाम महदी (अ.स.) के इन्हीँ नायबों के ज़रिये ही इमाम (अ.स.) की ज़ियारत का शरफ़ भी हासिल हो जाता था।

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की ग़ैबते सुग़रा में उनके चार ख़ास नायब हुए हैं और उन्हें नव्वाबे अर्बा कहा जाता हैं। वह अपने ज़माने के बड़े शिया आलिम थे और हज़रत इमाम महदी (अ.स.) उन्हें ख़ुद अपनी नियाबत के लिए चुनते थे। उनके नाम नियाबत के क्रमानुसार निम्न लिखित हैं।

1. उस्मान पुत्र सईद अमरी , यह इमाम महदी (अ.स.) की ग़ैबत के शुरू से ही इमाम की नियाबत करते थे , इनकी मृत्यु सन् 265 हिजरी क़मरी में हुई। यह बात भी उल्लेखनीय है कि यह हज़रत इमाम अली नकी (अ.स.) और हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के भी वक़ील थे।

2. मुहम्मद पुत्र उस्मान अमरी , यह हज़रत इमाम महदी (अ.स.) के पहले नायब के बेटे थे और अपने पिता की मृत्यु के बाद इमाम (अ.स.) के नायब बने। इनकी मृत्यु सन् 305 हिजरी क़मरी में हुई।

3. हुसैन पुत्र रौह नौ बख्ती , यह हज़रत इमाम महदी (अ.स.) के 21 साल तक नायब रहे। इनकी मृत्यु सन् 326 हिजरी क़मरी में हुई।

4 अली पुत्र मुहम्मद समरी , यह हज़रत इमाम महदी ( अ स ) के चौथे व आख़िरी नायब थे। इनकी मृत्यु सन् 329 हिजरी क़मरी में हुई और उनके देहान्त के बाद ग़ैबते सुग़रा का ज़माना ख़त्म हो गया।

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) के खास नायब हज़रत इमाम हसन अस्करी ( अ स .) और ख़ुद हज़रत इमाम महदी (अ.स.) के ज़रिये चुने जाते थे और लोगों में पहचनवाए जाते थे। शेख तूसी अलैहिर्रहमा अपनी किताब ( अल ग़ैबत ) में इस रिवायत का उल्लेख करते हैं कि एक दिन हज़रत इमाम महदी ( अ स .) के पहले नायब उस्मान पुत्र सईद के साथ चालीस मोमेनीन हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के पास पहुँचे इमाम (अ.स.) ने उन्हें अपने बेटे की ज़ियारत कराई और फरमाया :

मेरे बाद यही बच्चा मेरा जानशीन ( उत्तराधिकारी ) और तुम्हारा इमाम होगा , तुम लोग इसकी इताअत ( आज्ञापालन ) करना और यह भी जान लो कि आज के बाद तुम इसे नहीं देख पाओगे , यहाँ तक कि इसकी उम्र पूरी हो जाये। अतः इस की ग़ैबत के ज़माने में उस्मान पुत्र सईद जो कुछ कहें उसे क़बूल करना और उनकी इताअत करना क्योंकि वह तुम्हारे इमाम के जानशीन हैं और तमाम कामों की ज़िम्मेदारी इन्हीँ की है

हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) की दूसरी रिवायत में मुहम्मद पुत्र उस्मान को इमाम महदी (अ.स.) के दूसरे नायब के रूप में याद किया है।

शेख तूसी अलैहिर्रहमा उल्लेख करते हैं :

उस्मान पुत्र सईद ने एक बार हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के हुक्म से यमन के शियों द्वारा लाया गया माल अपने क़ब्ज़े में लिया , उस वक़्त वहाँ मौजूद कुछ मोमेनीन जो इस घटना को देख रहे थे , उन्होंने इमाम (अ.स.) से कहा : ख़ुदा की क़सम उस्मान आपके बेहतरीन शियों में से हैं , लेकिन आपके नज़दीक उनका क्या मक़ाम है यह हम पर इस काम से स्पष्ट हो गया है।

हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) ने फरमाया : जी हाँ ! तुम लोग गवाह रहना कि उस्मान पुत्र सईद उमरी मेरे वक़ील हैं और इसका बेटा मुहम्मद मेरे बेटे महदी का वक़ील होगा ।

यह सब घटनाएं हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की ग़ैबत से पहली हैं , ग़ैबते सुग़रा में भी इमाम का हर नायब अपनी मृत्यु से पहले हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की तरफ़ से चुने जाने वाले नये नायब की पहचान करा देता था।

यह महान व्यक्ति चूँकि उच्च गुणों व सिफ़तों के मालिक़ थे इस लिए उनके अन्दर हज़रत इमाम महदी (अ.स.) का नायब बनने की योग्यता पैदा हुई। इन महानुभावों की कुछ मुख्य सिफ़तें इस प्रकार थीं , अमानतदारी , पाकीज़गी , व्यवहार में न्याय , राज़दारी और हज़रत इमाम महदी (अ.स.) के ज़माने के मख़सूस हालात में अहले बैत (अ.स.) के राज़ों को छुपाये रखना आदि। यह महानुभव हज़रत इमाम महदी (अ.स.) के भरोसेमंद साथी थे और इनकी तरबियत अहले बैत के द्वारा हुई थी। उन्होंने पक्के व सच्चे ईमान के साये में इल्म की दौलत प्राप्त की थी। उनका नेक नाम मोमिनों की ज़बान पर आम था। सख्तियों और परेशानियों में सब्र व बुर्दबारी की यह हालत थी कि वह सख्त से सख्त हालत में भी अपने इमाम (अ.स.) की पूर्ण रूप से आज्ञापालन किया करते थे। इन सब अच्छी सिफ़तों के साथ उनमें शियों का नेतृत्व करने की भी योग्यता पाई जाती थी। वह अपनी योग्यताओं के आधार पर ज़माने की चाल ढाल को देख व परख कर और अपने पास मौजूद साधनों के ज़रिये शिया समाज की सिराते मुस्तक़ीम की तरफ़ हिदायत भी करते थे। इसी आधार पर उन्होंने अल्लाह की मदद से मोमिनो को ग़ैबते सुग़रा से सही व सालीम ग़ुज़ार दिया।

ग़ैबते सुग़रा में इमाम और उम्मत के बीच संबंध स्थापित करने में नव्वाबे अर्बा की भूमिका का गहरा अध्ययन हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की ज़िन्दगी के उस हिस्से के महत्व को स्पष्ट कर देता है। इस संबंध का वजूद और ग़ैबते सुग़रा में कुछ शिओं का इमाम महदी (अ.स.) की ज़ियारत करना , बारहवें इमाम और अल्लाह की इस आख़री आख़री हुज्जत के जन्म को सिद्ध व साबित करने में बहुत प्रभावी रहा है। यह महत्वपूर्ण नतीजे उस समय में प्राप्त हुए जब दुशमन यह कोशिश कर रहे थे कि शिओं को हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के बेटे के जन्म के संबंध में शक व शुब्हे में डाल दिया जाये। इसके अलावा ग़ैबते सुग़रा का यह ज़माना , उस ग़ैबते कुबरा के लिए रास्ता हमवार कर रहा था जिस में मोमेनीन अपने इमाम से राब्ता नहीं कर सकते थे। लेकिन ग़ैबते सुग़रा की वजह से वह अपने इमाम (अ.स.) के वजूद और उनकी बरकतों से लाभान्वित होते हुए ग़ैबते कुबरा के ज़माने में दाखिल हो गए।

ग़ैबते कुबरा

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) ने अपने चौथे नायब की ज़िन्दगी के आख़री दिनों में उनके नाम एक ख़त लिखा जिसका विषय निम्न लिखित था।

ऐ अली पुत्र मुहम्मद समरी ! ख़ुदा वन्दे आलम आपकी मृत्यु पर आपके दीनी भाइयों को सब्र दे , क्योंकि आप छः दिन के बाद आलमे बक़ा ( परलोक ) की तरफ़ कूच कर जाओगे , इस लिए अपने कामों को खूब देख भाल लो और अपने बाद किसी को अपना नायब न बनाओ , क्यों कि लंबी ग़ैबत का ज़माना शुरू होने वाला है , जब तक ख़ुदा का हुक्म नहीं होगा तुम मुझे नहीं देख पाओगे , इस के बाद एक लंबी समय सीमा होगी जिस में दिल सख्त हो जायेंगे और ज़मीन ज़ुल्म व सितम से भर जायेगी

इस आधार पर बारहवें इमाम के आखरी नायब की मृत्यु के बाद सन् 329 हिजरी क़मरी से गैबते कुबरा शुरू हो गई और इस ग़ैबत का यह सिलसिला आज तक जारी है और इसी तरह जारी रहेगा जब तक ख़ुदा की मर्ज़ी से ग़ैबत के बादल न छट जायें। जब अल्लाह का हुक्म होगा तब यह दुनिया विलायत के चमकते हुए सूरज से प्रकाशित होगी।

