अक़ायदे नूर

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अक़ायदे नूर लेखक:
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अक़ायदे नूर

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: मौलाना सैय्यद एजाज़ हुसैन मूसावी
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अक़ायदे नूर
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अक़ायदे नूर

अक़ायदे नूर

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

अक़ायदे नूर

अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क

मुक़द्दमा

अल हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन वस सलातो वस सलामो अला ख़ैरे ख़लक़िहि मुहम्मद व आलिहित ताहेरीन ला सिय्यमा बक़िय्यतिल्लाहि फ़िल अरज़ीन अल्लाहुम्मज अलना मिन आवानिहि व अंसारिहि

इंसान तीन चीज़ों का मजमूआ है: अफ़कार ,सिफ़ात और किरदार। अगर यह तीनों चीज़ें सही जेहत और सही रास्ते पर हों तो इँसान अपने हदफ़ यानी मंज़िल कमाल तक पहुचता है अब अगर कोई दीन इंसान को ख़ुशबख़्त बनाना चाहता है तो उसे ऊपर बयान की गई तीनों चीज़ों का अहल होना ज़रूरी है। दीने इस्लाम तन्हा वह दीन है जिसने तीनों जिहात पर ख़ुसूसी तवज्जो दी है और इस सिलसिले में अहकाम व दस्तूरात बयान कियह हैं ,उन तीनों में से इल्मे अख़लाक़ इंसानी सिफ़ात को सँवारता है ,फ़ुरु ए दीन उस के रफ़तार व किरदार को बनाते हैं ,उसूले दीन इंसान के अफ़कार व नज़रियात को जेहत देते हैं।

नूर इस्लामिक मिशन ,तबलीग़े दीन के हवाले से हकी़क़ी इस्लाम को पहचनवाने और अफ़राद की सही इस्लामी तरबीयत के लिऐ तीनों जिहात पर काम कर रहा है। इसी सिलसिले की एक कड़ी “अक़ायदे नूर ” बाज़ अहम और ज़रूरी मौज़ूआत पर पाठ (सबक़) की सूरत में आप के हाथों में है।

इस मजमूए की बाज़ ख़ुसूसियात

1.मतालिब को कम और आसान ज़बान में पेश किया गया है ता कि उस्ताद की मदद के बग़ैर भी समझा जा सके।

2.आम फ़हम बनाने के लियह सख़्त इस्तेलाहों और पेचीदा दलीलों वग़ैरह से परहेज़ किया गया है।

3.हर सबक़ के आख़िर में ख़ुलासा और सवालात भी पेश किये गये हैं ता कि पढ़ने वाला नतीजे की तरफ़ भी मुतवज्जे हो सके और सबक़ की मश्क़ भी हो जाये।

ख़ुदा से दुआ है कि हमें हक़ीक़ी दीन को समझने और उस पर अमल करने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाये।

पहला सबक़

दीन की ज़रुरत और इस्लाम की हक़्क़ानीयत

दीन

दीन लुग़त में इताअत और जज़ा वग़ैरह के मअना में है और इस्तेलाह में ऐसे अमली और अख़लाक़ी अहकाम व अक़ायद के मजमूए को कहते हैं जिसे ख़ुदा ने नबियों के ज़रिये इंसान की दुनियावी और आख़िरत की हिदायत व सआदत के लियह नाज़िल फ़रमाया है ,उन अक़ायद को जान कर और उन अहकाम पर अमल करके इंसान दुनिया व आख़िरत में सआदत मंदी हासिल कर सकता है। जो इल्मे वुजूदे खु़दा ,सिफ़ाते सुबूतिया व सल्बिया ,अद्ल ,नबुव्वत ,इमामत और क़यामत के बारे में बहस करता है उसे उसूले दीन कहते हैं।

दीन की ज़रुरत

दीन हर इंसान के लियह ज़रुरी है इस लियह कि इँसान को फ़ुज़ूल पैदा नही किया गया है बल्कि उस की ज़िन्दगी के कुछ उसूल होते है जिन पर अमल करके वह अपनी ज़िन्दगी में कमाल पैदा कर सकता है और सआदत की मंज़िलों तक पहुच सकता है लेकिन सवाल यह है कि उन उसूल व क़वानीन को कौन मुअय्यन करे ?इस सवाल के जवाब में तीन राहें मौजूद हैं जिन में से सिर्फ़ एक राह सही है:

