खुतबाते इमाम अली (उपदेश)

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खुतबाते इमाम अली (उपदेश) लेखक:
कैटिगिरी: इमाम अली (अ)

खुतबाते इमाम अली (उपदेश)

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

लेखक: सैय्यद रज़ी र.ह
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खुतबाते इमाम अली (उपदेश)
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खुतबाते इमाम अली (उपदेश)

खुतबाते इमाम अली (उपदेश)

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

204-आपका इरशादे गिरामी

(जिसके ज़रिये अपने असहाब को आवाज़ दिया करते थे)

ख़ुदा तुम पर रहम करे , तैयार हो जाओ के तुम्हें कूच करने के लिये पुकारा जा चुका है और ख़बरदार दुनिया की तरफ़ ज़्यादा तवज्जो मत करो , जो बेहतरीन ज़ादे राह तुम्हारे सामने है उसे लेकर मालिक की बारगाह की तरफ़ पलट जाओ के तुम्हारे सामने एक बड़ी दुशवारगुज़ार घाटी है और चन्द ख़तरनाक और ख़ौफ़नाक मन्ज़िलें हैं जिनपर बहरहाल वारिद होना है और वहीं ठहरना भी है।

(((- इस्लाम का मुद्दआ तर्के दुनिया नहीं है और न वह यह चाहता है के इन्सान रहबानियत की ज़िन्दगी गुज़ारे , इस्लाम का मक़सद सिर्फ़ यह है के दुनिया इन्सान की ज़िन्दगी का वसीला रहे और इसके दिल का मकीन न बनने पाए वरना हुब्बे दुनिया इन्सान को ज़िन्दगी के हर ख़तरे से दो-चार कर सकती है और उसे किसी भी गढ़े में गिरा सकती है-)))

और यह याद रखो के मौत की निगाहें तुमसे क़रीबतर हो चुकी हैं और तुम उसके पन्जों में आ चुके हो जो तुम्हारे अन्दर गड़ाए जा चुके है। मौत के शदीदतरीन मसाएल और दुशवारतरीन मुश्किलात तुम पर छा चुके हैं , अब दुनिया के ताल्लुक़ात को ख़त्म करो और आखि़रत के ज़ादेराह तक़वा के ज़रिये अपनी ताक़त का इन्तेज़ाम करो। (वाज़ेह रहे के इससे पहले भी इस क़िस्म का एक कलाम दूसरी रिवायत के मुताबिक़ गुज़र चुका है)

205-आपका इरशादे गिरामी

(जिसमें तल्हा व ज़ुबैर को मुख़ातिब बनाया गया है जब इन दोनों ने

बैयत के बावजूद मष्विरा न करने और मदद न मांगने पर आपसे नाराज़गी का इज़हार किया)

तुमने मामूली सी बात पर तो ग़ुस्से का इज़हार कर दिया लेकिन बड़ी बातों को पसे पुश्त डाल दिया , क्या तुम यह बता सकते हो के तुम्हारा कौन सा हक़ ऐसा है जिससे मैंने तुमको महरूम कर दिया है ? या कौन सा हिस्सा ऐसा है जिसपर मैंने क़ब्ज़ा कर लिया है ? या किसी मुसलमान ने कोई मुक़द्दमा पेशकिया हो और मैं उसका फ़ैसला न कर सका हूँ या उससे नावाक़िफ़ रहा हूँ या इसमें किसी ग़लती का शिकार हो गया हूँ।

ख़ुदा गवाह है के मुझे न खि़लाफ़त की ख़्वाहिश थी और न हुकूमत की एहतियाज , तुम्हीं लोगों ने मुझे इस अम्र की दावत दी और इस पर आमादा किया। इसके बाद जब यह मेरे हाथ में आ गई तो मैंने इस सिलसिले में किताबे ख़ुदा और इसके दस्तूर पर निगाह की और जो उसने हुक्म दिया था उसी का इत्तेबाअ किया और इस तरह रसूले अकरम (स 0) की सुन्नत की इक़्तेदा की। जिसके बाद न मुझे तुम्हारी राय की कोई ज़रूरत थी और न तुम्हारे अलावा किसी की राय की और न मैं किसी हुक्म से जाहिल था के तुमसे मशविरा करता या तुम्हारे अलावा दीगर बरादराने इस्लाम से , और अगर ऐसी कोई ज़रूरत होती तो मैं न तुम्हें नज़रअन्दाज़ करता और न दीगर मुसलमानों को। रह गया यह मसला के मैंने बैतुलमाल की तक़सीम में बराबरी से काम लिया है तो यह न मेरी ज़ाती राय है और न इस पर मेरी ख़्वाहिश की हुक्मरानी है बल्कि मैंने देखा के इस सिलसिले में रसूले अकरम (स 0) की तरफ़ से हमसे पहले फ़ैसला हो चुका है तो ख़ुदा के मुअय्यन किये हुए हक़ और उसके जारी किये हुए हुक्म के बाद किसी की कोई ज़रूरत ही नहीं रह गई है।