जैसा कि ऊपर वर्णन किया जा चुका है कि ग़ैबते सुग़रा में शिया व मोमेनीन , इमाम (अ.स.) के मखसूस नायब के ज़रिये अपने इमाम से राब्ता रखते थे और अपने दीन के फ़राइज़ से परिचित होते थे। लेकिन ग़ैबते कुबरा में इस राब्ते का सिलसिला ख़त्म हो गया। अब मोमेनीन को चाहिए कि अपने दीन के फ़राइज़ को जानने लिए इमाम (अ.स.) के आम नायबों ( जो कि आलिमे दीन व मराजा ए तक़लीद हैं ) से राब्ता करें और यह वह स्पष्ट रास्ता है जो हज़रत इमाम महदी (अ.स.) ने अपने एक भरोसेमंद आलिमे दीन के सामने पेश किया है , हज़रत इमाम महदी (अ.स.) के दूसरे ख़ास नायब के ज़रिये पहुँचे हुए एक ख़त में इस तरह लिखा है :

” وَ اٴمَّا الحَوَادِثُ الوَاقِعَةُ فَارْجعوا إلیٰ رُواةِ حَدیثنَا فَإنّہُمْ حُجَّتِي عَلَیْکُم وَ اٴَنَا حُجَّةُ اللهِ عَلَیْہِمْ “

और आगे घटित होने वाली घटनाओं व परिस्थितियों में ( अपनी शरई ज़िम्मेदारियों को जानने के लिए ) हमारी हदीसों के रावियों ( फ़ोकहा ) से संबंध स्थापित करना क्यों कि वह तुम पर हमारी हुज्जत हैं और हम उन पर ख़ुदा की हिज्जत हैं।

दीनी सवालों के जवाब और शिओं की नीजी व सामाजिक ज़िम्मेदारियों की पहचान के लिए यह नया तरीका इस हक़ीक़त को स्पष्ट करता है कि शिया तहज़ीब में इमामत का निज़ाम , एक बेहतरीन और ज़िन्दा निज़ाम है। इस निज़ाम के अन्तर्गत विभिन्न परिस्थितियों में मोमिनों की हिदायत बहुत अच्छे ढंग से की जाती है और इस निज़ाम को मानने वालों को किसी भी ज़माने में हिदायत के सर चश्मे के बग़ैर नहीं छोड़ा गया है। बल्कि उनकी नीजी व समाजिक ज़िन्दगी के विभिन्न मसाइल को दीनी आलिमों और पर्हेज़गार मुजतहिदों के सिपुर्द कर दिया गया है और वह मोमेनीन के दीन और दुनिया के अमानतदार हैं , ताकि इस्लामी समाज की किश्ती तूफ़ान और दरिया के उतार चढ़ाव व साम्राज्वाद की गन्दी सियासत के दलदल में फ़ंसने से बची रहे और शिया अक़ाइद की सरहदों की हिफ़ाज़त होती रहे।

हज़रत इमाम अली नक़ी (अ.स.) ग़ैबत के ज़माने में दीन के आलिमों की बूमिका को बयान करते हुए फरमाते हैं :

अगर ऐसे आलिम न होते जो इमाम महदी (अ.स.) की ग़ैबत के ज़माने में लोगों को उनकी तरफ बुलाते हैं और उनको अपने इमाम की तरफ़ हिदायत करते हैं , अल्लाह की हुज्जतों और ख़ुदा वन्दे आलम के दीन की मज़बूत दलीलों की हिमायत करते हैं , और अगर ऐसे बुद्धीमान व सूज बूझ आलिमे दीन न होते जो ख़ुदा के बन्दों को शैतान व शैतान सिफत लोगों और अहलेबैत (अ.स.) के दुशमनों की दुशमनी के जाल से न बचाते तो फिर कोई भी अल्लाह के दीन पर बाक़ी न रहता !! ( और सब दीन से बाहर निकल चुके होते ) लेकिन उन्होंने शिओं के अक़ीदों व फ़िक्रों को अपने हाथों में ले लिया जैसे किश्ती का ना ख़ुदा कश्ती में सवार मुसाफिरों को अपने हाथों में ले लेता है। यह आलिम ख़ुदा वन्दे आलम के नज़दीक सब से बेहतरीन ( बन्दे ) हैं

यह बात ध्यान देने योग्य है कि समाज की इमामत के लिए कुछ ख़ास सिफ़तों व कमालों की ज़रूरत होती है। क्योंकि मोमेनीन के दीन व दुनिया के सब कामों को उन इंसान के हाथों में दे दिया जाता है जो इस महान ज़िम्मेदारी के ओहदेदार होते हैं अतः उनका बुद्धिमान होना और सही मौक़े पर सही फ़ैसला लेने की योग्यता रखना ज़रुरी है। इसी वजह से मासूम इमामों (अ.स.) ने मुराजा ए दीनी और उन से बढ़ कर वली ए अम्रे मुस्लेमीन ( वलीए फ़कीह ) की कुछ ख़ास शर्तें बयान की हैं।

हज़रत इमाम सादिक (अ.स.) ने फरमाया :

दीनी आलिमों व फ़कीहों में जो इंसान , छोटे व बड़े गुनाहों के मुक़ाबले में अपने को बचाये रखे , दीन व मोमेनीन के अक़ाइद का मुहाफिज़ हो , अपने नफ्स व इच्छाओं की मुख़ालेफ़त करता हो और अपने ज़माने के मौला व आक़ा ( इमाम ) की इताअत ( आज्ञापालन ) करता हो तो मोमेनीन पर वाजिब है कि उसकी पैरवी करें। यह भी याद रहे कि सिर्फ़ कुछ शिया फ़क़ीह ही ऐसे होंगे न कि सब लोग

तीसरा हिस्सा

ग़ायब इमाम के फ़ायदे

इंसानी समाज , सैंकड़ों साल से अल्लाह की हुज्जत के ज़हूर के फ़ायदों से वंचित है और इस्लामी समाज उस आसमानी व मासूम इमाम के पास जाने में असमर्थ है। इस स्थिति से यह सवाल यह उठता है कि उनके ग़ायब होने और लोगों की नज़रों व पहुँच से दूर , छुप कर जीवन व्यतीत करने से इस दुनिया व दुनिया वासियों को क्या फ़ायदे हैं ? क्या यह नहीं हो सकता था कि ज़हूर के ज़माने के नज़दीक उनका जन्म होता जिससे उनकी ग़ैबत के सख्त ज़माने को उनके शिया न देखते ?

यह सवाल और इसी तरह के अन्य सवाल इमाम और अल्लाह की हुज्जत की सही पहचान न होने की वजह से पैदा होते हैं।

इस संसार में इमाम का मर्तबा क्या है ? क्या उन के वजूद के सब फ़ायदे उन के ज़हूर पर ही आधारित हैं ? और क्या वह सिर्फ़ लोगों की हिदायत के लिए है , या उन का वजूद अल्लाह की पूरी मखलूक़ के लिए फ़ायदे व बरकत का कारण है ?

इमाम संसार का केन्द्र होता है

धार्मिक शिक्षाओं के आधार पर शियों का यह मत है कि इस संसार में मौजूद हर चीज़ के पास अल्लाह का फ़ैज़ इमाम के वास्ता से ही पहुँचता है। इस संसार के निज़ाम में इमाम एक ध्रुव व केन्द्र के समान है तथा संसार का पूरा निज़ाम उसी के चारों ओर घूमता है। उस के वजूद के बग़ैर इस संसार में इंसानों , जिन्नों , फ़रिश्तों और संक्षेप में यह कि किसी भी जानदार व बेजान चीज़ का नाम व निशान बाक़ी न रहता।

हज़रत इमाम सादिक़ (अ.स.) से सवाल पूछा गया कि क्या ज़मीन इमाम के बग़ैर बाक़ी रह सकती है ? इमाम (अ.स.) ने जवाब में कहा कि

अगर ज़मीन पर इमाम का वजूद न हो तो वह उसी वक़्त फ़ना हो जाये अर्थात उसका विनाश हो जाये ।

