अक़ायदे नूर

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अक़ायदे नूर
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अक़ायदे नूर

अक़ायदे नूर

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

अक़ायदे नूर

अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क

मुक़द्दमा

अल हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन वस सलातो वस सलामो अला ख़ैरे ख़लक़िहि मुहम्मद व आलिहित ताहेरीन ला सिय्यमा बक़िय्यतिल्लाहि फ़िल अरज़ीन अल्लाहुम्मज अलना मिन आवानिहि व अंसारिहि

इंसान तीन चीज़ों का मजमूआ है: अफ़कार ,सिफ़ात और किरदार। अगर यह तीनों चीज़ें सही जेहत और सही रास्ते पर हों तो इँसान अपने हदफ़ यानी मंज़िल कमाल तक पहुचता है अब अगर कोई दीन इंसान को ख़ुशबख़्त बनाना चाहता है तो उसे ऊपर बयान की गई तीनों चीज़ों का अहल होना ज़रूरी है। दीने इस्लाम तन्हा वह दीन है जिसने तीनों जिहात पर ख़ुसूसी तवज्जो दी है और इस सिलसिले में अहकाम व दस्तूरात बयान कियह हैं ,उन तीनों में से इल्मे अख़लाक़ इंसानी सिफ़ात को सँवारता है ,फ़ुरु ए दीन उस के रफ़तार व किरदार को बनाते हैं ,उसूले दीन इंसान के अफ़कार व नज़रियात को जेहत देते हैं।

नूर इस्लामिक मिशन ,तबलीग़े दीन के हवाले से हकी़क़ी इस्लाम को पहचनवाने और अफ़राद की सही इस्लामी तरबीयत के लिऐ तीनों जिहात पर काम कर रहा है। इसी सिलसिले की एक कड़ी “अक़ायदे नूर ” बाज़ अहम और ज़रूरी मौज़ूआत पर पाठ (सबक़) की सूरत में आप के हाथों में है।

इस मजमूए की बाज़ ख़ुसूसियात

1.मतालिब को कम और आसान ज़बान में पेश किया गया है ता कि उस्ताद की मदद के बग़ैर भी समझा जा सके।

2.आम फ़हम बनाने के लियह सख़्त इस्तेलाहों और पेचीदा दलीलों वग़ैरह से परहेज़ किया गया है।

3.हर सबक़ के आख़िर में ख़ुलासा और सवालात भी पेश किये गये हैं ता कि पढ़ने वाला नतीजे की तरफ़ भी मुतवज्जे हो सके और सबक़ की मश्क़ भी हो जाये।

ख़ुदा से दुआ है कि हमें हक़ीक़ी दीन को समझने और उस पर अमल करने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाये।

पहला सबक़

दीन की ज़रुरत और इस्लाम की हक़्क़ानीयत

दीन

दीन लुग़त में इताअत और जज़ा वग़ैरह के मअना में है और इस्तेलाह में ऐसे अमली और अख़लाक़ी अहकाम व अक़ायद के मजमूए को कहते हैं जिसे ख़ुदा ने नबियों के ज़रिये इंसान की दुनियावी और आख़िरत की हिदायत व सआदत के लियह नाज़िल फ़रमाया है ,उन अक़ायद को जान कर और उन अहकाम पर अमल करके इंसान दुनिया व आख़िरत में सआदत मंदी हासिल कर सकता है। जो इल्मे वुजूदे खु़दा ,सिफ़ाते सुबूतिया व सल्बिया ,अद्ल ,नबुव्वत ,इमामत और क़यामत के बारे में बहस करता है उसे उसूले दीन कहते हैं।

दीन की ज़रुरत

दीन हर इंसान के लियह ज़रुरी है इस लियह कि इँसान को फ़ुज़ूल पैदा नही किया गया है बल्कि उस की ज़िन्दगी के कुछ उसूल होते है जिन पर अमल करके वह अपनी ज़िन्दगी में कमाल पैदा कर सकता है और सआदत की मंज़िलों तक पहुच सकता है लेकिन सवाल यह है कि उन उसूल व क़वानीन को कौन मुअय्यन करे ?इस सवाल के जवाब में तीन राहें मौजूद हैं जिन में से सिर्फ़ एक राह सही है:

पहला रास्ता

हर इंसान अपनी ख़्वाहिश के मुताबिक़ अपने लिये क़ानून बनाए ,यह रास्ता ग़लत है इस लिये कि इंसान का इल्म महदूद है जिसके नतीजे में वह हमेशा ग़लतियाँ करता रहता है और उस की नफ़सानी ख़्वाहिशात का तूफ़ान किसी वक़्त भी उस को ग़र्क़ कर सकता है लिहाज़ा आप ख़ुद सोचें कि क्या इंसान अपनी नाक़िस और महदूद फ़िक्र के ज़रिये अपने लियह उसूल व क़वानीन बना सकता है।

दूसरा रास्ता

इंसान लोगों की फ़िक्रों और सलीक़ों के मुताबिक़ अपनी ज़िन्दगी के लियह क़ानून मुअय्यन करे ,यह रास्ता भी ग़लत है इस लिये कि लोगों की तादाद भी ज़्यादा है और उन की ख़्वाहिशें ,फ़िक्रें और सलीक़ें भी मुख़्तलिफ़ हैं तो इंसान किस किस की बातों पर अमल करेगा और दूसरी बात यह है कि दूसरे लोग भी तो इंसान ही हैं इस लिये उन में भी ग़लतियों का बहुत ज़्यादा इम्कान पाया जाता है लिहाज़ा जब लोग अपने लिये भी क़ानून नही बना सकते तो फिर किसी दूसरे के लिये किस तरह क़ानून बना सकते है ?

तीसरा रास्ता

इंसान ख़ुद को किसी ऐसी ज़ात के हवाले कर दे जिस ने उसको बनाया है और जो उसके माज़ी ,हाल और मुस्तक़िबल से आगाह है यानी इंसान अपनी ज़िन्दगी की तरीक़ा और जीने का सलीक़ा उसी से हासिल करे जिसने उसे पैदा किया है।

यह तीसरा रास्ता ही सही है इस लिये कि जिस तरह हम अपनी गाड़ी को मैकेनिक और अपने जिस्म को बीमारी के वक़्त डाक्टर के हवाले कर देते हैं क्योकि वह इस सिलसिले में हम से ज़्यादा आगाह है उसी तरह हमें अपनी ज़िन्दगी के उसूल व क़वानीन को मुअय्यन करने के लियह अपने आप को उस ज़ात के हवाले कर देना चाहिये जो हर चीज़ का जानने वाला है। वह ज़ात सिर्फ़ ख़ुदा वंदे आलम की ज़ात है जिसने इस्लाम की शक्ल में इंसान की इंफ़ेरादी और समाजी ज़िन्दगी के लियह उसूल व क़वानीन नाज़िल फ़रमाए हैं।

इस्लाम की हक़्क़ानीयत

दीने इस्लाम चूँकि आख़िरी दीन है इसी लियह उसे ख़ुदा ने कामिल बनाया है और उसी मुक़द्दस दीन के आने के बाद दूसरे आसमानी दीन ख़त्म कर दियह गयह क्योकि जब कामिल आ जाये तो नाक़िस की कोई ज़रूरत बाक़ी नही रह जाती ,दीने इस्लाम को ख़ुदा वंदे आलम ने हमारे प्यारे नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे वा आलिहि वसल्लम के ज़रिये इंसान की हिदायत के लियह नाज़िल फ़रमाया है ,सआदत का यह चिराग़ दुनिया वालों के लियह उस वक़्त रौशन हुआ जब इँसान और इंसानियत को बुराईयों और ख़राबियों के अँधेरों ने घेर रखा था।

