सृष्टि, ईश्वर और धर्म

सृष्टि, ईश्वर और धर्म0%

सृष्टि, ईश्वर और धर्म कैटिगिरी: विभिन्न

सृष्टि, ईश्वर और धर्म

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

कैटिगिरी: विज़िट्स: 7465
डाउनलोड: 2324

कमेन्टस:

सृष्टि, ईश्वर और धर्म
खोज पुस्तको में
  • प्रारंभ
  • पिछला
  • 7 /
  • अगला
  • अंत
  •  
  • डाउनलोड HTML
  • डाउनलोड Word
  • डाउनलोड PDF
  • विज़िट्स: 7465 / डाउनलोड: 2324
आकार आकार आकार
सृष्टि, ईश्वर और धर्म

सृष्टि, ईश्वर और धर्म

हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

परिपूर्णता का मार्ग

भले इंसान की भांति जीवन व्यतीत करने के लिए सही आयडियालोजी व विचारधारा आवश्यक है। इस बात को समझने के लिए तीन बिंदुओं पर ध्यान देना आवश्यक हैः

१ ,मनुष्य परिपूर्णता की खोज करने वाला प्राणी है।

२ ,मनुष्य परिपूर्णता तक कुछ ऐसे कामों द्वारा पहुंचता है जो बुद्धि से मेल खाते हों और जिनका काना या न करना उसके अधिकार में हो।

३ ,बुद्धि के व्यवहारिक आदेश विशेष प्रकार की वैचारिक पहचान के अंतर्गत ही संभव होते हैं

जिनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण सृष्टि के आरंभ अर्थात एकेश्वरवाद की पहचान ,

जीवन के अंत अर्थात प्रलय में सफलता तक पहुंचाने वाले मार्ग की पहचान। दूसरे शब्दों में सृष्टि की पहचान ,मनुष्य की पहचान और मार्ग की पहचान।

अब आइए इन तीनों के बारे में विस्तार से बात करते हैः

जो भी अपनी भावनाओं और स्वाभाविक इच्छाओं पर विचार करेगा उसे पता चल जाएगा कि इस प्रकार की बहुत सी इच्छाओं का कारण वास्तव में परिपूर्णता तक पहुंचने की भावना होती है।

मूल रूप से कोई भी व्यक्ति यह नहीं चाहता कि उसके अस्तित्व में किसी प्रकार की कमी रहे। वह सदैव यह प्रयास करता है कि

जितना हो सके अपनी कमियों और बुराइयों को दूर करे ताकि परिपूर्णता तक पहुंच सके और जब तक यह कमियां उसमें रहती हैं वह उन्हें दूसरों से छिपाने का प्रयास रकता है।

यह इच्छा यदि सही दिशा पा जाए तो फिर भौतिक व आध्यात्मिक विकास व उन्नति का कारण बनती है किंतु यदि विशेष परिस्थितियों के कारण अपने सही मार्ग से भटक जाए तो फिर अहंकार ,दिखावा ,आत्ममुग्धता आदि जैसे अवगुणों का कारण बन जाती है।

बहरहाल परिपूर्णता व अच्छाई की ओर रुजहान मनुष्य के अस्तित्व में नहिति एक स्वाभाविक कारक है जिसके चिन्हों को प्रायः बहुत ध्यान देकर समझा जा सकता है किंतु यदि थोड़ा से चिंतन-मनन किया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इसका मुख्य स्रो मनुष्य में परिपूर्णता की खोज है।

पेड़-पौधों की परिपूर्णता परिस्थितियों पर निर्भर होती है और जब उसके लिए आवश्यक परिस्थितियां बन जाती हैं तो फिर बिना किसी इच्छा व अधिकार के पेड़-पौधे उगते और बढ़ते हैं।

कोई भी वृक्ष न तो अपनी इच्छा से बढ़ता है और न फल देता है क्योंकि उसके पास बोध व आभास नहीं होता।

अलबत्ता पशुओं के बारे में स्थिति थोड़ी भिन्न होती है।

उनमें इरादा और चयन की सीमित शक्ति होती है जो वास्तव में उनकी प्राकृतिक इच्छाओं से प्रेरित होती है।

