कलेमाते क़ेसार

कलेमाते क़ेसार0%

कलेमाते क़ेसार लेखक:
कैटिगिरी: इमाम अली (अ)

कलेमाते क़ेसार

लेखक: सैय्यद रज़ी र.ह
कैटिगिरी:

विज़िट्स: 8362
डाउनलोड: 3786

कमेन्टस:

कलेमाते क़ेसार
खोज पुस्तको में
  • प्रारंभ
  • पिछला
  • 5 /
  • अगला
  • अंत
  •  
  • डाउनलोड HTML
  • डाउनलोड Word
  • डाउनलोड PDF
  • विज़िट्स: 8362 / डाउनलोड: 3786
आकार आकार आकार
कलेमाते क़ेसार

कलेमाते क़ेसार

लेखक:
हिंदी

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 241-260

241-अल्लाह से डरते रहो चाहे मुख़्तसर ही क्यों न हो और अपने और उसके दरम्यान पर्दा रखो चाहे बारीक ही क्यों न हो।

242-जब जवाबात की कसरत हो जाती है तो अस्ल बात गुम हो जाती है।

243-अल्लाह का हर नेमत में एक हक़ है जो उसे अदा कर देगा अल्लाह उसकी नेमत को बढ़ा देगा और जो कोताही करेगा वह मौजूदा नेमत को भी ख़तरे में डाल देगा।

244-जब ताक़त ज़्यादा हो जाती है तो ख़्वाहिश कम हो जाती है।

(((जब फ़ितरत का यह निज़ाम है के कमज़ोर आदमी में ख़्वाहिश ज़्यादा होती है और ताक़तवर इस क़द्र ख़्वाहिशात का हामिल नहीं होता है तो सियासी दुनिया में भी इन्सान का तर्ज़े अमल वैसा ही होना चाहिये के जिस क़द्र ताक़त व क़ूवत में इज़ाफ़ा होता जाए अपने को ख़्वाहिशाते दुनिया से बे नियाज़ बनाता जाए और अपने किरदार से साबित कर दे के उसकी ज़िन्दगी निज़ामे फ़ितरत से अलग और जुदागाना नहीं है)))

245-नेमतों के ज़वाल से डरते रहो के हर बेक़ाबू होकर निकल जाने वाली चीज़ वापस नहीं आया करती है।

246-जज़्बए करम क़राबतदारी से ज़्यादा मेहरबानी का वजह होता है।

247-जो तुम्हारे बारे में अच्छा ख़याल रखता हो उसके ख़याल को सच्चा करके दिखला दो।

(((ह |य इन्सानी ज़िन्दगी का इन्तेहाई हस्सास नुक्ता है के इन्सान आम तौर से लोगों को हुस्ने ज़न में मुब्तिला कर उससे ग़लत फ़ायदा उठाने की कोशिश करता है और उसे यह ख़याल पैदा हो जाता है के जब लोग शराबख़ाने में देख कर भी यही तसव्वुर करेंगे के तबलीग़े मज़हब के लिये गए थे तो शराब ख़ाने से फ़ायदा उठा लेना चाहिये हालांके तक़ाज़ाए अक़्ल व दानिश और मुक़तज़ाए शराफ़त व इन्सानियत यह है के लोग जिस क़द्र शरीफ़ तसव्वुर करते हैं उतनी शराफ़त का इसाबात करे और उनके हुस्ने ज़न को सूए ज़न में तब्दील न होने दें)))

248-बेहतरीन अमल वह है जिस पर तुम्हें अपने नफ़्स को मजबूर करना पड़े।

(((इन्सान तमाम आमाल को नफ़्स की ख़्वाहिश के मुताबिक़ अन्जाम देगा तो एक दिन नफ़्स का ग़ुलाम होकर रह जाएगा लेहाज़ा ज़रूरत है के ऐसे अमल अन्जाम देता रहे जहां नफ़्स पर जब्र करना पड़े और उसे इसकी औक़ात से आश्ना बनाता रहे ताके उसके हौसले इस क़द्र बलन्द न हो जाएं के इन्सान को मुकम्मल तौर पर अपनी गिरफ़्त में ले ले और फिर निजात का कोई रास्ता न रह जाए।

249-मैंने परवरदिगार को इरादों के टूट जाने ,नीयतों के बदल जाने और हिम्मतों के पस्त हो जाने से पहचाना है।

250-दुनिया की तल्ख़ी आख़ेरत की शीरीनी है और दुनिया की शीरीनी आख़ेरत की तल्ख़ी है।

251-अल्लाह ने ईमान को लाज़िम क़रार दिया है शिर्क से पाक करने के लिये ,और नमाज़ को वाजिब किया है ग़ुरूर से बाज़ रखने के लिये ,ज़कात को रिज़्क़ का वसीला क़रार दिया है और रोज़े को आज़माइशे इख़लास का वसीला ,जेहाद को इस्लाम की इज़्ज़त के लिये रखा है और अम्रे बिलमारूफ़ को अवाम की मसलेहत के लिये ,नहीं अनिल मुन्किर को बेवक़ूफ़ों को बुराइयों से रोकने के लिये वाजिब किया है और सिलए रहम अदद में इज़ाफ़ा करने के लिये ,क़सास ख़ून के तहफ़्फ़ुज़ का वसीला है और हुदूद का क़याम मोहर्रमात की अहमियत के समझाने का ज़रिया ,शराब ख़्वारी को अक़्ल की हिफ़ाज़त के लिये हराम क़रार दिया है और चोरी से इज्तेनाब को इफ़त की हिफ़ाज़त के लिये लाज़िम क़रार दिया है। तर्के ज़िना का लज़ूम नसब की हिफ़ाज़त के लिये और तर्के लवात की ज़रूरत नस्ल की बक़ा के लिये है ,गवाहियों को इन्कार के मुक़ाबले में सबूत का ज़रिया क़रार दिया गया है और तर्के कज़्ब को सिद्क़ की शराफ़त का वसीला ठहरा दिया गया है क़यामे अम्न को ख़तरों से तहफ़्फ़ुज़ के लिये रखा गया है और इमामत को मिल्लत की तन्ज़ीम का वसीला क़रार दिया गया है और फ़िर इताअत को अज़मते इमामत की निशानी क़रार दिया गया है।

(((यह इस्लाम का आलमे इन्सानियत पर उमूमी एहसान है के उसने अपने क़वानीन के ज़रिये इन्सानी आबादी को बढ़ाने का इन्तेज़ाम किया है और फ़िर हराम ज़ादों की दर आमद को रोक दिया है। ताके आलमे इन्सानियत में शरीफ़ अफ़राद पैदा हों और यह आलम हर क़िस्म की बरबादी और तबाहकारी से महफ़ूज़ रहे ,इसके बाद इसका सिन्फ़े निसवां पर ख़ुसूसी एहसान यह है के इसने औरत के अलावा जिन्सी तस्कीन के हर रास्ते को बन्द कर दिया है ,खुली हुई बात है के इन्सान में जब जिन्सी हैजान पैदा होता है तो उसे औरत की ज़रूरत का एहसास पैदा होता है और किसी भी तरीक़े से ज बवह हैजानी माद्दा निकल जाता है तो किसी मिक़दार में सुकून हासिल हो जाता है और जज़्बात का तूफ़ान रूक जाता है ,अहले दुनिया ने इस माद्दे के एख़राज के मुख़्तलिफ़ तरीक़े ईजाद किये हैं अपनी जिन्स का कोई मिल जाता है तो हम जिन्सी से तस्कीन हासिल कर लेते हैं और अगर कोई नहीं मिलता है तो ख़ुदकारी का अमल अन्जाम दे लेते हैं और इस तरह औरत की ज़रूरत से बेनियाज़ हो जाते हैं और यही वजह है के आज आज़ाद मुआशरों में औरत अज़ो मोअतल होकर रह गई है और हज़ार वसाएल इख़्तेयार करने के बाद भी इसके तलबगारों की फ़ेहरिस्त कम से कमतर होती जा रही है। इस्लाम ने इस ख़तरनाक सूरतेहाल से मुक़ाबला करने के लिये मुजामेअत के अलावा हर वसीलए तस्कीन को हराम कर दिया है ताके मर्द औरत के वजूद से बेनियाज़ न होने पाए और औरत का वजूद मुआशरे में ग़़ैर ज़रूरी न क़रार पा जाए। अफ़सोस के इस आज़ादी और अय्याशी की मारी हुई दुनिया में इस पाकीज़ा तसव्वुर का क़द्रदान कोई नहीं है और सब इस्लाम पर औरत की नाक़द्री का इल्ज़ाम लगाते हैं ,गोया उनकी नज़र में उसे खिलौना बना लेना और खेलने के बाद फेंक देना ही सबसे बड़ी क़द्रे ज़ाती है।)))

252-किसी ज़ालिम से क़सम लेना हो तो इस तरह क़सम लो के वह परवरदिगार की ताक़त और क़ूवत से बेज़ार है अगर इसका बयान सही न हो के अगर इस तह झूठी क़सम खाएगा तो फ़ौरन मुब्तिलाए अज़ाब हो जाएगा आर अगर ख़ुदाए वहदहू लाशरीक के नाम की क़सम खाई तो अज़ाब में उजलत न होगी के बहरहाल तौहीदे परवरदिगार का इक़रार कर लिया।

253-फ़रज़न्दे आदम (अ0)! अपने माल में अपना वसी ख़ुद बन और वह काम ख़ुद अन्जाम दे जिसके बारे में उम्मीद रखता है के लोग तेरे बाद अन्जाम दे देंगे।

254-ग़ुस्सा जुनून की एक क़िस्म है के ग़ुस्सावर को बाद में शरमिंदा होना पड़ता है और शरमिंदा न हो तो वाक़ेअन उसका जुनून मुस्तहकम है।

255-बदन की सेहत का एक ज़रिया हसद की क़िल्लत भी है।

256-ऐ कुमैल! अपने घरवालों को हुक्म दो के अच्छी ख़सलतों को तलाश करने के लिये दिन में निकलें और सो जाने वालों की हाजत रवाई के लिये रात में क़याम करें। क़सम है उस ज़ात की जात हर आवाज़ की सुनने वाली है के कोई शख़्स किसी दिल में सुरूर वारिद नहीं करता है मगर यह के परवरदिगार उसके लिये उस सुरूर से एक लुत्फ़ पैदा कर देता है के इसके बाद अगर इस पर कोई मुसीबत नाज़िल होती है तो वह नशेब में बहने वाले पानी की तरह तेज़ी से बढ़े और अजनबी ऊंटों को हंकाने की तरह उस मुसीबत को हंका कर दूर कर दे।

257-जब तंगदस्त हो जाओ तो सदक़े के ज़रिये अल्लाह से व्यापार करो।

258-ग़द्दारों से वफ़ा करना अल्लाह के नज़दीक ग़द्दारी है ,और ग़द्दारों के साथ ग़द्दारी करना अल्लाह के नज़दीक ऐने वफ़ा है।

259-कितने ही लोग ऐसे हैं जिन्हें नेमतें देकर रफ़्ता रफ़्ता अज़ाब का मुस्तहक़ बनाया जाता है और कितने ही लोग ऐसे हैं जो अल्लाह की परदापोशी से धोका खाए हुए हैं और अपने बारे में अच्छे अलफ़ाज़ सुनकर फ़रेब में पड़ गए और मोहलत देने से ज़्यादा अल्लाह की जानिब से कोई बड़ी आज़माइश नहीं।

सय्यद रज़ी- कहते हैं के यह कलाम पहले भी गुज़र चुका है मगर यहाँ इसमें कुछ उमदा और मुफ़ीद इज़ाफ़ा है। ”

फ़स्ल

इस फ़स्ल में हज़रत के उन कलेमात को नक़्ल किया गया है जो मोहताजे तफ़सीर थे और फिर उनकी तफ़सीर व तौज़ीह को भी नक़्ल किया गया है।

1-जब वह वक़्त आएगा तो दीन का यासूब अपनी जगह पर क़रार पाएगा और लोग उसके पास इस तरह जमा होंगे जिस तरह मौसमे ख़रीफ़ के क़ज़अ

सय्यद रज़ी-यासूब उस मुरदार को कहा जाता है जो तमाम काम का ज़िम्मेदार होता है और कज़अ बादलों के उन टुकड़ों का नाम है जिनमें पानी न हो।

(((यासूब शहद की मक्खियों के सरबराह को कहते हैं और “यासूबुद्दीन ” (हाकिमे दीन व शरीअत) से मुराद हज़रत हुज्जत (अ0) हैं।

2-यह खतीब शहशह (सासा बिन सौहान अबदी) —शहशह उस ख़तीब को कहते हैं जो खि़ताबत में माहिर होता है और ज़बानआवरी या रफ़्तार में तेज़ी से आगे बढ़ता है। इसके अलावा दूसरे मुक़ामात पर शहशह बख़ील और कन्जूस के मानी में इस्तेमाल होता है।

3-लड़ाई झगड़े के नतीजे में क़ोहम होते हैं।   —क़ोहम से मुराद तबाहियाँ हैं के यह लोगों को हलाकतों में गिरा देती हैं और उसी से लफ़्ज़े “कहमतुल अराब ” निकला है ,जब ऐसा महत पड़ जाता है के जानवर सिर्फ़ हड्डियों का ढांचा रह जाते हैं और गोया यह उस बला में ढकेल दिये जाते हैं या दूसरे एतबार से क़हतसाली इनको सहराओं से निकालकर शहरों की तरफ़ ढकेल देती है।

4-जब लड़कियां नस्सुलहक़ाक़ (नस्स- आखि़री मन्ज़िल को कहा जाता है) तक पहुँच जाएँ तो उनके लिये दो हयाली रिश्तेदार ज़्यादा हक़ रखते हैं।

नस्सतुलरजल- यानी जहाँ तक मुमकिन था उससे सवाल कर लिया ,सस्सुलहकाक़ से मुराद मन्ज़िले इदराक है जो बचपने की आखि़री हद है और यह इस सिलसिले का बेहतरीन कनाया है जिसका मक़सद यह है के जब लड़कियां हद्दे बलूग़ तक पहुंच जाएं तो दो हयाली रिश्तेदार जो महरम भी हों जैसे भाई और चचा वग़ैरह उसका रिश्ता करने के लिये माँ के मुक़ाबले में ज़्यादा हक़ (उलूवियत) रखते हैं और हक़ाक़ से माँ का इन रिश्तेदारों से झगड़ा करना और हर एक का अपने को ज़्यादा हक़दार साबित करना मुराद है जिसके लिये कहा जाता है “हाक़क़तह हकाक़न ” - “जादेलतह जेदाला ” ।

और बाज़ लोगों का कहना है के नस्सुल हक़ाक़ कमाले अक़्ल है जब लड़की इदराक की उस मन्ज़िल पर होती है जहां उसके ज़िम्मे फ़राएज़ व एहकाम साबित हो जाते हैं और जिन लोगों ने नस्सुल हक़ाएक़ नक़्ल किया है। इनके यहाँ हक़ाएक़ हक़ीक़त की जमा है यह सारी बातें अबू उबैदुल कासिम बिन सलाम ने बयान की हैं लेकिन मेरे नज़दीक औरत का क़ाबिले शादी और क़ाबिले तसर्रूफ़ हो जाना मुराद है के हक़ाएक़ हिक़्क़ा की जमा है और हिक़्क़ा वह ऊँटनी है जो चैथे साल में दाखि़ल हो जाए और उस वक़्त सवारी के क़ाबिल हो जाती है और हक़ाएक भी हिक़्क़ा ही के जमा के तौर पर इस्तेमाल होता है और यह मफ़हूम अरब के असलूबे कमाल से ज़्यादा हम आहंग है।

5-ईमान एक लुम्ज़ा की शक्ल में ज़ाहिर होता है और फिर ईमान के साथ यह लुम्ज़ा भी बढ़ता रहता है। (लुम्ज़ा सफ़ेद नुक़्ता होता है जो घोड़े के होंट पर ज़ाहिर होता है)

6-जब किसी शख़्स को देने ज़नून मिल जाए तो जितने साल गुज़र गए हों उनकी ज़कात वाजिब है। 

ज़नून उस क़र्ज़ का नाम है जिसके कर्ज़दार को यह न मालूम हो के वह वसूल भी हो सकेगा या नहीं और इस तरह तरह-तरह के ख़यालात पैदा होते रहते हैं और इसी बुनियाद पर हर ऐसे अम्र को ज़नून कहा जाता है जैसा के अश्या ने कहा हैः  “वह जुद ((जुद- सहरा के पुराने कनवीं को कहा जाता है और ज़नून उसको कहा जाता है जिसके बारे में यह न मालूम हो के इसमें पानी है या नहीं)) ज़नून है जो गरज कर बरसने वाले अब्र की बारिश से भी महरूम हो ,उसे दरियाए फ़ुरात के मानिन्द नहीं क़रार दिया जा सकता है जबके वह ठाठें मार रहा हो और किश्ती और तैराक दोनों को ढकेल कर बाहर फेंक रहा हो ”

7-आपने एक लशकर को मैदाने जंग में भेजते हुए फ़रमाया- जहां तक मुमकिन हो औरतों से आज़ब रहो ((यानी उनकी याद से दूर रहो)) ,उनमें दिल मत लगाओ और उनसे मुक़ारेबत मत करो के यह तरीक़ए कार बाज़ुए हमीयत में कमज़ोरी और अज़्म की पुख़्तगी में सुस्ती पैदा कर देता है और दुश्मन के मुक़ाबले में कमज़ोर बना देता है और जंग में कोशिशे वुसई से रूगर्दां कर देता है और जो उन तमाम चीज़ों से अलग रहता है उसे आज़ब कहा जाता है ,आज़ब या उज़ू़ब खाने पीने से दूर रहने वाले को भी कहा जाता है।))

8-वह उस यासिर फ़ालिज के मानिन्द है जो जुए के तीरों का पांसा फेंककर पहले ही मरहले पर कामयाबी की उम्मीद लगा लेता है —

“ यासिरून ” वह लोग हैं जो नहर की हुई ऊंटनी पर जुए के तीरों का पांसा फेंकते हैं और फ़ालिज उनमें कामयाब हो जाने वाले को कहा जाता है। “फ़लज अलैहिम ” या “फलजहुम ” उस मौक़े पर इस्तेमाल होता है जब कोई ग़ालिब आ जाता है जैसा के रिज्ज़ ख़्वाँ शाएर ने कहा हैः “जब मैंने किसी फ़ालिज को देखा के वह कामयाब हो गया ”

9- “जब अहमरअरबास होता था (दुश्मन का ख़तरा बढ़ जाता था) तो लोग रसूले अकरम की पनाह में रहा करते थे और कोई शख़्स भी आपसे ज़्यादा दुश्मन से क़रीब नहीं होता था। ”

(((पैग़म्बरे इस्लाम (स0) का कमाले एहतेराम है के हज़रत अली (अ0) जैसे अश्जअ अरब ने आपके बारे में यह बयान दिया है और आपकी अज़मत व हैबत व शुजाअत का एलान किया है ,दूसरा कोई होता तो उसके बरअक्स बयान करता के मैदाने जंग में सरकार हमारी पनाह में रहा करते थे और हम न होते तो आपका ख़ात्मा हो जाता लेकिन अमीरूल मोमेनीन (अ0) जैसा साहबे किरदार इस अन्दाज़ का बयान नहीं दे सकता है और न यह सोच सकता है। आपकी नज़र में इन्सान कितना ही बलन्द किरदार और साहेबे ताक़त व हिम्मत क्यों न हो जाए ,सरकारे दो आलम (अ0) का उम्मती ही शुमार होगा और उम्मती का मर्तबा पैग़म्बर (स0) से बलन्दतर नहीं हो सकता))) इसका मतलब यह है के जब दुश्मन का ख़तरा बढ़ जाता था और जंग की काट शदीद हो जाती थी तो मुसलमान मैदान में रसूले अकरम (स0) की पनाह तलाश किया करते थे और आप पर नुसरते इलाही का नुज़ूल हो जाता था और मुसलमानों को अम्न व अमान हासिल हो जाता था। अहमरअरबास दर हक़ीक़त सख़्ती का केनाया है जिसके बारे में मुख़्तलिफ़ अक़वाल पाए जाते हैं और सबसे बेहतर क़ौल यह है के जंग की तेज़ी और गर्मी को आगणन के तश्बीह दी गई है जिसमें गर्मी और सुखऱ्ी दोनों होती हैं और इसका मवीद सरकारे दो आलम (स0) का यह इरशाद है के आपने हुनैन के दिन क़बीलए बनी हवाज़न की जंग में लोगों को जंग करते देखा तो फ़रमाया के अब वतीस गर्म हो गया है यानी आपने मैदाने कारज़ार की गर्म बाज़ारी को आग के भड़कने और उसके शोले से तश्बीह दी है के वतीस उस जगह को कहते हैं जहाँ आग भड़काई जाती है।

260-जब आपको इत्तेला दी गई के माविया के असहाब ने अम्बार पर हमला कर दिया है तो आप ब-नफ़्से नफ़ीस निकल कर नख़ीला तक तशरीफ़ ले गए और कुछ लोग भी आपके साथ पहुंच गए और कहने लगे के आप तशरीफ़ रखें। हम लोग उन दुश्मनों के लिये काफ़ी हैं तो आपने फ़रमाया के तुम लोग अपने लिये काफ़ी नहीं हो दुश्मन के लिये क्या काफ़ी हो सकते हो ?तुमसे पहले जनता हुक्काम के ज़ुल्म से फ़रियादी थी और आज मैं जनता के ज़ुल्म से फ़रयाद कर रहा हूँ ,जैसे के यही लोग क़ाएद हैं और मैं जनता हूँ। मैं हलक़ाबगोश हूँ और यह फ़रमान रवा।