खु़दा की तरफ़ से भेजा गया यह मुक़द्दस दीन ऐसा है कि हर फ़र्द और हर तबक़ा उस के मुताबिक़ अपनी ज़िन्दगी गुज़ार कर दुनिया व आख़िरत की बेहतरीन ख़ुशियाँ हासिल कर सकता है।

बुढ़े व बच्चे ,पढ़े लिखे व अनपढ़ ,मर्द व औरत ,अमीर व ग़रीब सब के सब मसावी तौर पर दीने इस्लाम से फ़ायदा उठा सकते हैं इस लिये कि इस्लाम दीने फ़ितरत है और फ़ितरत इँसानों के तमाम तर इख़्तिलाफ़ात के बावजूद सब के अंदर एक जैसी होती है।

नतीजा यह हुआ कि इस्लाम एक ऐसा दीन है जो इँसानों की बुनियादी और फ़ितरी मुश्किलों को हल करता है लिहाज़ा यह हमेशा ज़िन्दा रहने वाला दीन है। यह बात भी वाज़ेह है कि इस्लाम आसान दीन है और इँसान पर सख़्ती नही करता ,ख़ुदा वंदे आलम ने इस दीन के बुनियादी उसूल व क़वायद अपनी किताब क़ुरआने मजीद में बयान फ़रमाया है जो पैग़म्बरे इस्लाम (स) पर नाज़िल हुई है।

ख़ुलासा

-लुग़त में दीन ,इताअत और जज़ा के मअना में है और इस्तेलाह में उन अमली व अख़लाक़ी अहकाम को दीन कहते हैं जिसे ख़ुदा वंद ने नबियों के ज़रिये नाज़िल फ़रमाया है।

-हर इँसान के लियह दीन ज़रुरी है क्योकि वह दीन के बग़ैर अपनी ज़िन्दगी में सआदत हासिल नही कर सकता।

-सिर्फ़ ख़ुदा ,इँसान की ज़िन्दगी के लियह क़ानून बना सकता है क्योकि वह हर चीज़ का जानने वाला है।

-दीने इस्लाम ,आख़िरी और कामिल आसमानी दीन है जिसे हमारे नबी हज़रत मुहम्मद (स) ले कर आयह हैं और उस के बुनियादी क़वानीन क़ुरआने मजीद में मौजूद हैं।

-इस्लाम दीने फ़ितरत है लिहाज़ा यह दीन बड़े छोटे ,पढ़े लिखे ,ज़ाहिल ,मर्द व औरत ,गोरे काले ,अमीर व ग़रीब सब के लियह सआदत बख़्श है।

सवालात

1.इस्तेलाह में दीन के क्या मअना है ?

2.दीन का होना क्यों ज़रुरी है ?

3.इंसान अपनी ज़िन्दगी के लियह क़ानून क्यो नही बना सकता है ?

4.क्यो सिर्फ़ ख़ुदा ही इँसान की ज़िन्दगी के लिये उसूल व क़वानीन बना सकता है ?

5.क्या इस्लाम हर फ़र्द और तबक़े के लियह सआदत बख़्श है ?क्यों ?

दूसरा सबक़

दीन की हक़ीक़त

हमने पहले सबक़ में पढ़ा कि अगर हम ख़ुदा के भेजे हुए दीन और उस के ज़रिये बनाये गये उसूल और क़ानून पर अमल करें तो दुनिया व आख़िरत में सआदत मंदी हासिल कर सकते हैं। सिर्फ़ वह शख़्स सआदत मंद और ख़ुशबख़्त है जो अपनी ज़िन्दगी को गुमराही और जिहालत में न गुज़ारे बल्कि अच्छे अख़लाक़ के साथ नेक काम अंजाम दे ,दीने इस्लाम ने भी इस सआदत की तरफ़ इस अंदाज़ में दावत दी है:

1.उन सही अक़ायद का ऐहतेराम करो जिस को तुम ने अपनी अक़्ल और फ़ितरत के ज़रिये क़बूल किया है।

2.नेक और अच्छा अख़लाक़ रखो।

3.हमेशा नेक और अच्छे काम करो।

इस बुनियाद पर दीन तीन चीज़ों का मजमूआ है:

1.अक़ायद या उसूले दीन

2.अख़लाक़

3.अहकाम व अमल

1.अक़ायद व उसूले दीन

अगर हम अपनी अक़्ल व शुऊर का सहारा लें तो मालूम होगा कि इतनी बड़ी दुनिया और उस की हैरत अंगेज़ निज़ाम ख़ुद ब ख़ुद वुजूद में नही आ सकता और उसमें पाया जाने वाला यह नज़्म बग़ैर किसी नज़्म देने वाले के वुजूद में नही आ सकता बल्कि ज़रुर कोई ऐसा पैदा करने वाला है जिसने अपने ला महदूद इल्म व ताक़त और तदबीर के ज़रिये इस दुनिया को बनाया है और वही उस के निज़ाम को एक मोहकम व उस्तवार क़ानून के साथ चला रहा है ,उसने कोई चीज़ बे मक़सद पैदा नही की है और दुनिया का छोटी बड़ी कोई भी चीज़ उस के क़ानून से बाहर नही है।

इसी तरह इस बात को भी नही माना जा सकता कि ऐसा मेहरबान ख़ुदा जिसने अपने लुत्फ़ व करम के ज़रिये इंसान को पैदा किया है वह इँसानी समाज को उस की अक़्ल पर छोड़ दे जो अकसर हवा व हवस का शिकार रहती है लिहाज़ा ज़रुरी है कि खु़दा ऐसे नबियों के ज़रिये कुछ उसूल व क़वानीन भेजे जो मासूम हो यानी जिन से ग़लती न होती हो और यह भी ज़रुरी है कि ख़ुदा कुछ ऐसे लोगों को आख़िरी नबी का जानशीन बनाये जो उन के बाद उन के दीन को आगे बढ़ाये और नबी की ख़ुद भी मासूम हों।

चूँकि ख़ुदा के बताए हुए रास्ते पर अमल करने या न करने की जज़ा या सज़ा इस महदूद और मिट जाने वाली दुनिया में पूरी तरह से ज़ाहिर नही हो सकती लिहाज़ा ज़रुरी है कि एक ऐसा मरहला हो जहाँ इंसान के अच्छे या बुरे कामों का ईनाम या सज़ा दी जा सके। किताब के अगले भाग में इसी के बारे में बताया जायेगा।

2.अख़लाक़

दीन हमें हुक्म देता है कि अच्छी सिफ़तों और आदतों को अपनायें ,हमेशा ख़ुद को अच्छा बनाने की कोशिश करें। फ़र्ज़ शिनास ,ख़ैर ख़्वाह ,मेहरबान ,ख़ुशमिज़ाज

और दूसरों से मुहब्बत रखने वाले बनें ,हक़ की तरफ़दारी करें ,ग़लत का कभी साथ न दें ,कहीं भी हद से आगे न बढ़ें ,दूसरों की जान ,माल ,ईज़्ज़त का ख़्याल रखें ,इल्म हासिल करने में सुस्ती न करें ,ख़ुलासा यह कि ज़िन्दगी के हर मरहले में अदालत की रिआयत करें।

3.अहकाम व अमल

दीन हमें यह भी हुक्म देता है कि हम वह काम अंजाम दें जिस में हमारी और समाज की भलाई हो और उन कामों से बचें जो इंफ़ेरादी या समाजी ज़िन्दगी में फ़साद या बुराई का सबब बनते हैं। इबादत की सूरत में ऐसे आमाल अंजाम दें जो बंदगी और फ़रमाँ बरदारी की अलामत हैं जैसे नमाज़ ,रोज़ा और उस के अलावा तमाम वाजिबात को अंजाम दें और तमाम हराम चीज़ों से परहेज़ करें।