पहला रास्ता

हर इंसान अपनी ख़्वाहिश के मुताबिक़ अपने लिये क़ानून बनाए ,यह रास्ता ग़लत है इस लिये कि इंसान का इल्म महदूद है जिसके नतीजे में वह हमेशा ग़लतियाँ करता रहता है और उस की नफ़सानी ख़्वाहिशात का तूफ़ान किसी वक़्त भी उस को ग़र्क़ कर सकता है लिहाज़ा आप ख़ुद सोचें कि क्या इंसान अपनी नाक़िस और महदूद फ़िक्र के ज़रिये अपने लियह उसूल व क़वानीन बना सकता है।

दूसरा रास्ता

इंसान लोगों की फ़िक्रों और सलीक़ों के मुताबिक़ अपनी ज़िन्दगी के लियह क़ानून मुअय्यन करे ,यह रास्ता भी ग़लत है इस लिये कि लोगों की तादाद भी ज़्यादा है और उन की ख़्वाहिशें ,फ़िक्रें और सलीक़ें भी मुख़्तलिफ़ हैं तो इंसान किस किस की बातों पर अमल करेगा और दूसरी बात यह है कि दूसरे लोग भी तो इंसान ही हैं इस लिये उन में भी ग़लतियों का बहुत ज़्यादा इम्कान पाया जाता है लिहाज़ा जब लोग अपने लिये भी क़ानून नही बना सकते तो फिर किसी दूसरे के लिये किस तरह क़ानून बना सकते है ?

तीसरा रास्ता

इंसान ख़ुद को किसी ऐसी ज़ात के हवाले कर दे जिस ने उसको बनाया है और जो उसके माज़ी ,हाल और मुस्तक़िबल से आगाह है यानी इंसान अपनी ज़िन्दगी की तरीक़ा और जीने का सलीक़ा उसी से हासिल करे जिसने उसे पैदा किया है।

यह तीसरा रास्ता ही सही है इस लिये कि जिस तरह हम अपनी गाड़ी को मैकेनिक और अपने जिस्म को बीमारी के वक़्त डाक्टर के हवाले कर देते हैं क्योकि वह इस सिलसिले में हम से ज़्यादा आगाह है उसी तरह हमें अपनी ज़िन्दगी के उसूल व क़वानीन को मुअय्यन करने के लियह अपने आप को उस ज़ात के हवाले कर देना चाहिये जो हर चीज़ का जानने वाला है। वह ज़ात सिर्फ़ ख़ुदा वंदे आलम की ज़ात है जिसने इस्लाम की शक्ल में इंसान की इंफ़ेरादी और समाजी ज़िन्दगी के लियह उसूल व क़वानीन नाज़िल फ़रमाए हैं।

इस्लाम की हक़्क़ानीयत

दीने इस्लाम चूँकि आख़िरी दीन है इसी लियह उसे ख़ुदा ने कामिल बनाया है और उसी मुक़द्दस दीन के आने के बाद दूसरे आसमानी दीन ख़त्म कर दियह गयह क्योकि जब कामिल आ जाये तो नाक़िस की कोई ज़रूरत बाक़ी नही रह जाती ,दीने इस्लाम को ख़ुदा वंदे आलम ने हमारे प्यारे नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे वा आलिहि वसल्लम के ज़रिये इंसान की हिदायत के लियह नाज़िल फ़रमाया है ,सआदत का यह चिराग़ दुनिया वालों के लियह उस वक़्त रौशन हुआ जब इँसान और इंसानियत को बुराईयों और ख़राबियों के अँधेरों ने घेर रखा था।

खु़दा की तरफ़ से भेजा गया यह मुक़द्दस दीन ऐसा है कि हर फ़र्द और हर तबक़ा उस के मुताबिक़ अपनी ज़िन्दगी गुज़ार कर दुनिया व आख़िरत की बेहतरीन ख़ुशियाँ हासिल कर सकता है।

बुढ़े व बच्चे ,पढ़े लिखे व अनपढ़ ,मर्द व औरत ,अमीर व ग़रीब सब के सब मसावी तौर पर दीने इस्लाम से फ़ायदा उठा सकते हैं इस लिये कि इस्लाम दीने फ़ितरत है और फ़ितरत इँसानों के तमाम तर इख़्तिलाफ़ात के बावजूद सब के अंदर एक जैसी होती है।

नतीजा यह हुआ कि इस्लाम एक ऐसा दीन है जो इँसानों की बुनियादी और फ़ितरी मुश्किलों को हल करता है लिहाज़ा यह हमेशा ज़िन्दा रहने वाला दीन है। यह बात भी वाज़ेह है कि इस्लाम आसान दीन है और इँसान पर सख़्ती नही करता ,ख़ुदा वंदे आलम ने इस दीन के बुनियादी उसूल व क़वायद अपनी किताब क़ुरआने मजीद में बयान फ़रमाया है जो पैग़म्बरे इस्लाम (स) पर नाज़िल हुई है।

