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माहे रमज़ान

माहे रमज़ान

हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

पवित्र माहे रमज़ान-5

माहे रमज़ान का पवित्र महीना प्रतिवर्ष हमारे जीवन में प्रविष्ट होकर हमको बहुत से संदेश उपहारस्वरूप देता है। प्रायश्चित तथा ईश्वर की ओर वापसी के साथ ही व्यक्तिगत तथा समाजिक जीवन में आध्यात्मिक तथा नैतिक मूल्यों की ओर ध्यान , इस महीने के महत्वपूर्ण संदेश हैं। यह वही नियम हैं जिनकी आवश्यकता संसार को बहुत ही तीव्रता से है। समाज शास्त्रियों के अनुसार विश्व स्तर पर अत्याचार तथा गुंडागर्दी का विस्तार , राजनीति तथा अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचार , युवाओं विशेषकर प्रगतिशील देशों के युवाओं में अपनी पहचान को लेकर भ्रम की स्थिति , बहुत सी कुरीतियों का प्रचलन आदि एसी बाते हैं जो केवल इसलिए है कि मानव अपनी पवित्रता तथा आत्मशुद्धि के प्रयास में नही रहा है।

पवित्र ग्रंथ क़ुरआन , अपनी विभिन्न आयतों तथा विविध शैलियों के माध्यम से मनुष्य को "तक़वा" तथा पवित्रता का निमंत्रण देता है। तक़वे का एक अर्थ है पापों से दूरी। मनुष्य को यह जानना चाहिए कि वह क्या कर रहा है और उसे अपने जीवन के मार्ग का चयन बहुत ही होशियारी से करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति अपने कार्यों के प्रति बहुत संवेदनशील हो और ईश्वर की प्रसन्नता को दृष्टिगत रखे तो यह कार्य उसे सीधे रास्ते पर रोके रखता है। वास्तव में जो भी व्यक्ति तक़वा तथा पवित्रता के आभूषण से सुसज्जित है , वह जब कभी भी समस्याओं में घिरता है तो एसे में उसे ईश्वर की ओर से सहायता प्राप्त होती है। क़ुरआन , अच्छे अंत को ईश्वर से भय रखने वालों से संबन्धित मानता है।

इमाम अली अलैहिस्सलाम ने तक़वे की संज्ञा एसे घोड़े से दी है जो अपने स्वामी के नियंत्रण में रहता है। एसे घोड़े पर उसका सवार बड़ी सरलता से बैठ कर सवारी करता है। यह घोड़ा भी बिना किसी कठिनाई के अपने स्वामी को उसके गंतव्य तक पहुंचा देता है। इसके विपरीत हज़रत अली अलैहिस्सलाम आंतरिक इच्छाओं की संज्ञा एक एसे अनियंत्रित घोड़े से देते हैं कि जब उसका स्वामी उसपर सवार होता है तो वह आना-कानी करता है और उसे धरती पर पटक देता है। हज़रत अली अलैहिस्लाम एक संक्षिप्त से वाक्य में कहते हैं कि ईश्वर के दासों , मैं तुमको बुराइयों से बचने तथा तक़वा अपनाने की सिफ़ारिश करता हूं।

मानव जाति के लिए ईश्वरीय दूतों की महत्वपूर्ण सिफ़ारिश , तक़वे का अनुसरण अर्थात पापों से बचना , रही है। क़ुरआन शरीफ़ के विभिन्न सूरों में हम पढ़ते हैं कि ईश्वरीय दूतों ने लोगों को सदा ही पापों से बचने का निमंत्रण दिया है। यदि मनुष्य पापों से बचे तो फिर उसे ईश्वरीय मार्गदर्शन प्राप्त होगा। वह अज्ञानता के अंधकार से निकल जाएगा और उसे प्रकाश प्राप्त होगा। वह स्पष्ट प्रकाश में अच्छे और बुरे को सरलता से समझ सकेगा। सूरए हदीद की 28वीं आयत के अनुसार तक़वा मानव के जीवन तथा उसके हृदय में प्रकाश प्रज्वलित करता है ताकि वह उसकी छाया में चलते हुए जीवन के मार्ग को प्राप्त कर सके। ईश्वर कहता है कि "हे ईमान लाने वालों तक़वा अपनाओ और उसके रसूल पर ईमान लाओ। वह अपनी कृपा से तुमको दो हिस्से देगा और तुमहारे लिए प्रकाश उपलब्ध करेगा जिसके साथ तुम चलो-फिरोगे और तुम्हारे पापों को क्षमा कर देगा। अल्लाह बड़ा ही क्षमाशील तथा दयावान है"।

