ग़दीरे ख़ुम

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ग़दीरे ख़ुम कैटिगिरी: इतिहासिक कथाऐ

ग़दीरे ख़ुम

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

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ग़दीरे ख़ुम

ग़दीरे ख़ुम

हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

पैग़म्बरे अकरम (स) के सामने तीन रास्ते

कारेईने केराम , हमने यह अर्ज़ किया था कि पैग़म्बरे अकरम (स) ख़िलाफ़त और जानशीनी के मसअले में अपनी उम्मत के दरमियान होने वाले इख़्तिलाफ़ और फ़ितने से आगाह थे , अब सवाल यह उठता है कि आँ हज़रत (स) ने इस फ़ितने से मुक़ाबले के लिये क्या तदबीरें सोची ? क्या आपने अपनी ज़िम्मेदारी को महसूस किया और उसके लिये कोई राहे हल पेश किया या नही ?

हम इस सवाल के जवाब में अर्ज़ करते हैं कि यहाँ पर दर्ज ज़ैल तीन ऐहतेमाल का तसव्वुर किया जा सकता है:

अ. ग़ैर ज़िम्मेदाराना तरीक़ा , यानी पैग़म्बरे अकरम (स) ने अपनी ज़िम्मेदारी का ज़रा भी अहसास न किया।

ब. ज़िम्मेदारानी तरीक़ा लेकिन शूरा के हवाले करना , यानी आँ हज़रत (स) ने इख़्तिलाफ़ और झगड़े को दूर करने के लिये शूरा की तरफ़ दावत दी ताकि शूरा की नज़र के मुताबिक़ अमल किया जाये।

स. ज़िम्मेदाराना तरीक़ा लेकिन मुअय्यन करना , यानी पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़ितना व इख्तिलाफ़ को दूर करने के लिये अपना जानशीन मुअय्यन किया।

पहले तरीक़ ए कार के तरफ़दार

सबसे पहले जिन लोगों ने इस तरीक़ ए कार को शाया किया कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने किसी के लिये कोई वसीयत नही , जनाबे आयशा थी , चुँनाचे वह कहती हैं: पैग़म्बरे अकरम (स) जिनका सर मेरे ज़ानू पर था , इस दुनिया से चले गये और किसी के लिये वसीयत नही की।सही बुख़ारी , जिल्द 6 पेज 16)

अबू बक्र भी आपकी वफ़ात के वक़्त कहते हैं: मैं चाहता था कि रसूलल्लाह (स) से सवाल करू कि ख़िलाफ़त का मुसतहिक़ कौन है ? ताकि इस सिलसिले में इख्तिलाफ़ न हो।(तारीख़े तबरी जिल्द 3 पेज 431)

एक दूसरे मक़ाम पर मौसूफ़ कहते हैं:

पैग़म्बरे अकरम (स) को लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया ताकि अपनी मसलहत के लिहाज़ से किसी का इंतेख़ाब कर लें।तारीख़े तबरी जिल्द 4 पेज 53)

उमर बिन ख़त्ताब भी अपने बेटे के जवाब में कहते हैं जिन्होने उनसे दरख़्वास्त की थी कि लोगों को चरवाहे के बग़ैर गोसफ़ंदों की तरह क्यो छोड़ रहे हैं , उनकी जवाब था: अगर मैं अपने लिये कोई जानशीन मुअय्यन न करू तो मैंने रसूले ख़ुदा (स) की इक्तेदा की और अगर अपने बाद के लिये कोई ख़लीफ़ा मुअय्यन करता हूँ तो मैंने अबू बक्र की इक्तेदा की।हिलयतुल अवलिया जिल्द 1 पेज 44)

पहले तरीक़ ए कार पर होने वाले ऐतेराज़

यह ऐहतेमाल कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने अपने बाद के लिये जानशीनी के सिलसिले में किसी ज़िम्मेदारी का अहसास न किया , उस पर बहुत से ऐतेराज़ हैं , हम ज़ैल में उनकी तरफ़ इशारा करते हैं:

1. इस ऐहतेमाल का नतीजा ज़रूरीयाते इस्लाम व मुसलेमीन में लापरवाही है हम इस बात पर अक़ीदा रखते हैं कि इस्लाम एक ऐसा मुकम्मल दीन है जिस में इंसानी ज़िन्दगी के हर पहलू के लिये क़वानीन मौजूद हैं जो उसकी सआदत का ज़ामिन हैं , ऐसी सूरत में यह कैसे मुमकिन हो सकता है कि पैग़म्बरे अकरम (स) इस अहम ज़िम्मेदारी (जानशीनी) की निस्बत बे तवज्जो रहें।

2. यह ऐहतेमाल रसूले अकरम (स) की सीरत के बर खिलाफ़ है , जो हज़रात तारीख़े रसूल (स) का मुतालआ रखते हैं वह जानते हैं कि आँ हज़रत (स) ने अपनी 23 साल की ज़िन्दगी में इस्लाम की नश्र व इशाअत और मुसलमानों की इज़्ज़त व सर बुलंदी के लिये बहुत कोशिशें की हैं , आप ने अपने मरज़ुल मौत में भी इस्लामी सहहद की हिफ़ाज़त के लिये एक लश्कर तैयार किया और ख़ुद आप बीमारी के आलम में इस लश्कर को रुख़्सत करने के लिये मदीने से बाहर तशरीफ़ लाये।

आँ हज़रत (स) ने मुसलमानो के इख्तिलाफ़ और गुमराही के पेशे नज़र हुक्म दिया कि क़लम व क़ाग़ज़ लाओ ताकि तुम्हारे लिये एक ऐसी वसीयत लिख दूँ जिस पर अमल करने के बाद कभी गुमराह न हो।

आप जब जंग के लिये मदीने से बाहर तशरीफ़ ले जाते थे तो अपनी जगह पर किसी को मुअय्यन करके जाते थे ताकि वह मुसलमानो के नज़्म को बर क़रार रखे , मिसाल के तौर पर:

हिजरत के दूसरे साल ग़ज़व ए बवात के मौक़े पर सअद बिन मआज़ को ग़ज़वा ज़िल अशीरा में अबू सलम ए मख़ज़ूमी को ग़ज़वा बद्रे कुबरा में इब्ने मकतूम को ग़ज़व ए बनी क़िक़ाअ और ग़ज़व ए सवीक़ में अबू लबाबा अंसारी को अपना जानशीन बनाया।

हिजरत के तीसरे साल भी ग़ज़व ए क़रक़रतुल कुद्र जंगे ओहद और हमरा उल असद में इब्ने मकतूम और नज्द के इलाक़े में ग़ज़व ए ज़ी अम्र में उस्मान बिन अफ़्फ़ान को जानशीन क़रार दिया।

हिज़रत के चौथे साल में ग़ज़व ए बनी नज़ीर में इब्ने मकतूम को और ग़ज़व ए बद्रे सीव्वुम में अब्दुल्लाह बिन रवाहा को अपना जानशीन क़रार दिया।

हिजरत के पाँचवें साल ग़ज़व ए ज़ातुर रिका़अ में उस्मान बिन अफ़्फ़ान को और गज़व ए दौमतुस जुन्दल नीज़ खंदक़ में इब्ने मकतूम को और गज़व ए बनी मुसतग़लक़ में ज़ैद बिन हारेसा को अपनी जगह मुअय्यन किया।

हिजरत के छठे साल गज़व ए बनी लेहयान , गज़व ए ज़ी क़रद और गज़व ए होदैयबिया में इब्ने मकतूम को अपना जानशीन क़रार दिया।

हिजरत के सातवें साल गज़व ए ख़ैबर , गज़व ए उमरतुल क़ज़ा में सबाअ बिन उरफ़ता को और हिजरत के आठवें साल जंगे तबूक के मौक़े पर मदीने में हज़रत अली बिन अबी तालिब (अ) को अपना जानशीन क़रार दिया।(देखिये मआलिमुल मदरसतैन जिल्द 1 पेज 273 से 279)

इन चंद सतरों को पढ़ने के बाद हो सकता है कि किसी के ज़हन में यह सवाल आये कि आँ हज़रत (स) ने हज़रत अली (अ) को मदीने में सिर्फ़ एक बार अपना जानशीन बनाया जबकि बाज़ लोगो को कई मरतबा जानशीन बनाया तो उसकी वजह ज़ाहिर है कि हज़रत अली (अ) हर जंग में आपके साथ साथ रहते थे सिवाए जंगे तबूर में।मुतर्जिम)

कारेईने केराम , आपने मुलाहिज़ा फ़रमाया कि जब पैग़म्बरे अकरम (स) चंद रोज़ के लिये मदीने से बाहर तशरीफ़ ले जाते थे तो मदीने को अपने जानशीन से ख़ाली नही छोड़ते थे तो क्या कोई तसव्वुर कर सकता है कि पैग़म्बरे अकरम (स) अपने उस आख़िरी सफ़र के जिससे वापस नही आना है अपने बाद के लिये किसी को जानशीन मुअय्यन नही करेगें और यह काम लोगों के ज़िम्मे छोड़ देगें ?

3. यह ऐहतेमाल पैग़म्बरे अकरम (स) के हुक्म के खिलाफ़ है क्योकि आँ हज़रत (स) ने मुसलमानों से फ़रमाया है:

(उसूले काफ़ी जिल्द 2 पेज 131)

जो शख्स सुबह उठे लेकिन मुसलमानो की फ़िक्र न करे तो ऐसा शख्स मुसलमान नही है।

क्या इस सूरते हाल मे यह कहा जा सकता है कि पैग़म्बरे अकरम (स) को मुसलमानो के दरख्शाँ मुसतक़बिल की फ़िक्र नही थी ?

4. यह ऐहतेमाल ख़ुलाफ़ा की सीरत के भी बर ख़िलाफ़ है क्योकि हर ख़लीफ़ा मुसलमानो के मुसतक़बिल के लिये फ़िक्र मंद था और अपने लिये जानशीन मुअय्यन किया है।

चुनाचे तबरी कहते हैं कि अबू बक्र ने अपने आख़िरी वक़्त में कमरा ख़ाली करके उस्मान को बुलाया और उनसे कहा: बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम , यह अहद व पैमान अबू बक्र की तरफ़ से मुसलमानो के लिये है , यह कहते ही बेहोश हो गये , जनाबे उस्मान ने इस फ़िक्र से कि कहीं अबू बक्र बग़ैर जानशीन मुअय्यन किये इस दुनिया से चले जायें , वसीयत में उमर बिन ख़त्ताब का नाम लिख कर आगे लिखना शुरु कर दिया , थोड़ी देर बाद हज़रत अबू बक्र को होश आ गया और उस्मान की लिखी हुई तहरीर की तसदीक़ की , उस पर अपनी मोहर लगा दी और अपने ग़ुलाम का दी कि उसको उमर बिन ख़त्ताब तक पहुचा दे , उमर ने भी ख़त को लिया और उसको लेकर मस्जिद में गये और कहा ऐ लोगों ख़लीफ़ ए रसूल ख़ुदा अबू बक्र का ख़त है जिसमें तुम्हारे लिये कुछ नसीहते लिखी हैं।

(तारीखे तबरी जिल्द 3 पेज 429)

इस वाक़ेया से हम दो बातों का नतीजा हासिल करते है एक तो यह कि अबू बक्र व उस्मान दोनो उम्मते इस्लामिया की फ़िक्र में थे और अबू बक्र ने अपने लिये जानशीन मुअय्यन किया है जिसकी ताईद हज़रत उमर ने भी की है।

दूसरे यह कि हज़रत उमर को जाहो मक़ाम की मुहब्बत ने इस चीज़ पर मजबूर रॉकर दिया कि पैग़म्बरे अकरम (स) की वसीयत का मुक़ाबला करें और आँ हज़रत (स) की तरफ़ हिज़यान की निस्बत दें लेकिन हालते ऐहतेज़ार में अबू बक्र की वसीयत को कबूल कर लिया और उनकी तरफ़ हिज़यान की निस्बत न दी।

इसी तरह जब हज़रत उमर ने यह महसूस किया कि उनकी मौत आने वाली है , अपने बेटे अब्दुल्लाह को जनाबे आयशा के पास भेजा ताकि उनसे पैग़म्बरे अकरम (स) के हुजरे में दफ़्न होने की इजाज़त ले ले तो जनाबे आयशा ने दरख़्वास्त को कबूल करते हुए उमर के लिये यह पैग़ाम भेजा कि कहीं ऐसा न हो कि उम्मते मुहम्मदी को बग़ैर चरवाहे के गोसफ़ंदों की तरह छोड़ कर चले जायें और उनके लिये जानशीन मुअय्यन किये बग़ैर ही इस दुनिया से चले जायें।अल इमामह वस सियायह जिल्द 1 पेज 32)

इस वाक़ेया से भी यह नतीजा निकलता है कि आयशा और उमर भी उम्मते इस्लामिया के मुस्तक़बिल और उम्मत के लिये जानशीन मुअय्यन करने की फ़िक्र में थे।

मुआविया भी अपने बेटे यज़ीद की बैअत लेने के लिये मदीने आया और उसने चंद असहाब मिनजुमला अब्दुल्लाह बिन उमर से मुलाक़ात के बाद कहा: मैं उम्मते मुहम्मदी को बग़ैर चरवाहे के गोसफंदों की तरह छोड़ने से नाख़ुश हूँ लिहाज़ा अपने बेटे यज़ीद को जानशीन बनाने की फ़िक्र में हूँ।

(अल इमामह वस सियासह जिल्द 1 पेज 168)

कारेईने केराम , इन तमाम वाक़ेयात के पेशे नज़र यह कैसे मुमकिन है कि सब तो उम्मत की फ़िक्र में रहें , लेकिन पैग़म्बरे अकरम (स) को उम्मत के लिये जानशीन की फ़िक्र न हो ?