यही वह क़वानीन हैं जो दीन लेकर आया है और जिस की तरफ़ हमे दावत देता है ज़ाहिर है कि उन में से बाज़ क़वानीन ऐतेक़ादी है यानी उसूले दीन से मुतअल्लिक़ हैं ,बाज़ अख़लाक़ी है और बाज़ अमली हैं ,दीन के यह तीनों हिस्से एक दूसरे से जुदा नही हैं बल्कि जंजीर की कड़ियों की तरह एक दूसरे से मिले हुए हैं। इन्ही क़वानीन पर अमल करके इंसान सआदत हासिल कर सकता है।

ख़ुलासा

-वह शख़्स सआदतमंद है जो अपनी ज़िन्दगी को जिहालत और गुमराही में न गुज़ारे ,अच्छा अख़लाक़ रखता हो और अच्छे काम करता हो।

-दीन तीन हिस्सों में तक़सीम होता है:

1.अक़ायद या उसूले दीन

2.अख़लाक़

3.अहकाम व अमल।

-दीन के यह तीनों हिस्से एक दूसरे से जुदा नही है बल्कि जंजीर की कड़ियों की तरह एक दूसरे जुड़े हुए हैं।

सवालात

1.कौन सआदतमंद हैं ?

2.दीन के कितने हिस्से हैं ?मुख़्तसर बयान करें

3.क्या दीन के तीनों हिस्से एक दूसरे अलग हैं ?

तीसरा सबक़

उसूले दीन में तक़लीद करना सही नही है

हमारे समाज में बहुत से लोग उसूले दीन पर ईमान रखते हैं और फ़ुरु ए दीन पर अमल करते हैं लेकिन उन में कुछ ऐसे अफ़राद भी हैं जो फ़ुरु ए दीन की तरह उसूले दीन में भी तक़लीद करते हैं यानी वह जिस तरह से नमाज़ ,रोज़े के मसायल में किसी मुजतहिद की तक़लीद करते हैं उसी तरह तौहीद ,अद्ल ,नबुव्वत ,इमामत और क़यामत के बारे में भी अपने बुज़ुर्गों की तक़लीद करते हैं और कहते हैं: क्योकि हमारे बाप दादा ने कहा है कि ख़ुदा एक है ,आदिल है ,हज़रत मुहम्मद (स) नबी है ,इमाम बारह हैं और क़यामत आयेगी। इस लिये हम भी उन सब चीज़ों पर यक़ीन रखते हैं। लेकिन यह तरीक़ा बिल्कुल दुरुस्त नही है ,इस लिये कि उसूले दीन में तक़लीद जायज़ ही नही है।

हर इंसान के लिये ज़रुरी है कि वह उसूले दीन (तौहीद ,अद्ल ,नबुव्वत ,इमामत और क़यामत) पर दलील के साथ ईमान रखें और सिर्फ़ इस बात पर बस न करें कि चुँकि हमारे बाप दादा मुसलमान हैं लिहाज़ा हम भी मुसलमान है।

अब सवाल यह है कि उसूले दीन को दलील के साथ जानने के लिये कितनी किताबों का मुतालआ किया जाये और कौन कौन सी मोटी मोटी किताबों को पढ़ा जाये ?उस का जवाब यह है कि दलील जानने के लियह मोटी मोटी किताबों का मुतालआ करने की ज़रुरत नही है बल्कि इंसान सिर्फ़ आसान और सादा दलीलों को छोटी छोटी किताबों को पढ़ने या आलिमों से सवाल करने के ज़रिये जान ले तो यही काफ़ी है। हाँ अगर ज़्यादा जानना चाहता है तो बड़ी बड़ी किताबों का मुतालआ और इस सिलसिले में तहक़ीक़ करना बेहद फ़ायदे मंद साबित होगा।

फ़िर यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि सादा और आसान दलील से क्या मुराद है ?किसी दलील के सादा और आसान होने का मेयार क्या है ?इस के जवाब में हम आप के लिये एक मिसाल पेश करते हैं जिस से आप समझ सकते हैं कि सादा दलील क्या होती है। एक बुढ़िया चर्ख़ा चला रही थी ,उसी हालत में उससे पूछा गया कि ख़ुदा के वुजूद पर तुम्हारे पास क्या दलील है ?तुम कैसे यक़ीन रखती हो कि कोई ख़ुदा है ?उसने फ़ौरन चर्खे से हाथ हटा लिया जिस की वजह से चर्खा रुक गया तो बुढ़िया ने कहा: जब यह छोटा सा चर्खा किसी चलाने वाले के ब़ग़ैर नही चल सकता तो इतनी बड़ी दुनिया किसी चलाने वाले के बग़ैर किस तरह से चल सकती है ?इस दुनिया का पूरे नज़्म के साथ चलते रहना इस बात की दलील है कि कोई ख़ुदा है जो उसे चला रहा है।

बुढ़िया के इस वाक़ेया से सादा और आसान दलील का मेयार समझ में आ जाता है। अब हम से अगर कोई कहे कि ख़ुदा के वुजूद को साबित करो तो हम उसे यह जवाब दे सकते हैं कि हर चीज़ का कोई न कोई बनाने वाला होता है ,हर चीज़ का कोई न कोई चलाने वाला होता है लिहाज़ा इतनी बड़ी दुनिया को चलाने वाला कोई न कोई ज़रुर है और वह ख़ुदा है।

नोट: हाँ अगर किसी दीनदार और क़ाबिले ऐतेमाद आलिमें दीन की बताई हुई दलील की बुनियाद पर यक़ीन हासिल हो जाये तो उसे उस यक़ीन की बुनियाद पर उसूले दीन को क़बूल कर सकता है और इसमें कोई हरज भी नही है। इस लियह कि क़ुरआने पाक में तक़लीद के बारे में काफ़िरों को बुरा भला कहा गया है वह उन के लिये यक़ीन हासिल न होने की वजह से है क्योकि वह गुमान पर अमल करते थे जैसा कि इरशाद हो रहा है:

وما لهم بذلک من علم ان هم الا یظنون .

उन्हे इस का यक़ीन नही है बल्कि वह सिर्फ़ गुमान करते हैं। (सूरह जासिया आयत 24)

खु़लासा

-उसूले दीन में तक़लीद जायज़ नही है बल्कि उन उसूल को सादा और आसान दलीलों के ज़रिये जानना ज़रुरी है लिहाज़ा हम यह नही कह सकते कि चुँकि तौहीद ,अद्ल ,नबुव्वत ,इमामत और क़यामत पर हमारे बुज़ुर्गों को ईमान है लिहाज़ा हम भी उन पाँचों उसूलों पर ईमान रखते हैं।

-सादा और आसान दलील की मिसाल ,चर्ख़ा चलाने वाली बुढ़िया का वाक़ेया है जिस के पढ़ने के बाद मालूम हो जाता है कि सादा और आसान दलील का मेयार क्या है।

सवालात

1.क्या उसूले दीन में तक़लीद करना जायज़ है ?

2.उसूले दीन पर किस तरह ईमान रखना चाहिये ?

3.सादा और आसान दलील का क्या मतलब है ?