कहा जा सकता है कि अपने मन को आंतिरक इच्छाओं के हवाले करना और उसका अंधा अनुसरण , तक़वा न होने का चिन्ह है। यह कार्य उच्च लक्ष्यों तक पहुंचने में बाधा बनता है। इसके विपरीत तक़वा अर्थात पापों से बचाव ईश्वरीय अनुकम्पाओं को आकर्षित करता है और लोगों तथा राष्ट्रों के कल्याग तथा उनके गर्व का कारण बनात है। यहां पर तक़वे से हमारा तात्पर्य केवल स्वर्ग की कामना तथा मोक्ष की प्राप्ति नहीं है बल्कि यह विशेषता इस नश्वर संसार में भी अपने बहुत से प्रभाव प्रकट करती है। वह समाज जो अपने मार्ग का सही ढ़ंग से चयन करता है और बड़ी ही दृढ़ता तथा दूरदर्षिता से उस पर चलता है एसे समाज में जीवन का वातावरण स्वस्थय और सदस्यों के बीच परस्पर सार्थक सहकारिता पर आधारित होता है। पवित्र क़ुरआन ने सही मार्ग का मानव के लिए मार्गरदर्शन किया है। वह चाहता है कि मनुष्य हर स्थिति में इस बात का ध्यान रखे कि उसके क्रियाकलापों पर ईश्वर दृष्टि रखे हुए है। अतः मनुष्य को विनम्र होना चाहिए ताकि वह मोक्ष और कल्याण को प्राप्त कर सके। सीधे मार्ग पर चलने के लिए हमे तक़वे की आवश्यकता है। पवित्र माहे रमज़ान के रोज़े तक़वे की प्राप्ति तक पहुंच की भूमिका प्रशस्त करते हैं।

अभी तक हमने तक़वा अर्थात ईश्वरीय भय के बारे में वार्ता की। उचित होगा कि हम यह जानें कि जिन लोगों में तक़वा पाया जाता है उनकी क्या विशेषताएं होती हैं। पवित्र क़ुरआन ईश्वरीय भय रखने वालों अर्थात मुत्तक़ियों की स्पष्ट विशेषता यह बताता है कि ईश्वर ने उन्हें जो कुछ दिया है वह उसे ईश्वर के मार्ग में दान करते हैं। ईश्वर कुरआन में इस विशेषता की ओर संकेत करता है कि मनुष्य लालची स्वभाव का है। जब उसे किसी कठिनाई का सामना होता है तो वह अधीर हो जाता है और जब उसे कुछ धन या माल मिल जाता है तो वह दूसरों को देने या दान करने में आना-कानी करता है। केवल वही लोग लालच से बच सकते हैं और उससे दूर रह सकते हैं जो परहेज़ करने वाले हैं। दान-दक्षिणा को कुरआन ने इतना अधिक महत्व दिया है कि उसे वह आर्थिक जेहाद की संज्ञा देता है। नमाज़ के साथ ईश्वर के मार्ग में दान को कुरआन , हानिरहित तथा लाभदायक व्यापार की भांति बताता है।

परोपकार या दान-दक्षिणा के महत्व को दर्शाने के लिए ईश्वर ने बहुत ही सटीक सज्ञा देते हुए इसे बीज की उपमा दी है। इस बीज में कोपल आने के बाद सात गुच्छे उगते हैं। हर गुच्छे में सौ दाने होते हैं। दूसरे शब्दों में जो वस्तु भी दान की जाती है वह सात सौ गुना बढ़ती है। विभिन्न स्थानों पर दान देने वालों को यह शुभ सूचना दी गई है कि उनका कार्य ईश्वर के निकट अनदेखा नहीं किया जाएगा। बल्कि उनके माल में बढ़ोत्तरी होगी। यह एसी स्थिति में है कि दान और परोपकार , केवल ईश्वर की प्रसन्नता के मार्ग में ही प्रशंसनीय है।