जिस वक़्त आपने यह कलाम इरशाद फ़रमाया जिसका एक हिस्सा ख़ुतबे के ज़ैल में नक़्ल किया जा चुका है तो आपके असहाब में से दो अफ़राद आगे बढ़े जिनमें से एक ने कहा के मैं अपना और अपने भाई का ज़िम्मेदार हूँ। आप हुक्म दें हम तामील के लिये तैयार हैं ,आपने फ़रमाया के मैं जो कुछ चाहता हूँ तुम्हारा उससे क्या ताल्लुक़ है।

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 261-280

261-कहा जाता है के हारिस बिन जोत ने आपके पास आकर यह कहा के क्या आपका यह ख़्याल है के मैं असहाबे जमल को गुमराह मान लूँगा ?तो आपने फ़रमाया के हारिस! तुमने अपने नीचे की तरफ़ देखा है इसलिये हैरान हो गए हो ,तुम हक़ ही को नहीं पहचानते हो तो क्या जानो के हक़दार कौन है और बातिल ही को नहीं जानते हो तो क्या जानो के बातिल परस्त कौन है ?हारिस ने कहा के मैं सईद बिन मालिक और अब्दुल्लाह बिन उमर के साथ गोशानशीन हो जाऊंगा तो आपने फ़रमाया के सईद और अब्दुल्लाह बिन उमर ने हक़ की मदद की है और न बातिल को नज़रअन्दाज़ किया है (न इधर के हुए न उधर के हुए)

(((यह बात उस शख़्स से कही जाती है जिसकी निगाह इन्तेहाई महदूद होती है और अपने ज़ेरे क़दम चीज़ो से ज़्यादा देखने की सलाहियत नहीं रखता है वरना इन्सान की निगाह बलन्द हो जाए तो बहुत से हक़ाएक़ का इदराक कर सकती है ,हारिस का सबसे बड़ा ऐब यह है के उसने सिर्फ़ उम्मुल मोमेनीन की ज़ौजियत पर निगाह की है और तलहा व ज़ुबैर की सहाबियत पर ,और ऐसी महदूद निगाह रखने वाला इन्सान हक़ाएक़ का इदराक नहीं कर सकता है। हक़ाएक़ का मेयार क़ुरान व सुन्नत है जिसमें ज़ौजा को घर में बैठने की तलक़ीन की गई है और इन्सान को बैअत शिकनी से मना किया गया है। हक़ाएक़ का मेयार किसी की ज़ौजियत या सहाबियत नहीं है ,वरना ज़ौजाए नूह (अ0) और ज़ौजाए लूत (अ0) को क़ाबिले मज़म्मत न क़रार दिया जाता और असहाबे मूसा की सरीही मज़म्मत न की जाती। ” )))

262-बादशाह का साथ बैठने वाला शेर का सवार होता है के लोग उसके हालात पर रश्क करते हैं और वह ख़ुद अपनी हालत को बेहतर पहचानता है।

(((हक़ीक़ते अम्र यह है के मसाहेबत की ज़िन्दगी देखने में इन्तेहाई हसीन दिखाई देती है के सारा अम्र व नहीं का निज़ाम बज़ाहिर मसाहेब के हाथ में होता है लेकिन उसकी वाक़ई हैसियत क्या होती है यह उसी का दिल जानता है के न साहेबे इक़्तेदार के मिज़ाज का कोई भरोसा होता है और न मसाहेबत के ओहदए इक़्तेदार का। रब्बे करीम हर इन्सान को ऐसी बलाओं से महफ़ूज़ रखे जिनका ज़ाहिर इन्तेहाई हसीन होता है और वाक़ेई इन्तेहाई संगीन और ख़तरनाक।)))

263-दूसरों के पसमान्दगान से अच्छा बरताव करूं ताके लोग तुम्हारे पसमान्दगान के साथ भी अच्छा बरताव करें।

264-होकमा का कलाम दुरूस्त होता है तो दवा बन जाता है और ग़लत होता है तो बीमारी बन जाता है।

265-एक शख़्स ने आपसे मुतालबा किया के ईमान की तारीफ़ फ़रमाएं ,तो फ़रमाया के कल आना तो मैं मजमए आम में बयान करूंगा ताके तुम भूल जाओ तो दूसरे लोग महफ़ूज़ रख सकें इसलिये के कलाम भड़के हुए शिकार के मानिन्द होता है के एक पकड़ लेता है और एक के हाथ से निकल जाता है

(मुफ़स्सल जवाब इससे पहले ईमान के शोबों के ज़ैल में नक़्ल किया जा चुका है।)

266-फ़रज़न्दे आदम! उस दिन का ग़म जो अभी नहीं आया है उस दिन पर मत डालो जो आ चुका है के अगर वह तुम्हारी उम्र में शामिल होगा तो उसका रिज़्क़ भी उसके साथ ही आएगा।

267-अपने दोस्त से एक महदूद हद तक दोस्ती करो ,कहीं ऐसा न हो के एक दिन दुश्मन हो जाए और दुश्मन से भी एक हद तक दुश्मनी करो शायद एक दिन दोस्त बन जाए (तो शर्मिन्दगी न हो)।

(((यह एक इन्तेहाई अज़ीम मुआशेरती नुक्ता है जिसका अन्दाज़ा हर उस इन्सान को है जिसने मुआशरे में आंख खोल कर ज़िन्दगी गुज़ारी है और अन्धों जैसी ज़िन्दगी नहीं गुज़ारी है। इस दुनिया के सर्द व गर्म का तक़ाज़ा यही है के यहाँ अफ़राद से मिलना भी पड़ता है और कभी अलग भी होना पड़ता है लेहाज़ा तक़ाज़ाए अक़्लमन्दी यही है के ज़िन्दगी में ऐसा एतदाल रखे के अगर अलग होना पड़े तो सारे इसरार दूसरे के क़ब्ज़े में न हों के उसका ग़ुलाम बन कर रह जाए और अगर मिलना पड़े तो ऐसे हालात न हों के शर्मिन्दगी के अलावा और कुछ हाथ न आए।)))

268-दुनिया में दो तरह के अमल करने वाले पाए जाते हैं ,एक वह है जो दुनिया ही के लिये काम करता है और उसे दुनिया ने आख़ेरत से ग़ाफ़िल बना दिया है। वह अपने बाद वालों के फ़क़्र से ख़ौफ़ज़दा रहता है और अपने बारे में बिल्कुल मुतमईन रहता है ,नतीजा यह होता है के सारी ज़िन्दगी दूसरों के फ़ायदे के लिये फ़ना कर देता है और एक शख़्स वह होता है जो दुनिया में उसके बाद के लिये अमल करता है और उसे दुनिया बग़ैर अमल के मिल जाती है। वह दुनिया व आख़ेरत दोनों को पा लेता है और दोनों घरों का मालिक हो जाता है। ख़ुदा की बारगाह में सुरख़ुरू हो जाता है और किसी भी हाजत का सवाल करता है तो परवरदिगार उसे पूरा कर देता है।

(((दौरे क़दीम में इसका नाम दूर अन्देशी रखा जाता था जहां इन्सान सुबह व शाम मेहनत करने के बावजूद न माल अपनी दुनिया पर सर्फ़ करता था और न आख़ेरत पर। बल्कि अपने वारिसों के लिये ज़ख़ीरा बनाकर चला जाता था ,इस ग़रीब को यह एहसास भी नहीं था के जब उसे ख़ुद अपनी आक़ेबत बनाने की फ़िक्र नहीं है तो वोरसा को उसकी आक़ेबत से क्या दिलचस्पी हो सकती है ,वह तो एक माले ग़नीमत के मालिक हो गए हैं और जिस तरह चाहेंगे उसी तरह सर्फ़ करेंगे।)))

269-रिवायत में वारिद हुआ है के उमर बिन ख़त्ताब के दौरे हुकूमत में उससे ख़ानाए काबा के ज़ेवरात की कसरत का ज़िक्र किया गया और एक क़ौम ने यह तक़ाज़ा किया के अगर आप उन ज़ेवरात को मुसलमानों के लशकर पर सर्फ़ कर दे तो बहुत बड़ा अज्र व सवाब मिलेगा ,काबे को उन ज़ेवरात की क्या ज़रूरत है ?तो उन्होंने इस राय को पसन्द करते हुए हज़रत अमीर (अ0) से दरयाफ़्त कर लिया। आपने फ़रमाया के यह क़ुरान पैग़म्बरे इस्लाम पर नाज़िल हुआ है और आपके दौर में अमवाल की चार क़िस्में थीं। एक मुसलमान का ज़ाती माल था जिसे हस्बे फ़राएज़ वोरसा में तक़सीम कर दिया करते थे। एक बैतुलमाल का माल था जिसे मुस्तहक़ीन में तक़सीम करते थे। एक ख़ुम्स था जिसे उसके हक़दारों के हवाले कर देते थे और कुछ सदक़ात थे जिन्हें उनके महल पर सर्फ़ किया करते थे। काबे के ज़ेवरात उस वक़्त भी मौजूद थे और परवरदिगार ने उन्हें इसी हालत में छोड़ रखा था न रसूले अकरम (स0) उन्हें भूले थे और न उनका वजूद आपसे पोशीदा था ,लेहाज़ा आप उन्हें इसी हालत पर रहने दें जिस हालत पर ख़ुदा और रसूल ने रखा है ,यह सुनना था के उमर ने कहा आज अगर आप न होते तो मैं रूसवा हो गया होता और यह कहकर ज़ेवरात को उनकी जगह छोड़ दिया।

270-कहा जाता है के आपके सामने दो आदमियों को पेश किया गया जिन्होंने बैतुलमाल से माल चुराया था। एक उनमें से ग़ुलाम और बैतुलमाल की मिल्कियत था और दूसरा लोगों में से किसी की मिल्कियत था। आपने फ़रमाया के जो बैतुलमाल की मिल्कियत है उस पर कोई हद नहीं है के माले ख़ुदा के एक हिस्से ने दूसरे हिस्से को खा लिया है लेकिन दूसरे पर शदीद हद जारी की जाएगी जिसके बाद उसके हाथ काट दिये गए।

271-अगर इन फिसलने वाली जगहों पर मेरे क़दम जम गए तो मैं बहुत सी चीज़ों को बदल दूंगा

(जिन्हें पहले वाले ख़ोलफ़ा ने ईजाद किया है और जिनका सुन्नते पैग़म्बर (स0) से कोई ताल्लुक़ नहीं है।)

272-यह बात यक़ीन के साथ जान लो के परवरदिगार ने किसी बन्दे के लिये इससे ज़्यादा नहीं क़रार दिया है जितना किताबे हकीम में बयान कर दिया गया है चाहे उसकी तदबीर कितनी ही अज़ीम ,उसकी जुस्तजु कितनी ही शदीद और उसकी तरकीबें कितनी ही ताक़तवर क्यों न हों और इसी तरह वह बन्दे तक उसका मक़सूम पहुंचने की राह में कभी हाएल नहीं होता है चाहे वह कितना ही कमज़ोर और बेचारा क्यों न हो। जो इस हक़ीक़त को जानता है और उसके मुताबिक़ अमल करता है वही सबसे ज़्यादा राहत और फ़ायदे में रहता है और जो इस हक़ीक़त को नज़रअन्दाज़ कर देता है और इसमें शक करता है वही सबसे ज़्यादा नुक़सान में मुब्तिला होता है ,कितने ही अफ़राद हैं जिन्हें नेमतें दी जाती हैं और उन्हीं के ज़रिये अज़ाब की लपेट में ले लिया जाता है और कितने ही अफ़राद हैं जो मुब्तिलाए मुसलबत होते हैं लेकिन यही इब्तिला उनके हक़ में बाएसे बरकत बन जाता है। लेहाज़ा ऐ फ़ायदे के तलबगारों! शुक्र में इज़ाफ़ा करो और अपनी जल्दी कम कर दो और अपने रिज़्क़ की हदों पर ठहर जाओ।

(((यह सूरतेहाल बज़ाहिर ख़ानए काबा के साथ मख़सूस नहीं है बल्कि तमाम मुक़द्दस मुक़ामात का यही हाल है के उनके ज़ीनत व आराइश के असबाब अगर ज़रूरी है ,लेकिन अगर उनकी कोई अफ़ादियत नहीं है तो उनके बारे में ज़िम्मेदार इन शरीअत से रूजू करके सही मसरफ़ में लगा देना चाहिये। बक़ौल शख़्से बिजली के दौर में मोमबत्ती और ख़ुशबू के दौर में अगरबत्ती के तहफ़्फ़ुज़ की कोई ज़रूरत नहीं है ,यही पैसा इसी मुक़द्दस मक़ाम के दीगर ज़ुरूरियात पर सर्फ़ किया जा सकता है।)))

273-ख़बरदार अपने इल्म को जेहल न बनाओ और अपने यक़ीन को शक न क़रार दो। जब जान लो तो अमल करो और जब यक़ीन हो जाए तो क़दम आगे बढ़ाओ। (((इमाम अलैहिस्सलाम की नज़र में इल्म और यक़ीन के एक मख़सूस मानी हैं जिनका इज़हार इन्सान के किरदार से होता है। आपकी निगाह में इल्म सिर्फ़ जानने का नाम नहीं है और न यक़ीन सिर्फ़ इत्मीनाने क़ल्ब का नाम है बल्कि दोनों के वजूद का एक फ़ितरी तक़ाज़ा है जिससे उनकी वाक़ईयत और असालत का अन्दाज़ा होता है के इन्सान वाक़ेअन साहेबे इल्म है तो बाअमल भी होगा और वाक़ेअन साहेबे यक़ीन है तो क़दम भी आगे बढ़ाएगा। ऐसा न हो तो इल्म जेहल कहे जाने के क़ाबिल है और यक़ीन शक से बालातर कोई शै नहीं है।)))

274-लालच जहां वारिद कर देती है वहां से निकलने नहीं देती है और यह एक ऐसी ज़मानतदार है जो वफ़ादार नहीं है के कभी कभी तो पानी पीने वाले को सेराबी से पहले ही उच्छू लग जाता है और जिस क़द्र किसी मरग़ूब की क़द्र व मन्ज़िलत ज़्यादा होती है उसके खो जाने का रन्ज ज़्यादा होता है। आरज़ूएं दीदाए बसीरत को अन्धा बना देती हैं और जो कुछ नसीब में होता है वह बग़ैर कोशिश के भी मिल जाता है। (((लालच इन्सान को हज़ारों चीज़ों का यक़ीन दिला देती है और उससे वादा भी कर लेती है लेकिन वक़्त पर वफ़ा नहीं करती है और बसावक़ात ऐसा होता है के सेराब होने से पहले ही उच्छू लग जाता है और सेराब होने की नौबत ही नहीं आती है। लेहाज़ा तक़ाज़ाए अक़्ल व मवानिश यही है के इन्सान लालच से इज्तेनाब करे और बक़द्रे ज़रूरत पर इक्तिफ़ा करे जो बहरहाल उसे हासिल होने वाला है।)))

275-ख़ुदाया मैं इस बात से पनाह चाहता हूँ के लोगों की ज़ाहेरी निगाह में मेरा ज़ाहिर हसीन हो और जो बातिन तेरे लिये छिपाए हुए हूँ वह क़बीह हो ,मैं लोगों के दिखावे के लिये उन चीज़ों की निगेहदाश्त करूं जिन पर तू इत्तेलाअ रखता है। के लोगों पर हुस्ने ज़ाहिर का मुज़ाहेरा करूं और तेरी बारगाह में बदतरीन अमल के साथ हाज़ेरी दूँ। तेरे बन्दों से क़ुरबत इख़्तेयार करूं और तेरी मर्ज़ी से दूर हो जाऊं। (((आम तौर से लोगों का हाल यह होता है के अवामुन्नास के सामने आने के लिये अपने ज़ाहिर को पाक व पाकीज़ा और हसीन व जीमल बना लेते हैं और यह ख़याल ही नहीं रह जाता है के एक दिन उसका भी सामना करना है जो ज़ाहिर को नहीं देखता है बल्कि बातिन पर निगाह रखता है और इसरार का भी हिसाब करने वाला है। मौलाए कायनात (अ0) ने आलमे इन्सानियत को इसी कमज़ोरी की तरफ़ मुतवज्जो करने के लिये इस दुआ का लहला इख़्तेयार किया है जहां दूसरों पर बराहे रास्त तन्क़ीद भी न हो और अपना पैग़ाम भी तमाम अफ़राद तक पहुंच जाए। शायद इन्सानों को यह एहसास पैदा हो जाए के अवामुन्नास का सामना करने से ज़्यादा अहमियत मालिक के सामने जाने की है और इसके लिये बातिन का पाक व साफ़ रखना बेहद ज़रूरी है।)))

276-उस ज़ात की क़सम जिसकी बदौलत हम शबे तारीक के उस बाक़ी हिस्से को गुज़ार दिया है जिसके छंटते ही एक चमकता हुआ दिन ज़ाहिर होगा ऐसा और ऐसा नहीं हुआ है।

277-थोड़ा अमल जिसे पाबन्दी से अन्जाम दिया जाए उस कसीर अमल से बेहतर है जिससे आदमी उकता जाए।

278-जब नवाफ़िल फ़राएज़ को नुक़सान पहुंचाने लगें तो उन्हें छोड़ दो।

(((तक़द्दुस मआब हज़रात के लिये यह बेहतरीन नुसख़ए हिदायत है जो इज्तेमाअ और अवामी फ़राएज़ से ग़ाफ़िल होकर मुस्तहबात पर जान दिये पड़े रहते हैं और अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास नहीं करते हैं और इसी तरह ये उन साहेबाने ईमान के लिये सामाने तम्बीह है जो मुस्तहबात पर इतना वक़्त और सरमाया सर्फ़ कर देते हैं के वाजेबात के लिये न वक़्त बचता है और न सरमाया। जबके क़ानूनी एतबार से ऐसे मुस्तहबात की कोई हैसियत नहीं है जिनसे वाजेबात मुतास्सिर हो जाएं और इन्सान फ़राएज़ की अदाएगी में कोताही का शिकार हो जाए।))))

279-जो दौरे सफ़र को याद रखता है वह तैयारी भी करता है।

280-आंखों का देखना हक़ीक़त में देखना शुमार नहीं होता है के कभी कभी आंखें अपने अश्ख़ास को धोका दे देती हैं लेकिन अक़्ल नसीहत हासिल करने वाले को फ़रेब नहीं देती है।

(((इन्सानी इल्म के तीन वसाएल हैं एक उसका ज़ाहेरी एहसास व इदराक है और एक उसकी अक़्ल है जिस पर तमाम ओक़लाए बशर का इत्तेफ़ाक़ है और तीसरा रास्ता वहीए इलाही है जिस पर साहेबाने ईमान का ईमान है और बेईमान उस वसीले इदराक से महरूम हैं। इन तीनों में अगरचे वही के बारे में ख़ता का कोई इमकान नहीं है और इस एतबार से इसका मरतबा सबसे अफ़ज़ल है लेकिन ख़ुद ववही का इदराक भी अक़्ल के बग़ैर मुमकिन नहीं है और इसस एतबार से अक़्ल का मरतबा एक बुनियादी हैसियत रखता है और यही वजह है के कुतुब अहादीस में किताबुल अक़्ल को सबसे पहले क़रार दिया गया है और इस तरह उसकी बुनियादे हैसियत का ऐलान किया गया है।)))

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 281-300

281-तुम्हारे और नसीहत के दरम्यान ग़फ़लत का एक परदा हाएल रहता है।

282-तुम्हारे जाहिलों को दौलते फ़रावां दे दी जाती है और आलिम को सिर्फ़ मुस्तक़बिल की उम्मीद दिलाई जाती है।

283-इल्म हमेशा बहाना बाज़ों के बहानो को ख़त्म कर देता है।

(((अगर इन्सान वाक़ेअन आलिम है तो इल्म का तक़ाज़ा यह है के उसके मुताबिक़ अमल करे और किसी तरह की बहानाबाज़ी से काम न ले जिस तरह के दरबारी और सियासी ओलमा दीदा व दानिस्ता हक़ाएक़ से इन्हेराफ़ करते हैं और दुनियावी मफ़ादात की ख़ातिर अपने इल्म का ज़बीहा कर देते हैं ,ऐसे लोग क़ातिल और रहज़न कहे जाने के क़ाबिल हैं ,आलिम और फ़ाज़िल कहे जाने के लाएक़ नहीं है।)))

284-जिसकी मौत जल्दी आ जाती है वह मोहलत का मुतालबा करता है और जिसे मोहलत मिल जाती है वह टाल-मटोल करता है।

285-जब भी लोग किसी चीज़ पर वाह-वाह करते हैं तो ज़माना उसके वास्ते एक बुरा दिन छुपाकर रखता है।

286-आपसे क़ज़ा व क़द्र के बारे में दरयाफ़्त किया गया तो फ़रमाया के यह एक तारीक रास्ता है इस पर मत चलो और एक गहरा समन्दर है इसमें दाखि़ल होने की कोशिश न करो और एक राज़े इलाही है लेहाज़ा इसे मालूम करने की ज़हमत न करो।

(((इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं है के इस्लाम किसी भी मौज़ू के बारे में जेहालत का तरफ़दार है और न जानने ही को अफ़ज़लीयत अता करता है ,बल्कि इसका मतलब सिर्फ़ यह है के अकसर लोग उन हक़ाएक़ के मुतहम्मल नहीं होते हैं लेहाज़ा इन्सान को उन्हीं चीज़ों का इल्म हासिल करना चाहिये जो उसके लिये क़ाबिले तहम्मुल व बर्दाश्त हो इसके बाद अगर हुदूदे तहम्मुल से बाहर हो तो पड़ लिख कर बहक जाने से नावाक़िफ़ रहना ही बेहतर है।)))

