सहीफा ए कामिला

सहीफा ए कामिला0%

सहीफा ए कामिला कैटिगिरी: दुआ व ज़ियारात

सहीफा ए कामिला

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

कैटिगिरी: विज़िट्स: 30917
डाउनलोड: 4923

कमेन्टस:

सहीफा ए कामिला
खोज पुस्तको में
  • प्रारंभ
  • पिछला
  • 11 /
  • अगला
  • अंत
  •  
  • डाउनलोड HTML
  • डाउनलोड Word
  • डाउनलोड PDF
  • विज़िट्स: 30917 / डाउनलोड: 4923
आकार आकार आकार
सहीफा ए कामिला

सहीफा ए कामिला

हिंदी

यह किताब अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क की तरफ से संशोधित की गई है।.

चौबीसवीं दुआ

अपने वालेदैन (अलैहिस्सलाम) के हक़ में हज़रत (अ 0) की दुआ

ऐ अल्लाह! अपने अब्दे ख़ास और रसूल मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम और उनके पाक व पाकीज़ा अहलेबैत (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और उन्हें बेहतरीन रहमत व बरकत और दुरूद व सलाम के साथ ख़ुसूसी इम्तियाज़ बख़्श , और ऐ माबूद! मेरे मँा बाप को भी अपने नज़दीक इज़्ज़त व करामत और अपनी रहमत से मख़सूस फ़रमा। ऐ सब रहम करने वालों से ज़्यादा रहम करने वाले।

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा। उनके जो हुक़ूक़ मुझ पर वाजिब हैं उनका इल्म बज़रिये इलहाम अता कर और उन तमाम वाजेबात का इल्म बे कम व कास्त मेरे लिये मुहयया फ़रमा दे। फिर जो मुझे बज़रिये इलहाम बताए उस पर कारबन्द रख और इस सिलसिले में जो बसीरत इल्मी अता करे उस पर अमल पैरा होने की तौफ़ीक़ दे ताके उन बातों में से जो तूने मुझे तालीम की हैं कोई बात अमल में आए बग़ैर न रह जाए और उस खि़दमतगुज़ारी से जो तूने मुझे बतलाई है , मेरे हाथ पैर थकन महसूस न करें।

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा क्योंके तूने उनकी तरफ़ इन्तेसाब से हमें शरफ़ बख़्शा है। मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा क्योंके तूने उनकी वजह से हमारा हक़ मख़लूक़ात पर क़ायम किया है।

ऐ अल्लाह! मुझे ऐसा बना दे के मैं इन दोनों से इस तरह डरूं जिस तरह किसी जाबिर बादषाह से डरा जाता है और इस तरह उनके हाल पर शफ़ीक़ व मेहरबान रहूँ जिस तरह शफ़ीक़ मां (अपनी औलाद पर) शफ़क़्क़त करती है और उनकी फ़रमाबरदारी और उनसे हुस्ने सुलूक के साथ पेश आने को मेरी आंखों के लिये इससे ज़्यादा कैफ़ अफ़ज़ा क़रार दे जितना चश्मे ख़्वाब आलूद में नीन्द का ख़ुमार और मेरे क़ल्ब व रूह के लिये इससे बढ़ कर मसर्रत अंगेज़ क़रार दे जितना प्यासे के लिये जरअए आब। ताके मैं अपनी ख़्वाहिश पर उनकी ख़्वाहिश को तरजीह दूँ और अपनी ख़ुशी पर उनकी ख़ुशी को मुक़द्दम रखूँ और उनके थोड़े एहसान को भी जो मुझ पर करें , ज़्यादा समझूं। और मैं जो नेकी उनके साथ करूं वह ज़्यादा भी हो तो उसे कम तसव्वुर करूं।

ऐ अल्लाह! मेरी आवाज़ को उनके सामने आहिस्ता मेरे कलाम को उनके लिये ख़ुशगवार , मेरी तबीयत को नरम और मेरे दिल को मेहरबान बना दे और मुझे उनके साथ नर्मी व शफ़क़्क़त से पेश आने वाला क़रार दे। ऐ अल्लाह! उन्हें मेरी परवरिश की जज़ाए ख़ैर दे और मेरे हुस्ने निगेहदाश्त पर अज्र व सवाब अता कर और कमसिनी में मेरी ख़बरगीरी का उन्हें सिला दे। ऐ अल्लाह! उन्हें मेरी तरफ़ से कोई तकलीफ़ पहुंची हो या मेरी जानिब से कोई नागवार सूरत पेश आई हो या उनकी हक़तलफ़ी हुई हो तो उसे उनके गुनाहों का कफ़्फ़ारा , दरजात की बलन्दी और नेकियों में इज़ाफ़े का सबब क़रार दे।

ऐ बुराइयों को कई गुना नेकियों से बदल देने वाले , बारे इलाहा! अगर उन्होंने मेरे साथ गुफ़्तगू में सख़्ती या किसी काम में ज़्यादती या मेरे किसी हक़ में फ़रोगुज़ाश्त या अपने फ़र्ज़े मन्सबी में कोताही की हो तो मैं उनको बख़्शता हूं और उसे नेकी व एहसान का वसीला क़रार देता हूं , और पालने वाले! तुझसे ख़्वाहिश करता हूँ के इसका मोआख़ेज़ा उनसे न करना। इसमें अपनी निस्बत उनसे कोई बदगुमानी नहीं रखता और न तरबीयत के सिलसिले में उन्हें सहल अंगार समझता हूँ और न उनकी देखभाल को नापसन्द करता हूँ इसलिये के उनके हुक़ूक़ मुझपर लाज़िम व वाजिब , उनके एहसानात देरीना और उनके इनआमात अज़ीम हैं। वह इससे बालातर हैं के मैं उनको बराबर का बदला या वैसा ही एवज़ दे सकूँ। अगर ऐसा कर सकूं तो ऐ मेरे माबूद! वह उनका हमहवक़्त मेरी तरबीयत में मशग़ूल रहना , मेरी ख़बरगीरी में रन्ज व ताब उठाना और ख़ुद असरत व तंगी में रहकर मेरी आसूदगी का सामान करना कहाँ जाएगा भला कहां हो सकता है के वह अपने हुक़ूक़ का सिला मुझसे पा सकें और न मैं ख़ुद ही उनके हुक़ूक़ से सुबुकदोश हो सकता हूँ और न उनकी खि़दमत का फ़रीज़ा अन्जाम दे सकता हूँ। रहमत नाज़िल फ़रमा मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर और मेरी मदद फ़रमा ऐ बेहतर उनसे जिनसे मदद मांगी जाती है और मुझे तौफ़ीक़ दे ऐ ज़्यादा रहनुमाई करने वाले उन सबसे जिनकी तरफ़ (हिदायत के लिये) तवज्जो की जाती है। और मुझे उस दिन जबके हर शख़्स को उसके आमाल का बदला दिया जाएगा और किसी पर ज़्यादती न होगी उन लोगों में से क़रार न देना जो माँ-बाप के आक़ व नाफ़रमाबरदार हों।

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) व औलाद (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और मेरे माँ-बाप को उससे बढ़कर इम्तियाज़ दे जो मोमिन बन्दों के माँ-बाप को तूने बख़्शा है। ऐ सब रहम करने वालों से ज़्यादा रहम करने वाले। ऐ अल्लाह! उनकी याद को नमाज़ों के बाद रात की साअतों और दिन के तमाम लम्हों में किसी वक़्त फ़रामोश न होने दे।

ऐ अल्लाह। मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और मुझे उनके हक़ में दुआ करने की वजह से और उन्हें मेरे साथ नेकी करने की वजह से लाज़मी तौर पर बख़्श दे और मेरी सिफ़ारिश की वजह से उनसे क़तई तौर पर राज़ी व ख़ुशनूद हो और उन्हें इज़्ज़त व आबरू के साथ सलामती की मन्ज़िलों तक पहुंचा दे।

ऐ अल्लाह! अगर तूने उन्हें मुझसे पहले बख़्श दिया तो उन्हें मेरा शफ़ीअ बना। और अगर मुझे पहले बख़्श दिया तो मुझे उनका शफ़ीअ क़रार दे ताके हमस ब तेरे लुत्फ़ व करम की बदौलत तेरे बुज़ुर्गी के घर और बख़्शिश व रहमत की मन्ज़िल में एक साथ जमा हो सकें। यक़ीनन तू बड़े फ़ज़्ल वाला क़दीम एहसान वाला और सब रहम करने वालों से ज़्यादा रहम करने वाला है।

(आप इस किताब को अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

पच्चीसवीं दुआ

औलाद के हक़ में हज़रत (अ 0) की दुआ

ऐ मेरे माबूद! मेरी औलाद की बक़ा और उनकी इस्लाह और उनसे मेहरामन्दी के सामान मुहय्या करके मुझे ममनूने एहसान फ़रमा और मेरे सहारे के लिये उनकी उम्रों में बरकत और उनकी ज़िन्दगियों में तूल दे और उनमें से छोटों की परवरिश फ़रमा और कमज़ोरों को तवानाई दे और उनकी जिस्मानी , ईमानी और एख़लाक़ी हालत को दुरूस्त फ़रमा और उनके जिस्म व जान और उनके दूसरे मुआमलात में जिनमें मुझे एहतेमाम करना पड़े उन्हें आफ़ियत से हमकिनार रख , और मेरे लिये और मेरे ज़रिये उनके लिये रिज़्क़े फ़रावाँ जारी कर और उन्हें नेकोकार उन्हें नेकोकार , परहेज़गार , रौशन दिल , हक़ शिनास और अपना फ़रमाबरदार और अपने दोस्तों का दोस्त व ख़ैरख़्वाह और अपने तमाम दुश्मनों का दुश्मन व बदख़्वाह क़रार दे- आमीन।

ऐ अल्लाह! उनके ज़रिये मेरे बाज़ुओं को क़वी और मेरी परेशांहाली की इस्लाह और उनकी वजह से मेरी जमीअत में इज़ाफ़ा और मेरी मजलिस की रौनक़ दोबाला फ़रमा और उनकी बदौलत मेरा नाम ज़िन्दा रख और मेरी अदम मौजूदगी में उन्हें मेरा क़ायम मुक़ाम क़रार दे और उनके वसीले से मेरी हाजतों में मेरी मदद फ़रमा और उन्हें मेरे लिये दोस्त , मेहरबान , हमहतन , मुतवज्जेह , साबित क़दम और फ़रमाबरदार क़रार दे। वह नाफ़रमान , सरकश , मुख़ालेफ़त व ख़ताकार न हों और उनकी तरबीयत व तादीब और उनसे अच्छे बरताव में मेरी मदद फ़रमा और उनके अलावा भी मुझे अपने ख़ज़ानए रहमत से नरीनए औलाद अता कर और उन्हें मेरे लिये सरापा ख़ैर व बरकत क़रार दे और उन्हें उन चीज़ों में जिनका मैं तलबगार हूँ। मेरा मददगार बना और मुझे और मेरी ज़ुर्रियत को शैतान मरदूद से पनाह दे। इसलिये के तूने हमें पैदा किया और अम्र व नहीं की और जो हुक्म दिया उसके सवाब की तरफ़ राग़िब किया और जिससे मना किया उसके अज़ाब से डराया और हमारा एक दुश्मन बनाया जो हमसे मक्र करता है और जितना हमारी चीज़ों पर उसे तसल्लत देता है उतना हमें उसकी किसी चीज़ पर तसल्लत नहीं दिया। इस तरह के उसे हमारे सीनों में ठहरा दिया और हमारे रग व पै में दौड़ा दिया। हम ग़ाफ़िल हो जाएं मग रवह ग़ाफ़िल नहीं होता , हम भूल जाएं मगर वह नहीं भूलता , वह हमें तेरे अज़ाब से मुतमईन करता और तेरे अलावा दूसरों से डराता है। अगर हम किसी बुराई का इरादा करते हैं तो वह हमारी हिम्मत बन्धाता है और अगर किसी अमले ख़ैर का इरादा करते हैं तो हमें उससे बाज़ रखता है और गुनाहों की दावत देता और हमारे सामने शुबहे खड़े कर देता है अगर वादा करता है तो झूटा और उम्मीद दिलाता है तो खि़लाफ़वर्ज़ी करता है अगर तू उसके मक्र को न हटाए तो वह हमें गुमराह करके छोड़ेगा और उसके फ़ित्नों से न बचाए तो वह हमें डगमगा देगा।

ख़ुदाया! उस लईन के तसल्लुत को अपनी क़ूवत व तवानाई के ज़रिये हमसे दफ़ा कर दे और कसरते दुआ के वसीले से उसे हमारी राह ही से हटा दे ताके हम उसकी मक्कारियों से महफ़ूज़ हो जाएं।

ऐ अल्लाह! मेरी हर दरख़्वास्त को क़ुबूल फ़रमा और मेरी हाजतें बर ला जबके तूने इस्तेजाबते दुआ का ज़िम्मा लिया है तू मेरी दुआ को रद न कर और जबके तूने मुझे दुआ का हुक्म दिया है तो मेरी दुआ को अपनी बारगाह से रोक न दे। और जिन चीज़ों से मेरा दीनी व दुनियवी मफ़ाद वाबस्ता है उनकी तकमील से मुझ पर एहसान फ़रमा। जो याद हों और जो भूल गया हूँ ज़ाहिर की हों या पोशीदा रहने दी हों , एलानिया तलब की हों या दरपरदा इनत माम सूरतों में इस वजह से के तुझसे सवाल किया है (नीयत व अमल की) इस्लाह करने वालों और इस बिना पर के तुझसे तलब किया है कामयाब होने वालों और इस सबब से के तुझ पर भरोसा किया है ग़ैर मुस्तर्द होने वालों में से क़रार दे और (उन लोगों में शुमार कर) जो तेरे दामन में पनाह लेने के ख़ूगर , तुझसे ब्योपार में फ़ायदा उठाने वाले और तेरे दामने इज़्ज़त में पनाह गुज़ीं हैं। जिन्हें तेरे हमहगीर फ़ज़ल और जूद व करम से रिज़्क़े हलाल में फ़रावानी हासिल हुई है और तेरी वजह से ज़िल्लत से इज़्ज़त तक पहुंचे हैं और तेरे अद्ल व इन्साफ़ के दामन में ज़ुल्म से पनाह ली है और रहमत के ज़रिये बला व मुसीबत से महफ़ूज़ हैं और तेरी बेनियाज़ी की वजह से फ़क़ीर से ग़नी हो चुके हैं और तेरे तक़वा की वजह से गुनाहों , लग़्िज़शों और ख़ताओं से मासूम हैं और तेरी इताअत की वजह से ख़ैर व रश्द व सवाब की तौफ़ीक़ उन्हें हासिल है और तेरी क़ुदरत से उनके और गुनाहों के दरम्यान पर्दा हाएल है और जो तमाम गुनाहों से दस्त बरदार और तेरे जवारे रहमत में मुक़ीम हैं। बारे इलाहा! अपनी तौफ़ीक़ व रहमत से यह तमाम चीज़ें हमें अता फ़रमा और दोज़ख़ के आज़ार से पनाह दे और जिन चीज़ों का मैंने अपने लिये और अपनी औलाद के लिये सवाल किया है ऐसी ही चीज़ें तमाम मुसलेमीन व मुसलेमात और मोमेनीन और मोमेनात को दुनिया व आख़ेरत में मरहमत फ़रमा। इसलिये के तू नज़दीक और दुआ का क़ुबूल करने वाला है , सुनने वाला और जानने वाला है , माफ़ करने वाला और बख़्शने वाला और शफ़ीक़ व मेहरबान है। और हमें दुनिया में नेकी (तौफ़ीक़े इबादत) और आख़ेरत में नेकी (बेहिश्ते जावेद) अता कर , और दोज़ख़ के अज़ाब से बचाए रख।