पशुओं की सीमित बोध शक्ति उनके शरीर के इन्द्रीय ज्ञान पर निर्भर होती है।

किंतु मनुष्य को अपने इरादे और एक प्राणी होने के नाते उसे जो योग्यताएं प्राप्त हैं उनके अलावा आत्मिक रूप से भी दो विशिष्टताएं प्राप्त हैं।

एक ओर स्वाभाविक आवश्यकताओं के दायरे में उसकी स्वाभाविक इच्छाएं सीमित नहीं होतीं और दूसरी ओर उसे बुद्धि जैसी शक्ति भी प्राप्त है

जिसकी सहायता से वो अपने ज्ञान का असीमित रूप से बढ़ा सकता है और इन्हीं विशिष्टताओं के कारण मनुष्य के संकल्प व इरादे की सीमा ,भौतिकता को पार करते हुए अनन्त तक फैल जाती है।

जिस प्रकार से पेड़-पौधे उसी समय परिपूर्ण होते हैं जब उन्हें विशेष प्रकार की ऊर्जा व शक्ति के प्रयोग का और उससे लाभ उठाने का अवसर प्राप्त हो जाए

और किसी पशु की परिपूर्णता उसी समय संभव होती है जब वह अपनी इंद्रियों और स्वाभाविक इच्छाओं का पूरी तरह पालन करे।

इसी प्रकार मनुष्य के लिए भी विशेष परिपूर्णता उसी समय संभव है जब मनुष्य अपनी विशेष शक्तियों अर्थात ज्ञान व बुद्धि का सही प्रयोग करे ,

भलाई और बुराई के विभिन्न स्तरों को पहचाने और अपनी बुद्धि द्वारा भले कर्मों में सबसे अच्छे काम का चयन कर सके।

इस आधार पर एक व्यवहार उसी समय मानवीय हो सकता है जब बुद्धि के प्रयोग के साथ और विशेष मानवीय इच्छाओं के अंतर्गत हो

और जो काम पशुओं की विशेषताओं के साथ अर्थात बुद्धि व बोध के प्रयोग में लाए बिना किए जाएंगे वो निश्चित रूप से पशुओं वाले व्यवहार कहलाएंगे भले ही उसे करने वाला विदित रूप से मनुष्य दिखाई दे।

इसी प्रकार मनुष्य का वह काम जो स्वभाव या किसी प्रतिक्रिया के रूप में बिना किसी इरादे के किया गया हो वह केवल शारीरिक प्रक्रिया होती है।

संकल्प व इरादे के साथ किया जाने वाला काम इच्छित परिणाम तक पहुंचने का एक मार्ग होता है और उसका महत्व ,परिणाम और आत्मा की परिपूर्णता में उसके प्रभाव पर निर्भर करता है

तो फिर यदि कोई काम किसी आत्मिक विशेषता से हाथ धोने कारण बने तो वह नकारात्मक काम होगा।

इस प्रकार मानव बुद्धि ,इरादे के साथ किए जाने वाले कामों के बारे में तभी निर्णय ले सकती है और उसके महत्व को उसी समय समझ सकती है

जब उसे मनुष्य की परिपूर्णता के मानदंडों और चरणों का ज्ञान हो ,उसे पता हो कि मनुष्य किस प्रकार का प्राणी है ?

उसके जीवन की परिधि कहां तक है ?एक मनुष्य आध्यात्मिक दृष्टि से कितनी ऊंचाइयों तक पहुंच सकता है ?दूसरे शब्दों में बुद्धि यह समझ ले कि मनुष्य के अस्तित्व के आयाम क्या हैं और उसके जन्म का उद्देश्य क्या है ?

इस आधार पर सही विचारधारा तक उसी समय पहुंचा जा सकता है जब विचाराधारा स्वस्थ हो और विचारधारा के अनुसरण के समय उसे जिन समस्याओं का सामना करना पड़े।

उसके समाधान की उसमें शक्ति हो। क्योंकि जब तक इस प्रकार की समस्याओं के समाधान की शक्ति मनुष्य में नहीं होगी उस समय तक व्यवहार अथवा किसी काम के महत्व का बोध प्राप्त करना उसके लिए कठिन होगा। इसी प्रकार जब तक लक्ष्य स्पष्ट नहीं होगा उसम समय तक उस लक्ष्य तक पहुंचने के मार्ग का पता लगाना भी संभव नहीं हो सकता।