चौथा सबक़

ख़ुदा की मारेफ़त फितरी है

ख़ुदा की मारेफ़त हासिल करना एक फ़ितरी अम्र है जो हर इंसान के अंदर पाया जाता है। फ़ितरी होने का मतलब यह है कि इंसान को यह सिखाया नही जाता कि कोई ख़ुदा है जिसने इस दुनिया को बनाया है बल्कि अपने जम़ीर और फ़ितरत की तरफ़ मुतवज्जे होते ही वह यह जान लेता है कि किसी आलिम व क़ादिर ज़ात ने इस दुनिया को पैदा किया है ,उस का दिल ख़ुदा से आशना होता है और उस की रूह की गहराईयों से मारेफ़ते ख़ुदा की आवाज़ें सुनाई देती हैं।

उलामा और दानिशवरों ने अपने इल्मी तजरुबों से यह साबित किया है कि अगर किसी बच्चे को पैदा होने के बाद किसी ऐसे दूर दराज़ इलाक़े में छोड़ दिया जाये जहाँ इंसानों का साया भी न पाया जाता हो ,किसी तरह का कोई दीन या मज़हब मौजूद न हो तो जब यह बच्चा समझदार होगा तो ख़ुद ब ख़ुद वह उस ज़ात की तरफ़ मायल हो जायेगा जिसने इस दुनिया को पैदा किया है ,हाँ यह मुमकिन है कि वह पहचान में ग़लती करते हुए किसी जानवर या पेड़ पौधे या दूसरी चीज़ों को ख़ुदा समझ बैठे लेकिन उस के इस काम से यह बात ज़रुर साबित हो जाता है कि ख़ुदा की मारेफ़त हासिल करना फ़ितरी है। इंसान की यह पाक फ़ितरत और वक़्त और ज़्यादा जलवा नुमा होती है जब वह किसी बला या मुसीबत में फंस जाता है और निजात के सारे रास्ते बंद पाता है ,ऐसी सूरत में उसे अपने अंदर एक आवाज़ सुनाई देती है कि अब भी एक ज़ात ऐसी है जो उसे इस मुसीबत से निजात दे सकती है। मिसाल के तौर पर कोई ऐसा शख़्स जिस के बहुत से क़वी और ख़तरनाक जानी दुश्मन हैं जो उसे क़त्ल करना चाहते हैं उन्होने अपने हथियारों को इस लिये तैयार कर रखा है कि उस के बदन को टुकड़े टुकड़े कर डालें। वह नही जानता कि वह दुश्मनों के हाथ लग जाये और वह उसे क़त्ल कर दें ,ख़ौफ़ से न रातों को नींद आती है न दिन का चैन हासिल है और निजात की उम्मीदें हर तरफ़ से ख़त्म हो गई हैं ,ऐसी सूरत में अगर कोई उस से सवाल करे कि क्या कोई निजात का रास्ता है ?तो वह जवाब देगा कि अब ख़ुदा ही बचा सकता है।

एक शख़्स ने इमाम जाफ़र सादिक (अ) से ख़ुदा के वुजूद के बारे में सवाल किया तो आप ने फ़रमाया: कभी कश्ती का सफ़र किया है। उसने जवाब दिया जी हाँ ,फ़रमाया: क्या कभी ऐसा हुआ है कि तुम्हारी नाव डूबने लगी हो ,तुम्हे तैरना न आता हो और बचने का कोई रास्ता न हो ?जवाब दिया: जी हाँ। फ़रमाया क्या तुम्हारा दिल उस वक़्त किसी ऐसी चीज़ की तरफ़ मुतवज्जे था जो उस वक़्त भी तुम्हे उस ख़ौफ़नाक मन्ज़र से निजात दे सके ?जवाब दिया जी हाँ फ़रमाया: वह वही ख़ुदा है जो उस वक़्त भी निजात दे सकता है जब कोई निजात देने वाला न हो और वही है जो उस वक़्त भी मदद कर सकता है जब कोई मददगार न हो।[1] उसी पाक फ़ितरत की तरफ़ इशारा करते हुए ख़ुदा वंदे आलम क़ुरआने मजीद में फ़रमाता है:

فطرة الله التی فطر الناس علیها لا تبدیل لخلق الله

यह दीन वह फ़ितरते इलाही है जिस पर उसने इंसानो को पैदा किया है ,ख़िलक़ते ख़ुदा में कोई तब्दीली नही आ सकती। (सूरए रूम आयत 30)

ख़ुलासा

-ख़ुदा की मारेफ़त के फ़ितरी होने के मतलब यह है कि इंसानों को यह सिखाया नही जा सकता कि इस दुनिया का कोई पैदा करने वाला मौजूद है बल्कि उस की रूह की गहराईयों से मारेफ़ते ख़ुदा की आवाज़ सुनाई देती है।

-इंसान की यह पाक फ़ितरत उस वक़्त और जलवा नुमा होती है जब वह किसी बला मुसीबत में फंस जाता है और अपने लिये निजात के सारे रास्ते बंद पाता है ,ऐसी सूरत में उस की ज़मीर कहता है कि अब भी कोई ज़ात है जो उसे बचा सकती है और वह ख़ुदा है।

सवालात

1.मारेफ़ते ख़ुदा के फ़ितरी होने का क्या मतलब है ?

2.इंसान की यह पाक फ़ितरत किस वक़्त ज़्यादा जलवा नुमा होती है ?

3.वुजूदे ख़ुदा के बारे में सवाल करने वाले शख़्स के जवाब में इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) ने क्या फ़रमाया वाक़ेया नक़्ल कीजिये ?

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[1].हक़्क़ुल यक़ीन ,शुब्बर ,पेज 8

पाँचवा सबक़

दुनिया का हैरत अंगेज़ निज़ाम और ख़ुदा की मारेफ़त

हमारी निगाह जब किसी मुनज़्ज़म और सजी हुई चीज़ पर पड़ती है तो फ़ौरन हमारे ज़ेहन में यह ख़्याल आता है कि ज़रुर कोई न कोई इस का नज़्म देने वाला है जिसने इस चीज़ को नज़्म दिया है। इसलिये कि हम यह जानते हैं कि ख़ुद ब ख़ुद या किसी हादसे ( blast)के ज़रिये वुजूद में आने वाली चीज़ सजी हुई नही होती बल्कि वह हर तरह के नज़्म से दूर और बिखरी हुई होती है।

जब हम कूलर ,टी वी ,रेडियों ,गाड़ी ,फ़ोन ,इंटरनेट और दीगर मशीनों के नज़्म पर नज़र डालते हैं तो क्या इस बात के क़ायल होते हैं कि यह तमाम चीज़ें और उनका नज़्म ख़ुद ब ख़ुद वुजूद में आ गया है ?नही ,हरगिज़ नही बल्कि अगर कोई ऐसा कह भी दे तो दूसरे उसका मज़ाक़ उड़ायेगें ,तो जब आप उन छोटी छोटी चीज़ों के बारे में यक़ीन नही कर सकते कि उन का नज़्म बग़ैर किसी नज़्म देने वाले के वुजूद में आया है तो क्या आप इस बात पर यक़ीन कर सकते हैं कि यह हैरत अँगेज़ दुनिया और उसका अजीब व ग़रीब निज़ाम बिना किसी नज़्म देने वाले के ख़ुद ब ख़ुद वुजूद में आ गया है ?।

दानिशवर हज़रात इसी नज़्म में ग़ौर व फ़िक्र करने के बाद हैरत अंगेज़ चीज़ों को ईजाद करते हैं ,किसान भी इसी नज़्म की वजह से खेती की हरियाली का इंतेज़ार करता है ,इसी नज़्म की बुनियाद पर बारिश के बारे में भविष्यवाणी की जाती है ,न्यूटरोन ,प्रोटोन और इलेक्टरोन भी इसी नज़्म की वजह से अपनी धूरी पर धूम रहे हैं ,दिन व रात इसी नज़्म की नतीजा हैं ,चमकते तारे ,हरे भरे पेड़ ,चाँद ,सूरज ,दरिया....... सब के सब इसी नज़्म की वजह से मौजूद हैं ,गोया दुनिया का पूरा निज़ाम एक ख़ास नज़्म के तहत है और अगर यह नज़्म न हो तो फिर कुछ न हो।

यही वजह है कि काफ़िर और नास्तिक दानिशवर भी जैसे जैसे दुनिया के नज़्म के सिलसिले में तहक़ीक़ात करते जाते हैं उनके दिल में ईमान की किरण फूटती रहती है और वह लोग वुजूदे ख़ुदा के क़ायल होते जाते हैं।

