खुतबाते इमाम अली (उपदेश)

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खुतबाते इमाम अली (उपदेश) लेखक:
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खुतबाते इमाम अली (उपदेश)
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खुतबाते इमाम अली (उपदेश)

खुतबाते इमाम अली (उपदेश)

लेखक:
हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.


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228-आपका इरशादे गिरामी

(जिसमें अपने बाज़ असहाब का तज़किरा फ़रमाया है)

अल्लाह फ़ुलां शख़्स ( 1) का भला करे के उसने कजी को सीधा किया और मर्ज़ का इलाज किया , सुन्नत को क़ायम किया और फ़ितनों को छोड़ कर चला गया। दुनिया से इस आलम में गया के उसका लिबास हयाते पाकीज़ा था और उसके ऐब बहुत कम थे।

(((- इब्ने अबिल हदीद ने सातवीं सदी हिजरी में यह इनकेशाफ़ किया के इन फ़िक़रात में फ़लां से मुराद हज़रत उमर हैं और फिर उसकी वज़ाहत में 87सफ़हे स्याह कर डाले हालांके इसका कोई सबूत नहीं है और न सय्यद रज़ी के दौर के नुस्ख़ों में इसका कोई तज़किरा है और फिर इस्लामी दुनिया के सरबराह की तारीफ़ के लिये लफ़्ज़े फ़ुलां के कोई मानी नहीं हैं। ख़ुतबए शक़शक़िया में लफ़्ज़े फ़ुलां का इमकान है लेकिन मदह में लफ़्ज़े फ़ुलां में अजीब व ग़रीब मालूम होता है। इस लफ़्ज़ से यह अन्दाज़ा होता है के किसी ऐसे सहाबी का तज़किरा है जिसे आम लोग बरदाश्त नहीं कर सकते हैं और अमीरूल मोमेनीन (अ 0) उसकी तारीफ़ ज़रूरी तसव्वुर फ़़रमाते हैं)))

उसने दुनिया के ख़ैर को हासिल कर लिया और उसके शर से आगे बढ़ गया। अल्लाह की इताअत का हक़ अदा कर दिया और इससे मुकम्मल तौर पर ख़ौफ़ज़दा होकर वह दुनिया से इस आलम में रूख़सत हुआ के (ख़ुद चला गया और) लोग मुतफ़र्रिक़ (गुमकर्दा) रास्तों पर थे जहां न गुमराह हिदायत पा सकता था और न हिदायत याफ़्ता यक़ीन तक जा सकता था।

229-आपका इरशादे गिरामी

अपनी बैयते खि़लाफ़त के बारे में)

तुमने बैअत के लिये मेरी तरफ़ हाथ फैलाना चाहा तो मैंने रोक लिया और उसे खींचना चाहा तो मैंने समेट लिया , लेकिन इसके बाद तुम इस तरह मुझ पर टूट पड़े जिस तरह पानी पीने के दिन प्यासे ऊंट तालाब पर गिर पड़ते हैं। यहाँ तक के मेरी जूती का तस्मा टूट गया और अबा कान्धे से गिर गई और कमज़ोर अफ़राद कुचल गए। तुम्हारी ख़ुशी का यह आलम था के बच्चों ने ख़ुशियां मनाईं , बूढ़े लड़खड़ाते हुए क़दमों से आगे बढ़े , बीमार उठते-बैठते पहुंच गए और मेरी बैअत के लिये नौजवान लड़कियाँ भी पर्दे से बाहर निकल आईं (दौड़ पड़ीं)।

(((- किस क़द्र फ़र्क़ है इस बैअत में जिसके लिये बूढ़े , बच्चे , औरतें सब घर से निकल आए और कमाले इश्तियाक़ में साहबे मन्सब की बारगाह की तरफ़ दौड़ पड़े और इस बैअत में जिसके लिये बिन्ते रसूल (स 0) के दरवाज़े में आग लगाई गई , नफ़्से रसूल (स 0) को गले में रस्सी का फनदा डालकर घर से निकाला गया और सहाबाए कराम को ज़दो कोब किया गया। क्या ऐसी बैअत को भी इस्लामी बैअत कहा जा सकता है और ऐसे अन्दाज़ को भी जवाज़े खि़लाफ़त की दलील बनाया जा सकता है ? अमीरूल मोमेनीन (अ 0) ने अपनी बैअत का तज़किरा इसीलिये फ़रमाया है के साहेबाने अक़्ल व शऊर और अरबाबे अद्ल व इन्साफ़ बैअत के मानी का इदराक कर सकें और ज़ुल्म व जौर जब्र व इसतबदाद को बैअत का नाम न दे सकें और न उसे जवाज़े हुकूमत की दलील बना सकें-)))

230-आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

यक़ीनन तक़वा इलाही हिदायत की कलीद और आखि़रत का ज़ख़ीरा है , हर गिरफ़्तारी से आज़ादी और हर तबाही से निजात का ज़रिया है। उसके वसीले से तलबगार कामयाब होते हैं , अज़ाब से फ़रार करने वाले निजात पाते हैं और बेहतरीन मतालिब हासिल होते हैं।