छब्बीसवीं दुआ

जब हमसायों और दोस्तों को याद करते तो उनके लिये यह दुआ फ़रमाते

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और मेरी इस सिलसिले में बेहतर नुसरत फ़रमा के मैं अपने हमसायों और उन दोस्तों के हुक़ूक़ का लेहाज़ रखूं जो हमारे हक़ के पहचानने वाले और हमारे दुष्मनों के मुख़ालिफ़ हैं और उन्हें अपने तरीक़ों के क़ाएम करने और उमदा इख़लाक़ व आदाब से आरास्ता होने की तौफ़ीक़ दे इस तरह के वह कमज़ोरों के साथ नरम रवैया रखें और उनके फ़क्ऱ का मदावा करें , मरीज़ों की बीमार पुर्सी , तालिबाने हिदायत की हिदायत , मषविरा करने वालों की ख़ैर ख़्वाही और ताज़ा वारिद से मुलाक़ात करें। राज़ों को छिपाएं , ऐबों पर पर्दा डालें , मज़लूम की नुसरत और घरेलू ज़रूरियात के ज़रिये हुस्ने मवासात करें और बख़्शिश व इनआम से फ़ायदा पहुंचाएं और सवाल से पहले उनके ज़ुरूरियात मुहैया करें।

ऐ अल्लाह! मुझे ऐसा बना के मैं उनमें से बुरे के साथ भलाई से पेष आऊं और ज़ालिम से चष्मपोषी करके दरगुज़र करूं और इन सबके बारे में हुस्ने ज़न से काम लूँ और नेकी व एहसान के साथ सबकी ख़बरगीरी करूं और परहेज़गारी व इफ़्फत की बिना पर उन (के उयूब) से आंखें बन्द रखूं। तवाज़ोह व फ़रवतनी की रू से उनसे नरम रवय्या इख़्तेयार करूं और षफ़क़्क़त की बिना पर मुसीबतज़दा की दिलजोई करूं। उनकी ग़ैबत में भी उनकी मोहब्बत को दिल में लिये रहूं और ख़ुलूस की बिना पर उनके पास सदा नेमतों का रहना पसन्द करूं और जो चीज़ें अपने ख़ास क़रीबियों के लिये ज़रूरी समझूं उनके लिये भी ज़रूरी समझूं , और जो मुराहात अपने मख़सूसीन से करूं वोही मुराहात उनसे भी करूं।

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और मुझे भी उनसे वैसे ही सुलूक का रवादार क़रार दे और जो चीज़ें उनके पास हैं उनमें मेरा हिस्सा वाफ़िर क़रार दे। और उन्हें मेरे हक़ की बसीरत और मेरे फ़ज़्ल व बरतरी की मारेफ़त में अफ़ज़ाइष व तरक़्क़ी दे ताके वह मेरी वजह से सआदतमन्द और मैं उनकी वजह से मसाब व माजूर क़रार पाऊं। आमीन ऐ तमाम जहान के परवरदिगार।

सत्ताईसवीं दुआ

सरहदों की निगेहबानी करने वालों के लिये हज़रत (अ 0) की दुआ

बारे इलाहा! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और अपने ग़लबे व इक़तेदार से मुसलमानों की सरहदों को महफ़ूज़ रख , और अपनी क़ूवत व तवानाई से उनकी हिफ़ाज़त करने वालों को तक़वीयत दे और अपने ख़ज़ाने बेपायां से उन्हें मालामाल कर दे।

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और उनकी तादाद बढ़ा दे। उनके हथियारों को तेज़ कर दे , उनके हुदूद व इतराफ़ और मरकज़ी मक़ामात की हिफ़ाज़त व निगेहदाश्त कर। उनकी जमइयत में उन्स व यकजहती पैदा कर , उनके उमूर की दुरूस्ती फ़रमा , रसद रसानी के ज़राए मुसलसल क़ायम रख। उनकी मुश्किलात के हल करने का ख़ुद ज़िम्मा फ़रमा। उनके बाज़ू क़वी कर। सब्र के ज़रिये उनकी एआनत फ़रमा। और दुष्मन से छिपी तदबीरों में उन्हें बारीक निगाही अता कर।

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और जिस षै को वह नहीं पहचानते वह उन्हें पहचनवा दे और जिस बात का इल्म नीं रखते वह उन्हें बता दे। और जिस चीज़ की बसीरत उन्हें नहीं है वह उन्हें सुझा दे।

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और दुष्मन से मद्दे मुक़ाबिल होते वक़्त ग़द्दार व फ़रेबकार दुनिया की याद उनके ज़ेहनों से मिटा दे। और गुमराह करने वाले माल के अन्देषे उनके दिलों से निकाल दे और जन्नत को उनकी निगाहों के सामने कर दे। और जो दाएमी क़यामगा हमें इज़्ज़त व षरफ़ की मन्ज़िलें और (पानी , दूध) शराब और साफ़ व शफ़्फाफ़ शहद की) बहती हुई नहरें और तरह तरह के फलों (के बार) से झुके हुए अशजार वहां फ़राहेम किये है। उन्हें दिखा दे ताके उनमें से कोई पीठ फिराने का इरादा और अपने हरीफ़ के सामने से भागने का ख़याल न करे।

ऐ अल्लाह! इस ज़रिये से उनके दुश्मनों के हरबे कुन्द और उन्हें बे दस्त व पा कर दे और उनमें और उनके हथियारों में तफ़रिक़ा डाल दे , (यानी हथियार छोड़कर भाग जाएं) और उनके रगे दिल की तनाबें तोड़ दे और उनमें और उनके आज़ोक़ा में दूरी पैदा कर दे और उनकी राहों में उन्हें भटकने के लिये छोड़ दे और उनके मक़सद से उन्हें बे राह कर दे। उनकी कमक का सिलसिला मकक का सिलसिला क़ता कर दे उनकी गिनती कम कर दे , उनके दिलों में दहशत भर दे , उनकी दराज़ दस्तियों को कोताह कर दे , उनकी ज़बानों में गिरह लगा दे के बोल न सकें , और उन्हें सज़ा देकर उनके साथ साथ उन लोगों को भी तितर बितर कर दे जो उनके पसे पुश्त , हैं और पसे पुश्त वालों को ऐसी शिकस्त दे के जो उनके पुश्त पर हैं उन्हें इबरत हासिल हो और उनकी हज़ीमत व रूसवाई से उनके पीछे वालों के हौसले तोड़ दे।

ऐ अल्लाह! उनकी औरतों के शिकम बांझ , उनके मर्दों के सल्ब ख़ुश्क और उनके घोड़ों , ऊंटों , गायों , बकरियों की नस्ल क़ता कर दे और उनके आसमान को बरसने की और ज़मीन को रवीदगी की इजाज़त न दे। बारे इलाहा। इस ज़रिये से अहले इस्लाम की तदबीरों को मज़बूत , उनके शहरों को महफ़ूज़ और उनकी दौलत व सरवत को ज़्यादा कर दे और उन्हें इबादत व ख़लवत गज़ीनी के लिये जंग व जेदाल और लड़ाई झगड़े से फ़ारिग़ कर दे ताके रूए ज़मीन पर तेरे अलावा किसी की परस्तिश न हो और तेरे सिवा किसी के आगे ख़ाक पर पेशानी न रखी जाए।

ऐ अल्लाह! तू मुसलमानों को उनके हर हर इलाक़े में बरसरे पैकार होने वाले मशरिकों पर ग़लबा दे और सफ़ दर सफ़ फ़रिश्तों के ज़रिये इनकी इमदाद फ़रमा। ताके इस खि़त्तए ज़मीन में उन्हें क़त्ल व असीर करते हुए उसके आखि़री हुदूद तक पस्पा कर दें या के वह इक़रार करें के तू वह ख़ुदा है जिसके अलावा कोई माबूद नहीं और यकता व लाशरीक है। ख़ुदाया! मुख़्तलिफ़ एतराफ़ व जवानिब के दुश्मनाने दीन को भी इस क़त्ल व ग़ारत की लपेट में ले ले। वह हिन्दी हों या रूमी , तुर्की हों या खि़ज़्री , हबशी हों या नूबी , रंगी हों या सक़लबी व दलीमी , नीज़ उन मुषरिक जमाअतों को जिनके नाम और सिफ़ात हमें मालूम नहीं और तू अपने इल्म से उन पर मोहीत और अपनी क़ुदरत से उन पर मुतलअ है।

ऐ अल्लाह! मुषरिकों को मुषरिकों से उलझा कर मुसलमानों के हुदूदे ममलेकत पर दस्त दराज़ी से बाज़ रख और उनमें कमी वाक़ेअ करके मुसलमानों में कमी करने से रोक दे और उनमें फूट डलवा कर अहले इस्लाम के मुक़ाबले में सफ़आराई से बिठा दे। ऐ अल्लाह! उनके दिलों को तस्कीन व बेख़ौफ़ी से , उनके जिस्मों को क़ूवत व तवानाई से ख़ाली कर दे। उनकी फ़िक्रों को तदबीर व चाराजोई से ग़ाफ़िल और मरदान कारज़ार के मुक़ाबले में उनके दस्त व बाज़ू को कमज़ोर कर दे और दिलेराने इस्लाम से टक्कर लेने में उन्हें बुज़दिल बना दे और अपने अज़ाबों में से एक अज़ाब के साथ उन पर फ़रिष्तों की सिपाह भेज। जैसा के तूने बद्र के दिन किया था। उसी तरह तू उनकी जड़े बुनियादें काट दे , उनकी षान व षौकत मिटा दे और उनकी जमीअत को परागन्दा कर दे। ऐ अल्लाह! उनके पानी में वबा और उनके खानों में इमराज़ (के जरासीम) की आमेज़िष कर दे , उनके षहरों को ज़मीन में धंसा दे , उन्हें हमेषा पत्थरों का निषाना बना और क़हतसाली उन पर मुसल्लत कर दे। उनकी रोज़ी ऐसी सरज़मीन में क़रार दे जो बन्जर और उनसे कोसों दूर हो। ज़मीन के महफ़ूज़ क़िले उनके लिये बन्द कर दे। और उन्हें हमेषा की भूक और तकलीफ़देह बीमारियों में मुब्तिला रख। बारे इलाहा! तेरे दीन व मिल्लत वालों में से जो ग़ाज़ी उनसे आमादाए जंग हो या तेरे तरीक़े की पैरवी करने वालों में से जो मुजाहिद क़स्दे जेहाद करे इस ग़रज़ से के तेरा दीन बलन्द , तेरा गिरोह क़वी और तेरा हिस्सा व नसीब कामिलतर हो तो उसके लिये आसानियां पैदा कर। तकमीलकार के सामान फ़राहेम कर , उसकी कामयाबी का ज़िम्मा ले , उसके लिये बेहतरीन हमराही इन्तेख़ाब फ़रमा। क़वी व मज़बूत सवारी का बन्दोबस्त कर , ज़रूरियात पूरा करने के लिये वुसअत व फ़राख़ी दे। दिलजमई व निषाते ख़ातिर से बहरामन्द फ़रमा। इसके इष्तेयाक़े (वतन) का वलवला ठण्डा कर दे तन्हाई के ग़म का उसे एहसास न होने दे , ज़न व फ़रज़न्द की याद उसे भुला दे। क़स्दे ख़ैर की तरफ़ रहनुमाई फ़रमा उसकी आफ़ियत का ज़िम्मा ले। सलामती को उसका साथी क़रार दे। बुज़दिली को उसके पास न फटकने दे। उसके दिल में जराएत पैदा कर , ज़ोर व क़ूवत उसे अता फ़रमा। अपनी मददगारी से उसे तवानाई बख़्श , राह व रविश (जेहाद) की तालीम दे और हुक्म में सही तरीक़ेकार की हिदायत फ़रमा। रिया व नमूद को उससे दूर रख। हवस , शोहरत का कोई शाएबा उसमें न रहने दे , उसके ज़िक्र व फ़िक्र और सफ़र व क़याम को अपनी राह में और अपने लिये क़रार दे और जब वह तेरे दुष्मनों और अपने दुश्मनों से मद्दे मुक़ाबिल हो तो उसकी नज़रों में उनकी तादाद थोड़ी करके दिखा। उसके दिल में उनके मक़ाम व मन्ज़िलत को पस्त कर दे। ऐ उसे उन पर ग़लबा दे और उनको उस पर ग़ालिब न होने दे। अगर तूने उस मर्दे मुजाहिद के ख़ातमे बिल ख़ैर और शहादत का फ़ैसला कर दिया है तो यह षहादत उस वक़्त वाक़ेअ हो जब वह तेरे दुश्मनों को क़त्ल करके कैफ़र किरदार तक पहुंचा दे। या असीरी उन्हें बे हाल कर दे और मुसलमानों के एतराफ़े ममलेकत में अमन बरक़रार हो जाए और दुश्मन पीठ फिराकर चल दे। बारे इलाहा! वह मुसलमान जो किसी मुजाहिद या निगेहबान सरहद के घर का निगरान हो या उसके अहल व अयाल की ख़बरगीरी करे या थोड़ी बहुत माली एआनत करे या आलाते जंग से मदद दे। या जेहाद पर उभारे या उसके मक़सद के सिलसिले में दुआए ख़ैर करे या उसके पसे पुश्त उसकी इज़्ज़त व नामूस का ख़याल रखे तो उसे भी उसके अज्र के बराबर बे कम व कास्त अज्र और उसके अमल का हाथों हाथ बदला दे जिससे वह अपने पेश किये हुए अमल का नफ़ा और अपने बजा लाए हुए काम की मसर्रत दुनिया में फ़ौरी तौर से हासिल कर ले यहां तक के ज़िन्दगी की साअतें उसे तेरे फ़ज़्ल व एहसान की उस नेमत तक जो तूने उसके लिये जारी की है और इस इज़्ज़त व करामत तक जो तूने उसके लिये मुहय्या की है पहुंचा दें। परवरदिगार! जिस मुसलमान को इस्लाम की फ़िक्रे परेशान और मुसलमानों के खि़लाफ़ मुशरिकों की जत्थाबन्दी ग़मगीन करे इस हद तक के वह जंग की नीयत और जेहाद का इरादा करे मगर कमज़ोरी उसे बिठा दे या बेसरो सामानी उसे क़दम न उठाने दे या कोई हादसा इस मक़सद से या ख़ैर में डाल दे या कोई मानेअ उसके इरादे में हाएल हो जाए तो उसका नाम इबादत गुज़ारों में लिख और उसे मुजाहिदों का सवाब अता कर और उसे शहीदों और नेकोकारों के ज़मरह में शुमार फ़रमा। ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) पर जो तेरे अब्दे ख़ास और रसूल हैं और उनकी औलाद (अ 0) पर ऐसी रहमत नाज़िल फ़रमा जो शरफ़ व रूतबे में तमाम रहमतों से बलन्दतर और तमाम दूरूदों से बालातर हो। ऐसी रहमत जिसकी मुद्दत एख़तेतामपज़ीद न हो , जिसकी गिनती का सिलसिला कहीं क़ता न हो। ऐसी कामिल व अकमल रहमत जो तेरे दोस्तों में से किसी एक पर नाज़िल हुई हो इसलिये के तू अता व बख़्शिश करने वाला , हर हाल में क़ाबिले सताइश पहली दफ़ा पैदा करने वाला , और दोबारा ज़िन्दा करने वाला और जो चाहे वह करने वाला है।