287-जब परवरदिगार किसी बन्दे को ज़लील करना चाहता है तो उसे इल्म व दानिश से महरूम कर देता है।

288-गुज़िश्ता ज़माने में मेरा एक भाई था ,जिसकी अज़मत मेरी निगाहों में इसलिये थी के दुनियां उसकी निगाहों में हक़ीर थी और उस पर पेट की हुकूमत नहीं थी। जो चीज़ नहीं मिलती थी उसकी ख़्वाहिश नहीं करता था और जो मिल जाती थी उसे ज़्यादा इस्तेमाल नहीं करता था। अकसर औक़ात ख़ामोश रहा करता था और अगर बोलता था तो तमाम बोलने वालों को चुप कर देता था। साएलों की प्यास को बुझा देता था और बज़ाहिर आजिज़ और कमज़ोर था लेकिन जब जेहाद का मौक़ा आ जाता था तो एक शेर बेशाए शुजाअत और अश्दरवादी हो जाया करता था। कोई दलील नहीं पेश करता था जब तक फै़सलाकुन न हो और जिस बात में बहाने की गुन्जाइश होती थी उस पर किसी की मलामत नहीं करता था जब तक उज्ऱ सुन न ले। किसी दर्द की शिकायत नहीं करता था जब तक इससे सेहत न हासिल हो जाए। जो करता था वही कहता था और जो नहीं कर सकता था वह कहता भी नहीं था। अगर बोलने में उस पर ग़लबा हासिल भी कर लिया जाए तो सुकूत में कोई उस पर ग़ालिब नहीं आ सकता था। वह बोलने से ज़्यादा सुने का ख़्वाहिशमन्द रहता था। जब उसके सामने दो तरह की चीज़ें आती थीं और एक ख़्वाहिश से क़रीबतर होती थी तो उसी की मुख़ालेफ़त करता था। लेहाज़ा तुम सब भी इन्हीं अख़लाक़ को इख़्तेयार करो और उन्हीं की फ़िक्र करो और अगर नहीं कर सकते हो तो याद रखो के क़लील का इख़्तेयार कर लेना कसीर के तर्क कर देने से बहरहाल बेहतर होता है।

(((बाज़ हज़रात का ख़याल है के यह वाक़ेअन किसी शख़्सियत की तरफ़ इशारा है जिसके हालात व कैफ़ियात का अन्दाज़ा नहीं हो सका है और बाज़ हज़रात का ख़याल है के यह एक आईडियल और मिसालिया की निशानदेही है के साहेबे ईमान को इसी किरदार का हामिल होना चाहिये और अगर ऐसा नहीं है तो इसी रास्ते पर चलने की कोशिश करना चाहिये ताके इसका शुमार वाक़ेअन साहेबाने ईमान व किरदार में हो जाए।)))

289-अगर ख़ुदा नाफ़रमानी पर अज़ाब की वईद न भी करता जब भी ज़रूरत थी के शुक्रे नेमत की बुनियाद पर उसकी नाफ़रमानी न की जाए।

(((ज़रूरत नहीं है के इन्सान सिर्फ़ अज़ाब के ख़ौफ़ से मोहर्रमात से परहेज़ करे बल्कि तक़ाज़ाए शराफ़त यह है के नेमते परवरदिगार का एहसास पैदा करके उसकी दी हुई नेमतों को हराम में सर्फ़ करने से इज्तेनाब करे)))

290-अश्अस बिन क़ैस को उसके फ़रज़न्द का पुरसा देते हुए फ़रमाया - अश्अस! अगर तुम अपने फ़रज़न्द के ग़म में महज़ून हो तो यह उसकी क़राबत का हक़ है। लेकिन अगर सब्र कर लो तो अल्लाह के यहाँ हर मुसीबत का एक अज्र है।

अश्अस! अगर तुमने सब्र कर लिया तो क़ज़ा व क़द्रे इलाही इस आलम में जारी होगी के तुम अज्र के हक़दार होगे और अगर तुमने फ़रयाद की तो क़द्रे इलाही इस आलम में जारी होगी के तुम पर गुनाह का बोझ होगा।

अश्अस! तुम्हारे लिये बेटा मसर्रत का सबब था जबके वह एक आज़माइश और इम्तेहान था और हुज़्न का बाएस हो गया जबके इसमें सवाब और रहमत है।

(((यह इस बात की अलामत है के बेटे के मिलने पर मसर्रत भी एक फ़ितरी अम्र है और इसके चले जाने पर हुज़्न व अलम भी एक फ़ितरी तक़ाज़ा है लेकिन इन्सान की अक़्ल का तक़ाज़ा यह है के मसर्रत में इम्तेहान को नज़रअन्दाज़ न करे और ग़म के माहौल में अज्र व सवाब से ग़ाफ़िल न हो जाए।)))

291-पैग़म्बरे इस्लाम (स0) के दफ़्न के वक़्त क़ब्र के पास खड़े होकर फ़रमाया- सब्र आम तौर से बेहतरीन चीज़ है मगर आपकी मुसीबत के अलावा ,और परेशानी व बेक़रारी बुरी चीज़ है लेकिन आपकी वफ़ात के अलावा ,आपकी मुसीबत बड़ी अज़ीम है और आपसे पहले और आपके बाद हर मुसीबत आसान है।

(((इसका मतलब यह नही के सब्र या जज़्अ व फ़ज़्अ की दो क़िस्में हैं और वह कभी जमील होता है और कभी ग़ैरे जीमल ,बल्कि ये मुसीबत पैग़म्बरे इस्लाम (स0) की अज़मत की तरफ़ इशारा है के इस मौक़े पर सब्र का इमकान ही नहीं है जिस तरह दूसरे मसाएब में जज़्अ व फ़ज़्अ का कोई जवाज़ नहीं है और इन्सान को उसे बरदाश्त ही कर लेना चाहिए।)))

292-बेवक़ूफ़ की सोहबत मत इख़्तेयार करना के वह अपने अमल को ख़ूबसूरत बनाकर पेश करेगा और तुमसे भी वैसे ही अमल का तक़ाज़ा करेगा।

293-आपसे मशरिक़ व मग़रिब के फ़ासले के बारे में सवाल किया गया तो फ़रमाया के आफ़ताब का एक दिन का रास्ता।

294-तुम्हारे दोस्त भी तीन तरह के हैं और दुश्मन भी तीन क़िस्म के हैं। दोस्तों की क़िस्में यह हैं के तुम्हारा दोस्त ,तुम्हारे दोस्त का दोस्त और तुम्हारे दुश्मन का दुश्मन और इसी तरह दुश्मनों की किस्में यह हैं- तुम्हारा दुश्मन ,तुम्हारे दोस्त का दुश्मन और तुम्हारे दुश्मन का दोस्त।

(((यह उस मौक़े के लिये कहा गया है के दोनों की दोस्ती की बुनियाद एक हो वरना अगर एक शख़्स एक बुनियाद पर दोस्ती करता है और दूसरा दूसरी बुनियाद पर मोहब्बत करता है तो दोस्त का दोस्त हरगिज़ दोस्त शुमार नहीं किया जा सकता है जिस तरह के दुश्मन के दुश्मन के लिये भी ज़रूरी है के दुश्मनी की बुनियाद वही हो जिस बुनियाद पर यह शख़्स दुश्मनी करता है वरना अपने अपने मफ़ादात के लिये काम करने वाले कभी एक रिश्तए मोहब्बत में मुन्सलिक नहीं किये जा सकते हैं।)))

295-आपने एक शख़्स को देखा के वह अपने दुश्मन को नुक़सान पहुंचाने की कोशिश कर रहा है मगर उसमें ख़ुद उसका नुक़सान भी है तो फ़रमाया के तेरी मिसाल उस शख़्स की है जो अपने सीने में नैज़ा चुभो ले ताके पीछे बैठने वाला हलाक हो जाए।

296-इबरतें कितनी ज़्यादा हैं और उसके हासिल करने वाले कितने कम हैं।

297-जो लड़ाई-झगड़े में हद से आगे बढ़ जाए वह गुनहगार होता है और जो कोताही करता है वह अपने नफ़्स पर ज़ुल्म करता है और इस तरह झगड़ा करने वाला तक़वा के रास्ते पर नहीं चल सकता है (लेहाज़ा मुनासिब यही है के झगड़े से परहेज़ करे)

298-उस गुनाह की कोई उम्र नहीं है जिसके बाद इतनी मोहलत मिल जाए के इन्सान दो रकअत नमाज़ अदा करके ख़ुदा से आफ़ियत का सवाल कर सके (लेकिन सवाल यह है के इस मोहलत की ज़मानत क्या है)

299-आपसे दरयाफ़्त किया गया के परवरदिगार इस क़द्र बेपनाह मख़लूक़ात का हिसाब किस तरह करेगा ?तो फ़रमाया के जिस तरह उन सबको रिज़्क़ देता है। दोबारा सवाल किया गया के जब वह सामने नहीं आएगा तो हिसाब किस तरह लेगा ?फ़रमाया जिस तरह सामने नहीं आता है और रोज़ी दे रहा है। (((इन्सान के ज़ेहन में यह ख़यालात और शुबहात इसीलिये पैदा होते हैं के वह उसकी रज़ाक़ियत से ग़ाफ़िल हो गया है वरना एक मसलए रिज़्क़ समझ में आ जाए तो मसलए मौत भी समझ में आ सकता है और मसलए हिसाब व किताब भी। जो मौत दे सकता है वह रोज़ी भी दे सकता है और जो रोज़ी का हिसाब रख सकता है वह आमाल का हिसाब भी कर सकता है)))

300-तुम्हारा क़ासिद तुम्हारी अक़्ल का तर्जुमान होता है और तुम्हारा ख़त तुम्हारा बेहतरीन तर्जुमान होता है।

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 301-320

301-शदीदतरीन बलाओं में मुब्तिला हो जाने वाला उससे ज़्यादा मोहताजे दुआ नहीं है जो फ़िलहाल आफ़ियत में है लेकिन नहीं मालूम है के कब मुब्तिला हो जाए।

(((इन्सान की फ़ितरत है के जब मुसीबत में मुब्तिला हो जाता है तो दुआएं करने लगता है और दूसरों से दुआओं की इल्तिमास करने लगता है और जैसे ही बला टल जाती है दुआओं से ग़ाफ़िल हो जाता है और इस नुक्ते को अकसर नज़रअन्दाज़ कर देता है के इस आफ़ियत के पीछे भी कोई बला हो सकती है और मौजूदा बला से बालातर हो सकती है। लेहाज़ा तक़ाज़ाए दानिशमन्दी यही है के हर हाल में दुआ करता रहे और किसी वक़्त भी आने वाली मुसीबतों से ग़ाफ़िल न हो के उसके नतीजे में यादे ख़ुदा से ग़ाफ़िल हो जाए।)))

302-लोग दुनिया की औलाद हैं और माँ की मोहब्बत पर औलाद की मलामत नहीं की जा सकती है। (((इन्सान जिस ख़ाक से बनता है उससे बहरहाल मोहब्बत करता है और जिस माहौल में ज़िन्दगी गुज़ारता है उससे बहरहाल मानूस होता है ,इस मसले में किसी इन्सान की मज़म्मत और मलामत नहीं की जा सकती है लेकिन मोहब्बत जब हद से गुज़र जाती है और उसूल व क़वानीन पर ग़ालिब आ जाती है तो बहरहाल क़ाबिले मलामत व मज़म्मत हो जाती है और इसका लेहाज़ रखना हर फ़र्दे बशर का फ़रीज़ा है वरना इसके बग़ैर इन्सान क़ाबिले माफ़ी नहीं हो सकता है)))

303-फ़क़ीर व मिस्कीन दर हक़ीक़त ख़ुदाई फ़र्सतादा है लेहाज़ा जिसने उसको मना कर दिया गोया ख़ुदा को मना कर दिया और जिसने उसे अता कर दिया गोया क़ुदरत के हाथ में दे दिया।

304-ग़ैरतदार इन्सान कभी ज़िना नहीं कर सकता है

(के यही मुसीबत उसके घर भी आ सकती है)।

305-मौत से बेहतर मुहाफ़िज़ कोई नहीं है।

306-इन्सान औलाद के मरने पर सो जाता है लेकिन माल के लुट जाने पर नहीं सोता है।

सय्यद रज़ी- मक़सद यह है के औलाद के मरने पर सब्र कर लेता है लेकिन माल के छिनने पर सब्र नहीं करता है। (((इसका मक़सद तान व तन्ज़ नहीं है बल्कि इसका मक़सद यह है के मौत का ताल्लुक़ क़ज़ा व क़द्रे इलाही से है लेहाज़ा इस पर सब्र करना इन्सान का फ़रीज़ा है लेकिन माल का छिन जाना ज़ुल्म व सितम और ग़ज़ब व नहब का नतीजा होता है लेहाज़ा इस पर सुकूत इख़्तेयार करना और सुकून से सो जाना किसी क़ीमत पर मुनासिब नहीं है और यह इन्सानी ग़ैरत व शराफ़त के खि़लाफ़ है लेहाज़ा इन्सान को इस नुक्ते की तरफ़ मुतवज्जेह रहना चाहिये)))

307-बुज़ुर्गों की मोहब्बत भी औलाद के लिये क़राबत का दरजा रखती है और मोहब्बत क़राबत की इतनी मोहताज नहीं जितनी क़राबत मोहब्बत की मोहताज होती है। (मक़सद यह है के तुम लोग आपस में मोहब्बत और उलफ़त रखो ताके तुम्हारी औलाद तुम्हारे दोस्तों को अपना क़राबतदार तसव्वुर करे)

308-मोमेनीन के गुमान से डरते रहो के परवरदिगार हक़ को साहेबाने ईमान ही की ज़बान पर जारी करता रहता है।

309-किसी बन्दे का ईमान उस वक़्त तक सच्चा नहीं हो सकता है जब तक ख़ुदाई ख़ज़ाने पर अपने हाथ की दौलत से ज़्यादा एतबार न करे।

310-हज़रत ने बसरा पहुंचने के बाद अनस बिन मालिक से कहा के जाकर तल्हा व ज़ुबैर को वह इरशादाते रसूले अकरम (स0) बताओ जो हज़रत (स0) ने मेरे बारे में फ़रमाए हैं तो उन्होंने पहलू तही की और फिर आकर यह बहाना कर दिया के मुझे वह इरशादात याद नहीं रहे! तो हज़रत (अ0) ने फ़रमाया अगर तुम झूठे हो तो परवरदिगार तुम्हें ऐसे चमकदार दाग़ की मार मारेगा के उसे दस्तार भी नहीं छिपा सकेगी।

सय्यद रज़ी- इस दाग़ से मुराद बर्स है जिसमें अनस मुब्तिला हो गए और ताहयात चेहरे पर नक़ाब डाले रहे। (((जनाब शेख़ मोहम्मद अब्दहू का बयान है के उससे इस इरशादे पैग़म्बर (स0) की तरफ़ इशारा था जिसमें आपने बराहेरास्त तल्हा व ज़ुबैर से खि़ताब करके इरशाद फ़रमाया था के तुम लोग अली (अ0) से जंग करोगे और उनके हक़ में ज़ालिम होगे और इब्ने अबील हदीद का कहना है के यह उस मौक़े की तरफ़ इशारा है जब पैग़म्बर (स0) ने मैदाने ग़दीर में अली (अ0) की मौलाइयत का एलान किया था और अनस उस मौक़े पर मौजूद थे लेकिन जब हज़रत ने गवाही तलब की तो अपनी ज़ईफ़ी और क़िल्लते हाफ़िज़े का बहाना कर दिया जिस पर हज़रत ने यह बद्दुआ दे दी और अनस उस मर्जे़ बर्स में मुब्तिला हो गए जैसा के इब्ने क़तीबा ने मुआरिफ़ में नक़्ल किया है।)))

311-दिल भी कभी माएल होते हैं और कभी उचाट हो जाते हैं ,लेहाज़ा जब माएल हों तो उन्हें मुस्तहबात पर आमादा करो वरना सिर्फ़ वाजेबात पर इक्तिफ़ा कर लो (के ज़बरदस्ती अमल से कोई फ़ायदा नहीं है जब तक इख़लासे अमल न हो)।

(((इन्सानी आमाल के दो दरजात हैं पहला दरजा वह होता है जब अमल सही हो जाता है और तकलीफे़ शरई अदा हो जाती है लेकिन निगाहे क़ुदरत में क़ाबिले क़ुबूल नहीं होता है यह वह अमल है जिसमें जुमला शराएत व वाजेबात जमा हो जाते हैं लेकिन इख़लासे नीयत और एक़बाले नफ़्स नहीं होता है लेकिन दूसरा दरजा वह होता है जिसमें इक़बाले नफ़्स भी होता है और अमल क़ाबिले क़ुबूल भी हो जाता है। हज़रत (अ0) ने इसी नुक्ते की तरफ़ इशारा किया है के फ़रीज़ा बहरहाल अदा करना है लेकिन मुस्तहबात का वाक़ेई माहौल उसी वक़्त पैदा होता है जब इन्सान इक़बाले नफ़्स की दौलत से मालामाल हो जाता है और वाक़ेई इबादते इलाही की रग़बत पैदा कर लेता है)))

312-क़ुरान में तुम्हारे पहले की ख़बर तुम्हारे बाद की पेशगोई और तुम्हारे दरम्यानी हालात के एहकाम सब पाए जाते हैं।

313-जिधर से पत्थर आए उधर ही फेंक दो के शर का जवाब शर ही होता है।

314-आपने अपने कातिब अब्दुल्लाह बिन अबी राफ़ेअ से फ़रमाया - अपनी दवात में सौफ डाला करो और अपने क़लम की ज़बान लम्बी रखा करो सतरों के दरम्यान फ़ासला रखो और हर्फ़ों को साथ मिलाकर लिखा करो के इस तरह ख़त ज़्यादा खूबसूरत हो जाता है।

315-मैं मोमेनीन का सरदार हूँ और माल फ़ाजिरों का सरदार होता है।

सय्यद रज़ी- यानी साहेबाने ईमान मेरा इत्तेबाअ करते हैं और फ़ासिक़ व फ़ाजिर माल के इशारों पर चला करते हैं जिस तरह शहद की मक्खियाँ अपने यासूब (सरदार) का इत्तेबाअ करती हैं।

316-एक यहूदी ने आप पर तन्ज़ कर दिया के आप मुसलमानों ने अपने पैग़म्बर (स0) के दफ़्न के बाद ही झगड़ा शुरू कर दिया ,तो आपने फ़रमाया के हमने उनकी जानशीनी में इख़्तेलाफ़ किया है ,उनसे इख़्तेलाफ़ नहीं किया है। लेकिन तुम यहूदियों के तो पैर नील के पानी से ख़ुश्क नहीं होने पाए थे के तुमने अपने पैग़म्बर (स0) ही से कह दिया के “हमें भी वैसा ही ख़ुदा चाहिये जैसा उन लोगों के पास है ” जिस पर पैग़म्बर ने कहा के तुम लोग जाहिल क़ौम हो।

(((यह अमीरूल मोमेनीन (अ0) की बलन्दीए किरदार है के आपने यहूदियों के मुक़ाबले में इज़्ज़ते इस्लाम व मुस्लेमीन का तहफ़्फ़ुज़ कर लिया और फ़ौरन जवाब दे दिया वरना कोई दूसरा शख़्स होता तो उसकी इस तरह तौजीह कर देता के जिन लोगों ने पैग़म्बर की खि़लाफ़त में इख़्तेलाफ़ किया है वह ख़ुद भी मुसलमान नहीं थे बल्कि तुम्हारी बिरादरी के यहूदी थे जो अपने मख़सूस मफ़ादात के तहत इस्लामी बिरादरी में शामिल हो गए थे)))

317-आपसे दरयाफ़्त किया गया के आप बहादुरों पर किस तरह ग़लबा पा लेते हैं तो आपने फ़रमाया के मैं जिस शख़्स का भी सामना करता हूँ वह ख़ुद ही अपने खि़लाफ़ मेरी मदद करता है।

सय्यद रज़ी- यानी उसके दिल में मेरी हैबत बैठ जाती है।

(((यह परवरदिगार की वह इमदाद है जो आज तक अली (अ0) वालों के साथ है के वह ताक़त ,कसरत और असलहे में कोई ख़ास हैसियत नहीं रखते हें लेकिन इसके बावजूद उनकी दहशत तमाम आलमे कुफ्ऱ व शिर्क के दिलों पर बैठी हुई है और हर एक को हर इन्के़लाब व एक़दाम में उन्हीं का हाथ नज़र आता है।)))

318-आपने अपने फ़रज़न्द मोहम्मद हनफ़िया से फ़रमाया - फ़रज़न्द! मैं तुम्हारे बारे में फ़क़्र व तंगदस्ती से डरता हूँ लेहाज़ा उससे तुम अल्लाह की पनाह मांगो के फ़क़्र दीन की कमज़ोरी ,अक़्ल की परेशानी और लोगों की नफ़रत का सबब बन जाता है।

319-एक शख़्स ने एक मुश्किल मसला दरयाफ़्त कर लिया तो आपने फ़रमाया समझने के लिये दरयाफ़्त करो उलझने के लिये नहीं के जाहिल भी अगर सीखना चाहे तो वह आलिम जैसा है और आलिम भी अगर सिर्फ़ उलझना चाहे तो वह जाहिल जैसा है।