चूँकि वह लोगों तक ख़ुदा के पैगाम को पहुँचाने और लोगों को इंसानी कमालों की ओर की हिदायत करने में वास्ता होता हैं और इस संसार में मौजूद हर चीज़ तक हर तरह का फ़ैज़ व करम उसी के वजूद के ज़रिये पहुँचता है। यह बात स्पष्ट है कि ख़ुदा वन्दे आलम ने इंसानी समाज की हिदायत शुरु में नबियों (अ.स.) के जरिये और बाद में उन के जानशीनों ( इमामों ) के ज़रिये की है। लेकिन मासूम इमामों (अ.स.) के कलाम ( प्रवचनों ) से यह नतीजा निकलता है कि इस संसार में ख़ुदा वन्दे आलम की तरफ़ से हर छोटे व बड़े वजूद तक जो नेमत और फ़ैज़ पहुँचता है उस में इमाम ही वास्ता बनता है। इससे भी अधिक स्पष्ट रूप में यह कहा जा सकता है कि इस संसार में मौजूद प्रत्येक चीज़ ख़ुदा वन्दे आलम की तरफ़ से जो कुछ भी प्राप्त करती है वह इमाम के ज़रिये ही उस तक पहुँचती है। यही नही बल्कि उन का ख़ुद का वजूद भी इमाम के ही कारण है और वह अपनी ज़िन्दगी में जो कुछ भी प्राप्त करते हैं उस में भी इमाम की ज़ात ही वास्ता ( माध्यम ) बनती है।

ज़ियारते जामेआ ( जो कि हक़ीक़त में इमाम की पहचान के लिए एक अच्छी किताब है ) के एक वाक्य में इस तरह से वर्णन हुआ है कि :

” بِکُمْ فَتَحَ اللهُ وَ بِکُمْ یَخْتِمُ وَ بِکُمْ یُنَزِّلُ الغَیْثَ وَ بِکُمْ یُمسِکُ السَّمَاءَ اٴنْ تَقَعَ عَلَی الاٴرضِ إلاَّ بِإذْنِہِ ।

ऐ मासूम इमामों ! ख़ुदा वन्दे आलम ने इस संसार का ारम्भ तुम्हारी ही वजह से किया है और वह तुम्हारी ही वजह से उसे आख़िर तक पहुँचाएगा और तुम्हारे ही वजूद की वजह से रहमत की बारिश करता है और तुम्हारे ही वजूद की बरकत से ज़मीन पर आसमान को गिरने से बचाये हुए है , यह सब उसके के इरादे से है।

अतः यह नही कहा जा सकता कि इमाम (अ.स.) के वजूद के असर सिर्फ उन के ज़हूर की सूरत में ही हैं। इसके विपरीत वास्तविक्ता यह है कि उनका वजूद संसार में ( यहाँ तक कि उनकी ग़ैबत के ज़माने में भी ) अल्लाह की पूरी मख़लूक़ के बीच जीवन का स्रोत है। ख़ुद ख़ुदा वन्दे आलम की मर्ज़ी भी है कि सब से उत्तम व महान और हर प्रकार से पूर्ण वजूद ( अर्थात इमाम ) अल्लाह की अनुकम्पा को अल्लाह से प्राप्त कर के उसे उसकी अन्य मखलूक़ तक पहुँचाने में वास्ता बने , अतः इस आधार पर इमाम के ग़ायब या ज़ाहिर रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

जी हाँ ! सभी , इमाम (अ.स.) के वजूद के असर से लाभान्वित होते हैं और इमाम महदी (अ.स.) की ग़ैबत इस बारे में कोई रुकावट नहीं है। ध्यान देने योग्य बात ये है कि जब हज़रत इमाम महदी (अ.स.) से उनकी ग़ैबत के ज़माने में उनसे लाभान्वित होने के तरीके के बारे में पूछा गया तो उन्होंने फरमाया :

” وَ اٴمَّا وَجہُ الإنْتِفَاعِ بِی فِی غَیْبَتِی فَکا الإنْتِفَاعِ بِالشَّمْسِ إذَا غَیَّبَتْہَا عَنِ الاٴبْصَارِ السَّحَابَ “ ....

मेरी ग़ैबत के ज़माने में मुझ से उसी तरह फ़ायदा होगा , जिस तरह बादलों के पीछे छिपे सूरज से फायदा उठाया जाता है।

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) ने अपनी मिसाल सूरज से और अपनी ग़ैबत की मिसाल बादल के पीछे छिपे सूरज की सी दी है। इस मिसाल में बहुत से रहस्य पाये जाते हैं , अतः हम यहाँ पर उन में से कुछ की तरफ़ इशारा कर रहे हैं।

सौर मंडल ( सोलर सिस्टम ) में सूरज एक केन्द्र का काम करता है और अन्य सब ग्रह उसी के चारों ओर घूमते हैं , इसी तरह हज़रत इमाम महदी (अ.स.) का वजूद भी इस संसार के निज़ाम व व्यवस्था में ध्रुवीय स्थान रखता है।

”بِبَقَائِہِ بَقِیَتِ الدُّنْیَا وَ بِیُمْنِہِ رُزِقَ الوَریٰ وَ بِوُجُوْدِہِ ثَبَتَتِ الاٴرْضُ وَ السَّمَاءُ “

उस ( इमाम ) के बाक़ी रहने की वजह से ही दुनिया बाकी है और उस के वजूद की बरकत से संसार के हर मौजूद को रोज़ी मिलती है और उस के वजूद की वजह से ही ज़मीन और आसमान बाक़ी हैं।

सूरज एक पल के लिए भी अपने प्रकाश की किरणें फैलाने में कंजूसी नहीं करता और हर चीज़ अपनी आवश्यक्ता अनुसार सूरज के प्रकाश से लाभान्वित होती है। इसी तरह हज़रत इमाम महदी (अ.स.) का वजूद भी समस्त भौतिक व आध्यात्मिक नेमतों को प्राप्त करने का माध्यम है। हर इंसान कमालों के उस केन्द्र से अपने संबंध के अनुसार लाभान्वित होता है।

अगर यह सूरज बादलों के पीछे भी न रहे तो इस इतनी अधिक ठंड हो जायेगी और अंधेरा फैल जायेगा कि कोई भी जानदार ज़मीन पर नहीं रह सकेगा। इसी तरह अगर यह संसार इमाम (अ.स.) के वजूद से वंचित हो जाये ( वह ग़ैबत में भी न रहे ) तो मुश्किलें , परेशानियाँ , कठिनाईयाँ और विपत्तियाँ इतनी बढ़ जायेंगी कि इंसानी ज़िन्दगी आगे बढ़ने से रुक जायेगी और समस्त प्राणियों का अन्त हो जायेगा।

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) ने शेख मुफीद अलैहिर्रहमा को एक ख़त लिखा , जिस में उन्होंने अपने शिओं के लिए निमन लिखित पैग़ाम लिखा था।

” اِنَّا غَیْرُ مُہْمِلِیْنَ لِمُرَاعَاتِکُمْ وَ لاٰ نَاسِیْنَ لِذِکْرِکُمْ وَ لَولٰا ذَلِکَ لَنَزَلَ بِکُمُ اللاَّوَاءُ وَ اصْطَلَمَکُمُ الاٴعْدَاءُ

न हम तुम्हें कभी तुम्हारे हाल पर छोडते हैं और न कभी तुम्हें भूलते हैं , अगर तुम पर हमेशा हमारी तवज्जोह न होती तो तुम पर बहुत सी विपत्तियाँ और बलायें नाज़िल होतीं और दुश्मन तुम को मिटा कर रख देते।

अतः इमाम (अ.स.) के वजूद का सूरज पूरे संसार पर चमकता है और संसार में मौजूद हर चीज़ को लाभ पहुँचता है और उन समस्त प्राणियों के बीच इंसानों को और इंसानों में इस्लामी समाज को और इस्लामी समाज में मुख्यः रूप से शिओं को विशेष ख़ैर व बरकत पहुँचाता है। हम यहाँ पर इस के कुछ नमूने आप की सेवा में पेश कर रहे हैं।

उम्मीद की किरण

इंसान की ज़िन्दगी का सबसे महत्वपूर्ण धन उम्मीद होती है , उम्मीद ही इंसान की ज़िन्दगी में जीवन का आधार और खुशी का कारण बनती है। इंसान के क्रिया कलापों का आधार उम्मीद ही होती है। इस संसार में इमाम (अ.स.) का वजूद उज्जवल भविषय और ख़ुशी की उम्मीद का आधार है। शिया अपने चौदह सौ साल के इतिहास में हमेशा ही विभिन्न मुश्किलों और परेशानियों में घिरे रहे हैं। जिस चीज़ ने हमें ज़ुल्म व अत्याचार के विरुद्ध आन्दोलन चलाने की ताक़त दी और ज़ालिम व अत्याचारियों के सामने न झुकने दिया वह अच्छे व उज्जवल भविषय की उम्मीद थी। ऐसा उज्जवल भविषय काल्पनिक और मन गड़त नहीं , बल्कि वास्तविक्ता रखता है और नज़दीक है और बहुत नज़दीक भी हो सकता है , क्यों कि जो इंसान विश्वव्यापी आन्दोलन और इंकेलाब के नेतृत्व की ज़िम्मेदारी संभाले हुए है , वह ज़िन्दा है और हर वक़्त तैयार है। यह तो हम हैं जिन्हें तैयार होने की ज़रूरत है।