ख़ुलासा

-लुग़त में दीन ,इताअत और जज़ा के मअना में है और इस्तेलाह में उन अमली व अख़लाक़ी अहकाम को दीन कहते हैं जिसे ख़ुदा वंद ने नबियों के ज़रिये नाज़िल फ़रमाया है।

-हर इँसान के लियह दीन ज़रुरी है क्योकि वह दीन के बग़ैर अपनी ज़िन्दगी में सआदत हासिल नही कर सकता।

-सिर्फ़ ख़ुदा ,इँसान की ज़िन्दगी के लियह क़ानून बना सकता है क्योकि वह हर चीज़ का जानने वाला है।

-दीने इस्लाम ,आख़िरी और कामिल आसमानी दीन है जिसे हमारे नबी हज़रत मुहम्मद (स) ले कर आयह हैं और उस के बुनियादी क़वानीन क़ुरआने मजीद में मौजूद हैं।

-इस्लाम दीने फ़ितरत है लिहाज़ा यह दीन बड़े छोटे ,पढ़े लिखे ,ज़ाहिल ,मर्द व औरत ,गोरे काले ,अमीर व ग़रीब सब के लियह सआदत बख़्श है।

सवालात

1.इस्तेलाह में दीन के क्या मअना है ?

2.दीन का होना क्यों ज़रुरी है ?

3.इंसान अपनी ज़िन्दगी के लियह क़ानून क्यो नही बना सकता है ?

4.क्यो सिर्फ़ ख़ुदा ही इँसान की ज़िन्दगी के लिये उसूल व क़वानीन बना सकता है ?

5.क्या इस्लाम हर फ़र्द और तबक़े के लियह सआदत बख़्श है ?क्यों ?

दूसरा सबक़

दीन की हक़ीक़त

हमने पहले सबक़ में पढ़ा कि अगर हम ख़ुदा के भेजे हुए दीन और उस के ज़रिये बनाये गये उसूल और क़ानून पर अमल करें तो दुनिया व आख़िरत में सआदत मंदी हासिल कर सकते हैं। सिर्फ़ वह शख़्स सआदत मंद और ख़ुशबख़्त है जो अपनी ज़िन्दगी को गुमराही और जिहालत में न गुज़ारे बल्कि अच्छे अख़लाक़ के साथ नेक काम अंजाम दे ,दीने इस्लाम ने भी इस सआदत की तरफ़ इस अंदाज़ में दावत दी है:

1.उन सही अक़ायद का ऐहतेराम करो जिस को तुम ने अपनी अक़्ल और फ़ितरत के ज़रिये क़बूल किया है।

2.नेक और अच्छा अख़लाक़ रखो।

3.हमेशा नेक और अच्छे काम करो।

इस बुनियाद पर दीन तीन चीज़ों का मजमूआ है:

1.अक़ायद या उसूले दीन

2.अख़लाक़

3.अहकाम व अमल

1.अक़ायद व उसूले दीन

अगर हम अपनी अक़्ल व शुऊर का सहारा लें तो मालूम होगा कि इतनी बड़ी दुनिया और उस की हैरत अंगेज़ निज़ाम ख़ुद ब ख़ुद वुजूद में नही आ सकता और उसमें पाया जाने वाला यह नज़्म बग़ैर किसी नज़्म देने वाले के वुजूद में नही आ सकता बल्कि ज़रुर कोई ऐसा पैदा करने वाला है जिसने अपने ला महदूद इल्म व ताक़त और तदबीर के ज़रिये इस दुनिया को बनाया है और वही उस के निज़ाम को एक मोहकम व उस्तवार क़ानून के साथ चला रहा है ,उसने कोई चीज़ बे मक़सद पैदा नही की है और दुनिया का छोटी बड़ी कोई भी चीज़ उस के क़ानून से बाहर नही है।

इसी तरह इस बात को भी नही माना जा सकता कि ऐसा मेहरबान ख़ुदा जिसने अपने लुत्फ़ व करम के ज़रिये इंसान को पैदा किया है वह इँसानी समाज को उस की अक़्ल पर छोड़ दे जो अकसर हवा व हवस का शिकार रहती है लिहाज़ा ज़रुरी है कि खु़दा ऐसे नबियों के ज़रिये कुछ उसूल व क़वानीन भेजे जो मासूम हो यानी जिन से ग़लती न होती हो और यह भी ज़रुरी है कि ख़ुदा कुछ ऐसे लोगों को आख़िरी नबी का जानशीन बनाये जो उन के बाद उन के दीन को आगे बढ़ाये और नबी की ख़ुद भी मासूम हों।