लेहाज़ा अमल करो के अभी आमाल बलन्द हो रहे हैं और तौबा फ़ायदामन्द है और दुआ सुनी जा रही है , हालात पुरसुकून हैं , क़लमे आमाल चल रहा है। अपने आमाल के ज़रिये आगे बढ़ जाओ जो उलटे पाँव चल रही है और इस मर्ज़ से जो आमाल से रोक देता है और इस मौत से जो अचानक झपट लेती है , इसलिये के मौत तुम्हारी लज़्ज़तों को फ़ना कर देने वाली , तुम्हारी ख़्वाहिशात को बदमज़ा कर देने वाली और तुम्हारी मन्ज़िलों को दूर कर देने वाली है। वह ऐसी ज़ाएर है जिसे कोई पसन्द नहीं करता है और ऐसी मुक़ाबिल है जो मग़लूब नहीं होती है और ऐसी क़ातिल है जिससे खूंबहा का मुतालबा नहीं होता है। उसने अपने फन्दे तुम्हारे गलों में डाल रखे हैं और उसकी हलाकतों ने तुम्हें घेरे में ले लिया है और इसके तीरों ने तुम्हें निशाना बना लिया है। इसकी सतवत (ग़लबा व तसलत) तुम्हारे बारे में अज़ीम है और इसकी तादियां मुसलसल हैं और इसका वार उचटता (वार ख़ाली जाने का इमकान) भी नहीं है। क़रीब है के इसके सहाबे मर्ग की तीरगियां , इसके मर्ज़ की सख्तियां , इसकी जाँकनी की अज़ीयतें , इसकी दम उखड़ने की बेहोशियाँ , इसके हर तरफ़ छा जाने की तारीकियां और बदमज़गियां , इसकी सख्तियो के अन्धेरे तुम्हें अपने घेरे में ले लें। गोया वह अचानक उस वारिद हो गई के तुम्हारे राज़दारों को ख़ामोश कर दिया , साथियों को मुन्तशिर कर दिया , आसार को महो कर दिया , दयार को मोअत्तल कर दिया और वारिसों को आमादा कर दिया , अब वह तुम्हारी मीरास को तक़सीम कर रहे हैं उन ख़ास अज़ीज़ों के दरम्यान जो काम नहीं आए और सन्जीदा रिश्तेदारों के दरम्यान जिन्होंने मौत को रोका नहीं (रोक न सके) और उन ख़ुश होने वालों के दरम्यान जो हरगिज़ बेचैन नहीं हैं। अब तुम्हारा फ़र्ज़ है के सई करो , कोशिश करो , तैयारी करो , आमादा हो जाओ , उस ज़ादे राह की जगह से ज़ादे सफ़र ले लो और ख़बरदार दुनिया मुम्हें उस तरह धोका न दे सके जैसे पहले वालों को दिया है जो उम्मतें गुज़र गईं और जो नस्लें तबाह हो गईं , जिन्होंने इसका दूध दोहा था , उसकी ग़फ़लत से फ़ायदा उठाया था , उसके बाक़ीमान्दा दिनों को गुज़ारा था और इसकी ताज़गियों को मुर्दा बना दिया था अब उनके मकानात क़ब्र बन गए हैं और उनके अमवाल मीरास क़रार पा गए हैं। न उन्हें अपने पास आने वालों की फ़िक्र है और न रोने वालों की परवाह है और न पुकारने वालों की आवाज़ पर लब्बैक कहते हैं। इस दुनिया से बचो के यह बड़ी धोकेबाज़ , फ़रेबकार , ग़द्दार , देने वाली और छीनने वाली और लिबास पिन्हाकर उतार लेने वाली है। न इसकी आसाइशें रहने वाली हैं और न इसकी तकलीफ़ें ख़त्म होने वाली हैं और न इसकी बलाएं थमने वाली हैं।

कुछ ज़ाहिदों के बारे में

यह उन्हीं दुनियावालों में मकीन अहले दुनिया नहीं थे , ऐसे थे जैसे इस दुनिया के न हों। देख भाल कर अमल किया और ख़तरात से आगे निकल गए। गोया इनके बदन अहले आखि़रत के दरम्यान करवटें बदल रहे हैं और वह यह देख रहे हैं के अहले दुनिया इनकी मौत को बड़ी अहमियत दे रहे हैं हालांके वह ख़ुद इन ज़िन्दों के दिलों की मौत को ज़्यादा बड़ा हादसा क़रार दे रहे हैं (जो ज़िन्दा हैं मगर उनके दिल मुर्दा हैं)।

(((- मौत का अजीबो ग़रीब कारोबार है के मालिक को दुनिया से उठा ले जाती है और उसका माल ऐसे अफ़राद के हवाले कर देती है जो ज़िन्दगी में काम आए और न मरहले ही में साथ दे सके। क्या इससे ज़्यादा इबरत का कोई मक़ाम हो सकता है के इन्सान ऐसी मौत से ग़ाफ़िल रहे और चन्द रोज़ा ज़िन्दगी की लज़्ज़तों में मुब्तिला होकर मौत के जुमला ख़तरात से बेख़बर हो जाए। दुनिया की इससे बेहतर कोई तारीफ़ नहीं हो सकती है के यह एक दिन बेहतरीन लिबास से इन्सान को आरास्ता करती है और दूसरे दिन उसे उतार कर सरे राह बरहना कर देती है। यही हाल ज़ाहिरी लिबास का भी होता है और यही हाल मानवी लिबास का भी होता है। हुस्न देकर बदशक्ल बना देती है। जवानी देकर बूढ़ा कर देती है , ज़िन्दगी देकर मुर्दा बना देती है तख़्त व ताज देकर कुन्ज व क़ब्र के हवाले कर देती है और साहेबे दरबार व बारगाह बनाकर क़ब्रिस्तान के वहशतकदे में छोड़ आती है।-)))

231-आपका इरशादे गिरामी

( अमीरूल मोमेनीन (अ 0) ने बसरा की तरफ़ जाते हुए मक़ामे ज़ीक़ार में यह ख़ुत्बा इरशाद फ़रमाया , इसका वाक़दी ने किताबुल जमल में ज़िक्र किया है)

रसूले अकरम (स 0) को जो हुक्म था उसे आप (स 0) ने खोल कर बयान कर दिया और अल्लाह के पैग़ामात पहुंचा दिये , अल्लाह ने आप (अ 0) के ज़रिये बिखरे हुए अफ़राद की शीराज़ाबन्दी की , सीनों में भरी हुई सख़्त अदावतों और दिलों में भड़क उठने वाले कीनों के बाद ख़विश व अक़ारब को आपस में शीरो शकर कर दिया।

232-आपका इरशादे गिरामी

( अब्दुल्लाह इब्ने ज़मा जो आपकी जमाअत में महसूब होता था आप (अ 0) के ज़मानए खि़लाफ़त में

कुछ माल तलब करने के लिये हज़रत (अ 0) के पास आया तो आप (अ 0) ने इरशाद फ़रमाया)

यह माल न मेरा है न तुम्हारा बल्कि मुसलमानों का हक़्क़े मुश्तरका और उनकी तलवारों का जमा किया हुआ सरमाया है। अगर तुम उनके साथ जंग में शरीक हुए होते तो तुम्हारा हिस्सा भी उनके बराबर होता , वरना उनके हाथों की कमाई दूसरों के मुंह का निवाला बनने के लिये नहीं है।

233-आपका इरशादे गिरामी

मालूम होना चाहिये के ज़बान इन्सान (के बदन का) एक टुकड़ा है जब इन्सान (का ज़ेहन) रूक जाए तो फिर कलाम उनका साथ नहीं दिया करता और जब उसके (मालूमात में) वुसअत हो तो फ़िर कलाम ज़बान को रूकने की मोहलत नहीं दिया करता और हम (अहलेबैत) अक़लीम सुख़न के फ़रमान रवा हैं। वह हमारे रगो पै में समाया हुआ है और उसकी शाख़ें हम पर झुकी हुई हैं। ख़ुदा तुम पर रहम करे इस बात को जान लो के तुम ऐसे दौर में हो जिसमें हक़ गो (हक़ बोलने वाले) कम , ज़बानें सिद्क़ बयानी से कुन्द और हक़ वाले ज़लील व ख़्वार हैं। यह लोग गुनाह व नाफ़रमानी पर जमे हुए हैं और ज़ाहिरदारी व निफ़ाक़ की बिना पर एक-दूसरे से सुलह व सफ़ाई रखते हैं। इनके जवान बदख़ू , इनके बूढ़े गुनहगार , इनके आलिम मुनाफ़िक़ और उनके वाएज़ चापलूस हैं , न छोटे बड़ों की ताज़ीम करते हैं और न मालदार फ़क़ीर व बेनवा की दस्तगीरी करते हैं।