इस चर्चा के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैः

१ प्रत्येक मनुष्य में प्रगति की चाहत होती है और वह स्वाभाविक रूप से अपनी कमियों को छिपाने का प्रयास करता है।

प्रगति की स्वाभाविक चाहत को यदि सही दिशा मिल जाए तो वह मनुष्य की परिपूर्णता का कारण बनती है अन्यथा विभिन्न प्रकार के अवगुणों को जन्म देती है।

२ पेड़-पौधों की अपनी प्रगति के लिए विशेष प्रकार की परिस्थितियां और वस्तुओं की आवश्यकता होती है।

इसी प्रकार पशुओं की प्रगति कुछ विशेष वस्तुओं पर निर्भर होती है। मनुष्य की प्रगति भी विशेष प्रकार की है और उसके लिए बुद्धि सहित कुछ विशेष तत्वों की आवश्यकता होती है। (जारी है)

स्वाभाविक भावना

यह जो कहा जाता है कि धर्म के प्रति जिज्ञासा एक स्वाभाविक बात है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि यह भावना सदैव सब लोगों में समान रूप से पायी जाती है

बल्कि संभव है कि बहुत से लोगों में यह भावना विशेष परिस्थितियों और ग़लत प्रशिक्षण के कारण निष्क्रिय रूप में दबी पड़ी हो या अपने स्वाभाविक मार्ग से विचलित हो गई हो।

मनुष्य की दूसरी स्वाभाविक भावनाओं से साथ भी ऐसा होना संभव है। उदाहरण स्वरूप खाने की इच्छा मनुष्य में स्वाभाविक रूप से भूख की दशा में उत्पन्न होती है

किंतु यह आवश्यक नहीं है कि यह इच्छा सब लोगों में समान रूप से पायी जाए। उदाहरण स्वरूप कुछ लोगों को किसी रोग के कारण भूख नहीं लगती ,

हालांकि उनके शरीर को खाने की आवश्यकता होती है या फिर कुछ लोग भूख मिटाने वाली दवा खाकर इस इच्छा को दबाते हैं

किंतु इससे इस वास्तविकता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता कि भूख एक स्वाभाविक इच्छा है। यही स्थिति धार्मिक भावना की भी है।

यदि कुछ लोग अपने परिवार या आसपास के वातावरण के कारण इस ओर आकृष्ट नहीं होते तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि उनमें यह भावना मौजूद नहीं है।

यह बात तो स्पष्ट हो चुकी है कि वास्तविकता की खोज और अपने हितों की रक्षा जैसी स्वाभाविक भावनाएं अध्ययन व चिंतन तथा ज्ञान प्राप्ति के लिए शक्तिशाली कारक होती हैं।

इस आधार पर जब किसी को यह पता चले कि पूरे इतिहास में कुछ ऐसे लोग रहे हैं

जो दावा करते थे कि हम इस सृष्टि के रचयिता की ओर से मानवजाति के मार्गदर्शन के लिए चुने गए हैं और हमारा ईश्वरीय कर्तव्य है कि हम लोगों के लोक-परलोक को संवारें।

इसके साथ ही यह भी पता चले कि इन लोगों ने अपने इस अभियान के लिए बड़ी कठिनाइयां झेलें और कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी अपनी बात पर अडिग रहे यहां तक कि

इस प्रकार के बहुत से लोगों को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ा तो फिर स्वाभाविक रूप से मनुष्य के भीतर इस प्रकार के लोगों के बारे में जानकारी प्राप्त करने की भावना उत्पन्न होगी।

वह अवश्य यह जानना चाहेगा कि क्या इन ईश्वरीय दूतों के दावे सही थे और उनके पास ठोस प्रमाण थे ?

विशेषकर जब उसे यह पता चलेगा कि इन ईश्वरीय दूतों ने मनुष्य के कल्याण व लोक-परलोक में सफलता दिलाने का वचन दिया है

और कहा है कि उनका मार्ग न अपनाने की स्थिति में मनुष्य को ऐसा दंड मिलेगा जो कभी भी समाप्त नहीं होगा।

अर्थात उनका यह कहना है कि यदि उनकी बात मान ली जाए तो मनुष्य को अत्यधिक लाभ पहुंचेगा और विरोध की स्थिति में बहुत बड़े नुक़सान उठाने पड़ेंगे।

इस बात को जान लेने क बाद कोई भी जानकार और समझदार व्यक्ति अपने आपको इन ईश्वरीय दूतों और उनके लाए हुए संदेशों के बारे में अध्ययन व जानकारी इकट्ठा करने से कैसे रोक सकता है ?