6. यह मज़कूरा ऐहतेमाल अंबिया (अ) की सीरत के भी खिलाफ़ है , क्यो कि क़ुरआने मजीद पर सरसरी नज़र से ही यह नतीजा हासिल होता है कि अंबिया ए इलाही ने अपने बाद के लिये जानशीन मुअय्यन किया है , लिहाज़ा यक़ीनी तौर पर पैग़म्बरे अकरम (स) भी इस ख़ुसूसियत से अलग नही हैं।

इसी वजह से हज़रत मूसा (अ) मे ख़ुदा वंदे आलम की बारगाह में अर्ज़ किया कि उनके लिये एक वज़ीर करे , जैसा कि क़ुरआने मजीद में इरशाद होता है:

وَاجْعَل لِّي وَزِيرًا مِّنْ أَهْلِي هَارُونَ أَخِي (सूरह ताहा आयत 29, 30)

और मेरे अहल में से मेरा वज़ीर क़रार दे हारुन को जो मेरा भाई है।

इब्ने अब्बास नक़्ल करते हैं कि नासल नामी यहूदी पैग़म्बरे अकरम (स) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और कहने लगा या मुहम्मद , मैं आप से चंद चीज़ों के बारे में सवाल करता हूँ जो मेरे ज़हन में पाये जाते हैं , अगर आपने उनका जवाब दे दिया तो मैं आप पर ईमान ले आऊगाँ। ऐ मुहम्मद बताओ कि तुम्हारा जानशीन कौन है ? क्यो कि हर नबी ने अपना जानशीन मुअय्यन किया , हमारे नबी (मूसा बिन इमरान) के जानशीन यूशा बिन नून हैं , चुँनाचे इस मौक़े पर रसूले अकरम (स) ने फ़रमाया:

(यनाबिउल मवद्दत बाब 76 हदीस 1)

बेशक मेरे वसी अली बिन अबी तालिब (अ) और उनके बाद मेरे दो फ़रजंद हसन व हुसैन हैं फिर हुसैन की नस्ल से नौ इमाम मेरे वसी हैं।

याक़ूबी कहते हैं: हज़रत आदम (अ) ने अपनी वफ़ात के वक़्त शीस से वसीयत की और उनको ज़ोहद व तक़वा और हुस्ने इबादत का हुक्म दिया और क़ाबील लईन की दोस्ती से मना फ़रमाया।तारीख़े याक़ूबी जिल्द 1 पेज 7)

शीस ने भी अपने फ़रज़ंद अनूश को वसीयत की , अनूश ने भी अपने बेटे क़ीनान को वसीयत की और उन्होने अपने बेटे महलाईल को , उन्होने अपने बेटे यरद को और उन्होने अपने फ़रज़ंद ईदरीस को वसीयत की।

(कामिल इब्ने असीर जिल्द 1 पेज 54, 55)

ईदरीस ने अपने बेटे मुतशल्लिख़ को , उन्होने अपने फ़रज़ंद लमक को , उन्होने अपने बेटे नूह को और उन्होने अपने फ़रज़ंद साम को वसीयत की।

(कामिल बिन असीर जिल्द 1 पेज 62)

जिस वक़्त जनाबे इब्राहीम (अ) मक्के से रवाना हुए तो अपने बेटे इस्माईल को वसीयत की कि ख़ान ए काबा के नज़दीक सुकूनत इख्तियार करना और मनासिके हज को क़ायम रखना।(जनाबे इस्माईल ने अपने भाई इसहाक़ को वसीयत की , उन्होने अपने फ़रजंद याक़ूब को वसीयत की और इसी तरह वसीयत का यह सिलसिला बाप बेटे या भाई के दरमियान चलता रहा।(तारीख़े याक़ूबी जिल्द 1 पेज 28) )

इसी तरह जनाबे दाऊद ने अपने फ़रजंद सुलेमान को वसीयत की और फ़रमाया: अपने ख़ुदा की वसीयतों पर अमल करो और तौरेत में लिखे उसके अहद व पैमान और वसीयतों की हिफ़ाज़त करना।

हज़रत ईसा (अ) ने भी शमऊन को वसीयत की और जब शमऊन की वफ़ात का वक़्त क़रीब आया तो ख़ुदा वंदे आलम ने उन पर वहयी नाज़िल की कि हिकमत (यानी नूरे ख़ुदा) और अंबिया की तमाम मीरास को यहया के पास अमानत रख दो।

और यहया को हुक्म दिया कि ख़िलाफ़त और इमामत को शमऊन की औलाद और हज़रते ईसा (अ) के हव्वारियों के हवाले कर दो और इसी तरह वसीयत की यह सिलसिला जारी रहा। यहाँ तक कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) तक पहुचा।

(इसबातुल वसीयत पेज 70)

यह वसीयतें सिर्फ़ माल या अहले ख़ाना से मुतअल्लिक़ नही थी मख़सूसन अहले सुन्नत के इस नज़रिये के मुताबिक़ कि अंबिया मीरास में माल नही छोड़ते बल्कि यह वसीयतें हिदायत और मुआशरे की रहबरी नीज़ शरीयत की हिफ़ाज़त के लिये थीं।

क्या इन तमाम हालात के बावजूद पैग़म्बरे अकरम (स) इस अक़्ली क़ानून से अलग हैं ?

जनाबे सलमाने फ़ारसी ने रसूले अकरम (स) से सवाल किया:

हदीस (कंज़ुल उम्माल जिल्द 11 पेज 610 हदीस 32953, मजमउज़ ज़वायद जिल्द 9 पेज 113, 114)

या रसूलल्लाह , हर नबी का एक वसी होता था , आपका वसी कौन है ? पैग़म्बरे अकरम (स) ने चंद लम्हे बाद फ़रमाया: ऐ सलमान , चुँनाचे मैं बहुत तेज़ी के साथ आपकी ख़िदमत में पहुचा और मैंने लब्बैक कहा , उस वक़्त आं हज़रत (स) ने फ़रमाया: क्या तुम जानते हो कि मूसा बिन इमरान का वसी कौन था ? सलमान ने कहा: जी हाँ मैं जानता हूँ कि यूशा बिन नून थे , आँ हज़रत ने फ़रमाया: क्या तुम जानते हो कि किस वजह से वह वसी हुए ? मैने अर्ज़ किया: क्यो वह अपने ज़माने के सबसे बड़े आलिम थे , उस वक़्त रसूले इस्लाम (स) ने फ़रमाया: बेशक मेरा वसी , मेरा राज़दार और मेरे बाद बेहतरीन जानशीन वह है जो मेरे वादों पर अमल करे और वह मेरे दीन के बारे में हुक्म करेगा और वह अली बिन अबी तालिब (अ) हैं।

बुरैदा भी रसूले अकरम (स) से रिवायत नक़्ल करते हैं कि आं हज़रत ने फ़रमाया:

हदीस (रियाज़ुन नज़रह जिल्द 3 पेज 138)

हर नबी और पैग़म्बर का एक वारिस था , बेशक अली (अ) मेरे वसी और वारिस हैं।

7. पैग़म्बरे अकरम (स) का फ़रीज़ा सिर्फ़ यह नही था कि वहयी को हासिल करें और उसको लोगों तक पहुचा दें , बल्कि आँ हज़रत (स) के दूसरे भी फ़रायज़ थे जैसे:

अ. क़ुरआने करीमी की तफ़सीर , अहदाफ़ व मक़ासिद की तशरीह और कश्फ़े रुमूज़ व असरार।

आ. उस ज़माने में पेश आने वाले अहकाम और मौज़ूआत की वज़ाहत।

इ. दुश्मनाने इस्लाम की तरफ़ से अपने मफ़ाद के लिये इस्लामी मुआशरे में अहम और मुश्किल सवाल व ऐतेराज़ के जवाबात देना।

ई. दीन को तहरीफ़ से महफ़ूज़ रखना।

कारेईने मोहतरम , आँ हज़रत (स) की वफ़ात के बाद इन ज़रूरतों का अहसास हुआ , लिहाज़ा आँ हज़रत (स) का ऐसा जानशीन होना बहुत ज़रूरी है जो इस तरह के सवालात व ऐतेराज़ात का जवाब दे सके।

दूसरी तरफ़ से हम जानते हैं कि इन तमाम चीज़ों का ओहदे दार सिवाए हज़रत अली (अ) के कोई दूसरा नही था।

8. जैसा कि हम देखते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) की वफ़ात के वक़्त उम्मते इस्लामिया मुख़्तलिफ़ हमलों का शिकार हुई जैसे शेमाल और मशरिक़ी इलाक़ों से दो बड़े बादशाह , रूम व ईरान कशमकश के आलम में में और अंदरूनी इलाक़ो में मुनाफ़िक़ीन का ख़तरा था , बनी क़ुरैज़ा और बनी नज़ीर के यहूद भी मुसलमानो से अच्छे ताअल्लुक़ात नही रखते थे और मुसलमानो को नीस्त व नाबूद करने का सौदा अपने ज़हनों में रखे हुए थे।

इन हालात के पेशे नज़र जानशीनी के सिलसिले में पैग़म्बरे अकरम (स) की ज़िम्मेदारी क्या थी ? क्या मुसलमानों का उनके हाल पर छोड़ दिया जाये या आपकी यह ज़िम्मेदारी बनती थी कि मुसलमानो के इख्तिलाफ़ात को दूर करने के लिये अपने जानशीन के उनवान से एक शख्स को मुअय्यन करें ताकि वह लोगों की हिदायत व रहबरी के ज़रिये इस्लाम को कमज़ोर होने से महफ़ूज़ रखे।

लिहाज़ा कतई तौर पर हमें कबूल करना चाहिये कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने इस सिलसिले में अपने फ़र्ज को निभाया और अपना जानशीन मुअय्यन किया लेकिन बाज़ असहाब ने आँ हज़रत (स) की इस वसीयत और फ़रमाइश को नज़र अंदाज़ कर दिया और लोगों को गुमराही की तरफ़ ले गये , जिस की बेना पर मुसलमान मुआशरे में वह आशोब बरपा हुआ कि उमर बिन ख़त्ताब के बक़ौल ख़ुदा वंदे आलम ने उसके शर से मुसलमानों को निजात दी।

दूसरे तरीक़ ए कार पर ऐतेराज़

दूसरा तरीक़ ए कार जो पैग़म्बरे अकरम (स) के सामने हो सकता था वह यह है कि आँ हज़रत (स) ख़िलाफ़ते मसअले को शूरा के हवाले कर दें ताकि इत्तेफ़ाक़े राय से ख़ुद ही किसी को ख़लीफ़ा बना लें , लेकिन इस तरीक़ ए कार पर भी चंद ऐतेराज़ हैं जैसे:

1. अगर पैग़म्बरे अकरम (स) ख़िलाफ़त के लिये इस तरीक़ ए कार को इंतेख़ाब करते तो भी आँ हजरत (स) को उसकी वज़ाहत करना चाहिये था और इंतेख़ाब होने वाले और इंतेख़ाब करने वालों के शरायत को बयान करते , जबकि हम देखते हैं कि ऐसा नही हुआ , लिहाज़ा अगर यह तय हो कि ख़िलाफ़त का मसअला शूरा के हवाले कर दिया गया हो तो फिर उसको मुकर्रर और वाज़ेह तौर पर बयान करना चाहिये था।

2. न सिर्फ़ यह कि आँ हज़रत (स) ने शूरा के निज़ाम को बयान न किया बल्कि हरगिज़ लोगों में इस तरह के निज़ाम की सलाहियत नही पाई जाती थी , क्यो कि यह वही लोग थे जिन्होने हजरुल असवद को नस्ब करने के लिये झगड़ा खड़ा कर दिया , उनमें से हर क़बीला हजरे असवद को नस्ब करने का शरफ़ हासिल करना चाहता था और यह नज़ाअ जंग में तब्दील होने वाला था , चुँनाते पैग़म्बरे अकरम (स) ने सिर्फ़ अपनी तदबीर से इस झगड़े को ख़त्म किया और आपने एक चादर में हजरे असवद को रख कर तमाम क़बीलों का दावत दी कि अपना अपना नुमाइंदा भेज दें ताकि हजरे असवद को नस्ब करने में शरीक हो जाये।

ग़ज़व ए बनी मुसतलक़ में अंसार व मुहाजेरीन के दो लोगों में झगड़ा होने लगा और उनमें से हर शख्स ने अपनी क़ौम को मदद के लिये पुकारा , क़रीब था कि ख़ाना जंगी शुरु हो जाये और दुश्मन मुसलमानों पर ग़ालिब हो जाये लेकिन इस मौक़े पर पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने इस फ़ितने की आग को ख़ामोश किया और दोनो को जाहिलियत की बातों से डराया।

यह वही लोग हैं जिन्होने रसूले अकरम (स) की वफ़ात के बाद ख़िलाफ़त के मसअले में ऐसा इख्तिलाफ़ किया और चंद अंसार व मुहाजिर ने सक़ीफ़ा में बे बुनियाद दावों के ज़रियें हक़्क़े ख़िलाफ़त को ग़स्ब कर लिया , जिसको आख़िर में सहाबी रसूल (स) सअद बिन उबादा को हाथों और लातों से मारा गया और मुहाजेरीन ने हुकुमत व ख़िलाफ़त को अपने क़ब्ज़े में ले लिया।

3. यह बात कही जा चुकी कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) की ज़िम्मेदारी वहयी को हासिल करके उसकी तबलीग़ के अलावा दीगर ज़िम्मेदारियाँ भी थीं , रसूले अकरम (स) के बाद मुसलमान किसी ऐसी ज़ात के ज़रूरत मंद थे जो रसूले अकरम (स) की रेहलत से पैदा होने वाली कमी को पूरा कर सके और ऐसी ज़ात सिवाए अली और अहले बैत (अ) के को ई और नही थी।

लिहाज़ा जब हज़रत अली (अ) से सवाल किया गया कि आप पैग़म्बरे इस्लाम (स) से किस तरह सबसे ज़्यादा हदीसें नक़्ल करते हैं तो आपने फ़रमाया:

हदीस (सही तिरमिज़ी जिल्द 5 पेज 460, तबक़ात इब्ने साद जिल्द 2 पेज 101)

क्यो कि मैं जब पैग़म्बरे अकरम (स) से सवाल करता था तो आप जवाब देते थे और जब मैं ख़ामोश हो जाता था तो आँ हज़रत (स) ख़ुद हदीस बयान करना शुरु कर देते थे।

पैग़म्बरे अकरम (स) ने बारहा यह हदीस बयान फ़रमाई है:

हदीस (सही तिरमिज़ी जिल्द 5 पेज 637)

मैं शहरे हिकमत हूँ और अली (अ) उसकी दरवाज़ा।

इसी तरह आँ हज़रत (स) ने फ़रमाया:

(मुसतदरके हाकिम जिल्द 3 पेज 127)

मैं शहरे इल्म हूँ और अली उसका दरवाज़ा , जो शख्स मेरे इल्म को हासिल करना चाहता है उसको दरवाज़े से दाख़िल होना चाहिये।

कारेईने केराम , नतीजा यह निकला कि पहला और दूसरा तरीक़ा बातिल और बे बुनियाद है , तीसरा तरीक़ ए कार वही बाक़ी बचता है कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने अपनी ज़िन्दगी में ख़लीफ़ा बनाया।

दीगर असहाब पर अली (अ) की बरतरी

इमाम की इमामत के लिये मुतकल्लेमीन के नज़दीक एक शर्त ये है कि इमाम अपने ज़माने में सब से अफ़ज़ल हो , जैसा कि ख़ुदा वन्दे आलम फ़रमाता है

: قُلْ هَلْ مِن شُرَكَائِكُم مَّن يَهْدِي إِلَى الْحَقِّ قُلِ اللَّـهُ يَهْدِي

لِلْحَقِّ أَفَمَن يَهْدِي إِلَى الْحَقِّ أَحَقُّ أَن يُتَّبَعَ أَمَّن لَّا يَهِدِّي إِلَّا أَن يُهْدَى فَمَا لَكُمْ كَيْفَ تَحْكُمُونَ

(सूरह यूनुस आयत 35)

'' और जो हक़ की हिदायत करता है वह वाक़ेअन क़ाबिले इत्तेबा है ? या जो हिदायत के क़ाबिल नही है!! मगर ये कि ख़ुद उसकी हिदायत की जाये तो आख़िर तुम्हे क्या हो गया है और तुम कैसे फैसले कर रहे हो ''!!

पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: '' जो शख़्स दस लोगों पर किसी शख़्स को मुअय्यन करे और ये जानता हो कि उन दस लोगों में उस से अफ़ज़ल कोई दूसरा मौजूद है तो उसने ख़ुदा और रसूल और मोमनीन के साथ धोका किया '' (कन्ज़ुल उम्माल जिल्द 6 पेज 19 हदीस 14653)

अहमद बिन हंबल अपनी सनद के साथ पैग़म्बरे अकरम (स) से रिवायत की है कि आँ हज़रत ने फ़रमाया : ''जो शख़्स किसी को एक जमाअत पर मुअय्यन करे जब कि वह जानता हो कि उन के दरमियान उससे बेहतर कोई मौजूद है तो उसने ख़ुदा और रसूल और मोमेनीन के साथ ख़यानत की है '' (मजमउज़ ज़वायद जिल्द 5 पेज 232, मुसनद अहमद जिल्द 1 पेज 165)

ख़लील बिन अहमद से कहा गया: तुम क्यो अली (अ) की मदह नही करते ? उसने कहा मैं उस ज़ात के बारे में क्या कहूँ जिसके दोस्तों ने भी ख़ौफ़ की वजह से उसके फ़ज़ायल को छुपाया और दुश्मनों ने उनकी दुश्मनी की वजह से उनके फ़ज़ायल को छुपाया जबकि हज़रत अली (अ) के फ़ज़ायल हर तरफ़ नज़र आते हैं।

إِنَّمَا وَلِيُّكُمُ اللَّـهُ وَرَسُولُهُ وَالَّذِينَ آمَنُوا الَّذِينَ يُقِيمُونَ الصَّلَاةَ وَيُؤْتُونَ الزَّكَاةَ وَهُمْ رَاكِعُونَ

(अहक़ाक़ुल हक़ जिल्द 4 पेज 2)

अ. इमाम अली (अ) की अफ़ज़लियत पर दलालत करने वाली आयात

1. इमाम अली (अ) और विलायत

हज़रत अली (अ) की ज़ात वह है जिनकी शान में आयते विलायत नाज़िल हुई है:

(सूरह मायदा आयत 55)

तर्जुमा

, ईमान वालों , बस तुम्हारा वली अल्लाह है और उसका रसूल और वह साहिबाने ईमान जो नमाज़ क़ायम करते हैं और हालते रुकू में ज़कात देते हैं।

सुन्नी व शिया मुफ़स्सेरीन का इस बात पर इत्तेफ़ाक़ है कि यह आयत हज़रत अली (अ) की शान में नाज़िल हुई है और पचास से ज़्यादा अहले सुन्नत उलामा ने इस हक़ीक़त की तरफ़ इशारा किया है।दुर्रे मंसूर जिल्द 2 पेज 239)

2. इमाम अली (अ) और मवद्दत

हज़रत अली (अ) उन हज़रात में से हैं जिनकी मवद्दत और मुहब्बत तमाम मुसलमानों पर वाजिब की गई है जैसा कि ख़ुदा वंदे आलम ने फ़रमाया

: ذَلِكَ الَّذِي يُبَشِّرُ اللَّـهُ عِبَادَهُ الَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ قُل لَّا أَسْأَلُكُمْ عَلَيْهِ أَجْرًا إِلَّا الْمَوَدَّةَ فِي الْقُرْبَى وَمَن يَقْتَرِفْ حَسَنَةً نَّزِدْ لَهُ فِيهَا حُسْنًا إِنَّ اللَّـهَ غَفُورٌ شَكُورٌ

(सूरह शूरा आयत 23)

तर्जुमा

, आप कह दीजिए कि मैं तुम से इस तहलीग़े रिसालत का कोई अज्र नही चाहता सिवाए इसके कि मेरे क़राबत दारों से मुहब्बत करो।

सुयूतीस इब्ने अब्बास से रिवायत करते हैं: जब पैग़म्बरे अकरम (स) पर यह आयत नाज़िल हुई तो इब्ने अब्बास ने अर्ज़ किया , या रसूलल्लाह आपके वह रिश्तेदार कौन है जिनकी मुहब्बत हम लोगों पर वाजिब है ? तो आँ हज़रत (स) ने फ़रमाया: अली , फ़ातेमा और उनके दोनो बेटे।अहयाउल मय्यत बे फ़ज़ायले अहले बैत (अ) पेज 239, दुर्रे मंसूर जिल्द 6 पेज 7, जामेउल बयान जिल्द 25 पेज 14, मुसतदरके हाकिम जिल्द 2 पेज 444, मुसनदे अहमद जिल्द 1 पेज 199)

3. इमाम अली (अ) और आयते ततहीर

हज़रत अली (अ) का शान में आयते ततहीर नाज़िल हुई है चुँनाचे ख़ुदा वंदे आलम का इरशाद है

: إِنَّمَا يُرِيدُ اللَّـهُ لِيُذْهِبَ عَنكُمُ الرِّجْسَ أَهْلَ الْبَيْتِ وَيُطَهِّرَكُمْ تَطْهِيرًا

(सूरह अहज़ाब आयत 33)

ऐ (पैग़म्बर के) अहले बैत , ख़ुदा तो बस यह चाहता है कि तुम को हर तरह की बुराई से दूर रखे और जो पाक व पाकीज़ा रखने का हक़ है वैसा पाक व पाकीज़ा रखे।

मुस्लिम बिन हुज्जाज अपनी मुसनद के साथ जनाबे आयशा से नक़्ल करते हैं कि रसूले अकरम (स) सुबह के वक़्त अपने हुजरे से इस हाल में निकले कि अपने शानों पर अबा डाले हुए थे , उस मौक़े पर हसन बिन अली (अ) आये , आँ हज़रत (स) ने उनको अबा (केसा) में दाख़िल किया , उसके बाद हुसैन आये और उनको भी चादर में दाख़िल किया , उस मौक़े पर फ़ातेमा दाख़िल हुई तो पैग़म्बर (स) ने उनको भी चादर में दाख़िल कर लिया , उस मौक़े पर अली (अ) आये उनको भी दाख़िल किया और फिर इस आयते शरीफ़ा की तिलावत की।

: إِنَّمَا يُرِيدُ اللَّـهُ لِيُذْهِبَ عَنكُمُ الرِّجْسَ أَهْلَ الْبَيْتِ وَيُطَهِّرَكُمْ تَطْهِيرًا

(आयते ततहीर)

(सही मुस्लिम जिल्द 2 पेज 331)

4. इमाम अली (अ) और शबे हिजरत

हज़रत अली (अ) उस शख्सीयत का नाम है जो शबे हिजरत पैग़म्बरे अकरम (स) के बिस्तर पर सोए और उनकी शान में यह आयते शरीफ़ा नाज़िल हुई: وَمِنَ النَّاسِ مَن يَشْرِي نَفْسَهُ ابْتِغَاءَ مَرْضَاتِ اللَّـهِ وَاللَّـهُ رَءُوفٌ بِالْعِبَادِ

(सूरह बक़रह आयत 207)

लोगों में से कुछ ऐसे भी हैं जो अल्लाह की ख़ुशनूदी हासिल करने के लिये अपनी जान तक बेच डालते हैं और अल्लाह ऐसे वंदों पर बड़ा ही शफ़क़त वाला और मेहरबान है।

इब्ने अब्बास कहते हैं: यह आयते शरीफ़ा उस वक़्त नाज़िल हुई जब पैग़म्बरे अकरम (स) अबू बक्र के साथ मुशरेकीने मक्का के हमलों से बच कर ग़ार में पनाह लिये हुए थे और हज़रत अली (अ) पैग़म्बरे अकरम (स) के बिस्तर पर सोए हुए थे।

(अल मुसतदरक अलल सहीहैन जिल्द 3 पेज 4)

इब्ने अबिल हदीद कहते हैं: तमाम मुफ़स्सेरीन ने यह रिवायत की है कि यह आयते शरीफ़ा हज़रत अली (अ) की शान में उस वक़्त नाज़िल हुई जब आप बिस्तरे रसूल (स) पर लेटे हुए थे।

(शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द 13 पेज 263)

इस हदीस को अहमद बिन हंबल ने अल मुसनद में , तबरी ने तारिख़ुल उमम वल मुलूक में और दीहर उलामा ने भी नक़्ल किया है।

فَمَنْ حَاجَّكَ فِيهِ مِن بَعْدِ مَا جَاءَكَ مِنَ الْعِلْمِ فَقُلْ تَعَالَوْا نَدْعُ أَبْنَاءَنَا وَأَبْنَاءَكُمْ وَنِسَاءَنَا وَنِسَاءَكُمْ وَأَنفُسَنَا وَأَنفُسَكُمْ ثُمَّ نَبْتَهِلْ فَنَجْعَل لَّعْنَتَ اللَّـهِ عَلَى الْكَاذِبِينَ

5. इमाम अली (अ) और आयते मुबाहला

ख़ुदा वंदे आलम फ़रमाता है:

(सूरह आले इमरान आयत 61)

ऐ पैग़म्बर , इल्म के आ जाने के बाद जो लोग तुम से कट हुज्जती करें उनसे कह दीजिए कि (अच्छा मैदान में) आओ , हम अपने बेटे को बुलायें तुम अपने बेटे को और हम अपनी औरतों को बुलायें और तुम अपनी औरतों को और हम अपनी जानों को बुलाये और तुम अपने जानों को , उसके बाद हम सब मिलकर ख़ुदा की बारगाह में गिड़गिड़ायें और झूठों पर ख़ुदा की लानत करें।

मुफ़स्सेरीन का इस बात पर इत्तेफ़ाक़ है कि इस आयते शरीफ़ा में (अनफ़ुसना) से मुराद अली बिन अबी तालिब (अ) हैं , पस हज़रत अली (अ) मक़ामात और फ़ज़ायल में पैग़म्बरे अकरम (स) के बराबर हैं , अहमद बिन हंमल अल मुसनद में नक़्ल करते हैं: जब पैग़म्बरे अकरम (स) पर यह आयते शरीफ़ा नाज़िल हुई तो आँ हज़रत (स) ने हज़रत अली (अ) , जनाबे फ़ातेमा और हसन व हुसैन (अ) को बुलाया और फ़रमाया: ख़ुदावंदा यह मेरे अहले बैत हैं। नीज़ सही मुस्लिम , सही तिरमिज़ी और मुसतदरके हाकिम वग़ैरह में इसी मज़मून की रिवायत नक़्ल हुई है।

(मुसनदे अहमद जिल्द 1 पेज 185)

(सही मुस्लिम जिल्द 7 पेज 120)

(सोनने तिरमिज़ी जिल्द 5 पेज 596)

(अल मुसतदरके अलल सहीहैन जिल्द 3 पेज 150)

ब. हज़रत अली (अ) की अफ़ज़लियत पर दलालत करने वाली अहादीस

1. इमाम अली (अ) , पैग़म्बरे अकरम (स) के भाई

हाकिम नैशापूरी अब्दुल्लाह बिन उमर से रिवायत करते हैं: पैग़म्बरे अकरम (स) ने अपने असहाब के दरमियान अक़्दे उख़ूव्वत पढ़ा , अबू बक्र को उमर का भाई , तलहा को ज़ुबैर का भाई और उस्मान को अब्दुल्लाह बिन औफ़ का भाई क़रार दिया , हज़रत अली (अ) ने अर्ज़ किया या रसूलल्लाह , आपने अपने असहाब के दरमियान अक़्दे उख़ूव्वत पढ़ा लेकिन मेरा भाई कौन है ? उस वक़्त पैग़म्बरे (स) ने फ़रमाया:

तुम दुनिया व आख़िरत में मेरे भाई हो।अल मुसतदरक अलस सहीहैन जिल्द 3 पेज 14)

उस्ताद तौफ़ीक़ अबू इल्म (मिस्र अदलिया के वकीले अव्वल) तहरीर करते हैं कि पैग़म्बरे अकरम (स) का यह अमल तमाम असहाब पर हज़रत अली (अ) की फ़ज़ीलत को साबित करता है , नीज़ इस बात पर भी दलालत करता है कि हज़रत अली (अ) के अलावा कोई दूसरा पैग़म्बरे अकरम (स) का हम पल्ला और बराबर नही है।इमाम अली बिन अबी तालिब पेज 43)

उस्ताद ख़ालिद मुहम्मद ख़ालिद मिस्री रक़्म तराज़ है: आर उस शख्सीयत के बारे में क्या कहते हैं जिसको रसूले अकरम (स) ने अपने असहाब के दरमियान इंतेख़ाब किया ताकि उसको अक़्दे उख़ूव्वत के मौक़े पर अपनी भाई क़रार दे , बहुत मुमकिन है कि हज़रत अली (अ) के ईमान की गहराई बहुत ज़्यादा हो जिसकी वजह से आँ हज़रत (स) ने उनको दूसरों पर मुक़द्दम किया और अपने बरादर के उनवान से मुन्तख़ब किया।फ़ी रेहाब अली (अ)

उस्ताद अब्दुल करीम मिस्री तहरीर करते हैं कि यह उख़ूव्वत व बरादरी जिसको पैग़म्बरे अकरम (स) ने सिर्फ़ अली (अ) को इनायत फ़रमाई , यह बग़ैर दलील के नही थी , बल्कि ख़ुदा वंदे आलम के हुक्म से और ख़ुद हज़रत अली (अ) के फ़ज़्ल व कमाल की वजह से थी।

(अली बिन अबी तालिब बक़ीयतुन नुबुवह ख़ातिमुल ख़िलाफ़ह पेज 110)

2. इमाम अली (अ) और मौलूदे काबा

हाकिम नैशापुरी तहरीर करते हैं: मुतावातिर रिवायात इस बात पर दलालत करती है कि फ़ातेमा बिन्ते असद ने हज़रत अमीरुल मोमिनीन अली बिन अबी तालिब (अ) को ख़ान ए काबा के अंदर पैदा किया।अल मुसतरदक अलस सहीहैन जिल्द 3 पेज 550 हदीस 6044)

अहले सुन्नत मुअल्लेफ़ीन में से डाक्टर मुसम्मात सुआद माहिर मुहम्मद कहती हैं: इमाम अली (अ) किसी तारीफ़ और जिन्दगी नामे के मोहताज नही हैं , उनकी फ़ज़ीलत के लिये यही काफ़ी है कि आप ख़ान ए काबा में पैदा हुए और आप ने बैते वहयी में और क़ुरआने करीम के ज़ेरे साया तरबीयत पाई।

(मशहदुल इमाम अली (अ) फ़ीन नजफ़ पेज 6)

3- इमाम अली (अ) और तरबीयते इलाही

हाकिम नैशापुरी तहरीर करते हैं: अली बिन अबी तालिब (अ) ख़ुदा वंदे आलम की नेमतों में से अज़ीम नेमत उनकी तक़दीर थी , क़ुरैश बेशुमार मुश्किलात में गिरफ़्तार थे , अबू तालिब की औलाद ज़्यादा थी , रसूले ख़ुदा (स) ने अपने चचा अब्बास (जो बनी हाशिम में सबसे मालदार शख्सियत थी) से फ़रमाया: या अबुल फज़्ल , तु्म्हारे भाई अबू तालिब अयालदार हैं और सख्ती में ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं , उनके पास चलते हैं ताकि उनका कुछ बोझ कम करें , मैं उनके बेटों में से एक को ले लेता हूँ और आप भी किसी एक फ़रज़ंद का इंतेख़ाब कर लें ताकि उनको अपनी कि़फ़ालत में ले लें , चुँनाचे जनाबे अब्बास ने क़बूल कर लिया और दोनो जनाबे अबू तालिब के पास आये और मौज़ू को उनके सामने रखा , जनाबे अबू तालिब ने उनकी बातें सुन कर अर्ज़ किया: अक़ील को मेरे पास रहने दो , बक़ीया जिस को भी चाहो इँतेख़ाब कर लो , पैग़म्बरे अकरम (स) ने अली (अ) को इंतेख़ाब किया और जनाबे अब्बास ने जाफ़र को , हज़रत अली (अ) बेसत के वक्त तक पैग़म्बरे अकरम (स) के साथ रहे और आँ हज़रत (स) की पैरवी करते रहे और हमेशा आपकी तसदीक़ की।