यही कारण है कि माहे रमज़ान के पवित्र महीने में घरों और मस्जिदों में आडंबर से दूर परोपकार के लिए दस्तरख़ान बिछाए जाते हैं। ईमान के साथ पवित्र हृदय , ईश्वरीय प्रेम के साथ तथा उसकी इच्छा को आकर्षित करने के लिए लोगों को खाना खिलाते हैं।

माहे रमज़ान के महीने में ईश्वर ने सभी लोगों को निमंत्रित किया है अतः सब लोग ही उसके अतिथि हैं। अब देखना यह है कि लोग स्वयं को किसी सीमा तक ईश्वर से निकट करने में सफल होते हैं। एक दिन हज़रत मूसा अलैहिस्लाम ईश्वर की प्रार्थना के लिए तूर पर्वत पर गए। मार्ग में उनकी भेंट एक बूढ़े काफिर से हुई। बूढ़े ने पूछा कि आप कहां जा रहे हैं ? हज़रत मूसा ने उत्तर दिया कि मैं उपासना के लिए तूर पर्वत पर जा रहा हूं। उस व्यक्ति ने कहा कि क्या तुम मेरा संदेश ईश्वर तक पहुंचा सकते हो ? हज़रत मूसा ने कहा कि तुम्हारा संदेश क्या है ? बूढ़े ने कहा कि अपने ईश्वर से कहो कि न तो मैं तेरा दास हूं और न ही तू मेरा ईश्वर है। मुझे तुमसे कोई काम नहीं है। हज़रत मूसा तूर पर्वत पर गए। अपनी प्रार्थना के पश्चात उन्होंने बूढ़े व्यक्ति की बात का उल्लेख नहीं किया। जब वे वापस आना चाह रहे थे तो ईश्वर ने उनसे पूछा कि तुमने क्यों मेरे दास का संदेश मुझको नहीं दिया। हज़रत मूसा ने कहा कि हे ईश्वर , उसके द्वारा आपके संबन्ध में कहे गय वाक्यों को कहने से मुझे लज्जा आ रही थी। ईश्वर ने कहा कि तुम मेरे उस दास के पास जाओ और उससे कहो कि यदि तुम मुझको महत्वहीन समझते हो किंतु मैं तुमको महत्वहीन नहीं समझता हूं। यदि तुमको मुझसे कोई कार्य नहीं है किंतु हम तुमसे लापरवाह नहीं हैं। हमसे न बचो , क्योंकि हम खुले मन से तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं।

बूढ़े व्यक्ति ने जब मूसा को वापस आते देखा तो उनसे पूछा कि क्या तुमने मेरे संदेश को अपने ईश्वर तक पहुंचा दिया था ? ईश्वर ने जो कुछ भी कहा था उसे हज़रत मूसा ने उस बूढ़े को बता दिया। यह सुनकर बूढ़े का रंग उड़ गया। ईश्वरीय संदेश ने उस बूढ़े को परिवर्तित कर दिया। उसने लज्जा से अपना सिर नीचे झुकाया और भर्राई हुई आवाज़ में कहा , हे मूसा मैं बहुत लज्जित हूं। मैं ईश्वर की सेवा में प्रायश्चित करना चाहता हूं। तुम मेरी सहायता करो।

पवित्र माहे रमज़ान-6

उस दिन जब , हज़रत आदम में ईश्वरीय आत्मा फूंके जाने से मानव के सिर पर श्रेंष्ठता का मुकुट रखा गया , इबलीस के मन में घृणा , द्वेष तथा ईर्श्या की भावना बैठ गई। उसने आदम का सजदा करने से इन्कार किया तथा स्वयं को ईश्वर के दरबार से वंचित कर लिया। बस उसी समय से शैतान अपनी समस्त संभावनाओं के साथ आदम की संतान के कल्याण तथा आध्यात्मिक विकास के मार्ग मे बाधा बना हुआ है। शैतान अपनी पूरी भ्रष्ट सेना के साथ मानवजाति के साथ युद्धरत है तथा मानवजाति के जीवन के अन्तिम दिन तक वह अपने इस कार्यक्रम को जारी रखेगा ताकि अपने विचार में , वह कल्याण के सार को मनुष्य से छीन ले।