234-आपका इरशादे गिरामी

ज़ालब यमानी ने इब्ने क़तीबा से और उसने अब्दुल्लाह इब्ने यज़ीद से उन्होंने मालिक इब्ने वहीह से रिवायत की है के उन्होंने कहा के हम अमीरूल मोमेनीन (अ 0) की खि़दमत में हाज़िर थे के लोगों के इख़्तेलाफ़ (सूरत व सीरत) का ज़िक्र छिड़ा तो आप (अ 0) ने फ़रमाया- इनके मबदातीनत ने इनमें तफ़रीक़ पैदा कर दी है और यह इस तरह के वह शूरा ज़ार व शीरीं ज़मीन और सख़्त व नर्म मिट्टी से पैदा हुए हैं लेहाज़ा वह ज़मीन के कुर्ब के एतबार से मुत्तफ़िक़ होते और इख़्तेलाफ़ के तनासुब से मुख़्तलिफ़ होते हैं (इस पर कभी ऐसा होता है के) पूरा ख़ुश शक्ल इन्सान अक़्ल में नाक़िस और बलन्द क़ामत आदमी पस्त हिम्मत हो जाता है और नेकोकार , बदसूरत और कोताह क़ामत दूरअन्देश होता है और तबअन नेक सरिश्त कसी बुरी आदत को पीछे लगा लेता है , और परेशान दिन वाला परागान्दा अक़्ल और चलती हुई ज़बान वाला होशमन्द दिल रखता है।

235-आपका इरशादे गिरामी

(रसूलल्लाह (स 0) को ग़ुस्ल कफ़न देते वक़्त फ़रमाया)

या रसूलल्लाह (स 0)! मेरे माँ बाप आप (स 0) पर क़ुरबान हों। आप (स 0) के रेहलत फ़रमा जाने से नबूवत , ख़ुदाई एहकाम और आसमानी ख़बरों का सिलसिला क़ता हो गया जो किसी और (नबी) के इन्तेक़ाल से क़ता नहीं हुआ था (आप (स 0) ने) इस मुसीबत में अपने अहलेबैत (अ 0) को मख़सूस किया यहाँ तक के आप (अ 0) ने दूसरों के ग़मों से तसल्ली दे दी और (इस ग़म को) आम भी कर दिया के सब लोग आप (अ 0) के (सोग में) बराबर के शरीक हैं। अगर आप (अ 0) ने सब्र का हुक्म और नाला व फ़रियाद से रोका न होता तो हम आप (अ 0) के ग़म में आंसुओं का ज़ख़ीरा ख़त्म कर देते और यह दर्द मन्नत पज़ीद दरमाँ न होता और यह ग़म व हुज़्न साथ न छोड़ता। (फिर भी यह) गिरया व बुका और अन्दोह व हुज़्न आपकी मुसीबत के मुक़ाबले में कम होता , लेकिन मौत ऐसी चीज़ है के जिसका पलटाना इख़्तेयार में नहीं है और न इसका दूर करना बस में है , मेरे माँ-बाप आप (अ 0) पर निसार हों हमें भी अपने परवरदिगार के पास याद कीजियेगा और हमारा ख़याल रखियेगा।

236- आपका इरशादे गिरामी (इसमें पैग़म्बर (स 0) की हिजरत के बाद अपनी कैफ़ियत और फिर उन तक पहुंचने तक की हालत का तज़किरा किया है)

मैं रसूलल्लाह (स 0) के रास्ते पर रवाना हुआ और आपके ज़िक्र के ख़ुतूत पर क़दम रखता हुआ मक़ामे अर्ज तक पहुंच गया।

सय्यद रज़ी - यह टुकड़ा एक तवील कलाम का जुज़ है और (फाता ज़िक्रा) ऐसा कलाम है जिसमें मुन्तहा दरजे का इख़्तेसार और फ़साहत मलहूज़ रखी गई है। इससे मुराद यह है के इब्तेदाए सफ़र से लेकर यहाँ तक के मैं इस मुक़ामे अरज तक पहुंचा बराबर आप (अ 0) की इत्तेलाआत मुझे पहुंच रही थीं। आप (अ 0) ने इस मतलब को इस अजीब व ग़रीब कनाया में अदा किया है।

237-आपका इरशादे गिरामी

आमाल बजा लाओ , अभी जबके तुम ज़िन्दगी की फ़िराख़ी व वुसअत में हो आमाल नामे खुले हुए हैं और तौबा का दामन फैला हुआ है। अल्लाह से रूख़ फ़ेर लेने वाले को पुकारा जा रहा है और गुनहगारों को उम्मीद दिलाई जा रही है क़ब्ल इसके के अमल की रोशनी गुल हो जाए और मोहलत हाथ से जाती रहे और मुद्दत ख़त्म हो जाए और तौबा का दरवाज़ा बन्द हो जाए और मलाएका आसमान पर चढ़ जाएं चाहिये के इन्सान ख़ुद अपने से (ख़ुद से) अपने वास्ते और ज़िन्दा से मुर्दा के लिये और फ़ानी से बाक़ी की ख़ातिर और जाने वाली ज़िन्दगी से हयाते जावेदानी के लिये नफ़ा व बहबूद हासिल करे वह इन्सान जिसे एक मुद्दत तक उम्र दी गई है और अमल की अन्जाम दही के लिये मोहलत भी मिली है उसे अल्लाह से डरना चाहिये मर्द वह है जो अपने नफ़्स को लगाम दे के उसकी बागें चढ़ाकर अपने क़ाबू में रखे और लगाम के ज़रिये उसे अल्लाह की नाफ़रमानियों से रोके और उसकी बागें थाम कर अल्लाह की इताअत की तरफ़ खींच ले जाए।

238- आपका इरशादे गिरामी

(दोनों सालेसों (अबू मूसा व अम्रो इब्ने आस) के बारे में और अहले शाम की मज़म्मत में फ़रमाया)