अट्ठाइसवीं दुआ

अल्लाह तआला से तलब व फ़रियाद के सिलसिले में हज़रत (अ 0) की दुआ

ऐ अल्लाह! मैं पूरे ख़ुलूस के साथ दूसरों से मुंह मोड़कर तुझसे लौ लगाए हूं और हमह तन तेरी तरफ़ मुतवज्जोह हूं , और उस षख़्स से जो ख़ुद तेरी अता व बख़्षिष का मोहताज है , मुंह फेल लिया है। और उस षख़्स से जो तेरे फ़ज़्ल व एहसान से बेनियाज़ नहीं है , सवाल का रूख़ मोड़ लिया है। और इस नतीजे पर पहुंचा हूं के मोहताज का मोहताज से मांगना सरासर समझ बूझ की कुबकी और अक़्ल की गुमराही है , क्योंके ऐ मेरे अल्लाह! मैंने बहुत से ऐसे लोगों को देखा है जो तुझे छोड़कर दूसरों के ज़रिये इज़्ज़त के तलबगार हुए। तो वह ज़लील व रूसवा हुए। और दूसरों से नेमत व दौलत के ख़्वाहिषमन्द हुए तो फ़क़ीर व नादार ही रहे और बलन्दी का क़स्द किया तो पस्ती पर जा गिरे। लेहाज़ा उन जैसों को देखने से एक दूरअन्देष की दूरअन्देषी बिलकुल बर महल है के इबरत के नतीजे में उसे तौफ़ीक़ हासिल हुई और उसके (सही) इन्तेख़ाब ने उसे सीधा रास्ता दिखाया। जब हक़ीक़त यही है। तो फिर ऐ मेरे मालिक! तू ही मेरे सवाल का मरजअ है न वह जिससे सवाल किया जाता है , और तू ही मेरा हाजत रवा है न वह जिनसे हाजत तलब की जाती है और तमाम लोगों से पहले जिन्हें पुकारा जाता है तू मेरी दुआ के लिये मख़सूस है और मेरी उम्मीद में तेरा कोई षरीक नहीं है और मेरी दुआ में तेरा कोई हमपाया नहीं है। और मेरी आवाज़ तेरे साथ किसी और को षरीक नहीं करती।

ऐ अल्लाह! अदद की यकताई , क़ुदरते कामेला की कारफ़रमाई और कमाले क़ूवत व तवानाई और मक़ामे रिफ़अत व बलन्दी तेरे लिये है और तेरे अलावा जो है वह अपनी ज़िन्दगी में तेरे रहम व करम का मोहताज , अपने उमूर में दरमान्दा और अपने मक़ाम पर बेबस व लाचार है , जिसके हालात गूनागूँ हैं और एक हालत से दूसरी हालत की तरफ़ पलटता रहता है। तू मानिन्द व हमसर से बलन्दतर और मिस्ल व नज़ीर से बालातर है , तू पाक है , तेरे अलावा कोई माबूद नहीं है।

उनतीसवी दुआ

रिज़क़ के तंगी में पढ़ी जाने वाली दुआ

शुरू करता हूँ अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान और निहायत रहम वाला है

ऐ अल्लाह! तूने रिज़्क़ के बारे में बेयक़ीनी से और ज़िन्दगी के बारे में तूले अमल से हमारी आज़माइश की है। यहाँ तक के हम उनसे रिज़्क़ तलब करने लगे जो तुझसे रिज़्क़ पाने वाले हैं और उम्र रसीदा लोगों की उम्रे देखकर हम भी दराज़िए उम्र की आरज़ूएं करने लगे। ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स0) और उनकी आल (अ0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और हमें ऐसा पुख़्ता यक़ीन अता कर जिसके ज़रिये तो हमें तलब व जुस्तजू की ज़हमत से बचा ले और ख़ालिस इत्मीनानी कैफ़ियत हमारे दिलों में पैदा कर दे जो हमें रंज व सख़्ती से छुड़ा ले और वही के ज़रिये जो वाज़ेह और साफ़ वादा तूने फ़रमाया है और अपनी किताब में उसके साथ साथ क़सम भी खाई है। उसे इस रोज़ी के एहतेमाम से जिसका तू ज़ामिन है। सुबुकदोशी का सबब क़रार दे और जिस रोज़ी का ज़िम्मा तूने लिया है उसकी मशग़ूलियतों से अलाहेदगी का वसीला बना दे। चुनांचे तूने फ़रमाया है और तेरा क़ौल हक़ और बहुत सच्चा है और तूने क़सम खाई है और तेरी क़सम सच्ची और पूरी होने वाली है के ‘‘तुम्हारी रोज़ी और वह जिसका तुमसे वादा किया जाता है आसमान में है ’’ फिर तेरा इरशाद हैः- "ज़मीन व आसमान के मालिक की क़सम यह अम्र यक़ीनी व क़तई है जैसे यह के तुम बोल रहे हो। ’’

तीसवीं दुआ

अदाए क़र्ज़ के सिलसिले में अल्लाह तआला से तलबे एआनत की दुआ

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और मुझे ऐसे क़र्ज़ से निजात दे जिससे तू मेरी आबरू पर हर्फ़ आने दे और मेरा ज़ेहन परेशान और फ़िक्र परागन्दा रहे और उसकी फ़िक्र व तदबीर में हमहवक़्त मशग़ूल रहूं। ऐ मेरे परवरदिगार! मैं तुझसे पनाह मांगता हूं क़र्ज़ के फ़िक्र व अन्देशे से और उसके झमेलों से और उसके बाएस बेख़्वाबी से तू मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और मुझे इससे पनाह दे। परवरदिगार! मैं तुझसे ज़िन्दगी में उसकी ज़िल्लत और मरने के बाद उसके वबाल से पनाह मांगता हूँ। तू मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और मुझे माल व दौलत की फ़रावानी और पैहम रिज़्क़ रसानी के ज़रिये इससे छुटकारा दे।

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और मुझे फ़ुज़ूल ख़र्ची और मसारेफ़ की ज़ियादती से रोक दे और अता व मेयानारवी के साथ नुक़्तए एतदाल पर क़ायम रख और मेरे लिये हलाल तरीक़ों से रोज़ी का सामान कर और मेरे माल का मसरफ़ उमूरे ख़ैर में क़रार दे और उस माल को मुझसे दूर ही रख जो मेरे अन्दर ग़ुरूर व तमकनत पैदा करे या ज़ुल्म की राह पर डाल दे या उसका नतीजा तुग़यान व सरकषी हो। ऐ अल्लाह दरवेषों की हम नषीनी मेरी नज़रों में पसन्दीदा बना दे और इतमीनान अफ़ज़ा सब्र के साथ उनकी रिफ़ाक़त इख़्तियार करने में मेरी मदद फ़रमा। दुनियाए फानी के माल में से जो तूने मुझसे रोक लिया है उसे अपने बाक़ी रहने वाले ख़ज़ानों में मेरे लिये ज़ख़ीरा कर दे और इससके साज़ व बर्ग में से जो तूने दिया है और उसके सर्द सामान में से जो बहम पहुंचाया है उसे अपने जवार (रहमत) तक पहुंचने का ज़ादे राह , हुसूले तक़रीब का वसीला और जन्नत तक रसाई का ज़रिया क़रार दे इसलिये के तू फ़ज़्ले अज़ीम का मालिक और सख़ी व करीम है।

इकत्तीसवीं दुआ

दुआए तौबा

ऐ माबूद! ऐ वह जिसकी तौसीफ़ से वस्फ़ करने वालों के तौसीफ़ी अल्फ़ाज़ क़ासिर हैं। ऐ वह जो उम्मीदवारों की उम्मीदों का मरकज़ है। ऐ वह जिसके हाँ नेकोकारों का अज्र ज़ाया नहीं होता। ऐ वह जो इबादतगुज़ारों के ख़ौफ़ की मन्ज़िले मुन्तहा है। ऐ वह जो परहेज़गारों के बीम व हेरास की हद्दे आखि़र है यह उस षख़्स का मौक़ुफ़ है जो गुनाहों के हाथों में खेलता है और ख़ताओं की बागों ने जिसे खींच लिया है और जिस पर ग़ालिब आ गया है। इसलिये तेरे हुक्म से लापरवही करते हुए उसने (अदाए फ़र्ज़) में कोताही की और फ़रेबख़ोर्दगी की वजह से तेरे मुनहेयात का मुरतकब होता है। गोया वह अपने को तेरे क़ब्ज़ए क़ुदरत में समझता ही नहीं है और तेरे फ़ज़्ल व एहसान को जो तूने उस पर किये हैं मानता ही नहीं है मगर जब उसकी चष्मे बसीरत वा हुई और उस कोरी व बे बसरी के बादल उसके सामने से छटे तो उसने अपने नफ़्स पर किये हुए ज़ुल्में का जाएज़ा लिया अैर जिन जिन मवारिद पर अपने परवरदिगार की मुख़ालफ़तें की थी उन पर नज़र दौड़ाई तो अपने बड़े गुनाहों को (वाक़ेअन) बड़ा और अपनी अज़ीम मुख़ालफ़तों को (हक़ीक़तन) अज़ीम पाया तो वह इस हालत में के तुझसे उम्मीदवार भी है और षर्मसार भी , तेरी जानिब मुतवज्जो हुआ और तुझ पर एतमाद करते हुए तेरी तरफ़ राग़िब हुआ और यक़ीन व इतमीनान के साथ अपनी ख़्वहिश व आरज़ू को लेकर तेरा क़स्द किया और (दिल में) तेरा ख़ौफ़ लिये हुए ख़ुलूस के साथ तेरी बारगाह का इरादा किया इस हालत में के तेरे अलावा उसे किसी से ग़रज़ न थी और तेरे सिवा उसे किसी का ख़ौफ़ न था। चुनांचे वह आजिज़ाना सूरत में तेरे सामने आ खड़ा हुअ और फ़रवतनी से अपनी आंखें ज़मीन में गााड़ लीं और तज़ल्लुल व इन्केसा र से तेरी अज़मत के आगे सर झुका लिया अैर अज्ज़ व नियाज़मन्दी से अपने राज़ हाए दरदने परदा जिन्हें तू उससे बेहतर जनता है तेरे आगे खोल दिये और आजिज़ी से अपने वह गुनाह जिनका तू उससे ज़्यादा हिसाब रखताहै एक एक करके शुमार किये और इन बड़े गुनाहों से जो तेरे इल्म में उसके लिये मोहलक और बदआमालियोंसे जो तेरे फ़ैसले के मुताबिक़ उसके लिये रूसवाकुन हैं , दाद व फ़रयाद करता है। वह गुनाह के जिनकी लज़्ज़त जाती रही है और उनका वबाल हमेषा के लिये बाक़ी रह गया है।

ऐ मेरे माबूद! अगर तू उस पर अज़ाब करे तो वह तेरे अद्ल का मुनकिर नहीं होगा। और अगर उससे दरगुज़र करे और तरस खाए तो वह तेरे अफ़ो को कोई अजीब और बड़ी बात नहीं समझेगा। इसलिये के तू वह परवरदिगारे करीम है जिसके नज़दीक बड़े से बड़े गुनाह को भी बख़्ष देना कोई बड़ी बात नहीं है। अच्छा तो ऐ मेरे माबूद! मैं तेरी बारगाह में हाज़िर हूं तेरे हुक्मे दुआ की इताअत करते हुए और तेरे वादे का ईफ़ा चाहते हुए जो क़ुबूलियते दुआ के मुताल्लिक़ तूने अपने उस इरषाद में किया है- ‘‘मुझसे दुआ मांगो तो मैं तुम्हारी दुआ क़ुबूल करूंगा। ’’ ख़ुदावन्दा! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और अपनी मग़फ़ेरत मेरे षामिले हाल कर , जिस तरह मैं (अपने गुनाहों का) इक़रार करते हुए तेरी तरफ़ मुतवज्जेह हुआ हूं और उन मक़ामात से जहां गुनाहों से मग़लूब होना पड़ता है मुझे (सहारा देकर) ऊपर उठा ले जिस तरह मैंने अपने नफ़्स को तेरे आगे (ख़ाके मज़िल्लत) पर डाल दिया है और अपने दामने रहमत से मेरी परदापोशी फ़रमा जिस तरह मुझसे इन्तेक़ाम लेने में सब्र व हिल्म से काम लिया है।

ऐ अल्लाह! अपनी इताअत में मेरी नीयत को इसतेवार और अपनी इबादत में मेरी बसीरत को क़वी कर और मुझे उन आमाल के बजा लाने की तौफ़ीक़ दे जिनके ज़रिये तू मेरे गुनाहों के मैल को धो डाले और जब मुझे दुनिया से उठाए तो अपने दीन और अपनी नबी मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के आईन पर उठा। ऐ माबूद! मैं इस मक़ाम पर अपने छोटे बड़े गुनाहों , पोषीदा व आषकारा मासियतों और गुज़िष्ता व मौजूदा लग़्िज़षों से तौबा करता हूँ उस षख़्स की सी तौबा जो दिल में मासियत क ख़याल भी न लाए और गुनाह की तरफ़ पलटने का तसव्वुर भी न करे। ख़ुदावन्दा! तने अपनी मोहकम किताब में फ़रमाया है के तू बन्दों की तौबा क़ुबूल करता है और गुनाहों को माफ़ करता है और तौबा करने वालों को दोस्त रखता है। लेहाज़ा तू मेरी तौबा क़ुबूल फ़रमा जैसा के तूने वादा किया है , और मेरे गुनाहों को माफ़ कर दे जैसा के तूने ज़िम्मा लिया है। और हस्बे क़रारदाद अपनी मोहब्बत को मेरे लिये ज़रूरी क़रार दे और मैं तुझसे ऐ मेरे परवरदिगार यह इक़रार करता हूँ के तेरी नापसन्दीदा बातों की तरफ़ रूख़ नहीं करूंगा और यह क़ौल व क़रार करता हूँ के क़ाबिले मज़म्मत चीज़ों की तरफ़ रूजू न करूंगा और यह अहद करता हूँ के तेरी तमाम नाफ़रमानियों को यकसर छोड़ दूंगा।