शैतान सदा ही मानव के भीतर शंका उत्पन्न करते हुए इस बात का प्रयास करता है कि उसकी कमियों से लाभ उठाते हुए उसे मोक्ष तथा कल्याण के मार्ग से रोक दे। यहां पर उल्लेखनीय बात यह है कि शैतान के सारे ही कार्य शंका उत्पन्न करने तक ही सीमित हैं और वह विवश्ता की सीमा तक नहीं होते। शैतान द्वारा उत्पन्न की गई शंकाओं को व्यावहारिक बनाना मानव की आंतरिक कमज़ोरी का चिन्ह है। क़ुरआन के कथनानुसार शैतान का वर्चस्व , ईमान या आस्था की दृष्टि से कमज़ोर लोगों पर ही होता है जो उसके वर्चस्व को स्वीकार करते हैं। दुष्ट शैतान पाप करने के लिए मानव के मन में शंकाएं उत्पन्न करता है और साथ ही उस पाप का औचित्य भी उनको सिखाता है।

सूरए नहल की आयत संख्या 99 तथा 100 में आया है किः- निःसन्देह , उसका (शैतान का) उनपर कुछ भी ज़ोर नहीं चलता जो ईमान ले आए और अपने रब पर भरोसा रखते हैं। उसका ज़ोर तो केवल उन लोगों पर ही चलता है जो उससे (शैतान से) मित्रता का नाता जोड़ते हैं। वास्तव में जो लोग दृढ़ विश्वास रखते हैं और ईश्वर पर भरोसा करते हैं उनपर शैतान के "वसवसे" अर्थात शंका उत्पन्न करने या बहकावे का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

शैतान की ओर से अपहरण की प्रक्रिया सामान्यतः धीरे-धीरे होती है जो अद्रश्य होती है। सामान्यतः मनुष्य को इस ख़तरनाक शत्रु के षडयंत्र का आभास ही नहीं होता। हालांकि मनुष्य तक़वा अर्थात ईश्वरीय भय और आस्था की सहायता से शैतान के बहकावे और ईश्वरीय संदेश के बीच अंतर को सरलता से समझ सकता है। क्योंकि ईश्वरीय संदेश मानव की पवित्र अन्तरात्मा से मेल खाते हैं अतः जब वे हृदय तक पहुंचते हैं तो मनुष्य में प्रभुल्लता की भावना उत्पन्न हो जाती है। दूसरी ओर शैतान का बहकावा या उसकी ओर से उत्पन्न की जाने वाली शंकाएं मनुष्य की अन्तरात्मा से मेल नहीं खातीं इसीलिए जब मानव का उनसे सामना होता है तो उसमें अप्रसन्नता की भावना जाग्रत होती है। इस शत्रु से मुक़ाबले के लिए धर्म ने हमारा मार्गदर्शन किया है जो मनुष्य के ज्ञान में वृद्धि करता हैं और उसको ख़तरे से मुक्ति दिलाता है। इस बीच रोज़ा एसा कार्यक्रम है जो हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वआलेही वसल्लम के कथनानुसार शैतान को मानव से दूर करता है और उसमें इच्छा शक्ति और आस्था को प्रबल बनाने का अवसर प्रदान करता है। एक दिन आपने फ़रमाया कि क्या तुम यह चाहते हो कि मैं तुमको एक एसे कार्य के बारे में बताऊं जिसके करने से शैतान तुम से दूर हो जाए। लोगों ने बड़े ही उत्साह से कहा कि हां या रसूलल्लाह। आपने कहा कि रोज़ा रखो क्योंकि रोज़ा शैतान का मुंह काला करता है।

ईश्वर ने हमें बहुत से अवसर प्रदान किये हैं। किंतु इन अवसरों का प्रदान किया जाना इस अर्थ में नहीं है कि यह निरंतर हमारे साथ भी रहेंगे। इन अवसरों का बाक़ी रहना या उनसे लाभान्वित होना , हमारे क्रियाकलापों पर निर्भर है। महापुरूषों के बहुत से कथनों में यह मिलता है कि ईश्वरीय अनुकंपाओं को अपनी "नाशुक्री" से दूर न करो। इमाम अली अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि तुमपर ईश्वर का सबसे छोटा अधिकार यह है कि उसकी विभूतियों को उसके मार्ग के विपरीत मार्ग में ख़र्च न करो। निश्चित रूप से ईश्वरीय विभूतियों से मुंह मोड़ना और इन विभूतियों के महत्व को न समझना , पतन के कारकों में से एक है।