चूँकि ख़ुदा के बताए हुए रास्ते पर अमल करने या न करने की जज़ा या सज़ा इस महदूद और मिट जाने वाली दुनिया में पूरी तरह से ज़ाहिर नही हो सकती लिहाज़ा ज़रुरी है कि एक ऐसा मरहला हो जहाँ इंसान के अच्छे या बुरे कामों का ईनाम या सज़ा दी जा सके। किताब के अगले भाग में इसी के बारे में बताया जायेगा।

2.अख़लाक़

दीन हमें हुक्म देता है कि अच्छी सिफ़तों और आदतों को अपनायें ,हमेशा ख़ुद को अच्छा बनाने की कोशिश करें। फ़र्ज़ शिनास ,ख़ैर ख़्वाह ,मेहरबान ,ख़ुशमिज़ाज

और दूसरों से मुहब्बत रखने वाले बनें ,हक़ की तरफ़दारी करें ,ग़लत का कभी साथ न दें ,कहीं भी हद से आगे न बढ़ें ,दूसरों की जान ,माल ,ईज़्ज़त का ख़्याल रखें ,इल्म हासिल करने में सुस्ती न करें ,ख़ुलासा यह कि ज़िन्दगी के हर मरहले में अदालत की रिआयत करें।

3.अहकाम व अमल

दीन हमें यह भी हुक्म देता है कि हम वह काम अंजाम दें जिस में हमारी और समाज की भलाई हो और उन कामों से बचें जो इंफ़ेरादी या समाजी ज़िन्दगी में फ़साद या बुराई का सबब बनते हैं। इबादत की सूरत में ऐसे आमाल अंजाम दें जो बंदगी और फ़रमाँ बरदारी की अलामत हैं जैसे नमाज़ ,रोज़ा और उस के अलावा तमाम वाजिबात को अंजाम दें और तमाम हराम चीज़ों से परहेज़ करें।

यही वह क़वानीन हैं जो दीन लेकर आया है और जिस की तरफ़ हमे दावत देता है ज़ाहिर है कि उन में से बाज़ क़वानीन ऐतेक़ादी है यानी उसूले दीन से मुतअल्लिक़ हैं ,बाज़ अख़लाक़ी है और बाज़ अमली हैं ,दीन के यह तीनों हिस्से एक दूसरे से जुदा नही हैं बल्कि जंजीर की कड़ियों की तरह एक दूसरे से मिले हुए हैं। इन्ही क़वानीन पर अमल करके इंसान सआदत हासिल कर सकता है।

ख़ुलासा

-वह शख़्स सआदतमंद है जो अपनी ज़िन्दगी को जिहालत और गुमराही में न गुज़ारे ,अच्छा अख़लाक़ रखता हो और अच्छे काम करता हो।

-दीन तीन हिस्सों में तक़सीम होता है:

1.अक़ायद या उसूले दीन

2.अख़लाक़

3.अहकाम व अमल।

-दीन के यह तीनों हिस्से एक दूसरे से जुदा नही है बल्कि जंजीर की कड़ियों की तरह एक दूसरे जुड़े हुए हैं।

सवालात

1.कौन सआदतमंद हैं ?

2.दीन के कितने हिस्से हैं ?मुख़्तसर बयान करें

3.क्या दीन के तीनों हिस्से एक दूसरे अलग हैं ?

तीसरा सबक़

उसूले दीन में तक़लीद करना सही नही है

हमारे समाज में बहुत से लोग उसूले दीन पर ईमान रखते हैं और फ़ुरु ए दीन पर अमल करते हैं लेकिन उन में कुछ ऐसे अफ़राद भी हैं जो फ़ुरु ए दीन की तरह उसूले दीन में भी तक़लीद करते हैं यानी वह जिस तरह से नमाज़ ,रोज़े के मसायल में किसी मुजतहिद की तक़लीद करते हैं उसी तरह तौहीद ,अद्ल ,नबुव्वत ,इमामत और क़यामत के बारे में भी अपने बुज़ुर्गों की तक़लीद करते हैं और कहते हैं: क्योकि हमारे बाप दादा ने कहा है कि ख़ुदा एक है ,आदिल है ,हज़रत मुहम्मद (स) नबी है ,इमाम बारह हैं और क़यामत आयेगी। इस लिये हम भी उन सब चीज़ों पर यक़ीन रखते हैं। लेकिन यह तरीक़ा बिल्कुल दुरुस्त नही है ,इस लिये कि उसूले दीन में तक़लीद जायज़ ही नही है।