पैग़म्बरे अकरम (स) नमाज़ के लिये मस्जिदुल हराम (ख़ान ए काबा) में जाते थे , उनके पीछे पीछे अली (अ) और जनाबे ख़दीजा जाते थे और आँ हज़रत (स) के साथ मल ए आम में नमाज़ पढ़ते थे , जबकि इन तीन अफ़राद के अलावा कोई नमाज़ नही पढ़ता था।

(अल मुसतदरक अलस सहीहैन जिल्द 3 पेज 183, मुसनद अहमद जिल्द 1 पेज 209, तारिख़े तबरी जिल्द 2 पेज 311)

उब्बाद बिन अब्दुल्लाह कहते हैं: मैंने अली (अ) से सुना कि उन्होने फ़रमाया: मैं ख़ुदा का वंदा और उसके रसूल का बरादर हूँ और मैं ही सिद्दीक़े हूँ , मेरे बाद कोई यह दावा नही कर सकता मगर यह कि वह झूटा और तोहमत लगाने वाला हो , मैं ने दूसरे लोगों से सात साल पहले रसूले अकरम (स) के साथ नमाज़ पढ़ी है।

(तारिख़े तबरी जिल्द 2 पेज 52)

उस्ताद अब्बास महमूद अक़्क़ाद मशहूर व मारूफ़ मिस्री कहते हैं: अली (अ) उस घर में तरबीयत पाई है कि जहाँ से पूरी दुनिया में इस्लाम की दावत पहुची।

(अबक़रियतुल इमाम अली (अ) पेज 43)

डाक्टर मुहम्मद अबदहू यमानी हज़रत अली (अ) के बारे में कहते हैं: वह ऐसे जवान मर्द थे जो बचपन से रसूले अकरम (स) के ज़ेरे साया परवान चढ़े और आख़िरे उम्र आँ हज़रत (स) का साथ न छोड़ा।

(अल्लिमू औलादकुम मुहब्बता आले बैतिन नबी (स) पेज 101)

4- इमाम अली (अ) ने किसी बुत के सामने सजदा नही किया

उस्ताद अहमद हसन बाक़ूरी , वज़ीरे अवक़ाफ़े मिस्र तहरीर करते हैं: तमाम असहाब के दरमियान सिर्फ़ इमाम अली (अ) को कर्मल्लाहो बजहहू कहे जाने की वजह यह है कि आपने कभी किसी बुत के सामने सजदा नही किया।

(अली (अ) इमामुल आईम्मा पेज 9)

उस्ताद अब्बास महमूद अक्क़ाद तहरीर करते हैं: मुसल्लम तौर पर हज़रत अली (अ) मुसलमान पैदा हुए हैं , क्यो कि (अशहाब के दरमियान) आप ही एक ऐसी शख्सियत थी , जिन्होने इस्लाम पर आँख़ें खोलीं और आप को हरगिज़ बुतों की इबादत की कोई शिनाख़्त न थी।

(अबक़िरयतुल इमाम अली (अ) पेज 43)

डाक्टर मुहम्मद यमानी रक़्मतराज़ है कि अली बिन अबी तालिब हमसरे फ़ातेमा , साहिबे मज्द व यक़ीन , दुख़्तरे बेहतरीने रसूल (कर्मल्लाहो बजहहू) हैं जिन्होने कभी किसी बुत के सामने तवाज़ो व इंकेसारी (यानी इबादत) नही की है।अल्लिमू औलादकुम मुहब्बता आले बैतिन नबी (स) पेज 101)

(हज़रत अली (अ) की यही फ़ज़ीलत डाक्टर मुहम्मद बय्यूमी मेहरान , उम्मुल क़ुरा मक्क ए मुअज्ज़मा शरीयत कालेज के उस्ताद और मुसम्मात डाक्टर सुआद माहिर भी बयान करते हैं।)

(अली बिन अबी तालिब (अ) पेज 50, मशहदुल इमाम अली (अ) फ़ीन नजफ़ पेज 36)

5- इमाम अली (अ) सबसे पहले मोमिन

पैग़म्बरे अकरम (स) ने हज़रत अली (अ) के बारे में फ़ातेमा ज़हरा (स) से फ़रमाया: बेशक वह (अली (अ) मेरे असहाब में सबसे पहले मुझ पर ईमान लाये।

(मुसनद अहमद जिल्द 5 पेज 662 हदीस 19796, कंज़ुल उम्माल जिल्द 11 पेज 605 हदीस 23924)

इसी तरह इब्ने अबिल हदीद रक़्मतराज़ हैं: मैं उस शख्सीयत के बारे में क्या कहूँ जिसने हिदायत में दूसरों से सबक़त ली हो , ख़ुदा पर ईमान लायें और उसकी इबादत की जबकि तमाम लोग पत्थर (के बुतों) की पूजा किया करते थे।

(शरहे इब्ने हदीद जिल्द 3 पेज 260)

6. इमाम अली (अ) ख़ुदा वंदे आलम के नज़दीक मख़लूक़ में सबसे ज़्यादा महबूब

तिरमिज़ी अपने सनद के साथ अनस बिन मालिक से रिवायत करते हैं: रसूले अकरम (स) के पास एक भूना हुआ परिन्दा (ख़ुदा की तरफ़ से नाज़िल) हुआ , उस मौक़े पर आँ हज़रत (स) ने अर्ज़ की , बारे इलाहा , तेरी मख़लूक़ में तेरे नज़दीक जो सबसे ज़्यादा महबूब हो उसको मेरे पास भेज दे ताकि वह इस भूने हुए परिन्दे में मेरे साथ शरीक हो , उस मौक़े पर हज़रत अली (अ) आये और पैग़म्बरे अकरम (स) के साथ खाना तनावुल फ़रमाया।सही तिरमिज़ी जिल्द 5 पेज 595)

उस्ताद अहमद हसन बाक़ूरी तहरीर करते हैं: अगर कोई तुम से सवाल करे कि किस दलील की वजह से लोग हज़रत अली (अ) से मुहब्बत करते हैं ? तो तुम उसके जवाब में कहो कि ख़ुदा अली (अ) को महबूब रखता है।

(अली इमाममुल आईम्मा पेज 107)

7. अली औऱ पैग़म्बर (स) एक नूर से

रसूले अकरम (स) ने फ़रमाया: मैं और अली बिन अबी तालिब , आदम की ख़िलक़त से चार हज़ार साल पहले ख़ुदा के नज़दीक एक नूर थे , जिस वक़्त ख़ुदा वंदे आलम ने (जनाबे) आदम को ख़ल्क़ फ़रमाया , उस नूर के दो हिस्से किये , जिसका एक हिस्सा मैं हूँ और दूसरा हिस्सा अली बिन अबी तालिब (अ) हैं।

(तज़किरतुल ख़वास पेज 46)

8. इमाम अली (अ) सबसे बड़े ज़ाहिद

उस्ताद अब्बास महमूद ऐक़ाद तहरीर करते हैं: ख़ुलाफ़ा के दरमियान दुनिया की लज़्ज़तों की निस्बत हज़रत अली (अ) से ज़ाहिद तरीन कोई नही था।

(अबक़रियतुल इमाम अली (अ) पेज 29)

9. इमाम अली (अ) सहाबा मे सबसे ज़्यादा शुजाअ व बहादुर

उस्ताद अली जुन्दी , मुहम्मद अबुल फ़ज़्ल इब्राहीम और मुहम्मद युसुफ़ महजूब अपनी किताब शजउल हेमाम फ़ी हुक्मिल इमाम तहरीर करते हैं: (हज़रत (अ) मुजाहेदिन के सैयद व सरदार थे , इस में किसी तरह का कोई इख़्तिलाफ़ नही है , उनकी मंज़िलत के लिये बस इतना ही काफ़ी है कि जंगे बद्र (इस्लाम की सबसे अज़ीम वह जंग जिस में पैग़म्बर अकरम (स) शरीक थे) में मुशरेकीन के सत्तर लोग हुए , जिनमे से आधे लोगों को हज़रत अली (अ) ने बाक़ी को दूसरे मुसलमानों और मलायका ने क़त्ल किया है , आप जंग में बहुत ज़्यादा ज़हमतें बर्दाश्त किया करते थे , आप रोज़े बद्र जंग करने वालों में सबसे मुक़द्दम थे , आप जंगे ओहद व हुनैन में साबित क़दम रहे और आप ही ख़ैबर के फ़ातेह और अम्र बिन अबदवद , ख़ंदक़ का नामी बहादुर और मरहब यहूदी के क़ातिल थे।

(सजउल हेमाम फ़ी हुक्मिल इमाम पेज 18)

अब्बास महमूद अक़्क़ाद तहरीर करते हैं: यह बात मशहूर थी कि हज़रत अली (अ) जब भी किसी से लड़े हैं उसको ज़ेर कर देते हैं और आपने किसी से जंग नही कि मगर यह कि उसको क़त्ल कर दिया।

(अबक़रितुल इमाम अली (अ) पेज 15)

डाक्टर मुहम्मद अबदहू यमानी हज़रत अली (अ) की तौसीफ़ में कहते हैं: हज़रत अली (अ) ऐसे बहादुर , शुजाअ और साबिक़ क़दम थे जिन्होने शबे हिजरत हज़रत रसूले अकरम (स) की जान की हिफ़ाज़त के लिये अपनी जान का तोहफ़ ख़ुलूसे के साथ पेश कर दिया , चुनाँचे आप उस मौक़े पर पैग़म्बरे अकरम (स) के बिस्तर पर सो गये।

(अल्लिमू औलादकुम मुहब्बता आलिन नबी (स) पेज 109)

10. इमाम अली (अ) सहाबा में सबसे बड़े आलिम

इमाम अली (अ) अपने ज़माने के सबसे बड़े आलिम थे , इस दावे को चंद तरीक़ों से साबित किया जा सकता है:

अ. पैग़म्बरे अकरम (स) का फ़रमान

पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया:

हदीस (मनाक़िबे ख़ारज़मी पेज 40)

मेरे बाद मेरी उम्मत में सबसे बड़े आलिम अली बिन अबी तालिब (अ) हैं।

तिरमिज़ी ने हज़रत रसूले अकरम (स) से रिवायत की कि आपने फ़रमाया:

हदीस (सही तिरमिज़ी जिल्द 5 पेज 637)

मैं शहरे हिकमत हूँ और अली (अ) उसका दरवाज़ा।

नीज़ पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया:

हदीस (अल मुसतदरक अलस सहीहैन जिल्द 3 पेज 127)

मैं शहरे इल्म हूँ और अली उसका दरवाज़ा , जो शख्स भी मेरे इल्म का तालिब है उसे दरवाज़े से दाख़िल होना चाहिये।

अहमद बिन हम्बल पैग़म्बरे अकरम (स) से नक़्ल करते हैं कि आपने जनाबे फ़ातेमा (स) से फ़रमाया:

हदीस (मुसनद अहमद जिल्द 5 पेज 26, मजमउज़ ज़वायद जिल्द 5 पेज 101)

क्या तुम इस बात पर राज़ी नही हो कि तुम्हारे शौहर इस उम्मत में सबसे पहले इस्लाम का इज़हार करने वाले और मेरी उम्मत के सबसे बड़े आलिम और सबसे ज़्यादा हिल्म रखने वाले हैं।

ब. इमाम अली (अ) की आलमीयत का इक़रार सहाबा की ज़बानी

जनाबे आयशा कहती हैं: अली (अ) दूसरे लोगों की बनिस्बत सुन्नते रसूल (स) के सबसे बड़े आलिम थे।तारीख़े इब्ने असाकर जिल्द 5 पेज 162, उस्दुल ग़ाबा जिल्द 4 पेज 22)

इब्ने अब्बास कहते हैं: जनाबे उमर ने एक ख़ुतबे में कहा: अली (अ) क़ज़ावत ओर फ़ैसला करने में बेमिसाल हैं।तारीख़े इब्ने असाकर जिल्द 3 पेज 36, मुसनद अहमद जिल्द 5 पेज 113, तबक़ाते इब्ने साद जिल्द 2 पेज 102)

हज़रत इमाम हसन (अ) ने अपने पेदरे बुज़ुर्गवार हज़रत अली (अ) की शहादत के बाद फ़रमाया: बेशक कल तुम्हारे दरमियान से ऐसी शख्सीयत उठ गयी है जिसके इल्म तक साबेक़ीन (गुज़िश्ता) और लाहेक़ीन (आईन्दा आने वाले) नही पहुच सकते।मुसनद अहमद जिल्द 1 पेज 328)

इसी तरह अब्बास महमूद अक़्क़ाद तहरीर करते है: लेकिन क़ज़ावत और फ़िक्ह में मशहूर यह है कि गज़रत अली (अ) क़ज़ावत और फ़िक्ह दोनो में उम्मते इस्लामिया के सबसे बड़े आलिम थे और दूसरे पहले वालों पर भी... जब हज़रत उमर को कोई मसअला दर पेश होता था तो कहते थे: यह ऐसा मसअला है कि ख़ुदावंदे आलम इसको हल करने के लिये अबुल हसन को हमारी फ़रयाद रसी को पहुचाये।

(अबक़रियतुल इमाम अली (अ) पेज 195)

स. तमाम उलूम का मर्कज़ इमाम अली (अ)

इब्ने अबिल हदीद शरहे नहजुल बलाग़ा में तहरीर करते हैं: तमाम उलूम के मुक़द्देमात का सिलसिला हज़रत अली (अ) तक पहुचा है , आप ही ने दीनी क़वायद और शरीयत के अहकाम को वाज़ेह किया , आपने अक़्ली और मनक़ूला उलूम की बहसों को वाज़ेह किया है। फिर मौसूफ़ ने इस बात की वज़ाहत की कि किस तरह तमाम उलूम हज़र अली (अ) की तरफड पलटते हैं।

(शरहे इब्ने अबिल हदीस जिल्द 1 पेज 17)

11. हज़रत अली (अ) ज़माने के बुत शिकन

इमाम अली (अ) फ़रमाते हैं: मैं रसूले अकरम (स) के साथ रवाना हुआ यहाँ तक कि हम ख़ान ए काबा तक पहुचे , पहले रसूले खुदा (स) मेरे शाने पर सवार हुए और मुझ से फ़रमाया: चलो , मैं चला , लेकिन जब आँ हज़रत (स) ने मेरी कमज़ोरी को मुशाहेदा किया तो फ़रमाया: बैठ जाओ , मैं बैठ गया , आँ हज़रत (स) मेरे शानों से नीचे उतर आये और ज़मीन पर बैठ गये , उसके बाद मुझ से फ़रमाया: तुम मेरे शानों पर सवार हो जाओ , चुनाँचे मैं उनके शानों पर सवार हो गया और काबे की बुलंदी तक पहुच गया , इस मौक़े रक मैने गुमान किया कि अगर मैं चाहूँ तो आसमान को छू सकता हूँ , उस वक़्त मैं ख़ान ए काबा की छत पर पहुच गया , छत के ऊपर सोने और ताँबे के बने हुए एक बुत को देखा , मैंने सोचा किस तरह उसको नीस्त व नाबूद किया जाये , उसको दायें बायें और आगे पीछे हिलाया , यहाँ तक उस पर फ़ातेह हो गया , पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: उसको ज़मीन पर फेंक दो , मैंने भी उसको ख़ान ए काबा की छत से नीचे गिरा दिया और वह ज़मीन पर गिर कर टुकड़े टुकड़े होने वाले कूज़े की तरह चूर चूर हो गया , उसके बाद मैं छत से नीचे आ गया।

(मुसतदरक हाकिम जिल्द 2 पेज 366, मुसनद अहमद जिल्द 1 पेज 84, कंज़ुल उम्माल जिल्द 6 पेज 407, तारीख़े बग़दाद जिल्द 13 पेज 302 व ..)