एक कथन में आया है कि एक दिन हज़रत दाऊद ने ईश्वर से मांग की थी कि उनके साथी को स्वर्ग में उनके साथ स्थान मिले। आवाज़ आई कि कल उसको शहर के दरवाज़े के बाहर देखोगे। अगले दिन हज़रत दाऊद शहर के दरवाज़े से निकले। उन्होंने यूनुस पैग़म्बर के पिता मत्ता से भेंट की। उनके कंधे पर थोड़ा सा ईंधन था और वे उसे बेचने के लिए ग्राहक की तलाश में थे। हज़रत दाऊद उनके साथ हो लिए और उनसे बात कर

ने लगे। इसी बीच एक व्यक्ति ने ईंधन ख़रीदा। मत्ता ने पैसों से आंटा और नमक ख़रीदा। उन्होंने दाऊद , सुलैमान और अपने लिए रोटियां पकाई। रोटी खाते समय हज़रत दाऊद ने देखा कि मत्ता ने अपना सिर ऊपर उठाते हुए कहा , हे ईश्वर मैने जो ईंधन इकट्ठा किया था उसके पेड़ तूने उपजाए। मेरी भुजाओं को शक्ति तूने प्रदान की। ईंधन का बोझ ढोने की शक्ति तूने ही मुझकत दी। ईंधन के ग्राहक को तूने मेरे पास भेजा। गेहूं तूने पैदा किया। यह सब शक्तियां तूने मुझको प्रदान कीं ताकि मैं तेरी अनुकंपाओं से लाभ उठा सकूं। जिस समय मत्ता यह बातें कह रहे थे उस समय उनकी आखों से आंसू बह रहे थे। इसी बीच हज़रत दाऊद ने हज़रत सुलैमान को ओर मुख करते हुए कहा कि इस प्रकार का शुक्र ही मानव को उच्च स्थान की ओर ले जाता है।

जीवन और उससे संबन्धित विषयों के बारे में लोगों का दृष्टिकोण उनके व्यवहार की शैली पर बहुत प्रभाव पड़ता है। निश्चित रूप से जीवन के संबन्ध में लोगों का दृष्टिकोण और उनका मनोबल , उनके अंदर परिस्थितियों और विशेष प्रकार के व्यवहार को असित्तव प्रदान करता है। इस बात को मनुष्य सुनिश्चित करता है कि वह जीवन को किस प्रकार से देखता है। दूसरे शब्दों में सोच-विचार की शैली कभी सकारात्मक तो कभी नकारात्मक विचारधारा का कारण बनती है। सामान्यतः हमारे आंतरिक विचार/ घटनाओं , पवित्र आस्था , मूल्यों , और विचारों से गुज़रते हुए हमारे मस्तिष्क में अंकित होते हैं।

किंतु बाईमान लोग जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं। एसे लोगों का मानना है कि सृष्टि को ईश्वर ने बनाया है। वही सृष्टि को चलाने वाला है। वह शक्ति तथा दया का प्रतीक है। उसीने अपनी दया से मानव को उचित मार्ग दर्शाया है। अब अगर कोई सीधे मार्ग को अपनाता है तो वह सफलता अर्जित करता है। ईमान रखने वाले व्यक्ति को जब सही रास्ता मिल जाता है और वह अच्छे कार्य करता है तो उसे ईश्वर की सहायता पर विश्वास होता है। एसे व्यक्ति के अनुसार ईश्वर सर्वशक्तिमान है फिर भी वह दूसरों पर अत्याचार नहीं करता। अपने दासों की प्रार्थना को सुनता है। वह उनसे बहुत ही निकट है। वह बहुत अधिक क्षमाशील तथा दयालु है। यहां तक कि जो लोग बुराई करने वाले हैं वे भी उसकी असीम कृपा के पात्र बनते हैं।