लापस नुजूमी ( astronomer)कहता है कि मुम्किन नही है कि मंज़ूम ए शम्सी के बारे में यह कहा जाये कि यह ख़ुद ब ख़ुद blastके ज़रिये वुजूद में आया है ,बल्कि ऐतेराफ़ करना पड़ेगा कि एक ज़ात (ख़ुदा) है जिसने यह नज़्म पैदा किया है।[1]

न्यूटन कहता है कि कान की बनावट से हमें समझ में आता है कि उसका बनाने वाला आवाज़ के तमाम क़वानीन से आशना था और आँख को देख कर मालूम होता है कि उसे पैदा करने वाला नूर और रौशनी के पेचीदा और मुश्किल क़ानूनों को जानता था।[2]

दुनिया के इस हैरत अंगेज़ नज़्म के सिलसिले में क़ुरआने मजीद में इरशाद होता है:

....وخلق کل شی فقدره تقدیرا

(ख़ुदा वंदे आलम) ने हर चीज़ को पैदा किया और उस के लिये एक ख़ास नज़्म और अंदाज़ा बनाया है। (सूरह फ़ुरक़ान आयत 2)

ख़ुलासा

-जब हम किसी सजी हुई चीज़ को देखते हैं तो फ़ौरन समझ जाते हैं कि ज़रुर कोई न कोई है जिसने उसे सजाया है। लिहाज़ा यह पूरी दुनिया और उसका निज़ाम हैरत अंगेज़ नज़्म बग़ैर किसी नज़्म देने वाले या सजाने वाले के वुजूद में नही आ सकता और वह नज़्म देने वाला ख़ुदा वंदे आलम है।

-बड़े बड़े दानिशवरों ने भी अपनी तहक़ीक़ात के बाद ख़ुदा के वुजूद का ऐतेराफ़ किया है। न्यूटन कहता है कि कान की बनावट से समझ में आता है कि उस का बनाने वाला आवाज़ के तमाम क़वानीन से आशना था और आँख को देख कर मालूम होता है कि उसे पैदा करने वाला नूर और रौशनी के पेचीदा और मुश्किल क़वानीन से वाकि़फ़ था।

सवालात

1.यह दुनिया और उसका हैरत अंगेज़ निज़ाम ख़ुद ब ख़ुद वुजूद में क्यों नही आ सकता ?

2.लापस नुजूमी ( astronomer)ने इस दुनिया के नज़्म के बारे में क्या कहा है ?

[1].सुख़नी दर बारए ख़ुदा पेज 54

[2].आफ़रिदगारे जहान पेज 225

छठा सबक़

तौहीद और उस की दलीलें

तौहीद यानी ख़ुदा की वहदानियत क़ायल होना और उसे एक मानना। तौहीद के मुक़ाबले में शिक्र का इस्तेमाल होता है जिस का मतलब ख़ुदा वंदे आलम के कामों में किसी को शरीक मानना या बहुत से ख़ुदाओं को मानना। नबियों की दावत और उसूले दीन की पहली बुनियाद यही ‘’तौहीद ’ है। तौहीद को न मान कर शिक्र को मानना क़ुरआने मजीद की नज़र में अज़ीम ज़ुल्म है:

ان الشرک لظلم عظیم

बेशक शिक्र बहुत बड़ा ज़ुल्म है। (सुरह लुक़मान आयत 13)

अल्लाह के एक होने की दलीलें 1.जब आप पेन्टिंग ( painting)की किसी नुमाईशगाह में जाते हैं तो आप की नज़र एक ऐसी पेंटिंग पर पड़ती है जो बहुत ख़ूब सूरत और अनोखी है ,जब आप उसके और क़रीब जाते हैं तो देखते हैं कि उसमें एक ही तरह का नज़्म पाया जाता है और उसका हर कोना दूसरे से मिलता जुलता है और किसी तरह का इख़्तिलाफ़ उस के अंदर मौजूद नही है तो आप यक़ीन कर लेतें हैं कि उस का बनाने वाला कोई एक शख़्स है जिसने उसमें अपना हुनर दिखाया है और यह ख़ूब सूरत पेंटिंग वुजूद में आ गई। इस लिये कि अगर उसके बनाने वाले एक से ज़्यादा होते तो कहीं कहीं उस में इख़्तिलाफ़ वुजूद में आ ही जाता।

यह दुनिया भी ऐसी ही एक अज़ीम पेटिंग हैं जिस का बनाने वाला ख़ुद ख़ुदा है और चुँकि इस दुनिया में एक ही निज़ाम पाया जाता है लिहाज़ा मानना पड़ेगा कि ख़ुदा भी एक है जिसने इस निज़ाम को क़ायम किया है। दानिशवरों का भी यह कहना है कि दुनिया एक ही निज़ाम के तहत चल रही है।

हिशाम बिन हकम ने इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) से सवाल किया: ख़ुदा के एक होने की दलील क्या है ?

फ़रमाया: दुनिया की चीज़ों का एक दूसरे से जुड़े होना और मख़लूक़ात का कामिल होना ख़ुदा के एक होने की दलील है।[1] इस हदीस में इमाम (अ) ने दुनिया पर एक ही निज़ाम के हाकिम होने को ही ख़ुदा की वहदानियत की दलील बताया है।

2.अल्लाह के एक होने की दूसरी दलील यह है कि जितने भी नबी आये ,सब ने एक ख़ुदा की तरफ़ दावत दी और किसी ने भी यह नही कहा कि हम किसी दूसरे ख़ुदा की तरफ़ से आये हैं। हर नबी ने अपने बाद आने वाले नबी के बारे में ख़बर दी है ,हज़रत मूसा (अ) ने हज़रत ईसा (अ) और हज़रत ईसा (अ) ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बारे में ख़बर दी है जिस से मालूम होता है कि नबुव्वत का सारा सिलसिला एक ही ख़ुदा पर ख़त्म होता है और अगर बहुत से ख़ुदा होते तो मूसा (अ) कहते कि मैं किसी और ख़ुदा की तरफ़ से आया हूँ ,ईसा (अ) कहते कि मैं किसी और ख़ुदा की तरफ़ से आया हूँ ,इसी तरह पैग़म्बरे अकरम (स) कहते कि मेरा ख़ुदा मूसा और ईसा के ख़ुदा से अलग है।

इन दो दलीलों के अलावा भी बहुत सी दलीलें बड़ी किताबों में मौजूद हैं जिन से मालूम होता है कि ख़ुदा सिर्फ़ एक है।

ख़ुलासा

-तौहीद यानी ख़ुदा को एक मानना ,तौहीद के मुक़ाबले में शिर्क है जो क़ुरआने करीम की नज़र में अज़ीम ज़ुल्म है।

-कायनात में एक ही निज़ाम की हुक्मरानी इस बात की दलील है कि जिस ख़ुदा ने यह निज़ाम क़ायम किया है वह भी एक है।

-अल्लाह के एक होने की दूसरी दलील यह है कि सारे नबी इसी बात के दावेदार थे कि हम एक ही ख़ुदा की तरफ़ से भेजे गये हैं।

सवालात

1.तौहीद का क्या मतलब है ?

2.पूरी कायनात में एक ही निज़ाम का हाकिम होना किस बात की दलील है ?कैसे ?

3.क्या सारे नबियों के ख़ुदा अलग अलग थे ?