320-अब्दुल्लाह बिन अब्बास ने आपके नज़रिये के खि़लाफ़ आपको मशविरा दे दिया तो फ़रमाया के तुम्हारा काम मशविरा देना है। इसके बाद राय मेरी है लेहाज़ा अगर मैं तुम्हारे खि़लाफ़ भी राय क़ायम कर लूँ तो तुम्हारा फ़र्ज़ है के मेरी इताअत करो।

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 321-340

321-रिवायत में वारिद हुआ है के जब आप सिफ़्फ़ीन से वापसी पर कूफ़े वारिद हुए तो आपका गुज़र क़बीलए शबाम के पास से हुआ जहाँ औरते सिफ़्फ़ीन के मक़तूलीन पर गिरया कर रही थीं ,और इतने में हर्ब बिन शरजील शबामी जो सरदारे क़बीला थे हज़रत की खि़दमत में हाज़िर हो गए तो आपने फ़रमाया के तुम्हारी औरतों पर तुम्हारा बस नहीं चलता है जो मैं यह आवाज़ें सुन रहा हूँ और तुम उन्हें इस तरह की फ़रयाद से मना क्यों नहीं करते हो। यह कहकर हज़रत (अ0) आगे बढ़ गए तो हर्ब भी आपकी रकाब में साथ हो लिये ,आपने फ़रमाया के जाओ वापस जाओ। हाकिम के साथ इस तरह पैदल चलना हाकिम के हक़ में फ़ित्ना है और मोमिन के हक़ में बाएसे ज़िल्लत है।

(((इस्लामी रिवायात की बिना पर मुर्दा पर गिरया करना या बलन्द आवाज़ से गिरया करना कोई ममनूअ और हराम अमल नहीं है बल्कि गिरया सरकारे दो आलम (स0) और अम्बियाए कराम (अ0) की सीरत में दाखि़ल है लेहाज़ा हज़रत की मोमानेअत का मफ़हूम यह हो सकता है के इस तरह गिरया नहीं होना चाहिये जिससे दुश्मन को कमज़ोरी और परेशानी का एहसास हो जाए और उसके हौसले बलन्द हो जाएं या गिरया में ऐसे अल्फ़ाज़ और अन्दाज़ शामिल हो जाएं जो मर्ज़ीए परवरदिगार के खि़लाफ़ हों और जिनकी बिना पर इन्सान अज़ाबे आख़ेरत का मुस्तहक़ हो जाए। हाकिम के लिये फ़ित्ना का मक़सद यह है के अगर हाकिम के मग़रूर व मुतकब्बिर हो जाने और महकूम के मुब्तिलाए ज़िल्लत हो जाने का ख़तरा है तो यह अन्दाज़ यक़ीनन सही नहीं है लेकिन अगर हाकिम इस तरह के अहमक़ाना जज़्बात से बालातर है और महकूम भी सिर्फ़ उसके इल्म व तक़वा का एहतेराम करना चाहता है तो कोई हर्ज नहीं है बल्कि आलिम और मुत्तक़ी इन्सान का एहतेराम ऐने इस्लाम और ऐने दियानतदारी है।)))

322-नहरवान के मौक़े पर आपका गुज़र ख़वारिज के मक़तूलीन के पास से हुआ तो फ़रमाया के तुम्हारे मुक़द्दर में सिर्फ़ तबाही और बरबादी है जिसने तुम्हें वरग़लाया था उसने धोका ही दिया था। लोगों ने दरयाफ़्त किया के यह धोका उन्हें किसने दिया है ?फ़रमाया गुमराहकुन शैतान और नफ़्से अम्मारा ने ,उसने तमन्नाओं में उलझा दिया और गुनाहों के रास्ते खोल दिये और उनसे ग़लबे का वादा कर लिया जिसके नतीजे में उन्हें जहन्नुम में झोंक दिया।

323-तन्हाई में भी ख़ुदा की नाफ़रमानी से डरो के जो देखने वाला है वही फ़ैसला करने वाला है।

(((जब यह तय है के रोज़े क़यामत फ़ैसला करने वाला और अज़ाब देने वाला परवरदिगार है तो मख़लूक़ात की निगाहों से छिप कर गुनाह करने का फ़ायदा ही क्या है। फ़ायदा तो उसी वक़्त हो सकता है जब ख़ालिक़ की निगाह से छिप सके या फ़ैसला मालिक के अलावा किसी और के इख़्तेयार में हो जिसका कोई इमकान नहीं है। लेहाज़ा आफ़ियत इसी में है के इन्सान हर हाल में गुनाह से परहेज़ करे और अलल एलान या ख़ुफ़िया तरीक़े से गुनाह का इरादा न करे।)))

324-जब आपको मोहम्मब बिन अबुबक्र की शहादत की ख़बर मिली तो फ़रमाया के मेरा ग़म मोहम्मद पर उतना ही है जितनी दुश्मन की ख़ुशी है। फ़र्क़ सिर्फ़ यह है के दुश्मन का एक दुश्मन कम हुआ है और मेरा एक दोस्त कम हो गया है।

325-जिस उम्र के बाद परवरदिगार औलादे आदम (अ0) के किसी बहाना को क़ुबूल नहीं करता है। वह साठ साल है।

326-जिस पर गुनाह ग़लबा हासिल कर ले वह ग़ालिब नहीं है के शर के ज़रिये ग़लबा पाने वाला भी मग़लूब ही होता है।

327-परवरदिगार ने मालदारों के माल में ग़रीबों का रिज़्क़ क़रार दिया है लेहाज़ा जब भी कोई फ़क़ीर भूका होगा तो उसका मतलब यह है के ग़नी ने दौलत को समेट लिया है और परवरदिगार रोज़े क़यामत इसका सवाल ज़रूर करने वाला है।

328-बहाना व माज़ेरत से बेनियाज़ी सच्चे उज्ऱ पेश करने से भी ज़्यादा अज़ीज़तर है।

(((माज़ेरत करने में एक तरह की निदामत और ज़िल्लत का एहसास बहरहाल होता है लेहाज़ा इन्सान के लिये अफ़ज़ल और बेहतर यही है के अपने को इस निदामत से बे नियाज़ बना ले और कोई ऐसा काम न करे जिसके लिये बाद में माज़ेरत करना पड़े।)))

329-ख़ुदा का सबसे मुख़्तसर हक़ यह है के उसकी नेमत को उसकी गुनाह का ज़रिया न बनाओ। (((दुनिया में कोई करीम से करीम और मेहरबान से मेहरबान इन्सान भी इस बात को गवारा नहीं कर सकता है के वह किसी के साथ मेहरबानी करे और दूसरा इन्सान उसी मेहरबानी को उसकी नाफ़रमानी का ज़रिया बना ले और जब मख़लूक़ात के बारे में इस तरह की एहसान फ़रामोशी रवा नहीं है तो ख़ालिक़ का हक़ इन्सान पर यक़ीनन मख़लूक़ात से ज़्यादा होता है और हर शख़्स को इस करामत व शराफ़त का ख़याल रखना चाहिये के जब इसका सारा वजूद नेमत परवरदिगार है तो इस वजूद का कोई एक हिस्सा भी परवरदिगार की गुनाह और मुख़ालेफ़त में सर्फ़ नहीं किया जा सकता है।)))

330-परवरदिगार ने होशमन्दों के लिये इताअत का वह मौक़ा बेहतरीन क़रार दिया है जब काहिल लोग कोताही में मुब्तिला हो जाते हैं (मसलन नमाज़े शब)।

331-बादशाह रूए ज़मीन पर अल्लाह का पासबान होता है।

332-मोमिन के चेहरे पर बशाशत होती है और दिल में रंज व अन्दोह। उसका सीना कुशादा होता है और मुतवाज़ोह ,बलन्दी को नापसन्द करता है और शोहरत से नफ़रत करता है। उसका ग़म तवील होता है और हिम्मत बड़ी होती है और ख़ामोशी ज़्यादा होती है और वक़्त मशग़ूल होता है। वह शुक्र करने वाला ,सब्र करने वाला ,फ़िक्र में डूबा हुआ ,दस्ते तलब दराज़ करने में बख़ील ,ख़ुश अख़लाक़और नर्म मिज़ाज होता है। उसका नफ़्स पत्थर से ज़्यादा सख़्त होता है और वह ख़ुद ग़ुलाम से ज़्यादा मुतवाज़ेह होता है।

(((इस मुक़ाम पर मोमिन के चैदा सिफ़ात का तज़किरा कर दिया गया है ताके हर शख़्स उस आईने में अपना चेहरा देख सके और अपने ईमान का फै़सला कर सके (1) वह अन्दर से महज़ून होता है लेकिन बाहर से बहरहाल हश्शाश बश्शाश रहता है। (2) उसका सीना और दिल कुशादा होता है। (3) उसके नफ़्स में ग़ुरूर व तकब्बुर नहीं होता है। (4) वह बलन्दी को नापसन्द करता है और शोहरत से कोई दिलचस्पी नहीं रखता है। (5) ख़ौफ़े ख़ुदा से रन्जीदा रहता है (6) उसकी हिम्मत हमेशा बलन्द रहती है। (7) हमेशा ख़ामोश रहता है और अपने फ़राएज़ के बारे में सोचता रहता है। (8) अपने शब व रोज़ को फ़राएज़ की अदायगी में मशग़ूल रखता है। (9) मुसीबतों में सब्र और नेमतों पर शुक्रे परवरदिगार करता है। (10) फ़िक्रे क़यामत व हिसाब व किताब में ग़र्क़ रहता है। (11) लोगों पर अपनी ज़रूरियात के इज़हार में कंजूसी करता है। (12) मिज़ाज और तबीयत के एतबार से बिल्कुल नर्म होता है (13) हक़ के मामले में पत्थर से ज़्यादा सख़्त होता है। (14) ख़ुज़ूअ व ख़ुशूअ में ग़ुलामों जैसी कैफ़ियत का हामिल होता है।)))

333-अगर बन्दए ख़ुदा मौत और उसके अन्जाम को देख ले तो उम्मीदवार उसके फ़रेब से नफ़रत करने लगे।

334-हर शख़्स के उसके माल में दो तरह के शरीक होते हैं एक वारिस और एक हवादिस।

(((यह इशारा है के इन्सान को एक तीसरे शरीक की तरफ़ से ग़ाफ़िल नहीं होना चाहिये और वह है फ़क़ीर और मिस्कीन के मज़कूरा दोनों शरीक अपना हक़ ख़ुद ले लेते हैं और तीसरे शरीक को उसका हक़ देना पड़ता है जो इम्तेहाने नफ़्स भी है और वसीलए अज्र व सवाब भी है।))

335-जिससे सवाल किया जाता है वह उस वक़्त तक आज़ाद रहता है जब तक वादा न कर ले।

336-बग़ैर अमल के दूसरों को दावत देने वाला ऐसा ही होता है जैसे बग़ैर चिल्लए कमान के तीर चलाने वाला।

337-इल्म की दो क़िस्में हैं- एक वह होता है जो तबीअत में ढल जाता है और एक वह होता है जो सिर्फ़ सुन लिया जाता है और सुना सुनाया उस वक़्त तक काम नहीं आता है जब तक मिज़ाज का जुज़अ न बन जाए। (((दूसरा मफ़हूम यह भी हो सकता है के एक इल्म इन्सान की फ़ितरत में कर दिया गया है और एक इल्म बाहर से हासिल होता है और खुली हुई बात है के जब तक फ़ितरत के अन्दर वुजदान सलीम और उसकी सलाहियतें न हों बाहर के इल्म का कोई फ़ायदा नहीं होता है और उससे इस्तेफ़ादा अन्दर की सलाहियत ही पर मौक़ूफ़ है।)))

338-राय की दुरूस्ती दौलते इक़बाल से वाबस्ता है- इसी के साथ आती है और इसी के साथ चली जाती है (लेकिन दौलत भी मुफ़्त नहीं आती है इसके लिये भी सही राय की ज़रूरत होती है)। (((यानी दुनिया का मेयार सवाब व ख़ताया है के जिसके पास दौलत की फ़रावानी देख लेते हैं समझते हैं के उसके पास यक़ीनन फ़िक्रे सलीम भी है वरना इस क़द्र दौलत किस तरह हासिल कर सकता था। इसके बाद जब दौलत चली जाती है तो अन्दाज़ा करते हैं के यक़ीनन उसकी राय में कमज़ोरी पैदा हो गई है वरना इस तरह की ग़ुर्बत से किस तरह दो-चार हो सकता था।)))

339-पाक दामानी फ़क़ीर की ज़ीनत है और शुक्र मालदारी की ज़ीनत है। (((हक़ीक़ते अम्र यह है के न फ़क़ीरी कोई ऐब है और न मालदारी कोई हुस्न और हुनर ,ऐब व हुनर की दुनिया इससे ज़रा मावेरा है और वह यह है के इन्सान फ़क़ीरी में इफ़्फ़त से काम ले और किसी के सामने दस्ते सवाल दराज़ न करे और मालदारी में शुक्रे परवरदिगार अदा करे और किसी तरह के ग़ुरूर व तकब्बुर में मुब्तिला न हो जाए।)))

340-मज़लूम के हक़ में ज़ुल्म के दिन से ज़्यादा शदीद ज़ालिम के हक़ में इन्साफ़ का दिन होता है।

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 341-360

341-लोगों के हाथ की दौलत से मायूस हो जाना ही बेहतरीन मालदारी है (के इन्सान सिर्फ़ ख़ुदा से लौ लगाता है)। (((यह इज़्ज़ते नफ़्स का बेहतरीन मुज़ाहेरा है जहाँ इन्सान ग़ुरबत के बावजूद दूसरों की दौलत की तरफ़ मुझकर नहीं देखता है और हमेशा इस नुक्ते को निगाह में रखता है के फ़क़्र व फ़ाक़ा से सिर्फ़ जिस्म कमज़ोर होता है लेकिन हाथ फैला देने से नफ़्स में ज़िल्लत और हिक़ारत का एहसास पैदा होता है जो जिस्म के फ़ाक़े से यक़ीनन बदतर और शदीदतर है। )))

342-बातें सब महफ़ूज़ रहती हैं और दिलों के राज़ों का इम्तेहान होने वाला है। हर नफ़्स अपने आमाल के हाथों गरो है और लोगों के जिस्म में नुक़्स और अक़्लों में कमज़ोरी आने वाली है मगर यह के अल्लाह ही बचा ले। उनमें के साएल उलझाने वाले हैं और जो अब देने वाले बिला वजह ज़हमत कर रहे हैं क़रीब है के उनका बेहतरीन राय वाला भी सिर्फ़ ख़ुशनूदी या ग़ज़ब के तसव्वुर से अपनी राय से पलटा दिया जाय और जो इन्तेहाई मज़बूत अक़्ल व इरादे वाला है उसको भी एक नज़र मुतास्सिर कर दे या एक कलमा उसमें इन्क़ेलाब पैदा कर दे।

343-ऐ लोगो! अल्लाह से डरो के कितने ही उम्मीदवार हैं जिनकी उम्मीदें पूरी नहीं होती हैं और कितने ही घर बनाने वाले हैं जिन्हें रहना नसीब नहीं होता है कितने माल जमा करने वाले हैं जो छोड़ कर चले जाते हैं और बहुत मुमकिन है के बातिल से जमा किया हो या किसी हक़ से इन्कार कर दिया हो या हराम से हासिल किया हो और गुनाहों का बोझ लाद लिया हो तो उसका वबाल लेकर वापस हो और इसी आलम में परवरदिगार के हुज़ूर हाज़िर हो जाए जहां सिर्फ़ रन्ज और अफ़सोस हो और दुनिया व आख़ेरत दोनों का ख़सारा हो जो दरहक़ीक़त खुला हुआ ख़सारा है।

344-गुनाहों तक रसाई का न होना भी एक तरह की पाकदामनी है। (((इसमें कोई शक नहीं है के गुनाहों के बारे में शरीअत का मुतालेबा सिर्फ़ यह है के इन्सान उनसे इज्तेनाब करे और उनमें मुब्तिला न होने पाए चाहे उसका सबब उसका तक़द्दुस हो या मजबूरी। लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं है के अपने इख़्तेयार से गुनाहों का तर्क कर देने वाला मुस्हक़े अज्र व सवाब भी हो सकता है और मजबूरन तर्क कर देने वाला किसी अज्र व सवाब का हक़दार नहीं हो सकता है)))

345-तुम्हारी आबरू महफ़ूज़ है और सवाल उसे मिटा देता है लेहाज़ा यह देखते रहो के किसके सामने हाथ फ़ैला रहे हो और आबरू का सौदा कर रहे हो।

346-इस्तेहक़ाक़ से ज़्यादा तारीफ़ करना ख़ुशामद है और इस्तेहक़ाक़ से कम तारीफ़ करना आजिज़ी है या हसद।

347-सबसे सख़्त गुनाह वह है जिसे गुनाहगार हल्का क़रार दे दे। (((ग़ैर मासूम इन्सान की ज़िन्दगी के बारे में गुनाहों के इमकानात तो हमा वक़्त रहते हैं लेकिन इन्सान की शराफ़ते नफ़्स यह है के जब कोई गुनाह सरज़द हो जाए तो उसे गुनाह तसव्वुर करे और इसकी तलाफ़ी की फ़िक्र करे वरना अगर उसे ख़फ़ीफ़ और हलका तसव्वुर कर लिया तो यह दूसरा गुनाह होगा जो पहले गुनाह से बदतर होगा के पहला गुनाह नफ़्स की कमज़ोरी से पैदा हुआ था और यह ईमान और अक़ीदे की कमज़ोरी से पैदा हुआ है।)))

348-जो अपने ऐब पर निगाह रखता है वह दूसरों के ऐब से ग़ाफ़िल हो जाता है और जो रिज़्क़े ख़ुदा पर राज़ी रहता है वह किसी चीज़ के हाथ से निकल जाने पर रन्जीदा नहीं होता है। जो बग़ावत की तलवार खींचता है ख़ुद उसी से मारा जाता है और जो अहम काम को ज़बरदस्ती अन्जाम देना चाहता है वह तबाह हो जाता है। लहरों में फान्द पड़ने वाला डूब जाता है और ग़लत जगहों पर दाखि़ल होने वाला बदनाम हो जाता है। जिसकी बातें ज़्यादा होती हैं उसकी ग़लतियाँ भी ज़्यादा होती हैं। जिसकी ग़लतियां ज़्यादा होती हैं उसकी हया कम हो जाती है और जिसकी हया कम हो जाती है उसका तक़वा भी कम हो जाता है और जिसका तक़वा कम हो जाता है उसका दिल मुर्दा हो जाता है और जिसका दिल मुर्दा हो जाता है वह जहन्नुम में दाखि़ल हो जाता है। जो लोगों के ऐब को देख कर नागवारी का इज़हार करे और फिर उसी ऐब को अपने लिये पसन्द कर ले तो उसी को अहमक़ कहा जाता है। क़नाअत एक ऐसा सरमाया है जो ख़त्म होने वाला नहीं है। जो मौत को बराबर याद करता रहता है वह दुनिया के मुख़्तसर हिस्से पर भी राज़ी हो जाता है और जिसे यह मालूम होता है के कलाम भी अमल का एक हिस्सा है वह ज़रूरत से ज़्यादा कलाम नहीं करता है।

349-लोगों में ज़ालिम की अलामात होती हैं अपने से बालातर पर गुनाह करने के ज़रिये ज़ुल्म करता है। अपने से कमतर पर ग़लबा व क़हर के ज़रिये ज़ुल्म करता है और फ़िर ज़ालिम क़ौम की हिमायत करता है। ((( यह इस अम्र की तरफ़ इशारा है के सिर्फ़ ज़ुल्म करना ही ज़ुल्म नहीं है बल्कि ज़ालिम की हिमायत भी एक तरह का ज़ुल्म है लेहाज़ा इन्सान का फ़र्ज़ है के इस ज़ुल्म से भी महफ़ूज़ रहे और मुकम्मल आदिलाना ज़िन्दगी गुज़ारे और हर शै को उसी मुक़ाम पर रखे जो उसका महल और मौक़ा है।)))

350-सख़्तियों की इन्तेहा ही पर कशाइशे हाल पैदा होती है और बलाओं के हलक़ों की तंगी ही के मौक़े पर आसाइश पैदा होती है।

(((मक़सद यह है के इन्सान को सख्तियो और तंगियों में मायूस नहीं होना चाहिये बल्कि हौसलों को बलन्द रखना चाहिये और सरगर्म अमल रहना चाहिये के क़ुराने करीम ने सहूलत को तंगी और ज़हमत के बाद नहीं रखा है बल्कि उसी के साथ रखा है।)))

351-अपने बाज़ असहाब से खि़ताब करके फ़रमाया - ज़्यादा हिस्सा बीवी बच्चों की फ़िक्र में मत रहा करो और अगर यह अल्लाह के दोस्त हैं तो अल्लाह इन्हें बरबाद नहीं होने देगा और अगर उसके दुश्मन हैं तो तुम दुश्मनाने ख़ुदा के बारे में क्यों फ़िक्रमन्द हो। (मक़सद यह है के इन्सान अपने दाएरे से बाहर निकल कर समाज और मुआशरे के बारे में भी फ़िक्र करे। सिर्फ कुएं का मेंढक बनकर न रह जाए) (((इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं है के इन्सान अहल व अयाल की तरफ़ से यकसर ग़ाफ़िल हो जाए और उन्हें परवरदिगार के रहम व करम पर छोड़ दे ,परवरदिगार का रहम व करम माँ-बाप से यक़ीनन ज़्यादा है लेकिन माँ-बाप की अपनी भी एक ज़िम्मेदारी है इसका मक़सद सिर्फ़ यह है के बक़द्रे वाजिब खि़दमत करके बाक़ी मामलात को परवरदिगार के हवाले कर दे और उनकी तरफ़ सरापा तवज्जो बनकर परवरदिगार से ग़ाफ़िल न हो जाए।)))