बारे इलाहा! तू मेरे अमल व किरदार से ख़ूब आगाह है , अब जो भी तू जानता है उसे बख़्श दे और अपनी क़ुदरते कामेला से पसन्दीदा चीज़ों की तरफ़ मुझे मोड़ दे। ऐ अल्लाह! मेरे ज़िम्मे कितने ऐसे हुक़ूक़ हैं जो मुझे याद हैं , और कितने ऐसे मज़लिमे हैं जिन पर निसयान का पर्दा पड़ा हुआ है। लेकिन वह सब के सब तेरी आांखोंके सामने हैं। ऐसी आंखें जो ख़्वाब आालूदा नहीं होतीं और तेरे इल्म में हैं ऐसा इल्म जिसमें फ़रोगज़ाष्त नहीं होती। लेहाज़ा जिन लोगों का मुझ पर कोई हक़ है उसका उन्हें एवज़ देकर इसका बोझ मुझसे बरतरफ़ और इसका बार हल्का कर दे , और मुझे फिर वैसे गुनाहों के इरतेकाब से महफ़ूज़ रख। ऐ अल्लाह! मैं तौबा पर क़ायम नहीं रह सकता मगर तेरी ही निगरानी से , और गुनाहों से बाज़ नहीं आ सकता मगर तेरी ही क़ूवत व तवानाई से , लेहाज़ा मुझे बेनियाज़ करने वाली क़ूवत से तक़वीयत दे और (गुनाहों से) रोकने वाली निगरानी का ज़िम्मा ले।

ऐ अल्लाह! वह बन्दा जो तुझसे तौबा करे और तेरे इल्मे ग़ैब में वह तौबा शिकनी करने वालों और गुनाह व मासियत की तरफ़ दोबारा पलटने वाला हो तो मैं तुझसे पनाह माँगता हूं के उस जैसा हूं। मेरी तौबा को ऐसी तौबा क़रार दे के उसके बाद फ़िर तौबा की एहतियाज न रहे जिससे गुज़िष्ता गुनाह महो हो जाएं अैर ज़िन्दगी के बाक़ी दिनों में (गुनाहों से) सलामती का सामान हो। ऐ अल्लाह! मैं अपनी जेहालतों से उज़्रख़्वाह और अपनी बदआमालियों से बख़्षिष का तलबगार हूँ। लेहाज़ा अपने लुत्फ़ व एहसान से मुझे पनाहगाह रहमत में जगह दे और अपने तफ़ज़्ज़ुल से अपनी आफ़ियत के परदे में छुपा ले। ऐ अल्लाह! मैं दिल में गुज़रने वाले ख़यालात और आंख के इषारों और ज़बान की गुफ़्तगुओं , ग़रज़ हर उस चीज़ से जो तेरे इरादे व रेज़ा के खि़लाफ़ हो और तेरी मोहब्बत के हुदूद से बाहर हे , तेरी बारगाह में तौबा करता हूं। ऐसी तौबा जिससे मेरा हर हर अज़ो अपनी जगह पर तेरी अक़ूबतों से बचा रहे और उन तकलीफ़ देह अज़ाबों से जिनसे सरकष लोग ख़ाएफ़ रहते हैं महफ़ूज़ रहे। ऐ माबूद! यह तेरे सामने मेरा आलमे तन्हाई , तेरे ख़ौफ़ से मेरे दिल की धड़कन , तेरी हैबत से मेरे आज़ा की थरथरी , इन हालतों पर रहम फ़रमा। परवरदिगारा मुझे गुनाहों ने तेरी बारगाह में रूसवाई की मन्ज़िल पर ला खड़ा किया है। अब अगर चुप रहूं तो मेरी तरफ़ से कोई बोलने वाला नहीं है और कोई वसीला लाऊं तो शिफ़ाअत का सज़ावार नहीं हूं। ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमाा और अपने करम व बख़्षिष को मेरी ख़ताओं का शफ़ीअ क़रार दे और अने फ़ज़्ल से मेरे गुनाहों को बख़्ष दे और जिस सज़ा काा मैं सज़ावार हूं वह सज़ा न दे और अपना दामने करम मुझ पर फैला दे और अपने परदए अफ़ो व रहमत में मुझे ढांप ले और मुझसे इस ज़ी इक़्तेदार षख़्स का सा बरताव कर जिसके आगे कोई बन्दाए ज़लील गिड़गिड़ाए तो वह उस पर तरस खाए या इस दौलत मन्द का सा जिससे कोई बन्दाए मोहताज लिपटे तो वह उसे सहारा देकर उठा ले।

बारे इलाहा! मुझे तेरे (अज़ाब) से कोई पनाह देने वाला नहीं है। अब तेरी क़ूवत व तवानाई ही पनाह दे तो दे। और तेरे यहाँ कोई मेरी सिफ़ारिश करने वाला नहीं अब तेरा फ़ज़्ल ही सिफ़ारिश करे तो करे। और मेरे गुनाहों ने मुझे हरासां कर दिया है। अब तेरा अफ़ो व दरगुज़र ही मुझे मुतमईन करे तो करे। यह जो कुछ मैं कह रहा हूँ इसलिये नही ंके मैं अपनी बद आमालियों से नावाक़िफ़ और अपनी गुज़िश्ता बदकिरदारियों को फ़रामोश कर चुका हूं बल्कि इसलिये के तेरा आसमान और जो उसमें रहते सहते हैं और तेरी ज़मीन और जो उस पर आबाद हैं। मेरी निदामत को जिसका मैंने तेरे सामने इज़हार किया है , और मेरी तौबा को जिसके ज़रिये तुझसे पनाह मांगी है सुन लें। ताके तेरी रहमत की कारफ़रमाई की वजह से किसी को मेरे हाले ज़ार पर रहम आ जाए या मेरी परेशाँहाली पर उसका दिल पसीजे तो मेरे हक़ में दुआ करे जिसकी तेरे हाँ मेरी दुआ से ज़्यादा सुनवाई हो। या केई ऐसी सिफ़ारिश हासिल कर लूं जो तेरे हाँ मेरी दरख़्वास्त से ज़्यादा मोअस्सर हो और इस तरह तेरे ग़ज़ब से निजात की दस्तावेज़ और तेरी ख़ुशनूदी का परवाना हासिल कर सकूं।

ऐ अल्लाह! अगर तेरी बारगाह में निदामत व पशेमानी ही तौबा है तो मैं पशेमान हूं। और अगर तर्के मासियत ही तौबा व अनाबत है तो मैं तौबा करने वालों में अव्वल दर्जा पर हूँ। और अगर तलबे मग़फ़ेरत गुनाहों को ज़ाएल करने का सबब है तो मग़फ़ेरत करने वालों में से एक मैं भी हूं। ख़ुदाया जबके तूने तौबा का हुक्म दिया है और क़ुबूल करने का ज़िम्मा लिया है और दुआ पर आमादा किया है और क़ुबूलियत का वादा फ़रमाया है तो रहमत नाज़िल फ़रमा मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर और मेरी तौबा को क़ुबूल फ़रमा और मुझे अपनी रहमत से नाउम्मीदी के साथ न पलटा क्योंके तू गुनहगारों की तौबा क़ुबूल करने वाला और रूजू होने वाले ख़ताकारों पर रहम करने वाला है।

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा जिस तरह तूने उनके वसीले से हमारी हिदायत फ़रमाई है। तू मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल कर , जिस तरह उनके ज़रिये हमें (गुमराही के भंवर से) निकाला है। तू मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल कर , ऐसी रहमत जो क़यामत के रोज़ और तुझसे एहतियाज के दिन हमारी सिफ़ारिश करे इसलिये के तू हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है और यह अम्र तेरे लिये सहल व आसान है।

बत्तीसवीं दुआ

एतराफ़े गुनाह के सिलसिले में हज़रत (अ 0) की दुआ जिसे नमाज़े शब के बाद पढ़ते

ऐ अल्लाह! ऐ दाएमी व अबदी बादशाही वाले और लश्कर व ऐवना के बग़ैर मज़बूत फ़रमानरवाई वाले और ऐसी इज़्ज़त व रिफ़अत वाले जो सदियों , सालों , ज़मानों और दिनों के बीतने , गुज़रने के बावजूद पाइन्दा व बरक़रार है। तेरी बादशाही ऐसी ग़ालिब है जिसकी इब्तिदा की कोई हद है और न इन्तेहा का कोई आखि़री किनारा है। और तेरी जहानदारी का पाया इतना बलन्द है के तमाम चीज़ें उसकी बलन्दी को छूने से क़ासिर हैं और तारीफ़ करने वालों की इन्तेहाई तारीफ़ तेरी उस बलन्दी के पस्ततरीन दरजे तक भी नहीं पहुंच सकती। जिसे तूने अपने लिये मखा़सूस किया है। सिफ़तों के कारवाँ तेरे बारे में सरगर्दां हैं। और तौसीफ़ी अलफ़ाज़ तेरे लाएक़े हाल मदह तक पहुंचने से आजिज़ हैं और नाज़ुक तससव्वुरात तेरे मक़ामे किबरियाई में शशदर व हैरान हैं। तू वह ख़ुदाए अज़ली है जो अज़ल ही से ऐसा है और हमेशा बग़ैर ज़वाल के ऐसा ही रहेगा। मैं तेरा वह बन्दा हूं जिसका अमल कमज़ोर और सरमायाए उम्मीद ज़्यादा है , मेरे हाथ से ताल्लुक़ व वाबस्तगी के रिष्ते जाते रहे हैं , मगर वह रिष्ता जिसे तेरी रहमत ने जोड़ दिया है और उम्मीदों के वसीले भी एक-एक करके टूट गए हैं। मगर तेरे अफ़ो व दरगुज़र का वसीला जिस पर सहारा किये हुए हूं , तेरी इताअत जिसे किसी षुमार में ला सकूं , न होने के बराबर है और वह मासियत जिसमें गिरफ्तार हूं बहुत ज़्यादा है। तुझे अपने किसी बन्दे को माफ़ कर देना अगरचे वह कितना ही बुरा क्यों न हो , दुश्वार नहीं है। तो फिर मुझे भी माफ़ कर दे। ऐ अल्लाह! तेरा इल्म तमाम पोशीदा आमाल पर मोहीत है और तेरे इल्म व इत्तेलाअ के आगे हर मख़फ़ी चीज़ ज़ाहिर व आशकारा है और बारीक से बारीक चीज़ें भी तेरी नज़र से पोशीदा नहीं हैं और न राज़हाए दरवने पर्दा तुझसे मख़फ़ी हैं तेरा वह दुश्मन जिसने मेरे बे राहरौ होने के सिलसिले में तुझसे मोहलत मांगी और तूने उसे मोहलत दी , और मुझे गुमराह करने के लिये रोज़े क़यामत तक फ़ुरसत तलब की और तूने उसे फ़ुरसत दी , मुझ पर ग़ालिब आ गया है। और जबके मैं हलाक करने वाले सग़ीरा गुनाहों और तबाह करने वाले कबीरा गुनाहों से तेरे दामन में पनाह लेने के लिये बढ़ रहा था उसने मुझे आ गिराया। और जब मैं गुनाह का मुरतकिब हुआ और अपनी बदआमाली की वजह से तेरी नाराज़ी का मुस्तहक़ बना तो उसने अपने हीला व फ़रेब की बाग मुझसे मोड़ ली। और अपने कलमए कुफ्र के साथ मेरे सामने आ गया और मुझसे बेज़ारी का इज़हार किया और मेरी जानिब से पीठ फिराकर चल दिया और मुझे खुले मैदान में तेरे ग़ज़ब के सामने अकेला छोड़ दिया। और तेरे इन्तेक़ाम की मन्ज़िल में मुझे खींच तान कर ले आया। इस हालत में के न कोई सिफ़ारिश करने वाला था जो तुझसे मेरी सिफ़ारिश करे और न कोई पनाह देने वाला था जो मुझे तेरे अज़ाब से ढारस दे और न कोई चार दीवारी थी जो मुझे तेरी निगाहों से छिपा सके और न कोई पनाहगाह थी जहां तेरे ख़ौफ़ से पनाह ले सकूं। अब यह मन्ज़िल मेरे पनाह मांगने और यह मक़ाम मेरे गुनाहों का एतराफ़ करने का , लेहाज़ा ऐसा न हो के तेरे दामने फ़ज़्ल (की वुसअतें) मेरे लिये तंग हो जाएं और अफ़ो व दरगुज़र मुझ तक पहुंचने ही न पाए और न तौबागुज़ार बन्दों में सब से ज़्यादा नाकाम साबित हूं और न तेरे पास उम्मीदें लेकर आने वालों में सबसे ज़्यादा नाउम्मीद रहूं (बारे इलाहा!) मुझे बख़्श दे इसलिये के तू बख्शने वालों में सबसे बेहतर है।

ऐ अल्लाह! तूने मुझे (इताअत का) हुक्म दिया मगर मैं उसे बजा न लाया और (बुरे आमाल से) मुझे रोका मगर उनका मुरतकिब होता रहा। और बुरे ख़यालात ने जब गुनाह को ख़ुषनुमा करके दिखाया तो (तेरे एहकाम में) कोताही की। मैं न रोज़ा रखने की वजह से दिन को गवाह बना सकता हूं। और न नमाज़े शब की वजह से रात को अपनी सिपर बना सकता हूं और न किसी सुन्नत को मैंने ज़िन्दा किया है के उससे तहसीन व सना की तवक़्क़ो करूं सिवाए तेरे वाजेबात के के जो उन्हें ज़ाया करे वह बहरहाल हलाक व तबाह होगा और नवाफ़िल के फ़ज़्ल व शरफ़ की वजह से भी तुझसे तवस्सुल नहीं कर सकता दरसूरतीके तेरे वाजिबात के बहुत से शराएत से ग़फ़लत करता रहा और तेरे एहकाम के हुदूद से तजावुज़ करता हुआ महारम शरीयत का दामन चाक करता रहा , और कबीरा गुनाहों का मुरतकब होता रहा जिनकी रूसवाइयों से सिर्फ़ तेरा दामने अफ़ो व रहमत परदापोश रहा। यह (मेरा मौक़फ़) उस शख़्स का मौक़फ़ है जो तुझसे षर्म व हया करते हुए अपने नफ्स को बुराइयों से रोकता हो , और उसपर नाराज़ हो और तुझसे राज़ी हो , और तेरे सामने ख़ौफ़ज़दा दिल , ख़मीदा गर्दन और गुनाहों से बोझल पीठ के साथ उम्मीद व बीम की हालत में इसतादा हो और तू उन सबसे ज़्यादा सज़ावार है जिनसे उसने आस लगाई और उन सबसे ज़्यादा हक़दार है जिनसे वह हरासां व ख़ाएफ़ हुआ।