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[1].तौहीदे शेख सदूक़ पेज 250

सातवाँ सबक़

तौहीद की क़िस्में

हमारे उलामा ने तौहीद की चार क़िस्में बयान की हैं:

1.तौहीदे ज़ात

2.तौहीदे सिफ़ात

3.तौहीदे अफ़आल

4.तौहीद इबादत

1.तौहीदे ज़ात: अभी तक जो हमने तौहीद के बारे में पढ़ा है वह तौहीदे ज़ात ही है। तौहीदे ज़ात का मतलब यह है कि ख़ुदा की ज़ात एक है और उस का कोई शरीक नही है ,न उस को किसी ने पैदा किया है और न ही वह किसी का बाप या माँ है ,न वह किसी दूसरे का जुज है और न कोई दूसरा उस की जुज़ है यानी वह किसी चीज़ से मिल कर नही बना है।

2.तौहीद सिफ़ात: तौहीद सिफ़ात का मतलब यह है कि ख़ुदा की सिफ़ात ऐने ज़ात हैं यानी उस की सिफ़ात और उसकी ज़ात जो अलग अलग चीज़ें नही हैं ,ऐसा नही है कि ख़ुदा की ज़ात अलग है और उस की क़ुदरत अलग है या ख़ुदा की ज़ात अलग है और उसका इल्म अलग है बल्कि सही तो यह है कि ख़ुदा ही इल्म है और ख़ुदा ही क़ुदरत है।

3.तौहीद अफ़आल: तौहीदे अफ़आल का मतलब यह है कि दुनिया में जितने भी काम अंजाम पाते हैं वह ख़ुदा वंदे आलम से मुतअल्लिक़ होते हैं। इंसानों का खाना पीना ,उनकी साँसों का आना जाना ,सूरज का निकलना और डूबना ,चाँद का चमकना ,जानवरों का चलना फिरना ,नदियों का बहना ,तारों का चमकना ,यह सब कुछ हक़ीक़त में अल्लाह के काम हैं ,इंसान भी अपने कामों में ख़ुदा का मोहताज है। मिसाल के तौर पर जब हम एक बल्ब को चलता हुआ देखते हैं तो समझते हैं कि यह उस की अपनी बिजली है लेकिन ग़ौर करने के बाद मालूम होता है कि उस बल्ब की निस्बत बिजली घर से है उसी वजह से यह रौशनी दे रहा है यानी अगर बिजली घर न होता तो बल्ल बिजली देने की सलाहियत नही के बावजूद रौशनी न दे पाता। इसी तरह अगर इंसान या दूसरे जानदारों को ख़ुदा की तरफ़ से ताक़त ( power)न मिलती तो वह अपने काम को अंजाम नही दे सकते थे। लेकिन चुँकि ख़ुदा ने क़ुदरत व ताक़त के साथ इंसान को इख़्तियार भी दिया है लिहाज़ा यह नही कहा जा सकता कि अगर इंसान ने गुनाह अंजाम दिया है तो वह ख़ुदा ने अँजाम दिया है और वह गुनाह करने वाला सज़ा का हक़दार नही है। इसलिये कि जब ख़ुदा ने उसे इख़्तियार दिया है तो सज़ा देने का हक़ भी रखता है और वह हम से यह सवाल कर सकता है कि जब तुम गुनाह पर मजबूर न थे तो तुमने उसे क्यों अंजाम दिया ?

4.तौहीदे इबादत: तौहीदे इबादत का मतलब यह है कि इबादत सिर्फ़ हक़ीक़ी ख़ुदा यानी अल्लाह की करनी चाहिये क्योकि सिर्फ़ वही इबादत के लायक़ है और सिर्फ़ वह ही ऐसी सिफ़ात व कमालात का हामिल है जिन की वजह से उस की इबादत की जा सकती है।

ख़ुलासा

-तौहीद की चार क़िस्में हैं:

1.तौहीदे ज़ात: यानी ख़ुदा एक है और कोई उस का शरीक नही है।

2.तौहीदे सिफ़ात: यानी ख़ुदा की ज़ात उस की सिफ़ात से जुदा नही हैं।

3.तौहीद अफ़आल: यानी दुनिया में जो भी काम होता है सब की निस्बत ख़ुदा की तरफ़ है लेकिन यहाँ यह नही कहा जा सकता कि अगर इंसान गुनाह कर रहा है तो वह ख़ुदा का काम है। इस लिये कि ख़ुदा ने इंसान को इख़्तियार दो कर भेजा है।

4.तौहीदे इबादत: यानी इबादत के लायक़ सिर्फ़ ख़ुदा वंदे आलम है।

सवालात

1.तौहीद की क़िस्मों को मुख़्तसर वज़ाहत के साथ बयान करें ?

2.तौहीदे अफ़आल की वजह से यह कहना सही है कि अगर इंसान कोई गुनाह करे तो वह ख़ुदा ने किया है ?क्यो ?

आठवाँ सबक़

तौहीद के फ़ायदे

यह बात मुसल्लम है कि अक़ीदा इंसान पर अपना असर छोड़ता है ,अगर अक़ीदा बुरा है तो असर भी बुरा होगा और अगर अक़ीदा अच्छा है तो असर भी अच्छा होगा। तौहीद भी एक ऐसा अक़ीदा है जो मुख़्तलिफ़ जेहतों से हमारी ज़िन्दगी पर नेक और अच्छे असरात ज़ाहिर करता है। किताबों में ख़ुदा पर ईमान रखने के बहुत से फ़ायदे बयान किये गये है जिन में से बाज़ यहाँ ज़िक्र किये जा रहे हैं:

1.गुनाहों से बचना

जो शख़्स अल्लाह पर ईमान रखता है वह तमाम हालात में अल्लाह को हाज़िर व नाज़िर जानता है जिस की वजह से वह ख़ुदा वंदे आलम से शर्म करता है और गुनाह करने से बचता है नतीजे में उस की इंफ़ेरादी और समाजी ज़िन्दगी भी बेहतरीन ,सालिम और ख़ुदा पसंद हो जाती है।

2.तंहाई का अहसास न करना

इंसान एक समाजी मख़लूक़ है जो दूसरों के बग़ैर ज़िन्दगी नही गुज़ार सकता और समाज से दूर रह कर तंहाई को इख़्तियार कर लेना उस की फ़ितरत के ख़िलाफ़ है। यक़ीनन उसे कोई अपना चाहिये जो उस का हमदम और हमेशा साथ रहने वाला हो। ख़ुदा से बढ़ कर कौन अपना और हमेशा साथ रहने वाला हो सकता है इस लिये कि क़रीब से करीब तरीन शख़्स भी हर वक़्त इंसान के साथ नही रह सकता लेकिन ख़ुदा सिर्फ़ ज़िन्दगी ही में नही बल्कि मौत के बाद भी उस के साथ है। लिहाज़ा अगर कोई ख़ुदा पर ईमान रखे तो उसे किसी तरह की तंहाई का अहसास नही सतायेगा और वह हमेशा यह कहता हुआ नज़र आयेगा कि कोई नही तो ख़ुदा तो है।

3.ज़िन्दगी के मक़सद से वाक़िफ़ होना

ख़ुदा पर ईमान के ज़रिये इंसान अपने मक़सद की पहचान हासिल कर लेता है ,जब वह जान लेता है कि ख़ुदा ने हमें पैदा किया है और ख़ुदा कोई काम बे मक़सद अंजाम नही देता लिहाज़ा उसने हमें भी बे मक़सद पैदा नही किया है बल्कि ज़रुर किया हदफ़ व मक़सद के लियह पैदा किया है और वह हदफ़ व मक़सद उस की इताअत व बंदगी है तो वह अपनी ज़िम्मेदारी को भी पहचान लेता है ,हर काम ख़ुदा से करीब होने के लिये अंजाम देता है ,उस की इताअत करता है और यही उस की ज़िन्दगी का मक़सद है जिस को वह ख़ुदा पर ईमान के ज़रिये पहचान लेता है।