इमाम अली (अ) की ख़िलाफ़त के लिये पैग़म्बरे अकरम (स) की तदबीरें

क़ारेईने केराम , हमने यह अर्ज़ किया है कि पैग़म्बरे अकरम (स) को अपना जानशीन और ख़लीफ़ा मुअय्यन करना चाहिये , लिहाज़ा ख़लीफ़ा को मुअय्यन करना शूरा पर छोड़ देने वाला नज़रिया बातिल हो चुका है और हमने यह भी अर्ज़ किया कि पैग़म्बरे अकरम (स) की जानशीनी की लियाक़त व सलाहियत सिर्फ़ अली बिन अबी तालिब (अ) में थी , क्यो कि आपकी ज़ाते मुबारक में तमाम सिफ़ात व कमालात जमा थे और आप तमाम असहाब से अफज़ल व आला थे।

अब हम देखते है कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने हज़रत अली (अ) की जानशीनी और ख़िलाफ़त के लिये क्या क्या तदबीरें सोचीं हैं।

हम पैग़म्बरे अकरम (स) की तरफ़ से हज़रत अली (अ) की ख़िलाफ़त व जानशीनी के लिये सोची जाने वाली तदबीरों को तीन क़िस्मों में ख़ुलासा करते हैं:

1. हज़रत अली (अ) की बचपन से तरबीयत करना , जिसकी बेना पर आप ने कमालात व फज़ायल और मुख़्तलिफ़ उलूम में मखसूस इम्तियाज़ हासिल कर लिया।

2. आपकी विलायत व इमामत के सिलसिले में बयानात देना।

3. ज़िन्दगी के आख़िरी दिनों में मख़सूस तदबीरों के साथ अमली तौर पर विलायत का ऐलान करना।

अ. तरबीयती तैयारी

चूँकि तय यह था कि हज़रत अली बिन अबी तालिब (अ) , रसूले ख़ुदा के ख़लीफ़ा और जानशीन बनें , लिहाज़ा मशीयते इलाही यह थी कि इसी अहदे तफ़ूलीयत से मरकज़े वहयी और रसूले ख़ुदा (स) की आग़ोश में तरबीयत पायी।

1. हाकिम नैशापूरी तहरीर करते है: अली बिन अबी तालिब (अ) पर ख़ुदावंदे आलम की नेमतों में से एक नेमत उनकी तक़दीर थी , क़ुरैश बेशुमार मुश्किलात में गिरफ़्तार थे , अबू तालिब की औलाद ज़्यादा थीं , रसूले खु़दा ने अपने चचा अब्बास (जो बनी हाशिम में सबसे ज़्यादा मालदार शख्सियत थी) से फरमाया: या अबुल फ़ज़्ल , तुम्हारे भाई अबू तालिब अयालदार हैं और सख़्ती में ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं , उनके पास चलते हैं ताकि उनको बोझ को कम करें , मैं उनके बेटों में एक को ले लेता हूँ और आप भी किसी एक फ़रजंद को इंतेख़ाब कर लें , ताकि उनको अपनी किफ़ालत में ले लें , चुनाँचे जनाबे अब्बास ने क़बूल कर लिया और दोनो जनाबे अबू तालिब के पास आये और मौज़ू को उनके सामने रखा , जनाबे अबू तालिब ने उनकी बातें सुन कर अर्ज़ किया: अक़ील को मेरे पास रहने दो , बक़िया जिस को भी चाहो इँतेख़ाब कर लो , पैग़म्बरे अकरम (स) ने अली (अ) को इँतेख़ाब किया और जनाबे अब्बास ने जाफ़र को , हज़रत अली (अ) बेसत के वक़्त तक पैग़म्बरे अकरम (स) के साथ रहे और आँ हज़रत (स) की पैरवी करते रहे और आपकी तसदीक़ की।मुसतदरक हाकिम जिल्द 3 पेज 182)

2. उस ज़माने में पैग़म्बरे अकरम (स) नमाज़ के लिये मस्जिदुल हराम (ख़ान ए काबा) में जाते थे , उनके पीछे पीछे अली (अ) और जनाबे ख़दीजा जाते थे और आँ हज़रत (स) के साथ मल ए आम में नमाज़ पढ़ते थे , जबकि उन तीन अफ़राद के अलावा कोई नमाज़ नही पढ़ता था।

(मुसनद अहमद जिल्द 1 पेज 209, तारीख़े तबरी जिल्द 2 पेज 311)

अब्बाद बिन अब्दुल्लाह कहते हैं: मैंने अली (अ) से सुना कि उन्होने फ़रमाया: मैं ख़ुदा का बंदा और उसके रसूल का बरादर हूँ और मैं ही सिद्दीक़े अकबर हूँ , मेरे बाद यह दावा कोई नही कर सकता मगर यह कि वह झूठा और तोहमत लगाने वाला हो , मैंने दूसरे लोगों से सात साल पहले रसूले अकरम (स) के साथ नमाज़ पढ़ी।

(तारिख़े तबरी जिल्द 2 पेज 56)

इब्ने सब्बाग़ मालिकी और इब्ने तलहा साफ़ेई वग़ैरह नक़्ल करते हैं: रसूले अकरम (स) बेसत से पहले जब भी नमाज़ पढ़ते थे , मक्के से बाहर पहाड़ियों में जाते थे ताकि मख़्फ़ी तरीक़े से नमाज़ पढ़ें और अपने साथ हज़रत अली (अ) के साथ हज़रत अली (अ) को ले जाया करते थे और दोनो साथ में जितनी चाहते थे नमाज़ पढ़ते थे और फिर वापस आ जाता करते थे।

(अल फ़ुसुलुल मुहिम्मह पेज 14, मतालिबुस सुऊल पेज 11, तारिख़े तबरी जिल्द 2 पेज 58)

3. इमाम अली (अ) नहजुल बलाग़ा में उन दोनो की इस तरह तौसीफ़ फ़रमाते हैं:

हदीस (नहजुल बलाग़ा ख़ुतबा 192)

तुम्हे मालूम है कि रसूले अकरम (स) से मुझे किस क़दर क़रीबी क़राबत और मख़्सूस मंज़िलत हासिल है , उन्होने बचपने से मुझे अपनी गोद में इस तरह जगह दी कि मुझे अपने सीने से लगाये रखते थे , अपने बिस्तर पर जगह देते थे , अपने कलेजे लगा कर रखते थे और मुझे मुसलसल अपनी ख़ूशबू से सरफ़राज़ फ़रमाया करते थे और ग़ज़ा को अपने दाँतों से चबा कर मुझे खिलाया करते थे , न उन्होने मेरे किसी बयान में झूट पाया और न मेरे किसी अमल में ग़लती देखी और अल्लाह ने दूध बढ़ाई के दौर से ही उनके साथ एक अज़ीम तरीन मुल्क को कर दिया था जो उनके साथ बुजुर्गियों के रास्ते और बेहतरीन अख़लाक़ के तौर तरीक़े पर चलता रहता था और रोज़ाना मेरे सामने अपने अख़लाक़ का निशाना पेश करते थे और फिर मुझे उसकी इक्तेदा करने का हुक्म दिया करते थे।

वह साल में एक ज़माना ग़ारे हिरा में गुज़ारते थे जहाँ सिर्फ़ मैं उन्हे देखता था और कोई दूसरा न होता था , उस वक़्त रसूले अकरम (स) और ख़दीजा के अलावा किसी घर में इस्लाम का गुज़र न हुआ था और उनमें तीसरा मैं था , मैं नूरे वहयी रिसालत का मुशाहेदा किया करता था और ख़ूशबु ए रिसालत से दिमाग़ मुअत्तर रखता था।

मैं ने नुज़ूले वहयी के वक़्त शैतान की चीख़ की आवाज़ सुनी थी और अर्ज़ किया था: या रसूल्लाह , यह चीख़ कैसी थी ? तो फ़रमाया यह शैतान है जो अपनी इबादत से मायूस हो गया है. तुम वह सब कुछ देख रहे हो जो मैं देख रहा हूँ और वह सब कुछ सुन रहे हो जो मैं सुन रहा हूँ , सिर्फ़ फ़र्क़ यह है कि तुम नही हो लेकिन मेरे वज़ीर भी हो मंज़िल ख़ैर पर भी हो।

4. जब पैग़म्बरे अकरम (स) ने मदीने की तरफ़ हिजरत करना चाही तो हज़रत अली (अ) को इंतेख़ाब किया ताकि वह आपके बिस्तर सो जायें और (रसूले अकरम (स) के पास) मौजूद अमानतों को उनके मालिकों तक पहुचा दें और फिर बनी हाशिम की औरतों को लेकर मदीने की तरफ़ हिजरत कर जायें।मुसनद अहमद जिल्द 1 पेज 348, तारिख़े तबरी जिल्द 2 पेज 99, मुसतदरके हाकिम जिल्द 3 पेज 4, शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द 13 पेज 262)

5. रसूले अकरम (स) ने हज़रत अली (अ) को उनकी जवानी के आलम में अपना दामाद बना लिया और दुनिया की बेहतरीन ख़ातून हज़रत फ़ातेमा ज़हरा (स) से आपका निकाह कर दिया , यह इस आलम में था कि अबू बक्र व उमर के रिश्ते को रद्द कर दिया था।

(अल ख़सायस पेज 102)

पैग़म्बरे अकरम (स) ने शादी के मौक़े पर (जनाबे फ़ातेमा ज़हरा (स) से फ़रमाया: मैंने तुम्हारी शादी ऐसे शख्स से की है जो इस्लाम में सबसे पहला , इल्म में सबसे ज्यादा और हिल्म में सबसे अज़ीम हैं।

(मुसनद अहमद जिल्द 5 पेज 26)

6. अक्सर जंगों में मुसलमानों या मुहाजेरीन का परचम हज़रत अली बिन अबी तालिब (अ) के हाथों में होता था।

(अल इसाबह जिल्द 2 पेज 30)

7. हज़रत अली (अ) हुज्जतुल वेदाअ में पैग़म्बरे अकरम (स) की क़ुर्बानी में शरीक थे।

(कामिले इब्ने असीर जिल्द 2 पेज 302)

8. पैग़म्बरे अकरम (स) ने अपनी हयाते तैय्यबा में आपको एक ऐसा मख़्सूस इम्तियाज़ दे रखा है कि जिसमें कोई दूसरा शरीक नही था , यानी आँ हज़रत (स) ने इजाज़त दे रखी थी कि हज़रत अली (अ) सहर के वक़्त आपके पास आये और गुफ़्तगू करें।

(अल ख़सायस हदीस 112)

इमाम अली (अ) ने फ़रमाया: मैं पैग़म्बरे अकरम (स) से दिन रात में दो बार मुलाक़ात करता था , एक दफ़ा रात में और एक दफ़ा दिन में।

(अस सुननुल कुबरा जिल्द 5 पेज 1414 हदीस 8520)

وَأْمُرْ أَهْلَكَ بِالصَّلَاةِ وَاصْطَبِرْ عَلَيْهَا

9. जिस वक़्त पैग़म्बरे अकरम (स) पर यह आयत नाज़िल हुई:

(सूरह ताहा आयत 132)

अपने अहल को नमाज़ का हुक्म दें।

पैग़म्बरे अकरम (स) नमाज़े सुबह के लिये हज़रत अली (अ) के बैतुश सऱफ़ से गुज़रते हुए फ़रमाते थे: …..(إِنَّمَا يُرِيدُ اللَّـهُ لِيُذْهِبَ عَنكُمُ الرِّجْسَ أَهْلَ الْبَيْتِ وَيُطَهِّرَكُمْ تَطْهِيرًا ) (सूरह अहज़ाब आयत 33)

तर्जुमा

, ऐ (पैग़म्बर के) अहले बैत , ख़ुदा तो बस यह चाहता है कि तुम को हर तरह की बुराई से दूर रखे और जो पाक रखने का हक़ है वैसा पाक व पाकीज़ा रखे।

(तफ़सीरे क़ुरतुबी जिल्द 11 पेज 174, तफ़सीरे फ़ख्रे राज़ी जिल्द 22 पेज 137, तफ़सीरे रुहुल मआनी जिल्द 16 पेज 284)

10. जंगे ख़ैबर में जब अबू बक्र व उमर से कुछ न हो पाया तो पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: (कल) मैं अलम उसको दूँगा जो ख़ुदा व रसूल को दोस्त रखता होगा और ख़ुदा व रसूल भी उसको दोस्त रखते होंगें , ख़ुदा वंदे आलम उसको हरगिज़ ज़लील नही करेगा , वह वापस नही पलटेगा , जब तक ख़ुदा वंद आलम उसके हाथों पर फ़तह व कामयाबी न दे दे , उसके बाद हज़रत अली (अ) को तलब किया , अलम उनके हाथो में दिया और उनके लिये दुआ की (चुनाँचे) हज़रत अली (अ) को फ़तह हासिल हुई।

(सीरते इब्ने हिशाम जिल्द 3 पेज 216, तारिख़े तबरी जिल्द 3 पेज 12, कामिले इब्ने असीर जिल्द 2 पेज 219)

11. पैग़म्बरे अकरम (स) ने अबू बक्र को सूरए बराअत के साथ हुज्जाज का अमीर बनाया तो ख़ुदा वंदे आलम के हुक्म से हज़रत अली (अ) को उनके पीछे रवाना किया कि सूरह को उनसे हाथों से ले लें और ख़ुद लोगों तक सूरए बराअत की क़राअत करें , पैग़म्बरे अकरम (स) ने अबू बक्र के ऐतेराज़ में फ़रमाया: मुझे हुक्म हुआ है कि इस सूरह को ख़ुद क़राअत करू या उस शख्स को दूँ जो मुझ से हैं ताकि वह इस सूरह की तबलीग़ करे।

(मुसनद अहमद जिल्द 1 पेज 3, सोनने तिरमिज़ी जिल्द 5 हदीस 3719, हदीस 8461)

12. बाज़ असहाब ने मस्जिद (नबवी) की तरफ़ दरवाज़ा खोल रहा था , पैग़म्बरे अकरम (स) ने हुक्म दिया कि सब दरवाज़े बंद कर दिये जायें सिवाए हज़रत अली (अ) के।

(मुसनद अहमद जिल्द 1 पेज 331, सोनने तिरमिज़ी जिल्द 5 हदीस 3732, अल बिदायह वन निहाया जिल्द 7 पेज 374)