हां यह भी हो सकता है कि कुछ लोग आलस्य के कारण अध्ययन व जानकारी प्राप्त करने का कष्ट न उठाना चाहें या फिर यह सोचकर कि धर्म ग्रहण करने के बाद उन पर कुछ प्रतिबंध लग जाएंगे और उन्हें बहुत से कामों से रोक दिया जाएगा ,इस संदर्भ में अध्ययन न करें।

किंतु ऐसे लोगों को यह सोचना चाहिए कि कहीं उनका यह आलस्य उनके लिए सदैव रहने वाले दंड और प्रकोप का कारण न बन जाए।

ऐसे लोगों की दशा उस नादान रोगी बच्चे से अधक बुरी है जो कड़वी दवा के डर से डाक्टर के पास जाने से बचता है और अपनी निश्चित मृत्यु की भूमिका प्रशस्त करता है क्योंकि इस प्रकार के बच्चे की बुद्धि पूर्ण रूप से विकसित नहीं होती

जिसके कारण वह अपने हितों और ख़तरों को भलीभांति समझ नहीं सकता। डाक्टर के सुझाव का पालन न करने से मनुष्य इस संसार में कुछ दिनों के जीवन से ही वंचित होगा।

जानकार मनुष्य जो परलोक में सदैव रहने वाले दंड के बारे में सोचने व चिंतन करने की क्षमता रखता है उसको सांसारिक सुखों और परलोक के दंडों और सुखों की एक दूसरे से तुलना करनी चाहिए।

संभव है कि कुछ लोग यह बहाना बनाएं कि किसी समस्या का समाधान खोजना उस समय सही होता है जब मनुष्य को उसके समाधान तक पहुंचने की आशा होती है

किंतु हमें धर्म के बारे में चिंतन व अध्ययन से किसी परिणाम की आशा ही नहीं है। इस लिए हम समझते हैं कि ईश्वर ने हमें जो योग्यताएं ,क्षमताएं और शक्ति दी है

उसे हम उन कामों के लिए प्रयोग करें जिनके परिणाम व प्रतिफल हमें सरलता से मिल जाएं और जिनके परिणामों की हमें अधिक आशा हो।

ऐसे लोगों के उत्तर में यही कहना चाहिए कि पहली बात तो यह है कि धर्म संबंधी समस्याओं के समाधान की आशा अन्य विषयों से किसी भी प्रकार कम नहीं है और हमें पता है कि विज्ञान की बहुत सी समस्याओं के समाधान के लिए वैज्ञानिकों ने दसियों वर्षों तक अनथक प्रयास किए हैं।

दूसरी बात यह है कि समाधान की आशा के प्रतिशत पर ही नज़र नहीं रखनी चाहिए बल्कि उसके बाद मिलने वाले लाभ की मात्रा को भी दृष्टिगत रखना चाहिए।

उदाहरण स्वरूप यदि किसी व्यापार में लाभ प्राप्त होने की आशा पांच प्रतिशत हो और दूसरे किसी व्यापारिक कार्य में लाभ प्राप्त होने की आशा दस प्रतिशत हो किंतु पहले वाले काम में अर्थात जिसमें लाभ मिलने की आशा पांच प्रतिशत हो लाभ की मात्रा एक हज़ार रूपए हो और दूसरे काम में अर्थात जिसमें लाभ प्राप्त होने की आशा दस प्रतिशत है किंतु लाभ की मात्रा सौ रूपए हो तो पहला काम दूसरे काम से दस गुना अधिक लाभदायक होगा।

उदाहरण स्वरूप यदि किसी व्यक्ति को दो स्थान बताए जाएं और उससे कहा जाए कि पहले स्थान पर दस ग्राम सोना गड़ा है किंतु इस बात की संभावना कि वहां सोना गड़ा हो पचास प्रतिशत है