4.नेक कामों से न थकना

अगर सिर्फ़ लोगों को ख़ुश करने के लिये नेक काम किया जाये तो अकसर देखने में आता है कि लोग उस की क़द्र नही करते ,जब तक फ़ायदा होता रहता है लोग उस के पीछे पीछे रहते हैं और जब फ़ायदा ख़त्म हो जाता है तो उस की नेकियों को भूल कर उस के दुश्मन हो जाते हैं नतीजे में वह शख़्स मायूस हो कर नेक काम करना भूल जाता है। इसी लिये यह मुहावरा बन गया है कि ‘’नेक कर दरिया में डाल ’’ लेकिन अगर कोई शख़्स ख़ुदा पर ईमान रखे और सिर्फ़ उस को ख़ुश करने के लियह काम अंजाम दे तो लोगों की बुराईयों और उन की दुश्मनी से कभी मायूस नही होगा और नेक काम करने से कभी नही थकेगा। इसलियह कि उसे यक़ीन है कि मेरा अमल का असली ईनाम तो आदिल ख़ुदा देगा जिस के यहाँ ज़र्रा बराबर अमल भी बर्बाद नही जाता। कु़रआने मजीद में इरशाद होता है:

فمن یعمل مثقال ذرة خیرا یره

जो ज़र्रा बराबर भी नेकी करेगा उस की जज़ा पायेगा।

(सूर ए ज़िलज़ाल आयत 10)

ख़ुदा पर ईमान रखने वाले कभी नही कहते कि ‘’नेकी कर दरिया में डाल ’’ बल्कि वह यह कहते हुए नज़र आते हैं कि नेकी करो और आख़िरत के पूँजी जमा करो।

ख़ुलासा

-अक़ीदा इंसान पर अपना असर छोड़ता है ,अक़ीद ए तौहीद के भी बहुत से फ़ायदे हैं जो इंसानी ज़िन्दगी में पायह जाते हैं जिन में कुछ यह हैं:

1.गुनाहों से बचना।

2.तंहाई का अहसास न करना।

3.ज़िन्दगी के मक़सद से वाक़िफ़ होना।

4.नेक कामों से न थकना।

सवालात

1.इंसान ख़ुदा पर ईमान के ज़रिये किस तरह गुनाहों से बच सकता है ?

2.ख़ुदा पर ईमान रखने वाला नेक कामों से क्यो नही थकता ?

नवा सबक़

सिफ़ाते सुबूतिया

सिफ़ाते खु़दा की दो क़िस्में हैं: सिफ़ाते सुबूतिया और सिफ़ात सल्बिया। इस सबक़ में हम सिफ़ाते सुबूतिया के बारे में पढ़ेगें। सिफ़ाते सुबूतिया उन सिफ़तों को कहते हैं जो ख़ुदा में पाई जाती हैं और वह आठ हैं:

1.ख़ुदा अज़ली व अबदी है: अज़ली है यानी उस की कोई इब्तिदा नही है बल्कि हमेशा से है और अबदी है यानी उस की कोई इंतिहा नही है बल्कि वह हमेशा रहेगा और कभी नाबूद नही होगा।

2.ख़ुदा क़ादिर व मुख़्तार है: ख़ुदा क़ादिर है यानी हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है और वह मुख़्तार है यानी अपने कामों को अपने इरादे और इख्तियार से अंजाम देता है और कोई उसे मजबूर नही कर सकता।

3.ख़ुदा आलिम है: ख़ुदा वंदे आलम तमाम चीज़ों के बारे में कामिल तौर पर जानता है और वह हर चीज़ से वाक़िफ़ है ,जिस तरह वह किसी चीज़ के वुजूद में आने के बाद उसे जानता है उसी तरह वुजूद में आने से पहले जानता है।

4.ख़ुदा मुदरिक है: यानी वह हर चीज़ को समझता है ,वह कान नही रखता लेकिन तमाम बातों को सुनता है ,आँख नही रखता लेकिन तमाम चीज़ों को देखता है।

5.ख़ुदा हई है: यानी वह हयात रखता है और ज़िन्दा है।

6.ख़ुदा मुरीद है: यानी वह कामों की मसलहत से आगाह है वह वही काम अंजाम देता है जिस में मसलहत हो और कोई भी काम अपने इरादे और मसलहत के बग़ैर अंजाम नही देता।

7.ख़ुदा मुतकल्लिम है: यानी वह कलाम करता है लेकिन ज़बान से नही बल्कि दूसरी चीज़ों में बोलने की क़ुदरत पैदा कर देता है और फ़रिश्तों या अपने वलियों से हम कलाम होता है। जैसा कि उस ने पेड़ में क़ुदरते कलाम पैदा की और हज़रत मूसा (अ) से बात की ,इसी तरह वह आसमान को बोलने की ताक़त देता है तो फ़रिश्ते सुनते हैं और वहयी लेकर नाज़िल होते हैं।

8.ख़ुदा सादिक़ है: यानी वह सच्चा है और झूठ नही बोलता। इस लिये कि झूठ बोलना अक़्ल की नज़र से एक बुरा काम है और ख़ुदा बुरा काम अंजाम नही देता।

तमाम सिफ़ाते सुबूतिया की मज़बूत और मोहकम दलीलें बड़ी किताबों में मौजूद हैं जिन से यह मालूम होता है कि अल्लाह तआला क्यों अज़ली ,अबदी ,क़ादिर व मुख़्तार ,आलिम ,मुदरिक ,हई ,मुरीद ,मुतकल्लिम और सादिक़ है।

ख़ुलासा

-सिफ़ाते ख़ुदा की दो क़िस्में हैं:

1.सिफ़ाते सुबूतिया

2.सिफ़ाते सल्बिया

-सिफ़ाते सुबूतिया उन सिफ़ात को कहते हैं जो ख़ुदा में पाई जाती हैं और वह सिफ़ात आठ हैं:

1.अज़ली व अबदी

2.क़ादिर व मुख़्तार

3.आलिम

4.मुदरिक

5.हई

6.मुरीद

7.मुतकल्लिम

8.सादिक़

सवालात

1.सिफ़ाते सुबूतिया की तारीफ़ बयान करें ?

2.ख़ुदा के मुदरिक ,हई और मुरीद होने का क्या मतलब है ?

3.ख़ुदा के अज़ली व अबदी होने के क्या मअना हैं ?

दसवाँ सबक़

सिफ़ाते सल्बिया

पिछले सबक़ में हमने पढ़ा कि ख़ुदा की सिफ़ात की दो क़िस्में हैं: सिफ़ाते सुबूतिया और सिफ़ाते सल्बिया। हम सिफ़ाते सल्बिया के बारे में आशनाई हासिल कर चुके और अब हम इस सबक़ में सिफ़ाते सल्बिया के बारे में पढ़ेगें।

सिफ़ाते सल्बिया उन सिफ़तों को कहते हैं जिन में ऐब व कमी और बुराई के मअना पाये जाते हैं। ख़ुदा वंदे आलम इस तरह के तमाम सिफ़ात से दूर है और उस में यह सिफ़तें नही पाई जाती हैं। आम तौर पर हमारे उलामा सात सिफ़ाते सल्बिया को बयान करते हैं:

1.ख़ुदा शरीक नही रखता: यानी ख़ुदा वाहिद है ,कोई ख़ुदा के बराबर और उस के जैसा नही है ,वह वाहिद है और अपने तमाम कामों को तन्हा अंजाम देता है। सिर्फ़ वही इबादत के लायक़ और सब का पैदा करने वाला है।

2.ख़ुदा मुरक्कब नही है: यानी वह कई चीज़ों से मिल कर नही बना है ,न वह किसी का जुज़ है और न कोई दूसरा उस का जुज़ है वह मिट्टी ,पानी ,आग ,हवा ,हाथ ,पैर ,आँख ,नाक ,कान या दूसरी चीज़ से मिल कर नही बना है।