इस दृष्टिकोण के साथ जो भी सृष्टि के रचयता पर विश्वास रखता है वह सृष्टि को लक्ष्यहीन और बेकार नहीं जानता। वह संसार को कार्यस्थल तथा उचित प्रयास का स्थान समझता है। एसा व्यक्ति अपने व्यव्हार पर ईश्वर को निरीक्षक समझता है। घटनाएं चाहें वे अच्छी हो या बुरी उसकी मानसिक शांति को प्रभावित नहीं करती। इसका कारण यह है कि वह अपने जीवन के अंधकारमय छणों में भी अकेलेपन का भी आभास नहीं करता है और सदा ही अपने निकट ईश्वर का आभास करता है। ईश्वर के आभास के विचार के साथ वह यह समझता है कि उसे स्वतंत्र नहीं छोड़ा गया है और सृष्टि में उसके प्रयास विफल नहीं होंगे। एक अमरीकी मनोवैज्ञानिक के अनुसार ईमान एसी शक्ति है जिसकी मानव जीवन में सहायता के लिए ईमान की शक्ति की नितांत आवश्यकता होती है और ईमान का न होना जीवन की कठिनाइयों में मानव की पराजय के लिए ख़तरे की घण्टी के समान है।

पवित्र माहे रमज़ान-7

माहे रमज़ान के पवित्र महीने में कुछ विशेष क्षण होते हैं। इन विशेष क्षणों में सबसे सुंदर क्षण सहर अर्थात भोर के समय के होते हैं। बड़े खेद के साथ कहना पड़ता है कि वर्तमान जीवन शैली तथा शारीरिक एवं मानसिक थकान ने अधिकांश लोगों को भोर समय में उठने से वंचित कर रखा है। माहे रमज़ान के पवित्र महीने में हमें यह सुअवसर प्राप्त होता है कि भोर समय उठने के आनन्द तथा उसके लाभ का हम आभास कर सकें। दिन भर के 24 घण्टों में भोर का समय ही सबसे अच्छा समय होता है। इस समय का महत्व इतना अधिक है कि ईश्वर ने पवित्र क़ुरआन की आयतों में इसकी सौगंध खाई है ताकि लोग भोर के बारे में अधिक विचार करें।

इस्लाम के बड़े-बड़े महापुरूषों तथा विद्धानों के जीवन पर यदि एक दृष्टि डाली जाए तो हमें ज्ञात होगा कि वे सब ही भोर समय उठा करते थे। वे लोग इस समय ईश्वर की उपासना , चिंतन तथा ज्ञानार्जन में व्यस्त रहा करते थे। भोर समय की प्रार्थना या उपासना मनुष्य के मन तथा आत्मा पर गहरा प्रभाव डालती है। पैग़म्बरे इस्लाम का कथन है कि दुआ के लिए बेहतरीन समय भोर समय है। भोर समय की अनुकंपाओं के संबन्ध में इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम का कथन है कि ईश्वर अपने मोमिन बंदों में से उस बंदे से अधिक प्रेम करता है जो अधिक दुआ करता है। इसीलिए भोर समय से सूर्योदय तक प्रार्थना किया करो क्योंकि उस समय आकाशों के द्वार खुल जाते हैं , लोगों की रोज़ी बांटी जाती है और बड़ी-बड़ी दुआएं स्वीकार की जाती हैं।

भोर में उठने से आत्मा को आनन्द एवं शान्ति प्राप्त होती है। लगभग सभी धर्मों में भोर समय उठकर उपासना करने के आदेश मिलते हैं। इस्लामी शिक्षाओं में यह भी आया है कि भोर में उठने से आजिविका में वृद्धि होती है। पैग़म्बरे इस्लाम का इस संबन्ध में कथन है कि प्रातःकाल मे अपनी रोज़ी प्राप्त करने के लिए घर से निकल जाओ क्योंकि भोर में उठना विभूतियों की प्राप्ति का कारण बनता है। माहे रमज़ान का पवित्र महीना आत्मनिर्णाण का महीना है। महापुरुषों का कहना है कि आत्मनिर्माण में भोर समय उठने की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है।

विश्व में जिन लोगों ने कोई विशेष स्थान प्राप्त किया है उनके जीवन का अध्धयन करने से ज्ञात होता है कि वे प्रातः उठा करते थे। अरबी भाषा में भी एक कथन है जिसका अर्थ यह है कि जो भी सफलता की कामना करता है उसे भोर समय उठना चाहिए। भोर समय उठने से केवल आत्मा को ही लाभ नहीं मिलता बल्कि शरीर को भी इसका लाभ प्राप्त होता है। भोर समय उठने वाला व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से स्वस्थय रहता है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि भोर समय उठना मनुष्य के लिए हर दृष्टि से लाभकारी है अतः हमें इसे अपनाना चाहिए।