352-बदतरीन ऐब यह है के इन्सान किसी ऐब को बुरा कहे और फिर उसमें वही ऐब पाया जाता हो।

353-हज़रत के सामने एक शख़्स ने एक शख़्स को फ़रज़न्द की मुबारकबद देते हुए कहा के शहसवार मुबारक हो ,तो आपने फ़रमाया के यह मत कहो बल्कि ह कहो के तुमने देने वाले का शुक्रिया अदा किया है लेहाज़ा तुम्हें यह तोहफ़ा मुबारक हो। ख़ुदा करे के यह मन्ज़िले कमाल तक पहुंचेे और तुम्हें इसकी नेकी नसीब हो।

354-आपके गवर्नरो में से एक शख़्स ने अज़ीम इमारत तामीर कर ली तो आपने फ़रमाया के चान्दी के सिक्कों ने सर निकाल लिया है। यक़ीनन तामीर तुम्हारी मालदारी की ग़माज़ी करती है।

355-किसी ने आपसे सवाल किया के अगर किसी शख़्स के घर का दरवाज़ा बन्द कर दिया जाए और उसे तन्हा छोड़ दिया जाए तो उसका रिज़्क़ कहाँ से आएगा ?फ़रमाया के जहाँ से उसकी मौत आएगी।

356-एक जमाअत को किसी मरने वाले की ताज़ियत पेश करते हुए फ़रमाया - यह बात तुम्हारे यहाँ कोई नई नहीं है और न तुम्हीं पर इसकी इन्तेहा है। तुम्हारा यह साथी सरगर्मे सफ़र रहा करता था तो समझो के यह भी एक सफ़र है। इसके बाद या वह तुम्हारे पास वारिद होगा या तुम उसके पास वारिद होगे।

357-लोगों! अल्लाह नेमत के मौक़े पर भी तुम्हें वैसे ही ख़ौफ़ज़दा देखे जिस तरह अज़ाब के मामले में हरासाँ देखता है के जिस शख़्स को फ़राख़दस्ती हासिल हो जाए और वह उसे अज़ाब की लपेट न समझे तो उसने ख़ौफ़नाक चीज़ से भी अपने को मुतमईन समझ लिया है और जो तंगदस्ती में मुब्तिला हो जाए और उसे इम्तेहान न समझे उसने इस सवाब को भी ज़ाया कर दिया जिसकी उम्मीद की जाती है। ((( मक़सद यह है के ज़िन्दगानी के दोनों तरह के हालात में दोनों तरह के एहतेमालात पाए जाते हैं। राहत व आराम में इमकाने फ़ज़्ल व करम भी है और एहतेमाले मोहलत व इतमामे हुज्जत भी है और इसी तरह मुसीबत और परेशानी के माहौल में एहतेमाल एताब व अक़ाब भी है और एहतेमाल इम्तेहान व इख़्तेबार भी है लेहाज़ा इन्सान का फ़र्ज़ है के राहतों के माहौल में इस ख़तरे से महफ़ूज़ हो जाए के इस तरह भी क़ौमों को अज़ाब की लपेट में ले लिया जाता है और परेशानियों के हालात में इस रूख़ से ग़ाफ़िल न हो जाए के यह इम्तेहान भी हो सकता है और इसमें सब्र व तहम्मुल का मुज़ाहेरा करके अज्र व सवाब भी हासिल किया जा सकता है। )))

358-ऐ हिर्स व लालच के असीरों! अब बाज़ आ जाओ के दुनिया पर टूट पड़ने वालों को हवादिसे ज़माना के दांत पीसने के अलावा कोई ख़ौफ़ज़दा नहीं कर सकता है। ऐ लोगों! अपने नफ़्स की इस्लाह की ज़िम्मेदारी ख़ुद सम्भाल लो और अपनी आदतों के तक़ाज़ों से मुंह मोड़ लो।

(((मक़सद यह है के ख़्वाहिशात के असीर न बनो और दुनिया का एतबार न करो। अन्जामकार की ज़हमतों से होशियार रहो और अपने नफ़्स को अपने क़ाबू में रखो ताके बेजा रुसूम और महमिल आदात का इत्तेबाअ न करो)))

359-किसी की बात के ग़लत मानी न लो जब तक सही मानी का इमकान मौजूद है। (((काश हर शख़्स इस तालीम को इख़्तेयार कर लेता तो समाज के बेशुमार मफ़ासिद से निजात मिल जाती और दुनिया में फ़ित्ना व फ़साद के अकसर रास्ते बन्द हो जाते मगर अफ़सोस के ऐसा नहीं होता है और हर शख़्स दूसरे के बयान में ग़लत पहलू पहले तलाश करता है और सही रूख़ के बारे में बाद में सोचता है)))

360-अगर परवरदिगार की बारगाह में तुम्हारी कोई हाजत हो तो उसकी तलब का आग़ाज़ रसूले अकरम (स0) पर सलवात से करो और उसके बाद अपनी हाजत तलब करो के परवरदिगार इस बात से बालातर है के उससे दो बातों का सवाल किया जाए और वह एक को पूरा कर दे और एक को नज़रअन्दाज़ कर दे।

(((यह सही है के रसूले अकरम (स0) हमारी सलवात और दुआए रहमत के मोहताज नहीं हैं लेकिन इसके यह मानी हरगिज़ नहीं है के हम अपने अदाए शुक्र से ग़ाफ़िल हो जाएं और उनकी तरफ़ से मिलने वाली नेमते हिदायत का किसी शक्ल में कोई बदला न दें वरना परवरदिगार भी हमारी इबादतों का मोहताज नहीं है तो हर इन्सान इबादतों को नज़़र अन्दाज़ करके चैन से सो जाए। सलवात का सबसे बड़ा फ़ायदा यह होता है के इन्सान परवरदिगार की नज़्रे इनायत का हक़दार हो जाता है और इस तरह इसकी दुआएं क़ाबिले क़ुबूल हो जाती हैं।)))

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 361-380

361-जो अपनी आबरू को बचाना चाहता है उसे चाहिये के लड़ाई झगड़े से परहेज़ करे।

362-किसी बात के इमकान से पहले जल्दी करना और वक़्त आ जाने पर देर करना दोनों ही हिमाक़त है।

363-जो बात होने वाली नहीं है उसके बारे में सवाल मत करो के जो हो गया है वही तुम्हारे लिये काफ़ी है।

364-फ़िक्र एक शफ़्फ़ाफ़ आईना है और इबरत हासिल करना एक इन्तेहाई मुख़लिस मुतनब्बेह करने वाला है। तुम्हारे नफ़्स के अदब के लिये इतना ही काफ़ी है के जिस चीज़ को दूसरों के लिये नापसन्द करते हो उससे ख़ुद भी परहेज़ करो।

(((इसमें कोई शक नहीं हे के फ़िक्र एक शफ़्फ़ाफ़ आईना है जिसमें ब-आसानी मजहूलात का चेहरा देख लिया जाता है और अहले मन्तक़ ने इसकी यही तारीफ़ की है के मालूमात को इस तरह मुरत्तब किया जाए के इससे मजहूलात का इल्म हासिल हो जाए ,लेकिन सिर्फ़ मुस्तक़बिल का चेहरा देख लेना ही कोई हुनर नहीं है। अस्ल हुनर और काम इससे इबरत हासिल करना है के इन्सान के हक़ में इबरत से ज़्यादा मुख़लिस नसीहत करने वाला कोई नहीं है और यही इबरत है जो उसे हर बुराई और मुसीबत से बचा सकती है वरना इसके अलावा कोई यह कारे ख़ैर अन्जाम देने वाला नहीं है।)))

365-इल्म का मुक़द्दर अमल से जुड़ा है और जो वाक़ेई साहेबे इल्म होता है वह अमल भी करता है। याद रखो के इल्म अमल के लिये आवाज़ देता है और इन्सान सुन लेता है तो ख़ैर वरना ख़ुद भी रूख़सत हो जाता है।

(((बिला शक व शुबह इल्म एक कमाल है और मजहूलात का हासिल कर लेना एक हुनर है लेकिन सवाल यह है के इसे ब-कमाल और साहबे हुनर किस तरह कहा जा सकता है जो यह तो दरयाफ़्त कर ले के फ़लाँ चीज़ में ज़हर है मगर इससे इज्तेनाब न करे। ऐसे शख़्स काो तो मज़ीद अहमक़ और नालाएक़ तसव्वुर किया जाता है। इल्म का कमाल यही है के अफ़सान इसके मुताबिक़ अमल करे ताके साहेबे इल्म और साहेबे कमाल कहे जाने का हक़दार हो जाए वरना इल्म एक वबाल हो जाएगा और अपनी नाक़द्री से नाराज़ होकर रूख़सत भी हो जाएगा। सिर्फ़ नामे इल्म बाक़ी रह जाएगा और हक़ीक़ते इल्म ख़त्म हो जाएगी।)))

366-ऐ लोगो! दुनिया का सरमाया एक सड़ा भूसा है जिससे वबा फैलने वाली है लेहाज़ा इसकी चरागाह से होशियार रहो। इस दुनिया से चल चलाव सुकून के साथ रहने से ज़्यादा फ़ायदेमन्द है और यहाँ का बक़द्रे ज़रूरत सामान सरवत से ज़्यादा बरकत वाला है। यहाँ के दौलतमन्द के बारे में एक दिन एहतियाज लिख दी गई है और इससे बे नियाज़ रहने वाले को राहत का सहारा दे दिया जाता है। जिसे इसकी ज़ीनत पसन्द आ गई उसकी आंखों को अन्जामकारिया अन्धा कर देती है और जिसने इससे शग़फ़ को शोआर बना लिया उसके ज़मीर को रन्ज व अन्दोह से भर देती है और यह फ़िक्रें इसके नुक़्तए क़ल्ब के गिर्द चक्कर लगाती रहती हैं बाज़ इसे मशग़ूल बना लेती हैं और बाज़ महज़ून बना देती हैं और यह सिलसिला यूँ ही क़ायम रहता है यहाँ तक के इसका गला घोंट दिया जाए और उसे फ़िज़ा (क़ब्र) में डाल दिया जाए जहाँ दिल की दोनों रगें कट जाएँ। ख़ुदा के लिये इसका फ़ना कर देना भी आसान है और भाइयों के लिये इसे क़ब्र में डाल देना भी मुश्किल नहीं है। मोमिन वही है जो दुनिया की तरफ़ इबरत की निगाह से देखता है और पेट की ज़रूरत भर सामान पर गुज़ारा कर लेता है। इसकी बातों को अदावत व नफ़रत के कानों से सुनता है ,के जब किसी के बारे में कहा जाता है के मालदार हो गया है तो फ़ौरन आवाज़ आती है के नादार हो गया है। और जब किसी को बक़ा के तसव्वुर से मसरूर किया जाता है तो फ़ना के ख़याल से रन्जीदा बना दिया जाता है और यह सब उस वक़्त है जब अभी वह दिन नहीं आया है जिस दिन अहले दुनिया मायूसी का शिकार हो जाएंगे।

367-परवरदिगारे आलम ने इताअत पर सवाब और गुनाह पर अक़ाब इसीलिये रखा है ताके बन्दों को अपने ग़ज़ब से दूर रख सके और उन्हें घेरकर जन्नत की तरफ़ ले आए।

368-लोगों पर एक ऐसा दौर भी आने वाला है जब क़ुरान में सिर्फ़ नुक़ूश बाक़ी रह जाएंगे और इस्लाम में सिर्फ़ नाम बाक़ी रह जाएगा। मस्जिदें ततामीरात के एतबार से आबाद होंगी और हिदायत के एतबार से बरबाद होंगी। उसके रहने वाले और आबाद करने वाले सब बदतरीन अहले ज़माना होंगे। उन्हीं से फ़ित्ना बाहर आएगा और उन्हीं की तरफ़ ग़लतियों को पनाह मिलेगी। जो इससे बचकर जाना चाहेगा उसे इसकी तरफ़ पलटा देंगे और जो दूर रहना चाहेगा उसे हँकाकर ले आएंगे। परवरदिगार का इरशाद है के मेरी ज़ात की क़सम मैं इन लोगों पर एक ऐसे फ़ित्ने को मुसल्लत कर दूँगा जो साहबे अक़्ल को भी हैरतज़दा बना देगा और यह यक़ीनन होकर रहेगा। हम उसकी बारगाह में ग़फ़लतों की लग्ज़िशों से पनाह चाहते हैं।

(((शायद के हमारा दौर इस इरशादे गिरामी का बेहतरीन मिस्दाक़ है जहाँ मसाजिद की तामीर भी एक फ़ैशन हो गई है और इसका इज्तेमाअ भी एक फ़ंक्शन होकर रह गया है। रूहे मस्जिद फ़ना हो गई है और मसाजिद से वह काम नहीं लिया जा रहा है जो मौलाए कायनात के दौर में लिया जा रहा था। जहाँ इस्लाम की हर तहरीक का मरकज़ मस्जिद थी और बातिल से हर मुक़ाबले का मन्सूबा मस्जिद में तैयार होता था। लेकिन आज मस्जिदें सिर्फ़ हुकूमतों के लिये दुआए ख़ैर का मरकज़ हैं और उनकी  शख्सियतों के प्रोपेगन्डा का बेहतरीन प्लेटफ़ार्म हैं ,रब्बे करीम इस सूरतेहाल की इस्स्लाह फ़रमाए।)))

369-कहा जाता है के आप जब भी मिम्बर पर तशरीफ़ ले जाते थे तो ख़ुतबे से पहले यह कलेमात इरशाद फ़रमाया करते थेः

लोगों! अल्लाह से डरो ,उसने किसी को बेकार नहीं पैदा किया है के खेल कूद में लग जाए और न आज़ाद छोड़ दिया है के लग़्वियात करने लगे। यह दुनिया जो इन्सान की निगाह में आरास्ता हो गई है यह उस आखि़रत का बदल नहीं बन सकती है जिसे बुरी निगाह ने क़बीह बना दिया है जो फ़रेब ख़ोरदा दुनिया हासिल करने में कामयाब हो जाए वह इसका जैसा नहीं है जो आख़ेरत में अदना हिस्सा भी हासिल कर ले।

370-इस्लाम से बलन्दतर कोई शरफ़ नहीं है और तक़वा से ज़्यादा ब-इज़्ज़त कोई इज़्ज़त नहीं है। परहेज़गारी से बेहतर कोई पनाहगाह नहीं है और तौबा से ज़्यादा कामयाब कोई शिफ़ाअत करने वाला नहीं है। क़नाअत से ज़्यादा मालदार बनाने वाला कोई ख़ज़ाना नहीं है और रोज़ी पर राज़ी हो जाने से ज़्यादा फ़क़्र व फ़ाक़ा को दूर करने वाला कोई माल नहीं है। जिसने बक़द्रे किफ़ायत सामान पर गुज़ारा कर लिया उसने राहत को हासिल कर लिया और सुकून की मन्ज़िल में घर बना लिया। ख़्वाहिश रन्ज व तकलीफ़ की कुन्जी और तकलीफ़ व ज़हमत की सवारी है। हिरस तकब्बुर और हसद गुनाहों में कूद पड़ने के असबाब व मोहर्रकात हैं और शर ततमाम बुराइयों का जामा है।

372-आपने जाबिर बिन अब्दुल्लाह अन्सारी से फ़रमाया के जाबिर दीन व दुनिया का क़याम चार चीज़ों से है - वह आलिम जो अपने इल्म को इस्तेमाल भी करे और वह जाहिल जो इल्म हासिल करने से इन्कार न करे। वह सख़ी जो अपनी नेकियों में कंजूसी न करे। और वह फ़क़ीर जो अपनी आख़ेरत को दुनिया के एवज़ फ़रोख़्त न करे। लेहाज़ा (याद रखो) अगर आलिम अपने को बरबाद कर देगा तो जाहिल भी उसके हुसूल से अकड़ जाएगा और अगर ग़नी अपनी नेकियों में कंजूसी करेगा तो फ़क़ीर भी आख़ेरत को दुनिया के एवज़ बेचने पर आमादा हो जाएगा। जाबिर! जिस पर अल्लाह की नेमतें ज़्यादा होती हैं उसकी तरफ़ लोगों की एहतियाज भी ज़्यादा होती है लेहाज़ा जो शख़्स अपने माल में अल्लाह के फ़राएज़ के साथ क़याम करता है वह उसकी बक़ा व दवाम का सामान फ़राहम कर लेता है और जो उन वाजेबात को अदा नहीं करता है वह उसे ज़वाल व फ़ना के रास्ते पर लगा देता है। (((इस फ़िक़रे में सलामती और बराअत का मफ़हूम यही है के मुनकेरात को बुरा समझना और उससे राज़ी न होना इन्सान की फ़ितरते सलीम का हिस्सा है जिसका तक़ाज़ा अन्दर से बराबर जारी रहता है लेहाज़ा अगर उसने बेज़ारी का इज़हार कर दिया तो गोया फ़ितरत के सलीम होने का सबूत दे दिया और उस फ़रीज़े से सुबुकदोश हो गया जो फ़ितरते सलीम ने उसके ज़िम्मे आयद किया था वरना अगर ऐसा भी न करता तो उसका मतलब यह था के फ़ितरते सलीम पर ख़ारेजी अनासिर ग़ालिब आ गए हैं और उन्होंने बर अल ज़िम्मा होने से रोक दिया है)))

372-इब्ने जरीर तबरी ने अपनी तारीख़ में अब्दुर्रहमान बिन अबी लैला से नक़्ल किया है जो हज्जाज से मुक़ाबला करने के लिये इब्ने अश्अस से निकला था और लोगों को जेहाद पर आमादा कर रहा था के मैंने हज़रत अली (अ0) (ख़ुदा स्वालेहीन में उनके दरजात को दृ का सवाब इनायत करे) से उस दिन सुना है जब हम लोग शाम वालों से मुक़ाबला कर रहे थे के हज़रत ने फ़रमायाः ईमान वालों! जो शख़्स यह देखे के ज़ुल्म व तअदी पर अमल हो रहा है और बुराइयों की तरफ़ दावत दी जा रही है और अपने दिल से इसका इन्कार कर दे तो गोया महफ़ूज़ रह गया और बरी हो गया ,और अगर ज़बान से इन्कार कर दे तो अज्र का हक़दार भी हो गया के यह सिर्फ़ क़ल्बी इन्कार से बेहतर सूरत है और अगर कोई शख़्स तलवार के ज़रिये इसकी रोकथाम करे ताके अल्लाह का कलमा बलन्द हो जाए और ज़ालेमीन की बात पस्त हो जाए तो यही वह शख़्स है जिसने हिदायत के रास्ते को पा लिया है और सीधे रास्ते पर क़ायम हो गया है और उसके दिल में यक़ीन की रोशनी पैदा हो गई है।

372- (इसी मौज़ू से मुताल्लिक़ दूसरे मौक़े पर इरशाद फ़रमाया) बाज़ लोग मुन्किरात का इन्कार दिल ,ज़बान और हाथ सबसे करते हैं तो यह ख़ैर के तमाम शोबों के मालिक हैं और बाज़ लोग सिर्फ़ ज़बान और दिल से इन्कार करते हैं और हाथ से रोक थाम नहीं करते हैं तो उन्होंने नेकी की दो ख़सलतों को हासिल किया है और एक ख़सलत को बरबाद कर दिया है और बाज़ लोग सिर्फ़ दिल से इन्कार करते हैं और न हाथ इस्तेमाल करते हैं और न ज़बान तो उन्होंने दो ख़स्लतों को ज़ाया कर दिया है और सिर्फ़ एक को पकड़ लिया है। और बाज़ वह हैं जो दिल ,ज़बान और हाथ से भी बुराइयों का इन्कार नहीं करते हैं ततो यह ज़िन्दों के दरम्यान मुर्दा की हैसियत रखतते हैं और याद रखो के जुमला आमाल ख़ैर मय जेहादे राहे ख़ुदा ,अम्रे बिल मारूफ़ और नहीं अनिल मुनकर के मुक़ाबले में वही हैसियत रखते हैं जो गहरे समन्दर में लोआबे दहन के ज़र्रात की हैसियत होती है। और इन तमाम आमाल से बलन्दतर अमल हाकिम ज़ालिम के सामने कलमए इन्साफ़ का एलान है। (((तारीख़े इस्लाम में इसकी बेहतरीन मिसाल अब्ने अलसकीत का किरदार है जहाँ उनसे मुतवक्किल ने सरे दरबार यह सवाल कर लिया के तुम्हारी निगाह में मेरे दोनों फ़रज़न्द मोतबर और मोईद बेहतर हैं या अली (अ0) के दोनों फ़रज़न्द हसन (अ0) और हुसैन (अ0)। तो इब्ने अली अलसकीत ने सुलतान ज़ालिम की आंखों में आंखें डालकर फ़रमाया के हसन (अ0) और हुसैन (अ0) का क्या ज़िक्र है ,तेरे फ़रज़न्द और तू दोनों मिलकर अली (अ0) के ग़ुलाम क़म्बर की जूतियों के तस्मे के बराबर नहीं हैं। जिसके बाद मुतवक्किल ने हुक्म दिया के इनकी ज़बान को गुद्दी से खींच लिया जाए और इब्ने अबी अलसकीत ने निहायत दरजए सुकूने क़ल्ब के साथ इस क़ुरबानी को पेश कर दिया और अपने पेशरौ मीसमे तम्मार ,हजर बिन अदमी ,अम्रो बिन अलहमक़ ,अबूज़र ,अम्मार यासिर और मुख़्तार से मुलहक़ हो गए।)))