ख़ुदा शाहिद है के इस सिलसिले में न तुम्हें शिकायत का कोई हक़ है और न तुम्हारे अलावा किसी और को , अल्लाह हम सबके दिलों को हक़ की राह पर लगा दे और सबको सब्र व शकीबाई की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए। ख़ुदा उस शख़्स पर रहमत नाज़िल करे जो हक़ को देख ले तो उस पर अमल करे या ज़ुल्म को देख ले तो उसे ठुकरा दे और साहेबे हक़ के हक़ में इसका साथ दे।

(((- अमीरूल मोमेनीन (अ 0) ने इन तमाम पहलुओं का तज़किरा इसलिये किया है ताके तल्हा व ज़ुबैर की नीयतों का मुहासेबा किया जा सके और उनके अज़ाएम की हक़ीक़तों को बेनक़ाब किया जा सके के मुझसे पहले ज़मानों में यह तमाम नक़ाएस मौजूद थे , कभी हुक़ूक़ की पामाली हो रही थी , कभी इस्लामी सरमाये को अपने घराने पर तक़सीम किया जा रहा था। कभी मुक़द्देमात में फ़ैसले से आजिज़ी का एतराफ़ था और कभी सरीही तौर पर ग़लत फ़ैसला किया जा रहा था। लेकिन इसके बावजूद तुम लोगों की रगे हमीयत व ग़ैरत को कोई जुम्बिश नहीं हुई और आज जबके ऐसा कुछ नहीं है तो तुम बग़ावत पर आमादा हो गए हो। इसका मतलब यह है के तुम्हारा ताल्लुक़ दीन और मज़हब से नहीं है। तुम्हें सिर्फ़ अपने मफ़ादात से ताल्लुक़ है जब तक यह मफ़ादात महफ़ूज़ थे , तुमने हर ग़लती पर सुकूत इख़्तेयार किया और आज जब मफ़ादात ख़तरे में पड़ गए हैं तो शोरश और हंगामे पर आमादा हो गए हो।-)))

206-आपका इरशादे गिरामी

(जब आपने जंगे सिफ़्फ़ीन के ज़माने में अपने बाज़ असहाब के बारे में सुना के वह अहले शाम को बुरा भला कह रहे हैं)

मैं तुम्हारे लिये इस बात को नापसन्द करता हूँ के तुम गालियां देने वाले हो जाओ , बेहतरीन बात यह है के तुम उनके आमाल और हालात का तज़किरा करो ताके बात भी सही रहे और हुज्जत भी तमाम हो जाए और फिर गालियां देने के बजाए यह दुआ करो के ख़ुदाया! हम सबके ख़ूनों को महफ़ूज़ कर दे और हमारे मुआमलात की इस्लाह कर दे और उन्हें गुमराही से हिदायत के रास्तु पर लगा दे ताके नावाक़िफ़ लोग हक़ से बाख़बर हो जाएं और हर्फ़े बातिल कहने वाले अपनी गुमराही और सरकशी से बाज़ आ जाएं।

(((- यह उस अम्र की तरफ़ इशारा है के मकान की वुसअत ज़ाती अग़राज़ के लिये हो तो उसका नाम दुनियादारी है , लेकिन अगर इसका मक़सद मेहमान नवाज़ी , सिलाए रहम , अदाएगीए हुक़ूक़ , हिफ़ज़े आबरू , इज़हारे अज़मत व मज़हब हो तो इसका कोई ताल्लुक़ दुनियादारी से नहीं है और यह दीन व मज़हब ही का एक शोबा है , फ़र्क़ सिर्फ़ यह है के यह फ़ैसला नीयतों से होगा और नीयतों का जानने वाला सिर्फ़ परवरदिगार है कोई दूसरा नहीं-)))

207-आपका इरशादे गिरामी

(जंगे सिफ़्फ़ीन के दौरान जब इमाम हसन (अ 0) को मैदाने जंग की तरफ़ सबक़त करते हुए देख लिया)

देखो! इस फ़रज़न्द को रोक लो कहीं इसका सदमा मुझे बेहाल न कर दे , मैं इन दोनों (हसन (अ 0) व हुसैन (अ 0)) को मौत के मुक़ाबले ज़्यादा अज़ीज़ रखता हूँ। कहीं ऐसा न हो के इनके मर जाने से नस्ले रसूल (स 0) मुन्क़ता हो जाए।