विचार धारा की मज़बूती

हर समाज को अपनी सुरक्षा और अपने निश्चित उद्देशयों को पाने के लिए एक माहिर नेतृत्व की ज़रुरत होती है , ताकि वह समाज उसकी हिदायत (मार्गदर्शन) के अनुसार सही रास्ते पर क़दम बढ़ाये। किसी भी समाज के लिए इमाम और हादी का वजूद बहुत ही आवश्यक है ताकि वह समाज एक बेहतरीन निज़ाम व व्यवस्था के अन्तर्गत अपने अस्तित्व को बाकी रख सके और भविषय के परोग्रामों व योजनाओं को स्थायित्व प्रदान करने के लिए अपनी कमर कस कर बाँध ले। ज़िन्दा और अच्छा रहबर अगर लोगों के बीच न रहे तब भी आधारभूत विषयों और काम करने के उपायों को बताने में लापरवाई नहीं करता और भटकाने वाले रास्तों से विभिन्न तरीकों से होशियार करता रहता है।

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) ग़ैबत में हैं लेकिन उनका वजूद शिया मज़हब की सुरक्षा का सबसे अच्छा साधन है। वह पूर्ण जानकारी के साथ शिया अक़ीदों को दुश्मनों की साज़िशों से विभिन्न तरीक़ों से बचाते हैं और जब मक्कार दुश्मन विभिन्न चालों के ज़रिये शिया मज़हब के उसूल (आधारभूत सिद्धान्तों) और एतेक़ादों को निशाना बनाता है तो उस वक़्त वह (अ.स.) कुछ ख़ास लोगों व आलिमों की हिदायत कर के दुश्मन के मक्सद को नाकाम बना देते हैं।

नमूने के तौर पर बहरैन के शिओं के संबंध में हज़रत इमाम महदी (अ.स.) की मेहरबानी और तवज्जोह को अल्लामा मजलिसी अलैहिर्रहमा की ज़बानी सुनते हैं। यह घटना निम्न लिखित है---

पिछले ज़माने में बहरैन में एक नासबी की हुकूमत थी और उसका वज़ीर वहाँ के शिओं से बहुत ज़्यादा दुशमनी रखता था। एक दिन वज़ीर बादशाह के पास एक अनार लेकर पहुँचा। उस अनार पर क़ुदरती तौर पर यह वाक्य लिखा हुआ था :

”لا الہ الا الله محمد رسول الله، و ابوبکر و عمر و عثمان و علی خلفاء

رسول الله “

ला इलाहा इल्लल्लाह , मुहम्मदुर रसूलुल्लाह व अबू बकर व उमर व उस्मान व अली ख़ुलफ़ा ए रसूलुल्लाह। बादशाह उस अनार को देख कर ताज्जुब में पड़ गया और उस ने अपने वज़ीर से कहा : यह तो शिया मज़हब के बातिल (असत्य) होने की स्पष्ट व खुली दलील है। बादशाह ने वज़ीर से पूछा कि बहरैन के शिओं को बारे में तुम्हारा क्या ख़्याल है ?! वज़ीर ने जवाब दिया : मेरी राय के अनुसार उन को हाज़िर किया जाये और उन्हें यह निशानी दिखाई जाये , अगर उन लोगों ने मान लिया तो उन को अपना मज़हब छोड़ना होगा , वर्ना तीन चीज़ों में से एक को ज़रुर मानना होगा! या तो वह संतुष्ट करने वाला जवाब ले कर आयें या जज़िया.. दिया करें , या उनके मर्दों को क़त्ल कर के उनके बीवी बच्चों को क़ैदी बना लें और उनके माल व दौलत को ग़नीमत का माल मानते हुए अपने माल में मिला लें।

बादशाह ने उसकी राय को मान लिया और शिया आलिमों को अपने पास बुला भेजा। जब शिया आलिम उसके पास पहुँचे तो उसने उन्हें वह अनार दिखाया और कहा कि अगर तुम इस बारे में कोई सबूत न पेश कर सके तो मैं तुम्हे क़त्ल कर दूँगा और तुम्हारे बीवी बच्चों को क़ैदी बना लूँगा या फिर तुम्हें जज़िया देना होगा। यह सुन कर शिया आलिमों ने उस से तीन दिन की मोहलत मांगी। इसके बाद उन आलिमों ने आपस में राय मशवरा करने के बाद यह तय किया कि अपने बीच से बहरैन के दस नेक और पर्हेज़गार आलिमों को चुना जाये और वह दस आलिम अपने बीच से तीन आलिमों को चुने और वह इमामे ज़माना से इस मसले का हल मालूम करें। जब वह तीन आलिम चुन लिये गये तो उन्होंने उन में से एक आलीम से कहा : आप आज जंगल में निकल जाइये और इमामे ज़माना (अ.स.) से फ़रियाद कर के उनसे इस मुसीबत से छुटकारे का रास्ता मालूम कीजिये , क्यों कि वही हमारे इमाम और हमारे मालिक हैं। उन साहब ने जंगल में जा कर इमामे ज़माना को पुकारना शुरू किया , लेकिन इमामे ज़माना (अ.स.) से मुलाक़ात न हो सकी। दूसरी रात दूसरे इंसान को भेजा गया , लेकिन उनको भी कोई जवाब न मिल सका। आख़िरी रात तीसरे आलिम मुहम्मद पुत्र ईसा को भेजा गया। वह भी जंगल में गये और उन्होंने रोते हुए इमाम (अ.स.) से मदद गुहार की , जब रात अपनी आखरी मंज़िल पर पहुंची तो उन्होंने सुना कि कोई इंसान उनसे संबोधित हो कर कह रहा है कि ऐ मुहम्मद पित्र ईसा! मैं तुम्हें इस हालत में क्यों देख रहा हूँ ?! और तुम इस जंगल में परेशान क्यों घूम रहे हो ?! मोहम्द पुत्र ईसा ने कहा कि आप मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिये , उन्होंने फरमाया : ऐ मुहम्मद पुत्र ईसा ! मैं तुम्हारे ज़माने का इमाम हूँ। तुम अपनी परेशानी बयान करो। मुहम्मद पुत्र ईसा ने कहा : अगर आप मेरे ज़माने के इमाम हैं तो मेरी परेशानी भी जानते हैं मुझे बताने की क्या ज़रुरत है ?! फरमाया : तुम सही कहते हो। तुम अपनी मुसीबत की वजह से यहाँ आये हो। उन्होंने कहा : जी हाँ आप जानते हैं कि हम पर क्या मुसीबत पड़ी है। आप ही हमारे इमाम और हमारी पनाहगाह हैं।

यह सुनने के बाद इमाम (अ.स.) ने फरमाया : ऐ मुहम्मद पुत्र ईसा ! उस वज़ीर (लाअनतुल्लाह अलैह) के यहाँ एक अनार का दरख्त है जिस वक़्त उस दरख्त पर अनार लगना शुरु हुए तो उसने मिट्टी का एक साँचा बनवाया और उस पर यह वाक्य लिख कर एक छोटे अनार पर उस सांचे को बांध दिया। जैसे जैसे वह अनार बड़ा होता गया उसके छिलके पर उस वाक्य के शब्द अंकित होते गये। तुम उस बादशाह के पास जाना और उस से कहना कि मैं तुम्हारा जवाब वज़ीर के घर जा कर दूँगा। जब तुम उसके साथ वज़ीर के घर पहुँच जाओ तो वज़ीर से पहले फलां कमरे में जाना , वहाँ तुम्हें एक सफ़ैद थैला मिलेगा उसी थैले में वह मिट्टी का साँचा रखा हुआ है , उस को निकाल कर बादशाह को दिखाना। दूसरी निशानी यह है कि बादशाह से कहना कि हमारा दूसरा मोजज़ा यह है कि जब अनार के दो हिस्से करोगे तो अनार के अन्दर से मिट्टी और धुँऐं के अलावा कोई चीज़ नही निकलेगी।

मुहम्मद पुत्र ईसा , इमाम (अ.स.) के इस जवाब से बहुत खुश हुऐ और शिया आलिमों के पास लौट आये। अगले दिन वह सब बादशाह के पास पहुँचे और जो इमाम (अ.स.) ने जो फरमाया था उसको बादशाह के सामने पेश कर दिया।

बहरैन के बादशाह ने इस मोजज़े को देखा तो शिया मज़हब का आशिक़ हो गया और हुक्म दिया कि इस मक्कार वज़ीर को क़त्ल कर दिया जाये...