वह तून्दख़ू औबाश और कमीने बदक़माश हैं के जो हर तरफ़ से इकट्ठा कर लिये गये हैं और मख़लूतुन नसब लोगों में से चुन लिये गए हैं , वह उन लोगों में से हैं जो जेहालत की बिना पर इस क़ाबिल हैं के उन्हें (अभी इस्लाम के मुताल्लिक़) कुछ बताया जाए और शाइस्तगी सिखाई जाए (अच्छाई और बुराई की तालीम) दी जाए और (अमल की) मशक़ कराई जाए और उन पर किसी निगरान को छोड़ा जाए और उनके हाथ पकड़कर चलाया जाए , न तो वह मुहाजिर हैं न अन्सार और न इन लोगों में से हैं जो मदीने में फरोकश थे। देखो! अहले शाम ने तो अपने लिये ऐसे शख़्स को मुन्तख़ब किया है जो उनके पसन्दीदा मक़सद के बहुत क़रीब है और तुमने ऐसे शख़्स को चुना है जो तुम्हारे नापसन्दीदा मक़सद से इन्तेहाई नज़दीक है। तुमको अब्दुल्लाह इब्ने क़ैस (अबू मूसा) का कल वाला वक़्त याद होगा (के वह कहता फिरता था) के “ यह जंग एक फ़ित्ना है लेहाज़ा अपनी कमानों के चिल्लों को तोड़ दो और तलवारों को न्यामों में रख लो ” अगर वह अपने इस क़ौल में सच्चा था तो (हमारे साथ) चल खड़ा होने में ख़ताकार है के जबके इस पर कोई जब्र भी नहीं और अगर झूठा था तो इस पर (तुम्हें) बे एतमादी होना चाहिये लेहाज़ा अम्रो इब्ने आस के धकेलने के लिये अब्दुल्लाह इब्ने आस को मुन्तख़ब करो , इन दोनों की मोहलत ग़नीमत जानो और इसलामी (शहरों की) सरहदों को घेर लो क्या तुम अपने शहरों को नहीं देखते के उन पर हमले हो रहे हैं और तुम्हारी क़ूवत व ताक़त को निशाना बनाया जा रहा है।

239-आपका इरशादे गिरामी

(इसमें आले मोहम्मद अलैहिस्सलाम का ज़िक्र किया गया है)

यह लोग इल्म की ज़िन्दगी और जेहालत की मौत हैं। इनका हिल्म उनके इल्म से और इनका ज़ाहिर इनके बातिन से और इनकी ख़मोशी उनके कलाम से बाख़बर करती है। यह न हक़ की मुख़ालेफ़त करते हैं और न हक़ के बारे में कोई इख़्तेलाफ़ करते हैं। यह इस्लाम के सुतून और हिफ़ाज़त के मराकज़ हैं। उन्हीं के ज़रिये हक़ अपने मरकज़ की तरफ़ वापस आया है और बातिल अपनी जगह से उखड़ गया है और इसकी ज़बान जड़ से कट गई है। उन्होंने दीन को इस तरह पहचाना है जो समझो और निगरानी का नतीजा है। सिर्फ़ सुनने और रिवायत का नतीजा नहीं है। इसलिये के (यूं तो) इल्म की रिवायत करने वाले बहुत हैं और (मगर) इसका ख़याल रखने वाले बहुत कम हैं।

(((- इब्ने अबी अलहदीद ने इ समक़ाम पर ख़ुद अबू मूसा अशअरी की ज़बान से यह हदीस नक़ल की है के सरकारे दो आलम (स 0) ने फ़रमाया के जिस तरह बनी इसराईल में दो गुमराह हकम थे उसी तरह इस उम्मत में भी होंगे। तो लोगों ने अबू मूसा से कहा के कहीं आप ऐसे न हो जाएं , उसने कहा यह नामुमकिन है ,, और इसके बाद जब वक़्त आया तो तमए दुनिया ने ऐसा ही बना दिया जिसकी ख़बर सरकारे दो आल (स 0) ने दी थी।

हैरत की बात है के हकमीन के बारे में रिवायत ख़ुद अबू मूसा ने बयान की है और जो आपके सिलसिले में रिवायत ख़ुद उम्मुल मोमेनीन आइशा ने नक़्ल की है , लेकिन इसके बावजूद न उस रिवायत का कोई असर अबू मूसा पर हुआ और न इस रिवायत का कोई असर हज़रत आइशा पर।

इस सूरतेहाल को क्या कहा जाए और उसे क्या नाम दिया जाए , इन्सान का ज़ेहन सही ताबीर से आजिज़ है , और “ नातक़ा सर ब गरीबां है इसे क्या कहिये। ” सरकारे दो आलम (स 0) ने एक तरफ़ नमाज़ को इस्लाम का सुतून क़रार दिया है और दूसरी तरफ़ अहलेबैत (अ 0) के बारे में फ़रमाया है के जो मुझ पर और इन पर सलवात न पढ़े उसकी नमाज़ बातिल और बेकार है , जिसका खुला हुआ मतलब यह है के नमाज़ इस्लाम का सुतून है और मोहब्बते अहलेबैत (अ 0) नमाज़ का सुतूने अकबर है। नमाज़ नहीं है तो इस्लाम नहीं है और अहलेबैत (अ 0) नहीं हैं तो नमाज़ नहीं है-)))

211-आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(हैरत अंगेज़ तख़लीक़े कायनात के बारे में)

यह परवरदिगार के इक़्तेदार की ताक़त और उसकी सनाई (सनअत) की हैरतअंगेज़ लताफ़त है के उसने गहरे और तलातुम समन्दर में एक ख़ुश्क और बेहरकत ज़मीन को पैदा कर दिया और फ़िर बख़ारात के तबक़ात बनाकर (पानी की तहों पर तहें चढ़ाकर जो आपस में मिली हुई थी) उन्हें शिगाफ़्ता करके सात आसमानों की शक्ल दे दी जो उसके अम्र से ठहरे हुए हैं और अपनी हदों पर क़ायम हैं , फ़िर ज़मीन को यूँ गाड़ दिया के उसे सब्ज़ रंग का गहरा समन्दर उठाए हुए है जो क़ानूने इलाही के आगे मुसख़्ख़र है , उसके अम्र का ताबे है और उसकी हैबत के सामने सरनिगूँ है और उसके ख़ौफ़ से इसका बहाव थमा हुआ है। फ़िर पत्थरों , टीलों और पहाड़ों को ख़ल्क़ करके उन्हें उनकी जगहों पर गाड़ दिया और उनकी मन्ज़िलों पर मुस्तक़र कर दिया के अब उनकी बलन्दियां फ़िज़ाओं से गुज़र रही हैं और उनकी जड़ें पानी के अन्दर रासेख़ हैं , उनके पहाड़ों को हमवार ज़मीनों से ऊंचा किया और उनके सुतूनों को एतराफ़ के फै़लाव और मराकज़ के ठहराव में नस्ब कर दिया। अब उनकी चोटियां बलन्द हैं और उनकी बलन्दियां तवीलतरीन हैं , इन्हीं पहाड़ों को ज़मीन का सुतून क़रार दिया है और इन्हीं को कील बनाकर गाड़ दिया है जिनकी वजह से ज़मीन हरकत के बाद साकिन हो गई और न अहले ज़मीन को लेकर किसी तरफ़ झुक सकी और न उनके बोझ से धंस सकी और न अपनी जगह से हट सकी। पाक व बेनियाज़ है वह मालिक जिसने पानी के तमोज के बावजूद उसे रोक रखा है और एतराफ़ की तरी के बावजूद उसे ख़ुश्क बना रखा है और फिर उसे अपनी मख़लूक़ात के लिये गहवारा और फ़र्श की हैसियत दे दी है , उस गहरे समन्दर के ऊपर जो ठहरा हुआ है और बहता नहीं है और एक मक़ाम पर क़ायम है किसी तरफ़ जाता नहीं है हालांके उसे तेज़ व तन्द हवाएं हरकत दे रही हैं और बरसने वाले बादल उसे मथकर उससे पानी खींचते रहते हैं- “ इन तमाम बातों में इबरत का सामान है उन लोगों के लिये जिनके अन्दर ख़ौफ़े ख़ुदा पाया जाता है।