सय्यद रज़ी - “ अमलको आनी हाज़ल ग़ुलाम ” अरब का बलन्दतरीन कलाम और फ़सीहतरीन मुहावरा है।

208-आपका इरशादे गिरामी

(जो उस वक़्त इरशाद फ़रमाया जब आपके असहाब में तहकीम के बारे में इख़्तेलाफ़ हो गया था)

लोगों! याद रखो के मेरे मामलात तुम्हारे साथ बिल्कुल सही चल रहे थे जब तक जंग ने तुम्हें ख़स्ताहाल नहीं कर दिया था , इसके बाद मुआमलात बिगड़ गए हालांके ख़ुदा गवाह है के अगर जंग ने तुमसे कुछ को ले लिया और कुछ को छोड़ दिया तो इसकी ज़द तुम्हारे दुशमन पर ज़्यादा ही पड़ी है।

अफ़सोस के मैं कल तुम्हारा हाकिम था और आज महकूम बनाया जा रहा हूँ। कल तुम्हें मैं रोका करता था और आज तुम मुझे रोक रहे हो। बात सिर्फ़ यह है के तुम्हें ज़िन्दगी ज़्यादा प्यारी है और मैं तुम्हें किसी ऐसी चीज़ पर आमादा नहीं कर सकता हूँ जो तुम्हें नागवार और नापसन्द हो।

209-आपका इरशादे गिरामी

( जब बसरा में अपने सहाबी अला बिन ज़ियाद हारिसी के घर अयादत के लिये तशरीफ़ ले गए और उनके घर की वुसअत का मुशाहेदा फ़रमाया)

तुम इस दुनिया में इस क़द्र वसीअ मकान को लेकर क्या करोगे जबके आखि़रत में इसकी एहतियाज ज़्यादा है। तुम अगर चाहो तो इसके ज़रिये आखि़रत का सामान कर सकते हो के इसमें मेहमानों की ज़ियाफ़त करो। क़राबतदारों से सिलए रहम करो और मौक़े व महल के मुताबिक़ हुक़ूक़ को अदा करो के इस तरह आखि़रत को हासिल कर सकते हो।

(((- यह इस अम्र की तरफ़ इशारा है के मकान की वुसअत ज़ाती आराज़ के लिये हो तो उसका नाम दुनियादारी है , लेकिन अगरर इसका मक़सद मेहमान नवाज़ी , सिलए अरहाम , अदाएगीए हुक़ूक़ हिफ़्ज़े आबरू , इज़हारे अज़मत व मज़हब हो तो इसका कोई ताल्लुक़ दुनियादारी से नहीं है और यह दीन व मज़हब ही का एक शोबा है , फ़र्क़ सिर्फ़ यह है के यह फ़ैसला नीयतों से होगा और नीयतों का जानने वाला सिर्फ़ परवरदिगार है कोई दूसरा नहीं है।-)))

यह सुनकर अला बिन ज़ियाद ने अर्ज़ की के या अमीरूल मोमेनीन (अ 0) मैं अपने भाई आसिम बिन ज़ियाद की शिकायत करना चाहता हूँ , फ़रमाया के उन्हें क्या हो गया है ? अर्ज़ की के उन्होंने एक अबा ओढ़ ली है और दुनिया को यकसर तर्क कर दिया है , फ़रमाया उन्हें बुलाओ , आसिम हाज़िर हुए तो आपने कहा के- ऐ दुश्मने जान , तुझे शैतान ख़बीस ने गिरवीदा बना लिया है , तुझे अपने अहल व अयाल पर क्यों रहम नहीं आता है , क्या तेरा ख़याल यह है के ख़ुदा ने पाकीज़ा चीज़ों को हलाल तो किया है लेकिन वह उनके इस्तेमाल को नापसन्द करता है , तू ख़ुदा की बारगाह में इससे ज़्यादा पस्त है।

आसिम ने अर्ज़ की के या अमीरूल मोमेनीन (अ 0)! आप भी तो खुरदुरा लिबास , मामूली खाने पर गुज़ारा कर रहे हैं , फ़रमाया , तुम पर हैफ़ है के तुमने मेरा क़यास अपने ऊपर कर लिया है जबके परवरदिगार ने आईम्माए हक़ पर फ़र्ज़ कर दिया है के अपनी ज़िन्दगी का पपैमाना कमज़ोरतरीन इन्सानों को क़रार दें ताकि फ़क़ीर अपने फ़क़्र की बिना पर किसी पेच व ताब का शिकार न हो।