374-अबू हनीफ़ा से नक़्ल किया गया है के मैंने अमीरूल मोमेनीन (अ0) को यह फ़रमाते हुए सुना है के सबसे पहले तुम हाथ के जेहाद में मग़लूब होगे उसके बाद ज़बान के जेहाद में और उसके बाद दिल के जेहाद में मगर यह याद रखना के अगर किसी शख़्स ने दिल से अच्छाई को अच्छा और बुराई को बुरा नहीं समझा तो उसे इस तरह उलट-पलट दिया जाएगा के पस्त बलन्द हो जाए और बलन्द पस्त हो जाए।

375-हक़ हमेशा संगीन होता है मगर ख़ुशगवार होता है और बातिल हमेशा आसान होता है मगर मोहलक होता है।

376-देखो! इस उम्मत के बेहतरीन आदमी के बारे में भी अज़ाब से मुतमईन न हो जाना के अज़ाबे इलाही की तरफ़ से सिर्फ़ ख़सारे वाले ही मुतमईन होकर बैठ जाते है और इसी तरह इस उम्मत के बदतरीन के बारे में भी रहमते ख़ुदा से मायूस न हो जाना के रहमते ख़ुदा से मायूसी सिर्फ़ काफ़िरों का हिस्सा है।

(वाज़ेह रहे के इस इरशाद का ताल्लुक़ सिर्फ़ इन गुनहगारों से है जिनका अमल उन्हें सरहदे कुफ्ऱ तक न पहुंचा दे वरना काफ़िर तो बहरहाल रहमते ख़ुदा से मायूस रहता है)

377-कंजूसी उयूब की तराम बुराइयों का जामअ है और यही वह ज़माम है जिसके ज़रिये इन्सान को हर बुराई की तरफ़ खींच कर ले जाता है।

378-इब्ने आदम! रिज़्क़ की दो क़िस्में हैं एक रिज़्क़ वह है जिसे तुम तलाश कर रहे हो और एक रिज़्क़ वह है जो तुमको तलाश कर रहा है के अगर तुम उस तक न पहुंचोगे तो वह तुम्हारे पास आ जाएगा। लेहाज़ा एक साल के हम व ग़म को एक दिन पर बरबाद न कर दो। हर दिन के लिये उसी दिन की फ़िक्र काफ़ी है ,इससके बाद अगर तुम्हारी उम्र में एक साल बाक़ी रह गया तो हर आने वाला दिन अपना रिज़्क़ अपने साथ लेकर आएगा और अगर साल बाक़ी नहीं रह गया है तो साल भर की फ़िक्र की ज़रूरत ही क्या है। तुम्हारे रिज़्क़ को तुमसे पहले कोई पा नहीं सकता है और तुम्हारे हिस्से पर कोई ग़ालिब आ नहीं सकता है बल्कि जो तुम्हारे हक़ में मुक़द्दर हो चुका है वह देर से भी नहीं आएगा।

सय्यद रज़ी- यह इरशादे गिरामी इससे पहले भी गुज़र चुका है मगर यहां ज़्यादा वाज़ेह और मुफ़स्सल है लेहाज़ा दोबारा ज़िक्र कर दिया गया है।

(((इसका यह मक़सद हरगिज़ नहीं है के इन्सान मेहनत व मशक़्क़त छोड़ दे और इस उम्मीद में बैठ जाए के रिज़्क़ की दूसरी क़िस्म बहरहाल हासिल हो जाएगी और इसी पर क़नाअत कर लेगा। बल्कि यह दरहक़ीक़त उस नुक्ते की तरफ़ इशारा है के यह दुनिया आलमे असबाब है यहाँ मेहनत व मशक़्क़त बहरहाल करना है और यह इन्सान के फ़राएज़े इन्सानियत व अब्दीयत में शामिल है लेकिन इसके बाद भी रिज़्क़ का एक हिस्सा है जो इन्सान की मेहनत व मशक़्क़त से बालातर है और वह इन असबाब के ज़रिये पहुंच जाता है जिनका इन्सान तसव्वुर भी नहीं करता है जिस तरह के आप घर से निकलें और कोई शख़्स रास्ते में एक ग्लास पानी या एक प्याली चाय पिला दे ,ज़ाहिर है के यह पानी या चाय न आपके हिसाबे रिज़्क़ का कोई हिस्सा है और न आपने इसके लिये कोई मेहनत की है। यह परवरदिगार का एक करम है जो आपके शामिले हाल हो गया है और उसने इस नुक्ते की वज़ाहत कर दी के अगर ज़िन्दगानी दुनिया में मेहनत नाकाफ़ी भी हो जाए तो रिज़्क़ का सिलसिला बन्द होने वाला नहीं है। परवरदिगार के पास अपने वसाएल मौजूद हैं वह इन वसाएल से रिज़्क़ फ़राहम कर देगा। वह मोसब्बेबुल असबाब है ,असबाब का पाबन्द नहीं है।)))

379-बहुत से लोग ऐसे दिन का सामना करने वाले हैं जिससे पीठ फिराने वाले नहीं हैं और बहुत से लोग ऐसे हैं जिनकी क़िस्मत पर सरे शाम रश्क किया जाता है और सुबह होते उन पर रोने वालियों का हुजूम लग जाता है।

380-गुफ़्तगू तुम्हारे क़ब्ज़े में है जब तक इसका इज़हार न हो जाए। इसके बाद फिर तुम इसके क़ब्ज़े में चले जाते हो। लेहाज़ा अपनी ज़बान को वैसे ही महफ़ूज़ रखो जैसे सोने चान्दी की हिफ़ाज़त करते हो। के बाज़ कलेमात नेमतों को सल्ब कर लेते हैं और अज़ाब को जज़्ब कर लेते हैं।

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 381-400

381-जो बात नहीं जानते हो उसे ज़बान से मत निकालो बल्कि हरर वह बात जिसे जानते हो उसे भी मत बयान करो के अल्लाह ने हर अज़ो बदन के कुछ फ़राएज़ क़रार दिये हैं और उन्हीं के ज़रिये रोज़े क़यामत हुज्जत क़ायम करने वाला है।

382-इस बात से डरो के अल्लाह तुम्हें मासीयत के मौक़े पर हाज़िर देखे और इताअत के मौक़े पर ग़ायब पाए के इस तरह ख़सारा वालों में शुमार हो जाओगे। अगर तुम्हारे पास ताक़त है तो उसका इज़हार इताअते ख़ुदा में करो और अगर कमज़ोरी दिखलाना है तो उसे गुनाह के मौक़े पर दिखलाओ। 

383-दुनिया के हालात देखने के बावजूद इसकी तरफ़ रूझान और मीलान सिर्फ़ जेहालत है और सवाब के यक़ीन के बाद भी नेक अमल में कोताही करना ख़सारा है। इम्तेहान से पहले हर एक पर एतबार कर लेना आजिज़ी और कमज़ोरी है।

384-ख़ुदा की निगाह में दुनिया की हिक़ारत के लिये इतना ही काफ़ी है के इसकी गुनाह इसी दुनिया में होती है आौर इसकी असली नेमतें इसको छोड़ने के बग़ैर हासिल नहीं होती हैं।

385-जो किसी शै का तलबगार होता है वह कुल या जुज़ बहरहाल हासिल कर लेता है।

386-वह भलाई भलाई नहीं है जिसका अन्जाम जहन्नम हो और वह बुराई बुराई नहीं है जिसकी आक़ेबत जन्नत हो। जन्नत के अलावा हर नेमत हक़ीर है और जहन्नुम से बच जाने के बाद हर मुसीबत आफ़ियत है।

387-याद रखो के फ़क़्र व फ़ाक़ा भी एक बला है और इससे ज़्यादा सख़्त मुसीबत बदन की बीमारी है और इससे ज़्यादा दुश्वारगुज़ार दिल की बीमारी है। मालदारी यक़ीनन एक नेमत है लेकिन इससे बड़ी नेमत सेहते बदन है और इससे बड़ी नेमत दिल की परहेज़गारी है। (((यह नुक्ता उन ग़ोरबा और फ़ोक़रा के समझने के लिये है जो हमेशा ग़ुरबत का मरसिया पढ़ते रहते हैं और कभी सेहत का शुक्रिया नहीं अदा करते हैं जबके तजुर्बात की दुनिया में यह बात साबित हो चुकी है के अमराज़ का औसत दौलतमन्दों में ग़रीबों से कहीं ज़्यादा है और हार्ट अटैक के बेशतर मरीज़ इसी ऊंचे तबक़े से ताल्लुक़ रखते हैं। बल्कि बाज़ औक़ात तो अमीरों की ज़िन्दगी में ग़िज़ाओं से ज़्यादा हिस्सा दवाओं का होता है और वह बेशुमार ग़िज़ाओं से यकसर महरूम हो जाते हैं।

सेहते बदन परवरदिगार का एक मख़सूस करम है जो वह अपने बन्दों के शामिलेहाल कर देता है लेकिन ग़रीबों को भी इस नुक्ते का ख़याल रखना चाहिये के अगर उन्होंने इस सेहत का शुक्रिया न अदा किया और सिर्फ़ ग़ुरबत की शिकायत करते रहे तो इसका मतलब यह है के यह लोग जिस्मानी एतबार से सेहतमन्द हैं लेकिन रूहानी एतबार से बहरहाल मरीज़ हैं और यह मर्ज़ नाक़ाबिले इलाज हो चुका है। रब्बे करीम हर मोमिन व मोमेना को इस मर्ज़ से निजात अता फ़रमाए।)))

388-जिसको अमल पीछे हटा दे उसे नसब आगे नहीं बढ़ा सकता है। या (दूसरी रिवायत में) जिसके हाथ से अपना किरदार निकल जाए उसे आबा व अजदाद के कारनामे फ़ायदा नहीं पहुंचा सकते हैं।

389-मोमिन की ज़िन्दगी के तीन औक़ात होते हैं- एक साअत में वह अपने रब से राज़ व नियाज़ करता है और दूसरे वक़्त में अपने मआश की इस्लाह करता है और तीसरे वक़्त में अपने नफ़्स को उन लज़्ज़तों के लिये आज़ाद छोड़ देता है जो हलाल और पाकीज़ा हैं। किसी अक़्लमन्द को यह ज़ेब नहीं देता है के अपने घर से दूर हो जाए मगर यह के तीन में से कोई एक काम हो - अपने मआश की इस्लाह करे ,आख़ेरत की तरफ़ क़दम आगे बढ़ाए ,हलाल और पाकीज़ा लज़्ज़त हासिल करे।

390-दुनिया में ज़ोहद इख़्तेयार करो ताके अल्लाह तुम्हें इसकी बुराइयों से आगाह कर दे और ख़बरदार ग़ाफ़िल न हो जाओ के तुम्हारी तरफ़ से ग़फ़लत नहीं बरती जाएगी।

391-बोलो ताके पहचाने जाओ इसलिये के इन्सान की शख़्सियत इसकी ज़बान के नीचे छुपी रहती है।

392-जो दुनिया में हासिल हो जाए उसे ले लो और जो चीज़ तुमसे मुंह मोड़ ले तुम भी उससे मुंह फेर लो और अगर ऐसा नहीं कर सकते हाो तो तलब में मयानारवी से काम लो।

393-बहुत से अलफ़ाज़ हमलों से ज़्यादा असर रखने वाले होते हैं। (((इसी बुनियाद पर कहा गया है के तलवार का ज़ख़्म भर जाता है लेकिन ज़बान का ज़ख़्म नहीं भरता है। और इसके अलावा दोनों का बुनियादी फ़र्क़ यह है के हमलों का असर महदूद इलाक़ों पर होता है और जुमलों का असर सारी दुनिया में फैल जाता है जिसका मुशाहेदा इस दौर में बख़ूबी किया जा सकता है के हमले तमाम दुनिया में बन्द पड़े हैं लेकिन जुमले अपना काम कर रहे हैं और मीडिया सारी दुनिया में ज़हर फैला रहा है और सारे आलमे इन्सानियत को हर जहत और एतबार से तबाही और बरबादी के घाट उतार रहा है।)))

394-जिस पर इक्तिफ़ा कर ली जाए वही काफ़ी हो जाता है। (((हिरस व हव सवह बीमारी है जिसका इलाज क़नाअत और किफ़ायत शआरी के अलावा कुछ नहीं है। यह दुनिया ऐसी है के अगर इन्सान इसकी लालच में पड़ जाए तो मुल्के फ़िरऔन और इक़्तेदारे यज़ीद व हज्जाज भी कम पड़ जाता है और किफ़ायत शआरी पर आ जाए तो जौ की रोटियाँ भी उसके किरदार कर एक हिस्सा बन जाती हैं और वह निहायत दरजए बेनियाज़ी के साथ दुनिया को तलाक़ देने पर आमादा हो जाता है और फ़िर रूजू करने का भी इरादा नहीं करता है।)))

395-मौत हो लेकिन ख़बरदार ज़िल्लत न हो। कम हो लेकिन दूसरों को वसीला न बनाना पड़े। जिसे बैठकर नहीं मिल सकता है उसे खड़े होकर भी नहीं मिल सकता है। ज़माना दोनों का नाम है- एक दिन तुम्हारे हक़ में होता है तो दूसरा तुम्हारे खि़लाफ़ होता है लेहाज़ा अगर तुम्हारे हक़ में हो तो मग़रूर न हो जाना और तुम्हारे खि़लाफ़ हो जाए तो सब्र से काम लेना। (((यहाँ बैठने से मुराद बैठ जाना नहीं है वरना इस नसीहत को सुनकर हर इन्सान बैठ जाएगा और मेहनत व मशक़्क़त का सिलसिला ही मौक़ूफ़ हो जाएगा बल्कि इस बैठने से मुराद बक़द्रे ज़रूरत मेहनत करना है जो इन्सानी ज़िन्दगी के लिये काफ़ी हो और इन्सान उससे ज़्यादा जान देने पर आमादा न हो जाए के इसका कोई फ़ायदा नहीं है और फ़िज़ूल मेहनत से कुछ ज़्यादा हासिल होने वाला नहीं है।)))

396-बेहतरीन ख़ुशबू का नाम मुश्क है जिसका वज़्न इन्तेहाई हलका होता है और ख़ुशबू निहायत दरजा महकदार होती है।

397-फ़ख़्र व सरबलन्दी को छोड़ दो और तकब्बुर व ग़ुरूर को फ़ना कर दो और फिर अपनी क़ब्र को याद करो।

398-फ़रज़न्द का बाप पर एक हक़ होता है और बाप का फ़रज़न्द पर एक हक़ होता है। बाप का हक़ यह है के बेटा हर मसले में इसकी इताअत करे मासियते परवरदिगार के अलावा और फ़रज़न्द का हक़ बाप पर यह है के उसका अच्छा सा नाम तजवीज़ करे और उसे बेहतरीन अदब सिखाए और क़ुराने मजीद की तालीम दे।

399-चश्मे बद- फ़सोंकारी ,जादूगरी और फ़ाल नेक यह सब वाक़ईयत रखते हैं लेकिन बदशगूनी की कोई हक़ीक़त नहीं है और यह बीमारी की छूत छात भी बेबुनियाद अम्र है। ख़ुशबू ,सवारी ,शहद और सब्ज़ा देखने से फ़रहत हासिल होती है। (((काश कोई शख़्स हमारे मुआशरे को इस हक़ीक़त से आगाह कर देता और इसे बावर करा देता के बद शगूनी एक वहमी अम्र है और इसकी कोई हक़ीक़त व वाक़ईयत नहीं है और मर्दे मोमिन को सिर्फ़ हक़ाएक़ और वाक़ेयात पर एतमाद करना चाहिये। मगर अफ़सोस के मुआशरे का सारा कारोबार सिर्फ़ औहाम व ख़यालात पर चल रहा है और शगूने नेक की तरफ़ कोई शख़्स मुतवज्जेह नहीं होता है और बदशगूनी का एतबार हर शख़्स कर लेता है और इसी पर बेशुमार समाजी असरात भी मुरत्तब हो जाते हैं और मुआशेरती फ़साद का एक सिलसिला शुरू हो जाता है।)))

400-लोगों के साथ एख़लाक़ियात में क़ुरबत रखना उनके शर से बचाने का बेहतरीन ज़रिया है।

(((चूंके हर इन्सान की ख़्वाहिश होती है के लोग उसके साथ बुरा बरताव न करें और वह हर एक के शर से महफ़ूज़ रहे लेहाज़ा इसका बेहतरीन तरीक़ा यह है के लोगों से ताल्लुक़ात क़ायम करे और उनसे रस्म-राह बढ़ाए ताके वह शर फैलाने का इरादा ही न करें। के मुआशरे में ज़्यादा हिस्सए शर इख़तेलाफ़ और दूरी से पैदा होता है वरना क़ुरबत के बाद किसी न किसी मिक़दार में तकल्लुफ़ ज़रूर पैदा हो जाता है।)))

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 401-420

401-एक शख़्स ने आपके सामने अपनी औक़ात से ऊंची बात कह दी ,तो फ़रमाया तुम तो पर निकलने से पहले ही उड़ने लगे और जवानी आने से पहले ही बिलबिलाने लगे।

सय्यद रज़ी- शकीर परिन्दे के इब्तिदाई परों को कहा जाता है और सक़ब छोटे ऊंट का नाम है जबके बिलबिलाने का सिलसिला जवाने के बाद शुरू होता है।

(((बहुत से लोग ऐसे होते हैं जिनके पास इल्म व फ़ज़्ल और कमाल व हुनर कुछ नहीं होता है लेकिन ऊंची महफ़िलों में बोलने का शौक़ ज़रूर रखते हैं जिस तरह के बाज़ ख़ोतबा कमाले जेहालत के बावजूद हर बड़ी से बड़ी मजलिस से खि़ताब करने के उम्मीदवार रहते हैं और उनका ख़याल यह होता है के इस तरह अपनी शख़्सियत का रोब क़ायम कर लेंगे और यह एहसास भी नहीं होता है के रही सही इज़्ज़त भी चली जाएगी और मजमए आम में रूसवा हो जाएंगे।

अमीरूल मोमेनीन (अ0) ने ऐसे ही अफ़राद को तम्बीह की है जो क़ब्ल अज़ वक़्त बालिग़ हो जाते हैं और बलूगे़ फ़िक्री से पहले ही बिलबिलाने लगते हैंं।)))

402-जो मुख़तलिफ़ चीज़ों पर नज़र रखता है उसकी तदबीरें उसका साथ छोड़ देती हैं।

403-आपसे दरयाफ़्त किया गया के “लाहौला वला क़ूवता इल्ला बिल्लाह ” के मानी क्या हैं ?तो फ़रमाया के हम अल्लाह के साथ किसी चीज़ का इख़्तेयार नहीं रखते हैं और जो कुछ मिल्कियत है सब उसी की दी हुई है तो जब वह किसी ऐसी चीज़ का इख़्तेयार देता है जिसका इख़्तेयार उसके पास हमसे ज़्यादा है तो हमें ज़िम्मेदारियां भी देता है और जब वापस ले लेता है तो ज़िम्मेदारियों को उठा लेता है।

404-आपने देखा के अम्मार यासिर मग़ीरा बिन शैबा से बहस कर रहे हैं तो फ़रमाया अम्मार! उसे उसके हाल पर छोड़ दो। उसने दीन में से इतना ही हिस्सा लिया है जो उसे दुनिया से क़रीबतर बना सके और जानबूझ कर अपने लिये काम को मुश्तबा बना लिया है ताके उन्हीं शुबहात को अपनी लग्ज़िशों का बहाना क़रार दे सके। (((इब्ने अबी अल हदीद ने मख़ीरा के इस्लामम की यह तारीख़ नक़्ल की है के यह शख़्स एक क़ाफ़िले के साथ सफ़र में जा रहा था एक मक़ाम पर सब को शराब पिलाकर बेहोश कर दिया और फिर क़त्ल करके सारा सामान लूट लिया। इसके बाद जब यह ख़तरा पैदा हुआ के वोरसा इन्तेक़ाम लेंगे और जान का बचाना मुश्किल हो जाएगा तो भागकर मदीने आ गया और फ़ौरन इस्लाम क़ुबूल कर लिया के इस तरह जान बचाने का एक रास्ता निकल आएगा। यह शख़्स इस्लाम व ईमान दोनों से बेबहरा था। इस्लाम जान बचाने के लिये इख़्तेयार किया था और ईमान का यह आलम था के बरसरे मिम्बर “कुल्ले ईमान ” को गालियाँ दिया करता था और इसी बदतरीन किरदार के साथ दुनिया से रूख़सत हो गया जो हर दुश्मने अली (अ0) का आखि़री अन्जाम होता है।)))

405-किस क़द्र अच्छी बात है के मालदार लोग अज्रे इलाही की ख़ातिर फ़क़ीरों के साथ तवाज़ो से पेश आएं लेकिन इससे अच्छी बात यह है के फ़ोक़रा ख़ुदा पर भरोसा करके दौलतमन्दों के साथ तमकनत से पेश आएं। (((तकब्बुर और तमकनत कोई अच्छी चीज़ नहीं है लेकिन जहाँ तवाज़ोअ और ख़ाकसारी में फ़ितना व फ़साद पाया जाता हो वरना तकब्बुर और तमकनत का इज़हार बेहद ज़रूरी हो जाता है। फ़ोक़रा के तकब्बुर का मक़सद यह नहीं है के ख़्वाह म ख़्वाह अपनी बड़ाई का इज़हार करें और बेबुनियाद तमकनत का सहारा लें ,बल्कि इसका मक़सद यह है के अग़नेया के बजाए परवरदिगार पर भरोसा करें और उसकी के भरोसे पर अपनी बेनियाज़ी का इज़हार करें ताके ईमान व अक़ीदे में इस्तेहकाम पैदा हो और अग़नेया भी तवाज़ो और इन्कार पर मजबूर हो जाएं और इस तवाज़ो से उन्हें भी कुछ अज्र व सवाब हासिल हो जाए)))