ऐ मेरे परवरदिगार! जब यही हालत मेरी है तो मुझे भी वह चीज़ मरहमत फ़रमा , जिसका मैं उम्मीदवार हूं। और उस चीज़ से मुतमईन कर जिससे ख़ाएफ़ हूं और अपनी रहमत के इनआम से मुझ पर एहसान फ़रमा। इसलिये के तू उन तमाम लोगों से जिनसे सवाल किया जाता है ज़्यादा सख़ी व करीम है।

ऐ अल्लाह जबके तूने मुझे अपने दामने अफ़ो में छिपा लिया है और हमसरों के सामने इस दारे फ़ना में फ़ज़्ल व करम का जामा पहनाया है। तो दारे बक़ा की रूसवाईयों से भी पनाह दे। इस मक़ाम पर के जहां मुक़र्रब फ़रिश्ते , मोअजि़्ज़ज़ व बावेक़ार पैग़म्बर , षहीद व सालेह अफ़राद सब हाज़िर होंगे , कुछ तो हमसाये होंगे जिनसे मैं अपनी बुराइयों को छिपाता रहा हूं , और कुछ ख़वीश व अक़ारिब होंगे जिनसे मैं अपने पोशीदा कामों में शर्म व हया करता रहा हूं। ऐ मेरे परवरदिगार! मैंने अपनी परदापोशी में उन पर भरोसा नहीं किया और मग़फ़ेरत के बारे में परवरदिगारा तुझ पर एतमाद किया है और तू उन तमाम लोगों से जिन पर एतमाद किया जाता है। ज़्यादा सज़ावार एतमाद है और उन सबसे ज़्यादा अता करने वाला है जिनकी तरफ़ रूजू हो जाता है और उन सबसे ज़्यादा मेहरबान है जिनसे रहम की इल्तेजा की जाती है। लेहाज़ा मुझ पर रहम फ़रमा।

ऐ अल्लाह तूने मुझे बाहम पोशीदा हड्डियों और तंग राहों वाली सल्ब से तंग नाए रह्म में के जिसे तूने पर्दों में छिपा रखा है एक ज़लील पानी (नुत्फ़े) की सूरत में उतारा जहां तू मुझे एक हालत से दूसरी हालत की तरफ़ मुन्तक़िल करता रहा यहां तक के तूने मुझे इस हद तक पहुंचा दिया। जहां मेरी सूरत की तकमील हो गयी। फिर मुझमें आज़ाए व जवारेह व दीअत किये। जैसा के तूने अपनी किताब में ज़िक्र किया है। के (मैं) पहले नुत्फ़ा था। फ़िर मुन्जमिद ख़ून हुआ फिर गोश्त का एक लोथड़ा , फिर हड्डियों का एक ढांचा फिर उन हड्डियों पर गोश्त की तहें चढ़ा दीं। फिर जैसा तूने चाहा एक दूसरी तरह की मख़लूक़ बना दिया और जब मैं तेरी रोज़ी का मोहताज हुआ और लुत्फ़ व एहसान की दस्तगीरी से बेनियाज़ न रह सका , तो तूने उस बचे हुए खाने पानी में से जिसे तूने उस कनीज़ के लिये जारी किया था जिसके शिकम में तूने मुझे ठहरा दिया और जिसके रह्म में मुझे वदीअत किया था। मेरी रोज़ी का सरो सामान कर दिया। ऐ मेरे परवरदिगार उन हालात में अगर तू ख़ुद मेरी तदबीर पर मुझे छोड़ देता या मेरी ही क़ूवत के हवाले कर देता तो तदबीर मुझसे किनाराकश और क़ूवतम ुझसे देर रहती , मगर तूने अपने फ़ज़्ल व एहसान से एक शफ़ीक़ व मेहरबान की तरह मेरी परवरिश का एहतेमाम किया जिसका तेरे फ़ज़्ले बेपायां की बदौलत इस वक़्त तक सिलसिला जारी है के न तेरे हुस्ने सुलूक से कभी महरूम रहा और न तेरे एहसानात में कभी ताख़ीर हुई। लेकिन इसके बावजूद यक़ीन व एतमाद क़वी न हुआ के मैं सिर्फ़ उसी काम के लिये वक़्फ़ हो जाता जो तेरे नज़दीक मेरे लिये ज़्यादा सूदमन्द है (इस बेयक़ीनी का सबब यह है के) बदगुमानी और कमज़ोरी यक़ीन के सिलसिले में मेरी बाग शैतान के हाथ में है। इसलिये मैं उसकी बद हमसायगी और अपने नफ़्स की फ़रमाबरदारी का शिकवा करता हूँ और उसके तसल्लुत से तेरे दामन में तहफ़्फ़ुज़ व निगेहदाश्त का तालिब हूँ और तुझसे आजिज़ी के साथ इल्तिजा करता हूँ के इसके मक्र व फ़रेब का रूख़ मुझसे मोड़ दे और तुझसे सवाल करता हूँ के मेरी रोज़ी की आसान सबील पैदा कर दे। तेरे ही लिये हम्द व सताइश है के तूने अज़ख़ुद बलन्दपाया नेमतें अता कीं और एहसान व इनआम पर (दिल में) शुक्र का अलक़ा किया। तू मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और मेरे लिये रोज़ी को सहल व आसान कर दे और जो अन्दाज़ा मेरे लिये मुक़र्रर किया है , उस पर क़नाअत की तौफ़ीक़ दे और जो हिस्सा मेरे लिये मुअय्यन किया है उस पर मुझे राज़ी कर दे और जो जिस्म काम में आ चुका और जो उम्र गुज़र चुकी है उसे अपनी इताअत की राह में महसूब फ़रमा , बिलाशुबह तू असबाबे रिज़्क़ मुहय्या करने वालों में सबसे बेहतरीन है , बारे इलाहा मैं उस आग से पनाह मांगता हूं जिसके ज़रिये तूने अपने नाफ़रमानों की सख़्त गिरफ़्त की है और जिससे तूने उन लोगों को जिन्होंने तेरी रज़ा व ख़ुशनूदी से रूख़ मोड़ लिया , डराया और धमकाया है और उस आतिशे जहन्नम से पनाह मांगता हूं जिसमें रोशनी के बजाए अन्धेरा जिसका ख़फ़ीफ़ लपका भी इन्तेहाई तकलीफ़देह और जो कोसों दूर होने के बावजूद (गर्मी व तपिश के लिहाज़ से) क़रीब है और उस आग से पनाह मांगता हूं जो आपस में एक दूसरे को खा लेती है और एक दूसरे पर हमलावर होती है और उस आग से पनाह मांगता हूं जो हड्डियों को ख़ाकसर कर देगी और दोज़खि़यों को खौलता हुआ पानी पिलाएगी। और उस आग से के जो उसके आगे गिड़गिड़ाएगा , उस पर तरस नहीं खाएगी और जो उससे रहम की इल्तेजा करेगा , उस पर रहम नहीं करेगी और जो उसके सामने फ़रवतनी करेगा और ख़ुदको उसके हवाले कर देगा उस पर किसी तरह की तख़फ़ीफ़ का उसे इख़्तेयार नहीं होगा। वह दर्दनाक अज़ाब और शदीद एक़ाब की शोला सामानियों के साथ अपने रहने वालों का सामान करेगी। (बारे इलाहा!) मैं तुझसे पनाह मांगता हूं जहन्नम के बिच्छुओं से जिनके मुंह खुले होंगे और उन सांपों से जो दांतों को पीस पीस कर फुंकार रहे होंगे और उसके खौलते हुए पानी से जो अन्तड़ियों और दिलों को टुकड़े-टुकड़े कर देगा और (सीनों को चीरकर) दिलों को निकाल लेगा।

ख़ुदाया! मैं तुझसे तौफ़ीक़ मांगता हूं उन बातों की जो उस आग से दूर करें , और उसे पीछे हटा दें , ख़ुदावन्दा! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और मुझे अपनी रहमते फ़रावां के ज़रिये उस आग से पनाह दे और हुस्ने दरगुज़र से काम लेते हुए मेरी लग़्िज़शों को माफ़ कर दे और मुझे महरूम व नाकाम न कर। ऐ पनाह देने वालों में सबसे बेहतर पनाह देने वाले। ख़ुदाया तू सख़्ती व मुसीबत से बचाता और अच्छी नेमतें अता करता और जो चाहे वह करता है और तू हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।

ऐ अल्लाह! जब भी नेकोकारों का ज़िक्र आए तो मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और जब तक शब व रोज़ के आने जाने का सिलसिला क़ायम रहे। तू मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा। ऐसी रहमत जिसका ज़ख़ीरा ख़त्म न हो और जिसकी गिनती शुमार न हो सके। ऐसी रहमत जो फ़िज़ाए आलम को पुर कर दे और ज़मीन व आसमान को भर दे। ख़ुदा उन पर रहमत नाज़िल करे इस हद तक के वह ख़ुशनूद हो जाए और ख़ुशनूदी के बाद भी उन पर और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल करता रहे। ऐसी रहमत जिसकी न कोई हद हो और न कोई इन्तेहा , ऐ तमाम रहम करने वालों में सबसे ज़्यादा रहम करने वाले।

तैंतीसवीं दुआ

दुआए इस्तेख़ारह

बारे इलाहा! मैं तेरे इल्म के ज़रिये तुझसे ख़ैर व बहबूद चाहता हूँ। तू मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और मेरे लिये अच्छाई का फ़ैसला सादर फ़रमा , और हमारे दिल में अपने फ़ैसले (की हिकमत व मसलेहत) का अलक़ा कर और उसे एक ज़रिया क़रार दे के हम तेरे फ़ैसले पर राज़ी रहें और तेरे हुक्म के आगे सरे तस्लीम ख़म करें , इस तरह हमसे शक की ख़लिश दूर कर दे और मुख़लेसीन का यक़ीन हमारे अन्दर पैदा करके हमें तक़वीयत दे और हमें ख़ुद हमारे हवाले न कर दे के जो तूने फ़ैसला किया है उसकी मग़फ़ेरत से आजिज़ रहें और तेरी क़ुदरत व मन्ज़िलत को सुबुक समझें और जिस चीज़ से तेरी रज़ा वाबस्ता है उसे नापसन्द करें और जो चीज़ अन्जाम की ख़ूबी से दूर और आफ़ियत की ज़द से क़रीब हो उसकी तरफ़ माएल हो जाएं। तेरे जिस फ़ैसले को हम नापसन्द करें वह हमारी नज़रों में पसन्दीदा बना दे और जिसे हम दुश्वार समझें उसे हमारे लिये सहल व आसान कर दे और जिस मशीयत व इरादे को हमसे मुताल्लुक़ किया है उसकी इताअत हमारे दिल में अलक़ा कर। यहां तक के जिस चीज़ में तूने ताजील की है उसमें ताख़ीर और जिसमें ताख़ीर की है उसमें ताजील न चाहें और जिसे तूने पसन्द किया है उसे नापसन्द और जिसे नागवार समझा है उसे इख़्तेयार न करें। और हमारे कामों का उस चीज़ पर ख़ातेमा कर जो अन्जाम के लेहाज़ से पसन्दीदा और मआल के एतबार से बेहतर हो। इसलिये के तू नफ़ीस व पाकीज़ा चीज़ें अता करता और बड़ी नेमतें बख़्शता है और जो चाहता है वही करता है और तू हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।

चौंतीसवीं दुआ

जब ख़ुद मुब्तिला होते या किसी को गुनाहों की रूसवाई में मुब्तिला देखते तो यह दुआ पढ़ते

ऐ माबूद! तेरे ही लिये तमाम तारीफ़ है इस बात पर के तूने (गुनाहों के) जानने के बाद पर्दापोशी की और (हालात पर) इत्तेलाअ के बाद आफ़ियत व सलामती बख़्शी। यूं तो हम में से हर एक ही उयूब व नक़ाएस के दरपै हुआ मगर तूने उसे मुशतहिर न किया , और अफ़आले बद का का मुरतकिब हुआ मगर तूने उसको रूसवा न होने दिया और पर्दाए ख़फ़ा में बुराईयों से आलूदा रहा मगर तूने उसकी निशानदेही न की , कितने ही तेरे मनहियात थे जिनके हम मुरतकिब हुए और कितने ही तेरे एहकाम थे जिन पर तूने कारबन्द रहने का हुक्म दिया था। मगर हमने उनसे तजावुज़ किया और कितनी ही बुराइयां थीं जो हमसे सरज़द हुईं। और कितनी ही ख़ताएं थीं जिनका हमने इरतेकाब किया दरआँहालियाके दूसरे देखने वालों के बजाये तू उन पर आगाह था और दूसरे (गुनाहों की तशहीर पर) क़ुदरत रखने वालों से तू ज़्यादा उनके अफ़शा पर क़ादिर था , मगर उसके बावजूद हमारे बारे में तेरी हिफ़ाज़त व निगेहदाश्त उनकी आंखों के सामने पर्दा और उनके कानों के बिलमुक़ाबिल दीवार बन गई तो फिर उस पर्दादारी व ऐबपोशी को हमारे लिये एक नसीहत करने वाला और बदजोई व इरतेकाबे गुनाह से रोकने वाला और (गुनाहों को) मिटाने वाली राहे तौबा और तरीक़ पसन्दीदा पर गामज़नी का वसीला क़रार दे और इस राह पैमाई के लम्हे (हमसे) फ़रेब कर , और हमारे लिये ऐसे असबाब मुहय्या न कर जो तुझसे हमें ग़ाफ़िल कर दें। इसलिये के हम तेरी तरफ़ रूजू होने वाले और गुनाहों से तौबा करने वाले हैं। बारे इलाहा! मोहम्मद (स 0) पर जो मख़लूक़ात में तेरे बरगुज़ीदा और उनकी पाकीज़ा इतरत (अ 0) पर जो कायनात में तेरी मुन्तख़बकर्दा है रहमत नाज़िल फ़रमा और हमें अपने फ़रमान के मुताबिक़ उनकी बात पर कान धरने वाला और उनके एहकाम की तामील करने वाला क़रार दे।

(आप इस किताब को अलहसनैन इस्लामी नैटवर्क पर पढ़ रहे है।)