जबकि दूसरे स्थान पर दस किलोग्राम सोना गड़े होने की संभावना है किंतु सोना गड़ा है कि नहीं इसकी संभावना बीस प्रतिशत है और उस व्यक्ति को एक ही स्थान पर खुदाई करने का अधिकार हो तो बुद्धिमान व्यक्ति वही काम करेगा जिसमें संभावित लाभ अधिक हो क्योंकि निश्चित लाभ किसी स्थान पर भी खुदाई से नहीं है तो फिर खुदाई वहीं करेगा जहां अनुमान सही होने की स्थिति में अधिक लाभ की संभावना है।

अब चूंकि धर्म के बारे में अध्ययन और उसमें चिंतन व खोज का संभावित लाभ ,किसी भी अन्य क्षेत्र में अध्ययन व खोज से अधिक होगा ,भले ही खोज का लाभ प्राप्त होने की संभावना कम हो ,क्योंकि किसी भी अन्य क्षेत्र में खोज का लाभ चाहे जितना अधिक हो ,सीमित ही होगा परंतु धर्म के बारे में खोज के बाद जो लाभ प्राप्त होगा वह मनुष्य के लिए अनंत व असीमित होगा।

तार्किक रूप से धर्म के बारे में खोज न करने का औचित्य केवल उसी दशा में सही हो सकता है जब मनुष्य को धर्म और उससे संबंधित विषयों के ग़लत होने का विश्वास हो जाए।

किंतु यह विश्वास भी अध्ययन व खोज के बिना कैसे होगा ?

चर्चा के सार बिंदु इस प्रकार हैः

धर्म की खोज एक स्वाभाविक होने के बावजूद आवश्यक नहीं है कि सारे लोगों में समान रूप से हो क्योंकि अन्य स्वाभाविक भावनाओं की भांति इस इच्छा पर भी वातावरण व घर परिवार का प्रभाव पड़ता है।

यदि किसी मनुष्य को इतिहास में कुछ ऐसे लोगों के बारे में ज्ञात हो जो ईश्वरीय दूत होने का दावा करते थे और कहते थे कि उनके लाए हुए धर्म को स्वीकार करने की दशा में दोनों लोकों में सफलताएं मिलेंगी और इंकार की स्थिति में सदैव के लिए नर्क में रहना होगा तो एक बुद्धिमान मनुष्य के लिए आवश्यक है कि उनके बारे में कुछ जानकारियां जुटाए और देखे कि वे लोग क्या कहते थे और अपने कथनों के लिए उनके पास क्या प्रमाण थे ? (जारी है)

स्वयं को पहचानें किंतु क्यों ?

पिछली चर्चा में हमने जाना कि प्रत्येक मनुष्य में प्रगति की चाहत होती है और वह स्वाभाविक रुप से अपनी कमियों को छिपाने का प्रयास करता है

प्रगति की स्वाहाविक चाहत को यदि सही दिशा मिल जाए तो वह मनुष्य की परिपूर्णता का कारण बनती है अन्यथा विभिन्न प्रकार के अवगुणों को जन्म देती है।

इस के साथ ही हम ने इस बात पर भी चर्चा की कि पेड़ पौधों को अपनी प्रगति के लिए विशेष प्रकार की परिस्थितियों और वस्तुओं की आवश्यकता होती है

इसी प्रकार पशुओं की प्रगति विशेष प्रकार की है और उस के लिए बुद्धि सहित कुछ विशेष तत्वों की आवश्यकता होती है।

मनुष्य स्वाभाविक रुप से स्वंय को समस्त अच्छाइयों से सुसज्जित करना चाहता है। वह चाहता है कि ऐसे काम करे जो उसे एक परिपूर्ण मनुष्य बना दें

और सब लोग उसे अच्छा कहें और समझें अर्थात स्वाभाविक रुप से हर व्यक्ति में सही अर्थों में मनुष्य बनने की इच्छा होती हैं

किंतु इस बात को जानने के लिए कि कौन से वास्तव में आनन्द होग की पाश्विक भावना का अनुसरण करते हैं उन्हें मनुष्य नहीं कहा जा सकता ।

क्योंकि मनुष्य को ईश्वर ने इच्छा के साथ बुद्धि भी दी है जब कि पशुओं को केवल इच्छा दी है इस लिए जो मनुष्य बुद्धि के प्रयोग के बिना अपनी इच्छाओं का अनुसरण करता है

वह पशुओं से भी बुरा होता है। क्योंकि पशुओं के पास तो बुद्धि नहीं होती किंतु मनुष्य के पास बुद्धि होती है फिर भी वह उस का प्रयोग नहीं करता।