(((- कितना हसीन निज़ामे कायनात है के तलातुम पानी पर ज़मीन क़ायम है और ज़मीन के ऊपर हवा का दबाव क़ायम है और इन्सान इस तीन मन्ज़िला इमारत में दरम्यानी तबक़े पर इस तरह सुकूनत पज़ीद है के उसके ज़ेरे क़दम ज़मीन और पानी है और इसके बालाए सर फ़िज़ा और हवा है। हवा उसकी ज़िन्दगी के लिये सांसें फ़राहम कर रही है और ज़मीन उसके सुकून व क़रार का इन्तेज़ाम करके उसे बाक़ी रखे हुए हैं। पानी इसकी ज़िन्दगी का क़ेवाम है और समन्दर उसकी ताज़गी का ज़रिया। कोई ज़र्राए कायनात उसकी खि़दमत से ग़ाफ़िल नहीं है और कोई अनासिर अपने से अशरफ़ मख़लूक़ की इताअत से मुनहरिफ़ नहीं है। ताके वह भी अपनी अशरफ़ीयत की आबरू का तहफ़्फ़ुज़ करे और सारी कायनात से बालातर ख़ालिक़ व मालिक की इताअत व इबादत में हमातन मसरूफ़ रहे।-)))

212-आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जिसमें अपने असहाब को अहले शाम से जेहाद करने पर आमादा किया है)

ख़ुदाया! तेरे जिस बन्दे ने भी मेरी आदिलाना गुफ्तगू (जिसमें किसी तरह का ज़ुल्म नहीं है) और मसलेहाना नसीहत (जिसमें किसी तरह का फ़साद नहीं है) सुनने के बाद भी तेरे दीन की नुसरत से इन्हेराफ़ किया और तेरे दीन के एज़ाज़ में कोताही की है , मैं उसके खि़लाफ़ तुझे गवाह क़रार दे रहा हूँ के तुझसे बालातर कोई गवाह नहीं है और फ़िर तेरे तमाम साकेनाने अर्ज़ व समा (ज़मीनो आसमान के रहने वालो) को गवाह क़रार दे रहा हूँ। इसके बाद तू ही इनकी नुसरत व मदद से बेनियाज़ भी है और हर एक के गुनाह का मवाख़ेज़ा करने वाला भी है।

213-आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(परवरदिगार की तमजीद उसकी ताज़ीम के बारे में)

सारी तारीफ़ें उस अल्लाह के लिये हैं जो मख़लूक़ात की मुशाबेहत से बलन्दतर और तौसीफ़ करने वालों की गुफ़्तगू से बालातर है। वह अपने अजीब व ग़रीब लज़्म व नस्ख़ की बदौलत देखने वालों के सामने भी है और अपने जलाल व इज़्ज़त की बिना पर मुफ़क्किरीन की फ़िक्र से पोशीदा भी है। वह आलिम है बग़ैर इसके के किसी से कुछ सीखे या इल्म में इज़ाफ़ा और कहीं से इस्तेफ़ादा करे (उसका इल्म किसी इस्तेफ़ादे का नतीजा भी नहीं है) तमाम उमूर का तक़दीर साज़ है और इस सिलसिले में (मुशीर , तदबीर) और सोच बिचार का मोहताज भी नहीं है। तारीकियां उसे ढांप नहीं सकती हैं और रोशनियों से वह किसी तरह का कस्बे नूर नहीं है , ( न वह रौशनियों से कस्बे ज़िया करता है) न रात उस पर ग़ालिब आ सकती है और न दिन उसके ऊपर से गुज़र सकता है। उसका इदराक आंखों का मोहताज नहीं है और उसका इल्म इताअत का नतीजा नहीं है। उसने पैग़म्बर (स 0) को एक नूर देकर भेजा है और उन्हें सबसे पहले मुन्तख़ब क़रार दिया है , उनके ज़रिये परागन्दियों को जमा किया है (उनके ज़रिये से तमाम परागन्दियों और परेशानियों को दूर किया और ग़लबा पाने वालों को क़ाबू में रखा है) दुश्वारियों को आसान किया है और नाहमवारियों को हमवार बनाया है। यहाँ तक के गुमराहियों को दाएं , बाएं हर तरफ़ से दूर कर दिया है।(((-सही मुस्लिम किताबुल फ़ज़ाएल में सरकारे दो आलम (स 0) का यइ इरशाद दर्ज है के अल्लाह ने औलादे इस्माईल में कोनाना का इन्तेखा़ब किया है और फिर कुनाना में क़ुरैश को मुन्तक़ब क़रार दिया है , क़ुरैश में बनी हाशिम मुनतख़ब हैं और बनी हाशिम में मैं। लेहाज़ा दुनिया की शख़्सियत का सरकारे दोआलम (स 0) और अहलेबैत (अ 0) पर क़यास नहीं किया जा सकता है।-)))

214-आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जिसमें रसूले अकरम (स 0) की तारीफ़ , ओलमा की तौसीफ़ और तक़वा की नसीहत का ज़िक्र किया गया है)

मैं गवाही देता हूँ के वह परवरदिगार ऐसा आदिल है जो अद्ल ही से काम लेता है , और ऐसा हाकिम है जो हक़ व बातिल को जुदा कर देता है और मैं शहादत देता हूँ के मोहम्मद (स 0) उसके बन्दे और रसूल हैं और फिर तमाम बन्दों के सरदार भी हैं। जब भी परवरदिगार ने मख़लूक़ात को दो गिरोहों (हक़ व बातिल) में तक़सीम किया है उन्हें (मोहम्मद स 0को) बेहतरीन हिस्से ही में रखा है। आपकी तख़लीक़ (आपके नसब) में न किसी बदकार का कोई हिस्सा है और न किसी फासिक़ व फ़ाजिर का कोई दख़ल है। याद रखो के परवरदिगार ने हर ख़ैर के लिये अहल क़रार दिये हैं और हर हक़ के लिये सुतून और हर इताअत के लिये वसीलाए हिफ़ाज़त क़रार दिया है और तुम्हारे लिये हर इताअत के मौक़े पर ख़ुदा की तरफ़ से एक मददगार का इन्तेज़ाम रहता है जो ज़बानों पर बोलता है और दिलों को ढारस इनायत करता है। इसके वजूद में हर इकतेफ़ा करने के लिये किफ़ायत है और तलबगारे सेहत के लिये शिफ़ा व आफ़ियत है (हर बेनियाज़ी चाहने वाले के लिये बेनियाज़ी और शिफ़ा चाहने वाले के लिये शिफ़ा है)।