पैंतीसवीं दुआ

जब अहले दुनिया को देखते तो राज़ी ब रिज़ा रहने के लिये यह दुआ पढ़ते

अल्लाह तआला के हुक्म पर रज़ा व ख़ुशनूदी की बिना पर अल्लाह तआला के लिये हम्द व सताइश है , मैं गवाही देता हूं के उसने अपने बन्दों की रोज़ियां आईने अद्ल के मुताबिक़ तक़सीम की हैं और तमाम मख़लूक़ात से फ़ज़्ल व एहसान का रवय्या इख़्तेयार किया है।

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और मुझे उन चीज़ों से जो दूसरों की दी हैं आशफ़्ता व परेशान न होने दे के मैं तेरी मख़लूक़ पर हसद करूं और तेरे फ़ैसले को हक़ीर समझूं और जिन चीज़ों से मुझे महरूम रखा है उन्हें देसरों के लिये फ़ित्ना व आज़माइश न बना दे (के वह अज़ रूए ग़ुरूर मुझे ब नज़रे हिक़ारत से देखें) ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और मुझे अपने फ़ैसलाए क़ज़ा व क़द्र पर शादमाँ रख और अपने मुक़द्देरात की पज़ीराई के लिये मेरे सीने में वुसअत पैदा कर दे और मेरे अन्दर वह रूहे एतमाद फूंक दे के मैं यह इक़रार करूं के तेरा फ़ैसला क़ज़ा व क़द्र , ख़ैर व बहबूदी के साथ नाफ़िज़ हुआ है और इन नेमतों पर अदाए शुक्र की बनिस्बत जो मुझे अता की हैं उन चीज़ों पर मेरे शुक्रिया को कामिल व फ़ज़ोंतर क़रार दे , जो मुझसे रोक ली हैं और मुझे उससे महफ़ूज़ रख के मैं किसी नादार को ज़िल्लत व हिक़ारत की नज़र से देखूं या किसी साहेबे सरवत के बारे में मैं (उसकी सरवत की बिना पर) फ़ज़ीलत व बरतरी का गुमान करूँ। इसलिये के साहबे शरफ़ व फ़ज़ीलत वह है जिसे तेरी इताअत ने शरफ़ बख़्शा हो और साहेबे इज़्ज़त वह है जिसे तेरी इबादत ने इज़्ज़त व सरबलन्दी दी हो।

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और हमें ऐसी सरवत व दौलत से बहराअन्दोज़ कर जो ख़त्म होने वाली नहीं और ऐसी इज़्ज़त व बुज़ुर्गी से हमारी ताईद फ़रमा जो ज़ाएल होने वाली नहीं और हमें मुल्के जावेदाँ की तरफ़ रवाँ दवाँ कर , बेशक तू यकता व यगाना और ऐसा बेनियाज़ है के न तेरी कोई औलाद है और न तू किसी की औलाद है और न तेरा कोई मिस्ल व हमसर है।

छत्तीसवीं दुआ

जब बादल और बिजली को देखते और रअद की आवाज़ सुनते तो यह दुआ पढ़ते

बारे इलाहा! यह (अब्र व बर्क़) तेरी निशानियों में से दो निशानियाँ और तेरी खि़दमतगुज़ारों में से दो खि़दमतगुज़ार हैं जो नफ़ारसाँ रहमत या ज़रर रसाँ उक़ूबत के साथ तेरे हुक्म की बजाआवरी के लिये रवाँ दवाँ हैं। तो अब इनके ज़रिये ऐसी बारिश न बरसा जो ज़रर व ज़ेयाँ का बाएस हो और न उनकी वजह से हमें बला व मुसीबत का लिबास पहना। ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और इन बादलों की मनफ़अत व बरकत हम पर नाज़िल कर और उनके ज़रर व आज़ार का रूख़ हमसे मोड़ दे और उनसे हमें कोई गज़न्द न पहुंचाना और न हमारे सामाने माशियत पर तबाही वारिद करना।

बारे इलाहा! अगर इन घटाओं को तूने बतौरे अज़ाब भेजा है और बसूरते ग़ज़ब रवाना किया है तो फिर हम तेरे ग़ज़ब से तेरे ही दामन में पनाह के ख़्वास्तगार हैं और अफ़ो व दरगुज़र के लिये तेरे सामने गिड़गिड़ाकर सवाल करते हैं। तू मुशरिकों की जानिब अपने ग़ज़ब का रूख़ मोड़ दे और काफ़िरों पर आसियाए अज़ाब को गर्दिश दे।

ऐ अल्लाह! हमारे शहरों की ख़ुश्कसाली को सेराबी के ज़रिये दूर कर दे और हमारे दिल के वसवसों को रिज़्क़ के वसीले से बरतरफ़ कर दे और अपनी बारगाह से हमारा रूख़ मोड़कर हमें दूसरों की तरफ़ मुतवज्जोह न फ़रमा और हम सबसे अपने एहसानात का सरचश्मा क़ता न कर। क्योंके बेनियाज़ वही है जिसे तू बेनियाज़ करे और सालिम व महफ़ूज़ वही है जिसकी तू निगेहदाश्त करे। इसलिये के तेरे अलावा किसी के पास (मुसीबतों का) दफ़िया और किसी के हाँ तेरी सुतूत व हैबत से बचाव का सामान नहीं है। तू जिसकी निस्बत जो चाहता है हुक्म फ़रमाता है और जिसके बारे में जो फ़ैसला करता है वह सादर कर देता है। तेरे ही लिये तमाम तारीफ़ें हैं के तूने हमें मुसीबतों से महफ़ूज़ रखा और तेरे ही लिये शुक्र है के तूने हमें नेमतें अता कीं। ऐसी हम्द जो तमाम हम्दगुज़ारों की हम्द को पीछे छोड़ दे। ऐसी हम्द जो ख़ुदा के आसमान व ज़मीन की फ़िज़ाओं को छलका दे। इसलिये के तू बड़ी से बड़ी नेमतों का अता करने वाला और बड़े से बड़े इनामात का बख़्शने वाला है मुख़्तसर सी हम्द को भी क़ुबूल करने वाला और थोड़े से शुक्रिये की भी क़दर करने वाला है और एहसान करने वाला और बहुत नेकी करने वाला और साहबे करम व बख़्शिश है। तेरे अलावा कोई माबूद नहीं है और तेरी ही तरफ़ (हमारी) बाज़गश्त है।

सैंतीसवीं दुआ

जब अदाए शुक्र में कोताही का एतराफ़ करते तो यह दुआ पढ़ते

बारे इलाहा! कोई शख़्स तेरे शुक्र की किसी मन्ज़िल तक नहीं पहुंचा मगर यह के तेरे इतने एहसानात मुजतमअ हो जाते हैं के वह इस पर मज़ीद शुक्रिया लाज़िम व वाजिब कर देते हैं और कोई शख़्स तेरी इताअत के किसी दरजे पर चाहे वह कितनी ही सरगर्मी दिखाए , नहीं पहुंच सकता और तेरे इस इस्तेहक़ाक़ के मुक़ाबले में जो बरबिनाए फ़ज़्ल व एहसान है , क़ासिर ही रहता है , जब यह सूरत है तो तेरे सबसे ज़्यादा शुक्रगुज़ार बन्दे भी अदाए शुक्र से आजिज़ और सबसे ज़्यादा इबादतगुज़ार भी दरमान्दा साबित होंगे। कोई इस्तेहक़ाक़ ही नहीं रखता के तू उसके इस्तेहक़ाक़ की बिना पर , बख़्श दे या उसके हक़ की वजह से उससे ख़ुश हो , जिसे तूने बख़्श दिया तो यह तेरा इनआम है , और जिससे तू राज़ी हो गया तो यह तेरा फ़ज़्ल है। जिस अमले क़लील को तू क़ुबूल फ़रमाता है उसकी जज़ा फ़रावां देता है और मुख़्तसर इबादत पर भी सवाब मरहमत फ़रमाता है यहां तक के गोया बन्दों का वह शुक्र बजा लाना जिसके मुक़ाबले में तूने अज्र व सवाब को ज़रूरी क़रार दिया और जिसके एवज़ उनको अज्र अज़ीम अता किया एक ऐसी बात थी के इस शुक्र से दस्ता बरदार होना उनके इख़्तियार में था तो इस लेहाज़ से तूने अज्र दिया (के उन्होंने बइख़्तेयार ख़ुद शुक्र अदा किया) या यह के अदाए शुक्र के असबाब तेरे क़बज़ए क़ुदरत में न थे (और उन्होंने ख़ुद असबाबे शुक्र मुहय्या किये) जिस पर तूने उन्हें जज़ा मरहमत फ़रमाई (ऐसा तो नहीं है) बल्के ऐ मेरे माबूद! तू उनके जुमला उमूर का मालिक था , क़ब्ल इसके के वह तेरी इबादत पर क़ादिर व तवाना हों और तूने उनके लिये अज्र व सवाब को मुहय्या कर दिया था क़ब्ल इसके के वह तेरी इताअत में दाखि़ल हों और यह इसलिये के तेरा तरीक़ाए इनआम व इकराम तेरी आदते तफ़ज़्ज़ुल व एहसान और तेरी रौशन अफ़ो व दरगुज़र है। चुनांचे तमाम कायनात उसकी मारेफ़त है के तू जिस पर अज़ाब करे उस पर कोई ज़ुल्म नहीं करता और गवाह है इस बात की के जिसको तू मुआफ़ कर दे उस पर तफ़ज़्ज़ुल व एहसान करता है। और हर षख़्स इक़रार करेगा , अपने नफ्स की कोताही का उस (इताअत) के बजा लाने में जिसका तू मुस्तहेक़ है। अगर शैतान उन्हें तेरी इबादत से न बहकाता तो फिर कोई शख़्स तेरी नाफ़रमानी न करता और अगर बातिल को हक़ के लिबास में उनके सामने पेश न करता तो तेरे रास्ते से कोई गुमराह न होता। पाक है तेरी ज़ात , तेरा लुत्फ़ व करम , फ़रमाबरदार हो या गुनहगार हर एक के मामले में किस क़द्र आशकारा है। यूं के इताअत गुज़ार को उस अमले ख़ैर पर जिस के असबाब तूने ख़ुद फ़राहम किये हैं जज़ा देता है और गुनहगार को फ़ौरी सज़ा देने का इख़्तेयार रखते हुए फिर मोहलत देता है। तूने फ़रमाबरदार व नाफ़रमान दोनों को वह चीज़ेंदी हैं जिनका उन्हें इस्तेहक़ाक़ न था। और इनमें से हर एक पर तूने वह फ़ज़्ल व एहसान किया है जिसके मुक़ाबले में उनका अमल बहुत कम था। और अगर तू इताअत गुज़ार को सिर्फ़ उन आमाल पर जिनका सरो सामान तूने मुहय्या किया है जज़ा देता तो क़रीब था के वह सवाब को अपने हाथ से खो देता और तेरी नेमतें उससे ज़ायल हो जातीं लेकिन तूने अपने जूद व करम से फ़ानी व कोताह मुद्दत के आमाल के एवज़ तूलानी व जावेदानी मुद्दत का अज्र्र व सवाब बख़्शा और क़लील व ज़वाल पज़ीद आमाल के मुक़ाबले में दाएमी व सरी जज़ा मरहमत फ़रमाई , फिर यह के तेरे ख़्वाने नेमत से जो रिज़्क़ खाकर उसने तेरी इताअत पर क़ूवत हासिल की उसका कोई एवज़ तूने नहीं चाहा और जिन आज़ा व जवारेह से काम लेकर तेरी मग़फ़ेरत तक राह पैदा की उसका सख़्ती से कोई मुहासेबा नहीं किया। और अगर तू ऐसा करता तो इसकी तमाम मेहनतों का हासिल और सब कोशिशों का नतीजा तेरी नेमतों और एहसानों में से एक अदना व मामूली क़िस्म की नेमत के मुक़ाबले में ख़त्म हो जाता और बक़िया नेमतों के लिये तेरी बारगाह में गिरवी होकर रह जाता (यानी उसके पास कुछ न होता के अपने को छुड़ाता) तो ऐसी सूरत में वह कहां तेरे किसी सवाब का मुस्तहेक़ हो सकता था ? नहीं! वह कब मुस्तहक़ हो सकता था।

ऐ मेरे माबूद! यह तो तेरी इताअत करने वाले का हाल और तेरी इबादत करने वाले की सरगुज़श्त है और वह जिसने तेरे एहकाम की खि़लाफ़वर्ज़ी की और तेरे मुनहेयात का मुरतकिब हुआ उसे भी सज़ा देने में तूने जल्दी नहीं की ताके वह मासियत व नाफ़रमानी की हालत को छोड़कर तेरी इताअत की तरफ़ रूजु हो सके। सच तो यह है के जब पहले पहल उसने तेरी नाफ़रमानी का क़स्द किया था जब ही वह हर उस सज़ा का जिसे तूने तमाम ख़ल्क़ के लिये मुहय्या किया है मुस्तहेक़ हो चुका था तो हर वह अज़ाब जिसे तूने उससे रोक लिया सज़ा व उक़ूबत का हर वह जुमला जो उससे ताख़ीर में डाल दिया , यह तेरा अपने हक़ से चश्मपोशी करना और इस्तेहक़ाक़ से कम पर राज़ी होना है।

ऐ मेरे माबूद! ऐसी हालत में तुझसे बढ़कर कौन करीम हो सकता है और उससे बढ़कर के जो तेरी मर्ज़ी के खि़लाफ़ तबाह व बरबाद हो कौन बदबख़्त हो सकता है ? नहीं! कौन है जो उससे ज़्यादा बदबख़्त हो। तू मुबारक है के तेरी तौसीफ़ लुत्फ़ व एहसान ही के साथ हो सकती है। और तू बुलन्दतर है इससे के तुझसे अद्ल व इन्साफ़ के खि़लाफ़ का अन्देशा हो जो शख़्स तेरी नाफ़रमानी करे तुझसे यह अन्देशा हो ही नहीं सकता के तू उस पर ज़ुल्म व जौर करेगा और न उस शख़्स के बारे में जो तेरी रिज़ा व ख़ुशनूदी को मलहूज़ रखे तुझसे हक़तलफ़ी का ख़ौफ़ हो सकता है , तू मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और मेरी आरज़ूओं को बर ला और मेरे लिये हिदायत और रहनुमाई में इतना इज़ाफ़ा फ़रमा के मैं अपने कामों में तौफ़ीक़ से हमकिनार हूँ इसलिये के तू नेमतों का बख़्शने वाला और लुत्फ़ व करम करने वाला है।

अढ़तीसवीं दुआ

बन्दों की हक़तलफ़ी और उनके हुक़ूक़ में कोताही से माज़ेरत तलबी और दोज़ख़ से गुलू ख़लासी के लिये यह दुआ पढ़ते