इस के साथ यह भी है कि चूंकि ऐसे लोग अपनी मानवीय योग्यताओं को जो वास्तव में ईश्वरीय कृपा होती है ,नष्ट करते हैं इस लिए उन्हें दंड भी मिलता है।

क्योंकि स्वाभाविक बात है कि यदि आप किसी को कोई बहूमूल्य उपहार दें और उपहार लेने वाला उस का प्रयोग न करे बल्कि उसे नष्ट कर दे तो निश्चित रुप से आप को गुस्सा आएगा।

मनुष्य और ईश्वर के बारे में भी यही स्थिति है। ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि तथा अन्य बहुत सी योग्यताएं दी हैं

अब यदि मनुष्य अपनी बुद्धि और योग्यताओं का प्रयोग न करे और अपनी परिपूर्णता में उस का प्रयोग न करे

बल्कि उसे नष्ट करके पशुओं की भांति केवल अपनी इच्छाओं का अनुसरण करने लगे तो निश्चित रुप से वह ईश्वर के प्रकोप का पात्र बनेगा कि जिस ने उसे यह योग्यतांए प्रदान की हैं।

अच्छे कर्म मनुष्य को उस के गंतव्य तक पहुंचाएंगे किंतु सबसे पहले उसे अपनी परिपूर्णता की सीमाओं का ज्ञान प्राप्त करना होगा।

अर्थात मनुष्य को मनुष्य बनने के लिए किसी भी प्रयास से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि एक मनुष्य किस सीमा तक आगे जा सकता है कितनी प्रगति कर सकता है और उस की परिपूर्णता की सीमा क्या है ?

मानवीय परिपूर्णता का ज्ञान और पहचान मनुष्य के अस्तित्व की वास्तविकता और उस के आरंभ व अंत के ज्ञान पर निर्भर होती है। अर्थात जब तक हमें यह ज्ञान नहीं होगा कि हम क्या हैं ?

कौन हैं ?कहॉं से आए हैं ?हमारी वास्तविकता क्या है ?तब तक हमें अपनी परिपूर्णता के मार्ग का ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता इसी लिए कहा जाता है कि परिपूर्णता का ज्ञान ,

मनुष्य की पहचान पर निर्भर है। उस के बाद मनुष्य के लिए विभिन्न व्यवहारों की अच्छाई व बुराई को जानना और परिपूर्णता के विभिन्न चरणों की जानकारी प्राप्त करना आवश्यक होगा

ताकि अपने आप को परिपूर्ण मनुष्य बनाने के लिए सही रास्ते को चुन सके क्योंकि मनुष्य जब तक इस रास्ते पर नहीं चलेगा वह सही आयडियालॉजी और मत को स्वीकार नहीं कर सकता।

इस लिए सही धर्म की खोज की दिशा में प्रयास आवश्यक है और उस के बिना मानवीय परिपूर्णता तक पहुंचना संभव नहीं होगा।

क्योंकि जो काम इस प्रकार के मूल्यों व मान्यताओं के अंर्तगत नहीं किए जाएंगे वह वास्तव में मानवीय व्यवहार ही नहीं होंगे।

जैसा कि हम बता चुके हैं जिस प्रकार पेड़ पौधों के विकारस के लिए विशेष परिस्थितियों की आवश्यक्ता होती है

उसी प्रकार मनुष्य के विकास के लिए भी विशेष परिस्थितयां होती चाहिए जो लोग सच्चे धर्म को पहचानने का प्रयास नहीं करते

या फिर पहचान लेने के बाद भी हठ धर्मी व ज़िद के कारण उस का इन्कार करते हैं वह वास्तव में स्वंय को पशुओं की पंक्ति में खड़ा कर लेते हैं।

इस अध्याय में चर्चा के मुख्य बिंदुः

• मनुष्य स्वाभाविक रुप से स्वंय को समस्त अच्छाइयों से सुसज्जित करना चाहता है।

वह चाहता है कि ऐसे काम करे जो उसे एक परिपूर्ण मनुष्य बना दे।

• मनुष्य को मनुष्य बनने के लिए किसी भी प्रयास से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि एक मनुष्य किस सीमा तक आगे जा सकता है