याद रखो के अल्लाह के वह बन्दे जिन्हें उसने इल्म का मुहाफ़िज़ बनाया है वह उसका तहफ़्फ़ुज़ भी करते हैं और उसके चश्मों को जारी भी करते रहते हैं। आपस में मोहब्बत से एक-दूसरे की मदद करते हैं और चाहत के साथ मुलाक़ात करते हैं। सेराब करने वाले (इल्म व हिकमत के साग़रों) चश्मों से मिलकर (छककर) सेराब होते हैं और फिर सेरो सेराब होकर ही बाहर निकलते हैं। उनके आमाल में रैब (शक व शुबह) की आमेज़िश नहीं है और उनके मुआशरे में ग़ीबत का गुज़र नहीं है। इसी अन्दाज़ से मालिक ने उनकी तख़लीक़ की है और उनके अख़लाक़ क़रार दिये हैं और इसी बुनियाद पर वह आपस में मोहब्बत भी करते हैं और मिलते भी रहते हैं। उनकी मिसाल उन दानों की है जिनको इस तरह चुना जाता है के अच्छे दानों को ले लिया जाता है और ख़राब को फेंक दिया जाता है। उन्हें इसी सफ़ाई ने मुमताज़ बना दिया है और उन्हें इसी परख ने साफ़ सुथरा क़रार दे दिया है।

अब हर शख़्स को चाहिये के उन्हीं सिफ़ात को क़ुबूल करके करामत को क़ुबूल करे और क़यामत के आन से पहले होशियार हो जाए। अपने मुख़्तसर दिनों और थोड़े से क़याम के बारे में ग़ौर करे के इस मन्ज़िल को दूसरी मन्ज़िल में बहरहाल बदल जाना है। अब इसका फ़र्ज़ है के नई मन्ज़िल और जानी पहचानी जाए बाज़गश्त (क़ब्र , बरज़ख़ , हश्र) के बारे में अमल करे।

ख़ुशाबहाल (मुबारकबाद) इन क़ल्बे सलीम वालों के लिये जो रहनुमा की इताअत करें और हलाक होने वालों से परहेज़ करें। कोई रास्ता दिखा दे तो देख लें और वाक़ेई राहनुमा अम्र करे तो उसकी इताअत करें , हिदायत की तरफ़ सबक़त करें क़ब्ल इसके के इसके दरवाज़े बन्द हो जाएं और इसके असबाब मुनक़ता हो जाएं। तौबा का दरवाज़ा खोल लें और गुनाहों के दाग़ों को धो ढालें , यही वह लोग हैं जिन्हें सीधे रास्ते पर खड़ा कर दिया गया है और उन्हें वाज़ेह रास्ते की हिदायत मिल गई। (मुबारक हो उस पाक व पाकीज़ा दिल वाले को जो हिदायत करने वाले की पैरवी और तबाही डालने वाले से किनारा करता है और दीदाए बसीरत में जिला बख़्शने वाले की रोशनी और हिदायत करने वाले के हुक्म की फ़रमाबरदारी से सलामती की राह पा लेता है और हिदायत के दरवाज़ों के बन्द और वसाएल व ज़राए के क़ता होने से पहले हिदायत की तरफ़ बढ़ जाता है।)

(((- दुनिया में साहेबाने इल्म व फ़ज़्ल बेशुमार हैं लेकिन वह अहले इल्म जिन्हें मालिक ने अपने इल्म और अपने दीन का मुहाफ़िज़ बनाया है वह महदूद ही हैं जिनकी सिफ़त यह है के इल्म का तहफ़्फ़ुज़ भी करते हैं और दूसरों को सेराब भी करते रहते हैं , ख़ुद भी सेराब रहते हैं और दूसरों की तशनगी का भी इलाज करते रहते हैं। इनके इल्म में जेहालत और “ लाअदरी ’ का गुज़र नहीं है और वह किसी साएल को महरूम वापस नहीं करते हैं-)))

215 -आपकी दुआ का एक हिस्सा

(जिसकी बराबर तकरार फ़रमाया करते थे)

ख़ुदा का शुक्र है के उसने सुबह के हंगाम (मुझे) न मुर्दा बनाया है और न बीमार , न किसी रग पर मर्ज़ का हमला हुआ है और न किसी बदअमली का मुवाख़ेज़ा किया गया है। न मेरी नस्ल को मुनक़ता किया गया है और न अपने दीन में इरतेदाद का शिकार हुआ हूं , न अपने दीन से मुरतद हूँ और न अपने रब का मुनकिर। न अपने ईमान से मुतवह्हश और न अपनी अक़्ल का मख़बूत और न मुझ पर गुज़िश्ता उम्मतों जैसा कोई अज़ाब हुआ है। मैंने इस आलम मे सुबह की है के मैं एक बन्दए ममलूक हूँ जिसने अपने नफ़्स पर ज़ुल्म किया है। ख़ुदाया! तेरी हुज्जत मुझ पर तमाम है और मेरी कोई हुज्जत नहीं है (मेरे लिये अब बहाना की कोई गुन्जाइश नहीं है)। तू जो दे दे उससे ज़्यादा ले नहीं सकता है (ख़ुदाया मुझमें किसी चीज़ के हासिल करने की क़ूवत नहीं सिवा उसके के जो तू मुझे अता कर दे) और जिस चीज़ से तू न बचाए उससे बच नहीं सकता।

ख़ुदाया! मैं उस अम्र से पनाह चाहता हूं के तेरी दौलत में रह कर फ़क़ीर हो जाऊ या तेरी हिदायत के बावजूद गुमराह हो जाऊ , या तेरी सलतनत के बावजूद सताया जाऊं या तेरे हाथ में सारे इख़्तेयारात होने के बावजूद मुझ पर दबाव डाला जाए। ख़ुदाया! मेरी जिन नफ़ीस चीज़ों को मुझसे वापस लेना और अपनी जिन अमानतों को मुझसे पलटाना , उनमें सबसे पहली चीज़ मेरी रूह को क़रार देना।

ख़ुदाया! मैं उस अम्र से तेरी पनाह चाहता हूँ के मैं तेरे इरशादात से बहक जाऊँ या तेरे दीन में किसी फ़ित्ने में मुब्तिला हो जाऊँ या तेरी आई हुई हिदायतों के मुक़ाबले में मुझ पर ख़्वाहिशात का ग़लबा हो जाए।

216-आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा

(जिसे मुक़ामे सिफ़्फ़ीन में इरशाद फ़रमाया)