बारे इलाहा! मैं उस मज़लूम की निस्बत जिस पर मेरे सामने ज़ुल्म किया गया हो और मैंने उसकी मदद न की हो और मेरे साथ कोई नेकी की गई हो और मैंने उसका शुक्रिया अदा न किया हो और उस बदसुलूकी करने वाले की बाबत जिसने मुझसे माज़ेरत की हो और मैंने उसके उज़्र को न माना हो , और फ़ाक़ाकश के बारे में जिसने मुझसे मांगा हो और मैंने उसे तरजीह न दी हो और उस हक़दार मोमिन के हक़ के मुताल्लिक़ जो मेरे ज़िम्मे हो और मैंने अदा न किया हो और उस मर्दे मोमिन के बारे में जिसका कोई ऐब मुझ पर ज़ाहिर हुआ हो और मैंने उस पर पर्दा न डाला हो। और हर उस गुनाह से जिससे मुझे वास्ता पड़ा हो और मैंने उससे किनाराकशी न की हो , तुझसे उज़्रख़्वाह हूं।

बारे इलाहा! मैं उन तमाम बातों से और उन जैसी दूसरी बातों से शर्मसारी व निदामत के साथ ऐसी माज़ेरत करता हूं जो मेरे लिये उन जैसी पेश आईन्द चीज़ों के लिये पन्द व नसीहत करने वाली हो। तू मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और लग़्िज़शों से जिनसे मैं दो-चार हुआ हूं मेरी पशेमानी को और पेश आने वाली बुराईयों से दस्तबरदार होने के इरादे को ऐसी तौबा क़रार दे जो मेरे लिये तेरी मोहब्बत का बाएस हो। ऐ तौबा करने वालों को दोस्त रखने वाले।

उन्तालीसवीं दुआ

तलबे अफ़ो व रहमत के लिये यह दुआ पढ़ते

बारे इलाहा! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और हर अम्रे हराम से मेरी ख़्वाहिश (का ज़ोर) तोड़ दे और हर गुनाह से मेरी हिरस का रूख़ मोड़ दे और हर मोमिन और मोमिना , मुस्लिम और मुस्लिमा की ईज़ारसानी से मुझे बाज़ रख।

ऐ मेरे माबूद! जो बन्दा भी मेरे बारे में ऐसे अम्र का मुरतकिब हो जिसे तूने उस पर हराम किया था और मेरी इज़्ज़त पर हमलावर हुआ हो जिससे तूने उसे मना किया था। मेरा मज़लेमा लेकर दुनिया से उठ गया हो या हालते हयात में उसके ज़िम्मे बाक़ी हो तो उसने मुझ पर जो ज़ुल्म किया है उसे बख़्श दे और मेरा जो हक़ लेकर चला गया है , उसे माफ़ कर दे और मेरी निस्बत जिस अम्र का मुरतकिब हुआ है उस पर उसे सरज़न्श न कर और मुझे अर्ज़दह करने के बाएस उसे रूसवा न फ़रमा और जिस अफ़ो व दरगुज़र की मैंने उनके लिये कश की है और जिस करम व बख़्शिश को मैंने उनके लिये रवा रखा है उसे सदक़ा करने वालों के सदक़े से पाकीज़ातर और तक़र्रूब चाहने वालों के अतियों से बलन्दतर क़रार दे और इस अफ़ो व दरगुज़र के एवज़ तू मुझसे दरगुज़र कर और उनके लिये दुआ करने के सिले में मुझे अपनी रहमत से सरफ़राज़ फ़रमा ताके हम में से हर एक तेरे फ़ज़्ल व करम की बदौलत ख़ुश नसीब हो सके और तेरे लुत्फ़ व एहसान की वजह से नजात पा जाए।

ऐ अल्लाह! तेरे बन्दों में से जिस किसी को मुझसे कोई ज़रर पहुंचा हो या मेरी जानिब से कोई अज़ीयत पहुंची हो या मुझसे या मेरी वजह से उस पर ज़ुल्म हुआ हो इस तरह के मैंने उसके किसी हक़ को ज़ाया किया हो या उसके किसी मज़ालिमे की दादख़्वाही न की हो। तू मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और अपनी ग़िना व तवंगरी के ज़रिये उसे मुझसे राज़ी कर दे और अपने पास से उसका हक़ बे कम व कास्त अदा कर दे। फिर यह के उस चीज़ से जिसका तेरे हुक्म के तहत सज़ावार हूं , बचा ले और जो तेरे अद्ल का तक़ाज़ा है उससे निजात दे , इसलिये के मुझे तेरे अज़ाब के बरदाश्त करने की ताब नहीं और तेरी नाराज़गी के झेल ले जाने की हिम्मत नहीं। लेहाज़ा अगर तू मुझे हक़ व इन्साफ़ की रू से बदला देगा तो मुझे हलाक कर देगा। और अगर दामने रहमत में नहीं ढांपेगा तो मुझे तबाह कर देगा।

ऐ अल्लाह! ऐ मेरे माबूद! मैं तुझसे उस चीज़ का तालिब हूं जिसके अता करने से तेरे हाँ कुछ कमी नहीं होती और वह बार तुझ पर रखना चाहता हूँ जो तुझे गरांबार नहीं बनाता और तुझसे इस जान की भीक मांगता हूं जिसे तूने इसलिये पैदा नहीं किया के उसके ज़रिये ज़रर व ज़ेयां से तहफ़्फ़ुज़ करे या मुनफ़अत की राह निकाले बल्कि इसलिये पैदा किया ताके इस अम्र का सुबूत बहम पहुंचाए और इस बात पर दलील लाए के तू इस जैसी और इस तरह की मख़लूक़ पैदा करने पर क़ादिर व तवाना है और तुझसे इस अम्र का ख़्वास्तगार हूं के मुझे उन गुनाहों से सुबकबार कर दे जिनका बार मुझे हलकान किये हुए है और तुझसे मदद मांगता हूं उस चीज़ की निस्बत जिसकी गरांबारी ने मुझे आजिज़ कर दिया है। तू मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और मेरे नफ़्स को बावजूद यह के उसने ख़ुद अपने ऊपर ज़ुल्म किया है , बख़्श दे और अपनी रहमत को मेरे गुनाहों का बारे गराँ उठाने पर मामूर कर इसलिये के कितनी ही मरतबा तेरी रहमत गुनहगारों के हमकिनार और तेरा अफ़ो व करम ज़ालिमों के शामिले हाल रहा है। तू मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और मुझे उन लोगों के लिये नमूना बना जिन्हें तूने अपने अफ़ो के ज़रिये ख़ताकारों के गिरने के मक़ामात से ऊपर उठा लिया। और जिन्हें तूने अपनी तौफ़ीक़ से गुनहगारों के मोहलकों से बचा लिया तो वह तेरे अफ़ो व बख़्शिश के वसीले से तेरी नाराज़गी के बन्धनों से छूट गए और तेरे एहसान की बदौलत अद्ल की लग़्िज़शों से आज़ाद हो गए।

ऐ मेरे अल्लाह! अगर तू मुझे माफ़ कर दे तो तेरा यह सुलूक उसके साथ होगा जो सज़ावारे उक़ूबत होने से इन्कारी नहीं है और न मुस्तहेक़े सज़ा होने से अपने को बरी समझता है। यह तेरा बरताव उसके साथ होगा ऐ मेरे माबूद। जिसका ख़ौफ़ उम्मीदे अफ़ो से बढ़ा हुआ है और जिसकी निजात से नाउम्मीदी , रेहाई की तवक़्क़ो से क़वीतर है। यह इसलिये नही ंके उसकी ना उम्मीदी रहमत से मायूसी हो या यह के उसकी उम्मीद फ़रेबख़ोरदगी का नतीजा हो बल्कि इसलिये के उसकी बुराइयां नेकियों के मुक़ाबले में कम और गुनाहों के तमाम मवारिद में उज़्र ख़्वाही के वजूह कमज़ोर हैं। लेकिन ऐ मेरे माबूद! तू इसका सज़ावार है के रास्तबाज़ लोग भी तेरी रहमत पर मग़रूर होकर फ़रेब न खाएं और गुनहगार भी तुझसे नाउम्मीद न हों। इसलिये के तू वह रब्बे अज़ीम है के किसी पर फ़ज़्ल व एहसान से दरीख़ नहीं करता और किसी से अपना हक़ पूरा पूरा वसूल करने के दरपै नहीं होता। तेरा ज़िक्र तमाम नाम आवरों (के ज़िक्र) से बलन्दतर है और तेरे असमाअ इससे के दूसरे हसब व नसब वाले उनसे मौसूम हों मुनज़्जह हैं। तेरी नेमतें तमाम कायनात में फैली हुई हैं। लेहाज़ा इस सिलसिले में तेरे ही लिये हम्द व सताइश है। ऐ तमाम जहान के परवरदिगार।

चालीसवीं दुआ

जब किसी की ख़बरे मर्ग सुनते या मौत को याद करते तो यह दुआ पढ़ते

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और हमें तूल तवील उम्मीदों से बचाए रख और पुरख़ुलूस आमाल के बजा लाने से दामने उम्मीद को कोताह कर दे ताके हम एक घड़ी के बाद दूसरी घड़ी के तमाम करने , एक दिन के बाद दूसरे दिन के गुज़ारने , एक सांस के बाद दूसरी सांस के आने और एक क़दम के बाद दूसरे क़दम के उठने की आस न रखें। हमें फ़रेब आरज़ू और फ़ित्नाए उम्मीद से महफ़ूज़ व मामून रख। और मौत को हमारा नसबलऐन क़रार दे और किसी दिन भी हमें उसकी याद से ख़ाली न रहने दे और नेक आमाल में से हमें ऐसे अमले ख़ैर की तौफ़ीक़ दे जिसके होते हुए हम तेरी जानिब बाज़गश्त में देरी महसूस करें और जल्द से जल्द तेरी बारगाह में हाज़िर होने के आरज़ू मन्द हों। इस हद तक के मौत हमारे उन्स की मन्ज़िल हो जाए जिससे हम जी लगाएं और उलफ़त की जगह बन जाए जिसके हम मुश्ताक़ हों और ऐसी अज़ीज़ हो जिसके क़रीब को हम पसन्द करें। जब तू उसे हम पर वारिद करे और हम पर ला उतारे तो उसकी मुलाक़ात के ज़रिये हमें सआदतमन्द बनाना और जब वह आए तो हमें उससे मानूस करना और उसकी मेहरबानी से हमें बदबख़्त न क़रार देना और न उसकी मुलाक़ात से हमको रूसवा करना और उसे अपनी मग़फ़ेरत के दरवाज़ों में से एक दरवाज़े और रहमत की कुन्जियों में से एक कलीद क़रार देना और हमें इस हालत में मौत आए के हम हिदायतयाफ़्ता हों गुमराह न हों। फ़रमाबरदार हों और (मौत से) नफ़रत करने वाले न हों , तौबागुज़ार हों ख़ताकार और गुनाह पर इसरार करने वाले न हों। ऐ नेकोकारों के अज्र व सवाब का ज़िम्मा लेने वाले और बदकिरदारों के अमल व किरदार की इस्लाह करने वाले।

इकतालीसवीं दुआ

पर्दापोशी और हिफ़्ज़ व निगेहदाश्त के लिये यह दुआ पढ़ते

बारे इलाहा रहमत नाज़िल फ़रमा मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर और मेरे लिये एज़ाज़ व इकराम की मसनद बिछा दे , मुझे रहमत के सरचश्मों पर उतार दे , वुसते बेहिश्त में जगह दे और अपने हाँ से नाकाम पलटाकर रन्जीदा न कर और अपनी रहमत से नाउम्मीद करके हरमाँ नसीब न बना दे। मेरे गुनाहों का क़सास न ले और मेरे कामों का सख़्ती से मुहासेबा न कर। मेरे छुपे हुए राज़ों को ज़ाहिर न फ़रमा और मेरे मख़फ़ी हालात पर से पर्दा न उठा और मेरे आमाल को अद्ल व इन्साफ़ के तराज़ू पर न तौल और अशराफ़ की नज़रों के सामने मेरी बातेनी हालत को आशकार न कर। जिसका ज़ाहिर होना मेरे लिये बाएसे नंग व आर हो वह उनसे छिपाए रख और तेरे हुज़ूर जो चीज़ ज़िल्लत व रूसवाई का बाएस हो वह उनसे पोशीदा रहने दे। अपनी रज़ामन्दी के ज़रिेये मेरे दर्जे को बलन्द और अपनी बख़्शिश के वसीले से मेरी बन्दगी व करामत की तकमील फ़रमा और उन लोगों के गिरोह में मुझे दाखि़ल कर जो दाएँ हाथ से नामाए आमाल लेने वाले हैं और उन लोगों की राह पर ले चल जो (दुनिया व आख़ेरत में) अम्न व आफ़ियत से हमकिनार हैं और मुझे कामयाब लोगों के ज़मरह में क़रार दे और नेकोकारों की महफ़िलों को मेरी वजह से आबाद व पुर रौनक़ बना। मेरी दुआ को क़ुबूल फ़रमा ऐ तमाम जहानों के परवरदिगार।

बयालीसवीं दुआ

दुआए ख़त्मुल क़ुरान

बारे इलाहा! तूने अपनी किताब के ख़त्म करने पर मेरी मदद फ़रमाई। वह किताब जिसे तूने नूर बनाकर उतारा और तमाम किताबे समाविया पर उसे गवाह बनाया और हर उस कलाम पर जिसे तूने बयान फ़रमाया उसे फ़ौक़ीयत बख़्शी और (हक़ व बातिल में) हद्दे फ़ासिल क़रार दिया जिसके ज़रिये हलाल व हराम अलग-अलग कर दिया। वह क़ुरान जिसके ज़रिये शरीयत के एहकाम वाज़ेह किये वह किताब जिसे तूने अपने बन्दों के लिये शरह व तफ़सील से बयान किया और वह वही (आसमानी) जिसे अपने पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे वालेहीवसल्लम पर नाज़िल फ़रमाया जिसे वह नूर बनाया जिसकी पैरवी से हम गुमराही व जेहालत की तारीकियों हिदायत हासिल करते हैं और उस शख़्स के लिये शिफ़ा क़रार दिया जो उस पर एतबार रखते हुए उसे समझना चाहते हैं और ख़ामोशी के साथ उसे सुने और वह अद्ल व इन्साफ़ का तराज़ू बनाया जिसका कांटा हक़ से इधर-उधर नहीं होता और वह नूरे हिदायत क़रार दिया जिसकी दलील व बुरहान की रोषनी (तौहीद व नबूवत की) गवाही देने वालों के लिये बुझती नहीं और वह निजात का निशान बनाया के जो उसके सीधे तरीक़े पर चलने का इरादा करे वह गुमराह नहीं होता और जो उसकी दीसमान के बन्धन से वाबस्ता हो वह (ख़ौफ़ व फ़क्र व अज़ाब की) हलाकतों की दस्तरसी से बाहर हो जाता है। बारे इलाहा! जबके तूने उसकी तिलावत के सिलसिले में हमें मदद पहुंचाई और उसके हुस्ने अदायगी के लिये हमारी ज़बान की गिरहें खोल दीं तो फिर हमें उन लोगों में से क़रार दे जो उसकी पूरी तरह हिफ़ाज़त व निगेहदाश्त करते हों और उसकी मोहकम आयतों के एतराफ़ व तस्लीम की पुख़्तगी के साथ तेरी इताअत करते हों और मुतशाबेह आयतों और रोशन व वाज़ेह दलीलों के इक़रार के साये में पनाह लेते हों।