13. आयशा कहती हैं: रसूले ख़ुदा (स) ने अपनी वफ़ात के वक़्त फ़रमाया: मेरे हबीब को बुलाओ , मैंने अबू बक्र को बुलवा लिया , जैसे ही आँ हज़रत (स) का निगाह उन पर पड़ी तो आपने अपने सर को झुका लिया और फिर फरमाया: मेरे हबीब को बुलाओ , उस वक़्त मैंने उमर को बुलवा लिया , जैसे रसूले अकरम (स) की नज़र उन पर पड़ी तो (एक बार फिर) आपने अपने सर को झुका लिया और तीसरी बार फ़रमाया: मेरे हबीब को बुलवा दो , चुनाँचे हज़रत अली (अ) को बुलवाया गया , जब आप आ गये तो रसूले ख़ुदा ने अपने पास बैठाया और अपनी उस चादर में ले लिया जिस को ओढ़े हुए थे , रसूले अकरम (स) इस हाल में इस दुनिया से गये कि हज़रत अली (अ) के हाथों में आपके हाथ थे।

(अर रियाज़ुन नज़रह पेज 26, ज़ख़ायरुल उक़बा पेज 72)

उम्मे सलमा भी कहती हैं: रसूले अकरम (स) ने अपनी वफ़ात के वक़्त हज़रत अली (अ) से नजवा और राज़ की बातें कर रहे थे और इस हाल में आँ हज़रत (स) इस दुनिया से गये हैं लिहाज़ा अली (अ) रसूले ख़ुदा (स) के अहद व पैमान के लिहाज़ से लोगों में सबसे नज़दीक थे।

(मुसतदरके हाकिम जिल्द 3 पेज 138, मुसनद अहमद जिल्द 6 पेज 300)

14. तिरमिज़ी , अब्दुल्लाह बिन उमर से रिवायत करते हैं कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने अपने असहाब के दरमियान अक़्दे उखू़व्वत पढ़ा , हज़रत अली (अ) गिरया कुनाँ अर्ज़ किया या रसूल्लाह , आपने अपने असहाब के दरमियान अक़्दे उख़ूव्वत बाँध दिया , लेकिन मेरा किसी के साथ अक़्दे उख़ूव्वत नही पढ़ा ? तो पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: तुम दुनिया व आख़िरत में मेरे बरादर हो।

हज़रत अली (अ) पर रसूले अकरम (स) की मख़्सूस तवज्जो सिर्फ़ आपको ख़िलाफ़त व जानशीनी के लिये तैयार करने के लिये थी , नीज़ इस लिये भी वाज़ेह हो जाये कि इस मक़ाम व ओहदे के लिये सिर्फ़ अली (अ) ही सलाहियत रखते हैं।

ब. आपकी इमामत व विलायत पर बयान

पैग़म्बरे अकरम (स) की दूसरी तदबीर यह थी कि 23 साला ज़िन्दगी में जहाँ कहीं भी मुनासिब मौक़ा मिला तो हज़रत अली (अ) की विलायत और जानशीनी के मसअले को बयान करते थे और आप लोगों के सामने इस अहम मसअले की याद दहानी फ़रमाते रहते थे जिनमें से (वाक़ेया ए ज़ुल अशीरा और) ग़दीरे ख़ुम का ख़ुतबा मशहूर है।

स. अमली तदबीरें

पैग़म्बरे अकरम (स) ने अपनी उम्र के आख़िरी दिनों में हज़रत अली (अ) की ख़िलाफ़त को मज़बूत करने के लिये बहुत से अमली रास्तों को अपनाया ताकि इस ऐलान की मुकर्रर ताकीद के बाद दूसरों के हाथों से ग़स्बे ख़िलाफ़त का बहाना ले लें , लेकिन अफ़सोस कि उन तदबीरों का कोई असर न हुआ , क्यो कि मुख़ालिफ़ पार्टी इतनी मज़बूत थी कि पैग़म्बरे अकरम (स) की तदबीरों को अमली न होने दिया।

क़ारेईने मोहतरम , हम यहाँ पर आँ हज़रत (स) की चंद अमली तदबीरों की तरफ़ इशारा करते हैं:

1. रोज़े ग़दीर इमाम अली (अ) के हाथों को बुलंद करना

पैग़म्बरे अकरम (स) अपने बहुत से असहाब के साथ आख़िरी हज (जिसको हज्जतुल विदाअ कहा जाता है) करने के लिये रवाना हुए , सरज़मीने अरफ़ात में आँ हज़रत (स) ने मुसलमानो के दरमियान एक ख़ुतवा इरशाद फ़रमाया , आँ हज़रत (स) इस ख़ुतबे में अपने बाद होने वाले आईम्मा को उम्मत के सामने बयान करना चाहते थे ताकि उम्मत गुमराह न हो और उसमें फ़ितना व फ़साद बरपा न हो , लेकिन बनी हाशिम का मुखालिफ़ गिरोह जो अहले बैत (अ) से दुश्मनी रखता था , ताक लगाये बैठा था कि कहीं रसूले ख़ुदा (स) इस मजमे में कोई ऐसी बात न कहें जिससे उनके नक़्शे पर पानी फिर जाये। जाबिर बिन समुरा सवाई कहते हैं: मैं पैग़म्बर अकरम (स) के पास था और आँ हज़रत (स) की बातों को सुन रहा था , आँपने अपने ख़ुतबे में अपने बाद होने वाले ख़ुलाफ़ा की तरफ़ इशारा फ़रमाया कि मेरे बाद मेरे जानशीन और ख़ुलाफ़ा की तादाद बारह होगी। जाबिर कहते हैं कि जैसे पैग़म्बरे अकरम (स) ने यह फ़रमाया तो कुछ लोगों ने शोर ग़ुल बरपा कर दिया और शोर इतना ज़्यादा था कि मैं समझ नही सका कि आँ हज़रत (स) ने क्या फ़रमाया , मैं ने अपने वालिद से सवाल किया जो रसूले ख़ुदा (स) से ज़्यादा नज़दीक थे , उन्होने कहा: उसके बाद पैग़म्बर (स) ने आगे फ़रमाया: वह तमाम क़ुरैश से होंगें।

ताअज्जुब की बात है कि जिस मुसनदे अहमद में मुसनद जाबिर बिन मुसरा को देखते हैं तो उसमें जाबिर के अल्फ़ाज़ ऐसे मिलते हैं जो उससे पहले नही देखे गये हैं , जाबिर बिन समरा की बाज़ रिवायतों में बयान हुआ है कि जब पैग़म्बरे अकरम (स) की बात यहाँ तक पहुची कि मेरे बाद बारह जानशीन होंगें तो लोगों ने चिल्लाना शुरु कर दिया , इसके अलावा बाज़ दूसरी रिवायत में बयान हुआ है कि लोगों ने तकबीर कहना शुरु कर दीं , नीज़ बाज़ दूसरी रिवायतों में बयान किया कि लोगों ने शोर ग़ुल करना शुरु कर दिया और आख़िर कार बाज़ रिवायत में यह भी मिलता है कि लोग कभी उठते थे और कभी बैठते थे।

एक रावी से यह तमाम रिवायतें (अपने इख़्तिलाफ़ के बावजूद) इस बात में ख़ुलासा होती हैं कि मुख़ालिफ़ गिरोह ने बहुत सी टोलियों को इस बात के लिये तैयार कर रखा था कि पैग़म्बरे अकरम (स) को अपने बाद के लिये ख़िलाफ़त व जानशीनी का मसअला बयान करने से रोका जाये और उन टोलियों ने वही किया , चुनाँचे हर एक ने किसी न किसी तरह से निज़ामे जलसा को दरहम व बरहम कर दिया और अपने मक़सद में कामयाब हो गये।

पैग़म्बरे अकरम (स) इस अज़ीम मजमें में ख़िलाफ़त के मसअले को बयान न कर सके और मायूस हो गये और दूसरी जगह के बारे में सोचने लगे ताकि इमाम अली (अ) की ख़िलाफ़त को अमली तौर पर साबित करें , इसी वजह से आमाले हज तमाम होने और हाजियों के अलग अलग होने से पहले लोगों को ग़दीरे ख़ुम में जमा किया और इमामत व ख़िलाफ़त के मसअले को बयान करने से पहले चंद चीज़ों को मुक़द्दमें के तौर पर बयानक किया और लोगों से भी इक़रार लिया , पैग़म्बरे अकरम (स) जानते थे कि इस बार भी मुनाफ़ेक़ीन की टोली ताक में है ताकि हज़रत अली (अ) की ख़िलाफ़त के मसअले को बयान न होने दें , लेकिन आँ हज़रत (स) ने एक ऐसी अमली तदबीर सोची जिससे मुनाफ़ेक़ीन के नक़्शे पर पानी फिर गया और वह यह है कि आपने हुक्म दिया कि ऊठों के कजाओं को जमा किया जाये और एक के ऊपर एक को रखा जाये (ताकि एक बुलंद जगह बन जाये) इस मौक़े पर आँ हज़रत (स) और हज़रत अली (अ) उस मिम्बर पर तशरीफ़ ले गये , इस तरह सभी आप दोनो को देख रहे थे , आँ हज़रत (स) ने ख़ुतबे में चंद कलेमात को बयान करने और हाज़ेरीन से इक़रार लेने के बाद हज़रत अली (अ) के हाथ को बुलंद किया और लोगों के सामने ख़ुदा वंदे आलम की जानिब से हज़रत अली (अ) की विलायत व इमामत का ऐलान किया।

पैग़म्बर अकरम (स) की इस तदबीर के सामने मुनाफ़ेक़ीन कुछ न कर सके और देखते रह गये और कुछ रद्दे अमल ज़ाहिर न कर सके।

2. लश्करे ओसामा को रवाना करना

पैग़म्बरे अकरम (स) बिस्तरे बीमारी पर हैं , इस हाल में (भी) अपनी उम्मत के लिये सख़्त फ़िक्र मंद हैं , इख़्तेलाफ़ और गुमराही के सिलसिले में फ़िक्रमंद , इस चीज़ से रंजीदा कि उनकी तमाम तदबीरों को ख़राब कर दिया जाता है , इस चीज़ से ग़मज़दा कि नबूव्वत व रिसालत और शरीयत में इंहेराफ़ किया जायेगा , ख़ुलाया यह कि पैग़म्बरे अकरम (स) परेशान व मुज़तरिब हैं , रोम जैसा बड़ा दुश्मन इस्लामी सहहदों पर तैयार है ताकि जैसे मौक़ा देखे एक ख़तरनाक हमले के ज़रिये मुसलमानों को शिकस्त दे दे।

पैग़म्बरे अकरम (स) की मुख़्तलिफ़ ज़िम्मेदारियाँ हैं , एक तरफ़ तो बैरूनी दुश्मन का मुक़ाबला है लिहाज़ा आपने बहुत ताकीद के साथ उनसे मुक़ाबले के लिये एक लश्कर को रवाना किया , दूसरी तरफ़ आप हक़ीक़ी जानशीन और ख़लीफ़ा को साबित करना चाहते थे लेकिन क्या करें ? न सिर्फ़ यह कि बैरूनी दुश्मन से दस्त व गरीबाँ हैं बल्कि अंदरूनी दुश्मन से भी मुक़ाबला है जो ख़िलाफ़त व जानशीनी के मसअले में आँ हज़रत (स) की तदबीरों को अमली जामा पहनाने में मानेअ है , पैग़म्बरे अकरम (स) अपनी तदबीर को अमली करने के लिये हुक्म देते हैं कि वह सब जो जिहाद और लश्करे ओसामा में शिरकत की तैयारी रखते हैं मदीने से बाहर निकल निकलें और उनके लश्कर से मुलहक़ हो जायें लेकिन आँ हज़रत (स) ने मुलाहिज़ा किया कि बहुत से असहाब बेबुनियाद बहानों के ज़रिये ओसामा के लश्कर में शरीक नही हो रहे है , कभी पैग़म्बरे अकरम (स) पर ऐतेराज़ करते हैं कि क्यो आपने एक जवान और ना तजरुबाकार इंसान ओसामा को अमीरे लश्कर बना दिया है जबकि ख़ुद लश्कर में साहिबे तजरूबा अफ़राद मौजूद हैं ?

पैग़म्बरे अकरम (स) ने उनके ऐतेराज़ के जवाब में कहा कि अगर आज तुम लोग ओसामा की सरदारी पर ऐतेराज़ कर रहे हो तो इससे पहले तुम उसके बाप की सरदारी पर ऐतेराज़ कर चुके हो , आप की यह कोशिश थी कि मुसलमानों की कसीर तादाद मदीने से निकल कर ओसामा के लश्कर में शामिल हो जाये , नौबत यह पहुच गई कि जब पैग़म्बर अकरम (स) ने बाज़ सहाबा मिन जुमला उमर , अबू बक्र , अबू उबैदा , सअद बिन अबी वक़ास वग़ैरह की नाफ़रमानी को देखा कि यह लोग ओसामा के लश्कर में दाखिल होने में मेरे हुक्म की मुखालेफ़त कर रहे हैं तो उन पर लानत करते हुए फ़रमाया:

हदीस (मेलल व नेहल शहरिस्तानी जिल्द 1 पेज 23)

तर्जुमा , ख़ुदा लानत करे हर उस शख्स पर जो ओसामा के लश्कर में दाखिल होने की मुख़ालेफ़त करे।

लेकिन पैग़म्बरे अकरम (स) की इतनी ताकीद और मलामत के बाद भी उन लोगों ने कोई तवज्जो न की और कभी इस बहाने से कि हम पैग़म्बर (स) की रेहलत के वक़्त की जुदाई को बर्दाशत नही कर सकते , रसूले अकरम (स) को हुक्म की मुख़ालेफ़त की।

लेकिन दर हक़ीक़त मसअला दूसरा था , वह जानते थे कि पैग़म्बरे अकरम (स) अली (अ) और बाज़ दीगर असहाब को जो बनी हाशिम और हज़रत अली (अ) की इमामत व ख़िलाफ़त की मुवाफ़िक़ हैं , उनको अपने पास रोके हुए हैं ताकि रेहलत के वक़्त हज़रत अली (अ) के लिये वसीयत कर दें और आँ हज़रत (स) की वफ़ात के बाद सहाबा को वह गिरोह जो लश्करे ओसामा में जायेगा वापस आ कर हज़रत अली (अ) की बैअत करे लिहाज़ा उनको डर था कि कहीं ख़िलाफ़त उनके हाथ से निकल न जाये लेकिन उनका मंसूबा यह था कि हर मुम्किन तरीक़े से इस काम में रुकावट की जाये ताकि यह काम न हो सके।

यह नुक्ता भी क़ाबिले तवज्जो है कि क्यों पैग़म्बरे अकरम (स) ने एक कम तजरुबा कार जवान को लश्कर की सरदारी के लिये इंतेख़ाब किया और बाज़ असहाब के ऐतेराज़ पर बिल्कुल तवज्जो न दी , बल्कि उनकी सरदारी पर मज़ीद ताकीद फ़रमाई , इसका राज़ क्या है ?