अम्माबाद! परवरदिगार ने वली अम्र होने की बिना पर मेरा एक हक़ क़रार दिया है और तुम्हारा भी मेरे ऊप एक तरह का हक़ है और हक़ मदह सराई के एतबार से तो बहुत वुसअत रखता है लेकिन इन्साफ़ के एतबार से बहुत तंग है। यह किसी का उस वक़्त तक साथ नहीं देता है जब तक उसके ज़िम्मे कोई हक़ साबित न कर दे और किसी के खि़लाफ़ फ़ैसला नहीं करता है जब तक उसे कोई हक़ न दिलवा दे। अगर कोई हस्ती ऐसी मुमकिन है जिसका दूसरों पर हक़ हो और उस पर किसी का हक़ न हो तो वह सिर्फ़ परवरदिगार की हस्ती है के वह हर शै पर क़ादिर है और उसके तमाम फ़ैसले अद्ल व इन्साफ़ पर मबनी हैं लेकिन उसने भी जब बन्दों पर अपना हक़ इताअत क़रार दिया है तो अपने फ़ज़्ल व करम और अपने उस एहसान की वुसअत की बिना पर जिसका वह अहल है उनका यह हक़ क़रार दे दिया है के उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा सवाब दे दिया जाए। परवरदिगार के मुक़र्रर किये हुए हुक़ूक़ में से वह तमाम हुक़ूक़ है जो उसने एक दूसरे पर क़रार दिये हैं और उनमें मसावात भी कऱार दी है के एक हक़ से दूसरा हक़ पैदा होता है और एक हक़ नहीं पैदा होता है जब तक दूसरा हक़ न पैदा हो और इन तमाम हुक़ूक़ में सबसे अज़ीमतरीन हक़ रिआया पर वाली का हक़ और वाली पर रियाया का हक़ है जिसे परवरदिगार ने एक को दूसरे के लिये क़रार दिया है और इसी से उनकी बाहमी उलफ़तों को मुनज़्ज़म किया है और उनके दीन को इज़्ज़त दी है। रिआया की इस्लाह मुमकिन नहीं है जब तक वाली सॉलेह न हो और वाली सॉलेह नहीं रह सकते हैं जब तक रिआया सॉलेह न हो। अब अगर रिआया ने वाली को उसका हक़ दे दिया और वाली ने रिआया को उनका हक़ दे दिया तो हक़ दोनों के दरम्यान अज़ीज़ रहेगा। दीन के रास्ते क़ायम हो जाएंगे। इन्साफ़ के निशानात बरक़रार रहेंगे और पैग़म्बरे इस्लाम (स 0) की सुन्नतें अपने ढर्रे पर चल पड़ेंगी और ज़माना ऐसा सॉलेह हो जाएगा के बक़ाए हुकूमत की उम्मीद भी की जाएगी और दुश्मनों की तमन्नाएं भी नाकाम हो जाएंगी।

लेकिन अगर रिआया हाकिम पर ग़ालिब आ गई या हाकिम ने रिआया पर ज़्यादती की तो कलेमात में इख़्तेलाफ़ हो जाएगा , ज़ुल्म के निशानात ज़ाहिर हो जाएंगे , दीन में मक्कारी बढ़ जाएगी। सुन्नतों के रास्ते नज़र अन्दाज़ हो जाएंगे , ख़्वाहिशात पर अमल होगा , एहकाम मुअत्तल हो जाएंगे और नफ़सानी बीमारियां बढ़ जाएंगी , न बड़े से बड़े हक़ के मोअत्तल हो जाने से कोई वहशत होगी और न बड़े से बड़े बातिल पर अमल दरआमद से कोई परेशानी होगी।

ऐसे मौक़े पर नेक लोग ज़लील कर दिये जाएंगे और शरीर लोगों की इज़्ज़त होगी और बन्दों पर ख़ुदा की उक़ूबतें अज़ीमतर हो जाएंगी।

ख़ुदारा आपस में एक-दूसरे के मुख़लिस रहो (एक दूसरे को समझाते-बुझाते रहो) और एक-दूसरे की मदद करते रहो इसलिये के तुममें कोई शख़्स भी कितना ही ख़ुशनूदिये ख़ुदा की लालच रखता हो और किसी क़द्र भी ज़हमते अमल बरदाश्त कर ले इताअते ख़ुदा की उस मन्ज़िल तक नहीं पहुंच सकत है जिसका वह अहल है लेकिन फिर भी मालिक का यह हक़्के़ वाजिब उसके बन्दों के ज़िम्मे है के अपने इमकान भर नसीहत करते रहें और हक़ के क़याम में एक दूसरे की मदद करते रहें इसलिये के कोई शख़्स भी हक़ की ज़िम्मेदारी अदा करने में दूसरे की इमदाद से बेनियाज़ नहीं हो सकता है चाहे हक़ में इसकी मन्ज़िलत किसी क़द्र अज़ीम क्यों न हो और दीन में उसकी फ़ज़ीलत को किसी क़द्र तक़द्दुम क्यों न हासिल हो और न कोई शख़्स हक़ में मदद करने या मदद लेने की ज़िम्मेदारी से कमतर हो सकता है चाहे लोगों की नज़र में किसी क़द्र छोटा क्यों न हो (चाहे लोग उसे ज़लील समझें) और चाहे उनकी निगाहों में किसी क़द्र क्यों न गिर जाए (चाहे उनकी निगाहों में किसी क़द्र हक़ीर क्यों न हो)। (इस गुफ़्तगू के बा आपके असहाब में से एक शख़्स ने एक तवील तक़रीर की जिसमें आपकी मदहा व सना के साथ इताअत का वादा किया गया तो आपने फ़रमाया के-)