ऐ अल्लाह! तूने उसे अपने पैग़म्बर मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैह वआलेही वसल्लम पर इजमाल के तौर पर उतारा और उसके अजाएब व इसरार का पूरा-पूरा आलम उन्हें अलक़ा किया और उसके इल्मे तफ़सीली का हमें वारिस क़रार दिया , और जो इसका इल्म नहीं रखते उन पर हमें फ़ज़ीलत दी। और उसके मुक़तज़ीयात पर अमल करने की क़ूवत बख़्शी ताके जो उसके हक़ाएक़ के मुतहम्मिल नहीं हो सकते उन पर हमारी फ़ौक़ीयत व बरतरी साबित कर दे।

ऐ अल्लाह! जिस तरह तूने हमारे दिलों को क़ुरान का हामिल बनाया और अपनी रहमत से उसके फ़ज़्ल व शरफ़ से आगाह किया यूँ ही मोहम्मद (स 0) पर जो क़ुरान के ख़ुत्बा ख़्वाँ , और उनकी आल (अ 0) पर जो क़ुरान के ख़ज़ीनेदार हैं रहमत नाज़िल फ़रमा और हमें उन लोगों में से क़रार दे जो यह इक़रार करते हैं के यह तेरी जानिब से है ताके इसकी तस्दीक़ में हमें शक व शुबह लाहक़ न हो और उसके सीधे रास्ते से रूगर्दानी का ख़याल भी न आने पाए।

ऐ अल्लाह। मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और हमें उन लोगों में से क़रार दे जो उसकी रीसमान से वाबस्ता उमूर में उसकी मोहकम पनाहगाह का सहारा लेते और उसके परों के ज़ेरे साया मन्ज़िल करते , इसकी सुबह दरख़्शां की रोशनी से हिदायत पाते और उसके नूर की दरख़्शन्दगी पैरवी करते और उसके चिराग़ से चिराग़ जलाते हैं और उसके अलावा किसी से हिदायत के तालिब नहीं होते।

बारे इलाहा! जिस तरह तूने इस क़ुरान के ज़रिये मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैह वआलेही वसल्लम को अपनी रहनुमाई का निशान बनाया है और उनकी आल (अ 0) के ज़रिये अपनी रज़ा व ख़ुशनूदी की राहें आशकार की हैं यूंही मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और हमारे लिये क़ुरान को इज़्ज़त व बुज़ुर्गी की बलन्दपाया मन्ज़िलों तक पहुंचने का वसीला और सलामती के मक़ाम तक बलन्द होने का ज़ीना और मैदाने हश्र में निजात को जज़ा में पाने का सबब और महल्ले क़याम (जन्नत) की नेमतों तक पहुंचने का ज़रिया क़रार दे।

ऐ अल्लाह। मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और क़ुरान के ज़रिये गुनाहों का भारी बोझ हमारे सर से उतार दे और नेकोकारों के अच्छे ख़साएल व आदात हमें मरहमत फ़रमा और उन लोगों के नक़्शे क़दम पर चला जो तेरे लिये रात के लम्हों और सुबह व शाम (की साअतों) में उसे अपना दस्तूरूल अमल बनाते हैं ताके उसकी ततहीर के वसीले से तू हमें हर आलूदगी से पाक कर दे और इन लोगों के नक़्शे क़दम पर चलाए , जिन्होंने उसके नूर से रोशनी हासिल की है। और उम्मीदों ने उन्हें अमल से ग़ाफ़िल नहीं होने दिया के उन्हें अपने क़रीब की नैरंगियों से तबाह कर दें।

ऐ अल्लाह। मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और क़ुरान को रात की तारीकियों में हमारा मोनिस और शैतान के मफ़सनदों और दिल में गुज़रने वाले वसवसों से निगेहबानी करने और हमारे क़दमों को नाफ़रमानियों की तरफ़ बढ़ने से रोक देने वाला और हमारी ज़बानों को बातिल पैमाइयों से बग़ैर किसी मर्ज़ के गंग कर देने वाला और हमारे आज़ा को इरतेकाब गुनाह से बाज़ रखने वाला और हमारी ग़फ़लत व मदहोशी ने जिस दफ़्तरे इबरत व पन्द अन्दोज़ी को तह कर रखा है , उसे फैलाने वाला क़रार दे ताके उसके अजाएब व रमूज़ की हक़ीक़तों और उसकी मुतनब्बेह करने वाली मिसालों को के जिन्हें उठाने से पहाड़ अपने इस्तेहकाम के बावजूद आजिज़ आ चुके हैं हमारे दिलों में उतार दे।

ऐ अल्लाह। मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और क़ुरान के ज़रिये हमारे ज़ाहिर को हमेशा सलाह व रशद से आरास्ता रख और हमारे ज़मीर की फ़ितरी सलामती से ग़लत तसव्वुरात की दख़ल दरान्दाज़ी को रोक दे और हमारे दिलों की कसाफ़तों और गुनाहों की आलूदगियों को धो दे और उसके ज़रिये हमारे परागन्दा उमूर की शीराज़ा बन्दी कर और मैदाने हश्र में हमारी झुलसती हुई दोपहरों की तपिश व तशनगी बुझा दे और सख़्त ख़ौफ़ व हेरास के दिन जब क़ब्रों से उठें तो हमें अम्न व आफ़ियत के जामे पहना दे।

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और क़ुरान के ज़रिये फ़क्ऱो एहतियाज की वजह से हमारी ख़स्तगी व बदहाली का तदारूक फ़रमा और ज़िन्दगी की कशाइश और फ़राख़ रोज़ी की आसूदगी का रूख़ हमारे जानिब फेर दे और बुरी आदात और पस्त इख़लाक़ से हमें दूर कर दे और कुफ्ऱ के गढ़े (में गिरने) और निफ़ाक़ अंगेज़ चीज़ों से बचा ले ताके वह हमें क़यामत में तेरी ख़ुशनूदी व जन्नत की तरफ़ बढ़ाने वाला और दुनिया में तेरी नाराज़गी और हुदूद शिकनी से रोकने वाला हो और इस अम्र पर गवाह हो के जो चीज़ तेरे नज़दीक हलाल थी उसे हलाल जाना और जो हराम थी उसे हराम समझा।

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और क़ुरान के वसीले से मौत के हंगामे नज़अ की अज़ीयतों , कराहने की सख़्तियों और जाँकनी की लगातार हिचकियों को हम पर आसान फ़रमा जबके जान गले तक पहुंच जाए और कहा जाए के कोई झाड़ फूंक करने वाला है (जो कुछ तदारूक करे) और मलकुल मौत ग़ैब के पर्दे चीर कर क़ब्ज़े रूह के लिये सामने आए और मौत की कमान में फ़िराक़ की दहशत के तीर जोड़कर अपने निशाने की ज़द पर रख ले और मौत के ज़हरीले जाम में ज़हरे हलाहल घोल दे और आख़ेरत की तरफ़ हमारा चल-चलाव और कूच क़रीब हो और हमारे आमाल हमारी गर्दन का तौक़ बन जाएं और क़ब्रें रोज़े हष्र की साअत तक आरामगाह क़रार पाएं।

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और कहन्गी व बोसीदगी के घर में उतरने और मिट्टी की तहों में मुद्दत तक पड़े रहने को हमारे लिये मुबारक करना और दुनिया से मुंह मोड़ने के बाद क़ब्रों को हमारा अच्छा घर बनाना और अपनी रहमत से हमारे लिये गौर की तंगी को कुशादा कर देना और हश्र के आम इज्तेमाअ के सामने हमारे मोहलक गुनाहों की वजह से हमें रूसवा न करना और आमाल के पेश होने के मक़ाम पर हमारी ज़िल्लत व ख़्वारी की वज़ा पर रहम फ़रमाना और जिस दिन जहन्नम के पुल पर से गुज़रना होगा , तो उसके लड़खड़ाने के वक़्त हमारे डगमगाते हुए क़दमों को जमा देना और क़यामत के दिन हमें उसके ज़रिये हर अन्दोह और रोज़े हश्र की सख़्त हौलनाकियों से निजात देना और जब के हसरत व निदामत के दिन ज़ालिमों के चेहरे सियाह होंगे हमारे चेहरों को नूरानी करना और मोमेनीन के दिलों में हमारी मोहब्बत पैदा कर दे और ज़िन्दगी को हमारे लिये दुश्वारगुज़ार न बना।

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) जो तेरे ख़ास बन्दे और रसूल (स 0) हैं उन पर रहमत नाज़िल फ़रमा जिस तरह उन्होंने तेरा पैग़ाम पहुंचाया , तेरी शरीयत को वाज़ेह तौर से पेश किया और तेरे बन्दों को पन्द व नसीहत की। ऐ अल्लाह! हमारे नबी सल्लल्लाहो अलैह व आलेही वसल्लम को क़यामत के दिन तमाम नबियों से मन्ज़िलत के लेहाज़ से मुक़र्रबतर शिफ़ाअत के लेहाज़ से बरतर , क़द्र व मन्ज़िलत के लेहाज़ से बुज़ुर्गतर और जाह व मरतबत के एतबार से मुमताज़तर क़रार दे।

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और उनके ऐवान (अज़्ज़ व शरफ़) को बलन्द , उनकी दलील व बुरहान को अज़ीम और उनके मीज़ान (अमल के पल्ले) को भारी कर दे। उनकी शिफ़ाअत को क़ुबूल फ़रमा और उनकी मन्ज़िलत को अपने से क़रीब कर , उनके चेहरे को रौशन , उनके नूर को कामिल और उनके दरजे को बलन्द फ़रमा। और हमें उन्हीं के आईन पर ज़िन्दा रख और उन्हीं के दीन पर मौत दे और उन्हीं की षाहेराह पर गामज़न कर और उन्हीं के रास्ते पर चला और हमें उनके फ़रमाबरदारों में से क़रार दे और उनकी जमाअत में महशूर कर और उनके हौज़ पर उतार और उनके साग़र से सेराब फ़रमा।

ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर ऐसी रहमत नाज़िल फ़रमा जिसके ज़रिये उन्हें बेहतरीन नेकी , फ़ज़्ल और इज़्ज़त तक पहुंचा दे जिसके वह उम्मीदवार हैं। इसलिये के तू वसीअ रहमत और अज़ीम फ़ज़्ल व एहसान का मालिक है। ऐ अल्लाह! उन्होंने जो तेरे पैग़ामात की तबलीग़ की , तेरी आयतों को पहुचाया , तेरे बन्दों को पन्द व नसीहत की और तेरी राह में जेहाद किया। इन सबकी उन्हें जज़ा दे जो हर उस जज़ा से बेहतर हो जो तूने मुक़र्रब फ़रिश्तों और बरगुज़ीदा मुरसल नबीयों को अता की हो। उन पर और उनकी पाक व पाकीज़ा आल (अ 0) पर सलाम हो और अल्लाह तआला की रहमतें और बरकतें उनके शामिले हाल हों।

तेंतालीसवीं दुआ

दुआए रोयते हेलाल (चाँद देखना)

ऐ फ़रमाबरदार , सरगर्मे अमल और तेज़ रौ मख़लूक़ और मुक़रर्रा मन्ज़िलों में यके बाद दीगरे वारिद होने और फ़लक नज़्म व तदबीरें तसरूफ़ करने वाले मैं उस ज़ात पर ईमान लाया जिसने तेरे ज़रिये तारीकियों को रौषन और ढकी छिपी चीज़ों को आशकार किया और तुझे अपनी शाही व फ़रमानरवाई की निशानियों में से एक निशानी और अपने ग़लबे व इक़्तेदार की अलामतों में से एक अलामत क़रार दिया और तुझे बढ़ने , घटने , निकलने , छिपने और चमकने गहनाने से तसख़ीर किया। इन तमाम हालात में तू उसके ज़ेरे फ़रमान और उसके इरादे की जानिब रवां दवां है। तेरे बारे में उसकी तदबीर व कारसाज़ी कितनी अजीब और तेरी निस्बत उसकी सनाई कितनी लतीफ़ है , तुझे पेश आईन्द हालात के लिये नये महीने की कलीद क़रार दिया। तो अब मैं अल्लाह तआला से जो मेरा परवरदिगार , मेरा ख़ालिक़ और तेरा ख़ालिक़ मेरा नक़्श आरा और तेरा नक़्श आरा और मेरा सूरतगर और तेरा सूरत गर है सवाल करता हूं के वह रहमत नाज़िल करे मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर और तुझे ऐसी बरकत वाला चान्द क़रार दे , जिसे दिनों की गर्दिशें ज़ाएल न कर सकें और ऐसी पाकीज़गी वाला जिसे गुनाह की कशाफ़तें आलूदा न कर सकें। ऐसा चान्द जो आफ़तों से बरी और बुराइयों से महफ़ूज़ हो। सरासर यमन व सआदत का चान्द जिस में ज़रा नहूसत न हो और सरापा ख़ैर व बरकत का चान्द जिसे तंगी व उसरत से कोई लगाव न हो और ऐसी आसानी व कशाइश का जिस में दुश्वारी की आमेज़िश न हो और ऐसी भलाई का जिसमें बुराई का शाएबा न हो। ग़रज़ सर ता पा अम्न , ईमान , नेमत , हुस्ने अमल , सलामती और इताअत व फ़रमा बरदारी का चान्द हो , ऐ अल्लाह! मोहम्मद (स 0) और उनकी आल (अ 0) पर रहमत नाज़िल फ़रमा और जिन जिन पर यह अपना परतो डालें उनसे बढ़कर हमें ख़ुशनूद और जो जो उसे देखे उन सबसे ज़्यादा दुरूस्तकार और जो जो जो इस महीने में तेरी इबादत करे उन सबसे ज़्यादा ख़ुशनसीब क़रार दे। और हमें इसमें तौबा की तौफ़ीक़ दे और गुनाहों से दूर और मासियत के इरतेकाब से महफ़ूज़ रखे और हमारे दिल में अपनी नेमतों पर अदाए शुक्र का वलवला पैदा कर और हमें अम्न व आफ़ियत की सिपर में ढांप ले और इस तरह हम पर अपनी नेमत को तमाम करके तेरी फ़राएज़े इताअत को पूरे तौर से अन्जाम दें। बेशक तू नेमतों का बख़्शने वाला और क़ाबिले सताइश है। रहमते फ़रावां नाज़िल करे अल्लाह मोहम्मद (स 0) और उनकी पाक व पाकीज़ा आल (अ 0)पर।