कितनी प्रगति कर सकता है और उस की परिपूर्णता की सीमा क्या है।

• सही धर्म की खोज की दिशा में प्रयास आवश्यक है और उस के बिना मानवीय परिपूर्णता तक पहुंचना संभव नहीं होगा।

• जो मनुष्य बुद्वि के प्रयोग के बिना अपनी इच्छाओं का अनुसरण करता है वह पशुओं से भी बुरा होता है।

क्योंकि पशुओं के पास तो बुद्धि नहीं होती किंतु मनुष्य के पास बुद्धि होती है फिर भी वह उस का प्रयोग नहीं करता।

• मनुष्य यदि ईश्वर द्वारा प्रदान किये गये उपहारों अर्थात अपनी बुद्धि और योग्यताओं को नष्ट करता है तो ईश्वरीय प्रकोप का पात्र बन जाता है।

नास्तिकता और भौतिकता-1

नास्तिकता और भौतिकता का इतिहास बहुत प्राचीन है और ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि जिस प्रकार प्राचीन काल से ही ईश्वर पर विश्वाश रखने वाले लोग थे ,उसी प्रकार उसका इन्कार करने वाले भी लोग मौजूद थे किंतु उनकी संख्या बहुत अधिक नहीं थी परंतु १८ वीं शताब्दी से युरोप में धर्मविरोध का चलन आरंभ हुआ और धीरे धीरे पूरे विश्व में फैलता चला गया। यद्यपि धर्म विरोध का चलन गिरजाघरों की सत्ता और ईसाई धर्म गुरुओं की निरंकुशता तथा ईसाई धर्म के विरोध में आरंभ हुआ था किंतु समय के साथ ही साथ इस लहर ने अन्य धर्मों के अनुयाइयों को भी अपनी लपेट में ले लिया और धर्म से दूरी की भावना ,अन्य देशों में पश्चिम के औद्योगिक व वैज्ञानिक विकास के साथ ही पहुंच गयी और हालिया शताब्दियों में मार्क्सवादी व आर्थिक विचारधाराओं के साथ मिल कर धर्म विरोध की भावना ने मानव समाज को त्रासदी के मुहाने पर ला खड़ा किया है।

धर्म विरोधी भावना के फैलने के बहुत से कारण हैं किंतु यहां पर हम समस्त कारणों को तीन भागों में बांट कर उन पर चर्चा करने का प्रयास करेंगे।

धर्मविरोधी भावना के फैलने का प्रथम कारण मानसिक है अर्थात वह भानवाएं जो धर्म से दूरी और नास्तिकता के कारक के रूप में किसी भी मनुष्य में उत्पन्न हो सकती हैं जैसे भोग विलास व ऐश्वर्य की अभिलाषा और प्रतिबद्धता से दूरी की चाहत मनुष्य को धर्म का विरोध करने पर उकसा सकती है। वास्तव में लोगों को प्रायः ऐसे सुख की खोज होती है जिसे इंद्रियों द्वारा भोगा जा सके और धर्म व ईश्वर के आदेशों के पालन का सुख ऐसा है कि कम से कम इस संसार में उसे इंद्नियों द्वारा समझना हर एक के बस की बात नहीं है। दूसरी ओर निरकुंशता और दायित्वहीनता से प्रेम भी मनुष्य को धर्म की प्रतिबद्धताओं से दूर रख सकता है क्योंकि ईश्वरीय धर्म को मानने से कुछ वर्जनाएं और प्रतिबंध लागू हो जाते हैं जिनका पालन इस बात का कारण बनता है कि मनुष्य को बहुत से अवसरों पर अपना मनचाहा काम करने से रोका जाता है और इस प्रकार से उसकी स्वतंत्रता या दूसरे शब्दों में निरंकुशता समाप्त हो जाती है जो असीमित स्वतंत्रता व निरकुंशता की चाहत रखने वालों को स्वीकार नहीं होती ,इसी लिए वह इसके कारक अर्थात धर्म के विरोध पर उतर आते हैं। धर्म के विरोध के बहुत से मानसिक कारकों में यह एक मुख्य और प्रभावी कारक है और बहुत से लोग जाने अनजाने में इसी भावना के अंतर्गत ईश्वर और धर्म का इन्कार करते हैं।