याद रखो के जिसके दिल में जलाले इलाही की अज़मत और जिसके नफ़्स में इसके मक़ामे उलूहियत की बलन्दी है उसका हक़ यह है के तमाम कायनात उसकी नज़र में छोटी हो जाए और ऐसे लोगों में इस हक़ीक़त का सबसे बड़ा अहल वह है जिस पर उसकी नेमतें अज़ीम और उसके अच्छे एहसानात किये हों , इसलिये के किसी शख़्स पर अल्लाह की नेमतें अज़ीम नहीं होतीं मगर यह के उसका हक़ भी अज़ीमतर हो जाता है और एहकाम के हालात में नेक किरदार अफ़राद के नज़दीक बदतरीन हालत ये है के उनके बारे में ग़ुरूर का गुमान हो जाए और उनके मामेलात को तकब्बुर पर मबनी समझा जाए और मुझे यह बात सख़्त नागवार है के तुम में से किसी को यह गुमान पैदा हो जाए के मैं रोसा (बढ़ चढ़ कर सराहे जाने) को दोस्त रखता हूँ या अपनी तारीफ़ सुनना चाहता हूँ और बेहम्दे अल्लाह मैं ऐसा नहीं हूँ और अगर मैं ऐसी बातें पसन्द भी करता होता तो भी उसे नज़रअन्दाज़ कर देता के मैं अपने को उससे कमतर समझता हूँ के इसी अज़मत व किबरियाई का अहल बन जाऊँ जिसका परवरदिगार हक़दार है। यक़ीनन बहुत से लोग ऐसे हैं जो अच्छी कारकर्दगी पर तारीफ़ को दोस्त रखते हैं लेकिन ख़बरदार तुम लोग मेरी इस बात पर तारीफ़ न करना के मैंने तुम्हारे हुक़ूक़ अदा कर दिये हैं के अभी बहुत से ऐसे हुक़ूक़ का ख़ौफ़ बाक़ी है जो अदा नहीं हो सके हैं और बहुत से फ़राएज़ हैं जिन्हें बहरहाल नाफ़िज़ करना है। देखो मुझसे उस लहजे में बात न करना जिस लहजे में जाबिर बादशाहों से बात की जाती है और न मुझसे इस तरह बचने की कोशिश करना जिस तरह तैश में आने वालों से बचा जाता है , न मुझसे ख़ुशामद के साथ ताल्लुक़ात रखना और न मेरे बारे में यह तसव्वुर करना के मुझे हर्फ़े हक़ गराँ गुज़रेगा और न मैं अपनी ताज़ीम का तलबगार हूँ। इसलिये के जो शख़्स भी हर्फ़े हक़ सुनने को गराँ समझता है या अदल की पेशकश को नापसन्द करता है वह हक़ व अदल पर अमल को यक़ीनन मुश्किलतर ही तसव्वुर करेगा। लेहाज़ा ख़बरदार हर्फ़े हक़ कहने में तकल्लुफ़ न करना और मुन्सिफ़ाना मश्विरा देने से गुरेज़ न करना इसलिये के मैं ज़ाती तौर पर अपने को ग़लती से बालातर नहीं तसव्वुर करता हूँ और न अपने अफ़आल को इस ख़तरे से महफ़ूज़ समझता हूँ मगर यह के मेरा परवरदिगार मेरे नफ़्स को बचा ले के वह इसका मुझसे ज़्यादा साहबे इख़्तेयार है।

देखो हम सब एक ख़ुदा के बन्दे और उसके ममलूक हैं और उसके अलावा कोई दूसरा ख़ुदा नहीं है। वह हमारे नुफ़ूस पर इतना इख़्तेयार रखता है जितना ख़ुद हमें भी हासिल नहीं है और उसी ने हमें साबेक़ा हालात से निकाल कर इस इस्लाह के रास्ते पर लगा दिया है के अब गुमराही हिदायत में तबदील हो गई है और अन्धेपन के बाद बसीरत हासिल हो गई है।

217-आपका इरशादे गिरामी

(क़ुरैश से शिकायत और फ़रयाद करते हुए)

ख़ुदाया! मैं क़ुरैश से और उनके मददगारों से तेरी मदद चाहता हूँ के इन लोगों ने मेरी क़राबतदारी का ख़याल नहीं किया और मेरे ज़र्फे़ अज़मत को इलट दिया है और मुझसे उस हक़ के बारे में झगड़ा करने पर इत्तेहाद कर लिया है जिसका मैं सबसे ज़्यादा हक़दार था और फिर यह कहने लगे के आप इस हक़ को ले लें तो यह भी सही है और आपको इससे रोक दिया जाए तो यह भी सही है। अब चाहें हम्म व ग़म के साथ सबर करें या रन्ज व अलम के साथ मर जाएं।

ऐसे हालात में मैंने देखा के मेरे पास न कोई मददगार है और न कोई दिफ़ाअ करने वाला सिवाए मेरे घरवालों के , तो मैने उन्हें मौत के मुंह में देने से गुरेज़ किया और बाला आखि़र आँखों में ख़स व ख़ाशाक के होते हुए चश्मपोशी की और गले में फन्दे के होते हुए लोआबे दहन निगल लिया और ग़ुस्से को पीने में ख़ेज़ल से ज़ियाह तल्ख़ ज़ाएक़े पर सब्र किया और छुरियों के ज़ख़्मों से ज़्यादा तकलीफ़देह हालात पर ख़ामोशी इख़्तेयार कर ली।

( सय्यद रज़ी - गुज़िश्ता ख़ुतबे में यह मज़मून गुज़र चुका है लेकिन रिवायतें मुख़्तलिफ़ थीं लेहाज़ा मैंने दोबारा उसे नक़्ल कर दिया)

218-आपका इरशादे गिरामी

(बसरा की तरफ़ आपसे जंग करने के लिये जाने वालों के बारे में)

यह लोग मेरे आमिलों , मेरे ज़ेरे दस्त बैतुलमाल के ख़ेरानादारों और तमाम अहले शहर जो मेरी इताअत व बैअत में थे सबकी तरफ़ वारिद हुए। इनके कलेमात में इफ़तेराक़ पैदा किया। इनके इजतेमाअ को बरबाद किया और मेरे चाहने वालों पर हमला कर दिया और इनमें से एक जमाअत को धोके से क़त्ल भी कर दिया लेकिन दूसरी जमाअत ने तलवारें उठाकर दाँत भींच लिये और बाक़ायदा मुक़ाबला किया यहां तक के हक़ व सिदाक़त के साथ ख़ुदा की बारगाह में हाज़िर हो गए।

(((- हैरत अंगेज़ बात है के मुसलमान अभी तक इन दो गिरोहों के बारे में हक़ व बातिल का फ़ैसला नहीं कर सका है जिनमें एक तरफ़ नफ़्स रसूल (स 0) अली बिन अबीतालिब (अ 0) जैसा इन्सान था जो अपनी तारीफ़ को भी गवारा नहीं करता था और हर लम्हे अज़मते ख़ालिक़ के पेशे नज़र अपने आमाल को हक़ीर व मामूली तसव्वुर करता था और एक तरफ़ तल्हा व ज़ुबैर जैसे वह दुनिया परस्त थे जिनका काम फ़ितना परवाज़ी शरांगेज़ी , तफ़रिक़ा अन्दाज़ी और क़त्ल व ग़ारत के अलावा कुछ न था और जो दौलत व इक़तेदार की ख़ातिर व दुनिया की हर बुराई कर सकते थे और हर जुर्म का इरतेकाब कर सकते थे।))

219-आपका इरशादे गिरामी

(जब रोज़े जमल तल्हा बिन अब्दुल्लाह और अब्दुर्रहमान बिन अताब बिन उसीद की लाशों के क़रीब से गुज़र हुआ)

अबू मोहम्मद (तल्हा) ने इस मैदान में आलमे ग़ुरबत में सुबह की है , ख़ुदा गवाह है के मुझे यह बात हरगिज़ पसन्द नहीं थी के क़ुरैश के चमकते सितारों के नीचे ज़ेरे आसमान पड़े रहें लेकिन क्या करूं। बहरहाल मैंने अब्द मुनाफ़ की औलाद से उनके किये का बदला ले लिया है (लेकिन) अफ़सोस के बनी जमअ बच कर निकल गए उन सबने अपनी गर्दनें इस अम्र की तरफ़ उठाई थीं जिसके यह हरगिज़ अहल नहीं थे। इसीलिये यहाँ तक पहुंचने से पहले ही इनकी गर्दनें तोड़ दी गईं।


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