पैग़म्बरे अकरम (स) जानते थे कि यही लोग उनकी वफ़ात के बाद अली बिन अबी तालिब (अ) की ख़िलाफ़त व इमामत पर मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से ऐतेराज़ करेगें मिन जुमला यह कि अली बिन अबी तालिब (अ) एक जवान हैं , लिहाज़ा आँ हज़रत (स) ने अपने इस अमल से सहाबा को यह समझाना चाहते थे कि ख़िलाफ़त व अमारत , लियाक़त व सहालियत की बेना पर होती है न कि सिन व साल के लिहाज़ से , नीज़ मेरे बाद अली (अ) के सिन व साल को बहाना बना कर ऐतेराज़ न करें और उनके हक़ को ग़स्ब न कर लें , अगर कोई ख़िलाफ़त व अमारत की लियाक़त रखता है तो फिर सब (पीर व जवान , ज़न व मर्द) उनके मुतीअ हों लेकिन (अफ़सोस कि) पैग़म्बरे अकरम (स) की यह तदबीर भी अमली न हो सकी और लश्कर में शामिल न हो कर मुख़्तलिफ़ बहानों के ज़रिये पैग़म्बरे अकरम (स) के नक़्शों पर पानी फेर दिया।देखिये , तबक़ाते इब्ने साद जिल्द 4 पेज 66, तारिख़े इब्ने असाकर जिल्द 2 पेज 391, कंज़ुल उम्माल जिल्द 5 पेज 313, तारिख़े याक़ूबी जिल्द 2 पेज 93, शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द 2 पेज 21, मग़ाज़ी वाक़ेदी जिल्द 3 पेज 111, तारिख़े इब्ने ख़लदून जिल्द 2 पेज 484, सीरये हलबिया जिल्द 3 पेज 207)

क्या ख़ुदा वंदे आलम ने क़ुरआने मजीद में पैग़म्बरे अकरम (स) के हुक्म की इताअत का करने का फ़रमान जारी नही किया है ? जहा इरशाद होता है

: مَّا أَفَاءَ اللَّـهُ عَلَى رَسُولِهِ مِنْ أَهْلِ الْقُرَى فَلِلَّـهِ وَلِلرَّسُولِ وَلِذِي الْقُرْبَى وَالْيَتَامَى وَالْمَسَاكِينِ وَابْنِ السَّبِيلِ كَيْ لَا يَكُونَ دُولَةً بَيْنَ الْأَغْنِيَاءِ مِنكُمْ وَمَا آتَاكُمُ الرَّسُولُ فَخُذُوهُ وَمَا نَهَاكُمْ عَنْهُ فَانتَهُوا وَاتَّقُوا اللَّـهَ إِنَّ اللَّـهَ شَدِيدُ الْعِقَابِ

(सूरह हश्र आयत 7)

और हाँ जो तुम को रसूल दे दें वह ले लिया करो और जिससे मना करें उससे बाज़ रहो और खु़दा से डरते रहो , बेशक ख़ुदा सख़्त अज़ाब देने वाला है।

فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤْمِنُونَ حَتَّى يُحَكِّمُوكَ فِيمَا شَجَرَ بَيْنَهُمْ ثُمَّ لَا يَجِدُوا فِي أَنفُسِهِمْ حَرَجًا مِّمَّا قَضَيْتَ وَيُسَلِّمُوا تَسْلِيمًا नीज़ इरशाद होता है:

(सूरह निसा आयत 65)

तर्जुमा

, बस आपके परवरदिगार की क़मस कि यह हरगिज़ साहिबाने ईमान न बन सकेंगें जब तक आपको अपने इख़्तिलाफ़ात में हकम न बनायें और फिर जब आप फ़ैसला कर दें तो अपने दिल में किसी तरह की तंगी का अहसास न करें और आपके फ़ैसले को सामने सरापा तसलीम हो जायें।

3. वसीयत लिखने का हुक्म

जब पैग़म्बरे अकरम (स) ने देख लिया कि लोगों को लश्करे ओसामा के साथ मदीने से बाहर भेजने की तदबीर नाकाम हो गई तो आपने तय किया कि हज़रत अली (अ) की इमामत के सिलसिले में अपनी 23 साला ज़िन्दगी में जो कुछ लोगों के सामने बयान किया है , उन सब को एक वसीयतनामे में लिख दिया जाये। इसी वजह से आपने बरोज़े जुमेरात अपनी वफ़ात से चंद रोज़ क़ब्ल जबकि आप बिस्तर पर लेटे हुए थे और मुख़्तलिफ़ गिरोहों का मजमा आपके हुजरे में जमा था , मजमे से ख़िताब करते हुए फ़रमाया: क़लम व क़ाग़ज़ ले आओ ताकि मैं उसमें ऐसी चीज़ लिख दूँ जिससे मेंरे बाद गुमराह न हो। चुनाँचे बनी हाशिम और परदे के पीछे बैठी हुई अज़वाजे रसूल इस बात पर इसरार कर रहीं थी कि रसूले इस्लाम (स) को वसीयत लिखने के लिये क़लम व क़ाग़ज़ दिया जाये लेकिन वह गिरोह जिस ने मैदाने अरफ़ात में पैग़म्बरे अकरम (स) को अपने बाद के लिये ख़लीफ़ा मुअय्यन करने न दिया वही गिरोह हुजरे में जमा था , उसने आँ हज़रत (स) के इस हुक्म को अपनी न होने से रोक दिया , उमर फ़ौरन इस बात की तरफ़ मुतवज्जेह हुए कि अगर यह वसीयत लिखी गई तो ख़िलाफ़त को हासिल करने के तमाम नक़्शों पर पानी फिर जायेगा , लेकिन दूसरी तरफ़ पैग़म्बरे अकरम (स) की मुख़ालिफ़त मुनासिब दिखाई न दे रही थी।

लिहाज़ा उन्होने एक दूसरा मंसूबा बनाया और इस नतीजे पर पहुचे कि पैग़म्बरे अकरम (स) की तरफ़ एक ऐसी निस्बत दी जाये , जिसकी वजह से वसीयत नामा लिखना ख़ुद बखुद बे असर हो जाये , इसी वजह से उन्होने लोगों से ख़िताब करते हुए कहा: तुम लोग क़लम व क़ाग़ज़ न लाओ क्यो कि पैग़म्बर (स) हिज़यान कह रहे हैं , हमें किताबे ख़ुदा काफ़ी है , जैसे ही इस जुमले को उमर के तरफ़दारों यानी बनी उमय्या और कु़रैश ने सुना तो उन्होने भी इस जुमले की तकरार की , लेकिन बनी हाशिम बहुत नाराज़ हुए और उनकी मुख़ालेफ़त में खड़े हो गये , पैग़म्बरे अकरम (स) इस ना रवाँ तोहमत कि जिसने आपकी तमाम शख्सियत और अज़मत को मजरूह कर दिया , उसके मुक़ाबिल कोई कुछ न कर सके सिवाए इसके कि उनको अपने मकान से निकाल दिया , चुनाँचे आँ हज़रत (स) ने फ़रमाया: मेरे पास से उठ जाओ , पैग़म्बर के पास झगड़ा नही किया जाता।

(देख़िये , सही बुखारी , क़िताबुल मरज़ी , जिल्द 7 पेज 9, सही मुस्लिम किताबुल वसीयह , जिल्द 5 पेज 75, मुसनद अहमद जिल्द 4 पेज 356 हदीस 2992)

ताअज्जुब की बात तो यह कि उमर बिन ख़त्ताब के तरफ़दारों और कुल्ली तौर पर मदरस ए ख़ुलाफ़ा ने पैग़म्बरे अकरम (स) की तरफ़ उमर की ना रवाँ निस्बत को छुपाने के लिये बहुत कोशिश की है , चुनाँचे जब लफ़्ज़े हज्र यानी हिज़यान को नक़्ल करते हैं तो उसकी निस्बत मजमे की तरफ़ देते हैं और कहते हैं और जब इसी वाक़ेया की निस्बत उमर की तरफ़ देते हैं तो कहते हैं

लेकिन किताब अस सक़ीफ़ा में अबू बक्र जौहरी का कलाम मतलब को वाज़ेह कर देता है कि हिज़यान की निस्बत उमर की तरफ़ से शुरु हुई और बाद में उमर के तरफ़दारों ने उसकी पैरवी में यही निस्बत पैग़म्बरे अकरम (स) की तरफ़ दी है , चुनाँचे जौहरी इस निस्बत को उमर की तरफ़ से यूँ बयान करते हैं:

उमर ने एक ऐसा जुमला कहा जिसके मअना यह हैं कि पैग़म्बरे अकरम (स) पर बीमारी के दर्द का ग़लबा है पस इससे मालूम होता है कि उमर के अल्फ़ाज़ कुछ और थे जिसको क़बाहत की वजह से नक़्ले मअना किया है , अफ़सोस कि बुख़ारी और मुस्लिम वग़ैरह ने रिवायत को असली अल्फ़ाज़ में बयान नही किया है बल्कि इस जुमले की सिर्फ़ मज़मून बयान किया है , अगरचे अन निहाया में इब्ने असीर और इब्ने अबिल हदीद के कलाम से यह नतीजा निकलता है कि हिज़यान की निस्बत बराहे रास्त उमर ने दी थी।

बहरहाल पैग़म्बरे अकरम (स) ने मुख़ालिफ़ गिरोग को बाहर निकालने के बाद ख़ालिस असहाब के मजमे में अपनी वसीयत को बयान किया और सुलैम बिन क़ैस की इबारत के मुताबिक़ बाज़ असहाब के बावजूद अहले बैत (अ) में से नाम ब नाम वसीयत की और अपने बाद होने वाले ख़ुलाफ़ा के नाम बयान किये।किताब सुलैम बिन क़ैस जिल्द 2 पेज 658)

अहले सुन्नत ने भी अपनी हदीस की किताबों में इस वसीयत की तरफ़ इशारा किया है लेकिन अस्ले मौज़ू को मुब्हम दिया है।

इब्ने अब्बास इस हदीस के आख़िर में कहते हैं: आख़िर कार पैग़म्बरे अकरम (स) ने तीन चीज़ो की वसीयत की: एक यह कि मुश्रेकीन को जज़िर ए अरब से बाहर निकाल दो , दूसरे यह कि जिस तरह मैं ने क़ाफ़िलों को दाख़िल होने की इजाज़त दे रखी है , तुम भी उन्हे इजाज़त देना , लेकिन तीसरी वसीयत के बारे में इब्ने अब्बास ने ख़ामोशी इख़्तियार की और बाज़ दूसरी रिवायत में बयान हुआ है कि (इब्ने अब्बास ने कहा) मैं तीसरी वसीयत भूल गया हूँ।

(सही बुख़ारी किताबुल मग़ाज़ी बाब 78, सही मुस्लिम किताबुल वसीयत बाब 5)

ऐसा कभी नही हुआ कि इब्ने अब्बास ने किसी हदीस के बारे में कहा हो , मैं हदीस के भलाँ हिस्से को भूल गया हूँ या उनको नक़्ल न करें , इसकी वजह यह है कि इब्ने अब्बास ने उमर बिन ख़त्ताब के डर की वजह से इस तीसरी वसीयत को जो हज़रत अली (अ) और अहले बैत (अ) की विलायत , ख़िलाफ़त और इमामत के बारे में थी , बयान नही किया , लेकिन चूँकि इब्ने अब्बास , उमर से डरते थे इस वजह से इस वसीयत को बयान न किया जैसा कि वह उमर बिन ख़त्ताब के ज़माने में औल व ताअस्सुब के मसअले की मुख़ालेफ़त न कर सके , यहाँ तक उमर के इँतेका़ल के बाद हक़्क़े मसअला बयान किया और जब उन से इस मसअले के हुक्म के बारे में ताख़ीर की वजह पूछी गई तो उन्होने कहा: मैं उमर बिन ख़त्ताब के नज़रिये की मुख़ालेफ़त से डरता था।औल व ताअस्सुब का मसअला मीरास से मुताअल्लिक़ है कि अगर मीरास तक़सीम करते वक़्त कुछ चीज़ बच जाये या किसी का हिस्सा कम पड़ जाये तो उसको किसको दिया जायेगा या किससे लिया जायेगा।मुतर्जिम)

उमर ने वसीयत नामा लिखे जाने में रुकावट क्यों की ?

यह सवाल हर शख्स के ज़हन में आता है कि उमर बिन ख़त्ताब और उनके तरफ़दारों ने पैग़म्बरे अकरम (स) की तदबीर अमली होने में रुकावट क्यों पैदा की ? क्या आँ हज़रत (स) ने रोज़े क़यामत तक उम्मत को गुमराह न होने की ज़मानत नही दी थी ? इससे बढ़ कर और क्या बशारत हो सकती थी ? लिहाज़ा क्यों इस काम की मुख़ालेफ़त की गई ? और उम्मत को इस सआदत से क्यो महरूम कर दिया गया ?

हम इस सवाल के जवाब में अर्ज़ करते हैं कि जब भी ओहदा व मक़ाम का इश्क़ और बुग़्ज़ की कीना इंसान की अक़्ल पर ग़ालिब हो जाता है तो अक़्ल को सही फ़ैसला करने से रोक देता है , हम जानते हैं कि हज़रत उमर के ज़हन में क्या क्या ख़्यालात पाये जाते थे , वह जानते थे कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने किस काम के लिये क़ाग़ज़ व क़लम तलब किया है , वह यह यह बात भी यक़ीनी तौर पर जानते थे कि पैग़म्बरे अकरम (स) हज़रत अली (अ) और अहले बैत (अ) की ख़िलाफ़त को तहरीरी शक्ल में महफ़ूज़ करना चाहते हैं , इसी वजह से इस वसीयत के लिखे जाने में रुकावट खड़ी कर दी। कारेईने केराम , यह सिर्फ़ दावा नही है बल्कि हम इसको साबित करने के लिये शवाहिद व गवाह भी पेश कर सकते हैं , हम यहाँ पर सिर्फ़ दो नमूने पेश करते हैं:

1. उमर बिन ख़त्ताब ने पैग़म्बरे अकरम (स) की ज़िन्दगी में हदीसे सक़लैन के जुमले मुक़र्रर सुने थे , जिस हदीस में पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: मैं तुम्हारे दरमियान दो गराँ क़द्र चीज़ें छोड़े जा रहा हूँ जिन से तमस्सुक के बाद कभी गुमराह नही होगे (एक क़ुरआने करीम और दूसरे मेरी इतरत) उमर बिन ख़त्ताब ने क़ुरआन व इतरत के बारे में गुमराह न होने का लफ़्ज़ मुकर्रर सुना था , पैग़म्बरे अकरम (स) के हुजरे में भी जब आपने क़लम व काग़ज़ तलब किया तो आँ हज़रत (स) की ज़बान से यही जुमला सुना , जिसमें आपने फ़रमाया: एक ऐसा नामा लिख दूँ जिसके बाद गुमराह न हों , उमर ने फ़ौरन समझ लिया कि पैग़म्बरे अकरम (स) किताब व इतरत के बारे में वसीयत लिखना चाहते हैं लिहाज़ा उसकी मुख़ालिफ़त शुरु कर दी।