406-परवरदिगार किसी शख़्स को अक़्ल इनायत नहीं करता है मगर यह के एक दिन उसी के ज़रिये से हलाकत से निकाल लेता है।

407-जो हक़ से टकराएगा हक़ बहरहाल उसे पछाड़ देगा।

408-दिल आँखों का सहीफ़ा है।

409-तक़वा तमाम एख़लाक़ियात का रास व रईस है।

410-अपनी ज़बान की तेज़ी उसके खि़लाफ़ इस्तेमाल न करो जिसने तुम्हें बोलना सिखाया है और अपने कलाम की फ़साहत का मुज़ाहेरा उस पर न करो जिसने रास्ता दिखाया है।

411-अपने नफ़्स की तरबीयत के लिये यही काफ़ी है के उन चीज़ों से इज्तेनाब करो जिन्हें दूसरों के लिये बुरा समझते हो।

412-इन्सान जवाँमर्दों की तरह सब्र करेगा वरना सादा लौहों की तरह चुप हो जाएगा।

413-दूसरी रिवायत में है के आपने अश्अस बिन क़ैस को उसके बेटे की ताज़ियत पेश करते हुए फ़रमाया के बुज़ुर्गों की तरह सब्र करो वरना जानवरों की तरह एक दिन ज़रूर भूल जाओगे।

414-आपने दुनिया की तौसीफ़ करते हुए फ़रमाया के यह धोका देती है ,नुक़सान पहुंचाती है और गुज़र जाती है ,अल्लाह ने इसे न अपने औलिया के सवाब के लिये पसन्द किया है और न दुश्मनों के अज़ाब के लिये ,अहले दुनिया उन सवारों के मानिन्द हैं जिन्होंने जैसे ही क़याम किया हंकाने वाले ने ललकार दिया के कूच का वक़्त आ गया है और फिर रवाना हो गए।

415-अपने फ़रज़न्द हसन (अ0) से बयान फ़रमाया - ख़बरदार दुनिया की कोई चीज़ अपने बाद के लिये छोड़कर मत जाना के इसके वारिस दो ही तरह के लोग होंगे। या वह होंगे जो नेक अमल करेंगे तो जो माल तुम्हारी बदबख़्ती का सबब बना है वही उनकी नेकबख़्ती का सबब होगा और अगर उन्होंने गुनाह में लगा दिया तो वह तुम्हारे माल की वजह सी बदबख़्त होंगे और तुम उनकी गुनाह के मददगार शुमार होगे और इन दोनों में से कोई ऐसा नहीं है जिसे तुम अपने नफ़्स पर तरजीह दे सकते हो।

सय्यद रज़ी- इस कलाम को एक दूसरी तरह भी नक़्ल किया गया है के “यह दुनिया जो आज तुम्हारे हाथ में है कल दूसरे इसके अहल रह चुके हैं और कल दूसरे इसके अहल होंगे और तुम इसे दो में से एक के लिये जमा कर रहे हो या वह शख़्स जो तुम्हारे जमा किये हुए को इताअते ख़ुदा में सर्फ़ करेगा तो जमा करने की ज़हमत तुम्हारी होगी और नेकबख़्ती उसके लिये होगी। या वह शख़्स होगा जो गुनाह में सर्फ़़ करेगा तो उसके लिये जमा करके तुम बदबख़्ती का शिकार होगे और इनमें से कोई इस बात का अहल नहीं है के उसे अपने नफ़्स पर मुक़द्दम कर सको और उसके लिये अपनी पुश्त को गराँबार बना सको लेहाज़ा जो गुज़र गए उनके लिये रहमते ख़ुदा की उम्मीद करो और जो बाक़ी रह गए हैं उनके लिये रिज़्क़े ख़ुदा की उम्मीद करो। ”

(((इमाम हसन (अ0) से खि़ताब कसले की अहमियत की तरफ़ इशारा है के इतनी अज़ीम बात का समझना और उससे फ़ायदा उठाना हर इन्सान के बस का काम नहीं है वरना इमामे हसन (अ0) जैसी शख़्सियत का इन्सान इन नुकात की तरफ़ तवज्जो दिलाने का मोहताज नहीं है और इनका काम ख़ुद ही आलमे इन्सानियत को उन हक़ाएक़ से बाख़बर करना और उन नुकात की तरफ़ मुतवज्जोह करना है। बहरहाल मसल इन्तेहाई अहम है के इन्सान को अपनी आक़बत के लिये जो कुछ करना है वह अपनी ज़िन्दगी में करना है ,मरने के बाद दूसरों से उम्मीद लगाना एक वसवसए शैतानी है और कुछ नहीं है ,फिर माल भी परवरदिगार ने दिया है तो उसका फ़ैसला भी ख़ुद ही करना है ,चाहे ज़िन्दगी में सर्फ़ कर दे या उसके मसरफ़ का तअय्युन कर दे वरना फ़ायदा दूसरे अफ़राद उठाएंगे और वबाल उसे बरदाश्त करना पड़ेगा।)))

416-एक शख़्स ने आपके सामने अस्तग़फ़ार किया “अस्तग़फ़ेरूल्लाह ” तो आपने फ़रमाया के तेरी माँ तेरे मातम में बैठे। यह असतग़फ़ार बलन्दतरीन लोगों का मक़ाम है और इसके मफ़हूम में छः चीज़ें शामिल हैं- 1. माज़ी पर शर्मिन्दगी 2. आइन्दा के लिये न करने का अज़्मे मोहकम 3. मख़लूक़ात के हुक़ूक़ का अदा कर देना के इसके बाद यूँ पाकदामन हो जाए के कोई मवाख़ेज़ा न रह जाए। 4. जिस फ़रीज़े को ज़ाया कर दिया है उसे पूरे तौर पर अदा कर देना। 5- गोश्त (अकल) हराम से नशो नुमा पाता रहा है इसको ग़म व अन्दोह से पिघलाओ यहाँ तक के खाल को हड्डियों से मिला दो के फिर से इन दोनों के दरम्यान नया गोश्त पैदा हो। 6- अपने जिस्म को इताअत के रन्ज से आश्ना करो जिस तरह उसे गुनाह की शीरीनी से लज़्ज़त अन्दोज़ किया है तो अब कहो “अस्तग़फ़ेरूल्लाह ” ।

417-हिल्म व तहम्मुल एक पूरा क़बीला है।

418-बेचारा आदमी कितना बेबस है मौत उससे नेहाँ ,बीमारियाँ उससे पोशीदा और उसके आमाल महफ़ूज़ हैं मच्छर के काटने से चीख़ उठता है ,उच्छू लगने से मर जाता है और पसीना इसमें बदबू पैदा कर देता है।

419-वारिद हुआ है के हज़रत अपने असहाब के दरम्यान बैठे हुए थे ,के उनके सामने से एक हसीन औरत का गुज़र हुआ जिसे उन लोगों ने देखना शुरू किया जिस पर हज़रत ने फ़रमाया- इन मर्दों की आंखें ताकने वाली हैं और यह नज़र बाज़ी इनकी ख़्वाहिशात को बराँगीख़्ता करने का सबब है। लेहाज़ा अगर तुममें से किसी की नज़र ऐसी औरत पर पड़े जो उसे अच्छी मालूम हो तो उसे अपनी ज़ौजा की तरफ़ मुतवज्जो होना चाहिये क्यूंके यह औरत भी औरत के मानिन्द है यह सुनकर एक ख़ारेजी ने कहा के ख़ुदा इस काफ़िर को क़त्ल करे यह कितना बड़ा फ़क़ीह है ,यह सुनकर लोग उसे क़त्ल करने उठे ,हज़रत ने फ़रमाया के ठहरो! ज़्यादा से ज़्यादा गाली का बदला गाली से हो सकता है ,या इसके गुनाही ही से दरगुज़र करो।

420-इतनी अक़्ल तुम्हारे लिये काफ़ी है के जो गुमराही की राहों को हिदायत के रास्तों से अलग करके तुम्हें दिखा दे।

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 421-440

421-अच्छे काम करो और थोड़ी सी भलाई को भी हक़ीर न समझो ,क्योंके छोटी सी नेकी भी बड़ी और थोड़ी सी भलाई भी बहुत है। तुममें से कोई शख़्स यह न कहे के अच्छे काम के करने में कोई दूसरा मुझसे ज़्यादा सज़ावार है ,वरना ख़ुदा की क़सम ऐसा ही होकर रहेगा। कुछ नेकी वाले होते हैं और कुछ बुराई वाले ,जब तुम नेकी या बदी किसी एक को छोड़ दोगे तो तुम्हारे बजाय इसके अहल इसे अन्जाम देकर रहेंगे।

422-जो अपने अन्दरूनी हालात को दुरूस्त रखता है ख़ुदा उसके ज़ाहिर को भी दुरूस्त कर देता है और जो दीन के लिये सरगर्मे अमल होता है अल्लाह उसके दुनिया के कामों को पूरा कर देता है और जो अपने और अल्लाह के दरम्यान ख़ुश मआमलेगी रखता है ख़ुदा उसके और बन्दों के दरम्यान के मामलात ठीक कर देता है।

423-हिल्म व तहम्मुल ढांकने वाला परदा और अक़्ल काटने वाली तलवार है। लेहाज़ा अपने अख़लाक़ के कमज़ोर पहलू को हिल्म व बुर्दबारी से छुपाओ और अपनी अक़्ल स ख़्वाहिशे नफ़सानी का मुक़ाबेला करो।

424-बन्दों की मनफ़अत रसानी के लिये अल्लाह कुछ बन्दगाने ख़ुदा को नेमतों से मख़सूस कर लेता है लेहाज़ा जब तक वह देते दिलाते रहते हैं ,अल्लाह उन नेमतों को उनके हाथों में बरक़रार रखता है और जब इन नेमतों को रोक लेते हैं तो अल्लाह उनसे छीनकर दूसरों की तरफ़ मुन्तक़िल कर देता है।

425-किसी बन्दे के लिये मुनासिब नहीं है के वह दो चीज़ों पर भरोसा करे। एक सेहत और दूसरे दौलत। क्योंके अभी तुम किसी को तन्दरूस्त देख रहे थे ,के वह देखते ही देखते बीमार पड़ जाता है और अभी तुम उसे दौलतमन्द देख रहे थे के फ़क़ीर व नादार हो जाता है।

426-जो शख़्स अपनी हाजत का गिला किसी मर्दे मोमिन से करता है ,गोया उसने अल्लाह के सामने अपनी शिकायत पेश की। और जो काफ़िर के सामने गिला करता है गोया उसने अपने अल्लाह की शिकायत की।

427-एक ईद के मौक़े पर फ़रमाया ईद सिर्फ़ उसके लिये है जिसके रोज़ों को अल्लाह ने क़ुबूल किया हो ,और उसके क़याम (नमाज़) को क़द्र की निगाह से देखता हो ,और ह रवह दिन के जिसमें अल्लाह की गुनाह न की जाए ,ईद का दिन है।

428-क़यामत के दिन सबसे बड़ी हसरत उस शख़्स की होगी जिसने अल्लाह की नाफ़रमानी करके माल हासिल किया हो ,और उसका वारिस वह शख़्स हुआ हो जिसने उसे अल्लाह की इताअत में सर्फ़ किया हो के यह तो इस माल की वजह से जन्नत में दाखि़ल हुआ और पहला उसकी वजह से जहन्नुम में गया।

429-लेन देन में सबसे ज़्यादा घाटा उठाने वाला और दौड़ धूप में सबसे ज़्यादा नाकाम होने वाला वह शख़्स है जिसने माल की तलब में अपने बदन को बोसीदा कर डाला हो। मगर तक़दीर ने उसके इरादों में उसका साथ न दिया हो। लेहाज़ा वह दुनिया से भी हसरत लिये हुए गया ,और आख़ेरत में भी उसकी पादाश का सामना किया।

430-रिज़्क़ दो तरह का होता है- एक वह जो ढूंढता है और एक वह जिसे ढूंढा जाता है। चुनांचे जो दुनिया का तलबगार होता है ,मौत उसको ढूंढती है यहां तक के दुनिया से उसे निकाल बाहर करती है और जो शख़्स आख़ेरत का ख़्वास्तगार होता है दुनिया ख़ुद उसे तलाश करती है यहां तक के वह उसके तमाम व कमाल अपनी रोज़ी हासिल कर लेता है।

431-दोस्ताने ख़ुदा वह हैं के जब लोग दुनिया के ज़ाहिर को देखते हैं तो वह उसके बातिन पर नज़र करते हैं और जब लोग उसकी जल्द मयस्सर आ जाने वाली नेमतों में खो जाते हैं तो वह आख़ेरत में हासिल होने वाली चीज़ों में मुनहमिक रहते हैं और जिन चीज़ों के मुताल्लिक़ उन्हें यह खुटका था के वह उन्हें तबाह करेंगी ,उन्हें तबाह करके रख दिया और जिन चीज़ों के मुताल्लिक़ उन्होंने जान लिया के वह उन्हें छोड़ देने वाली हैं उन्हें उन्होंने ख़ुद छोड़ दिया और दूसरों के दुनिया ज़्यादा समेटने को कम ख़याल किया ,और उसे हासिल करने को खोने के बराबर जाना। वह उन चीज़ों के दुश्मन हैं जिनसे दूसरों की दोस्ती है और उन चीज़ों के दोस्त हैं जिन चीज़ों से औरों को दुश्मनी है। उनके ज़रिये से क़ुरान का इल्म हासिल हुआ और क़ुरान के ज़रिये से उनका इल्म हासिल हुआ और इनके ज़रिये से किताबे ख़ुदा महफ़ूज़ और वह उसके ज़रिये से बरक़रार हैं। वह जिस चीज़ की उम्मीद रखते हैं ,उससे किसी चीज़ को बलन्द नहीं समझते और जिस चीज़ से ख़ाएफ़ हैं उससे ज़्यादा किसी शै को ख़ौफ़नाक नहीं जानते।

432-लज़्ज़तों के ख़त्म होने अैर पादाशों के बाक़ी रहने को याद रखो।

433-आज़माओ के उससे नफ़रत करो।

सय्यद रज़ी- फ़रमाते हैं के कुछ लोगों ने इस फ़िक़रे की जनाब रिसालत मआब (स0) से रिवायत की है मगर इसके कलामे अमीरूल मोमेनीन (अ0) होने के मवीदात में से है वह जिसे सालब ने बयान किया है। वह कहते हैं के मुझसे इब्ने आराबी ने बयान किया के मामूं ने कहा के अगर हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने यह न कहा होता के “आज़माओ के इससे नफ़रत करो ” तो मैं यूँ कहता के दुश्मनी करो उससे ताके आज़माओ।

434-ऐसा नहीं के अल्लाह किसी बन्दे के लिये शुक्र का दरवाज़ा खोले और (नेमतों की) अफ़ज़ाइश का दरवाज़ा बन्द कर दे और किसी बन्दे के लिये दुआ का दरवाज़ा खोले और दरे क़ुबूलियत को उसके लिये बन्द रखे ,और किसी बन्दे के लिये तौबा का दरवाज़ा खोले और मग़फ़ेरत का दरवाज़ा उसके लिये बन्द कर दे।

435-लोगों में सबसे ज़्यादा वह करम व बख़्शिश का वह अहल है जिसका रिश्ता अशराफ़ से मिलता हो।

436-आपसे दरयाफ़्त किया गया के अद्ल बेहतर है या सख़ावत! फ़रमाया के अद्ल तमाम काम को उनके मौक़े व महल पर रखता है और सख़ावत उनको उनकी हदों से बाहर कर देती है। अद्ल सबकी निगेहदाश्त करने वाला है ,और सख़ावत उसी से मख़सूस होगी जिसे दिया जाए ,लेहाज़ा अद्ल सख़ावत से बेहतर व बरतर है।

437-लोग जिस चीज़ को नहीं जानते उसके दुश्मन हो जाते हैं।

438-ज़ोहद की मुकम्मल तारीफ़ क़ुरान के दो जुमलों में है। इरशादे इलाही है “जो चीज़ तुम्हारे हाथ से जाती रहे ,उस पर रन्ज न करो और जो चीज़ ख़ुदा तुम्हें दे उस पर इतराओ नहीं ” लेहाज़ा जो शख़्स जाने वाली चीज़ पर अफ़सोस नहीं करता और आने वाली चीज़ पर इतराता नहीं है ,उसने ज़ोहद को दोनों सिम्तों से समेट लिया।

439-नीन्द दिन की महम्मों में बड़ी कमज़ोरी पैदा करने वाली है।

440-हुकूमत लोगों के लिये आज़माइश का मैदान है।

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 441-460

441-तुम्हारे लिये एक शहर दूसरे शहर से ज़्यादा हक़दार नहीं (बल्कि) बेहतरीन शहर वह है जो तुम्हारा बोझ उठाए।

442-जब मालिके अश्तर रहमल्लाह की ख़बरे शहादत आई तो फ़रमाया मालिक! और मालिक क्या शख़्स था ,ख़ुदा की क़सम अगर वह पहाड़ होता तो एक कोहे बलन्द होता ,और अगर वह पत्थर होता तो एक संगे गराँ होता ,के न तो उसकी बलन्दियों तक कोई सुम पहुंच सकता और न कोई परिन्दा वहाँ तक पर मार सकता।

सय्यद रज़ी- फ़न्दा उस पहाड़ को कहते हैं जो दूसरे पहाड़ों से अलग हो।

443-वह थोड़ा सा अमल जिसमें हमेशगी हो उस ज़्यादा से बेहतर है जो दिल तन्गी का बाएस हो।

444-अगर किसी इन्सान में कोई अच्छी ख़सलत पाई जाती है तो उससे दूसरी ख़सलतों की भी तवक़्क़ो की जा सकती है। (((चूंके अच्छी ख़सलत शराफ़ते नफ़्स से पैदा होती है लेहाज़ा एक ख़सलत को भी देखकर यह अन्दाज़ा किया जा सकता है के इस शख़्स में शराफ़ते नफ़्स पाई जाती है और यह शराफ़ते नफ़्स जिस तरह इस एक ख़सलत पर आमादा कर सकती है उसी तरह दूसरी ख़सलतें भी पैदा कर सकती है के एक दरख़्त में एक ही मेवा नहीं पैदा होता है।)))

445-ग़ालिब बिन सासा (पिदरे फ़रज़दक़) से गुफ़्तगू के दौरान फ़रमाया - तुम्हारे बेशुमार ऊंटों का क्या हुआ ?उन्होंने कहा के हुकू़क़ की अदायगी ने फ़ैला कर दिया। फ़रमाया के यह बेहतरीन और क़ाबिले तारीफ़ रास्ता है।

(((इब्ने अबी अल हदीद का बयान है के ग़ालिब फ़रज़दक़ को लेकर हज़रत की खि़दमत में हाज़िर हुआ तो आपने ऊँटों के बारे में भी सवाल किया और फ़रज़दक़ के बारे में भी सवाल किया तो ग़ालिब ने कहा के यह मेरा फ़रज़न्द है और इसे मैंने ‘ोर व अदब की तालीम दी है। आपने फ़रमाया के ऐ काश तुमने क़ुराने मजीद की तालीम दी होती ,जिसका नतीजा यह हुआ के यह बात दिल को लग गई और उन्होंने अपने पैरों में ज़न्जीरें डाल लीं और उन्हें उस वक़्त तक नहीं खोला जब तक सारा क़ुरान हिफ़्ज़ नहीं कर लिया।)))

446-जो एहकाम को दरयाफ़्त किये बग़ैर तिजारत करेगा वह कभी न कभी सूद में ज़रूर मुब्तिला हो जाएगा।

(((यह इस अम्र की तरफ़ इशारा है के फ़िक़ की ज़रूरत सिर्फ़ सलवात व सयाम के लिये नहीं है बल्कि इसकी ज़रूरत ज़िन्दगी के हर शोबे में है ताके इन्सान बुराइयों से महफ़ूज़ रह सके और लुक़्मए हलाल पर ज़िन्दगी गुज़ार सके वरना फ़िक़ के बग़ैर तिजारत करने में भी सूद का अन्देशा है और सूद से बदतर इस्लाम में कोई माल नहीं है जिसका एक पैसा भी हलाल नहीं कहा गया है।)))

447-जो छोटे मसाएब को भी बड़ा ख़याल करेगा उसे ख़ुदा बड़े मसाएब में भी मुब्तिला कर देगा। (((इन्सान का हुनर यह है के हमेशा मसाएब का मुक़ाबला करने के लिये तैयार रहे और बड़ी से बड़ी मुसीबत भी आ जाए तो उसे हक़ीर व मामूली ही समझे ताके दीगर मसाएब को हमला करने का मौक़ा न मिले वरना एक मरतबा अपनी कमज़ोरी का इज़हार कर दिया तो मसाएब का हुजूम आम हो जाएगा और इन्सान एक लम्हे के लिये भी निजात हासिल न कर सकेगा)))

448-जिसे उसका नफ़्स अज़ीज़ होगा उसकी नज़र में ख़्वाहिशात बेक़ीमत होंगी (के उन्हीं से इज़्ज़ते नफ़्स की तबाही पैदा होती है) (((ख़्वाहिश उस क़ैद का नाम है जिसका क़ैदी ता हयात आज़ाद नहीं हो सकता है के हर क़ैद का ताल्लुक़ इन्सान की बैरूनी ज़िन्दगी से होता है और ख़्वाहिश इन्सान को अन्दर से जकड़ लेती है जिसके बाद कोई आज़ाद कराने वाला भी नहीं पैदा होता है और यही वजह है के जब एक मर्द हकीम से पूछा गया के दुनिया में तुम्हारी ख़्वाहिश क्या है ?तो उसने बरजस्ता यही जवाब दिया के बस यही के किसी चीज़ की ख़्वाहिश न पैदा हो।)))

449-इन्सान जिस क़द्र भी मिज़ाह करता है उसी क़द्र अपनी अक़्ल का एक हिस्सा अलग कर देता है। (((मिज़ाह एक बेहतरीन चीज़ है जिससे इन्सान ख़ुद भी ख़ुश होता है और दूसरों को भी ख़ुशहाल बनाता है लेकिन इसकी शर्त यही है के मिज़ाह बहद्दे मिज़ाह हो और इसमें ग़लत बयानी ,फ़रेबकारी ,ईज़ाए मोमिन ,तौहीने मुसलमान का पहलू न पैदा होने पाए और हद से ज़्यादा भी न हो वरना हराम और बाएसे हलाकत व बरबादी हो जाएगा।)))

450-जो तुम्हारी तरफ़ रग़बत करे उससे किनाराकशी ख़सारा है और जो तुमसे किनाराकश हो जाए उसकी तरफ़ रग़बत ज़िल्लते नफ़्स है।

451-मालदारी और ग़ुरबत का फ़ैसला परवरदिगार की बारगाह में पेशी के बाद होगा।

452-ज़ुबैर हमेशा हम अहलेबैत (अ0) की एक फ़र्द शुमार होता था यहाँ तक के उसका मख़सूस फ़रज़न्द अब्दुल्लाह नमूदार हो गया।

453-आखि़र फ़रज़न्दे आदम का फ़ख़र व मुबाहात से क्या ताल्लुक़ है जबके इसकी इब्तिदा नुत्फ़ा है और इन्तेहा मुरदार। वह न अपनी रोज़ी का इख़्तेयार रखता है और न अपनी मौत को टाल सकता है।

(((इन्सानी ज़िन्दगी के तीन दौर होते हैं: इब्तेदा ,इन्तेहा ,वसत और इन्सान का हाल यह है के वह इब्तिदा में एक क़तरए नजिस होता है और इन्तेहा में मुरदार हो जाता है ,दरम्यानी हालात यक़ीनन ताक़त व क़ूवत और तहारत व पाकीज़गी के होते हैं लेकिन इसका भी यह हाल होता है के अपना रिज़्क़ अपने हाथ में होता है और न अपनी मौत अपने इख़्ितयार में होती है ऐसे हालात में इन्सान के लिये तकब्बुर व ग़ुरूर का जवाज़ कहाँ से पैदा होता है। तक़ाज़ाए शराफ़त व दयानत यही है के जिसने पैदा किया है उसी का शुक्रिया अदा करे और उसकी इताअत में ज़िन्दगी गुज़ार दे ताके मरने के बाद ख़ुद भी पाकीज़ा रहे और वह ज़मीन भी पाकीज़ा हो जाए जिसमें दफ़्न हो गया है।)))

454-आपसे दरयाफ़्त किया गया के सबसे बड़ा शाएर कौन था ?