3.ख़ुदा जिस्म नही रखता: जिस्म उस चीज़ को कहते हैं जिस में लम्बाई ,चौड़ाई और गहराई पाई जाती हो। लम्बाई ,चौड़ाई और गहराई महदूद होती है लेकिन ख़ुदा वंदे आलम ला महदूद है और उस की कोई हद नही है लिहाज़ा उस की लम्बाई ,चौड़ाई या गहराई का तसव्वुर नही किया जा सकता।

4.ख़ुदा दिखाई नही देता: न वह दुनिया में दिखाई देता है और न आख़िरत में दिखाई देगा। इस लिये कि वह चीज़ दिखाई देती है जो जिस्म रखती हो लेकिन हम जानते हैं कि ख़ुदा जिस्म नही रखता।

5.ख़ुदा पर हालात तारी नही होते: यानी उस में भूल ,नींद ,थकन ,लज़्ज़त ,दर्द ,बीमारी ,जवानी ,बुढ़ापा और उन जैसी दूसरी हालतें नही पाई जाती हैं इस लिये कि ऐसी चीज़ें ऐब और कमी है और ख़ुदा तरह के ऐब से पाक है।

6.ख़ुदा मकान नही रखता: यानी ख़ुदा हर जगह है इस लियह कि वह ला महदूद है ,उस की कोई हद नही है ,मकान वह रखता है जो महदूद हो।

7.ख़ुदा मोहताज नही है: यानी ख़ुदा हर चीज़ से बेनियाज़ है ,न वह अपनी ज़ात में किसी का मोहताज है और न सिफ़ात में। उलामा ने बड़ी किताबों में सिफ़ाते सुबूतिया की तरह सिफ़ाते सल्बिया की भी मज़बूत दलीलें बयान की हैं जिन को पढ़ने के बाद यह मालूम हो जाता है कि ख़ुदा वंदे आलम के अंदर सिफ़ाते सल्बिया क्यो नही पाई जाती है।

ख़ुलासा

-सिफ़ाते सल्बिया उन सिफ़तों को कहते हैं जिन में ऐब व नक़्स और बुराईयों के मअना पाये जाते हैं और ख़ुदा उन तमाम सिफ़तों से पाक है।

-सिफ़ाते सल्बिया सात है:

1.ख़ुदा शरीक नही रखता।

2.मुरक्कब नही है।

3.जिस्म नही रखता।

4.दिखाई नही देता।

5.उस पर हालात तारी नही होते।

6.वह मकान नही रखता।

7.वह किसी का मोहताज नही है।

सवालात

1.सिफ़ाते सल्बिया की तारीफ़ बयान करें ?

2.कम से कम पाँच सिफ़ात सल्बिया लिखें ?

3.ख़ुदा जिस्म क्यो नही रखता ?

4.ख़ुदा पर किस तरह के हालात तारी नही होते ?

ग्यारहवाँ सबक़

अद्ल

उसूले दीन में अद्ल को तौहीद के बाद शुमार किया जाता है। अद्ल से मुराद यह है कि अल्लाह आदिल (इंसाफ़ वाला) है और किसी पर ज़ुल्म नही करता। ख़ुदा वंदे आलम अद्ल ,नबुव्वत ,इमामत ,क़यामत ,जज़ा (ईनाम) व सज़ा ,अहकाम की हिकमतों और तमाम कामों से मुतअल्लिक़ है लिहाज़ा अगर ख़ुदा के अदल को न माना जाये को बहुत से इस्लामी मसायल हल नही हो पायेगें।

अदले ख़ुदा का मतलब

अद्ले ख़ुदा के बहुत से मअना बयान हुए हैं जिन में से बाज़ यह हैं:

1.ख़ुदा आदिल है यानी वह हर ऐसे काम से पाक है जो मसलहत और हिकमत के बर ख़िलाफ़ हो।

2.ख़ुदा आदिल है यानी उस की बारगाह में तमाम इंसान बराबर हैं और अमीर ग़रीब ,गोरे काले ,आलिम जाहिल ,वग़ैरह सब एक जैसे हैं ,बड़ाई का पैमाना और मेयार सिर्फ़ तक़वा और परहेज़गारी है। क्यो कि क़ुरआने मजीद में इरशाद होता है:

ان اکرمکم عندالله اتقاکم

बेशक ख़ुदा के नज़दीक तुम में से सब से ज़्यादा इज़्ज़त और फ़ज़ीलत वाला वह है जो सब से ज़्यादा मुत्तक़ी (परहेज़गार) हो। (सूर ए हुजरात आयत 13)

3.ख़ुदा आदिल है यानी किसी के ज़र्रा बराबर अमल को भी बेकार नही जाने देता। क़ुरआने मजीद में इरशाद है: فمن یعمل مثقال ذرة خیرا یره ومن یعمل مثقال ذرة شرا یره

जो ज़र्रा बराबर भी नेकी करेगा उस की जज़ा (ईनाम) पायेगा और जो ज़र्रा बराबर भी बुराई करेगा उस की सज़ा पायहगा।

अदले ख़ुदा की दलील

ख़ुदा आदिल है और वह ज़ुल्म नही करता। इस लियह कि ज़ुल्म एक बुरा काम और ऐब है और ख़ुदा हर ऐब से पाक है ,दूसरी बात यह कि ज़ुल्म करने के बहुत से सबब (कारण) होते हैं जिन में से एक भी ख़ुदा में नही पाया जाता और वह असबाब (कारण) यह हैं:

1.जिहालत: ज़ुल्म वह करता है जो उस की बुराई को न जानता हो जब कि ख़ुदा हर चीज़ के बारे में जानता है।

2.ज़रुरत: ज़ुल्म वह करता है जो किसी चीज़ का मोहताज हो और उस चीज़ को हासिल करने के लियह उसे ज़ुल्म का सहारा लेना पड़े। लेकिन ख़ुदा किसी चीज़ का मोहताज नही है।

3.आजिज़ी: ज़ुल्म वह करता है जो ख़ुद से किसी ख़तरे को टालने में बेबस हो और आख़िर कार उसे ज़ुल्म का सहारा लेना पड़े। लेकिन ख़ुद आजिज़ और बेबस नही है बल्कि हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।

4.बद अख़लाक़ी: ज़ुल्म वह करता है जो बुरा अख़लाक़ रखता हो और अपने दिल में किसी की दुश्मनी लिये बैठा हो या किसी से जलता हो लेकिन ख़ुदा इन सब बुराईयों से पाक है।

इन ही चार असबाब में से किसी एक सबब की बुनियाद पर दुनिया में ज़ुल्म होते हैं लेकिन ख़ुदा वंदे आलम में इन में से एक सबब भी नही पाया जाता लिहाज़ा साबित हो जाता है कि ख़ुदा वंदे आलम ज़ालिम नही बल्कि आदिल (इंसाफ़ वाला) है।

ख़ुलासा

-अल्लाह तआला आदिल (न्याय प्रिय) है और किसी पर ज़ुल्म नही करता।

-ख़ुदा के अद्ल का मतलब यह है कि वह तमाम काम मसलहत व हिकमत की बुनियाद पर करता है ,उस की नज़र में सारे इंसान बराबर है।

-दुनिया में ज़ुल्म के चार असबाब हैं: जिहालत ,ज़रुरत ,आजिज़ी (बेबसी) ,बद अख़लाक़ी ,लेकिन ख़ुदा वंदे आलम में इन में से कोई एक सबब भी नही पाया जाता लिहाज़ा साबित हो जाता है कि ख़ुदा आदिल (इंसाफ़ वाला) है।

सवालात

1.अदले ख़ुदा के कम से कम दो मअना बयान करें ?

2.अदले ख़ुदा की क्या दलील है ?


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