तरबियत

कुरआने करीम में वर्णन होता है :

< وَقُلْ اعْمَلُوا فَسَیَرَی اللهُ عَمَلَکُمْ وَرَسُولُہُ وَالْمُؤْمِنُون۔۔۔ >

और (ऐ पैग़म्बर) आप कह दीजिये कि तुम लोग अमल (कार्य) करते रहो , तुम्हारे अमल को अल्लाह , रसूल और मोमेनीन देख रहे हैं।

रिवायतों में उल्लेख मिलता है कि इस आयत में मोमेनीन अइम्मा ए मासूमीन (अ.स.) को कहा गया हैं..। इस आधार पर मोमेनीन के आमाल (अच्छे व बुरे सब कार्य) इमामे ज़माना (अ.स.) की नज़रों के सामने होते हैं और वह ग़ैबत में रहते हुए भी हमारे क्रिया कलापों पर नज़र रखे हुए हैं। यह बात तरबियत के दृष्टिकोण से बहुत अधिक महत्वपूर्ण है और शिओं को अपने इक्रया कलापों को सुधारने की प्रेरणा देती है। यही बात शियों को अल्लाह की हुज्जत और मोमिनों के इमाम के सामने बुराइयों और गुनाहों में लिप्त होने से रोकती है। यह बात पूर्ण रूप से स्वीकारीय है कि इंसान उस पाक़ और साफ़ ज़ात पर जितना अधिक ध्यान देगा , उस के दिल का आइना उतनी ही पाक़ीज़गी और सफ़ाई उसकी रुह में भर देगा और फिर यह प्रकाश उसकी बात चीत व व्यवहार में झलकने लगेगा।

इल्मी और फ़िक्री पनाह गाह

अइम्मा मासूमीन (अ.स.) समाज के सच्चे व वास्तविक शिक्षक और सही तरबियत करने वाले हैं। मोमेनीन हमेशा उन्हीं हज़रात के साफ़ सुथरे व पाक इल्म से लाभान्वित होते हैं। ग़ैबत के ज़माने में क्योंकि हम सीधे इमाम (अ.स.) की सेवा में नही पहुँच सकते हैं और उनसे लाभान्वित होने का जो हक़ है उस मात्रा में उन से लाभान्वित नहीं हो सकते है , लेकिन वह अल्लाह के इल्म के केन्द्र फिर भी शिओं की इल्म और फिक्र से संबंधित मुश्किलों को दूर करते रहते हैं। ग़ैबते सुग़रा के ज़माने में बहुत से मोमिनों और आलिमों के सवालों के जवाबात इमाम (अ.स.) के ज़रिये ही हल हुए हैं..

हज़रत इमामे ज़माना (अ.स.) ने इस्हाक़ पुत्र याक़ूब के सवाल के जवाब में इस तरह लिखा था--

ख़ुदा वन्दे आलम तुम्हारी हिदायत करे और तुम्हें साबित क़दम रखे , चूँकि आप ने हमारे खानदान और चचा ज़ाद भाईयों में से हमारा इन्कार करने वालों के बारे में सवाल किया तो तुम्हें मालूम होना चाहिए कि ख़ुदा के साथ किसी की कोई रिश्तेदारी नहीं है , अतः जो इंसान भी मेरा इन्कार करेगा वह हम में से नहीं है और उसका अन्त जनाबे नूह (अ.स.) के बेटे की तरह होगा और जब तक तुम अपने माल को पाक़ न करलो , हम उसे क़बूल नहीं कर सकते।

लेकिन जो रक्म आप ने हमारे लिए भेजी है उसको इस वजह से क़बूल करते हैं कि पाक व पाकीज़ा है।

और जो इंसान हमारे माल को अपने लिए हलाल समझता है और उसको हज़्म कर लेता है , वह ऐसा है हजन्नम की आग खा रहा है। अब रहा मुझ से फ़ायदा उठाने का मसला तो जिस तरह बादलों में छिपे सूरज से फ़ायेदा उठाया जाता है ,उसी तरह मुझ से भी फायेदा हासिल किया जा सकता है , और मैं ज़मीन वालों के लिए उसी तरह अमान हूँ , जिस तरह सितारे आसमान वालों के लिए अमान हैं। जिन चीज़ों का तुम्हें कोई फ़ायेदा नहीं हैं उनके बारे में सवाल न करो , और जिस चीज़ का तुम से तक़ाज़ा नहीं किया गया उस चीज़ को सीखने से बचो , और हमारे ज़हूर के लिए ज़्यादा दुआयें किया करो कि इस से तुम्हारे लिए भी आसानियाँ होंगी। ऐ इस्हाक़ पुत्र याक़ूब तुम पर हमारा सलाम हो और उन मोमिनों पर जो हिदायत के रास्ते हासिल करते हैं...

इस के अलावा ग़ैबते सुग़रा के बाद भी शिया आलिमों ने अनेकों बार इल्म व फ़िक्र से संबंधित अपनी मुश्किलों को इमाम (अ.स.) से बयान करके उनका हल मालूम किया है।

मीर अल्लामा , मुकद्दस अरदबेली के शागिर्द इस तरह लिखते हैं।

आधी रात का वक़्त था और मैं नजफ़े अशरफ़ में हजरत इमाम अली (अ.स.) के रोज़ा ए अक़दस में था। अचानक मैं ने एक इंसान को रौज़े की तरफ़ आते देखा , मैं आने वाले की तरफ़ बढ़ा जैसे ही कुछ क़रीब पहुँचा तो देखा कि वह हमारे उस्ताद मुल्ला अहमद मुकद्दस अरदबेली अलैहीर्रहमा हैं। मैं उन्हें देख कर जल्दी से एक तरफ़ छिपा गया। मेरे बाहर अने के बाद रोज़े का दरवाज़ा बंद हो चुका था , वह रौज़ ए मुतहर के दरवाज़े पर पहुँचे मैं ने देखा की अचानक दरवाज़ा खुला और वह रौज़ा ए मुकद्दस के अंदर दाखिल हो गये और थोड़ी ही देर बाद रौज़े से बाहर निकले और कूफ़े शहर की तरफ़ रवाना हो गये।

मैं , उन के पीछे पीछे , छिप कर इस तरह चलने लगा ताकि वह मुझे न देख सकें , यहाँ तक कि वह मस्जिदे कूफ़ा में दाखिल हो गये और सीधे उस मेहराब के पास गए जहाँ हज़रत अली (अ.स.) को ज़रबत लगी थी। कुछ देर वहाँ रहने के बाद मस्जिद से बाहर निकले और फिर नजफ़ की तरफ़ रवाना हो गये। मैं फिर उनके पीछे पीछे चलने लगा वहाँ से वह मस्जिदे हन्नाना में पहुँचे , वहाँ पहुँच कर अचानक मुझे खाँसी आ गई , जैसे ही उन्होंने मेरे खाँसने की आवाज़ सुनी , घूम कर मेरी तरफ़ देखा और मुझे पहचान लिया और कहा : आप मीर अल्लामा ही तो हैं ?! मैं ने कहा : जी हाँ। उन्हों ने पूछा : यहाँ क्या कर रहे हो ? मैं ने जवाब दिया : जब से आप हज़रत अली (अ.स.) के रौज़े में दाखिल हुए थे , मैं उसी वक़्त से आप के साथ हूँ। आप को उस क़ब्र में सोई हुई ज़ात के हक़ का वास्ता ! मैं ने जो आज यह वाकिया देखा है , मुझे इसका राज़ बता दीजिये।

उन्होंने फरमाया : ठीक है , लेकिन इस शर्त के साथ कि जब तक मैं ज़िन्दा रहूँगा आप इस बात को किसी के सामने बयान नहीं करेंगे। जब मैं ने उन्हें इस बात का इत्मिनीन दिलाया तो उन्होंने फरमाया : जब मेरे सामने कोई मुश्किल पेश आती है तो मैं उसके हल के लिए हज़रत अली (अ.स.) से तवस्सुल करता हूँ। इस रात भी मेरे सामने एक मुश्किल मसला पेश आया और मैं उसके बारे में ग़ौर व फिक्र करता रहा , अचानक मेरे दिल में यह बात आई कि हज़रत अली (अ.स.) की बारगाह में जाऊँ और उन्हीं से इस मसले का हल मालूम करूँ।

जब मैं रौज़ ए मुकद्दस के पास पहुँचा तो जैसा कि आप ने भी देखा कि बन्द दरवाज़ा खुल गया। मैंने रौज़े में दाखिल हो कर ख़ुदा की बारगाह में रोना और गिड़गिड़ाना शुरू कर दिया ताकि हज़रत इमाम अली (अ.स.) की बारगाह से इस मसले का हल मिल जाये। अचानक कब्रे मुनव्वर से आवाज़ आई कि कूफ़ा जाओ और हजरत क़ायम (अ.स.) से इस मसले का हल मालूम करो , क्यों कि वही तुम्हारे इमामे ज़माना हैं। अतः मैं यह सुनने के बाद मस्जिदे कूफ़ा की मेहराब के पास गया और हज़रत इमाम महदी (अ.स.) से उस सवाल का जवाब मालूम किया और अब इस वक़्त अपने घर की तरफ़ जा रहा हूँ...