धर्म का विरोध करने के दूसरे प्रकार के कारक को हम वैचारिक कारक कह सकते हैं। इससे आशय वास्तव में वह आशंकाएं और संदेह हैं जो लोगों के मन में उत्पन्न होते हैं या फिर दूसरों की बाते सुनकर उनके मन में संदेह व शकांए उत्पन्न हो जाती हैं और चूंकि इस प्रकार के लोगों में वैचारिक शक्ति क्षीण और विश्लेषण क्षमता का अभाव होता है इस लिए वे अपनी अज्ञानता के कारण जब संदेहों और शंकाओं का उत्तर नहीं खोज पाते तो उसका कम से कम प्रभाव उनपर यह होता है कि वे स्वयं ही धर्म का विरोध करने लगते हैं।

इस प्रकार के कारकों को भी कई भागों में बांटा जा सकता है। उदाहरण स्वरूप वह शंकाएं जो अंधविश्वास के कारण उत्पन्न होती हैं। इसी प्रकार कभी कभी वैज्ञानिक अध्ययन भी सही रूप से धर्म की शिक्षा और वैज्ञानिक तथ्य में तालमेल बिठा न पाने के चलते धर्म के प्रति शंका उत्पन्न होने का कारण बन जाते हैं।

धर्म विरोध का एक अन्य कारक सामाजिक होता है ,अर्थात कुछ समाजों में ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं कि धार्मिक नेता किसी न किसी प्रकार से उन परिस्थितियों के ज़िम्मेदार समझे जाते हैं और चूंकि बहुत से लोगों में सही स्थिति समझने की शक्ति नहीं होती और विश्लेषण नहीं कर पाते इस लिए वे इस प्रकार की परिस्थितियों को धर्मगुरुओं के हस्तक्षेप का परिणाम मानते हैं और फलस्वरूप धर्म के ही विरोधी हो जाते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि धर्म पर आस्था ही सामाजिक समस्याओं और परिस्थितियों की ज़िम्मेदार है।

इस भावना और इस कारक को युरोप में पुनर्जागरण काल में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। धार्मिक मामलों में गिरजाघरों के कर्ता-धर्ता लोगों ने ,ईसाईयों को धर्म से दूर कर दिया और धर्मगुरुओं के क्रियाकलापों ने लोगों के मन में यह विचार उत्पन्न किया कि धर्म और राजनीति में अलगाव होना चाहिए और सामाजिक नेताओं ने ईसाई धर्म गुरुओं को सत्ता से दूर रखने के लिए इस विचार का जम कर प्रसार प्रचार किया और परिणाम स्वरूप धर्म को पहले आम लोगों की दिनचर्या से दूर किया गया और फिर उसे अलग-थलग कर दिया गया जिसके कारण बहुत से लोगों को लगने लगा कि धर्म जीवन से अलग कोई विषय है और बहुत से लोग इस का विरोध करने लगे।

ये तो कुछ ऐसे कारक थे जो मनुष्य में धर्म का विरोध करने की भावना जगाते हैं किंतु यह भी है कि बहुत से धर्म विरोधी ऐसे भी हैं जिनमें तीनों प्रकार के कारक सक्रिय होते हैं तो ऐसे लोग विरोध के साथ ही साथ शत्रुता भी करते हैं और धर्म को अपने लक्ष्यों की पूर्ति में सब से बड़ी बाधा मानते हैं।

इस चर्चा के मुख्य बिंदुः

• एक शक्तिशाली ईश्वर का अस्तित्व ईश्वरीय मत में मूल आधार है जबकि भौतिक विचारधारा में ऐसे किसी ईश्वर के अस्तित्व से इन्कार किया जाता है। दोनों मतों में यही मुख्य अंतर है।

• धर्म परायणता की भांति नास्तिकता का भी इतिहास अत्यधिक पुराना है किंतु यह विचार धारा १८ वीं शताब्दी में युरोप में पुनर्जागरण के बाद व्यापक रुप से फैलना आरंभ हुई और युरोप के वैज्ञानिक विकास के साथ ही विश्व के अन्य क्षेत्रों और अन्य धर्मों के अनुयाईयों में भी फैल गयी।

• धर्मविरोध के कई कारक होते हैं किंतु मुख्य रूप से मानसिक ,सामाजिक और वैचारिक कारकों में उन्हें बांटा जा सकता है। किसी धर्मविरोधी में एक कारक होता है किंतु किसी किसी में तीनों कारक भी हो सकते हैं।