210-आपका इरशादे गिरामी

(जब किसी शख़्स ने आपसे बिदअती अहादीस और मुतज़ाद रिवायात के बारे में सवाल किया)

लोगों के हाथों में हक़ व बातिल , सिद्क़ व कज़्ब नासिख़ व मन्सूख़ , आम व ख़ास , मोहकम व मुतशाबेह और हक़ीक़त व वहम सब कुछ है और मुझ पर बोहतान लगाने का सिलसिला रसूले अकरम (स 0) की ज़िन्दगी ही से शुरू हो गया था जिसके बाद आपने मिम्बर से एलान किया था के “ जिस शख़्स ने भी मेरी तरफ़ से ग़लत बात बयान की उसे अपनी जगह जहन्नम में बना लेना चाहिये ’ याद रखो के हदीस के बयान वाले चार तरह के अफ़राद होते हैं जिनकी पांचवी कोई क़िस्म नहीं है-

एक वह मुनाफ़िक़ है जो ईमान का इज़हार करता है , इस्लाम की वज़ा क़ता इख़्तेयार करता है लेकिन गुनाह करने और अफ़्तरा में पड़ने से परहेज़ नहीं करता है। अगर लोगों को मालूम हो जाए के यह मुनाफ़िक़ और झूठा है तो यक़ीनन उसके बयान की तस्दीक़ न करेंगे लेकिन मुश्किल यह है के वह समझते हैं के यह सहाबी है , इसने हुज़ूर को देखा है , उनके इरशाद को सुना है और उनसे हासिल किया है और इस तरह उसके बयान को क़ुबूल कर लेते हैं जबके ख़ुद परवरदिगार भी मुनाफ़िक़ीन के बारे में ख़बर दे चुका है और उनके औसाफ़ का तज़किरा कर चुका है और यह रसूले अकरम (स 0) के बाद भी बाक़ी रह गए थे , और गुमराही के पेशवाओं और जहन्नुम के दाइयों की तरफ़ इसी ग़लत बयानी और इफ़्तरा परवाज़ी से तक़र्रब हासिल करते थे। वह उन्हें ओहदे देते रहे और लोगों की गर्दनों पर हुक्मरान बनाते रहे और उन्हीं के ज़रिये दुनिया को खाते रहे और लोग तो बहरहाल बादशाहों और दुनियादारों ही के साथ रहते हैं , अलावा उनके जिन्हें अल्लाह इस शर से महफ़ूज़ कर ले।

(((- वाज़े रहे के इस्लामी उलूम में इल्मुल रेजाल आौर अल्मे दरायत का होना इस बात की दलील है के सारा आलमे इस्लाम इस नुक्ते पर मुत्तफ़िक़ है के रिवायात क़ाबिले क़ुबूल भी हैं और नाक़ाबिले क़ुबूल भी , और रावी हज़रात सक़ा और मोतबर भी हैं और ग़ैर सक़ा और ग़ैर मोतबर भी , इसके बाद अदालत सहाबा और एतबार , तमाम ओलमा का अक़ीदा , एक मज़हके के अलावा कुछ नहीं है। हज़रत ने यह भी वाज़ेह कर दिया है के मुनाफ़िक़ीन का कारोबार हमेशा हुकाम की नालाएक़ी से चलना है वरना हुकाम दयानतदार हों और ऐसी रिवायात के ख़रीदार न बनें ता मुनाफ़ेक़ीन का कारोबार एक दिन में ख़त्म हो सकता है।-)))

चार में से एक क़िस्म यह हुआ और दूसरा शख़्स वह है जिसने रसूले अकरम (स 0) से कोई बात सुनी है लेकिन उसे सही तरीक़े से महफ़ूज़ नहीं कर सका है (याद नहीं रख सका है) और इसमें सहो का शिकार हाो गया है , जान बूझकर झूठ नहीं बोलता है , जो कुछ उसके हाथ में है उसी की रिवायत करता है आौर उसी पर अमल करता है और यह कहता है के यह मैंने रसूले अकरम (स 0) से सुना है हालांके अगर मुसलमानों को मालूम हो जाए के इससे ग़लती हो गई है तो हरगिज़ इसकी बात न मानेंगे बल्कि अगर उसे ख़ुद भी मालूम हो जाए के यह बात इस तरह नहीं है तो तर्क कर देगा और नक़ल नहीं करेगा।