आन्तरिक हिदायत

इमाम , क्योंकि लोगों की हिदायत और उनका नेतृत्व करने का ज़िम्मेदार होता है , अतः उसकी यह कोशिश होती है कि जिन लोगों में हिदायत हासिल करने की योग्यता पाई जाती हैं , उनकी हिदायत करे। अतः ख़ुदा वन्दे आलम की तरफ़ से सौंपी गई इस ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए कभी वह सीधे सादे तरीक़े से इंसानों से संबंध स्थापित करता है और अपनी बात चीत से उन्हें कामयाबी का रास्ता दिखा देता है और कभी कभी ख़ुदा वन्दे आलम की तरफ़ से प्रदान की गई विलायत की ताक़त से फ़ायेदा उठाते हुए लोगों के दिलों को अपने क़ब्ज़ें में कर लेता है और इस ख़ास करम के ज़रिये दिलों को नेकियों व अच्छाईयों की तरफ़ झुका देता है और उनके लिए फलने फूलने का रास्ता हमवार कर देता हैं। इस दूसरी सूरत में इमाम (अ.स.) के खुले आम मौजूद रहने और लोगों से सीधा संपर्क बनाने की ज़रुरत नहीं होती बल्कि अन्दर ही अन्दर दिल को साफ़ कर के हिदायत कर दी जाती है। हज़रत इमाम अली (अ.स.) इस बारे में इमाम के काम को बयान करते हुए फरमाते हैं :

ख़ुदा वन्दे आलम ! तेरी तरफ़ से ज़मीन पर एक हुज्जत होती है जो मख़लूक को तेरे दीन की तऱफ़ हिदायत करती है और अगर वह ज़ाहिरी तौर पर लोगों के बीच न रहे तब भी उसकी तालीम और उसके बताये हुए आदाब मोमेनीन के दिलों में मौजूद रहते हैं और वह उसी के अनुसार कार्य करते हैं...

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) ग़ैबत में रहते हुए इसी तरह विश्वव्यापी परिवर्तन व आन्दोलन के लिए कार आमद लोगों की हिदायत की कोशिश करते रहते है और जिन लोगों में यह ज़रूरी योग्यता पाई जाती हैं वह इमाम (अ.स.) की ख़ास तरबियत के अन्तर्गत उनके ज़हूर के लिए तैयार हो जाते हैं। यह ग़ैबत में रहने वाले इमाम के मंसूबों में से एक मंसूबा है जो उनके वजूद की बरकत से पूरहा होता है।

मुसीबतों से सुरक्षा

इस बात में कोई शक़ नहीं है कि इंसान की ज़िन्दगी का सबसे बड़ी व आधारभूत दौलत शाँति और सुरक्षा है , संसार में घटित होने वाली विभिन्न घटनाएं हमेशा ही समस्त प्राणियों की प्राकृतिक ज़िन्दगी को खतरे में डाल कर मौत के मुँह तक पहुंचती रही हैं। वैसे तो विपत्तियों और मुसीबतों को भौतिक चीज़ों के ज़रिये रोका जा सकता है , लेकिन आध्यात्मिक चीज़ें भी उन में बहुत प्रभावी सिद्ध होती हैं। हमारे अइम्मा मासूमीन (अ.स.) की रिवायतों में इस संसार के निज़ाम में इमाम और अल्लाह की हुज्जत के वजूद को ज़मीन और इस इसके वासियों के लिए शाँति व सुरक्षा की वजह माना गया है।

हज़रत इमामे ज़माना (अ.स.) ख़ुद फरमाते हैं कि :

” وَ إنِّی لَاَمَانٌ لِاٴہْلِ الاٴرْضِ “

और मैं ज़मीन वासियों के लिए (विपत्तियों से) अमान हूँ।

इमाम (अ.स.) का वजूद , लोगों को उनके गुनाहों और बुराईयों की वजह से अल्लाह के सख्त अज़ाब में फँसने और ज़मीन वासियों की ज़िन्दगी को ख़त्म होने से रोकता है।

इस बारे में कुरआने करीम में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) को संबोधित करते हुए वर्णन होता है-

<وَمَا کَانَ اللهُ لِیُعَذِّبَہُمْ وَاٴَنْتَ فِیہِمْ ۔۔۔ >

और अल्लाह उन पर उस वक़्त तक अज़ाब नही करेगा , जब तक पैग़म्बर (स.) आप उनके बीच में मौजूद हैं।

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) जो अल्लाह की रहमत व मुहब्बत को प्रदर्शित करने वाले हैं , वह भी अपनी खास तवज्जोह के ज़रिये बड़ी बड़ी विपत्तियों व बलाओं को ख़ास तौर पर हर शिया से दूर करते हैं। जबकि हम बहुत सी जगहों पर उनके करम की तरफ़ नहीं देते और मदद करने वाले को नहीं पहचानते।

आप ख़ुद अपनी शिनाख्त के बारे में फरमाते हैं कि :

”اَنَا خَاتِمُ الاٴوْصِیَاءِ، وَ بِی یَدْفَعُ اللهُ عَزَّ وَ جَلَّ الْبَلَاءُ مِنْ اٴَہْلِی وَ شِیْعَتِی “

मैं अल्लाह के पैग़म्बर (स.) का आख़री जानशीन (उत्तराधिकारी) हूँ , और ख़ुदा वन्दे आलम मेरे वजूद के ज़रिये मेरे खानदान और मेरे शिओं से बलाओं को दूर करता है।

ईरान के इस्लामी इंक़ेलाब के प्रारम्भिक दौर में और इराक व ईरान की जंग के दौरान विभिन्न अवसरों पर इमामे ज़माना (अ.स.) के करम व मुहब्बत को इस क़ौम और हुकूमत पर साया करते हुए देखा गया है और इमाम ने इस्लामी हुकूमत और अपने चाहने वाले शिओं को दुशमन की खतर्नाक साज़िशों से सही व सालिम रखा है। 21 बहमन (एक ईरानी महीने का नाम) को इमाम खुमैनी अलैहर्रहमा के हाथों शहनशाही हुकूमत का खात्मा , सन् 1359 हिजरी में तबस के बयाबान में अमेरीकी फ़ौजी हेली कोप्टरों का ज़मीन पर गिरना , सन् 1361 हिजरी में 21 तीर (ईरानी महीने का नाम) को नोज़ह नामी बग़ावत की असफलता और इराक से आठ साल की जंग में दुशमन की नाकामी आदि ऐसे नमूने हैं जो इस बात के ज़िन्दा गवाह हैं।

रहमत की बारिश

पूर्ण संसार के महान महदी मऊद (पलट कर आने वाले को मऊद कहते हैं , क्योंकि हज़रत महदी अलैहिस्सलाम ग़ैब हो गये थे और बाद में अल्लाह के हुक्म से पलट कर आयेंगे इसी वजह से उन्हें महदी मऊद कहा जाता है और यह उनका मशहूर लक़ब है।) मुसलमानों की तमन्नाओं के केन्द्र और शिओं के दिलों के महबूब , हजरत इमामे ज़माना (अ.स.) हमेशा लोगों की ज़िन्दगी के हालात पर नज़र रखे हुए हैं। उनका ग़ैब रहना चाहने वालों पर करम करने व मुहब्बतें लुटाने के रास्ते में रुकावट नहीं है। वह चौदहवीं रात का चाँद अपने शिओं और मदद माँगने वालों से हमेशा मुहब्बत करता है। वह कभी तो बीमार लोगों के सिरहाने हाज़िर होते हैं और अपने हाथों को उनके ज़ख्मों के लिए मरहम का रूप देते हैं। कभी जंगलों में भटकते हुए मुसाफिरों पर करम करते हैं और तन्हाई की वादी में भटकते हुए लाचार व बेकस लोगों की मदद और मार्गदर्शन करते हुए ना उम्मीदी की ठंडी हवाओं में इन्ज़ार करने वाले दिलों को उम्मीद की गर्मी प्रदान करते हैं। वह अल्लाह की रहमत की बारिश हैं जो दिलों के खुश्क बंजरों पर बरस कर शिओं के लिए अपनी दुआओं के ज़रिये हरयाली व खुशी पेश करते हैं। वह जानमाज़ पर बैठ कर ख़ुदा वन्दे आलम की बारगाह में अपने हाथों को फ़ैला कर हमारे लिए यह दुआ करते है :

ऐ नूरों के नूर ! ऐ तमाम कामों की प्रबंध करने वाले ! ऐ मुर्दों को ज़िन्दा करने वाले ! मुहम्मद व आले मुहम्मद पर सलवात भेज और मुझे और मेरे शिओं को मुश्किलों से निजात व छुटकारा दे और दुखः दर्दों को दूर कर , और हमारे लिए हिदायत के रास्ते को बड़ा कर दे , और जिस रास्ते में हमारे लिए आसानियाँ हों उसे हमारे लिए खोल दे, ऐ करीम ! तू हमारे साथ वह सलूक कर जिसका तू अहल है।