2. इब्ने अब्बास कहते हैं: मैं उमर बिन ख़त्ताब की ख़िलाफ़त के ज़माने के शुरु में उनके पास गया.. उन्होने मेरी तरफ़ रुख करके कहा: तुम पर ऊँटों के खून का बदला है अगर तुम से जो सवाल करू उसको मख़्फी रखो , क्या अब भी अली (अ) की ख़िलाफ़त के सिलसिले में ख़ुद को बरहक़ जानते हो ? क्या तुम यह गुमान करते हो कि रसूल अकरम (स) ने उनकी ख़िलाफ़त के बारे में नस्स और बयान दिया है ? मैंने कहा: हाँ , मैंने उसको अपने वालिद से पूछा , उन्होने भी इसकी तसदीक़ की है.... उमर ने कहा: मैं तुम से कहता हूँ कि पैग़म्बरे अकरम (स) अपनी बीमारी के आलम में अली (अ) को (बउनवाने ख़लीफ़ा व इमाम) मुअय्यन करना चाहते थे लेकिन मैं मानेअ हो गया..।

(शरहे इब्ने अबिल हदीद जिल्द 12 पेज 21)

हदीसे ग़दीर

हज़रत अली (अ) का बिला फ़स्ल ख़िलाफ़त व इमामत के मुहिम तरीन दलायल में से मशहूर व मारूफ़ हदीस हदीसे ग़दीर हैं , इस हदीस के मुताबिक़ हज़रत रसूले ख़ुदा (स) ने हज़रत अली (अ) के बारे में ख़ुदावंदे आलम की तरफ़ से अपने बाद ते लिये इमामत के लिये मंसूब किया।

इस हदीस की सनद कैसी है ? यह हदीस किस चीज़ पर दलालत करती है ? अहले सुन्नत इस सिलसिले में क्या कहते हैं और इस सिलसिले में क्या क्या ऐतेराज़ात हुए हैं ? हम इस हिस्से में उन तमाम चीज़ों के बारे में बहस करते हैं।

वाकेय ए ग़दीर

हिज़रत के दसवें साल रसूले अकरम (स) ने ख़ान ए काबा की ज़ियारत का क़स्द फ़रमाया और आँ हज़रत (स) की तरफ़ से मुसलमानों के अतराफ़ के मुख़्तलिफ़ क़बीलों को पैग़ाम दिया गया कि रसूले अकरम (स) ने मुसलमानों के इज्तेमा का हुक्म दिया है , फ़रीज़ ए हज के अंजाम देने के बाद आँ गज़रत (स) की तालिमात की पैरवी करते हुए एक बड़ी तादाद मदीने पहुच गई और यह पैग़म्बरे अकरम (स) का वह वाहिद हज था जो आपने मदीने हिजरत करने के बाद अंजाम दिया था जिसको तारीख़ ने मुख़्तलिफ़ नामों से याद किया है जैसे हज्जतुल विदा , हज्जतुल इस्लाम , हज्जतुल बलाग़ , हज्जतुल कमाल और हज्ज़तुल तमाम।

रसूले अकरम (स) ने ग़ुस्ल फ़रमाया और ऐहराम के लिये दो सादा कपड़े लिये , एक को कमर से बाँधा और दूसरे को अपने शानों पर डाल लिया , आँ हज़रत (स) 24,25 ज़िल क़अदा बरोज़े शंबा हज के लिये मदीने से पा पेयादा रवाना हुए , आपने अपने अहले ख़ाना और अज़ावाज को अमारियों में बैठाया और अपने तमाम अहले बैत और मुहाजेरीन व अंसार नीज़ अरब के दूसरे बड़े क़बीलों के साथ में रवाना हुए (बहुत से लोग छाले पड़ने की बीमारी के डर से इस सफ़र से महरूम रह गये , उसके बावजूद भी बेशुमार मजमा आप के साथ था , इस सफ़र में शिरकत करने वालों की तादाद एक लाख चौदह हज़ार , एक लाख बीस हज़ार , दो लाख चालिस हज़ार या इसके भी ज़्यादा बताई जाती है , अलबत्ता जो लोग मक्के में थे और यमन से हज़रत अली (अ) और अबू मूसा अशअरी के साथ आने वालों की तादाद का हिसाब किया जाये तो मज़कूरा रक़्म में इज़ाफ़ा हो सकता है।

(तबकात इब्ने साद , जिल्द 3 पेज 225, मक़रिज़ी , अल इमताअ पेज 511, इरशादुस सारी जिल्द 6 पेज 329)

आमाले हज अँजाम देने के बाद पैग़म्बरे अकरम (स) हाजि़यों के साथ मदीना वापसी के लिये रवाना हुए और जब यह काफ़ेला ग़दीरे ख़ुम पहुचा तो जिबरईले अमीन (अ) ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से यह आयते शरीफ़ा ले कर नाज़िल हुए

: يَا أَيُّهَا الرَّسُولُ بَلِّغْ مَا أُنزِلَ إِلَيْكَ مِن رَّبِّكَ وَإِن لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسَالَتَهُ وَاللَّـهُ يَعْصِمُكَ مِنَ النَّاسِ إِنَّ اللَّـهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكَافِرِينَ

(सूरए मायदा आयत 67)

ऐ पैग़म्बर , आप इस हुक्म को पहुचा दें जो आपके परवर दिगार की तरफ़ से आप पर नाज़िल किया गया है।

जोहफ़ा वह मंजिल है जहाँ से मुख़्तलिफ़ रास्ते निकलते हैं , पैग़म्बरे अकरम (स) अपने असहाब के साथ 18 ज़िल हिज्जा बरोज़े पंज शंबा मक़ामे जोहफ़ा पर पहुचे।

अमीने वहयी (जनाबे जिबरईल (अ) ने ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से पैग़म्बरे अकरम (स) को हुक्म दिया कि असहाब के सामने हज़रत अली (अ) का वली और इमाम के उनवान से तआरुफ़ करायें और यह हुक्म पहुचा दे कि उनकी इताअत तमाम मख़लूक़ पर वाजिब है।

वह लोग जो पीछे रह गये थे वह भी पहुच गये और जो उस मक़ाम से आगे बढ़ गये थे उनको वापस बुलाया गया , पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: यहाँ से ख़ाक व ख़ाशाक को साफ़ कर दिया जाये , गर्मी बहुत ज़्यादा थी , लोगों ने अपनी अबा का एक हिस्सा अपने सर पर और एक सिरा पैरों के नीचे डाला हुआ था और पैग़म्बरे अकरम (स) के आराम की ख़ातिर एक ख़ैमा बना दिया गया था।

ज़ोहर की अज़ान कही गई और सबने पैग़म्बरे अकरम (स) की इक्तेदा में नमाज़े ज़ोहर अदा की , नमाज़ के बाद पालाने शुतुर के ज़रिये एक बुलंद जगह बनाई गई।

पैग़म्बरे अकरम (स) ने बुलंद आवाज़ सबको मुतवज्जेह किया और इस तरह ख़ुतबे का आग़ाज़ किया:

तमाम तारिफ़े खुदावंदे आलम से मख़्सूस हैं , मैं उसी से मदद तलब करता हूँ और उसी पर ईमान रखता हूँ नीज़ उसी पर भरोसा करता हूँ , बुरे कामों और बुराईयों से उसकी पनाह माँगता हूँ , गुमराहों के लिये सिर्फ़ उसी की पनाह है , जिसकी वह रहनुमाई कर दे , वह गुमराह करने वाला नही हो सकता , मैं गवाही देता हूँ कि उसके सिवा कोई माबूद नही है और मुहम्मद उसके रसूल हैं।

ख़ुदावंदे आलम की हम्द व सना और उसकी वहदानियत की गवाही के बाद फ़रमाया:

ऐ लोगों , ख़ुदा वंदे मेहरबान और अलीम ने मुझे ख़बर दी है कि मेरी उमर ख़त्म होने वाली है और अनक़रीब मैं उसकी दावत को लब्बैक कहते हुए आख़िरत की तरफ़ रवाना होने वाला हूँ , मैं और तुम अपनी अपनी ज़िम्मेदारियों के ज़िम्मेदार हैं , अब तुम्हारा नज़रिया है और तुम क्या कहते हो ?

लोगों ने कहा:

हम गवाही देते हैं कि आपने पैग़ामे इलाही को पहुचा दिया है और हमको नसीहत करने और अपनी ज़िम्मेदारियों को समझाने में कोई कसर नही छोड़ी , ख़ुदा वंदे आलम आपको जज़ाए ख़ैर इनायत फरमाये।

फिर फ़रमाया:

क्या तुम लोग ख़ुदावंदे आलम की वहदानियत और मेरी रिसालत की गवाही देते हो ? और क्या यह गवाही देते हो कि जन्नत व दोज़ख व क़यामत के दिन में कोई शक व शुब्हा नही है ? और यह कि ख़ुदावंदे आलम मुर्दों को दोबारा ज़िन्दा करेगा ? क्या तुम इन चीज़ों पर अक़ीदा रखते हो ?

सबने कहा: हाँ (या रसूलल्लाह) इन तमाम हक़ायक़ की गवाही देते हैं ?

उस वक़्त पैगम़्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: ख़ुदावंद , तू गवाह रहना फिर बहुत ताकीद के साथ फरमाया बेशक मैं आख़िरत में जाने और हौज़े (कौसर) पर पहुचने में तुम पर पहल करने वाला हूँ और तुम लोग हौज़े कौसर पर मुझ से आकर मिलोगे , मेरे हौज़ (कौसर) की वुसअत सनआ और बसरा के दरमियान फ़ासले की तरह है , वहाँ परस्तारों के बराबर साग़र और चाँदी के जाम है , ग़ौर व फ़िक्र करो और होशियार रहो कि मैं तुम्हारे दरमियान दो गराँ क़द्र चीज़े छोड़ कर जा रहा हूँ , देखो तुम लोग इनके साथ कैसा सुलूक करते हो ?

उस मौक़े पर लोगों ने आवाज़ बुलंद की , या रसूलल्लाह , वह दो गराँ क़द्र चीज़े कौन सी हैं ?

रसूले अकरम (स) ने फ़रमाया: उन में सिक़्ले अकबर अल्लाह की किताब क़ुरआने मजीद है , जिसका एस सिरा ख़ुदावंदे आलम के हाथ और दूसरा सिरा तुम्हारे हाथों में है। लिहाज़ा उसको मज़बूती से पकड़े रहना ताकि गुमराह न हो और सिक़्ले असग़र मेरी इतरत है , बेशक ख़ुदावंदे अलीम व मेहरबान ने मुझे ख़बर दी है कि यह दोनों एक दूसरे से जुदा नही होंगे , यहाँ तक हौज़े कौसर पर मेरे पास वारिद हों। मैं ने ख़ुदा वंदे आलम से इस बारे में दुआ की है। लिहाज़ा उन दोनो से आगे न बढ़ना और उनकी पैरवी से न रुकना कि हलाक हो जाओगे।

उस मौक़े पर हज़रत अली (अ) के हाथों को पकड़ बुलंद किया यहाँ तक कि आपकी सफ़ीदी ए बग़ल नमूदार हो गई , तमाम लोग आपको देख रहे थे और पहचान रहे थे , फिर रसूले अकरम (स) ने इस तरह फरमाया: ऐ लोगो , मोमिनीन पर ख़ुद उनके नफ़्सों पर कौन औला है ?

सबको ने कहा: ख़ुदा और उसका रसूल बेहतर जानता है , आँ हज़रत (स) बेशक ख़ुदा वंदे आलम मेरा मौला है और मैं मोमिनीन का मौला हूँ और उन पर ख़ुद उनके नफ़्सों से ज़्यादा औला हूँ और जिसका मैं मौला हूँ उसके यह अली मौला हैं।

और अहमद बिन हंबल (हंमबियों के इमाम) के बक़ौल , पैग़म्बरे अकरम (स) ने इस जुमले को चार मर्तबा तकरार किया।

और फिर दुआ के लिये हाथ उठाये और फरमाया: पालने वाले , तू उसको दोस्त रख जो अली को दोस्त रखे और दुश्मन रख उसको जो अली को दुश्मन रखे , उसके नासिरों की मदद फ़रमा और उनके ज़लील करने वाले को ज़लील व रूसवा फ़रमा और उनको हक़ व सदाक़त का मेयार और मर्कज़े क़रार दे।

और फिर आँ हज़रत (स) ने फ़रमाया: हाज़ेरीने मजलिस इस वाकेये पर ख़बर ग़ायब लोगों तक पहचायें।

मजमे के जुदा होने से पहले जिबरईले अमीन पैग़म्बरे अकरम (स) पर यह आय ए शरीफ़ा लेकर नाज़िल हुआ:

(الْيَوْمَ أَكْمَلْتُ لَكُمْ دِينَكُمْ وَأَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِي وَرَضِيتُ لَكُمُ الْإِسْلَامَ دِينًا ) (सूरये मायदा आयत 6)

तर्जुमा

, आज मैंने तुम्हारे दीन को कामिल कर दिया और तुम पर अपनी नेमत पूरी कर दी और तुम्हारे इस दीन इस्लाम को पसंद किया।

उस मौक़े पर पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: अल्लाहो अकबर , दीन के कामिल होने , नेमत के मुकम्मल होने और मेरी रिसालत और मेरे बाद अली (अ) की विलायत पर ख़ुदा के राज़ी व ख़ुदनूद होने पर।

हाज़ेरीने मजलिस मिनजुमला शैखैन (अबू बक्र व उमर) ने अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ) की ख़िदमत में पहुच कर इस तरह मुबारक बाद पेश की: मुबारक हो मुबारक , या अली बिन अबी तालिब कि आज आप मेरे और हर मोमिन व मोमिना के आक़ा व मौला बन गये।

इब्ने अब्बास कहते हैं: ख़ुदा की क़सम हज़रत अली (अ) की विलायत सब पर वाजिब हो गई।

हस्सान बिन साबित ने कहा: या रसूलल्लाह क्या आप इजाज़त देते हैं कि हज़रत अली (अ) की शान में क़सीदा पढ़ूँ ? पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: ख़ुदा की मैमनत और उसकी बरकत से पढ़ो , उस मौक़े पर खड़े हुए और इस तरह अर्ज़ किया: ऐ क़ुरैश के बुज़ुर्गों , पैग़म्बरे अकरम (स) के हुज़ूर में विलायत (जो मुसल्लम तौर पर साबित हो चुकी है।) के बारे में अशआर पेश करता हूँ और इस तरह अशआर पढ़े:

शेर

तर्जुमा

, ग़दीर के दिन नबी लोगों को निदा कर रहे थे और नबी की यह निदा मैं सुन रहा था।

और इस तरह क़सीदा सबसे सामने पेश किया।

हमने वाक़ेया ग़दीर को मुख़्तसर तौर पर बयान किया है कि जिसपर तमाम उम्मते इस्लामिया इत्तेफ़ाक़ रखती हैं , क़ाबिले ज़िक्र है कि दुनिया का कोई भी वाक़ेया या दास्तान इस शान व शौकत और ख़ुसूसीयात के साथ ज़िक्र नही हुई हैं।

(अल ग़दीर जिल्द 1 पेज 31, 36, तबका़त इब्ने साद जिल्द 2 पेज 173, अल अमताअ मक़रीज़ी पेज 510, इसरादुल सारी जिल्द 9 पेज 426, सीरये हलबी जिल्द 3 पेज 257, सीरये ज़ैनी दहलान जिल्द 2 पेज 143, तज़किरतुल ख़वास , पेज 30, ख़सायसे निसाई पेज 96, दायरतुल मआरिफ़ फ़रीद वजदी जिल्द 3 पेज 542)