तो फ़रमाया के सारे शोअरा ने एक मैदान में क़दम नहीं रखा के सबक़ते अमल से उनकी इन्तिहाए कमाल का फ़ैसला किया जा सके लेकिन अगर फ़ैसला ही करना है तो बादशाहे गुमराह (यानी अम्र अल क़ैस)।

455-क्या कोई ऐसा आज़ाद नहीं है जो दुनिया के इस चबाए हुए लुक़्मे को दूसरों के लिये छोड़ दे ?याद रखो के तुम्हारे नफ़्स की कोई क़ीमत जन्नत के अलावा नहीं है लेहाज़ा इसे किसी और क़ीमत पर बेचने का इरादा मत करना।

(((दुनिया वह ज़ईफ़ा है जो लाखों के तसरूफ़ में रह चुकी है और वह लुक़्मा है जिसे करोड़ों आदमी चबा चुके हैं ,क्या ऐसी दुनिया भी इस लाएक़ होती है के इन्सान इससे दिल लगाए और इसकी ख़ातिर जान देने के लिये तैयार हो जाए। इसका तो सबसे बेहतरीन मसरफ़ यह होता है के दूसरों के हवाले करके अपनी जन्नत का इन्तेज़ाम कर ले जहां हर चीज़ नई है और कोई नेमत इस्तेमाल शुदा नहीं है।)))

456-दो भूके ऐसे हैं जो कभी सेर नहीं हो सकते हैं- एक तालिबे इल्म और एक तालिबे दुनिया।

457-ईमान की अलामत यह है के सच नुक़सान भी पहुंचाए तो उसे फ़ायदा पहुंचाने वाले झूट पर मुक़द्दम रखो और तुम्हारी बातें तुम्हारी अमल से ज़्यादा न हों और दूसरों के बारे में बात करते हुए ख़ुदा से डरते रहो।

(((यक़ीनन ईमान का तक़ाज़ा यही है के सच को झूट पर मुक़द्दम रखा जाए और मामूली मफ़ादात की राह में इस अज़ीम नेमते सिद्क़ को क़ुरबान न किया जाए लेकिन कभी कभी ऐसे मवाक़ेअ आ सकते हैं जब सच का नुक़सान नाक़ाबिले बरदाश्त हो जाए तो ऐसे मौक़े पर अक़्ल और शरअ दोनों की इजाज़त है के कज़्ब का रास्ता इख़्तेयार करके उस नुक़सान से तहफ़्फ़ुज़ का इन्तेज़ाम कर लिया जाए जिस तरह के क़ातिल किसी नबी बरहक़ की तलाश में हो और आपको उसका पता मालूम हो तो अपके लिये शरअन जाएज़ नहीं है के पता बताकर नबीए बरहक़ के क़त्ल में हिस्सादार हो जाएं।)))

458- (कभी ऐसा भी हो सकता है के) क़ुदरत का मुक़र्रर किया हुआ मुक़द्दर इन्सान के अन्दाज़ों पर ग़ालिब आ जाता है यहाँ तक के यही तदबीर बरबादी क सबब बन जाती है।

सय्यद रज़ी- यह बात दूसरे अन्दाज़ से पहले गुज़र चुकी है।

459-बुर्दबारी और सब्र दोनों जुड़वाँ हैं और इनकी पैदावार का सरचश्मा बलन्द हिम्मती है।

(((यह ग़लत मशहूर हो गया है के मजबूरी का नाम सब्र है ,सब्र मजबूरी नहीं है ,सब्र बलन्द हिम्मती है ,सब्र इन्सान को मसाएब से मुक़ाबला करने की दावत देता है ,सब्र इन्सान में अज़ाएम की बलन्दी पैदा करता है ,सब्र पिछले हालात पर अफ़सोस करने के बजाय अगले हालात के लिये आमादगी की दावत देता है। “इन्ना एलैहे राजेऊन ” )))

460-ग़ीबत करना कमज़ोर आदमी की आख़री कोशिश होती है। (((ग़ीबत के मानी यह हैं के इन्सान के उस ऐब का तज़किरा किया जाए जिसे वह ख़ुद पोशीदा रखना चाहता है और उसके इज़हार को पसन्द नहीं करता है। इस्लाम ने इस अमल को फ़साद की इशाअत से ताबीर किया है और इसी बिना पर हराम कर दिया है लेकिन अगर किसी मौक़े पर ऐब के इज़हार न करने ही में समाज या मज़हब की बरबादी का ख़तरा हो तो बयान करना जाएज़ बल्के बाज़ औक़ात वाजिब हो जाता है जिस तरह के इल्मे रिजाल में मरावियों की तहक़ीक़ का मसला है के अगर उनके उयूब पर पर्दा डाल दिया गया तो मज़हब के तबाह व बरबाद हो जाने का अन्देशा है और हर झूठा शख़्स रिवायात का अम्बार लगा सकता है।)))

इमाम अली के अक़वाल (कथन) 461-479

461-बहुत से लोग अपने बारे में तारीफ़ ही से मुब्तिलाए फ़ित्ना हो जाते हैं।

462-दुनिया दूसरों के लिये पैदा हुई है और अपने लिये नहीं पैदा की गई है।

(((दुनिया की तख़लीक़ मक़सूद बिलज़ात नहीं है वरना परवरदिगार इसको दाएमी और अबदी बना देता। दुनिया को फ़ना करके आख़ेरत को मन्ज़रे आम पर ले आना इस बात की दलील है के उसकी तख़लीक़ आख़ेरत के मुक़दमे के तौर पर हुई है अब अगर कोई शख़्स इसे क़ुरबान करके आख़ेरत कमा लेता है तो गोया उसने सही मसरफ़ में लगा दिया वरना अपनी ज़िन्दगी भी बरबाद की और मौत को भी सही रास्ते पर नहीं लगाया।)))

463-बनी उमय्या में सबका एक ख़ास मैदान है जिसमें दौड़ लगा रहे हैं वरना जिस दिन इनमें इख़्तेलाफ़ हो गया तो उसके बाद बिज्जू भी उन पर हमला करना चाहेगा तो ग़ालिब आ जाएगा।

सय्यद रज़ी - मिरवद अरवाद से मिफ़अल के वज़्न पर है और अरवाद के मानी फ़ुरसत और मोहलत देने के हैं जो फ़सीहतरीन और अजीबतरीन ताबीर है जिसका मक़सद यह है के उनका मैदाने अमल यही मोहलते ख़ुदावन्दी है जिसमें सब भागे चले जा रहे हैं वरना जिस दिन यह मोहलत ख़त्म हो गई सारा निज़ाम दरहम व बरहम होकर रह जाएगा।

464-अन्सारे मदीना की तारीफ़ करते हुए फ़रमाया - ख़ुदा की क़सम इन लोगों ने इस्लाम को उसी तरह पाला है जिस तरह एक साला बच्चे नाक़ा को पाला जाता है अपने करीम हाथों और तेज़ ज़बानों के साथ।

465-आंख एक़ब का तस्मा है।

सय्यद रज़ी - यह एक अजीब व ग़रीब इसतआरा है जिसमें इन्सान के एक़ब को ज़र्फ़े को तशबीह दी गई है और उसकी आंख को तस्मा से तश्बीह दी गई है के जब तस्मा खोल दिया जाता है तो बरतन का सामान महफ़ूज़ नहीं रहता है। आम तौर से शोहरत यह है के पैग़म्बरे इस्लाम (स0) का कलाम है लेकिन अमीरूल मोमेनीन (अ0) से भी नक़्ल किया गया है और इसका ज़िक्र किताबुल मुक़तज़ब में बाबुल फ़ज़ बिल हुरूफ़ में किया है।

(((मक़सद यह है के इन्सान की आंख ही उसकी तहफ़्फ़ुज़ का ज़रिया है सामने से हो चाहे पीछे से। लेहाज़ा इन्सान का फ़र्ज़ है के इस नेमते परवरदिगार की क़द्र करे और इस बात का एहसास करे के यह एक आंख न होती तो इन्सान का रास्ता चलना भी दुश्वार हो जाता। हमलों से तहफ़्फ़ुज़ तो बहुत दूर की बात है।)))

466-लोगों के काम का ज़िम्मेदार एक ऐसा हाकिम बना जो ख़ुद भी सीधे रास्ते पर चला और लोगों को भी उसी रास्ते पर चलाया। यहाँ तक के दीन ने अपना सीना टेक दिया।

(((शेख़ मोहम्मद अब्दा का ख़याल है के यह सरकारे दो आलम (स0) के किरदार की तरफ़ इशारा है के जब आपका इक़्तेदार क़ायम हो गया तो आपने लोगों को हक़ के रास्ते पर चलाना शुरू किया और इसका नतीजा यह हुआ के इस्लाम ने अपना सीना टेक दिया और उसे इस्तेक़रार व इस्तेक़लाल हासिल हो गया।)))

467-लोगों पर एक ऐसा सख़्त ज़माना आने वाला है जिसमें मवस्सर अपने माल में इन्तेहाई कंजूसी से काम लेगा हालांके उसे इस बात का हुक्म नहीं दिया गया है और परवररिदगार ने फ़रमाया है के “ख़बरदार आपस में हुस्ने सुलूक को फ़रामोश न कर देना। ” इस ज़माने में अशरार ऊंचे हो जाएंगे और अख़्यार को ज़लील समझ लिया जाएगा। मजबूर व बेकस लोगों की ख़रीद व फ़रोख़्त की जाएगी हालांके रसूले अकरम (स0) ने इस बात से मना फ़रमाया है।

(((यहाँ मजबूर व बेकस से मुराद वह अफ़राद हैं जिनको ख़रीद व फ़रोख़्त पर मजबूर कर दिया जाए के इस्लाम ने इस तरह के मामले को ग़लत क़रार दिया है और इस शरा को ग़ैर क़ानूनी क़रार दिया है। लेकिन अगर इन्सान को मामले पर मजबूर न किया और वह हालात से मजबूर होकर मामला करने पर तैयार हो जाए तो फ़िक़ही एतबार से इसमें कोई हर्ज नहीं है के इसमें इन्सान की रिज़ामन्दी शामिल है चाहे वह रज़ामन्दी हालात की मजबूरी ही से पैदा हुई हो)))

468-मेरे बारे में दो तरह के लोग हलाक हो जाएंगे - हद से आगे बढ़ जाने वाला दोस्त और ग़लत बयानी और अफ़तरपरवाज़ी करने वाला दुश्मन।

सय्यद रज़ी - यह इरशाद मिस्ल इस कलामे साबिक के है के “मेरे बारे में दो तरह के लोग हलाक हो गए ग़ूलू करने वाला दोस्त और अनाद रखने वाला दुश्मन ”

469-आपसे तौहीद और अदालत के मफ़हूम के बारे में सवाल किया गया तो फ़रमाया के तौहीद यह है के उसकी वहमी तसवीर न बनाई जाए और अदालत यह है के इसके हकीमाना अफ़आल को मुतहम न किया जाए।

470-हिकमत की बात से ख़ामोशी इख़्तेयार करना कोई ख़ूबी नहीं ,जिस तरह जेहालत के साथ बात करने में कोई भलाई नहीं है।

471-बारिश के सिलसिले में दुआ करते हुए फ़रमाया “ख़ुदाया ,हमें फ़रमाबरदार बादलों से सेराब करना न के दुश्वारगुज़ार अब्रों से।

सय्यद रज़ी- यह इन्तेहाई अजीब व ग़रीब फ़सीह कलाम है जिसमें हज़रत ने गरज चमक और आन्धियों से भरे हुए बादलों को सरकश ऊँटों से तशबीह दी है जो दूहने में मुतीअ और सवारी में फ़रमाबरदार हों।

472-आपसे अर्ज़ किया गया के अगर आप अपने सफ़ेद बालों का रंग बदल देते तो ज़्यादा अच्छा होता ?फ़रमाया के ख़ेज़ाब एक ज़ीनत है लेकिन हम लोग हालाते मुसीबत में हैं (के सरकारे दोआलम (स0) का इन्तेक़ाल हो गया है)

(((इसमें कोई शक नहीं है के ख़ेज़ाब भी सरकारे दो आलम (स0) की सुन्नत का एक हिस्सा था और आप इसे इस्तेमाल फ़रमाया करते थे चुनांचे एक मरतबा हज़रत ने सरकार (स0) से अर्ज़ की के या रसूलल्लाह! इजाज़त है के मैं भी आपके इत्तेबाअ में ख़ेज़ाब इस्तेमाल करूं तो फ़रमाया नहीं उस वक़्त का इन्तेज़ार करो जब तुम्हारे मोहासिन तुम्हारे सर के ख़ून से रंगीन होंगे और तुम सजदए परवरदिगार में होगे। यह सुनकर आपने अर्ज़ की के या रसूलल्लाह इस हादसे में मेरा दीन तो सलामत रहेगा ?फ़रमाया बेशक! जिसके बाद आप मुस्तक़िल उस वक़्त का इन्तेज़ार करने लगे और अपने को राहे ख़ुदा में क़ुरबान करने की तैयारी में मसरूफ़ हो गए।)))

473-राहे ख़ुदा में जेहाद करके शहीद हो जाने वाला इससे ज़्यादा अज्र का हक़दार नहीं होता है जितना अज्र उसका है जो इख़्तेयारात के मावजूद इफ़फ़त से काम ले के अफ़ीफ़ व पाकदामन इन्सान क़रीब है के मलाएकाए आसमान में शुमार हो जाए।

(((यह बात तय शुदा है के राहे ख़ुदा में क़ुरबानी एक बहुत बड़ा कारनामा है और सरकारे दो आलम (स0) ने भी इस शहादत को तमाम नेकियों के लिये सरे फ़ेहरिस्त क़रार दिया है लेकिन इफ़्फ़त एक ऐसा अज़ीम ख़ज़ाना है जिसकी क़द्र व क़ीमत का अन्दाज़ा करना हर एक के बस का काम नहीं है ख़ुसूसियत के साथ दौरे हाज़िर में जबके अज़मत का तसव्वुर ही ख़त्म हो गया है और दामाने किरदार के दाग़ों ही को सबबे ज़ीनत तसव्वुर कर लिया गया गया है वरना इफ़्फ़त के बग़ैर इन्सानियत का कोई मफ़हूम नहीं है और वह इन्सान ,इन्सान कहे जाने के क़ाबिल नहीं है जिसमें इफ़्फ़ते किरदार न पाई जाती हो। अफ़ीफ़ुल हयात इन्सान मलाएका में शुमार किये जाने के क़ाबिल इसीलिये है के इफ़फ़ते किरदार मलाएका का एक इम्तियाज़ी कमाल है और उनके यहाँ तरदामनी का कोई इमकान नहीं है लेकिन इसके बाद भी अगर बशर इस किरदार को पैदा कर ले तो इसका मरतबा मलाएका से अफ़ज़ल हो सकता है। इसलिये के मलाएका की इफ़फ़त क़हरी है और इसका राज़ इन जज़्बात और ख़्वाहिशात का न होना है जो इन्सान को खि़लाफ़े इफ़फ़त ज़िन्दगी पर आमादा करते हैं और इन्सान इन जज़्बात व ख़्वाहिशात से मामूर है लेहाज़ा वह अगर इफ़्फ़ते किरदार इख़्तेयार कर ले तो इसका मरतबा यक़ीनन मलाएका से बलन्दतर हो सकता है।)))

474-क़नाअत वह माल है जो कभी ख़त्म होने वाला नहीं है।

सय्यद रज़ी- बाज़ हज़रात ने इस कलाम को रसूले अकरम (स0) के नाम से नक़्ल किया है।

475-जब अब्दुल्लाह बिन अब्बास ने जि़याद अबीह को फ़ारस और उसके एतराफ़ पर क़ायम मुक़ाम बना दिया तो एक मरतबा पेशगी ख़ेराज वसूल करने से रोकते हुए ज़ियाद से फ़रमाया के ख़बरदार- अद्ल को इस्तेमाल करो और बेजा दबाव और ज़ुल्म से होशियार रहो के दबाव अवाम को ग़रीबुलवतनी पर आमादा कर देगा और ज़ुल्म तलवार उठाने पर मजबूर कर देगा।

476-सख़्त तरीन गुनाह वह है जिसे इन्सान हलका तसव्वुर कर ले।

477-परवरदिगार ने जाहिलों से इल्म हासिल करने का अहद लेने से पहले ओलमा से तालीम देने का अहद लिया है।

478-बदतरीन भाई वह है जिसके लिये ज़हमत उठानी पड़े।

सय्यद रज़ी - यह इस तरह के तकलीफ़ से मशक़्क़त पैदा होती है और वह शर है जो उस भाई के लिये बहरहाल लाज़िम है जिसके लिये ज़हमत बरदाश्त करना पड़े।

479-अगर मोमिन अपने भाई से एहतेशाम करे तो समझो के उससे जुदा हो गया।

सय्यद रज़ी ‘ -चश्महु अहशमहू उस वक़्त इस्तेमाल होता है जब यह कहना होता है के उसे ग़ज़बनाक कर दिया या बक़ौले शर्मिन्दा कर दिया इस तरह एहतशमहू के मानी होंगे “उससे ग़ज़ब या शरमिन्दगी का तक़ाज़ा किया- ज़ाहिर है के ऐसे हालात में जुदाई लाज़मी है।

(((यह हमारे अमल की आखि़री मन्ज़िल है जिसका मक़सद अमीरूल मोमेनीन (अ0) के मुन्तख़ब कलाम का हिन्दी में शाया करना था और ख़ुदा का शुक्र है के उसने हम पर यह एहसान किया के हमें आप (अ0) के मुक़द्दस कलेमात को बक़द्रे मुकम्मल करने की तौफ़ीक़ इनायत फ़रमाई। हमारी तौफ़ीक़ सिर्फ़ परवरदिगार से वाबस्ता है और उसी पर हमारा भरोसा है ,वही हमारे लिये काफ़ी है और वही हमारा कारसाज़ है और यह काम माहे रजब 1432 हिजरी में इख़्तेताम को पहुंचा है (माहे रजब में ही मौलाए कायनात हज़रत अली (अ0) की विलादत के मौक़े पर एक कोशिशे मेहनत है) अल्लाह हमारे सरदार हज़रत ख़ातेमुल मुरसलीन और सिलसिलए हिदायत के सरचश्मों पर रहमत नाज़िल करे। व आख़ेरु दावाना अनिल हम्द)))

 (टाइपिंग वग़ैरा की ग़लतियों के लिये माज़ेरत ख़ाँ हूँ)