प्रियः पाठकों ! हम अब तक जो कुछ उल्लेख कर चुके हैं , वह इस बात का स्पष्ट करता हैं कि इमाम (अ.स.) से उनकी ग़ैबत के दौरान राब्ता करना मुम्किन है और उनसे मुत्तसिल होना कोई मुश्किल बात नहीं है। यह इमाम (अ.स.) के वजूद का असर है और जो लोग इस बात की योग्यता व सलाहियत रखते थे उन्होंने अपने महबूब इमाम से मुलाक़ात की लज़्ज़त ली हैं और उनके समीपय का लाभ उठाया है।

चौथा हिस्सा

इमाम की ज़ियारत

इस ग़ैबत के ज़मान की सब से बड़ी मुश्किल और परेशानी यह है कि शिया अपने मौला व आक़ा के दर्शन से वंचित हैं। ग़ैबत का ज़माना शुरु होने के बाद से उनके ज़हूर का इन्तेज़ार करने वालों के दिलों को हमेशा यह तमन्ना बेताब करती रही है कि किसी भी तरह से यूसुफे ज़हरा (अ.स.) की ज़ियारत हो जाये। वह इस जुदाई में हमेशा ही रोते बिलकते रहते हैं। ग़ैबते सुग़रा के ज़माने में शिया अपने महबूब इमाम से उनके खास नायबों के ज़रिये संबंध स्थापित किये हुए थे और उनमें से कुछ लोगों को इमाम (अ.स.) की ज़ियारत का भी श्रेय प्राप्त हुआ और इस बारे में बहुत सी रिवायतें मौजूद हैं , लेकिन इस ग़ैबते कुबरा के ज़माने में , जिस में इमाम (अ.स.) पूर्ण रूप से ग़ैबत को अपनाये हुए हैं और किसी से भी उनकी मुलाक़ात संभव नही है , वह संबंध ख़त्म हो गया है। अब इमाम (अ.स.) से आम तरीक़े से या ख़ास लोगों के ज़रिये मुलाक़ात करना भी संभव नहीं है।

लेकिन फिर भी बहुत से आलिमों का मत है कि इस ज़माने में भी उस चमकते हुए चाँद से मुलाक़ात करना संभव है और अनेकों बार ऐसी घटनाएं घटित हुई हैं। कुछ महान आलिमों जैसे अल्लामा बहरुल उलूम , मुकद्दस अरदबेली और सय्यद इब्ने ताऊस आदि की इमाम से मुलाक़ात की घटनाएं बहुत मशहूर हैं और बहुत से आलिमों ने अपनी किताबों में उनका उल्लेख किया है...

लेकिन हम यहाँ पर यह बता देना ज़रुरी समझते हैं कि इमामे ज़माना (अज्जल अल्लाहु तआला फ़रजहू शरीफ़) की मुलाक़ात के बारे में निम्न लिखित बातो पर ज़रूर ध्यान देना चाहिए।

पहली बात तो यह है कि इमाम महदी (अ.स.) से मुलाक़ात बहुत ही ज़्यादा परेशानी और लाचारी की हालत में होती है लेकिन कभी कभी आम हालत में और किसी परेशानी के बग़ैर भी हो जाती है। इससे भी अधिक स्पष्ट शब्दों में यूँ कहें कि कभी इमाम (अ.स.) की मुलाक़ात मोमेनीन की मदद की वजह से होती है जब कुछ लोग परेशानियों में घिर जाते हैं और तन्हाई व लाचारी का एहसास करते हैं तो उन्हें इमाम की ज़ियारत हो जाती है। जैसे कोई हज के सफर में रास्ता भटक गया और इमाम (अ.स.) अपने किसी सहाबी के साथ तशरीफ़ लाये और उसे भटकने से बचा लिया। इमाम (अ.स.) से अधिकतर मुलाक़ातें इसी तरह की हैं।

लेकिन कुछ मुलाक़ातें सामान्य हालत में भी हुई हैं और मुलाक़ात करने वालों को अपनी आध्यात्मिक उच्चता की वजह से इमाम (अ.स.) से मुलाक़ात करने का श्रेय प्राप्त हुआ।

अतः इस पहली बात के मद्दे नज़र यह ध्यान रहे कि इमाम (अ.स.) से मुलाक़ात के संबंध में हर इंसान के दावे को क़बूल नहीं किया जा सकता।

दूसरी बात ये है कि ग़ैबते कुबरा के ज़माने में ख़ास तौर पर आज कल कुछ लोग इमामे ज़माना (अ.स.) से मुलाक़ात का दावा कर के मशहूर होने के चक्कर में रहते हैं। वह अपने इस काम से बहुत से लोगों को अक़ीदे और अमल में गुमराह कर देते हैं। वह कुछ बे-बुनियाद व निराधार दुआओं को पढ़ने और कुछ ख़ास काम करने के आधार पर इमामे ज़माना की ज़ियारत करने का भरोसा दिलाते हैं। वह इस तरह उस ग़ायब इमाम की मुलाक़ात को सबके लिए एक आसान काम के रूप में प्रस्तुत करते हैं , जबकि इस बात में कोई शक नहीं है कि इमाम (अ.स.) ख़ुदा वन्दे आलम के इरादे के अनुसार पूर्ण रूप से ग़ैबत में हैं और सिर्फ कुछ गिने चुने शीर्ष के लोगों से ही इमाम (अ.स.) की मुलाक़ात होती है और उनकी निजात का रास्ता भी अल्लाह के करम को प्रदर्शित करने वाले इमाम का करम है।

तीसरी बात यह है कि मुलाकात सिर्फ़ इसी सूरत में संभव है जब इमामे ज़माना (अ.स.) उस मुलाक़ात में कोई मसलेहत या भलाई देखें। अतः अगर कोई मोमिन अपने दिल में इमाम (अ.स.) की ज़ियारत का शौक पैदा करे और इमाम ( अ. स.) से मुलाक़ात न हो सके तो फिर ना उम्मीदी का शिकार नहीं होना चाहिए और इसको इमाम (अ.स.) के करम के न होने की निशानी नहीं मानना चाहिए , जैसा कि जो अफराद इमाम (अ.स.) से मुलाक़ात में कामयाब हुए हैं उस मुलाक़ात को तक़वे और फ़ज़ीलत की निशानी बताने लगे।

नतिजा यह निकलता है कि इमाम ज़माना (अ.स.) के नूरानी चेहरे की ज़ियारत और दिलों के महबूब से बात चीत करना वास्तव में एक बहुत बड़ी सआदत है लेकिन अइम्मा (अ.स.) ख़ास तौर पर ख़ुद इमामे ज़माना (अ.स.) अपने शिओं से ये नहीं चाहते कि वह उन से मुलाक़ात की कोशिश करें और अपने इस मक़सद तक पहुँचने के लिए चिल्ले ख़ीँचें या जंगलों में भटकते फिरें। बल्कि इसके विपरीत आइम्मा ए मासूमीन (अ.स.) ने बहुत ज़्यादा ताकीद की है कि हमारे शिओं को हमेशा अपने इमाम को याद रखना चाहिए , उनके ज़हूर के लिए दुआ करनी चाहिए , उनको ख़ुश रखने के लिए अपने व्यवहार व आचरण को सुधारना चाहिए और उनके महान उद्देश्यों के लिए आगे क़दम बढ़ाना चाहिए ताकि जल्दी से जल्दी दुनिया की आख़िरी उम्मीद के ज़हूर का रास्ता हमवार हो जाये और संसार उनके वजूद से सीधे तौर पर लाभान्वित हो सके।

हज़रत इमाम महदी (अ.स.) ख़ुद फरमाते हैं कि

” اٴَکثرُوا الدُّعاءَ بِتَعجِیْلِ الفرجِ، فإنَّ ذَلکَ فرَجُکُم

मेरे ज़हूर के लिए बहुत ज़्यादा दुआएं किया करो , उसमें तुम्हारी ही भलाई और आसानी है।

उचित था कि हम यहाँ पर मरहूम हाज अली बगदादी (जो अपने ज़माने के नेक इंसान थे) की दिल्चस्प मुलाक़ात का सविस्तार वर्णन करते लेकिन संक्षेप की वजह से अब हम उसके महत्वपूर्ण अंशों की तरफ़ इशारा करते हैं।