तीसरी क़िस्म उस शख़्स की है जिसने रसूले अकरम (स 0) को हुक्म देते सुना है लेकिन हज़रत ने जब मना किया तो उसे इत्तेला नहीं हो सकी या हज़रत को मना करते देखा है फिर जब आपने दोबारा हुक्म दिया तो इत्तेलाअ न हो सकी , इस शख़्स ने मन्सूख़ को महफ़ूज़ कर लिया है और नासिख़ को महफ़ूज़ नहीं कर सका है के अगर उसे मालूम हो जाए के यह हुक्म मन्सूख़ हो गया है तो उसे तर्क कर देगा और अगर मुसलमानों को मालूम हो जाए के इसने मन्सूख़ की रिवायत की है तो वह भी उसे नज़रअन्दाज़ कर देंगे। चैथी क़िस्म उस शख़्स की है जिसने ख़ुदा व रसूल (स 0) के खि़लाफ़ ग़लत बयानी से काम नहीं लिया है और वह ख़ौफ़े ख़ुदा और ताज़ीमे रसूले ख़ुदा के ऊपर झूठ का दुश्मन भी है और इससे भूल-चूक भी नहीं हुई है बल्कि जैसे रसूले अकरम (स 0) ने फ़रमाया है वैसे ही महफ़ूज़ रखा है। न उसमें किसी तरह का इज़ाफ़ा किया है और न कमी की है नासिख़ ही को महफ़ूज़ किया है और उसी पर अमल किया है और मन्सूख़ को भी अपनी नज़र में रखा है और उससे इजतेनाब बरता है , ख़ास व आम और मोहकम व मुतशाबेह को भी पहचानता है और उसी के मुताबिक़ अमल भी करता है। लेकिन मुश्किल यह है के कभी कभी रसूले अकरम (स 0) के इरशादात के दो रूख़ होते थे , बाज़ का ताल्लुक़ ख़ास अफ़राद (या ख़ास वक़्त) से होता था और कुछ आम होते थे (कुछ वह कलेमात जो तमाम औक़ात और तमाम अफ़राद के मुताल्लिक़) और इन कलेमात को वह शख़्स भी सुन लेता था जिसे यह नहीं मालूम था के ख़ुदा और रसूल का मक़सद क्या है तो यह सुनने वाले उसे सुन तो लेते थे और कुछ इसका मफ़हूम भी क़रार दे लेते थे मगर इसके हक़ीक़ी मानी और मक़सद और वजह से नावाक़िफ़ होते थे और तमामम असहाबे रसूले अकरम (स 0) की हिम्मत भी नहीं थी के आपसे सवाल कर सकें और बाक़ायदा तहक़ीक़ कर सकें बल्कि इस बात का इन्तेज़ार किया करते थे के कोई सहराई या परदेसी आाकर आपसे सवाल करे तो वह भी सुन लें , यह सिर्फ़ मैं था के मेरे सामने से कोई ऐसी बात नहीं गुज़रती थी मगर यह के मैं दरयाफ़्त भी कर लेता था और महफ़ूज़ भी कर लेता था।

यह हैं लोगों के दरमियान इख़्तेलाफ़ात के असबाब और रिवायात में तज़ाद के अवामिल व मोहर्रकात।

(((- जिस तरह एक इन्सान की ज़िन्दगी के मुख़्तलिफ़ रूख़ होते हैं और बाज़ औक़ात एक रूख़ दूसरे से बिल्कुल अजनबी होता है के बेख़बर इन्सान इसे दोरंगियों मे शामिल कर देता है। इसी तरह मुआसेरा और रिवायात के भी मुख़्तलिफ़ रूख़ होते हैं और बाज़ औक़ात एक रूख दूसरे से बिलकुल अजनबी और जुदागाना होता है और हर रूख़ के लिये अलग मफ़हूम होता है और हर रूख़ के अलग एहकाम होते हैं। अब अगर कोई शख़्स इस हक़ीक़त से बाख़बर नहीं होता है तो वह एक ही रूख़ या एक ही रिवायत को ले उड़ता है और वसूक़ व एतबार के साथ यह बयान करता है के मैंने ख़ुद रसूले अकरम (स 0) से सुना है मगर उसे यह ख़बर नहीं होती है के ज़िन्दगी का कोई दूसरा रूख़ भी है , या इस बयान का कोई और भी पहलू है जो क़ब्ल या बाद दूसरे मनासिब मौक़े पर बयान हो चुका है या बयान होने वाला है और इस तरह इश्तेहाबात का एक सिलसिला शुरू हो जाता है और दरहक़ीक़त रिवयात में गुम हो जाती है। चूंके दीदा व दानिस्ता कोई गुनाह या इश्तेबाह नहीं होता है।-)))