हर इंसान के लिये ज़रुरी है कि वह उसूले दीन (तौहीद ,अद्ल ,नबुव्वत ,इमामत और क़यामत) पर दलील के साथ ईमान रखें और सिर्फ़ इस बात पर बस न करें कि चुँकि हमारे बाप दादा मुसलमान हैं लिहाज़ा हम भी मुसलमान है।

अब सवाल यह है कि उसूले दीन को दलील के साथ जानने के लिये कितनी किताबों का मुतालआ किया जाये और कौन कौन सी मोटी मोटी किताबों को पढ़ा जाये ?उस का जवाब यह है कि दलील जानने के लियह मोटी मोटी किताबों का मुतालआ करने की ज़रुरत नही है बल्कि इंसान सिर्फ़ आसान और सादा दलीलों को छोटी छोटी किताबों को पढ़ने या आलिमों से सवाल करने के ज़रिये जान ले तो यही काफ़ी है। हाँ अगर ज़्यादा जानना चाहता है तो बड़ी बड़ी किताबों का मुतालआ और इस सिलसिले में तहक़ीक़ करना बेहद फ़ायदे मंद साबित होगा।

फ़िर यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि सादा और आसान दलील से क्या मुराद है ?किसी दलील के सादा और आसान होने का मेयार क्या है ?इस के जवाब में हम आप के लिये एक मिसाल पेश करते हैं जिस से आप समझ सकते हैं कि सादा दलील क्या होती है। एक बुढ़िया चर्ख़ा चला रही थी ,उसी हालत में उससे पूछा गया कि ख़ुदा के वुजूद पर तुम्हारे पास क्या दलील है ?तुम कैसे यक़ीन रखती हो कि कोई ख़ुदा है ?उसने फ़ौरन चर्खे से हाथ हटा लिया जिस की वजह से चर्खा रुक गया तो बुढ़िया ने कहा: जब यह छोटा सा चर्खा किसी चलाने वाले के ब़ग़ैर नही चल सकता तो इतनी बड़ी दुनिया किसी चलाने वाले के बग़ैर किस तरह से चल सकती है ?इस दुनिया का पूरे नज़्म के साथ चलते रहना इस बात की दलील है कि कोई ख़ुदा है जो उसे चला रहा है।

बुढ़िया के इस वाक़ेया से सादा और आसान दलील का मेयार समझ में आ जाता है। अब हम से अगर कोई कहे कि ख़ुदा के वुजूद को साबित करो तो हम उसे यह जवाब दे सकते हैं कि हर चीज़ का कोई न कोई बनाने वाला होता है ,हर चीज़ का कोई न कोई चलाने वाला होता है लिहाज़ा इतनी बड़ी दुनिया को चलाने वाला कोई न कोई ज़रुर है और वह ख़ुदा है।

नोट: हाँ अगर किसी दीनदार और क़ाबिले ऐतेमाद आलिमें दीन की बताई हुई दलील की बुनियाद पर यक़ीन हासिल हो जाये तो उसे उस यक़ीन की बुनियाद पर उसूले दीन को क़बूल कर सकता है और इसमें कोई हरज भी नही है। इस लियह कि क़ुरआने पाक में तक़लीद के बारे में काफ़िरों को बुरा भला कहा गया है वह उन के लिये यक़ीन हासिल न होने की वजह से है क्योकि वह गुमान पर अमल करते थे जैसा कि इरशाद हो रहा है:

وما لهم بذلک من علم ان هم الا یظنون .

उन्हे इस का यक़ीन नही है बल्कि वह सिर्फ़ गुमान करते हैं। (सूरह जासिया आयत 24)

खु़लासा

-उसूले दीन में तक़लीद जायज़ नही है बल्कि उन उसूल को सादा और आसान दलीलों के ज़रिये जानना ज़रुरी है लिहाज़ा हम यह नही कह सकते कि चुँकि तौहीद ,अद्ल ,नबुव्वत ,इमामत और क़यामत पर हमारे बुज़ुर्गों को ईमान है लिहाज़ा हम भी उन पाँचों उसूलों पर ईमान रखते हैं।

-सादा और आसान दलील की मिसाल ,चर्ख़ा चलाने वाली बुढ़िया का वाक़ेया है जिस के पढ़ने के बाद मालूम हो जाता है कि सादा और आसान दलील का मेयार क्या है।

सवालात

1.क्या उसूले दीन में तक़लीद करना जायज़ है ?

2.उसूले दीन पर किस तरह ईमान रखना चाहिये ?

3.सादा और आसान दलील का क्या मतलब है ?