वह मुत्तक़ी और नेक इंसान हमेशा बगदाद से काज़मैन जाया करते थे और वहाँ दो इमामों (हज़रत इमाम मूसा काज़िम (अ.स.) और हज़रत इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.स.) की ज़ियारत किया करते थे। वह कहते हैं कि मेरे ज़िम्मे ख़ुम्स और कुछ अन्य शरई रक़म थी , इसी वजह से मैं नजफ़े अशरफ़ गया और उनमें से 20 दीनार आलमे फ़क़ीह शेख अन्सारी (अलैहिर्रहमा) को और 20 दीनार आलमे फ़क़ी शेख मुहम्मद हसन काज़मी (अलैहिर्रहमा) को और 20 दीनार आयतुल्लाह शेख मुहम्मद हसन शरुक़ी (अलैहिर्रहमा) को दिये और यह इरादा किया कि मेरे ज़िम्मे जो 20 दीनार बाक़ी रह गये हैं वह बग़दाद वापसी पर आयतुल्लाह आले यासीन (अलैहिर्रहमा) को दूँगा। जब जुमेरात के दिन बगदाद वापस आया तो सब से पहले काज़मैन गया और दोनों इमामों की ज़ियारत करने के बाद आयतुल्लाह आले यासीन के घर पर गया। मेरे ज़िम्मे खुम्स की रक्म का जो एक हिस्सा बाक़ी रह गया था वह उनकी खिदमत में पेश की और उन से इजाज़त माँगी कि इसमें से बाक़ी रक़म (इन्शाअल्लाह) बाद में ख़ुद आप को या जिस को मुस्तहक़ समझूँगा अदा कर दूंगा। वह मुझे अपने पास रोकने की ज़िद कर रहे थे , लेकिन मैं ने अपने ज़रुरी काम की वजह से उनसे माफ़ी चाही और ख़ुदा हाफिज़ी कर के बगदाद की तरफ़ रवाना हो गया। जब मैं ने अपना एक तिहाई सफर तय कर लिया तो रास्ते में एक तेजस्वी सैय्यद को देखा। वह हरे रंग का अम्मामा बाँधे हुए थे और उन के गाल पर काले तिल का एक निशान था। वह ज़ियारत के लिए काज़मैन जा रहे थे। वह मेरे पास आये और मुझे सलाम करने के बाद बड़ी गर्म जोशी के साथ मुझ से हाथ मिलाया और मुझे गले लगा कर कहा खैर तो है कहाँ जा रहे हैं ?

मैं ने जवाब दिया : ज़ियारत कर के बगदाद जा रहा हूँ , उन्हों ने फरमाया : आज जुमे की रात है काज़मैन वापस जाओ और आज की रात वहीं रहो। मैं ने कहा : मैं नहीं जा सकता। उन्होंने कहाः तुम यह काम कर सकते हो , जाओ ताकि मैं यह गवाही दूँ कि तुम मेरे जद्द अमीरुल मोमिनीन (अ.स.) के और हमारे दोस्तों में से हो , और शेख भी गवाही देते हैं , ख़ुदा वन्दे आलम फरमाता है :

وَ اسْتَشْہِدُوا شَہِیدَیْنِ مِنْ رِجَالِکُم

और अपने मर्दों में से दो को गवाह बनाओ।

हाज अली बग़दादी कहते हैं कि मैं ने इस से पहले आयतुल्लाह आले यासीन से दर्ख्वास्त की थी कि मेरे लिए एक सनद लिख दें जिस में इस बात की गवाही हो कि मैं अहले बैत (अ.स.) के चाहने वालों में से हूँ ताकि इस सनद को अपने कफ़न में रखूँ। मैं ने सैय्यिद से सवाल किया आप मुझे कैसे पहचानते हैं और किस तरह गवाही देते हैं ? उन्होंने जवाब दिया : इंसान उस इंसान को किस तरह न पहचाने जो उस का पूरा हक़ अदा करता हो , मैं ने पूछा कौन सा हक़ ? उन्होंने कहा कि वही हक़ जो तुम ने मेरे वक़ील को दिया है। मैं ने पूछा : आपका वक़ील कौन है ? उन्होंने फरमाया : शेख मुहम्मद हसन। मैं ने पूछा कि क्या वह आप के वक़ील हैं ? उन्होंने जवाब दिया : हाँ।

मुझे उनकी बातों पर बहुत ज़्यादा ताज्जुब हुआ ! मैं ने सोचा कि मेरे और उन के बीच कोई बहुत पुरानी दोस्ती है जिसे मैं भूल चुका हूँ , क्यों कि उन्हों ने मुलाक़ात के शुरु ही में मुझे मेरे नाम से पुकारा था। मैं ने यह सोचा चूँकि वह सैय्यिद हैं अतः मुझ से खुम्स की रक़म लेना चाहते हैं। अतः मैं ने उनसे कहा कि कुछ सहमे सादात मेरे ज़िम्मे है और मैं ने उसे खर्च करने की इजाज़त भी ले रखी है। यह सुन कर वह मुस्कुराए और कहा : जी हाँ , आप ने हमारे सहम का कुछ हिस्सा नजफ़ में हमारे वकीलों को अदा कर दिया है। मैं ने सवाल किया : क्या ये काम ख़ुदा वन्दे आलम की बारगाह में क़ाबिले क़बूल है ? उन्हों ने फरमाया : जी हाँ।

मैं ने सोचा भी कि यह सैय्यिद इस ज़माने के बड़े आलिमों को किस तरह अपना वकील बता रहे हैं , लेकिन एक बार फिर मुझे गफ़लत सी हुई और मैं इस बात को भूल गया।

मैं ने कहा : ऐ बुज़ुर्गवार ! क्या यह कहना सही है कि जो इंसान जुमे की रात हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) की ज़ियारत करे वह अल्लाह के अज़ाब से बचा रहता है। उन्होंने फरमाया : जी हाँ , यह बात सही है। अब मैं ने देखा कि उनकी आँखें फ़ौरन आंसूओं से भर गईं। कुछ देर बीतने के बाद हम ने अपने ापको काज़मैन के रौजे पर पाया , किसी सड़क और रास्ते से गुज़रे बग़ैर , हम रोज़े के सद्र दरवाज़े पर खड़े हुए थे , उन्होंने मुझसे फ़रमाया : ज़ियारत पढ़ो। मैं ने जवाब दिया : बुज़ुर्गवार मैं अच्छी तरह नहीं पढ़ सकूँगा। उन्होंने फरमाया : क्या मैं पढ़ूँ , ताकि तुम भी मेरे साथ पढ़ते रहो ? मैं ने कहा : ठीक है।

अतः उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम और अन्य इमामों पर एक एक कर के सलाम भेजा और हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.स.) के नाम के बाद मेरी तरफ़ रुख कर के सवाल किया : क्या तुम अपने इमामे ज़माना को पहचानते हो ? मैं ने जवाब में कहा क्यों नहीं पहचानूंगा ! यह सुन कर उन्होंने फ़रमाया तो फिर उन पर सलाम करो। मैं ने कहा:

لسَّلامُ عَلَیْکَ یَا حُجَّةَ اللهِ یَا صَاحِبَ الزَّمَانِ یَابْنَ الْحَسَنِ !

अस्सलामो अलैक या हुज्जत अल्लाहे या साहेबज़्ज़मान यबनल हसन। वह बुज़ुर्गवार मुसुकुराए और फरमाया عَلَیکَ السَّلام وَ رَحْمَةُ اللّٰہِ وَ بَرَکَاتُہُ۔ अलैकस्सलाम व रहमतुल्लाहे व बरकातोह।

उस के बाद हरम में वारिद हुए और ज़रीह का बोसा लेकर मुझ से फरमाया: ज़ियारत पढ़ो। मैं ने अर्ज़ किया ऐ बुज़ुर्गवार मैं अच्छी तरह नहीं पढ़ सकता। यह सुन कर उन्होंने फरमाया : क्या मैं आप के लिए पढ़ूँ , मैं ने जवाब दिया : जी हाँ , अप ही पढ़ा दीजिए। उन्होंने अमीनुल्लाह नामक मशहूर ज़ियारत पढ़ी और फरमाया : क्या मेरे जद (पूर्वज) इमाम हुसैन (अ.स.) की ज़ियारत करना चाहते हो ? मैं ने कहा : जी हाँ , आज जुमे की रात है और यह हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) की ज़ियारत की रात है। उन्होंने हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) की मशहूर ज़ियारत पढ़ी। उस के बाद नमाज़े मगरिब का वक़्त हो गया। उन्होंने ने मुझ से फरमाया : नमाज़ को जमाअत के साथ पढ़ो। नमाज़ के बाद वह बुज़ुर्गवार अचानक मेरी नज़रों से गायब हो गए , मैं ने बहुत तलाश किया लेकिन वह न मिल सके।

फिर मेरे ध्यान में आया कि सैय्यिद ने मुझे नाम ले कर पुकारा था और मुझ से कहा था कि काज़मैन वापस लौट जाओ , जबकि मैं नहीं जाना चाहता था। उन्हों ने ज़माने के बड़े फ़क़ीहों और आलिमों को अपना वकील बताया और आखिर में मेरी नज़रों से अचानक गायब हो गये। इन तमाम बातों पर ग़ौर व फिक्र करने के बाद मुझ पर ये बात स्पष्ट हो गई कि वह हज़रत इमामे ज़माना (अ.स.) थे , लेकिन अफ़सोस कि मैं इस बात को बहुत देर के बाद समझ सका...